२४ यदुवंशानुकीर्तनम्

[चतुर्विंशोऽध्यायः]

भागसूचना

विदर्भके वंशका वर्णन

श्लोक-१

मूलम् (वचनम्)

श्रीशुक उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्यां विदर्भोऽजनयत् पुत्रौ नाम्ना कुशक्रथौ।
तृतीयं रोमपादं च विदर्भकुलनन्दनम्॥

मूलम्

तस्यां विदर्भोऽजनयत् पुत्रौ नाम्ना कुशक्रथौ।
तृतीयं रोमपादं च विदर्भकुलनन्दनम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! राजा विदर्भकी भोज्या नामक पत्नीसे तीन पुत्र हुए—कुश, क्रथ और रोमपाद। रोमपाद विदर्भवंशमें बहुत ही श्रेष्ठ पुरुष हुए॥ १॥

श्लोक-२

विश्वास-प्रस्तुतिः

रोमपादसुतो बभ्रुर्बभ्रोः कृतिरजायत।
उशिकस्तत्सुतस्तस्माच्चेदिश्चैद्यादयो नृप॥

मूलम्

रोमपादसुतो बभ्रुर्बभ्रोः कृतिरजायत।
उशिकस्तत्सुतस्तस्माच्चेदिश्चैद्यादयो नृप॥

अनुवाद (हिन्दी)

रोमपादका पुत्र बभ्रु, बभ्रुका कृति, कृतिका उशिक और उशिकका चेदि। राजन्! इस चेदिके वंशमें ही दमघोष एवं शिशुपाल आदि हुए॥ २॥

श्लोक-३

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्रथस्य कुन्तिः पुत्रोऽभूद् धृष्टिस्तस्याथ निर्वृतिः।
ततो दशार्हो नाम्नाभूत् तस्य व्योमः सुतस्ततः॥

मूलम्

क्रथस्य कुन्तिः पुत्रोऽभूद् धृष्टिस्तस्याथ निर्वृतिः।
ततो दशार्हो नाम्नाभूत् तस्य व्योमः सुतस्ततः॥

अनुवाद (हिन्दी)

क्रथका पुत्र हुआ कुन्ति, कुन्तिका धृष्टि, धृष्टिका निर्वृति, निर्वृतिका दशार्ह और दशार्हका व्योम॥ ३॥

श्लोक-४

विश्वास-प्रस्तुतिः

जीमूतो विकृतिस्तस्य यस्य भीमरथः सुतः।
ततो नवरथः पुत्रो जातो दशरथस्ततः॥

मूलम्

जीमूतो विकृतिस्तस्य यस्य भीमरथः सुतः।
ततो नवरथः पुत्रो जातो दशरथस्ततः॥

अनुवाद (हिन्दी)

व्योमका जीमूत, जीमूतका विकृति, विकृतिका भीमरथ, भीमरथका नवरथ और नवरथका दशरथ हुआ॥ ४॥

श्लोक-५

विश्वास-प्रस्तुतिः

करम्भिः शकुनेः पुत्रो देवरातस्तदात्मजः।
देवक्षत्रस्ततस्तस्य मधुः कुरुवशादनुः॥

मूलम्

करम्भिः शकुनेः पुत्रो देवरातस्तदात्मजः।
देवक्षत्रस्ततस्तस्य मधुः कुरुवशादनुः॥

अनुवाद (हिन्दी)

दशरथसे शकुनि, शकुनिसे करम्भि, करम्भिसे देवरात, देवरातसे देवक्षत्र, देवक्षत्रसे मधु, मधुसे कुरुवश और कुरुवशसे अनु हुए॥ ५॥

श्लोक-६

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुरुहोत्रस्त्वनोः पुत्रस्तस्यायुः सात्वतस्ततः।
भजमानो भजिर्दिव्यो वृष्णिर्देवावृधोऽन्धकः॥

मूलम्

पुरुहोत्रस्त्वनोः पुत्रस्तस्यायुः सात्वतस्ततः।
भजमानो भजिर्दिव्यो वृष्णिर्देवावृधोऽन्धकः॥

श्लोक-७

विश्वास-प्रस्तुतिः

सात्वतस्य सुताः सप्त महाभोजश्च मारिष।
भजमानस्य निम्लोचिः किङ‍‍्किणो धृष्टिरेव च॥

मूलम्

सात्वतस्य सुताः सप्त महाभोजश्च मारिष।
भजमानस्य निम्लोचिः किङ‍‍्किणो धृष्टिरेव च॥

श्लोक-८

विश्वास-प्रस्तुतिः

एकस्यामात्मजाः पत्न्यामन्यस्यां च त्रयः सुताः।
शताजिच्च सहस्राजिदयुताजिदिति प्रभो॥

मूलम्

एकस्यामात्मजाः पत्न्यामन्यस्यां च त्रयः सुताः।
शताजिच्च सहस्राजिदयुताजिदिति प्रभो॥

अनुवाद (हिन्दी)

अनुसे पुरुहोत्र, पुरुहोत्रसे आयु और आयुसे सात्वतका जन्म हुआ। परीक्षित्! सात्वतके सात पुत्र हुए—भजमान, भजि, दिव्य, वृष्णि, देवावृध, अन्धक और महाभोज। भजमानकी दो पत्नियाँ थीं एकसे तीन पुत्र हुए—निम्लोचि, किंकिण और धृष्टि। दूसरी पत्नीसे भी तीन पुत्र हुए—शताजित्, सहस्राजित् और अयुताजित्॥ ६—८॥

श्लोक-९

विश्वास-प्रस्तुतिः

बभ्रुर्देवावृधसुतस्तयोः श्लोकौ पठन्त्यमू।
यथैव शृणुमो दूरात् सम्पश्यामस्तथान्तिकात्॥

मूलम्

बभ्रुर्देवावृधसुतस्तयोः श्लोकौ पठन्त्यमू।
यथैव शृणुमो दूरात् सम्पश्यामस्तथान्तिकात्॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवावृधके पुत्रका नाम था बभ्रु। देवावृध और बभ्रुके सम्बन्धमें यह बात कही जाती है—‘हमने दूरसे जैसा सुन रखा था, अब वैसा ही निकटसे देखते भी हैं॥ ९॥

