२१

[एकविंशोऽध्यायः]

भागसूचना

भरतवंशका वर्णन, राजा रन्तिदेवकी कथा

श्लोक-१

मूलम् (वचनम्)

श्रीशुक उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

वितथस्य सुतो मन्युर्बृहत्क्षत्रो जयस्ततः।
महावीर्यो नरो गर्गः सङ्कृतिस्तु नरात्मजः॥

मूलम्

वितथस्य सुतो मन्युर्बृहत्क्षत्रो जयस्ततः।
महावीर्यो नरो गर्गः सङ्कृतिस्तु नरात्मजः॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! वितथ अथवा भरद्वाजका पुत्र था मन्यु। मन्युके पाँच पुत्र हुए—बृहत्क्षत्र, जय, महावीर्य, नर और गर्ग। नरका पुत्र था संकृति॥ १॥

श्लोक-२

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरुश्च रन्तिदेवश्च सङ्कृतेः पाण्डुनन्दन।
रन्तिदेवस्य हि यश इहामुत्र च गीयते॥

मूलम्

गुरुश्च रन्तिदेवश्च सङ्कृतेः पाण्डुनन्दन।
रन्तिदेवस्य हि यश इहामुत्र च गीयते॥

अनुवाद (हिन्दी)

संकृतिके दो पुत्र हुए—गुरु और रन्तिदेव। परीक्षित्! रन्तिदेवका निर्मल यश इस लोक और परलोकमें सब जगह गाया जाता है॥ २॥

श्लोक-३

विश्वास-प्रस्तुतिः

वियद्वित्तस्य ददतो लब्धं लब्धं बुभुक्षतः।
निष्किञ्चनस्य धीरस्य सकुटुम्बस्य सीदतः॥

मूलम्

वियद्वित्तस्य ददतो लब्धं लब्धं बुभुक्षतः।
निष्किञ्चनस्य धीरस्य सकुटुम्बस्य सीदतः॥

अनुवाद (हिन्दी)

रन्तिदेव आकाशके समान बिना उद्योगके ही दैववश प्राप्त वस्तुका उपभोग करते और दिनोंदिन उनकी पूँजी घटती जाती। जो कुछ मिल जाता उसे भी दे डालते और स्वयं भूखे रहते। वे संग्रह-परिग्रह, ममतासे रहित तथा बड़े धैर्यशाली थे और अपने कुटुम्बके साथ दुःख भोग रहे थे॥ ३॥

श्लोक-४

विश्वास-प्रस्तुतिः

व्यतीयुरष्टचत्वारिंशदहान्यपिबतः किल।
घृतपायससंयावं तोयं प्रातरुपस्थितम्॥

मूलम्

व्यतीयुरष्टचत्वारिंशदहान्यपिबतः किल।
घृतपायससंयावं तोयं प्रातरुपस्थितम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

एक बार तो लगातार अड़तालीस दिन ऐसे बीत गये कि उन्हें पानीतक पीनेको न मिला। उनचासवें दिन प्रातःकाल ही उन्हें कुछ घी, खीर, हलवा और जल मिला॥ ४॥

श्लोक-५

विश्वास-प्रस्तुतिः

कृच्छ्रप्राप्तकुटुम्बस्य क्षुत्तृड्भ्यां जातवेपथोः।
अतिथिर्ब्राह्मणः काले भोक्तुकामस्य चागमत्॥

मूलम्

कृच्छ्रप्राप्तकुटुम्बस्य क्षुत्तृड्भ्यां जातवेपथोः।
अतिथिर्ब्राह्मणः काले भोक्तुकामस्य चागमत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनका परिवार बड़े संकटमें था। भूख और प्यासके मारे वे लोग काँप रहे थे। परन्तु ज्यों ही उन लोगोंने भोजन करना चाहा, त्यों ही एक ब्राह्मण अतिथिके रूपमें आ गया॥ ५॥

श्लोक-६

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मै संव्यभजत् सोऽन्नमादृत्य श्रद्धयान्वितः।
हरिं सर्वत्र संपश्यन् स भुक्त्वा प्रययौ द्विजः॥

