२०

[विंशोऽध्यायः]

भागसूचना

पूरुके वंश, राजा दुष्यन्त और भरतके चरित्रका वर्णन

श्लोक-१

मूलम् (वचनम्)

श्रीशुक उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

पूरोर्वंशं प्रवक्ष्यामि यत्र जातोऽसि भारत।
यत्र राजर्षयो वंश्या ब्रह्मवंश्याश्च जज्ञिरे॥

मूलम्

पूरोर्वंशं प्रवक्ष्यामि यत्र जातोऽसि भारत।
यत्र राजर्षयो वंश्या ब्रह्मवंश्याश्च जज्ञिरे॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! अब मैं राजा पूरुके वंशका वर्णन करूँगा। इसी वंशमें तुम्हारा जन्म हुआ है। इसी वंशके वंशधर बहुत-से राजर्षि और ब्रह्मर्षि भी हुए हैं॥ १॥

श्लोक-२

विश्वास-प्रस्तुतिः

जनमेजयो ह्यभूत् पूरोः प्रचिन्वांस्तत्सुतस्ततः।
प्रवीरोऽथ नमस्युर्वै तस्माच्चारुपदोऽभवत्॥

मूलम्

जनमेजयो ह्यभूत् पूरोः प्रचिन्वांस्तत्सुतस्ततः।
प्रवीरोऽथ नमस्युर्वै तस्माच्चारुपदोऽभवत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

पूरुका पुत्र हुआ जनमेजय। जनमेजयका प्रचिन्वान्, प्रचिन्वान् का प्रवीर, प्रवीरका नमस्यु और नमस्युका पुत्र हुआ चारुपद॥ २॥

श्लोक-३

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्य सुद्युरभूत् पुत्रस्तस्माद् बहुगवस्ततः।
संयातिस्तस्याहंयाती रौद्राश्वस्तत्सुतः स्मृतः॥

मूलम्

तस्य सुद्युरभूत् पुत्रस्तस्माद् बहुगवस्ततः।
संयातिस्तस्याहंयाती रौद्राश्वस्तत्सुतः स्मृतः॥

अनुवाद (हिन्दी)

चारुपदसे सुद्यु, सुद्युसे बहुगव, बहुगवसे संयाति, संयातिसे अहंयाति और अहंयातिसे रौद्राश्व हुआ॥ ३॥

श्लोक-४

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऋतेयुस्तस्य कुक्षेयुः स्थण्डिलेयुः कृतेयुकः।
जलेयुः सन्ततेयुश्च धर्मसत्यव्रतेयवः॥

मूलम्

ऋतेयुस्तस्य कुक्षेयुः स्थण्डिलेयुः कृतेयुकः।
जलेयुः सन्ततेयुश्च धर्मसत्यव्रतेयवः॥

श्लोक-५

विश्वास-प्रस्तुतिः

दशैतेऽप्सरसः पुत्रा वनेयुश्चावमः स्मृतः।
घृताच्यामिन्द्रियाणीव मुख्यस्य जगदात्मनः॥

मूलम्

दशैतेऽप्सरसः पुत्रा वनेयुश्चावमः स्मृतः।
घृताच्यामिन्द्रियाणीव मुख्यस्य जगदात्मनः॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! जैसे विश्वात्मा प्रधान प्राणसे दस इन्द्रियाँ होती हैं, वैसे ही घृताची अप्सराके गर्भसे रौद्राश्वके दस पुत्र हुए—ऋतेयु, कुक्षेयु, स्थण्डिलेयु, कृतेयु, जलेयु, सन्ततेयु, धर्मेयु, सत्येयु, व्रतेयु और सबसे छोटा वनेयु॥ ४-५॥

श्लोक-६

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऋतेयो रन्तिभारोऽभूत् त्रयस्तस्यात्मजा नृप।
सुमतिर्ध्रुवोऽप्रतिरथः कण्वोऽप्रतिरथात्मजः॥