श्लोक-१०

विश्वास-प्रस्तुतिः

बभ्रुः श्रेष्ठो मनुष्याणां देवैर्देवावृधः समः।
पुरुषाः पञ्चषष्टिश्च षट् सहस्राणि चाष्ट च॥

मूलम्

बभ्रुः श्रेष्ठो मनुष्याणां देवैर्देवावृधः समः।
पुरुषाः पञ्चषष्टिश्च षट् सहस्राणि चाष्ट च॥

श्लोक-११

विश्वास-प्रस्तुतिः

येऽमृतत्वमनुप्राप्ता बभ्रोर्देवावृधादपि।
महाभोजोऽपि धर्मात्मा भोजा आसंस्तदन्वये॥

मूलम्

येऽमृतत्वमनुप्राप्ता बभ्रोर्देवावृधादपि।
महाभोजोऽपि धर्मात्मा भोजा आसंस्तदन्वये॥

अनुवाद (हिन्दी)

बभ्रु मनुष्योंमें श्रेष्ठ है और देवावृध देवताओंके समान है। इसका कारण यह है कि बभ्रु और देवावृधसे उपदेश लेकर चौदह हजार पैंसठ मनुष्य परम पदको प्राप्त कर चुके हैं।’ सात्वतके पुत्रोंमें महाभोज भी बड़ा धर्मात्मा था। उसीके वंशमें भोजवंशी यादव हुए॥ १०-११॥

श्लोक-१२

विश्वास-प्रस्तुतिः

वृष्णेः सुमित्रः पुत्रोऽभूद् युधाजिच्च परंतप।
शिनिस्तस्यानमित्रश्च निम्नोऽभूदनमित्रतः॥

मूलम्

वृष्णेः सुमित्रः पुत्रोऽभूद् युधाजिच्च परंतप।
शिनिस्तस्यानमित्रश्च निम्नोऽभूदनमित्रतः॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! वृष्णिके दो पुत्र हुए—सुमित्र और युधाजित्। युधाजित् के शिनि और अनमित्र—ये दो पुत्र थे। अनमित्रसे निम्नका जन्म हुआ॥ १२॥

श्लोक-१३

विश्वास-प्रस्तुतिः

सत्राजितः प्रसेनश्च निम्नस्याप्यासतुः सुतौ।
अनमित्रसुतो योऽन्यः शिनिस्तस्याथ सत्यकः॥

मूलम्

सत्राजितः प्रसेनश्च निम्नस्याप्यासतुः सुतौ।
अनमित्रसुतो योऽन्यः शिनिस्तस्याथ सत्यकः॥

अनुवाद (हिन्दी)

सत्राजित् और प्रसेन नामसे प्रसिद्ध यदुवंशी निम्नके ही पुत्र थे। अनमित्रका एक और पुत्र था, जिसका नाम था शिनि। शिनिसे ही सत्यकका जन्म हुआ॥ १३॥

श्लोक-१४

विश्वास-प्रस्तुतिः

युयुधानः सात्यकिर्वै जयस्तस्य कुणिस्ततः।
युगन्धरोऽनमित्रस्य वृष्णिः पुत्रोऽपरस्ततः॥

मूलम्

युयुधानः सात्यकिर्वै जयस्तस्य कुणिस्ततः।
युगन्धरोऽनमित्रस्य वृष्णिः पुत्रोऽपरस्ततः॥

श्लोक-१५

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्वफल्कश्चित्ररथश्च गान्दिन्यां च श्वफल्कतः।
अक्रूरप्रमुखा आसन् पुत्रा द्वादश विश्रुताः॥

मूलम्

श्वफल्कश्चित्ररथश्च गान्दिन्यां च श्वफल्कतः।
अक्रूरप्रमुखा आसन् पुत्रा द्वादश विश्रुताः॥

श्लोक-१६

विश्वास-प्रस्तुतिः

आसङ्गः सारमेयश्च मृदुरो मृदुविद् गिरिः।
धर्मवृद्धः सुकर्मा च क्षेत्रोपेक्षोऽरिमर्दनः॥

मूलम्

आसङ्गः सारमेयश्च मृदुरो मृदुविद् गिरिः।
धर्मवृद्धः सुकर्मा च क्षेत्रोपेक्षोऽरिमर्दनः॥

श्लोक-१७

विश्वास-प्रस्तुतिः

शत्रुघ्नो गन्धमादश्च प्रतिबाहुश्च द्वादश।
तेषां स्वसा सुचीराख्या द्वावक्रूरसुतावपि॥

मूलम्

शत्रुघ्नो गन्धमादश्च प्रतिबाहुश्च द्वादश।
तेषां स्वसा सुचीराख्या द्वावक्रूरसुतावपि॥

श्लोक-१८

विश्वास-प्रस्तुतिः

देववानुपदेवश्च तथा चित्ररथात्मजाः।
पृथुर्विदूरथाद्याश्च बहवो वृष्णिनन्दनाः॥

मूलम्

देववानुपदेवश्च तथा चित्ररथात्मजाः।
पृथुर्विदूरथाद्याश्च बहवो वृष्णिनन्दनाः॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसी सत्यकके पुत्र युयुधान थे, जो सात्यकिके नामसे प्रसिद्ध हुए। सात्यकिका जय, जयका कुणि और कुणिका पुत्र युगन्धर हुआ। अनमित्रके तीसरे पुत्रका नाम वृष्णि था। वृष्णिके दो पुत्र हुए—श्वफल्क और चित्ररथ। श्वफल्ककी पत्नीका नाम था गान्दिनी। उनमें सबसे श्रेष्ठ अक्रूरके अतिरिक्त बारह पुत्र उत्पन्न हुए—आसंग, सारमेय, मृदुर, मृदुविद्, गिरि, धर्मवृद्ध, सुकर्मा, क्षेत्रोपेक्ष, अरिमर्दन, शत्रुघ्न, गन्धमादन और प्रतिबाहु। इनके एक बहिन भी थी, जिसका नाम था सुचीरा। अक्रूरके दो पुत्र थे—देववान् और उपदेव। श्वफल्कके भाई चित्ररथके पृथु, विदूरथ आदि बहुत-से पुत्र हुए—जो वृष्णि-वंशियोंमें श्रेष्ठ माने जाते हैं॥ १४-१८॥