मूलम्

तस्मै संव्यभजत् सोऽन्नमादृत्य श्रद्धयान्वितः।
हरिं सर्वत्र संपश्यन् स भुक्त्वा प्रययौ द्विजः॥

अनुवाद (हिन्दी)

रन्तिदेव सबमें श्रीभगवान‍्के ही दर्शन करते थे। अतएव उन्होंने बड़ी श्रद्धासे आदरपूर्वक उसी अन्नमेंसे ब्राह्मणको भोजन कराया। ब्राह्मणदेवता भोजन करके चले गये॥ ६॥

श्लोक-७

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथान्यो भोक्ष्यमाणस्य विभक्तस्य महीपते।
विभक्तं व्यभजत् तस्मै वृषलाय हरिं स्मरन्॥

मूलम्

अथान्यो भोक्ष्यमाणस्य विभक्तस्य महीपते।
विभक्तं व्यभजत् तस्मै वृषलाय हरिं स्मरन्॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! अब बचे हुए अन्नको रन्तिदेवने आपसमें बाँट लिया और भोजन करना चाहा। उसी समय एक दूसरा शूद्र-अतिथि आ गया। रन्तिदेवने भगवान‍्का स्मरण करते हुए उस बचे हुए अन्नमेंसे भी कुछ भाग शूद्रके रूपमें आये अतिथिको खिला दिया॥ ७॥

श्लोक-८

विश्वास-प्रस्तुतिः

याते शूद्रे तमन्योऽगादतिथिः श्वभिरावृतः।
राजन् मे दीयतामन्नं सगणाय बुभुक्षते॥

मूलम्

याते शूद्रे तमन्योऽगादतिथिः श्वभिरावृतः।
राजन् मे दीयतामन्नं सगणाय बुभुक्षते॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब शूद्र खा-पीकर चला गया, तब कुत्तोंको लिये हुए एक और अतिथि आया। उसने कहा—‘राजन्! मैं और मेरे ये कुत्ते बहुत भूखे हैं। हमें कुछ खानेको दीजिये’॥ ८॥

श्लोक-९

विश्वास-प्रस्तुतिः

स आदृत्यावशिष्टं यद् बहुमानपुरस्कृतम्।
तच्च दत्त्वा नमश्चक्रे श्वभ्यः श्वपतये विभुः॥

मूलम्

स आदृत्यावशिष्टं यद् बहुमानपुरस्कृतम्।
तच्च दत्त्वा नमश्चक्रे श्वभ्यः श्वपतये विभुः॥

अनुवाद (हिन्दी)

रन्तिदेवने अत्यन्त आदरभावसे, जो कुछ बच रहा था, सब-का-सब उसे दे दिया और भगवन्मय होकर उन्होंने कुत्ते और कुत्तोंके स्वामीके रूपमें आये हुए भगवान‍्को नमस्कार किया॥ ९॥

श्लोक-१०

विश्वास-प्रस्तुतिः

पानीयमात्रमुच्छेषं तच्चैकपरितर्पणम्।
पास्यतः पुल्कसोऽभ्यागादपो देह्यशुभस्य मे॥

मूलम्

पानीयमात्रमुच्छेषं तच्चैकपरितर्पणम्।
पास्यतः पुल्कसोऽभ्यागादपो देह्यशुभस्य मे॥

अनुवाद (हिन्दी)

अब केवल जल ही बच रहा था और वह भी केवल एक मनुष्यके पीने भरका था। वे उसे आपसमें बाँटकर पीना ही चाहते थे कि एक चाण्डाल और आ पहुँचा। उसने कहा—‘मैं अत्यन्त नीच हूँ। मुझे जल पिला दीजिये’॥ १०॥

श्लोक-११

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्य तां करुणां वाचं निशम्य विपुलश्रमाम्।
कृपया भृशसन्तप्त इदमाहामृतं वचः॥

मूलम्

तस्य तां करुणां वाचं निशम्य विपुलश्रमाम्।
कृपया भृशसन्तप्त इदमाहामृतं वचः॥

अनुवाद (हिन्दी)

