०३ कृष्णजन्मनि

[तृतीयोऽध्यायः]

भागसूचना

भगवान् श्रीकृष्णका प्राकट्य

श्लोक-१

मूलम् (वचनम्)

श्रीशुक उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथ सर्वगुणोपेतः कालः परमशोभनः।
यर्ह्येवाजनजन्मर्क्षं शान्तर्क्षग्रहतारकम्॥

मूलम्

अथ सर्वगुणोपेतः कालः परमशोभनः।
यर्ह्येवाजनजन्मर्क्षं शान्तर्क्षग्रहतारकम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! अब समस्त शुभ गुणोंसे युक्त बहुत सुहावना समय आया। रोहिणी नक्षत्र था। आकाशके सभी नक्षत्र, ग्रह और तारे शान्त—सौम्य हो रहे थे*॥ १॥

पादटिप्पनी
  • जैसे अन्तःकरण शुद्ध होनेपर उसमें भगवान‍्का आविर्भाव होता है, श्रीकृष्णावतारके अवसरपर भी ठीक उसी प्रकारका समष्टिकी शुद्धिका वर्णन किया गया है। इसमें काल, दिशा, पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन और आत्मा—इन नौ द्रव्योंका अलग-अलग नामोल्लेख करके साधकके लिये एक अत्यन्त उपयोगी साधन-पद्धतिकी ओर संकेत किया गया है।
    काल—
    भगवान् कालसे परे हैं। शास्त्रों और सत्पुरुषोंके द्वारा ऐसा निरूपण सुनकर काल मानो क्रुद्ध हो गया था और रुद्ररूप धारण करके सबको निगल रहा था। आज जब उसे मालूम हुआ कि स्वयं परिपूर्णतम भगवान् श्रीकृष्ण मेरे अंदर अवतीर्ण हो रहे हैं, तब वह आनन्दसे भर गया और समस्त सद‍्गुणोंको धारणकर तथा सुहावना बनकर प्रकट हो गया।
    दिशा—
    १. प्राचीन शास्त्रोंमें दिशाओंको देवी माना गया है। उनके एक-एक स्वामी भी होते हैं—जैसे प्राचीके इन्द्र, प्रतीचीके वरुण आदि। कंसके राज्य-कालमें ये देवता पराधीन—कैदी हो गये थे। अब भगवान् श्रीकृष्णके अवतारसे देवताओंकी गणनाके अनुसार ग्यारह-बारह दिनोंमें ही उन्हें छुटकारा मिल जायगा, इसलिये अपने पतियोंके संगम-सौभाग्यका अनुसंधान करके देवियाँ प्रसन्न हो गयीं। जो देव एवं दिशाके परिच्छेदसे रहित हैं, वे ही प्रभु भारत देशके व्रज-प्रदेशमें आ रहे हैं, यह अपूर्व आनन्दोत्सव भी दिशाओंकी प्रसन्नताका हेतु है।
    २. संस्कृत-साहित्यमें दिशाओंका एक नाम ‘आशा’ भी है। दिशाओंकी प्रसन्नताका एक अर्थ यह भी है कि अब सत्पुरुषोंकी आशा-अभिलाषा पूर्ण होगी।
    ३. विराट् पुरुषके अवयव-संस्थानका वर्णन करते समय दिशाओंको उनका कान बताया गया है। श्रीकृष्णके अवतारके अवसरपर दिशाएँ मानो यह सोचकर प्रसन्न हो गयीं कि प्रभु असुर-असाधुओंके उपद्रवसे दुःखी प्राणियोंकी प्रार्थना सुननेके लिये सतत सावधान हैं।
    पृथ्वी—
    १. पुराणोंमें भगवान‍्की दो पत्नियोंका उल्लेख मिलता है—एक श्रीदेवी और दूसरी भूदेवी। ये दोनों चल-सम्पत्ति और अचल-सम्पत्तिकी स्वामिनी हैं। इनके पति हैं—भगवान्, जीव नहीं। जिस समय श्रीदेवीके निवासस्थान वैकुण्ठसे उतरकर भगवान् भूदेवीके निवासस्थान पृथ्वीपर आने लगे, तब जैसे परदेशसे पतिके आगमनका समाचार सुनकर पत्नी सज-धजकर अगवानी करनेके लिये निकलती है, वैसे ही पृथ्वीका मंगलमयी होना, मंगलचिह्नोंको धारण करना स्वाभाविक ही है।
    २. भगवान‍्के श्रीचरण मेरे वक्षःस्थलपर पड़ेंगे, अपने सौभाग्यका ऐसा अनुसन्धान करके पृथ्वी आनन्दित हो गयी।
    ३. वामन ब्रह्मचारी थे। परशुरामजीने ब्राह्मणोंको दान दे दिया । श्रीरामचन्द्रने मेरी पुत्री जानकीसे विवाह कर लिया। इसलिये उन अवतारोंमें मैं भगवान‍्से जो सुख नहीं प्राप्त कर सकी, वही श्रीकृष्णसे प्राप्त करूँगी। यह सोचकर पृथ्वी मंगलमयी हो गयी।
    ४. अपने पुत्र मंगलको गोदमें लेकर पतिदेवका स्वागत करने चली।
    जल (नदियाँ)—
    १. नदियोंने विचार किया कि रामावतारमें सेतु-बन्धके बहाने हमारे पिता पर्वतोंको हमारी ससुराल समुद्रमें पहुँचाकर इन्होंने हमें मायकेका सुख दिया था। अब इनके शुभागमनके अवसरपर हमें भी प्रसन्न होकर इनका स्वागत करना चाहिये।
    २. नदियाँ सब गंगाजीसे कहती थीं—‘तुमने हमारे पिता पर्वत देखे हैं, अपने पिता भगवान् विष्णुके दर्शन कराओ।’ गंगाजीने सुनी-अनसुनी कर दी। अब वे इसलिये प्रसन्न हो गयीं कि हम स्वयं देख लेंगी।
    ३. यद्यपि भगवान् समुद्रमें नित्य निवास करते हैं, फिर भी ससुराल होनेके कारण वे उन्हें वहाँ देख नहीं पातीं। अब उन्हें पूर्णरूपसे देख सकेंगी, इसलिये वे निर्मल हो गयीं।
    ४. निर्मल हृदयको भगवान् मिलते हैं, इसलिये वे निर्मल हो गयीं।
    ५. नदियोंको जो सौभाग्य किसी भी अवतारमें नहीं मिला, वह कृष्णावतारमें मिला। श्रीकृष्णकी चतुर्थ पटरानी हैं—श्रीकालिन्दीजी। अवतार लेते ही यमुनाजीके तटपर जाना, ग्वालबाल एवं गोपियोंके साथ जलक्रीडा करना, उन्हें अपनी पटरानी बनाना—इन सब बातोंको सोचकर नदियाँ आनन्दसे भर गयीं।
    ह्रद—
    कालिय-दमन करके कालिय-दहका शोधन, ग्वालबालों और अक्रूरको ब्रह्म-ह्रदमें ही अपने स्वरूपके दर्शन आदि स्व-सम्बन्धी लीलाओंका अनुसन्धान करके ह्रदोंने कमलके बहाने अपने प्रफुल्लित हृदयको ही श्रीकृष्णके प्रति अर्पित कर दिया। उन्होंने कहा कि ‘प्रभो! भले ही हमें लोग जड समझा करें, आप हमें कभी स्वीकार करेंगे, इस भावी सौभाग्यके अनुसन्धानसे हम सहृदय हो रहे हैं।’
    अग्नि—
    १. इस अवतारमें श्रीकृष्णने व्योमासुर, तृणावर्त, कालियके दमनसे आकाश, वायु और जलकी शुद्धि की है। मृद्-भक्षणसे पृथ्वीकी और अग्निपानसे अग्निकी। भगवान् श्रीकृष्णने दो बार अग्निको अपने मुँहमें धारण किया। इस भावी सुखका अनुसन्धान करके ही अग्निदेव शान्त होकर प्रज्वलित होने लगे।
    २. देवताओंके लिये यज्ञ-भाग आदि बन्द हो जानेके कारण अग्निदेव भी भूखे ही थे। अब श्रीकृष्णावतारसे अपने भोजन मिलनेकी आशासे अग्निदेव प्रसन्न होकर प्रज्वलित हो उठे।
    वायु—
    १. उदारशिरोमणि भगवान् श्रीकृष्णके जन्मके अवसरपर वायुने सुख लुटाना प्रारम्भ किया; क्योंकि समान शीलसे ही मैत्री होती है। जैसे स्वामीके सामने सेवक, प्रजा अपने गुण प्रकट करके उसे प्रसन्न करती है, वैसे ही वायु भगवान‍्के सामने अपने गुण प्रकट करने लगे।
    २. आनन्दकन्द श्रीकृष्णचन्द्रके मुखारविन्दपर जब श्रमजनित स्वेदविन्दु आ जायँगे, तब मैं ही शीतल-मन्द-सुगन्ध गतिसे उसे सुखाऊँगा—यह सोचकर पहलेसे ही वायु सेवाका अभ्यास करने लगा।
    ३. यदि मनुष्यको प्रभु-चरणारविन्दके दर्शनकी लालसा हो तो उसे विश्वकी सेवा ही करनी चाहिये, मानो यह उपदेश करता हुआ वायु सबकी सेवा करने लगा।
    ४. रामावतारमें मेरे पुत्र हनुमान् ने भगवान‍्की सेवा की, इससे मैं कृतार्थ ही हूँ; परन्तु इस अवतारमें मुझे स्वयं ही सेवा कर लेनी चाहिये। इस विचारसे वायु लोगोंको सुख पहुँचाने लगा।
    ५. सम्पूर्ण विश्वके प्राण वायुने सम्पूर्ण विश्वकी ओरसे भगवान‍्के स्वागत-समारोहमें प्रतिनिधित्व किया।
    आकाश—
    १. आकाशकी एकता, आधारता, विशालता और समताकी उपमा तो सदासे ही भगवान‍्के साथ दी जाती रही, परन्तु अब उसकी झूठी नीलिमा भी भगवान‍्के अंगसे उपमा देनेसे चरितार्थ हो जायगी, इसलिये आकाशने मानो आनन्दोत्सव मनानेके लिये नीले चँदोवेमें हीरोंके समान तारोंकी झालरें लटका ली हैं।
    २. स्वामीके शुभागमनके अवसरपर जैसे सेवक स्वच्छ वेष-भूषा धारण करते हैं और शान्त हो जाते हैं, इसी प्रकार आकाशके सब नक्षत्र, ग्रह, तारे शान्त एवं निर्मल हो गये। वक्रता, अतिचार और युद्ध छोड़कर श्रीकृष्णका स्वागत करने लगे।
    नक्षत्र—
    मैं देवकीके गर्भसे जन्म ले रहा हूँ तो रोहिणीके संतोषके लिये कम-से-कम रोहिणी नक्षत्रमें जन्म तो लेना ही चाहिये। अथवा चन्द्रवंशमें जन्म ले रहा हूँ, तो चन्द्रमाकी सबसे प्यारी पत्नी रोहिणीमें ही जन्म लेना उचित है। यह सोचकर भगवान‍्ने रोहिणी नक्षत्रमें जन्म लिया।
    मन—
    १. योगी मनका निरोध करते हैं, मुमुक्षु निर्विषय करते हैं और जिज्ञासु बाध करते हैं। तत्त्वज्ञोंने तो मनका सत्यानाश ही कर दिया। भगवान‍्के अवतारका समय जानकर उसने सोचा कि अब तो मैं अपनी पत्नी—इन्द्रियाँ और विषय—बाल-बच्चे सबके साथ ही भगवान‍्के साथ खेलूँगा। निरोध और बाधसे पिण्ड छूटा। इसीसे मन प्रसन्न हो गया।
    २. निर्मलको ही भगवान् मिलते हैं, इसलिये मन निर्मल हो गया।
    ३. वैसे शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्धका परित्याग कर देनेपर भगवान् मिलते हैं। अब तो स्वयं भगवान् ही वह सब बनकर आ रहे हैं। लौकिक आनन्द भी प्रभुमें मिलेगा। यह सोचकर मन प्रसन्न हो गया।
    ४. वसुदेवके मनमें निवास करके ये ही भगवान् प्रकट हो रहे हैं। वह हमारी ही जातिका है, यह सोचकर मन प्रसन्न हो गया।
    ५. सुमन (देवता और शुद्ध मन) को सुख देनेके लिये ही भगवान‍्का अवतार हो रहा है। यह जानकर सुमन प्रसन्न हो गये।
    ६. संतोंमें, स्वर्गमें और उपवनमें सुमन (शुद्ध मन, देवता और पुष्प) आनन्दित हो गये। क्यों न हो, माधव (विष्णु और वसन्त) का आगमन जो हो रहा है।
    भाद्रमास—
    भद्र अर्थात् कल्याण देनेवाला है। कृष्णपक्ष स्वयं कृष्णसे सम्बद्ध है। अष्टमी तिथि पक्षके बीचोबीच सन्धि-स्थलपर पड़ती है। रात्रि योगीजनोंको प्रिय है। निशीथ यतियोंका सन्ध्याकाल और रात्रिके दो भागोंकी सन्धि है। उस समय श्रीकृष्णके आविर्भावका अर्थ है—अज्ञानके घोर अन्धकारमें दिव्य प्रकाश। निशानाथ चन्द्रके वंशमें जन्म लेना है, तो निशाके मध्यभागमें अवतीर्ण होना उचित भी है। अष्टमीके चन्द्रोदयका समय भी वही है। यदि वसुदेवजी मेरा जातकर्म नहीं कर सकते तो हमारे वंशके आदिपुरुष चन्द्रमा समुद्रस्नान करके अपने कर-किरणोंसे अमृतका वितरण करें।

