०४

[चतुर्थोऽध्यायः]

भागसूचना

कंसके हाथसे छूटकर योगमायाका आकाशमें जाकर भविष्यवाणी करना

श्लोक-१

मूलम् (वचनम्)

श्रीशुक उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

बहि रन्तःपुरद्वारः सर्वाः पूर्ववदावृताः।
ततो बालध्वनिं श्रुत्वा गृहपालाः समुत्थिताः॥

मूलम्

बहि रन्तःपुरद्वारः सर्वाः पूर्ववदावृताः।
ततो बालध्वनिं श्रुत्वा गृहपालाः समुत्थिताः॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! जब वसुदेवजी लौट आये, तब नगरके बाहरी और भीतरी सब दरवाजे अपने-आप ही पहलेकी तरह बंद हो गये। इसके बाद नवजात शिशुके रोनेकी ध्वनि सुनकर द्वारपालोंकी नींद टूटी॥ १॥

श्लोक-२

विश्वास-प्रस्तुतिः

ते तु तूर्णमुपव्रज्य देवक्या गर्भजन्म तत्।
आचख्युर्भोजराजाय यदुद्विग्नः प्रतीक्षते॥

मूलम्

ते तु तूर्णमुपव्रज्य देवक्या गर्भजन्म तत्।
आचख्युर्भोजराजाय यदुद्विग्नः प्रतीक्षते॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे तुरन्त भोजराज कंसके पास गये और देवकीको सन्तान होनेकी बात कही। कंस तो बड़ी आकुलता और घबराहटके साथ इसी बातकी प्रतीक्षा कर रहा था॥ २॥

श्लोक-३

विश्वास-प्रस्तुतिः

स तल्पात् तूर्णमुत्थाय कालोऽयमिति विह्वलः।
सूतीगृहमगात् तूर्णं प्रस्खलन् मुक्तमूर्धजः॥

मूलम्

स तल्पात् तूर्णमुत्थाय कालोऽयमिति विह्वलः।
सूतीगृहमगात् तूर्णं प्रस्खलन् मुक्तमूर्धजः॥

अनुवाद (हिन्दी)

द्वारपालोंकी बात सुनते ही वह झटपट पलँगसे उठ खड़ा हुआ और बड़ी शीघ्रतासे सूतिकागृहकी ओर झपटा। इस बार तो मेरे कालका ही जन्म हुआ है, यह सोचकर वह विह्वल हो रहा था और यही कारण है कि उसे इस बातका भी ध्यान न रहा कि उसके बाल बिखरे हुए हैं। रास्तेमें कई जगह वह लड़खड़ाकर गिरते-गिरते बचा॥ ३॥

श्लोक-४

विश्वास-प्रस्तुतिः

तमाह भ्रातरं देवी कृपणा करुणं सती।
स्नुषेयं तव कल्याण स्त्रियं माँ हन्तुमर्हसि॥

मूलम्

तमाह भ्रातरं देवी कृपणा करुणं सती।
स्नुषेयं तव कल्याण स्त्रियं माँ हन्तुमर्हसि॥

अनुवाद (हिन्दी)

बंदीगृहमें पहुँचनेपर सती देवकीने बड़े दुःख और करुणाके साथ अपने भाई कंससे कहा—‘मेरे हितैषी भाई! यह कन्या तो तुम्हारी पुत्रवधूके समान है। स्त्री जातिकी है; तुम्हें स्त्रीकी हत्या कदापि नहीं करनी चाहिये॥ ४॥

श्लोक-५

विश्वास-प्रस्तुतिः

बहवो हिंसिता भ्रातः शिशवः पावकोपमाः।
त्वया दैवनिसृष्टेन पुत्रिकैका प्रदीयताम्॥

मूलम्

बहवो हिंसिता भ्रातः शिशवः पावकोपमाः।
त्वया दैवनिसृष्टेन पुत्रिकैका प्रदीयताम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

भैया! तुमने दैववश मेरे बहुत-से अग्निके समान तेजस्वी बालक मार डाले। अब केवल यही एक कन्या बची है, इसे तो मुझे दे दो॥ ५॥

श्लोक-६

विश्वास-प्रस्तुतिः

नन्वहं ते ह्यवरजा दीना हतसुता प्रभो।
दातुमर्हसि मन्दाया अङ्गेमां चरमां प्रजाम्॥

मूलम्

नन्वहं ते ह्यवरजा दीना हतसुता प्रभो।
दातुमर्हसि मन्दाया अङ्गेमां चरमां प्रजाम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

अवश्य ही मैं तुम्हारी छोटी बहिन हूँ। मेरे बहुत-से बच्चे मर गये हैं, इसलिये मैं अत्यन्त दीन हूँ। मेरे प्यारे और समर्थ भाई! तुम मुझ मन्दभागिनीको यह अन्तिम सन्तान अवश्य दे दो’॥ ६॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

॥ १-६ ।।

श्लोक-७

मूलम् (वचनम्)