मूलम्

ऋतेयो रन्तिभारोऽभूत् त्रयस्तस्यात्मजा नृप।
सुमतिर्ध्रुवोऽप्रतिरथः कण्वोऽप्रतिरथात्मजः॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! उनमेंसे ऋतेयुका पुत्र रन्तिभार हुआ और रन्तिभारके तीन पुत्र हुए—सुमति, ध्रुव, और अप्रतिरथ। अप्रतिरथके पुत्रका नाम था कण्व॥ ६॥

श्लोक-७

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्य मेधातिथिस्तस्मात् प्रस्कण्वाद्या द्विजातयः।
पुत्रोऽभूत् सुमते रैभ्यो दुष्यन्तस्तत्सुतो मतः॥

मूलम्

तस्य मेधातिथिस्तस्मात् प्रस्कण्वाद्या द्विजातयः।
पुत्रोऽभूत् सुमते रैभ्यो दुष्यन्तस्तत्सुतो मतः॥

अनुवाद (हिन्दी)

कण्वका पुत्र मेधातिथि हुआ। इसी मेधातिथिसे प्रस्कण्व आदि ब्राह्मण उत्पन्न हुए। सुमतिका पुत्र रैभ्य हुआ, इसी रैभ्यका पुत्र दुष्यन्त था॥ ७॥

श्लोक-८

विश्वास-प्रस्तुतिः

दुष्यन्तो मृगयां यातः कण्वाश्रमपदं गतः।
तत्रासीनां स्वप्रभया मण्डयन्तीं रमामिव॥

मूलम्

दुष्यन्तो मृगयां यातः कण्वाश्रमपदं गतः।
तत्रासीनां स्वप्रभया मण्डयन्तीं रमामिव॥

श्लोक-९

विश्वास-प्रस्तुतिः

विलोक्य सद्यो मुमुहे देवमायामिव स्त्रियम्।
बभाषे तां वरारोहां भटैः कतिपयैर्वृतः॥

मूलम्

विलोक्य सद्यो मुमुहे देवमायामिव स्त्रियम्।
बभाषे तां वरारोहां भटैः कतिपयैर्वृतः॥

अनुवाद (हिन्दी)

एक बार दुष्यन्त वनमें अपने कुछ सैनिकोंके साथ शिकार खेलनेके लिये गये हुए थे। उधर ही वे कण्व मुनिके आश्रमपर जा पहुँचे। उस आश्रमपर देवमायाके समान मनोहर एक स्त्री बैठी हुई थी। उसकी लक्ष्मीके समान अंगकान्तिसे वह आश्रम जग-मगा रहा था। उस सुन्दरीको देखते ही दुष्यन्त मोहित हो गये और उससे बातचीत करने लगे॥ ८-९॥

श्लोक-१०

विश्वास-प्रस्तुतिः

तद्दर्शनप्रमुदितः संनिवृत्तपरिश्रमः।
पप्रच्छ कामसन्तप्तः प्रहसञ्श्लक्ष्णया गिरा॥

मूलम्

तद्दर्शनप्रमुदितः संनिवृत्तपरिश्रमः।
पप्रच्छ कामसन्तप्तः प्रहसञ्श्लक्ष्णया गिरा॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसको देखनेसे उनको बड़ा आनन्द मिला। उनके मनमें कामवासना जाग्रत् हो गयी। थकावट दूर करनेके बाद उन्होंने बड़ी मधुर वाणीसे मुसकराते हुए उससे पूछा—॥ १०॥

श्लोक-११

विश्वास-प्रस्तुतिः

का त्वं कमलपत्राक्षि कस्यासि हृदयङ्गमे।
किं वा चिकीर्षितं त्वत्र भवत्या निर्जने वने॥