चाण्डालकी वह करुणापूर्ण वाणी जिसके उच्चारणमें भी वह अत्यन्त कष्ट पा रहा था, सुनकर रन्तिदेव दयासे अत्यन्त सन्तप्त हो उठे और ये अमृतमय वचन कहने लगे॥ ११॥

श्लोक-१२

विश्वास-प्रस्तुतिः

न कामयेऽहं गतिमीश्वरात् परा-
मष्टर्द्धियुक्तामपुनर्भवं वा।
आर्तिं प्रपद्येऽखिलदेहभाजा-
मन्तःस्थितो येन भवन्त्यदुःखाः॥

मूलम्

न कामयेऽहं गतिमीश्वरात् परा-
मष्टर्द्धियुक्तामपुनर्भवं वा।
आर्तिं प्रपद्येऽखिलदेहभाजा-
मन्तःस्थितो येन भवन्त्यदुःखाः॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मैं भगवान‍्से आठों सिद्धियोंसे युक्त परम गति नहीं चाहता। और तो क्या, मैं मोक्षकी भी कामना नहीं करता। मैं चाहता हूँ तो केवल यही कि मैं सम्पूर्ण प्राणियोंके हृदयमें स्थित हो जाऊँ और उनका सारा दुःख मैं ही सहन करूँ, जिससे और किसी भी प्राणीको दुःख न हो॥ १२॥

श्लोक-१३

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्षुत्तृट्श्रमो गात्रपरिश्रमश्च
दैन्यं क्लमः शोकविषादमोहाः।
सर्वे निवृत्ताः कृपणस्य जन्तो-
र्जिजीविषोर्जीवजलार्पणान्मे॥

मूलम्

क्षुत्तृट्श्रमो गात्रपरिश्रमश्च
दैन्यं क्लमः शोकविषादमोहाः।
सर्वे निवृत्ताः कृपणस्य जन्तो-
र्जिजीविषोर्जीवजलार्पणान्मे॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह दीन प्राणी जल पी करके जीना चाहता था। जल दे देनेसे इसके जीवनकी रक्षा हो गयी। अब मेरी भूख-प्यासकी पीड़ा, शरीरकी शिथिलता, दीनता, ग्लानि, शोक, विषाद और मोह—ये सब-के-सब जाते रहे। मैं सुखी हो गया’॥ १३॥

श्लोक-१४

विश्वास-प्रस्तुतिः

इति प्रभाष्य पानीयं म्रियमाणः पिपासया।
पुल्कसायाददाद्धीरो निसर्गकरुणो नृपः॥

मूलम्

इति प्रभाष्य पानीयं म्रियमाणः पिपासया।
पुल्कसायाददाद्धीरो निसर्गकरुणो नृपः॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार कहकर रन्तिदेवने वह बचा हुआ जल भी उस चाण्डालको दे दिया। यद्यपि जलके बिना वे स्वयं मर रहे थे, फिर भी स्वभावसे ही उनका हृदय इतना करुणापूर्ण था कि वे अपनेको रोक न सके। उनके धैर्यकी भी कोई सीमा है?॥ १४॥

श्लोक-१५

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्य त्रिभुवनाधीशाः फलदाः फलमिच्छताम्।
आत्मानं दर्शयाञ्चक्रुर्माया विष्णुविनिर्मिताः॥

मूलम्

तस्य त्रिभुवनाधीशाः फलदाः फलमिच्छताम्।
आत्मानं दर्शयाञ्चक्रुर्माया विष्णुविनिर्मिताः॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! ये अतिथि वास्तवमें भगवान‍्की रची हुई मायाके ही विभिन्न रूप थे। परीक्षा पूरी हो जानेपर अपने भक्तोंकी अभिलाषा पूर्ण करनेवाले त्रिभुवनस्वामी ब्रह्मा, विष्णु और महेश—तीनों उनके सामने प्रकट हो गये॥ १५॥