श्लोक-२

विश्वास-प्रस्तुतिः

दिशः प्रसेदुर्गगनं निर्मलोडुगणोदयम्।
मही मङ्गलभूयिष्ठपुरग्रामव्रजाकरा॥

मूलम्

दिशः प्रसेदुर्गगनं निर्मलोडुगणोदयम्।
मही मङ्गलभूयिष्ठपुरग्रामव्रजाकरा॥

अनुवाद (हिन्दी)

दिशाएँ स्वच्छ प्रसन्न थीं। निर्मल आकाशमें तारे जगमगा रहे थे। पृथ्वीके बड़े-बड़े नगर, छोटे-छोटे गाँव, अहीरोंकी बस्तियाँ और हीरे आदिकी खानें मंगलमय हो रही थीं॥ २॥

श्लोक-३

विश्वास-प्रस्तुतिः

नद्यः प्रसन्नसलिला ह्रदा जलरुहश्रियः।
द्विजालिकुलसंनादस्तबका वनराजयः॥

मूलम्

नद्यः प्रसन्नसलिला ह्रदा जलरुहश्रियः।
द्विजालिकुलसंनादस्तबका वनराजयः॥

अनुवाद (हिन्दी)

नदियोंका जल निर्मल हो गया था। रात्रिके समय भी सरोवरोंमें कमल खिल रहे थे। वनमें वृक्षोंकी पंक्तियाँ रंग-बिरंगे पुष्पोंके गुच्छोंसे लद गयी थीं। कहीं पक्षी चहक रहे थे, तो कहीं भौंरे गुनगुना रहे थे॥ ३॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

अथ सर्वेति अभूदिति शेषाः ॥ १-३ ॥

श्लोक-४

विश्वास-प्रस्तुतिः

ववौ वायुः सुखस्पर्शः पुण्यगन्धवहः शुचिः।
अग्नयश्च द्विजातीनां शान्तास्तत्र समिन्धत॥

मूलम्

ववौ वायुः सुखस्पर्शः पुण्यगन्धवहः शुचिः।
अग्नयश्च द्विजातीनां शान्तास्तत्र समिन्धत॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय परम पवित्र और शीतल-मन्द-सुगन्ध वायु अपने स्पर्शसे लोगोंको सुखदान करती हुई बह रही थी। ब्राह्मणोंके अग्निहोत्रकी कभी न बुझनेवाली अग्नियाँ जो कंसके अत्याचारसे बुझ गयी थीं, वे इस समय अपने-आप जल उठीं॥ ४॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

पश्य तस्मिन् पूर्वं शान्ताः अग्नयः तदा समेधिता जज्वलुरित्यर्थः यद्वा शान्ताः अकलुषाः ॥ ४ ॥

श्लोक-५

विश्वास-प्रस्तुतिः

मनांस्यासन् प्रसन्नानि साधूनामसुरद्रुहाम्।
जायमानेऽजने तस्मिन् नेदुर्दुन्दुभयो दिवि॥

मूलम्

मनांस्यासन् प्रसन्नानि साधूनामसुरद्रुहाम्।
जायमानेऽजने तस्मिन् नेदुर्दुन्दुभयो दिवि॥

अनुवाद (हिन्दी)

संत पुरुष पहलेसे ही चाहते थे कि असुरोंकी बढ़ती न होने पाये। अब उनका मन सहसा प्रसन्नतासे भर गया। जिस समय भगवान‍्के आविर्भावका अवसर आया, स्वर्गमें देवताओंकी दुन्दुभियाँ अपने-आप बज उठीं॥ ५॥

श्लोक-६

विश्वास-प्रस्तुतिः

जगुः किन्नरगन्धर्वास्तुष्टुवुः सिद्धचारणाः।
विद्याधर्यश्च ननृतुरप्सरोभिः समं तदा॥

मूलम्

जगुः किन्नरगन्धर्वास्तुष्टुवुः सिद्धचारणाः।
विद्याधर्यश्च ननृतुरप्सरोभिः समं तदा॥

अनुवाद (हिन्दी)

किन्नर और गन्धर्व मधुर स्वरमें गाने लगे तथा सिद्ध और चारण भगवान‍्के मंगलमय गुणोंकी स्तुति करने लगे। विद्याधरियाँ अप्सराओंके साथ नाचने लगीं॥ ६॥

श्लोक-७

विश्वास-प्रस्तुतिः

मुमुचुर्मुनयो देवाः सुमनांसि मुदान्विताः।
मन्दं मन्दं जलधरा जगर्जुरनुसागरम्॥

मूलम्

मुमुचुर्मुनयो देवाः सुमनांसि मुदान्विताः।
मन्दं मन्दं जलधरा जगर्जुरनुसागरम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