श्रीशुक उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

उपगुह्यात्मजामेवं रुदत्या दीनदीनवत्।
याचितस्तां विनिर्भर्त्स्य हस्तादाचिच्छिदे खलः॥

मूलम्

उपगुह्यात्मजामेवं रुदत्या दीनदीनवत्।
याचितस्तां विनिर्भर्त्स्य हस्तादाचिच्छिदे खलः॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! कन्याको अपनी गोदमें छिपाकर देवकीजीने अत्यन्त दीनताके साथ रोते-रोते याचना की। परन्तु कंस बड़ा दुष्ट था। उसने देवकीजीको झिड़ककर उनके हाथसे वह कन्या छीन ली॥ ७॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

आचिच्छिदे हृतवान् ॥ ७ ॥

श्लोक-८

विश्वास-प्रस्तुतिः

तां गृहीत्वा चरणयोर्जातमात्रां स्वसुः सुताम्।
अपोथयच्छिलापृष्ठे स्वार्थोन्मूलितसौहृदः॥

मूलम्

तां गृहीत्वा चरणयोर्जातमात्रां स्वसुः सुताम्।
अपोथयच्छिलापृष्ठे स्वार्थोन्मूलितसौहृदः॥

अनुवाद (हिन्दी)

अपनी उस नन्हीं-सी नवजात भानजीके पैर पकड़कर कंसने उसे बड़े जोरसे एक चट्टानपर दे मारा। स्वार्थने उसके हृदयसे सौहार्दको समूल उखाड़ फेंका था॥ ८॥

श्लोक-९

विश्वास-प्रस्तुतिः

सा तद्धस्तात् समुत्पत्य सद्यो देव्यम्बरं गता।
अदृश्यतानुजा विष्णोः सायुधाष्टमहाभुजा॥

मूलम्

सा तद्धस्तात् समुत्पत्य सद्यो देव्यम्बरं गता।
अदृश्यतानुजा विष्णोः सायुधाष्टमहाभुजा॥

अनुवाद (हिन्दी)

परन्तु श्रीकृष्णकी वह छोटी बहिन साधारण कन्या तो थी नहीं, देवी थी; उसके हाथसे छूटकर तुरन्त आकाशमें चली गयी और अपने बड़े-बड़े आठ हाथोंमें आयुध लिये हुए दीख पड़ी॥ ९॥

श्लोक-१०

विश्वास-प्रस्तुतिः

दिव्यस्रगम्बरालेपरत्नाभरणभूषिता।
धनुःशूलेषुचर्मासिशङ्खचक्रगदाधरा॥

मूलम्

दिव्यस्रगम्बरालेपरत्नाभरणभूषिता।
धनुःशूलेषुचर्मासिशङ्खचक्रगदाधरा॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह दिव्य माला, वस्त्र, चन्दन और मणिमय आभूषणोंसे विभूषित थी। उसके हाथोंमें धनुष, त्रिशूल, बाण, ढाल, तलवार, शंख, चक्र और गदा—ये आठ आयुध थे॥ १०॥

श्लोक-११

विश्वास-प्रस्तुतिः

सिद्धचारणगन्धर्वैरप्सरःकिन्नरोरगैः।
उपाहृतोरुबलिभिः स्तूयमानेदमब्रवीत्॥

मूलम्

सिद्धचारणगन्धर्वैरप्सरःकिन्नरोरगैः।
उपाहृतोरुबलिभिः स्तूयमानेदमब्रवीत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

सिद्ध, चारण, गन्धर्व, अप्सरा, किन्नर और नागगण बहुत-सी भेंटकी सामग्री समर्पित करके उसकी स्तुति कर रहे थे । उस समय देवीने कंससे यह कहा—॥ ११॥

श्लोक-१२

विश्वास-प्रस्तुतिः

किं मया हतया मन्द जातः खलु तवान्तकृत्।
यत्र क्व वा पूर्वशत्रुर्मा हिंसीः कृपणान् वृथा॥

मूलम्

किं मया हतया मन्द जातः खलु तवान्तकृत्।
यत्र क्व वा पूर्वशत्रुर्मा हिंसीः कृपणान् वृथा॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘रे मूर्ख! मुझे मारनेसे तुझे क्या मिलेगा? तेरे पूर्वजन्मका शत्रु तुझे मारनेके लिये किसी स्थानपर पैदा हो चुका है। अब तू व्यर्थ निर्दोष बालकोंकी हत्या न किया कर’॥ १२॥

श्लोक-१३

विश्वास-प्रस्तुतिः

इति प्रभाष्य तं देवी माया भगवती भुवि।
बहुनामनिकेतेषु बहुनामा बभूव ह॥

मूलम्

इति प्रभाष्य तं देवी माया भगवती भुवि।
बहुनामनिकेतेषु बहुनामा बभूव ह॥

अनुवाद (हिन्दी)