मूलम्

का त्वं कमलपत्राक्षि कस्यासि हृदयङ्गमे।
किं वा चिकीर्षितं त्वत्र भवत्या निर्जने वने॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘कमलदलके समान सुन्दर नेत्रोंवाली देवि! तुम कौन हो और किसकी पुत्री हो? मेरे हृदयको अपनी ओर आकर्षित करनेवाली सुन्दरी! तुम इस निर्जन वनमें रहकर क्या करना चाहती हो?॥ ११॥

श्लोक-१२

विश्वास-प्रस्तुतिः

व्यक्तं राजन्यतनयां वेद्‍म्यहं त्वां सुमध्यमे।
न हि चेतः पौरवाणामधर्मे रमते क्वचित्॥

मूलम्

व्यक्तं राजन्यतनयां वेद्‍म्यहं त्वां सुमध्यमे।
न हि चेतः पौरवाणामधर्मे रमते क्वचित्॥

अनुवाद (हिन्दी)

सुन्दरी! मैं स्पष्ट समझ रहा हूँ कि तुम किसी क्षत्रियकी कन्या हो। क्योंकि पुरुवंशियोंका चित्त कभी अधर्मकी ओर नहीं झुकता’॥ १२॥

श्लोक-१३

मूलम् (वचनम्)

शकुन्तलोवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

विश्वामित्रात्मजैवाहं त्यक्ता मेनकया वने।
वेदैतद् भगवान् कण्वो वीर किं करवाम ते॥

मूलम्

विश्वामित्रात्मजैवाहं त्यक्ता मेनकया वने।
वेदैतद् भगवान् कण्वो वीर किं करवाम ते॥

अनुवाद (हिन्दी)

शकुन्तलाने कहा—‘आपका कहना सत्य है। मैं विश्वामित्रजीकी पुत्री हूँ। मेनका अप्सराने मुझे वनमें छोड़ दिया था। इस बातके साक्षी हैं मेरा पालन-पोषण करनेवाले महर्षि कण्व। वीरशिरोमणे! मैं आपकी क्या सेवा करूँ?॥ १३॥

श्लोक-१४

विश्वास-प्रस्तुतिः

आस्यतां ह्यरविन्दाक्ष गृह्यतामर्हणं च नः।
भुज्यतां सन्ति नीवारा उष्यतां यदि रोचते॥

मूलम्

आस्यतां ह्यरविन्दाक्ष गृह्यतामर्हणं च नः।
भुज्यतां सन्ति नीवारा उष्यतां यदि रोचते॥

अनुवाद (हिन्दी)

कमलनयन! आप यहाँ बैठिये और हम जो कुछ आपका स्वागत-सत्कार करें, उसे स्वीकार कीजिये। आश्रममें कुछ नीवार (तिन्नीका भात) है। आपकी इच्छा हो तो भोजन कीजिये और जँचे तो यहीं ठहरिये’॥ १४॥

श्लोक-१५

मूलम् (वचनम्)

दुष्यन्त उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

उपपन्नमिदं सुभ्रु जातायाः कुशिकान्वये।
स्वयं हि वृणते राज्ञां कन्यकाः सदृशं वरम्॥

मूलम्

उपपन्नमिदं सुभ्रु जातायाः कुशिकान्वये।
स्वयं हि वृणते राज्ञां कन्यकाः सदृशं वरम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

दुष्यन्तने कहा—‘सुन्दरी! तुम कुशिक वंशमें उत्पन्न हुई हो, इसलिये इस प्रकारका आतिथ्य सत्कार तुम्हारे योग्य ही है। क्योंकि राजकन्याएँ स्वयं ही अपने योग्य पतिको वरण कर लिया करती हैं’॥ १५॥

श्लोक-१६

विश्वास-प्रस्तुतिः

ओमित्युक्ते यथाधर्ममुपयेमे शकुन्तलाम्।
गान्धर्वविधिना राजा देशकालविधानवित्॥

मूलम्

ओमित्युक्ते यथाधर्ममुपयेमे शकुन्तलाम्।
गान्धर्वविधिना राजा देशकालविधानवित्॥

अनुवाद (हिन्दी)