श्लोक-१९

विश्वास-प्रस्तुतिः

कुकुरो भजमानश्च शुचिः कम्बलबर्हिषः।
कुकुरस्य सुतो वह्निर्विलोमा तनयस्ततः॥

मूलम्

कुकुरो भजमानश्च शुचिः कम्बलबर्हिषः।
कुकुरस्य सुतो वह्निर्विलोमा तनयस्ततः॥

श्लोक-२०

विश्वास-प्रस्तुतिः

कपोतरोमा तस्यानुः सखा यस्य च तुम्बुरुः।
अन्धको दुन्दुभिस्तस्मादरिद्योतः पुनर्वसुः॥

मूलम्

कपोतरोमा तस्यानुः सखा यस्य च तुम्बुरुः।
अन्धको दुन्दुभिस्तस्मादरिद्योतः पुनर्वसुः॥

श्लोक-२१

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्याहुकश्चाहुकी च कन्या चैवाहुकात्मजौ।
देवकश्चोग्रसेनश्च चत्वारो देवकात्मजाः॥

मूलम्

तस्याहुकश्चाहुकी च कन्या चैवाहुकात्मजौ।
देवकश्चोग्रसेनश्च चत्वारो देवकात्मजाः॥

अनुवाद (हिन्दी)

सात्वतके पुत्र अन्धकके चार पुत्र हुए—कुकुर, भजमान, शुचि और कम्बलबर्हि। उनमें कुकुरका पुत्र वह्नि, वह्निका विलोमा, विलोमाका कपोतरोमा और कपोतरोमाका अनु हुआ। तुम्बुरु गन्धर्वके साथ अनुकी बड़ी मित्रता थी। अनुका पुत्र अन्धक, अन्धकका दुन्दुभि, दुन्दुभिका अरिद्योत, अरिद्योतका पुनर्वसु और पुनर्वसुके आहुक नामका एक पुत्र तथा आहुकी नामकी एक कन्या हुई। आहुकके दो पुत्र हुए—देवक और उग्रसेन। देवकके चार पुत्र हुए॥ १९—२१॥

श्लोक-२२

विश्वास-प्रस्तुतिः

देववानुपदेवश्च सुदेवो देववर्धनः।
तेषां स्वसारः सप्तासन् धृतदेवादयो नृप॥

मूलम्

देववानुपदेवश्च सुदेवो देववर्धनः।
तेषां स्वसारः सप्तासन् धृतदेवादयो नृप॥

श्लोक-२३

विश्वास-प्रस्तुतिः

शान्तिदेवोपदेवा च श्रीदेवा देवरक्षिता।
सहदेवा देवकी च वसुदेव उवाह ताः॥

मूलम्

शान्तिदेवोपदेवा च श्रीदेवा देवरक्षिता।
सहदेवा देवकी च वसुदेव उवाह ताः॥

अनुवाद (हिन्दी)

देववान्, उपदेव, सुदेव और देववर्धन। इनकी सात बहिनें भी थीं—धृत, देवा, शान्तिदेवा, उपदेवा, श्रीदेवा, देवरक्षिता, सहदेवा और देवकी। वसुदेवजीने इन सबके साथ विवाह किया था॥ २२-२३॥

श्लोक-२४

विश्वास-प्रस्तुतिः

कंसः सुनामा न्यग्रोधः कङ्कः शङ्कुः सुहूस्तथा।
राष्ट्रपालोऽथ सृष्टिश्च तुष्टिमानौग्रसेनयः॥

मूलम्

कंसः सुनामा न्यग्रोधः कङ्कः शङ्कुः सुहूस्तथा।
राष्ट्रपालोऽथ सृष्टिश्च तुष्टिमानौग्रसेनयः॥

अनुवाद (हिन्दी)

उग्रसेनके नौ लड़के थे—कंस, सुनामा, न्यग्रोध, कंक, शंकु, सुहू, राष्ट्रपाल, सृष्टि और तुष्टिमान्॥ २४॥

श्लोक-२५

विश्वास-प्रस्तुतिः

कंसा कंसवती कङ्का शूरभू राष्ट्रपालिका।
उग्रसेनदुहितरो वसुदेवानुजस्त्रियः॥

मूलम्

कंसा कंसवती कङ्का शूरभू राष्ट्रपालिका।
उग्रसेनदुहितरो वसुदेवानुजस्त्रियः॥

अनुवाद (हिन्दी)

उग्रसेनके पाँच कन्याएँ भी थीं—कंसा, कंसवती, कंका, शूरभू और राष्ट्रपालिका। इनका विवाह देवभाग आदि वसुदेवजीके छोटे भाइयोंसे हुआ था॥ २५॥

श्लोक-२६

विश्वास-प्रस्तुतिः

शूरो विदूरथादासीद् भजमानः सुतस्ततः।
शिनिस्तस्मात् स्वयम्भोजो हृदीकस्तत्सुतो मतः॥

मूलम्

शूरो विदूरथादासीद् भजमानः सुतस्ततः।
शिनिस्तस्मात् स्वयम्भोजो हृदीकस्तत्सुतो मतः॥

अनुवाद (हिन्दी)

चित्ररथके पुत्र विदूरथसे शूर, शूरसे भजमान, भजमानसे शिनि, शिनिसे स्वयम्भोज और स्वयम्भोजसे हृदीक हुए॥ २६॥

श्लोक-२७

विश्वास-प्रस्तुतिः

देवबाहुः शतधनुः कृतवर्मेति तत्सुताः।
देवमीढस्य शूरस्य मारिषा नाम पत्न्यभूत्॥

मूलम्

देवबाहुः शतधनुः कृतवर्मेति तत्सुताः।
देवमीढस्य शूरस्य मारिषा नाम पत्न्यभूत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

हृदीकसे तीन पुत्र हुए—देवबाहु, शतधन्वा और कृतवर्मा। देवमीढके पुत्र शूरकी पत्नीका नाम था मारिषा॥ २७॥