कंससे इस प्रकार कहकर भगवती योगमाया वहाँसे अन्तर्धान हो गयीं और पृथ्वीके अनेक स्थानोंमें विभिन्न नामोंसे प्रसिद्ध हुईं॥ १३॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

अपोथयत् अताडयत् स्वार्थोन्मीलितसौहृदः स्वप्रयोजनार्थं त्यक्तस्नेहः ॥ ८-१३ ।।

श्लोक-१४

विश्वास-प्रस्तुतिः

तयाभिहितमाकर्ण्य कंसः परमविस्मितः।
देवकीं वसुदेवं च विमुच्य प्रश्रितोऽब्रवीत्॥

मूलम्

तयाभिहितमाकर्ण्य कंसः परमविस्मितः।
देवकीं वसुदेवं च विमुच्य प्रश्रितोऽब्रवीत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवीकी यह बात सुनकर कंसको असीम आश्चर्य हुआ। उसने उसी समय देवकी और वसुदेवको कैदसे छोड़ दिया और बड़ी नम्रतासे उनसे कहा—॥ १४॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

बहुनामनिकेतेषु नानासञ्ज्ञेषु ॥ १४ ॥

श्लोक-१५

विश्वास-प्रस्तुतिः

अहो भगिन्यहो भाम मया वां बत पाप्मना।
पुरुषाद इवापत्यं बहवो हिंसिताः सुताः॥

मूलम्

अहो भगिन्यहो भाम मया वां बत पाप्मना।
पुरुषाद इवापत्यं बहवो हिंसिताः सुताः॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मेरी प्यारी बहिन और बहनोईजी! हाय-हाय, मैं बड़ा पापी हूँ । राक्षस जैसे अपने ही बच्चोंको मार डालता है, वैसे ही मैंने तुम्हारे बहुत-से लड़के मार डाले। इस बातका मुझे बड़ा खेद है*॥ १५॥

पादटिप्पनी
  • जिनके गर्भमें भगवान‍्ने निवास किया, जिन्हें भगवान‍्के दर्शन हुए, उन देवकी-वसुदेवके दर्शनका ही यह फल है कि कंसके हृदयमें विनय, विचार, उदारता आदि सद‍्गुणोंका उदय हो गया। परन्तु जबतक वह उनके सामने रहा तभीतक ये सद‍्गुण रहे। दुष्ट मन्त्रियोंके बीचमें जाते ही वह फिर ज्यों-का-त्यों हो गया!
श्रीसुदर्शनसूरिः

भामः भगनीपतिः पाप्मना पापवता सुताः वामित्यन्वयः ॥ १५ ॥

श्लोक-१६

विश्वास-प्रस्तुतिः

स त्वहं त्यक्तकारुण्यस्त्यक्तज्ञातिसुहृत् खलः।
काँल्‍लोकान् वै गमिष्यामि ब्रह्महेव मृतः श्वसन्॥

मूलम्

स त्वहं त्यक्तकारुण्यस्त्यक्तज्ञातिसुहृत् खलः।
काँल्‍लोकान् वै गमिष्यामि ब्रह्महेव मृतः श्वसन्॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैं इतना दुष्ट हूँ कि करुणाका तो मुझमें लेश भी नहीं है। मैंने अपने भाई-बन्धु और हितैषियोंतकका त्याग कर दिया। पता नहीं, अब मुझे किस नरकमें जाना पड़ेगा। वास्तवमें तो मैं ब्रह्मघातीके समान जीवित होनेपर भी मुर्दा ही हूँ॥ १६॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

मृतः श्वसन् जीवन्मृतः ॥ १६ ॥

श्लोक-१७

विश्वास-प्रस्तुतिः

दैवमप्यनृतं वक्ति न मर्त्या एव केवलम्।
यद्विश्रम्भादहं पापः स्वसुर्निहतवाञ्छिशून्॥

मूलम्

दैवमप्यनृतं वक्ति न मर्त्या एव केवलम्।
यद्विश्रम्भादहं पापः स्वसुर्निहतवाञ्छिशून्॥

अनुवाद (हिन्दी)

केवल मनुष्य ही झूठ नहीं बोलते, विधाता भी झूठ बोलते हैं। उसीपर विश्वास करके मैंने अपनी बहिनके बच्चे मार डाले। ओह! मैं कितना पापी हूँ॥ १७॥

श्लोक-१८

विश्वास-प्रस्तुतिः

मा शोचतं महाभागावात्मजान् स्वकृतम्भुजः।
जन्तवो न सदैकत्र दैवाधीनास्तदासते॥

मूलम्

मा शोचतं महाभागावात्मजान् स्वकृतम्भुजः।
जन्तवो न सदैकत्र दैवाधीनास्तदासते॥

अनुवाद (हिन्दी)

तुम दोनों महात्मा हो। अपने पुत्रोंके लिये शोक मत करो। उन्हें तो अपने कर्मका ही फल मिला है। सभी प्राणी प्रारब्धके अधीन हैं। इसीसे वे सदा-सर्वदा एक साथ नहीं रह सकते॥ १८॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