शकुन्तलाकी स्वीकृति मिल जानेपर देश, काल और शास्त्रकी आज्ञाको जाननेवाले राजा दुष्यन्तने गान्धर्व-विधिसे धर्मानुसार उसके साथ विवाह कर लिया॥ १६॥

श्लोक-१७

विश्वास-प्रस्तुतिः

अमोघवीर्यो राजर्षिर्महिष्यां वीर्यमादधे।
श्वोभूते स्वपुरं यातः कालेनासूत सा सुतम्॥

मूलम्

अमोघवीर्यो राजर्षिर्महिष्यां वीर्यमादधे।
श्वोभूते स्वपुरं यातः कालेनासूत सा सुतम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजर्षि दुष्यन्तका वीर्य अमोघ था। रात्रिमें वहाँ रहकर दुष्यन्तने शकुन्तलाका सहवास किया और दूसरे दिन सबेरे वे अपनी राजधानीमें चले गये। समय आनेपर शकुन्तलाको एक पुत्र उत्पन्न हुआ॥ १७॥

श्लोक-१८

विश्वास-प्रस्तुतिः

कण्वः कुमारस्य वने चक्रे समुचिताः क्रियाः।
बद्‍ध्वा मृगेन्द्रांस्तरसा क्रीडति स्म स बालकः॥

मूलम्

कण्वः कुमारस्य वने चक्रे समुचिताः क्रियाः।
बद्‍ध्वा मृगेन्द्रांस्तरसा क्रीडति स्म स बालकः॥

अनुवाद (हिन्दी)

महर्षि कण्वने वनमें ही राजकुमारके जातकर्म आदि संस्कार विधिपूर्वक सम्पन्न किये। वह बालक बचपनमें ही इतना बलवान् था कि बड़े-बड़े सिंहोंको बलपूर्वक बाँध लेता और उनसे खेला करता॥ १८॥

श्लोक-१९

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं दुरत्ययविक्रान्तमादाय प्रमदोत्तमा।
हरेरंशांशसम्भूतं भर्तुरन्तिकमागमत्॥

मूलम्

तं दुरत्ययविक्रान्तमादाय प्रमदोत्तमा।
हरेरंशांशसम्भूतं भर्तुरन्तिकमागमत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह बालक भगवान‍्का अंशांशावतार था। उसका बल-विक्रम अपरिमित था। उसे अपने साथ लेकर रमणीरत्न शकुन्तला अपने पतिके पास गयी॥ १९॥

श्लोक-२०

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदा न जगृहे राजा भार्यापुत्रावनिन्दितौ।
शृण्वतां सर्वभूतानां खे वागाहाशरीरिणी॥

मूलम्

यदा न जगृहे राजा भार्यापुत्रावनिन्दितौ।
शृण्वतां सर्वभूतानां खे वागाहाशरीरिणी॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब राजा दुष्यन्तने अपनी निर्दोष पत्नी और पुत्रको स्वीकार नहीं किया, तब जिसका वक्ता नहीं दीख रहा था और जिसे सब लोगोंने सुना, ऐसी आकाशवाणी हुई॥ २०॥

श्लोक-२१

विश्वास-प्रस्तुतिः

माता भस्त्रा पितुः पुत्रो येन जातः स एव सः।
भरस्व पुत्रं दुष्यन्त मावमंस्थाः शकुन्तलाम्॥

मूलम्

माता भस्त्रा पितुः पुत्रो येन जातः स एव सः।
भरस्व पुत्रं दुष्यन्त मावमंस्थाः शकुन्तलाम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘पुत्र उत्पन्न करनेमें माता तो केवल धौंकनीके समान है। वास्तवमें पुत्र पिताका ही है। क्योंकि पिता ही पुत्रके रूपमें उत्पन्न होता है। इसलिये दुष्यन्त! तुम शकुन्तलाका तिरस्कार न करो, अपने पुत्रका भरण-पोषण करो॥ २१॥