बड़े-बड़े देवता और ऋषि-मुनि आनन्दसे भरकर पुष्पोंकी वर्षा करने लगे१ जलसे भरे हुए बादल समुद्रके पास जाकर धीरे-धीरे गर्जना करने लगे२॥ ७॥

पादटिप्पनी

१. ऋषि, मुनि और देवता जब अपने सुमनकी वर्षा करनेके लिये मथुराकी ओर दौड़े, तब उनका आनन्द भी पीछे छूट गया और उनके पीछे-पीछे दौड़ने लगा। उन्होंने अपने निरोध और बाधसम्बन्धी सारे विचार त्यागकर मनको श्रीकृष्णकी ओर जानेके लिये मुक्त कर दिया, उनपर न्योछावर कर दिया।
२. १. मेघ समुद्रके पास जाकर मन्द-मन्द गर्जना करते हुए कहते—जलनिधे! यह तुम्हारे उपदेश (पास आने) का फल है कि हमारे पास जल-ही-जल हो गया। अब ऐसा कुछ उपदेश करो कि जैसे तुम्हारे भीतर भगवान् रहते हैं, वैसे हमारे भीतर भी रहें।
२. बादल समुद्रके पास जाते और कहते कि समुद्र! तुम्हारे हृदयमें भगवान् रहते हैं, हमें भी उनका दर्शन-प्यार प्राप्त करवा दो। समुद्र उन्हें थोड़ा-सा जल देकर कह देता—अपनी उत्ताल तरंगोंसे ढकेल देता—जाओ अभी विश्वकी सेवा करके अन्तःकरण शुद्ध करो, तब भगवान‍्के दर्शन होंगे। स्वयं भगवान् मेघश्याम बनकर समुद्रसे बाहर व्रजमें आ रहे हैं। हम धूपमें उनपर छाया करेंगे, अपनी फुइयाँ बरसाकर जीवन न्योछावर करेंगे और उनकी बाँसुरीके स्वरपर ताल देंगे। अपने इस सौभाग्यका अनुसन्धान करके बादल समुद्रके पास पहुँचे और मन्द-मन्द गर्जना करने लगे। मन्द-मन्द इसलिये कि यह ध्वनि प्यारे श्रीकृष्णके कानोंतक न पहुँच जाय।

श्लोक-८

विश्वास-प्रस्तुतिः

निशीथे तम उद‍्भूते जायमाने जनार्दने।
देवक्यां देवरूपिण्यां विष्णुः सर्वगुहाशयः।
आविरासीद् यथा प्राच्यां दिशीन्दुरिव पुष्कलः॥

मूलम्

निशीथे तम उद‍्भूते जायमाने जनार्दने।
देवक्यां देवरूपिण्यां विष्णुः सर्वगुहाशयः।
आविरासीद् यथा प्राच्यां दिशीन्दुरिव पुष्कलः॥

अनुवाद (हिन्दी)

जन्म-मृत्युके चक्रसे छुड़ानेवाले जनार्दनके अवतारका समय था निशीथ। चारों ओर अन्धकारका साम्राज्य था। उसी समय सबके हृदयमें विराजमान भगवान् विष्णु देवरूपिणी देवकीके गर्भसे प्रकट हुए, जैसे पूर्व दिशामें सोलहों कलाओंसे पूर्ण चन्द्रमाका उदय हो गया हो॥ ८॥

श्लोक-९

विश्वास-प्रस्तुतिः

तमद‍्भुतं बालकमम्बुजेक्षणं
चतुर्भुजं शङ्खगदार्युदायुधम्।
श्रीवत्सलक्ष्मं गलशोभिकौस्तुभं
पीताम्बरं सान्द्रपयोदसौभगम्॥

मूलम्

तमद‍्भुतं बालकमम्बुजेक्षणं
चतुर्भुजं शङ्खगदार्युदायुधम्।
श्रीवत्सलक्ष्मं गलशोभिकौस्तुभं
पीताम्बरं सान्द्रपयोदसौभगम्॥

श्लोक-१०

विश्वास-प्रस्तुतिः

महार्हवैदूर्यकिरीटकुण्डल-
त्विषा परिष्वक्तसहस्रकुन्तलम्।
उद्दामकाञ्च्यङ्गदकङ्कणादिभि-
र्विरोचमानं वसुदेव ऐक्षत॥

मूलम्

महार्हवैदूर्यकिरीटकुण्डल-
त्विषा परिष्वक्तसहस्रकुन्तलम्।
उद्दामकाञ्च्यङ्गदकङ्कणादिभि-
र्विरोचमानं वसुदेव ऐक्षत॥

अनुवाद (हिन्दी)

वसुदेवजीने देखा, उनके सामने एक अद‍्भुत बालक है। उसके नेत्र कमलके समान कोमल और विशाल हैं। चार सुन्दर हाथोंमें शंख, गदा, चक्र और कमल लिये हुए हैं। वक्षःस्थलपर श्रीवत्सका चिह्न—अत्यन्त सुन्दर सुवर्णमयी रेखा है। गलेमें कौस्तुभमणि झिलमिला रही है। वर्षाकालीन मेघके समान परम सुन्दर श्यामल शरीरपर मनोहर पीताम्बर फहरा रहा है। बहुमूल्य वैदूर्यमणिके किरीट और कुण्डलकी कान्तिसे सुन्दर-सुन्दर घुँघराले बाल सूर्यकी किरणोंके समान चमक रहे हैं। कमरमें चमचमाती करधनीकी लड़ियाँ लटक रही हैं। बाँहोंमें बाजूबंद और कलाइयोंमें कंकण शोभायमान हो रहे हैं। इन सब आभूषणोंसे सुशोभित बालकके अंग-अंगसे अनोखी छटा छिटक रही है॥ ९-१०॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

अमरद्रुहामपीत्यर्थः ॥ ५-१० ॥

श्लोक-११

विश्वास-प्रस्तुतिः

स विस्मयोत्फुल्लविलोचनो हरिं
सुतं विलोक्यानकदुन्दुभिस्तदा।
कृष्णावतारोत्सवसम्भ्रमोऽस्पृशन्
मुदा द्विजेभ्योऽयुतमाप्लुतो गवाम्॥

मूलम्

स विस्मयोत्फुल्लविलोचनो हरिं
सुतं विलोक्यानकदुन्दुभिस्तदा।
कृष्णावतारोत्सवसम्भ्रमोऽस्पृशन्
मुदा द्विजेभ्योऽयुतमाप्लुतो गवाम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब वसुदेवजीने देखा कि मेरे पुत्रके रूपमें तो स्वयं भगवान् ही आये हैं, तब पहले तो उन्हें असीम आश्चर्य हुआ; फिर आनन्दसे उनकी आँखें खिल उठीं। उनका रोम-रोम परमानन्दमें मग्न हो गया। श्रीकृष्णका जन्मोत्सव मनानेकी उतावलीमें उन्होंने उसी समय ब्राह्मणोंके लिये दस हजार गायोंका संकल्प कर दिया॥ ११॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

आप्लुतः स्नातः स्पृशतः अदात् दत्तवान् ॥ ११ ॥

श्लोक-१२

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथैनमस्तौदवधार्य पूरुषं
परं नताङ्गः कृतधीः कृताञ्जलिः।
स्वरोचिषा भारत सूतिकागृहं
विरोचयन्तं गतभीः प्रभाववित्॥

मूलम्

अथैनमस्तौदवधार्य पूरुषं
परं नताङ्गः कृतधीः कृताञ्जलिः।
स्वरोचिषा भारत सूतिकागृहं
विरोचयन्तं गतभीः प्रभाववित्॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! भगवान् श्रीकृष्ण अपनी अंगकान्तिसे सूतिकागृहको जगमग कर रहे थे। जब वसुदेवजीको यह निश्चय हो गया कि ये तो परम पुरुष परमात्मा ही हैं, तब भगवान‍्का प्रभाव जान लेनेसे उनका सारा भय जाता रहा। अपनी बुद्धि स्थिर करके उन्होंने भगवान‍्के चरणोंमें अपना सिर झुका दिया और फिर हाथ जोड़कर वे उनकी स्तुति करने लगे—॥ १२॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

अस्तौत् स्तुतवान् ॥ १२ ॥

श्लोक-१३

मूलम् (वचनम्)

वसुदेव उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

विदितोऽसि भवान् साक्षात् पुरुषः प्रकृतेः परः।
केवलानुभवानन्दस्वरूपः सर्वबुद्धिदृक्॥

मूलम्

विदितोऽसि भवान् साक्षात् पुरुषः प्रकृतेः परः।
केवलानुभवानन्दस्वरूपः सर्वबुद्धिदृक्॥

अनुवाद (हिन्दी)

वसुदेवजीने कहा—मैं समझ गया कि आप प्रकृतिसे अतीत साक्षात् पुरुषोत्तम हैं। आपका स्वरूप है केवल अनुभव और केवल आनन्द। आप समस्त बुद्धियोंके एकमात्र साक्षी हैं॥ १३॥