स्वकृतंभुजः स्वकृतकर्म फलभोक्तॄन् ॥ १८ ॥

श्लोक-१९

विश्वास-प्रस्तुतिः

भुवि भौमानि भूतानि यथा यान्त्यपयान्ति च।
नायमात्मा तथैतेषु विपर्येति यथैव भूः॥

मूलम्

भुवि भौमानि भूतानि यथा यान्त्यपयान्ति च।
नायमात्मा तथैतेषु विपर्येति यथैव भूः॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे मिट्टीके बने हुए पदार्थ बनते और बिगड़ते रहते हैं, परन्तु मिट्टीमें कोई अदल-बदल नहीं होती—वैसे ही शरीरका तो बनना-बिगड़ना होता ही रहता है; परन्तु आत्मापर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ता॥ १९॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

भौमानि भूतानि पार्थिवरजांसि सदा सहावस्थानभावे दृष्टान्ताः एतेषु शरीरेषु न विपर्येति नापयाति अनित्यशरीरसन्तानेष्टात्मनोऽनुवृत्ते दृष्टान्तमाह-यथैव भूरिति । यथा पृथिवीत्वजातिः पार्थिवरजस्सु अनुवर्त्तते तथा पूर्वपरदेहे स्वात्मानुवर्त्तत इत्यर्थः ॥ १९ ॥

श्लोक-२०

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथानेवंविदो भेदो यत आत्मविपर्ययः।
देहयोगवियोगौ च संसृतिर्न निवर्तते॥

मूलम्

यथानेवंविदो भेदो यत आत्मविपर्ययः।
देहयोगवियोगौ च संसृतिर्न निवर्तते॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो लोग इस तत्त्वको नहीं जानते, वे इस अनात्मा शरीरको ही आत्मा मान बैठते हैं। यही उलटी बुद्धि अथवा अज्ञान है। इसीके कारण जन्म और मृत्यु होते हैं। और जबतक यह अज्ञान नहीं मिटता, तबतक सुख-दुःखरूप संसारसे छुटकारा नहीं मिलता॥ २०॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

अनेवम्विदः आत्मनोनुवृत्तत्वे न देहातिरेकमजानतः पुरुषस्य भेदः बाध्यबाधकतारूपभेदः स्यात् अत आत्मविपर्ययः अद्वेष्यता विषयभूतोऽभवदित्यर्थः ॥ २० ॥

श्लोक-२१

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्माद् भद्रे स्वतनयान् मया व्यापादितानपि।
मानुशोच यतः सर्वः स्वकृतं विन्दतेऽवशः॥

मूलम्

तस्माद् भद्रे स्वतनयान् मया व्यापादितानपि।
मानुशोच यतः सर्वः स्वकृतं विन्दतेऽवशः॥

अनुवाद (हिन्दी)

मेरी प्यारी बहिन! यद्यपि मैंने तुम्हारे पुत्रोंको मार डाला है, फिर भी तुम उनके लिये शोक न करो। क्योंकि सभी प्राणियोंको विवश होकर अपने कर्मोंका फल भोगना पड़ता है॥ २१॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

सर्वश्चेतनवर्गः ॥ २१ ॥

श्लोक-२२

विश्वास-प्रस्तुतिः

यावद्धतोऽस्मि हन्तास्मीत्यात्मानं मन्यतेऽस्वदृक्।
तावत्तदभिमान्यज्ञो बाध्यबाधकतामियात्॥

मूलम्

यावद्धतोऽस्मि हन्तास्मीत्यात्मानं मन्यतेऽस्वदृक्।
तावत्तदभिमान्यज्ञो बाध्यबाधकतामियात्॥

अनुवाद (हिन्दी)

अपने स्वरूपको न जाननेके कारण जीव जबतक यह मानता रहता है कि ‘मैं मारनेवाला हूँ या मारा जाता हूँ’, तबतक शरीरके जन्म और मृत्युका अभिमान करनेवाला वह अज्ञानी बाध्य और बाधक-भावको प्राप्त होता है। अर्थात् वह दूसरोंको दुःख देता है और स्वयं दुःख भोगता है॥ २२॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

तदभिमानी देहाभिमानी आत्मनो विनाशानर्हत्वात् तस्मिन् बाध्यबाधकत्वाबुद्धिभ्रमः स च देहात्माभिमानावधि इत्यर्थः ॥ २२ ॥

श्लोक-२३

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्षमध्वं मम दौरात्म्यं साधवो दीनवत्सलाः।
इत्युक्त्वाश्रुमुखः पादौ श्यालः स्वस्रोरथाग्रहीत्॥

मूलम्

क्षमध्वं मम दौरात्म्यं साधवो दीनवत्सलाः।
इत्युक्त्वाश्रुमुखः पादौ श्यालः स्वस्रोरथाग्रहीत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