श्लोक-१६

विश्वास-प्रस्तुतिः

स वै तेभ्यो नमस्कृत्य निःसङ्गो विगतस्पृहः।
वासुदेवे भगवति भक्त्या चक्रे मनः परम्॥

मूलम्

स वै तेभ्यो नमस्कृत्य निःसङ्गो विगतस्पृहः।
वासुदेवे भगवति भक्त्या चक्रे मनः परम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

रन्तिदेवने उनके चरणोंमें नमस्कार किया। उन्हें कुछ लेना तो था नहीं। भगवान‍्की कृपासे वे आसक्ति और स्पृहासे भी रहित हो गये तथा परम प्रेममय भक्तिभावसे अपने मनको भगवान् वासुदेवमें तन्मय कर दिया। कुछ भी माँगा नहीं॥ १६॥

श्लोक-१७

विश्वास-प्रस्तुतिः

ईश्वरालम्बनं चित्तं कुर्वतोऽनन्यराधसः।
माया गुणमयी राजन् स्वप्नवत् प्रत्यलीयत॥

मूलम्

ईश्वरालम्बनं चित्तं कुर्वतोऽनन्यराधसः।
माया गुणमयी राजन् स्वप्नवत् प्रत्यलीयत॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! उन्हें भगवान‍्के सिवा और किसी भी वस्तुकी इच्छा तो थी नहीं, उन्होंने अपने मनको पूर्णरूपसे भगवान‍्में लगा दिया। इसलिये त्रिगुणमयी माया जागनेपर स्वप्न-दृश्यके समान नष्ट हो गयी॥ १७॥

श्लोक-१८

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्प्रसङ्गानुभावेन रन्तिदेवानुवर्तिनः।
अभवन् योगिनः सर्वे नारायणपरायणाः॥

मूलम्

तत्प्रसङ्गानुभावेन रन्तिदेवानुवर्तिनः।
अभवन् योगिनः सर्वे नारायणपरायणाः॥

अनुवाद (हिन्दी)

रन्तिदेवके अनुयायी भी उनके संगके प्रभावसे योगी हो गये और सब भगवान‍्के ही आश्रित परम भक्त बन गये॥ १८॥

श्लोक-१९

विश्वास-प्रस्तुतिः

गर्गाच्छिनिस्ततो गार्ग्यः क्षत्राद् ब्रह्म ह्यवर्तत।
दुरितक्षयो महावीर्यात् तस्य त्रय्यारुणिः कविः॥

मूलम्

गर्गाच्छिनिस्ततो गार्ग्यः क्षत्राद् ब्रह्म ह्यवर्तत।
दुरितक्षयो महावीर्यात् तस्य त्रय्यारुणिः कविः॥

श्लोक-२०

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुष्करारुणिरित्यत्र ये ब्राह्मणगतिं गताः।
बृहत्क्षत्रस्य पुत्रोऽभूद्धस्ती यद्धस्तिनापुरम्॥

मूलम्

पुष्करारुणिरित्यत्र ये ब्राह्मणगतिं गताः।
बृहत्क्षत्रस्य पुत्रोऽभूद्धस्ती यद्धस्तिनापुरम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

मन्युपुत्र गर्गसे शिनि और शिनिसे गार्ग्यका जन्म हुआ। यद्यपि गार्ग्य क्षत्रिय था, फिर भी उससे ब्राह्मणवंश चला। महावीर्यका पुत्र था दुरितक्षय। दुरितक्षयके तीन पुत्र हुए—त्रय्यारुणि, कवि और पुष्करारुणि। ये तीनों ब्राह्मण हो गये। बृहत्क्षत्रका पुत्र हुआ हस्ती, उसीने हस्तिनापुर बसाया था॥ १९-२०॥

श्लोक-२१

विश्वास-प्रस्तुतिः

अजमीढो द्विमीढश्च पुरुमीढश्च हस्तिनः।
अजमीढस्य वंश्याः स्युः प्रियमेधादयो द्विजाः॥

मूलम्

अजमीढो द्विमीढश्च पुरुमीढश्च हस्तिनः।
अजमीढस्य वंश्याः स्युः प्रियमेधादयो द्विजाः॥