श्लोक-१४

विश्वास-प्रस्तुतिः

स एव स्वप्रकृत्येदं सृष्ट्वाग्रे त्रिगुणात्मकम्।
तदनु त्वं ह्यप्रविष्टः प्रविष्ट इव भाव्यसे॥

मूलम्

स एव स्वप्रकृत्येदं सृष्ट्वाग्रे त्रिगुणात्मकम्।
तदनु त्वं ह्यप्रविष्टः प्रविष्ट इव भाव्यसे॥

अनुवाद (हिन्दी)

आप ही सर्गके आदिमें अपनी प्रकृतिसे इस त्रिगुणमय जगत‍्की सृष्टि करते हैं। फिर उसमें प्रविष्ट न होनेपर भी आप प्रविष्टके समान जान पड़ते हैं॥ १४॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

सर्वबुद्धिदृक् सर्वज्ञानधरः ॥ १३ - १४ ॥

श्लोक-१५

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथेमेऽविकृता भावास्तथा ते विकृतैः सह।
नानावीर्याः पृथग्भूता विराजं जनयन्ति हि॥

मूलम्

यथेमेऽविकृता भावास्तथा ते विकृतैः सह।
नानावीर्याः पृथग्भूता विराजं जनयन्ति हि॥

श्लोक-१६

विश्वास-प्रस्तुतिः

सन्निपत्य समुत्पाद्य दृश्यन्तेऽनुगता इव।
प्रागेव विद्यमानत्वान्न तेषामिह सम्भवः॥

मूलम्

सन्निपत्य समुत्पाद्य दृश्यन्तेऽनुगता इव।
प्रागेव विद्यमानत्वान्न तेषामिह सम्भवः॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे जबतक महत्तत्त्व आदि कारण-तत्त्व पृथक्-पृथक् रहते हैं, तबतक उनकी शक्ति भी पृथक्-पृथक् होती है; जब वे इन्द्रियादि सोलह विकारोंके साथ मिलते हैं, तभी इस ब्रह्माण्डकी रचना करते हैं और इसे उत्पन्न करके इसीमें अनुप्रविष्ट-से जान पड़ते हैं; परंतु सच्ची बात तो यह है कि वे किसी भी पदार्थमें प्रवेश नहीं करते। ऐसा होनेका कारण यह है कि उनसे बनी हुई जो भी वस्तु है, उसमें वे पहलेसे ही विद्यमान रहते हैं॥ १५-१६॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

सप्तमहदहङ्कारतन्मात्राः विकृतैः स्थूलभूतैः सन्निपत्येति पञ्चीकरणमुक्तं विराजं ब्रह्माण्डं शयनस्थानभूतम् अनुगताः अंडान्तर्गताः इवशब्दोऽनतिरिक्तार्थः क इवेति बत तत्प्रागेव अण्डोत्पत्तेः प्रागेव विद्यमानत्वात् पृथिव्यादीनामण्डान्तरं नोत्पत्तिरित्यर्थः ।। १५-१६ ।।

श्लोक-१७

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं भवान् बुद्ध्यनुमेयलक्षणै-
र्ग्राह्यैर्गुणैः सन्नपि तद‍्गुणाग्रहः।
अनावृतत्वाद् बहिरन्तरं न ते
सर्वस्य सर्वात्मन आत्मवस्तुनः॥

मूलम्

एवं भवान् बुद्ध्यनुमेयलक्षणै-
र्ग्राह्यैर्गुणैः सन्नपि तद‍्गुणाग्रहः।
अनावृतत्वाद् बहिरन्तरं न ते
सर्वस्य सर्वात्मन आत्मवस्तुनः॥

अनुवाद (हिन्दी)

ठीक वैसे ही बुद्धिके द्वारा केवल गुणोंके लक्षणोंका ही अनुमान किया जाता है और इन्द्रियोंके द्वारा केवल गुणमय विषयोंका ही ग्रहण होता है। यद्यपि आप उनमें रहते हैं, फिर भी उन गुणोंके ग्रहणसे आपका ग्रहण नहीं होता। इसका कारण यह है कि आप सब कुछ हैं, सबके अन्तर्यामी हैं और परमार्थ सत्य, आत्मस्वरूप हैं। गुणोंका आवरण आपको ढक नहीं सकता। इसलिये आपमें न बाहर है न भीतर। फिर आप किसमें प्रवेश करेंगे? (इसलिये प्रवेश न करनेपर भी आप प्रवेश किये हुएके समान दीखते हैं)॥ १७॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

बुद्ध्यनुमेयलक्षणैः बुद्धिनिरूप्यस्वभावैः गुणैः गुणमयकामैः सन्निति एककारणतया अस्तीति न ग्राह्यत्वं तद्गुणग्राहं तत्तद्गुणमयं कार्यं साक्षात्कर्तुं तत्र हेतुरनावृतत्वम् असङ्कुचितज्ञानत्वं बहिरन्तरं न ते बहिर्भागस्तत्प्रतिसम्बध्यन्तर्भागश्च नास्ति व्यापित्वात्, तदेवाह सर्वस्य सर्वशब्दवाच्यस्य सर्वात्मनः सर्वशरीरकस्य आत्मवस्तुनः सर्वेषामात्मवस्तुनः सर्वेषामात्मभूतस्य बहिरन्तरं नेत्यन्वयः || १७ ||

श्लोक-१८

विश्वास-प्रस्तुतिः

य आत्मनो दृश्यगुणेषु सन्निति
व्यवस्यते स्वव्यतिरेकतोऽबुधः।
विनानुवादं न च तन्मनीषितं
सम्यग् यतस्त्यक्तमुपाददत् पुमान्॥

मूलम्

य आत्मनो दृश्यगुणेषु सन्निति
व्यवस्यते स्वव्यतिरेकतोऽबुधः।
विनानुवादं न च तन्मनीषितं
सम्यग् यतस्त्यक्तमुपाददत् पुमान्॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो अपने इन दृश्य गुणोंको अपनेसे पृथक् मानकर सत्य समझता है, वह अज्ञानी है। क्योंकि विचार करनेपर ये देह-गेह आदि पदार्थ वाग्विलासके सिवा और कुछ नहीं सिद्ध होते। विचारके द्वारा जिस वस्तुका अस्तित्व सिद्ध नहीं होता, बल्कि जो बाधित हो जाती है, उसको सत्य माननेवाला पुरुष बुद्धिमान् कैसे हो सकता है?॥ १८॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

अदात्मनः इति आत्मैव नित्यस्तथापि स्वव्यतिरिक्तेषु भोग्यपदार्थेषु सन्निति नित्य इति अबुधो व्यवस्यते अबुध्वा व्यवस्यति तन्मनीषितं न सम्यकू विनानुवादं अनित्यत्वनिषेधार्थमनन्यत्वमनुवादेनाक्तं चेत् तत्सम्यङ्नित्यत्वप्रतिपादनं तत्तु न सत्यमित्यर्थः । यतस्त्यक्तमुपाददत्पुमानिति विवेकिभिरितरानित्यतया त्यक्तं हि तदुबुद्ध्या पुमानुपादत्ते अतो न सत्यमित्यर्थः ॥ १८ ॥

श्लोक-१९

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वत्तोऽस्य जन्मस्थितिसंयमान् विभो
वदन्त्यनीहादगुणादविक्रियात्।
त्वयीश्वरे ब्रह्मणि नो विरुध्यते
त्वदाश्रयत्वादुपचर्यते गुणैः॥

मूलम्

त्वत्तोऽस्य जन्मस्थितिसंयमान् विभो
वदन्त्यनीहादगुणादविक्रियात्।
त्वयीश्वरे ब्रह्मणि नो विरुध्यते
त्वदाश्रयत्वादुपचर्यते गुणैः॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रभो! कहते हैं कि आप स्वयं समस्त क्रियाओं, गुणों और विकारोंसे रहित हैं। फिर भी इस जगत‍्की सृष्टि, स्थिति और प्रलय आपसे ही होते हैं। यह बात परम ऐश्वर्यशाली परब्रह्म परमात्मा आपके लिये असंगत नहीं है। क्योंकि तीनों गुणोंके आश्रय आप ही हैं, इसलिये उन गुणोंके कार्य आदिका आपमें ही आरोप किया जाता है॥ १९॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

अनीहात् संकल्पेतरव्यापाररहितात् अगुणात् गुणत्रयरहितात् अविक्रियात् अविक्रियस्वरूपात् त्वयि न विरुध्यते सर्वशक्तित्वादित्यर्थं तस्मिन् कथं सृज्यत्वादिव्यपदेशः ? इत्यत्राह त्वदाश्रयत्वादिति । स्वशरीरभूतस्य कार्यवर्गस्यान्तरात्मतया धारकत्वात्तत्तच्छरीरगतैरुत्पत्यादिभिर्विशिष्टे त्वयि न तु साक्षादुच्यत उपचर्यते इत्यर्थः ॥ १९ ॥

श्लोक-२०

विश्वास-प्रस्तुतिः

स त्वं त्रिलोकस्थितये स्वमायया
बिभर्षि शुक्लं खलु वर्णमात्मनः।
सर्गाय रक्तं रजसोपबृंहितं
कृष्णं च वर्णं तमसा जनात्यये॥