श्लोक-२८

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्यां स जनयामास दश पुत्रानकल्मषान्।
वसुदेवं देवभागं देवश्रवसमानकम्॥

मूलम्

तस्यां स जनयामास दश पुत्रानकल्मषान्।
वसुदेवं देवभागं देवश्रवसमानकम्॥

श्लोक-२९

विश्वास-प्रस्तुतिः

सृञ्जयं श्यामकं कङ्कं शमीकं वत्सकं वृकम्।
देवदुन्दुभयो नेदुरानका यस्य जन्मनि॥

मूलम्

सृञ्जयं श्यामकं कङ्कं शमीकं वत्सकं वृकम्।
देवदुन्दुभयो नेदुरानका यस्य जन्मनि॥

श्लोक-३०

विश्वास-प्रस्तुतिः

वसुदेवं हरेः स्थानं वदन्त्यानकदुन्दुभिम्।
पृथा च श्रुतदेवा च श्रुतकीर्तिः श्रुतश्रवाः॥

मूलम्

वसुदेवं हरेः स्थानं वदन्त्यानकदुन्दुभिम्।
पृथा च श्रुतदेवा च श्रुतकीर्तिः श्रुतश्रवाः॥

श्लोक-३१

विश्वास-प्रस्तुतिः

राजाधिदेवी चैतेषां भगिन्यः पञ्च कन्यकाः।
कुन्तेः सख्युः पिता शूरो ह्यपुत्रस्य पृथामदात्॥

मूलम्

राजाधिदेवी चैतेषां भगिन्यः पञ्च कन्यकाः।
कुन्तेः सख्युः पिता शूरो ह्यपुत्रस्य पृथामदात्॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन्होंने उसके गर्भसे दस निष्पाप पुत्र उत्पन्न किये—वसुदेव, देवभाग, देवश्रवा, आनक, सृंजय, श्यामक, कंक, शमीक, वत्सक और वृक। ये सब-के-सब बड़े पुण्यात्मा थे। वसुदेवजीके जन्मके समय देवताओंके नगारे और नौबत स्वयं ही बजने लगे थे। अतः वे ‘आनकदुन्दुभि’ भी कहलाये। वे ही भगवान् श्रीकृष्णके पिता हुए। वसुदेव आदिकी पाँच बहनें भी थीं—पृथा (कुन्ती), श्रुतदेवा, श्रुतकीर्ति, श्रुतश्रवा और राजाधिदेवी। वसुदेवके पिता शूरसेनके एक मित्र थे— कुन्तिभोज। कुन्तिभोजके कोई सन्तान न थी। इसलिये शूरसेनने उन्हें पृथा नामकी अपनी सबसे बड़ी कन्या गोद दे दी॥ २८—३१॥

श्लोक-३२

विश्वास-प्रस्तुतिः

साऽऽप दुर्वाससो विद्यां देवहूतीं प्रतोषितात्।
तस्या वीर्यपरीक्षार्थमाजुहाव रविं शुचिम्॥

मूलम्

साऽऽप दुर्वाससो विद्यां देवहूतीं प्रतोषितात्।
तस्या वीर्यपरीक्षार्थमाजुहाव रविं शुचिम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

पृथाने दुर्वासा ऋषिको प्रसन्न करके उनसे देवताओंको बुलानेकी विद्या सीख ली। एक दिन उस विद्याके प्रभावकी परीक्षा लेनेके लिये पृथाने परम पवित्र भगवान् सूर्यका आवाहन किया॥ ३२॥

श्लोक-३३

विश्वास-प्रस्तुतिः

तदैवोपागतं देवं वीक्ष्य विस्मितमानसा।
प्रत्ययार्थं प्रयुक्ता मे याहि देव क्षमस्व मे॥

मूलम्

तदैवोपागतं देवं वीक्ष्य विस्मितमानसा।
प्रत्ययार्थं प्रयुक्ता मे याहि देव क्षमस्व मे॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसी समय भगवान् सूर्य वहाँ आ पहुँचे। उन्हें देखकर कुन्तीका हृदय विस्मयसे भर गया। उसने कहा—‘भगवन्! मुझे क्षमा कीजिये। मैंने तो परीक्षा करनेके लिये ही इस विद्याका प्रयोग किया था। अब आप पधार सकते हैं’॥ ३३॥

श्लोक-३४

विश्वास-प्रस्तुतिः

अमोघं दर्शनं देवि आधित्से त्वयि चात्मजम्।
योनिर्यथा न दुष्येत कर्ताहं ते सुमध्यमे॥

मूलम्

अमोघं दर्शनं देवि आधित्से त्वयि चात्मजम्।
योनिर्यथा न दुष्येत कर्ताहं ते सुमध्यमे॥

अनुवाद (हिन्दी)

सूर्यदेवने कहा—‘देवि! मेरा दर्शन निष्फल नहीं हो सकता। इसलिये हे सुन्दरी! अब मैं तुझसे एक पुत्र उत्पन्न करना चाहता हूँ। हाँ, अवश्य ही तुम्हारी योनि दूषित न हो, इसका उपाय मैं कर दूँगा’॥ ३४॥

श्लोक-३५

विश्वास-प्रस्तुतिः

इति तस्यां स आधाय गर्भं सूर्यो दिवं गतः।
सद्यः कुमारः संजज्ञे द्वितीय इव भास्करः॥

मूलम्

इति तस्यां स आधाय गर्भं सूर्यो दिवं गतः।
सद्यः कुमारः संजज्ञे द्वितीय इव भास्करः॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह कहकर भगवान् सूर्यने गर्भ स्थापित कर दिया और इसके बाद वे स्वर्ग चले गये। उसी समय उससे एक बड़ा सुन्दर एवं तेजस्वी शिशु उत्पन्न हुआ। वह देखनेमें दूसरे सूर्यके समान जान पड़ता था॥ ३५॥

श्लोक-३६

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं सात्यजन्नदीतोये कृच्छ्राल्लोकस्य बिभ्यती।
प्रपितामहस्तामुवाह पाण्डुर्वै सत्यविक्रमः॥

मूलम्

तं सात्यजन्नदीतोये कृच्छ्राल्लोकस्य बिभ्यती।
प्रपितामहस्तामुवाह पाण्डुर्वै सत्यविक्रमः॥