अनुवाद (हिन्दी)

हस्तीके तीन पुत्र थे—अजमीढ, द्विमीढ और पुरुमीढ। अजमीढके पुत्रोंमें प्रियमेध आदि ब्राह्मण हुए॥ २१॥

श्लोक-२२

विश्वास-प्रस्तुतिः

अजमीढाद् बृहदिषुस्तस्य पुत्रो बृहद्धनुः।
बृहत्कायस्ततस्तस्य पुत्र आसीज्जयद्रथः॥

मूलम्

अजमीढाद् बृहदिषुस्तस्य पुत्रो बृहद्धनुः।
बृहत्कायस्ततस्तस्य पुत्र आसीज्जयद्रथः॥

अनुवाद (हिन्दी)

इन्हीं अजमीढके एक पुत्रका नाम था बृहदिषु। बृहदिषुका पुत्र हुआ बृहद्धनु, बृहद्धनुका बृहत्काय और बृहत्कायका जयद्रथ हुआ॥ २२॥

श्लोक-२३

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्सुतो विशदस्तस्य सेनजित् समजायत।
रुचिराश्वो दृढहनुः काश्यो वत्सश्च तत्सुताः॥

मूलम्

तत्सुतो विशदस्तस्य सेनजित् समजायत।
रुचिराश्वो दृढहनुः काश्यो वत्सश्च तत्सुताः॥

अनुवाद (हिन्दी)

जयद्रथका पुत्र हुआ विशद और विशदका सेनजित्। सेनजित् के चार पुत्र हुए—रुचिराश्व, दृढहनु, काश्य और वत्स॥ २३॥

श्लोक-२४

विश्वास-प्रस्तुतिः

रुचिराश्वसुतः पारः पृथुसेनस्तदात्मजः।
पारस्य तनयो नीपस्तस्य पुत्रशतं त्वभूत्॥

मूलम्

रुचिराश्वसुतः पारः पृथुसेनस्तदात्मजः।
पारस्य तनयो नीपस्तस्य पुत्रशतं त्वभूत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

रुचिराश्वका पुत्र पार था और पारका पृथुसेन। पारके दूसरे पुत्रका नाम नीप था। उसके सौ पुत्र थे॥ २४॥

श्लोक-२५

विश्वास-प्रस्तुतिः

स कृत्व्यां शुककन्यायां ब्रह्मदत्तमजीजनत्।
स योगी गवि भार्यायां विष्वक्सेनमधात् सुतम्॥

मूलम्

स कृत्व्यां शुककन्यायां ब्रह्मदत्तमजीजनत्।
स योगी गवि भार्यायां विष्वक्सेनमधात् सुतम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसी नीपने (छाया)* शुककी कन्या कृत्वीसे विवाह किया था। उससे ब्रह्मदत्त नामक पुत्र उत्पन्न हुआ। ब्रह्मदत्त बड़ा योगी था। उसने अपनी पत्नी सरस्वतीके गर्भसे विष्वक्सेन नामक पुत्र उत्पन्न किया॥ २५॥

पादटिप्पनी
  • श्रीशुकदेवजी असंग थे पर वे वन जाते समय एक छाया शुक रचकर छोड़ गये थे। उस छाया शुकने ही गृहस्थोचित व्यवहार किये थे।

श्लोक-२६

विश्वास-प्रस्तुतिः

जैगीषव्योपदेशेन योगतन्त्रं चकार ह।
उदक्स्वनस्ततस्तस्माद् भल्लादो बार्हदीषवाः॥

मूलम्

जैगीषव्योपदेशेन योगतन्त्रं चकार ह।
उदक्स्वनस्ततस्तस्माद् भल्लादो बार्हदीषवाः॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसी विष्वक्सेनने जैगीषव्यके उपदेशसे योगशास्त्रकी रचना की। विष्वक्सेनका पुत्र था उदक्स्वन और उदक्स्वनका भल्लाद। ये सब बृहदिषुके वंशज हुए॥ २६॥