मूलम्

स त्वं त्रिलोकस्थितये स्वमायया
बिभर्षि शुक्लं खलु वर्णमात्मनः।
सर्गाय रक्तं रजसोपबृंहितं
कृष्णं च वर्णं तमसा जनात्यये॥

अनुवाद (हिन्दी)

आप ही तीनों लोकोंकी रक्षा करनेके लिये अपनी मायासे सत्त्वमय शुक्लवर्ण (पोषणकारी विष्णुरूप) धारण करते हैं, उत्पत्तिके लिये रजःप्रधान रक्तवर्ण (सृजनकारी ब्रह्मारूप) और प्रलयके समय तमोगुणप्रधान कृष्णवर्ण (संहारकारी रुद्ररूप) स्वीकार करते हैं॥ २०॥

श्लोक-२१

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वमस्य लोकस्य विभो रिरक्षिषु-
र्गृहेऽवतीर्णोऽसि ममाखिलेश्वर।
राजन्यसंज्ञासुरकोटियूथपै-
र्निर्व्यूह्यमाना निहनिष्यसे चमूः॥

मूलम्

त्वमस्य लोकस्य विभो रिरक्षिषु-
र्गृहेऽवतीर्णोऽसि ममाखिलेश्वर।
राजन्यसंज्ञासुरकोटियूथपै-
र्निर्व्यूह्यमाना निहनिष्यसे चमूः॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रभो! आप सर्वशक्तिमान् और सबके स्वामी हैं। इस संसारकी रक्षाके लिये ही आपने मेरे घर अवतार लिया है। आजकल कोटि-कोटि असुर सेनापतियोंने राजाका नाम धारण कर रखा है और अपने अधीन बड़ी-बड़ी सेनाएँ कर रखी हैं। आप उन सबका संहार करेंगे॥ २१॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

स्वमायया स्वसङ्कल्पेन शुक्लादिशब्दैः सत्वादिगुणा लक्ष्यन्ते ।। २०-२१ ॥

श्लोक-२२

विश्वास-प्रस्तुतिः

अयं त्वसभ्यस्तव जन्म नौ गृहे
श्रुत्वाग्रजांस्ते न्यवधीत् सुरेश्वर।
स तेऽवतारं पुरुषैः समर्पितं
श्रुत्वाधुनैवाभिसरत्युदायुधः॥

मूलम्

अयं त्वसभ्यस्तव जन्म नौ गृहे
श्रुत्वाग्रजांस्ते न्यवधीत् सुरेश्वर।
स तेऽवतारं पुरुषैः समर्पितं
श्रुत्वाधुनैवाभिसरत्युदायुधः॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवताओंके भी आराध्यदेव प्रभो! यह कंस बड़ा दुष्ट है। इसे जब मालूम हुआ कि आपका अवतार हमारे घर होनेवाला है, तब उसने आपके भयसे आपके बड़े भाइयोंको मार डाला। अभी उसके दूत आपके अवतारका समाचार उसे सुनायेंगे और वह अभी-अभी हाथमें शस्त्र लेकर दौड़ा आयेगा॥ २२॥

श्लोक-२३

मूलम् (वचनम्)

श्रीशुक उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथैनमात्मजं वीक्ष्य महापुरुषलक्षणम्।
देवकी तमुपाधावत् कंसाद् भीता शुचिस्मिता॥

मूलम्

अथैनमात्मजं वीक्ष्य महापुरुषलक्षणम्।
देवकी तमुपाधावत् कंसाद् भीता शुचिस्मिता॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! इधर देवकीने देखा कि मेरे पुत्रमें तो पुरुषोत्तम भगवान‍्के सभी लक्षण मौजूद हैं। पहले तो उन्हें कंससे कुछ भय मालूम हुआ, परन्तु फिर वे बड़े पवित्र भावसे मुसकराती हुई स्तुति करने लगीं॥ २३॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

तमस्यः तमोगुणाभिभूतः ॥ २२-२३ ॥

श्लोक-२४

मूलम् (वचनम्)

देवक्युवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

रूपं यत् तत् प्राहुरव्यक्तमाद्यं
ब्रह्म ज्योतिर्निर्गुणं निर्विकारम्।
सत्तामात्रं निर्विशेषं निरीहं
स त्वं साक्षाद् विष्णुरध्यात्मदीपः॥

मूलम्

रूपं यत् तत् प्राहुरव्यक्तमाद्यं
ब्रह्म ज्योतिर्निर्गुणं निर्विकारम्।
सत्तामात्रं निर्विशेषं निरीहं
स त्वं साक्षाद् विष्णुरध्यात्मदीपः॥

अनुवाद (हिन्दी)

माता देवकीने कहा—प्रभो! वेदोंने आपके जिस रूपको अव्यक्त और सबका कारण बतलाया है, जो ब्रह्म, ज्योतिःस्वरूप, समस्त गुणोंसे रहित और विकारहीन है, जिसे विशेषणरहित—अनिर्वचनीय, निष्क्रिय एवं केवल विशुद्ध सत्ताके रूपमें कहा गया है—वही बुद्धि आदिके प्रकाशक विष्णु आप स्वयं हैं॥ २४॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

रूप्यत इति रूपं स्वरूपम् अव्यक्तमिन्द्रियाग्राह्यं निर्गुणं सत्वादिगुणरहितं निर्विकारं शोकमोहादिविक्रियारहितं सत्तामात्रं वृद्धिक्षयादिरहितं निर्विशेषं शब्दादिरहितं निरीहं पुण्यपापरूपव्यापाररहितम् आत्मज्ञानं दीपो यस्य सः अध्यात्मदीपः आत्मविषयज्ञानप्रदो वा ॥ २४ ॥

श्लोक-२५

विश्वास-प्रस्तुतिः

नष्टे लोके द्विपरार्धावसाने
महाभूतेष्वादिभूतं गतेषु।
व्यक्तेऽव्यक्तं कालवेगेन याते
भवानेकः शिष्यते शेषसंज्ञः॥

मूलम्

नष्टे लोके द्विपरार्धावसाने
महाभूतेष्वादिभूतं गतेषु।
व्यक्तेऽव्यक्तं कालवेगेन याते
भवानेकः शिष्यते शेषसंज्ञः॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिस समय ब्रह्माकी पूरी आयु—दो परार्ध समाप्त हो जाते हैं, काल शक्तिके प्रभावसे सारे लोक नष्ट हो जाते हैं, पंच महाभूत अहंकारमें, अहंकार महत्तत्त्वमें और महत्तत्त्व प्रकृतिमें लीन हो जाता है—उस समय एकमात्र आप ही शेष रह जाते हैं। इसीसे आपका एक नाम ‘शेष’ भी है॥ २५॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

आदिभूतं भूतादिं महदहङ्कारं व्यक्ते महति ॥ २५ ॥

श्लोक-२६

विश्वास-प्रस्तुतिः

योऽयं कालस्तस्य तेऽव्यक्तबन्धो
चेष्टामाहुश्चेष्टते येन विश्वम्।
निमेषादिर्वत्सरान्तो महीयां-
स्तं त्वेशानं क्षेमधाम प्रपद्ये॥

मूलम्

योऽयं कालस्तस्य तेऽव्यक्तबन्धो
चेष्टामाहुश्चेष्टते येन विश्वम्।
निमेषादिर्वत्सरान्तो महीयां-
स्तं त्वेशानं क्षेमधाम प्रपद्ये॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रकृतिके एकमात्र सहायक प्रभो! निमेषसे लेकर वर्षपर्यन्त अनेक विभागोंमें विभक्त जो काल है, जिसकी चेष्टासे यह सम्पूर्ण विश्व सचेष्ट हो रहा है और जिसकी कोई सीमा नहीं है, वह आपकी लीलामात्र है। आप सर्वशक्तिमान् और परम कल्याणके आश्रय हैं। मैं आपकी शरण लेती हूँ॥ २६॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

चेष्टामाहुः - स्वसङ्कल्पाधीनकालेनेत्यर्थः क्षेमधाम क्षेमस्याश्रयं “क्षेमं वहामि” इत्युक्तम् ॥ २६ ॥

श्लोक-२७

विश्वास-प्रस्तुतिः

मर्त्यो मृत्युव्यालभीतः पलायन्
लोकान् सर्वान्निर्भयं नाध्यगच्छत्।
त्वत्पादाब्जं प्राप्य यदृच्छयाद्य
स्वस्थः शेते मृत्युरस्मादपैति॥

मूलम्

मर्त्यो मृत्युव्यालभीतः पलायन्
लोकान् सर्वान्निर्भयं नाध्यगच्छत्।
त्वत्पादाब्जं प्राप्य यदृच्छयाद्य
स्वस्थः शेते मृत्युरस्मादपैति॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रभो! यह जीव मृत्युग्रस्त हो रहा है। यह मृत्युरूप कराल व्यालसे भयभीत होकर सम्पूर्ण लोक-लोकान्तरोंमें भटकता रहा है; परन्तु इसे कभी कहीं भी ऐसा स्थान न मिल सका, जहाँ यह निर्भय होकर रहे। आज बड़े भाग्यसे इसे आपके चरणारविन्दोंकी शरण मिल गयी। अतः अब यह स्वस्थ होकर सुखकी नींद सो रहा है। औरोंकी तो बात ही क्या, स्वयं मृत्यु भी इससे भयभीत होकर भाग गयी है॥ २७॥