अनुवाद (हिन्दी)

पृथा लोकनिन्दासे डर गयी। इसलिये उसने बड़े दुःखसे उस बालकको नदीके जलमें छोड़ दिया। परीक्षित्! उसी पृथाका विवाह तुम्हारे परदादा पाण्डुसे हुआ था, जो वास्तवमें बड़े सच्चे वीर थे॥ ३६॥

श्लोक-३७

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रुतदेवां तु कारूषो वृद्धशर्मा समग्रहीत्।
यस्यामभूद् दन्तवक्त्र ऋषिशप्तो दितेः सुतः॥

मूलम्

श्रुतदेवां तु कारूषो वृद्धशर्मा समग्रहीत्।
यस्यामभूद् दन्तवक्त्र ऋषिशप्तो दितेः सुतः॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! पृथाकी छोटी बहिन श्रुतदेवाका विवाह करूष देशके अधिपति वृद्धशर्मासे हुआ था। उसके गर्भसे दन्तवक्त्रका जन्म हुआ। यह वही दन्तवक्त्र है, जो पूर्वजन्ममें सनकादि ऋषियोंके शापसे हिरण्याक्ष हुआ था॥ ३७॥

श्लोक-३८

विश्वास-प्रस्तुतिः

कैकेयो धृष्टकेतुश्च श्रुतकीर्तिमविन्दत।
सन्तर्दनादयस्तस्य पञ्चासन् कैकयाः सुताः॥

मूलम्

कैकेयो धृष्टकेतुश्च श्रुतकीर्तिमविन्दत।
सन्तर्दनादयस्तस्य पञ्चासन् कैकयाः सुताः॥

अनुवाद (हिन्दी)

कैकय देशके राजा धृष्टकेतुने श्रुतकीर्तिसे विवाह किया था। उससे सन्तर्दन आदि पाँच कैकयराजकुमार हुए॥ ३८॥

श्लोक-३९

विश्वास-प्रस्तुतिः

राजाधिदेव्यामावन्त्यौ जयसेनोऽजनिष्ट ह।
दमघोषश्चेदिराजः श्रुतश्रवसमग्रहीत्॥

मूलम्

राजाधिदेव्यामावन्त्यौ जयसेनोऽजनिष्ट ह।
दमघोषश्चेदिराजः श्रुतश्रवसमग्रहीत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजाधिदेवीका विवाह जयसेनसे हुआ था। उसके दो पुत्र हुए—विन्द और अनुविन्द। वे दोनों ही अवन्तीके राजा हुए। चेदिराज दमघोषने श्रुतश्रवाका पाणिग्रहण किया॥ ३९॥

श्लोक-४०

विश्वास-प्रस्तुतिः

शिशुपालः सुतस्तस्याः कथितस्तस्य सम्भवः।
देवभागस्य कंसायां चित्रकेतुबृहद‍्बलौ॥

मूलम्

शिशुपालः सुतस्तस्याः कथितस्तस्य सम्भवः।
देवभागस्य कंसायां चित्रकेतुबृहद‍्बलौ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसका पुत्र था शिशुपाल, जिसका वर्णन मैं पहले (सप्तम स्कन्धमें) कर चुका हूँ। वसुदेवजीके भाइयोंमेंसे देवभागकी पत्नी कंसाके गर्भसे दो पुत्र हुए—चित्रकेतु और बृहद‍्बल॥ ४०॥

श्लोक-४१

विश्वास-प्रस्तुतिः

कंसवत्यां देवश्रवसः सुवीर इषुमांस्तथा।
कङ्कायामानकाज्जातः सत्यजित् पुरुजित् तथा॥

मूलम्

कंसवत्यां देवश्रवसः सुवीर इषुमांस्तथा।
कङ्कायामानकाज्जातः सत्यजित् पुरुजित् तथा॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवश्रवाकी पत्नी कंसवतीसे सुवीर और इषुमान् नामके दो पुत्र हुए। आनककी पत्नी कंकाके गर्भसे भी दो पुत्र हुए—सत्यजित् और पुरुजित्॥ ४१॥

श्लोक-४२

विश्वास-प्रस्तुतिः

सृञ्जयो राष्ट्रपाल्यां च वृषदुर्मर्षणादिकान्।
हरिकेशहिरण्याक्षौ शूरभूम्यां च श्यामकः॥

मूलम्

सृञ्जयो राष्ट्रपाल्यां च वृषदुर्मर्षणादिकान्।
हरिकेशहिरण्याक्षौ शूरभूम्यां च श्यामकः॥

अनुवाद (हिन्दी)

सृंजयने अपनी पत्नी राष्ट्रपालिकाके गर्भसे वृष और दुर्मर्षण आदि कई पुत्र उत्पन्न किये। इसी प्रकार श्यामकने शूरभूमि (शूरभू) नामकी पत्नीसे हरिकेश और हिरण्याक्ष नामक दो पुत्र उत्पन्न किये॥ ४२॥

श्लोक-४३

विश्वास-प्रस्तुतिः

मिश्रकेश्यामप्सरसि वृकादीन् वत्सकस्तथा।
तक्षपुष्करशालादीन् दुर्वार्क्ष्यां वृक आदधे॥

मूलम्

मिश्रकेश्यामप्सरसि वृकादीन् वत्सकस्तथा।
तक्षपुष्करशालादीन् दुर्वार्क्ष्यां वृक आदधे॥

अनुवाद (हिन्दी)

मिश्रकेशी अप्सराके गर्भसे वत्सकके भी वृक आदि कई पुत्र हुए। वृकने दुर्वाक्षीके गर्भसे तक्ष, पुष्कर और शाल आदि कई पुत्र उत्पन्न किये॥ ४३॥

श्लोक-४४

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुमित्रार्जुनपालादीञ्छमीकात्तु सुदामिनी।
कङ्कश्च कर्णिकायां वै ऋतधामजयावपि॥

मूलम्

सुमित्रार्जुनपालादीञ्छमीकात्तु सुदामिनी।
कङ्कश्च कर्णिकायां वै ऋतधामजयावपि॥

अनुवाद (हिन्दी)