श्लोक-२७

विश्वास-प्रस्तुतिः

यवीनरो द्विमीढस्य कृतिमांस्तत्सुतः स्मृतः।
नाम्ना सत्यधृतिर्यस्य दृढनेमिः सुपार्श्वकृत्॥

मूलम्

यवीनरो द्विमीढस्य कृतिमांस्तत्सुतः स्मृतः।
नाम्ना सत्यधृतिर्यस्य दृढनेमिः सुपार्श्वकृत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

द्विमीढका पुत्र था यवीनर, यवीनरका कृतिमान्, कृतिमान‍्का सत्यधृति, सत्यधृतिका दृढनेमि और दृढनेमिका पुत्र सुपार्श्व हुआ॥ २७॥

श्लोक-२८

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुपार्श्वात् सुमतिस्तस्य पुत्रः सन्नतिमांस्ततः।
कृतिर्हिरण्यनाभाद् यो योगं प्राप्य जगौ स्म षट्॥

मूलम्

सुपार्श्वात् सुमतिस्तस्य पुत्रः सन्नतिमांस्ततः।
कृतिर्हिरण्यनाभाद् यो योगं प्राप्य जगौ स्म षट्॥

श्लोक-२९

विश्वास-प्रस्तुतिः

संहिताः प्राच्यसाम्नां वै नीपो ह्युग्रायुधस्ततः।
तस्य क्षेम्यः सुवीरोऽथ सुवीरस्य रिपुञ्जयः॥

मूलम्

संहिताः प्राच्यसाम्नां वै नीपो ह्युग्रायुधस्ततः।
तस्य क्षेम्यः सुवीरोऽथ सुवीरस्य रिपुञ्जयः॥

अनुवाद (हिन्दी)

सुपार्श्वसे सुमति, सुमतिसे सन्नतिमान् और सन्नतिमान् से कृतिका जन्म हुआ। उसने हिरण्यनाभसे योगविद्या प्राप्त की थी और ‘प्राच्यसाम’ नामक ऋचाओंकी छः संहिताएँ कही थीं। कृतिका पुत्र नीप था, नीपका उग्रायुध, उग्रायुधका क्षेम्य, क्षेम्यका सुवीर और सुवीरका पुत्र था रिपुंजय॥ २८-२९॥

श्लोक-३०

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो बहुरथो नाम पुरुमीढोऽप्रजोऽभवत्।
नलिन्यामजमीढस्य नीलः शान्तिः सुतस्ततः॥

मूलम्

ततो बहुरथो नाम पुरुमीढोऽप्रजोऽभवत्।
नलिन्यामजमीढस्य नीलः शान्तिः सुतस्ततः॥

श्लोक-३१

विश्वास-प्रस्तुतिः

शान्तेः सुशान्तिस्तत्पुत्रः पुरुजोऽर्कस्ततोऽभवत्।
भर्म्याश्वस्तनयस्तस्य पञ्चासन्मुद‍्गलादयः॥

मूलम्

शान्तेः सुशान्तिस्तत्पुत्रः पुरुजोऽर्कस्ततोऽभवत्।
भर्म्याश्वस्तनयस्तस्य पञ्चासन्मुद‍्गलादयः॥

श्लोक-३२

विश्वास-प्रस्तुतिः

यवीनरो बृहदिषुः काम्पिल्यः संजयः सुताः।
भर्म्याश्वः प्राह पुत्रा मे पञ्चानां रक्षणाय हि॥

मूलम्

यवीनरो बृहदिषुः काम्पिल्यः संजयः सुताः।
भर्म्याश्वः प्राह पुत्रा मे पञ्चानां रक्षणाय हि॥

श्लोक-३३

विश्वास-प्रस्तुतिः

विषयाणामलमिमे इति पञ्चालसंज्ञिताः।
मुद‍्गलाद् ब्रह्म निर्वृत्तं गोत्रं मौद‍्गल्यसंज्ञितम्॥

मूलम्

विषयाणामलमिमे इति पञ्चालसंज्ञिताः।
मुद‍्गलाद् ब्रह्म निर्वृत्तं गोत्रं मौद‍्गल्यसंज्ञितम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