श्लोक-२८

विश्वास-प्रस्तुतिः

स त्वं घोरादुग्रसेनात्मजान्न-
स्त्राहि त्रस्तान् भृत्यवित्रासहासि।
रूपं चेदं पौरुषं ध्यानधिष्ण्यं
मा प्रत्यक्षं मांसदृशां कृषीष्ठाः॥

मूलम्

स त्वं घोरादुग्रसेनात्मजान्न-
स्त्राहि त्रस्तान् भृत्यवित्रासहासि।
रूपं चेदं पौरुषं ध्यानधिष्ण्यं
मा प्रत्यक्षं मांसदृशां कृषीष्ठाः॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रभो! आप हैं भक्तभयहारी। और हमलोग इस दुष्ट कंससे बहुत ही भयभीत हैं। अतः आप हमारी रक्षा कीजिये। आपका यह चतुर्भुज दिव्यरूप ध्यानकी वस्तु है। इसे केवल मांस-मज्जामय शरीरपर ही दृष्टि रखनेवाले देहाभिमानी पुरुषोंके सामने प्रकट मत कीजिये॥ २८॥

श्लोक-२९

विश्वास-प्रस्तुतिः

जन्म ते मय्यसौ पापो माँ विद्यान्मधुसूदन।
समुद्विजे भवद्धेतोः कंसादहमधीरधीः॥

मूलम्

जन्म ते मय्यसौ पापो माँ विद्यान्मधुसूदन।
समुद्विजे भवद्धेतोः कंसादहमधीरधीः॥

अनुवाद (हिन्दी)

मधुसूदन! इस पापी कंसको यह बात मालूम न हो कि आपका जन्म मेरे गर्भसे हुआ है। मेरा धैर्य टूट रहा है। आपके लिये मैं कंससे बहुत डर रही हूँ॥ २९॥

श्लोक-३०

विश्वास-प्रस्तुतिः

उपसंहर विश्वात्मन्नदो रूपमलौकिकम्।
शङ्खचक्रगदापद्मश्रिया जुष्टं चतुर्भुजम्॥

मूलम्

उपसंहर विश्वात्मन्नदो रूपमलौकिकम्।
शङ्खचक्रगदापद्मश्रिया जुष्टं चतुर्भुजम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

विश्वात्मन्! आपका यह रूप अलौकिक है। आप शंख, चक्र, गदा और कमलकी शोभासे युक्त अपना यह चतुर्भुजरूप छिपा लीजिये॥ ३०॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

ध्यानधिष्ण्यं योगिध्येयं पौरुषं परमपुरुषत्वसूचकम् ॥ २७-३० ॥

श्लोक-३१

विश्वास-प्रस्तुतिः

विश्वं यदेतत् स्वतनौ निशान्ते
यथावकाशं पुरुषः परो भवान्।
बिभर्ति सोऽयं मम गर्भगोऽभू-
दहो नृलोकस्य विडम्बनं हि तत्॥

मूलम्

विश्वं यदेतत् स्वतनौ निशान्ते
यथावकाशं पुरुषः परो भवान्।
बिभर्ति सोऽयं मम गर्भगोऽभू-
दहो नृलोकस्य विडम्बनं हि तत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रलयके समय आप इस सम्पूर्ण विश्वको अपने शरीरमें वैसे ही स्वाभाविक रूपसे धारण करते हैं, जैसे कोई मनुष्य अपने शरीरमें रहनेवाले छिद्ररूप आकाशको। वही परम पुरुष परमात्मा आप मेरे गर्भवासी हुए, यह आपकी अद‍्भुत मनुष्य-लीला नहीं तो और क्या है?॥ ३१॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

विडम्बनम् उपहासास्पदम् ।। ३१ ।।

श्लोक-३२

मूलम् (वचनम्)

श्रीभगवानुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वमेव पूर्वसर्गेऽभूः पृश्निः स्वायम्भुवे सति।
तदायं सुतपा नाम प्रजापतिरकल्मषः॥

मूलम्

त्वमेव पूर्वसर्गेऽभूः पृश्निः स्वायम्भुवे सति।
तदायं सुतपा नाम प्रजापतिरकल्मषः॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीभगवान‍्ने कहा—देवि! स्वायम्भुव मन्वन्तरमें जब तुम्हारा पहला जन्म हुआ था, उस समय तुम्हारा नाम था पृश्नि और ये वसुदेव सुतपा नामके प्रजापति थे। तुम दोनोंके हृदय बड़े ही शुद्ध थे॥ ३२॥

श्लोक-३३

विश्वास-प्रस्तुतिः

युवां वै ब्रह्मणाऽऽदिष्टौ
प्रजासर्गे यदा ततः।
सन्नियम्येन्द्रियग्रामं
तेपाथे परमं तपः॥

मूलम्

युवां वै ब्रह्मणाऽऽदिष्टौ प्रजासर्गे यदा ततः।
सन्नियम्येन्द्रियग्रामं तेपाथे परमं तपः॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब ब्रह्माजीने तुम दोनोंको सन्तान उत्पन्न करनेकी आज्ञा दी, तब तुमलोगोंने इन्द्रियोंका दमन करके उत्कृष्ट तपस्या की॥ ३३॥

श्लोक-३४

विश्वास-प्रस्तुतिः

वर्ष-वातातप-हिम-
घर्म-कालगुणान् अनु।
सहमानौ श्वास-रोध-
विनिर्धूत-मनोमलौ॥

मूलम्

वर्षवातातपहिमघर्मकालगुणाननु।
सहमानौ श्वासरोधविनिर्धूतमनोमलौ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तुम दोनोंने वर्षा, वायु, घाम, शीत, उष्ण आदि कालके विभिन्न गुणोंका सहन किया और प्राणायामके द्वारा अपने मनके मल धो डाले॥ ३४॥

श्लोक-३५

विश्वास-प्रस्तुतिः

शीर्णपर्णानिलाहाराव्
उपशान्तेन चेतसा।
मत्तः कामान् अभीप्सन्तौ
मद्-आराधनम् ईहतुः

मूलम्

शीर्णपर्णानिलाहारावुपशान्तेन चेतसा।
मत्तः कामानभीप्सन्तौ मदाराधनमीहतुः॥

अनुवाद (हिन्दी)

तुम दोनों कभी सूखे पत्ते खा लेते और कभी हवा पीकर ही रह जाते। तुम्हारा चित्त बड़ा शान्त था। इस प्रकार तुमलोगोंने मुझसे अभीष्ट वस्तु प्राप्त करनेकी इच्छासे मेरी आराधना की॥ ३५॥

श्लोक-३६

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं वां तप्यतोस्तीव्रं तपः परमदुष्करम्।
दिव्यवर्षसहस्राणि द्वादशेयुर्मदात्मनोः॥

मूलम्

एवं वां तप्यतोस्तीव्रं तपः परमदुष्करम्।
दिव्यवर्षसहस्राणि द्वादशेयुर्मदात्मनोः॥

अनुवाद (हिन्दी)

मुझमें चित्त लगाकर ऐसा परम दुष्कर और घोर तप करते-करते देवताओंके बारह हजार वर्ष बीत गये॥ ३६॥

श्लोक-३७

विश्वास-प्रस्तुतिः

तदा वां परितुष्टोऽहममुना वपुषानघे।
तपसा श्रद्धया नित्यं भक्त्या च हृदि भावितः॥

मूलम्

तदा वां परितुष्टोऽहममुना वपुषानघे।
तपसा श्रद्धया नित्यं भक्त्या च हृदि भावितः॥

श्लोक-३८

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रादुरासं वरदराड् युवयोः कामदित्सया।
व्रियतां वर इत्युक्ते मादृशो वां वृतः सुतः॥

मूलम्

प्रादुरासं वरदराड् युवयोः कामदित्सया।
व्रियतां वर इत्युक्ते मादृशो वां वृतः सुतः॥

अनुवाद (हिन्दी)

पुण्यमयी देवि! उस समय मैं तुम दोनोंपर प्रसन्न हुआ। क्योंकि तुम दोनोंने तपस्या, श्रद्धा और प्रेममयी भक्तिसे अपने हृदयमें नित्य-निरन्तर मेरी भावना की थी। उस समय तुम दोनोंकी अभिलाषा पूर्ण करनेके लिये वर देनेवालोंका राजा मैं इसी रूपसे तुम्हारे सामने प्रकट हुआ। जब मैंने कहा कि ‘तुम्हारी जो इच्छा हो, मुझसे माँग लो’, तब तुम दोनोंने मेरे-जैसा पुत्र माँगा॥ ३७-३८॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

स्वायम्भुवो स्वायम्भूवमन्वन्तरे अभवः ।। ३२-३८ ॥

श्लोक-३९

विश्वास-प्रस्तुतिः

अजुष्टग्राम्यविषयावनपत्यौ च दम्पती।
न वव्राथेऽपवर्गं मे मोहितौ मम मायया॥

मूलम्

अजुष्टग्राम्यविषयावनपत्यौ च दम्पती।
न वव्राथेऽपवर्गं मे मोहितौ मम मायया॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समयतक विषय-भोगोंसे तुम लोगोंका कोई सम्बन्ध नहीं हुआ था। तुम्हारे कोई सन्तान भी न थी। इसलिये मेरी मायासे मोहित होकर तुम दोनोंने मुझसे मोक्ष नहीं माँगा॥ ३९॥