शमीककी पत्नी सुदामिनीने भी सुमित्र और अर्जुनपाल आदि कई बालक उत्पन्न किये। कंककी पत्नी कर्णिकाके गर्भसे दो पुत्र हुए—ऋतधाम और जय॥ ४४॥

श्लोक-४५

विश्वास-प्रस्तुतिः

पौरवी रोहिणी भद्रा मदिरा रोचना इला।
देवकीप्रमुखा आसन् पत्न्य आनकदुन्दुभेः॥

मूलम्

पौरवी रोहिणी भद्रा मदिरा रोचना इला।
देवकीप्रमुखा आसन् पत्न्य आनकदुन्दुभेः॥

अनुवाद (हिन्दी)

आनकदुन्दुभि वसुदेवजीकी पौरवी, रोहिणी, भद्रा, मदिरा, रोचना, इला और देवकी आदि बहुत-सी पत्नियाँ थीं॥ ४५॥

श्लोक-४६

विश्वास-प्रस्तुतिः

बलं गदं सारणं च दुर्मदं विपुलं ध्रुवम्।
वसुदेवस्तु रोहिण्यां कृतादीनुदपादयत्॥

मूलम्

बलं गदं सारणं च दुर्मदं विपुलं ध्रुवम्।
वसुदेवस्तु रोहिण्यां कृतादीनुदपादयत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

रोहिणीके गर्भसे वसुदेवजीके बलराम, गद, सारण, दुर्मद, विपुल, ध्रुव और कृत आदि पुत्र हुए थे॥ ४६॥

श्लोक-४७

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुभद्रो भद्रवाहश्च दुर्मदो भद्र एव च।
पौरव्यास्तनया ह्येते भूताद्या द्वादशाभवन्॥

मूलम्

सुभद्रो भद्रवाहश्च दुर्मदो भद्र एव च।
पौरव्यास्तनया ह्येते भूताद्या द्वादशाभवन्॥

अनुवाद (हिन्दी)

पौरवीके गर्भसे उनके बारह पुत्र हुए—भूत, सुभद्र, भद्रवाह, दुर्मद और भद्र आदि॥ ४७॥

श्लोक-४८

विश्वास-प्रस्तुतिः

नन्दोपनन्दकृतकशूराद्या मदिरात्मजाः।
कौसल्या केशिनं त्वेकमसूत कुलनन्दनम्॥

मूलम्

नन्दोपनन्दकृतकशूराद्या मदिरात्मजाः।
कौसल्या केशिनं त्वेकमसूत कुलनन्दनम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

नन्द, उपनन्द, कृतक, शूर आदि मदिराके गर्भसे उत्पन्न हुए थे। कौसल्याने एक ही वंश-उजागर पुत्र उत्पन्न किया था। उसका नाम था केशी॥ ४८॥

श्लोक-४९

विश्वास-प्रस्तुतिः

रोचनायामतो जाता हस्तहेमाङ्गदादयः।
इलायामुरुवल्कादीन् यदुमुख्यानजीजनत्॥

मूलम्

रोचनायामतो जाता हस्तहेमाङ्गदादयः।
इलायामुरुवल्कादीन् यदुमुख्यानजीजनत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसने रोचनासे हस्त और हेमांगद आदि तथा इलासे उरुवल्क आदि प्रधान यदुवंशी पुत्रोंको जन्म दिया॥ ४९॥

श्लोक-५०

विश्वास-प्रस्तुतिः

विपृष्ठो धृतदेवायामेक आनकदुन्दुभेः।
शान्तिदेवात्मजा राजञ्छ्रमप्रतिश्रुतादयः॥

मूलम्

विपृष्ठो धृतदेवायामेक आनकदुन्दुभेः।
शान्तिदेवात्मजा राजञ्छ्रमप्रतिश्रुतादयः॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! वसुदेवजीके धृतदेवाके गर्भसे विपृष्ठ नामका एक ही पुत्र हुआ और शान्तिदेवासे श्रम और प्रतिश्रुत आदि कई पुत्र हुए॥ ५०॥

श्लोक-५१

विश्वास-प्रस्तुतिः

राजानः कल्पवर्षाद्या उपदेवासुता दश।
वसुहंससुवंशाद्याः श्रीदेवायास्तु षट् सुताः॥

मूलम्

राजानः कल्पवर्षाद्या उपदेवासुता दश।
वसुहंससुवंशाद्याः श्रीदेवायास्तु षट् सुताः॥

अनुवाद (हिन्दी)

उपदेवाके पुत्र कल्पवर्ष आदि दस राजा हुए और श्रीदेवाके वसु, हंस, सुवंश आदि छः पुत्र हुए॥ ५१॥

श्लोक-५२

विश्वास-प्रस्तुतिः

देवरक्षितया लब्धा नव चात्र गदादयः।
वसुदेवः सुतानष्टावादधे सहदेवया॥

मूलम्

देवरक्षितया लब्धा नव चात्र गदादयः।
वसुदेवः सुतानष्टावादधे सहदेवया॥

श्लोक-५३

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुरुविश्रुतमुख्यांस्तु साक्षाद् धर्मो वसूनिव।
वसुदेवस्तु देवक्यामष्ट पुत्रानजीजनत्॥

मूलम्

पुरुविश्रुतमुख्यांस्तु साक्षाद् धर्मो वसूनिव।
वसुदेवस्तु देवक्यामष्ट पुत्रानजीजनत्॥

श्लोक-५४

विश्वास-प्रस्तुतिः

कीर्तिमन्तं सुषेणं च भद्रसेनमुदारधीः।
ऋजुं सम्मर्दनं भद्रं संकर्षणमहीश्वरम्॥

मूलम्

कीर्तिमन्तं सुषेणं च भद्रसेनमुदारधीः।
ऋजुं सम्मर्दनं भद्रं संकर्षणमहीश्वरम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवरक्षिताके गर्भसे गद आदि नौ पुत्र हुए तथा जैसे स्वयं धर्मने आठ वसुओंको उत्पन्न किया था, वैसे ही वसुदेवजीने सहदेवाके गर्भसे पुरुविश्रुत आदि आठ पुत्र उत्पन्न किये। परम उदार वसुदेवजीने देवकीके गर्भसे भी आठ पुत्र उत्पन्न किये, जिनमें सातके नाम हैं—कीर्तिमान्, सुषेण, भद्रसेन, ऋजु, संमर्दन, भद्र और शेषावतार श्रीबलरामजी॥ ५२—५४॥