मेरी यह दुष्टता तुम दोनों क्षमा करो; क्योंकि तुम बड़े ही साधुस्वभाव और दीनोंके रक्षक हो।’ ऐसा कहकर कंसने अपनी बहिन देवकी और वसुदेवजीके चरण पकड़ लिये। उसकी आँखोंसे आँसू बह-बहकर मुँहतक आ रहे थे॥ २३॥

श्लोक-२४

विश्वास-प्रस्तुतिः

मोचयामास निगडाद् विश्रब्धः कन्यकागिरा।
देवकीं वसुदेवं च दर्शयन्नात्मसौहृदम्॥

मूलम्

मोचयामास निगडाद् विश्रब्धः कन्यकागिरा।
देवकीं वसुदेवं च दर्शयन्नात्मसौहृदम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसके बाद उसने योगमायाके वचनोंपर विश्वास करके देवकी और वसुदेवको कैदसे छोड़ दिया और वह तरह-तरहसे उनके प्रति अपना प्रेम प्रकट करने लगा॥ २४॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

स्यालो वसुदेवः स्वसा देवकी ॥ २३-२४ ॥

श्लोक-२५

विश्वास-प्रस्तुतिः

भ्रातुः समनुतप्तस्य क्षान्त्वा रोषं च देवकी।
व्यसृजद् वसुदेवश्च प्रहस्य तमुवाच ह॥

मूलम्

भ्रातुः समनुतप्तस्य क्षान्त्वा रोषं च देवकी।
व्यसृजद् वसुदेवश्च प्रहस्य तमुवाच ह॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब देवकीजीने देखा कि भाई कंसको पश्चात्ताप हो रहा है, तब उन्होंने उसे क्षमा कर दिया। वे उसके पहले अपराधोंको भूल गयीं और वसुदेवजीने हँसकर कंससे कहा—॥ २५॥

वीरराघवः

क्षान्त्वा क्षमां कृत्वा रोषं व्यसृजत् ॥ २५ ॥

श्लोक-२६

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमेतन्महाभाग यथा वदसि देहिनाम्।
अज्ञानप्रभवाहंधीः स्वपरेति भिदा यतः॥

मूलम्

एवमेतन्महाभाग यथा वदसि देहिनाम्।
अज्ञानप्रभवाहंधीः स्वपरेति भिदा यतः॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मनस्वी कंस! आप जो कहते हैं, वह ठीक वैसा ही है। जीव अज्ञानके कारण ही शरीर आदिको ‘मैं’ मान बैठते हैं। इसीसे अपने परायेका भेद हो जाता है॥ २६॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

अज्ञानप्रभवा स्वपरसुताहतिः देहात्माभिमानकृतशत्रुमित्रवैषम्यबुद्धिरेव भ्रान्तिः आत्मनाशहेतुः न तु कश्चिद्धन्ति अशक्यत्वादित्यर्थः ॥ २६ ॥

श्लोक-२७

विश्वास-प्रस्तुतिः

शोकहर्षभयद्वेषलोभमोहमदान्विताः।
मिथो घ्नन्तं न पश्यन्ति भावैर्भावं पृथग्दृशः॥

मूलम्

शोकहर्षभयद्वेषलोभमोहमदान्विताः।
मिथो घ्नन्तं न पश्यन्ति भावैर्भावं पृथग्दृशः॥

अनुवाद (हिन्दी)

और यह भेददृष्टि हो जानेपर तो वे शोक, हर्ष, भय, द्वेष, लोभ, मोह और मदसे अन्धे हो जाते हैं। फिर तो उन्हें इस बातका पता ही नहीं रहता कि सबके प्रेरक भगवान् ही एक भावसे दूसरे भावका, एक वस्तुसे दूसरी वस्तुका नाश करा रहे हैं’॥ २७॥

श्लोक-२८

मूलम् (वचनम्)

श्रीशुक उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

कंस एवं प्रसन्नाभ्यां विशुद्धं प्रतिभाषितः।
देवकीवसुदेवाभ्यामनुज्ञातोऽविशद् गृहम्॥

मूलम्

कंस एवं प्रसन्नाभ्यां विशुद्धं प्रतिभाषितः।
देवकीवसुदेवाभ्यामनुज्ञातोऽविशद् गृहम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! जब वसुदेव और देवकीने इस प्रकार प्रसन्न होकर निष्कपटभावसे कंसके साथ बातचीत की, तब उनसे अनुमति लेकर वह अपने महलमें चला गया॥ २८॥

श्लोक-२९

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्यां रात्र्यां व्यतीतायां कंस आहूय मन्त्रिणः।
तेभ्य आचष्ट तत् सर्वं यदुक्तं योगनिद्रया॥

मूलम्

तस्यां रात्र्यां व्यतीतायां कंस आहूय मन्त्रिणः।
तेभ्य आचष्ट तत् सर्वं यदुक्तं योगनिद्रया॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह रात्रि बीत जानेपर कंसने अपने मन्त्रियोंको बुलाया और योगमायाने जो कुछ कहा था, वह सब उन्हें कह सुनाया॥ २९॥