श्लोक-४०

विश्वास-प्रस्तुतिः

गते मयि युवां लब्ध्वा वरं मत्सदृशं सुतम्।
ग्राम्यान् भोगानभुञ्जाथां युवां प्राप्तमनोरथौ॥

मूलम्

गते मयि युवां लब्ध्वा वरं मत्सदृशं सुतम्।
ग्राम्यान् भोगानभुञ्जाथां युवां प्राप्तमनोरथौ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तुम्हें मेरे-जैसा पुत्र होनेका वर प्राप्त हो गया और मैं वहाँसे चला गया। अब सफल मनोरथ होकर तुमलोग विषयोंका भोग करने लगे॥ ४०॥

श्लोक-४१

विश्वास-प्रस्तुतिः

अदृष्ट्वान्यतमं लोके शीलौदार्यगुणैः समम्।
अहं सुतो वामभवं पृश्निगर्भ इति श्रुतः॥

मूलम्

अदृष्ट्वान्यतमं लोके शीलौदार्यगुणैः समम्।
अहं सुतो वामभवं पृश्निगर्भ इति श्रुतः॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैंने देखा कि संसारमें शील-स्वभाव, उदारता तथा अन्य गुणोंमें मेरे-जैसा दूसरा कोई नहीं है; इसलिये मैं ही तुम दोनोंका पुत्र हुआ और उस समय मैं ‘पृश्निगर्भ’ के नामसे विख्यात हुआ॥ ४१॥

श्लोक-४२

विश्वास-प्रस्तुतिः

तयोर्वां पुनरेवाहमदित्यामास कश्यपात्।
उपेन्द्र इति विख्यातो वामनत्वाच्च वामनः॥

मूलम्

तयोर्वां पुनरेवाहमदित्यामास कश्यपात्।
उपेन्द्र इति विख्यातो वामनत्वाच्च वामनः॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर दूसरे जन्ममें तुम हुईं अदिति और वसुदेव हुए कश्यप। उस समय भी मैं तुम्हारा पुत्र हुआ। मेरा नाम था ‘उपेन्द्र’। शरीर छोटा होनेके कारण लोग मुझे ‘वामन’ भी कहते थे॥ ४२॥

श्लोक-४३

विश्वास-प्रस्तुतिः

तृतीयेऽस्मिन् भवेऽहं वै तेनैव वपुषाथ वाम्।
जातो भूयस्तयोरेव सत्यं मे व्याहृतं सति॥

मूलम्

तृतीयेऽस्मिन् भवेऽहं वै तेनैव वपुषाथ वाम्।
जातो भूयस्तयोरेव सत्यं मे व्याहृतं सति॥

अनुवाद (हिन्दी)

सती देवकी! तुम्हारे इस तीसरे जन्ममें भी मैं उसी रूपसे फिर तुम्हारा पुत्र हुआ हूँ*। मेरी वाणी सर्वदा सत्य होती है॥ ४३॥

पादटिप्पनी
  • भगवान् श्रीकृष्णने विचार किया कि मैंने इनको वर तो यह दे दिया कि मेरे सदृश पुत्र होगा, परन्तु इसको मैं पूरा नहीं कर सकता। क्योंकि वैसा कोई है ही नहीं। किसीको कोई वस्तु देनेकी प्रतिज्ञा करके पूरी न कर सके तो उसके समान तिगुनी वस्तु देनी चाहिये। मेरे सदृश पदार्थके समान मैं ही हूँ। अतएव मैं अपनेको तीन बार इनका पुत्र बनाऊँगा।

श्लोक-४४

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतद् वां दर्शितं रूपं प्राग्जन्मस्मरणाय मे।
नान्यथा मद‍्भवं ज्ञानं मर्त्यलिङ्गेन जायते॥

मूलम्

एतद् वां दर्शितं रूपं प्राग्जन्मस्मरणाय मे।
नान्यथा मद‍्भवं ज्ञानं मर्त्यलिङ्गेन जायते॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैंने तुम्हें अपना यह रूप इसलिये दिखला दिया है कि तुम्हें मेरे पूर्व अवतारोंका स्मरण हो जाय। यदि मैं ऐसा नहीं करता, तो केवल मनुष्य-शरीरसे मेरे अवतारकी पहचान नहीं हो पाती॥ ४४॥

श्लोक-४५

विश्वास-प्रस्तुतिः

युवां मां पुत्रभावेन ब्रह्मभावेन चासकृत्।
चिन्तयन्तौ कृतस्नेहौ यास्येथे मद‍्गतिं पराम्॥

मूलम्

युवां मां पुत्रभावेन ब्रह्मभावेन चासकृत्।
चिन्तयन्तौ कृतस्नेहौ यास्येथे मद‍्गतिं पराम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

तुम दोनों मेरे प्रति पुत्रभाव तथा निरन्तर ब्रह्मभाव रखना। इस प्रकार वात्सल्य-स्नेह और चिन्तनके द्वारा तुम्हें मेरे परम पदकी प्राप्ति होगी॥ ४५॥

श्लोक-४६

मूलम् (वचनम्)

श्रीशुक उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्युक्त्वाऽऽसीद्धरिस्तूष्णीं भगवानात्ममायया।
पित्रोः सम्पश्यतोः सद्यो बभूव प्राकृतः शिशुः॥

मूलम्

इत्युक्त्वाऽऽसीद्धरिस्तूष्णीं भगवानात्ममायया।
पित्रोः सम्पश्यतोः सद्यो बभूव प्राकृतः शिशुः॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—भगवान् इतना कहकर चुप हो गये। अब उन्होंने अपनी योगमायासे पिता-माताके देखते-देखते तुरंत एक साधारण शिशुका रूप धारण कर लिया॥ ४६॥

श्लोक-४७

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततश्च शौरिर्भगवत्प्रचोदितः
सुतं समादाय स सूतिकागृहात्।
यदा बहिर्गन्तुमियेष तर्ह्यजा
या योगमायाजनि नन्दजायया॥

मूलम्

ततश्च शौरिर्भगवत्प्रचोदितः
सुतं समादाय स सूतिकागृहात्।
यदा बहिर्गन्तुमियेष तर्ह्यजा
या योगमायाजनि नन्दजायया॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब वसुदेवजीने भगवान‍्की प्रेरणासे अपने पुत्रको लेकर सूतिकागृहसे बाहर निकलनेकी इच्छा की। उसी समय नन्दपत्नी यशोदाके गर्भसे उस योगमायाका जन्म हुआ, जो भगवान‍्की शक्ति होनेके कारण उनके समान ही जन्म-रहित है॥ ४७॥

श्लोक-४८

विश्वास-प्रस्तुतिः

तया हृतप्रत्ययसर्ववृत्तिषु
द्वाःस्थेषु पौरेष्वपि शायितेष्वथ।
द्वारस्तु सर्वाः पिहिता दुरत्यया
बृहत्कपाटायसकीलशृङ्खलैः॥

मूलम्

तया हृतप्रत्ययसर्ववृत्तिषु
द्वाःस्थेषु पौरेष्वपि शायितेष्वथ।
द्वारस्तु सर्वाः पिहिता दुरत्यया
बृहत्कपाटायसकीलशृङ्खलैः॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

आत्ममायया स्वस्याश्चर्यशक्त्या सङ्कल्परूपज्ञानाद्वा ।। ३९-४८ ।।

श्लोक-४९

विश्वास-प्रस्तुतिः

ताः कृष्णवाहे वसुदेव आगते
स्वयं व्यवर्यन्त यथा तमो रवेः।
ववर्ष पर्जन्य उपांशुगर्जितः
शेषोऽन्वगाद् वारि निवारयन् फणैः॥

मूलम्

ताः कृष्णवाहे वसुदेव आगते
स्वयं व्यवर्यन्त यथा तमो रवेः।
ववर्ष पर्जन्य उपांशुगर्जितः
शेषोऽन्वगाद् वारि निवारयन् फणैः॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसी योगमायाने द्वारपाल और पुरवासियोंकी समस्त इन्द्रिय वृत्तियोंकी चेतना हर ली, वे सब-के-सब अचेत होकर सो गये। बंदीगृहके सभी दरवाजे बंद थे। उनमें बड़े-बड़े किवाड़, लोहेकी जंजीरें और ताले जड़े हुए थे। उनके बाहर जाना बड़ा ही कठिन था; परन्तु वसुदेवजी भगवान् श्रीकृष्णको गोदमें लेकर ज्यों ही उनके निकट पहुँचे, त्यों ही वे सब दरवाजे आप-से-आप खुल गये१। ठीक वैसे ही, जैसे सूर्योदय होते ही अन्धकार दूर हो जाता है। उस समय बादल धीरे-धीरे गरजकर जलकी फुहारें छोड़ रहे थे। इसलिये शेषजी अपने फनोंसे जलको रोकते हुए भगवान‍्के पीछे-पीछे चलने लगे२॥ ४८-४९॥