श्लोक-५५

विश्वास-प्रस्तुतिः

अष्टमस्तु तयोरासीत् स्वयमेव हरिः किल।
सुभद्रा च महाभागा तव राजन् पितामही॥

मूलम्

अष्टमस्तु तयोरासीत् स्वयमेव हरिः किल।
सुभद्रा च महाभागा तव राजन् पितामही॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन दोनोंके आठवें पुत्र स्वयं श्रीभगवान् ही थे। परीक्षित्! तुम्हारी परम सौभाग्यवती दादी सुभद्रा भी देवकीजीकी ही कन्या थीं॥ ५५॥

श्लोक-५६

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदा यदेह धर्मस्य क्षयो वृद्धिश्च पाप्मनः।
तदा तु भगवानीश आत्मानं सृजते हरिः॥

मूलम्

यदा यदेह धर्मस्य क्षयो वृद्धिश्च पाप्मनः।
तदा तु भगवानीश आत्मानं सृजते हरिः॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब-जब संसारमें धर्मका ह्रास और पापकी वृद्धि होती है, तब-तब सर्वशक्तिमान् भगवान् श्रीहरि अवतार ग्रहण करते हैं॥ ५६॥

श्लोक-५७

विश्वास-प्रस्तुतिः

न ह्यस्य जन्मनो हेतुः कर्मणो वा महीपते।
आत्ममायां विनेशस्य परस्य द्रष्टुरात्मनः॥

मूलम्

न ह्यस्य जन्मनो हेतुः कर्मणो वा महीपते।
आत्ममायां विनेशस्य परस्य द्रष्टुरात्मनः॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! भगवान् सबके द्रष्टा और वास्तवमें असंग आत्मा ही हैं। इसलिये उनकी आत्मस्वरूपिणी योगमायाके अतिरिक्त उनके जन्म अथवा कर्मका और कोई भी कारण नहीं है॥ ५७॥

श्लोक-५८

विश्वास-प्रस्तुतिः

यन्मायाचेष्टितं पुंसः स्थित्युत्पत्त्यप्ययाय हि।
अनुग्रहस्तन्निवृत्तेरात्मलाभाय चेष्यते॥

मूलम्

यन्मायाचेष्टितं पुंसः स्थित्युत्पत्त्यप्ययाय हि।
अनुग्रहस्तन्निवृत्तेरात्मलाभाय चेष्यते॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनकी मायाका विलास ही जीवके जन्म, जीवन और मृत्युका कारण है। और उनका अनुग्रह ही मायाको अलग करके आत्मस्वरूपको प्राप्त करनेवाला है॥ ५८॥

श्लोक-५९

विश्वास-प्रस्तुतिः

अक्षौहिणीनां पतिभिरसुरैर्नृपलाञ्छनैः।
भुव आक्रम्यमाणाया अभाराय कृतोद्यमः॥

मूलम्

अक्षौहिणीनां पतिभिरसुरैर्नृपलाञ्छनैः।
भुव आक्रम्यमाणाया अभाराय कृतोद्यमः॥

श्लोक-६०

विश्वास-प्रस्तुतिः

कर्माण्यपरिमेयाणि मनसापि सुरैश्वरैः।
सहसंकर्षणश्चक्रे भगवान् मधुसूदनः॥

मूलम्

कर्माण्यपरिमेयाणि मनसापि सुरैश्वरैः।
सहसंकर्षणश्चक्रे भगवान् मधुसूदनः॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब असुरोंने राजाओंका वेष धारण कर लिया और कई अक्षौहिणी सेना इकट्ठी करके वे सारी पृथ्वीको रौंदने लगे, तब पृथ्वीका भार उतारनेके लिये भगवान् मधुसूदन बलरामजीके साथ अवतीर्ण हुए। उन्होंने ऐसी-ऐसी लीलाएँ कीं, जिनके सम्बन्धमें बड़े-बड़े देवता मनसे अनुमान भी नहीं कर सकते—शरीरसे करनेकी बात तो अलग रही॥ ५९-६०॥

श्लोक-६१

विश्वास-प्रस्तुतिः

कलौ जनिष्यमाणानां दुःखशोकतमोनुदम्।
अनुग्रहाय भक्तानां सुपुण्यं व्यतनोद् यशः॥

मूलम्

कलौ जनिष्यमाणानां दुःखशोकतमोनुदम्।
अनुग्रहाय भक्तानां सुपुण्यं व्यतनोद् यशः॥

अनुवाद (हिन्दी)

पृथ्वीका भार तो उतरा ही, साथ ही कलियुगमें पैदा होनेवाले भक्तोंपर अनुग्रह करनेके लिये भगवान‍्ने ऐसे परम पवित्र यशका विस्तार किया, जिसका गान और श्रवण करनेसे ही उनके दुःख, शोक और अज्ञान सब-के-सब नष्ट हो जायँगे॥ ६१॥

श्लोक-६२

विश्वास-प्रस्तुतिः

यस्मिन् सत्कर्णपीयूषे यशस्तीर्थवरे सकृत्।
श्रोत्राञ्जलिरुपस्पृश्य धुनुते कर्मवासनाम्॥

मूलम्

यस्मिन् सत्कर्णपीयूषे यशस्तीर्थवरे सकृत्।
श्रोत्राञ्जलिरुपस्पृश्य धुनुते कर्मवासनाम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनका यश क्या है, लोगोंको पवित्र करनेवाला श्रेष्ठ तीर्थ है। संतोंके कानोंके लिये तो वह साक्षात् अमृत ही है। एक बार भी यदि कानकी अंजलियोंसे उसका आचमन कर लिया जाता है, तो कर्मकी वासनाएँ निर्मूल हो जाती हैं॥ ६२॥