श्लोक-३०

विश्वास-प्रस्तुतिः

आकर्ण्य भर्तुर्गदितं तमूचुर्देवशत्रवः।
देवान् प्रति कृतामर्षा दैतेया नातिकोविदाः॥

मूलम्

आकर्ण्य भर्तुर्गदितं तमूचुर्देवशत्रवः।
देवान् प्रति कृतामर्षा दैतेया नातिकोविदाः॥

अनुवाद (हिन्दी)

कंसके मन्त्री पूर्णतया नीतिनिपुण नहीं थे। दैत्य होनेके कारण स्वभावसे ही वे देवताओंके प्रति शत्रुताका भाव रखते थे। अपने स्वामी कंसकी बात सुनकर वे देवताओंपर और भी चिढ़ गये और कंससे कहने लगे—॥ ३०॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

पृथग्दृशः आत्मव्यतिरिक्तदेहविषयबुद्धिमन्तः भावैरचेतनैः खड्गादिभिः भावमचित्पदार्थं घ्नन्तमीश्वरं न पश्यन्तीत्यर्थः ॥ २७-३० ॥

श्लोक-३१

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं चेत्तर्हि भोजेन्द्र पुरग्रामव्रजादिषु।
अनिर्दशान् निर्दशांश्च हनिष्यामोऽद्य वै शिशून्॥

मूलम्

एवं चेत्तर्हि भोजेन्द्र पुरग्रामव्रजादिषु।
अनिर्दशान् निर्दशांश्च हनिष्यामोऽद्य वै शिशून्॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘भोजराज! यदि ऐसी बात है तो हम आज ही बड़े-बड़े नगरोंमें, छोटे-छोटे गाँवोंमें, अहीरोंकी बस्तियोंमें और दूसरे स्थानोंमें जितने बच्चे हुए हैं, वे चाहे दस दिनसे अधिकके हों या कमके, सबको आज ही मार डालेंगे॥ ३१॥

श्लोक-३२

विश्वास-प्रस्तुतिः

किमुद्यमैः करिष्यन्ति देवाः समरभीरवः।
नित्यमुद्विग्नमनसो ज्याघोषैर्धनुषस्तव॥

मूलम्

किमुद्यमैः करिष्यन्ति देवाः समरभीरवः।
नित्यमुद्विग्नमनसो ज्याघोषैर्धनुषस्तव॥

अनुवाद (हिन्दी)

समरभीरु देवगण युद्धोद्योग करके ही क्या करेंगे? वे तो आपके धनुषकी टंकार सुनकर ही सदा-सर्वदा घबराये रहते हैं॥ ३२॥

श्लोक-३३

विश्वास-प्रस्तुतिः

अस्यतस्ते शरव्रातैर्हन्यमानाः समन्ततः।
जिजीविषव उत्सृज्य पलायनपरा ययुः॥

मूलम्

अस्यतस्ते शरव्रातैर्हन्यमानाः समन्ततः।
जिजीविषव उत्सृज्य पलायनपरा ययुः॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिस समय युद्धभूमिमें आप चोट-पर-चोट करने लगते हैं, बाण-वर्षासे घायल होकर अपने प्राणोंकी रक्षाके लिये समरांगण छोड़कर देवतालोग पलायन-परायण होकर इधर-उधर भाग जाते हैं॥ ३३॥

श्लोक-३४

विश्वास-प्रस्तुतिः

केचित् प्राञ्जलयो दीना न्यस्तशस्त्रा दिवौकसः।
मुक्तकच्छशिखाः केचिद् भीताः स्म इति वादिनः॥

मूलम्

केचित् प्राञ्जलयो दीना न्यस्तशस्त्रा दिवौकसः।
मुक्तकच्छशिखाः केचिद् भीताः स्म इति वादिनः॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुछ देवता तो अपने अस्त्र-शस्त्र जमीनपर डाल देते हैं और हाथ जोड़कर आपके सामने अपनी दीनता प्रकट करने लगते हैं। कोई-कोई अपनी चोटीके बाल तथा कच्छ खोलकर आपकी शरणमें आकर कहते हैं कि—‘हम भयभीत हैं, हमारी रक्षा कीजिये’॥ ३४॥

श्लोक-३५

विश्वास-प्रस्तुतिः

न त्वं विस्मृतशस्त्रास्त्रान् विरथान् भयसंवृतान्।
हंस्यन्यासक्तविमुखान् भग्नचापानयुध्यतः॥

मूलम्

न त्वं विस्मृतशस्त्रास्त्रान् विरथान् भयसंवृतान्।
हंस्यन्यासक्तविमुखान् भग्नचापानयुध्यतः॥

अनुवाद (हिन्दी)