पादटिप्पनी

१. जिनके नाम-श्रवणमात्रसे असंख्य जन्मार्जित प्रारब्ध-बन्धन ध्वस्त हो जाते हैं, वे ही प्रभु जिसकी गोदमें आ गये, उसकी हथकड़ी-बेड़ी खुल जाय, इसमें क्या आश्चर्य है?
२. बलरामजीने विचार किया कि मैं बड़ा भाई बना तो क्या, सेवा ही मेरा मुख्य धर्म है। इसलिये वे अपने शेषरूपसे श्रीकृष्णके छत्र बनकर जलका निवारण करते हुए चले। उन्होंने सोचा कि यदि मेरे रहते मेरे स्वामीको वर्षासे कष्ट पहुँचा तो मुझे धिक्‍कार है। इसलिये उन्होंने अपना सिर आगे कर दिया। अथवा उन्होंने यह सोचा कि ये विष्णुपद (आकाश) वासी मेघ परोपकारके लिये अधःपतित होना स्वीकार कर लेते हैं, इसलिये बलिके समान सिरसे वन्दनीय हैं।

श्रीसुदर्शनसूरिः

उपांशुगर्जितम् उपांशुत्वं पौराणामप्रबोधाय वारि वर्षजलम् ॥ ४९ ॥

श्लोक-५०

विश्वास-प्रस्तुतिः

मघोनि वर्षत्यसकृद् यमानुजा
गम्भीरतोयौघजवोर्मिफेनिला।
भयानकावर्तशताकुला नदी
मार्गं ददौ सिन्धुरिव श्रियः पतेः॥

मूलम्

मघोनि वर्षत्यसकृद् यमानुजा
गम्भीरतोयौघजवोर्मिफेनिला।
भयानकावर्तशताकुला नदी
मार्गं ददौ सिन्धुरिव श्रियः पतेः॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन दिनों बार-बार वर्षा होती रहती थी, इससे यमुनाजी बहुत बढ़ गयी थीं१। उनका प्रवाह गहरा और तेज हो गया था। तरल तरंगोंके कारण जलपर फेन-ही-फेन हो रहा था। सैकड़ों भयानक भँवर पड़ रहे थे। जैसे सीतापति भगवान् श्रीरामजीको समुद्रने मार्ग दे दिया था, वैसे ही यमुनाजीने भगवान‍्को मार्ग दे दिया२॥ ५०॥

पादटिप्पनी

१. १. श्रीकृष्ण शिशुको अपनी ओर आते देखकर यमुनाजीने विचार किया—अहा! जिनके चरणोंकी धूलि सत्पुरुषोंके मानस-ध्यानका विषय है, वे ही आज मेरे तटपर आ रहे हैं। वे आनन्द और प्रेमसे भर गयीं, आँखोंसे इतने आँसू निकले कि बाढ़ आ गयी।
२. मुझे यमराजकी बहिन समझकर श्रीकृष्ण अपनी आँख न फेर लें, इसलिये वे अपने विशाल जीवनका प्रदर्शन करने लगीं।
३. ये गोपालनके लिये गोकुलमें जा रहे हैं, ये सहस्र-सहस्र लहरियाँ गौएँ ही तो हैं। ये उन्हींके समान इनका भी पालन करें।
४. एक कालियनाग तो मुझमें पहलेसे ही है, यह दूसरे शेषनाग आ रहे हैं। अब मेरी क्या गति होगी—यह सोचकर यमुनाजी अपने थपेड़ोंसे उनका निवारण करनेके लिये बढ़ गयीं।
२. १. एकाएक यमुनाजीके मनमें विचार आया कि मेरे अगाध जलको देखकर कहीं श्रीकृष्ण यह न सोच लें कि मैं इसमें खेलूँगा कैसे, इसलिये वे तुरंत कहीं कण्ठभर, कहीं नाभिभर और कहीं घुटनोंतक जलवाली हो गयीं।
२. जैसे दुःखी मनुष्य दयालु पुरुषके सामने अपना मन खोलकर रख देता है, वैसे ही कालियनागसे त्रस्त अपने हृदयका दुःख निवेदन कर देनेके लिये यमुनाजीने भी अपना दिल खोलकर श्रीकृष्णके सामने रख दिया।
३. मेरी नीरसता देखकर श्रीकृष्ण कहीं जलक्रीडा करना और पटरानी बनाना अस्वीकार न कर दें, इसलिये वे उच्छृंखलता छोड़कर बड़ी विनयसे अपने हृदयकी संकोचपूर्ण रसरीति प्रकट करने लगीं।
४. जब इन्होंने सूर्यवंशमें रामावतार ग्रहण किया, तब मार्ग न देनेपर चन्द्रमाके पिता समुद्रको बाँध दिया था। अब ये चन्द्रवंशमें प्रकट हुए हैं और मैं सूर्यकी पुत्री हूँ। यदि मैं इन्हें मार्ग न दूँगी तो ये मुझे भी बाँध देंगे। इस डरसे मानो यमुनाजी दो भागोंमें बँट गयीं।
५. सत्पुरुष कहते हैं कि हृदयमें भगवान‍्के आ जानेपर अलौकिक सुख होता है। मानो उसीका उपभोग करनेके लिये यमुनाजीने भगवान‍्को अपने भीतर ले लिया।
६. मेरा नाम कृष्णा, मेरा जल कृष्ण, मेरे बाहर श्रीकृष्ण हैं। फिर मेरे हृदयमें ही उनकी स्फूर्ति क्यों न हो? ऐसा सोचकर मार्ग देनेके बहाने यमुनाजीने श्रीकृष्णको अपने हृदयमें ले लिया।

श्लोक-५१

विश्वास-प्रस्तुतिः

नन्दव्रजं शौरिरुपेत्य तत्र तान्
गोपान् प्रसुप्तानुपलभ्य निद्रया।
सुतं यशोदाशयने निधाय त-
त्सुतामुपादाय पुनर्गृहानगात्॥

मूलम्

नन्दव्रजं शौरिरुपेत्य तत्र तान्
गोपान् प्रसुप्तानुपलभ्य निद्रया।
सुतं यशोदाशयने निधाय त-
त्सुतामुपादाय पुनर्गृहानगात्॥

अनुवाद (हिन्दी)

वसुदेवजीने नन्दबाबाके गोकुलमें जाकर देखा कि सब-के-सब गोप नींदसे अचेत पड़े हुए हैं। उन्होंने अपने पुत्रको यशोदाजीकी शय्यापर सुला दिया और उनकी नवजात कन्या लेकर वे बंदीगृहमें लौट आये॥ ५१॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

यमानुजा यमुना श्रियःपतेः सीतापतेः ।। ५०-५१ ।।

श्लोक-५२

विश्वास-प्रस्तुतिः

देवक्याः शयने न्यस्य वसुदेवोऽथ दारिकाम्।
प्रतिमुच्य पदोर्लोहमास्ते पूर्ववदावृतः॥

मूलम्

देवक्याः शयने न्यस्य वसुदेवोऽथ दारिकाम्।
प्रतिमुच्य पदोर्लोहमास्ते पूर्ववदावृतः॥

अनुवाद (हिन्दी)

जेलमें पहुँचकर वसुदेवजीने उस कन्याको देवकीकी शय्यापर सुला दिया और अपने पैरोंमें बेड़ियाँ डाल लीं तथा पहलेकी तरह वे बंदीगृहमें बंद हो गये॥ ५२॥

श्लोक-५३

विश्वास-प्रस्तुतिः

यशोदा नन्दपत्नी च जातं परमबुध्यत।
न तल्लिङ्गं परिश्रान्ता निद्रयापगतस्मृतिः॥

मूलम्

यशोदा नन्दपत्नी च जातं परमबुध्यत।
न तल्लिङ्गं परिश्रान्ता निद्रयापगतस्मृतिः॥

अनुवाद (हिन्दी)

उधर नन्दपत्नी यशोदाजीको इतना तो मालूम हुआ कि कोई सन्तान हुई है, परन्तु वे यह न जान सकीं कि पुत्र है या पुत्री। क्योंकि एक तो उन्हें बड़ा परिश्रम हुआ था और दूसरे योगमायाने उन्हें अचेत कर दिया था*॥ ५३॥

पादटिप्पनी
  • भगवान् श्रीकृष्णने इस प्रसंगमें यह प्रकट किया कि जो मुझे प्रेमपूर्वक अपने हृदयमें धारण करता है, उसके बन्धन खुल जाते हैं, जेलसे छुटकारा मिल जाता है, बड़े-बड़े फाटक टूट जाते हैं, पहरेदारोंका पता नहीं चलता, भव-नदीका जल सूख जाता है, गोकुल (इन्द्रिय-समुदाय) की वृत्तियाँ लुप्त हो जाती हैं और माया हाथमें आ जाती है।
श्रीसुदर्शनसूरिः

शौरिर्वसुदेवः लोहनिगडम् आवृतः कवाटपिहितद्वारः ॥ ५२-५३ ।।

इति श्रीमद्भागवतव्याख्याने दशमस्कन्धे श्रीसुदर्शनसूरिकृते शुकपक्षीये तृतीयोऽध्यायः ॥ ३ ॥

अनुवाद (समाप्ति)

इति श्रीमद‍्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे पूर्वार्धे कृष्णजन्मनि तृतीयोऽध्यायः॥ ३॥