श्लोक-६३

विश्वास-प्रस्तुतिः

भोजवृष्ण्यन्धकमधुशूरसेनदशार्हकैः।
श्लाघनीयेहितः शश्वत् कुरुसृञ्जयपाण्डुभिः॥

मूलम्

भोजवृष्ण्यन्धकमधुशूरसेनदशार्हकैः।
श्लाघनीयेहितः शश्वत् कुरुसृञ्जयपाण्डुभिः॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! भोज, वृष्णि, अन्धक, मधु, शूरसेन, दशार्ह, कुरु, सृंजय और पाण्डुवंशी वीर निरन्तर भगवान‍्की लीलाओंकी आदरपूर्वक सराहना करते रहते थे॥ ६३॥

श्लोक-६४

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्निग्धस्मितेक्षितोदारैर्वाक्यैर्विक्रमलीलया।
नृलोकं रमयामास मूर्त्या सर्वाङ्गरम्यया॥

मूलम्

स्निग्धस्मितेक्षितोदारैर्वाक्यैर्विक्रमलीलया।
नृलोकं रमयामास मूर्त्या सर्वाङ्गरम्यया॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनका श्यामल शरीर सर्वांगसुन्दर था। उन्होंने उस मनोरम विग्रहसे तथा अपनी प्रेमभरी मुसकान, मधुर चितवन, प्रसादपूर्ण वचन और पराक्रमपूर्ण लीलाके द्वारा सारे मनुष्यलोकको आनन्दमें सराबोर कर दिया था॥ ६४॥

श्लोक-६५

विश्वास-प्रस्तुतिः

यस्याननं मकरकुण्डलचारुकर्ण-
भ्राजत्कपोलसुभगं सविलासहासम्।
नित्योत्सवं न ततृपुर्दृशिभिः पिबन्त्यो
नार्यो नराश्च मुदिताः कुपिता निमेश्च॥

मूलम्

यस्याननं मकरकुण्डलचारुकर्ण-
भ्राजत्कपोलसुभगं सविलासहासम्।
नित्योत्सवं न ततृपुर्दृशिभिः पिबन्त्यो
नार्यो नराश्च मुदिताः कुपिता निमेश्च॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान‍्के मुखकमलकी शोभा तो निराली ही थी। मकराकृति कुण्डलोंसे उनके कान बड़े कमनीय मालूम पड़ते थे। उनकी आभासे कपोलोंका सौन्दर्य और भी खिल उठता था। जब वे विलासके साथ हँस देते, तो उनके मुखपर निरन्तर रहनेवाले आनन्दमें मानो बाढ़-सी आ जाती। सभी नर-नारी अपने नेत्रोंके प्यालोंसे उनके मुखकी माधुरीका निरन्तर पान करते रहते, परन्तु तृप्त नहीं होते। वे उसका रस ले-लेकर आनन्दित तो होते ही, परन्तु पलकें गिरनेसे उनके गिरानेवाले निमिपर खीझते भी॥ ६५॥

श्लोक-६६

विश्वास-प्रस्तुतिः

जातो गतः पितृगृहाद् व्रजमेधितार्थो
हत्वा रिपून् सुतशतानि कृतोरुदारः।
उत्पाद्य तेषु पुरुषः क्रतुभिः समीजे
आत्मानमात्मनिगमं प्रथयञ्जनेषु॥

मूलम्

जातो गतः पितृगृहाद् व्रजमेधितार्थो
हत्वा रिपून् सुतशतानि कृतोरुदारः।
उत्पाद्य तेषु पुरुषः क्रतुभिः समीजे
आत्मानमात्मनिगमं प्रथयञ्जनेषु॥

अनुवाद (हिन्दी)

लीलापुरुषोत्तम भगवान् अवतीर्ण हुए मथुरामें वसुदेवजीके घर, परन्तु वहाँ रहे नहीं, वहाँसे गोकुलमें नन्दबाबाके घर चले गये। वहाँ अपना प्रयोजन—जो ग्वाल, गोपी और गौओंको सुखी करना था—पूरा करके मथुरा लौट आये। व्रजमें, मथुरामें तथा द्वारकामें रहकर अनेकों शत्रुओंका संहार किया। बहुत-सी स्त्रियोंसे विवाह करके हजारों पुत्र उत्पन्न किये। साथ ही लोगोंमें अपने स्वरूपका साक्षात्कार करानेवाली अपनी वाणीस्वरूप श्रुतियोंकी मर्यादा स्थापित करनेके लिये अनेक यज्ञोंके द्वारा स्वयं अपना ही यजन किया॥ ६६॥

श्लोक-६७

विश्वास-प्रस्तुतिः

पृथ्व्याः स वै गुरुभरं क्षपयन् कुरूणा-
मन्तःसमुत्थकलिना युधि भूपचम्वः।
दृष्ट्या विधूय विजये जयमुद्विघोष्य
प्रोच्योद्धवाय च परं समगात् स्वधाम॥

मूलम्

पृथ्व्याः स वै गुरुभरं क्षपयन् कुरूणा-
मन्तःसमुत्थकलिना युधि भूपचम्वः।
दृष्ट्या विधूय विजये जयमुद्विघोष्य
प्रोच्योद्धवाय च परं समगात् स्वधाम॥

अनुवाद (हिन्दी)

कौरव और पाण्डवोंके बीच उत्पन्न हुए आपसके कलहसे उन्होंने पृथ्वीका बहुत-सा भार हलका कर दिया तथा युद्धमें अपनी दृष्टिसे ही राजाओंकी बहुत-सी अक्षौहिणियोंको ध्वंस करके संसारमें अर्जुनकी जीतका डंका पिटवा दिया। फिर उद्धवको आत्मतत्त्वका उपदेश किया और इसके बाद वे अपने परमधामको सिधार गये॥ ६७॥

अनुवाद (समाप्ति)

इति श्रीमद‍्भागवते महापुराणे वैयासिक्यामष्टादशसाहस्र्यां पारमहंस्यां संहितायां नवमस्कन्धे श्रीसूर्यसोमवंशानुकीर्तने यदुवंशानुकीर्तनं नाम चतुर्विंशोऽध्यायः॥ २४॥
॥ इति नवमः स्कन्धः समाप्तः॥
॥ हरिः ॐ तत्सत्॥