आप उन शत्रुओंको नहीं मारते जो अस्त्र-शस्त्र भूल गये हों, जिनका रथ टूट गया हो, जो डर गये हों, जो लोग युद्ध छोड़कर अन्यमनस्क हो गये हों, जिनका धनुष टूट गया हो या जिन्होंने युद्धसे अपना मुख मोड़ लिया हो—उन्हें भी आप नहीं मारते॥ ३५॥

श्लोक-३६

विश्वास-प्रस्तुतिः

किं क्षेमशूरैर्विबुधैरसंयुगविकत्थनैः।
रहोजुषा किं हरिणा शम्भुना वा वनौकसा।
किमिन्द्रेणाल्पवीर्येण ब्रह्मणा वा तपस्यता॥

मूलम्

किं क्षेमशूरैर्विबुधैरसंयुगविकत्थनैः।
रहोजुषा किं हरिणा शम्भुना वा वनौकसा।
किमिन्द्रेणाल्पवीर्येण ब्रह्मणा वा तपस्यता॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवता तो बस वहीं वीर बनते हैं, जहाँ कोई लड़ाई-झगड़ा न हो। रणभूमिके बाहर वे बड़ी-बड़ी डींग हाँकते हैं। उनसे तथा एकान्तवासी विष्णु, वनवासी शंकर, अल्पवीर्य इन्द्र और तपस्वी ब्रह्मासे भी हमें क्या भय हो सकता है॥ ३६॥

श्लोक-३७

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथापि देवाः सापत्न्यान्नोपेक्ष्या इति मन्महे।
ततस्तन्मूलखनने नियुङ्क्ष्वास्माननुव्रतान्॥

मूलम्

तथापि देवाः सापत्न्यान्नोपेक्ष्या इति मन्महे।
ततस्तन्मूलखनने नियुङ्क्ष्वास्माननुव्रतान्॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर भी देवताओंकी उपेक्षा नहीं करनी चाहिये—ऐसी हमारी राय है। क्योंकि हैं तो वे शत्रु ही। इसलिये उनकी जड़ उखाड़ फेंकनेके लिये आप हम-जैसे विश्वासपात्र सेवकोंको नियुक्त कर दीजिये॥ ३७॥

श्लोक-३८

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथाऽऽमयोऽङ्गे समुपेक्षितो नृभि-
र्न शक्यते रूढपदश्चिकित्सितुम्।
यथेन्द्रियग्राम उपेक्षितस्तथा
रिपुर्महान् बद्धबलो न चाल्यते॥

मूलम्

यथाऽऽमयोऽङ्गे समुपेक्षितो नृभि-
र्न शक्यते रूढपदश्चिकित्सितुम्।
यथेन्द्रियग्राम उपेक्षितस्तथा
रिपुर्महान् बद्धबलो न चाल्यते॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब मनुष्यके शरीरमें रोग हो जाता है और उसकी चिकित्सा नहीं की जाती—उपेक्षा कर दी जाती है, तब रोग अपनी जड़ जमा लेता है और फिर वह असाध्य हो जाता है। अथवा जैसे इन्द्रियोंकी उपेक्षा कर देनेपर उनका दमन असम्भव हो जाता है, वैसे ही यदि पहले शत्रुकी उपेक्षा कर दी जाय और वह अपना पाँव जमा ले, तो फिर उसको हराना कठिन हो जाता है॥ ३८॥

श्लोक-३९

विश्वास-प्रस्तुतिः

मूलं हि विष्णुर्देवानां यत्र धर्मः सनातनः।
तस्य च ब्रह्म गोविप्रास्तपो यज्ञाः सदक्षिणाः॥

मूलम्

मूलं हि विष्णुर्देवानां यत्र धर्मः सनातनः।
तस्य च ब्रह्म गोविप्रास्तपो यज्ञाः सदक्षिणाः॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवताओंकी जड़ है विष्णु और वह वहाँ रहता है, जहाँ सनातनधर्म है। सनातनधर्मकी जड़ हैं—वेद, गौ, ब्राह्मण, तपस्या और वे यज्ञ, जिनमें दक्षिणा दी जाती है॥ ३९॥

श्लोक-४०

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मात् सर्वात्मना राजन् ब्राह्मणान् ब्रह्मवादिनः।
तपस्विनो यज्ञशीलान् गाश्च हन्मो हविर्दुघाः॥

मूलम्

तस्मात् सर्वात्मना राजन् ब्राह्मणान् ब्रह्मवादिनः।
तपस्विनो यज्ञशीलान् गाश्च हन्मो हविर्दुघाः॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसलिये भोजराज! हमलोग वेदवादी ब्राह्मण, तपस्वी, याज्ञिक और यज्ञके लिये घी आदि हविष्य पदार्थ देनेवाली गायोंका पूर्णरूपसे नाश कर डालेंगे॥ ४०॥

श्लोक-४१

विश्वास-प्रस्तुतिः

विप्रा गावश्च वेदाश्च तपः सत्यं दमः शमः।
श्रद्धा दया तितिक्षा च क्रतवश्च हरेस्तनूः॥