रिपुंजयका पुत्र था बहुरथ। द्विमीढके भाई पुरुमीढको कोई सन्तान न हुई। अजमीढकी दूसरी पत्नीका नाम था नलिनी। उसके गर्भसे नीलका जन्म हुआ। नीलका शान्ति, शान्तिका सुशान्ति, सुशान्तिका पुरुज, पुरुजका अर्क और अर्कका पुत्र हुआ भर्म्याश्व। भर्म्याश्वके पाँच पुत्र थे—मुद‍्गल, यवीनर, बृहदिषु, काम्पिल्य और संजय। भर्म्याश्वने कहा—‘ये मेरे पुत्र पाँच देशोंका शासन करनेमें समर्थ (पंच अलम्) हैं।’ इसलिये ये ‘पंचाल’ नामसे प्रसिद्ध हुए। इनमें मुद‍्गलसे ‘मौद‍्गल्य’ नामक ब्राह्मणगोत्रकी प्रवृत्ति हुई॥ ३०—३३॥

श्लोक-३४

विश्वास-प्रस्तुतिः

मिथुनं मुद‍्गलाद् भार्म्याद्दिवोदासः पुमानभूत्।
अहल्या कन्यका यस्यां शतानन्दस्तु गौतमात्॥

मूलम्

मिथुनं मुद‍्गलाद् भार्म्याद्दिवोदासः पुमानभूत्।
अहल्या कन्यका यस्यां शतानन्दस्तु गौतमात्॥

अनुवाद (हिन्दी)

भर्म्याश्वके पुत्र मुद‍्गलसे यमज (जुड़वाँ) सन्तान हुई। उनमें पुत्रका नाम था दिवोदास और कन्याका अहल्या। अहल्याका विवाह महर्षि गौतमसे हुआ। गौतमके पुत्र हुए शतानन्द॥ ३४॥

श्लोक-३५

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्य सत्यधृतिः पुत्रो धनुर्वेदविशारदः।
शरद्वांस्तत्सुतो यस्मादुर्वशीदर्शनात् किल॥

मूलम्

तस्य सत्यधृतिः पुत्रो धनुर्वेदविशारदः।
शरद्वांस्तत्सुतो यस्मादुर्वशीदर्शनात् किल॥

श्लोक-३६

विश्वास-प्रस्तुतिः

शरस्तम्बेऽपतद् रेतो मिथुनं तदभूच्छुभम्।
तद् दृष्ट्वा कृपयागृह्णाच्छन्तनुर्मृगयां चरन्।
कृपः कुमारः कन्या च द्रोणपत्न्यभवत् कृपी॥

मूलम्

शरस्तम्बेऽपतद् रेतो मिथुनं तदभूच्छुभम्।
तद् दृष्ट्वा कृपयागृह्णाच्छन्तनुर्मृगयां चरन्।
कृपः कुमारः कन्या च द्रोणपत्न्यभवत् कृपी॥

अनुवाद (हिन्दी)

शतानन्दका पुत्र सत्यधृति था, वह धनुर्विद्यामें अत्यन्त निपुण था। सत्यधृतिके पुत्रका नाम था शरद्वान्। एक दिन उर्वशीको देखनेसे शरद्वान‍्का वीर्य मूँजके झाड़पर गिर पड़ा, उससे एक शुभ लक्षणवाले पुत्र और पुत्रीका जन्म हुआ। महाराज शन्तनुकी उसपर दृष्टि पड़ गयी, क्योंकि वे उधर शिकार खेलनेके लिये गये हुए थे। उन्होंने दयावश दोनोंको उठा लिया। उनमें जो पुत्र था, उसका नाम कृपाचार्य हुआ और जो कन्या थी, उसका नाम हुआ कृपी। यही कृपी द्रोणाचार्यकी पत्नी हुई॥ ३५-३६॥

अनुवाद (समाप्ति)

इति श्रीमद‍्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां नवमस्कन्धे एकविंशोऽध्यायः॥ २१॥