मूलम्

विप्रा गावश्च वेदाश्च तपः सत्यं दमः शमः।
श्रद्धा दया तितिक्षा च क्रतवश्च हरेस्तनूः॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्राह्मण, गौ, वेद, तपस्या, सत्य, इन्द्रियदमन, मनोनिग्रह, श्रद्धा, दया, तितिक्षा और यज्ञ विष्णुके शरीर हैं॥ ४१॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

अनिर्दशान् दशाहाऽनतीतान् ॥ ३१-४१ ॥

श्लोक-४२

विश्वास-प्रस्तुतिः

स हि सर्वसुराध्यक्षो ह्यसुरद्विड् गुहाशयः।
तन्मूला देवताः सर्वाः सेश्वराः सचतुर्मुखाः।
अयं वै तद्वधोपायो यदृषीणां विहिंसनम्॥

मूलम्

स हि सर्वसुराध्यक्षो ह्यसुरद्विड् गुहाशयः।
तन्मूला देवताः सर्वाः सेश्वराः सचतुर्मुखाः।
अयं वै तद्वधोपायो यदृषीणां विहिंसनम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह विष्णु ही सारे देवताओंका स्वामी तथा असुरोंका प्रधान द्वेषी है। परन्तु वह किसी गुफामें छिपा रहता है। महादेव, ब्रह्मा और सारे देवताओंकी जड़ वही है। उसको मार डालनेका उपाय यह है कि ऋषियोंको मार डाला जाय’॥ ४२॥

श्लोक-४३

मूलम् (वचनम्)

श्रीशुक उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं दुर्मन्त्रिभिः कंसः सह सम्मन्त्र्य दुर्मतिः।
ब्रह्महिंसां हितं मेने कालपाशावृतोऽसुरः॥

मूलम्

एवं दुर्मन्त्रिभिः कंसः सह सम्मन्त्र्य दुर्मतिः।
ब्रह्महिंसां हितं मेने कालपाशावृतोऽसुरः॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! एक तो कंसकी बुद्धि स्वयं ही बिगड़ी हुई थी; फिर उसे मन्त्री ऐसे मिले थे, जो उससे भी बढ़कर दुष्ट थे। इस प्रकार उनसे सलाह करके कालके फंदेमें फँसे हुए असुर कंसने यही ठीक समझा कि ब्राह्मणोंको ही मार डाला जाय॥ ४३॥

श्लोक-४४

विश्वास-प्रस्तुतिः

सन्दिश्य साधुलोकस्य कदने कदनप्रियान्।
कामरूपधरान् दिक्षु दानवान् गृहमाविशत्॥

मूलम्

सन्दिश्य साधुलोकस्य कदने कदनप्रियान्।
कामरूपधरान् दिक्षु दानवान् गृहमाविशत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसने हिंसाप्रेमी राक्षसोंको संतपुरुषोंकी हिंसा करनेका आदेश दे दिया। वे इच्छानुसार रूप धारण कर सकते थे। जब वे इधर-उधर चले गये, तब कंसने अपने महलमें प्रवेश किया॥ ४४॥

श्लोक-४५

विश्वास-प्रस्तुतिः

ते वै रजःप्रकृतयस्तमसा मूढचेतसः।
सतां विद्वेषमाचेरुरारादागतमृत्यवः॥

मूलम्

ते वै रजःप्रकृतयस्तमसा मूढचेतसः।
सतां विद्वेषमाचेरुरारादागतमृत्यवः॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन असुरोंकी प्रकृति थी रजोगुणी। तमोगुणके कारण उनका चित्त उचित और अनुचितके विवेकसे रहित हो गया था। उनके सिरपर मौत नाच रही थी। यही कारण है कि उन्होंने सन्तोंसे द्वेष किया॥ ४५॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

गुहाशयः हृदयगुहानिगूढः ।। ४२-४५ ।।

श्लोक-४६

विश्वास-प्रस्तुतिः

आयुः श्रियं यशो धर्मं लोकानाशिष एव च।
हन्ति श्रेयांसि सर्वाणि पुंसो महदतिक्रमः॥

मूलम्

आयुः श्रियं यशो धर्मं लोकानाशिष एव च।
हन्ति श्रेयांसि सर्वाणि पुंसो महदतिक्रमः॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! जो लोग महान् सन्त पुरुषोंका अनादर करते हैं, उनका वह कुकर्म उनकी आयु, लक्ष्मी, कीर्ति, धर्म, लोक-परलोक, विषय-भोग और सब-के-सब कल्याणके साधनोंको नष्ट कर देता है॥ ४६॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

महदतिक्रमः महतामतिक्रमः ॥ ४६ ॥

इति श्रीमद्भागवतव्याख्याने दशमस्कन्धे शुकपक्षीये श्रीसुदर्शनसूरिकृते चतुर्थोऽध्यायः ॥ ४ ॥

अनुवाद (समाप्ति)

इति श्रीमद‍्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे पूर्वार्धे चतुर्थोऽध्यायः॥ ४॥