श्लोक-२२

विश्वास-प्रस्तुतिः

रेतोधाः पुत्रो नयति नरदेव यमक्षयात्।
त्वं चास्य धाता गर्भस्य सत्यमाह शकुन्तला॥

मूलम्

रेतोधाः पुत्रो नयति नरदेव यमक्षयात्।
त्वं चास्य धाता गर्भस्य सत्यमाह शकुन्तला॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! वंशकी वृद्धि करनेवाला पुत्र अपने पिताको नरकसे उबार लेता है। शकुन्तलाका कहना बिलकुल ठीक है। इस गर्भको धारण करानेवाले तुम्हीं हो’॥ २२॥

श्लोक-२३

विश्वास-प्रस्तुतिः

पितर्युपरते सोऽपि चक्रवर्ती महायशाः।
महिमा गीयते तस्य हरेरंशभुवो भुवि॥

मूलम्

पितर्युपरते सोऽपि चक्रवर्ती महायशाः।
महिमा गीयते तस्य हरेरंशभुवो भुवि॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! पिता दुष्यन्तकी मृत्यु हो जानेके बाद वह परम यशस्वी बालक चक्रवर्ती सम्राट् हुआ। उसका जन्म भगवान‍्के अंशसे हुआ था। आज भी पृथ्वीपर उसकी महिमाका गान किया जाता है॥ २३॥

श्लोक-२४

विश्वास-प्रस्तुतिः

चक्रं दक्षिणहस्तेऽस्य पद्मकोशोऽस्य पादयोः।
ईजे महाभिषेकेण सोऽभिषिक्तोऽधिराड् विभुः॥

मूलम्

चक्रं दक्षिणहस्तेऽस्य पद्मकोशोऽस्य पादयोः।
ईजे महाभिषेकेण सोऽभिषिक्तोऽधिराड् विभुः॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसके दाहिने हाथमें चक्रका चिह्न था और पैरोंमें कमलकोषका। महाभिषेककी विधिसे राजाधिराजके पद-पर उसका अभिषेक हुआ। भरत बड़ा शक्तिशाली राजा था॥ २४॥

श्लोक-२५

विश्वास-प्रस्तुतिः

पञ्चपञ्चाशता मेध्यैर्गङ्गायामनु वाजिभिः।
मामतेयं पुरोधाय यमुनायामनु प्रभुः॥

मूलम्

पञ्चपञ्चाशता मेध्यैर्गङ्गायामनु वाजिभिः।
मामतेयं पुरोधाय यमुनायामनु प्रभुः॥

श्लोक-२६

विश्वास-प्रस्तुतिः

अष्टसप्ततिमेध्याश्वान् बबन्ध प्रददद् वसु।
भरतस्य हि दौष्यन्तेरग्निः साचीगुणे चितः॥
सहस्रं बद्वशो यस्मिन् ब्राह्मणा गा विभेजिरे॥

मूलम्

अष्टसप्ततिमेध्याश्वान् बबन्ध प्रददद् वसु।
भरतस्य हि दौष्यन्तेरग्निः साचीगुणे चितः॥
सहस्रं बद्वशो यस्मिन् ब्राह्मणा गा विभेजिरे॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतने ममताके पुत्र दीर्घतमा मुनिको पुरोहित बनाकर गंगातटपर गंगासागरसे लेकर गंगोत्रीपर्यन्त पचपन पवित्र अश्वमेध यज्ञ किये। और इसी प्रकार यमुनातटपर भी प्रयागसे लेकर यमुनोत्रीतक उन्होंने अठहत्तर अश्वमेध यज्ञ किये। इन सभी यज्ञोंमें उन्होंने अपार धनराशिका दान किया था। दुष्यन्तकुमार भरतका यज्ञीय अग्निस्थापन बड़े ही उत्तम गुणवाले स्थानमें किया गया था। उस स्थानमें भरतने इतनी गौएँ दान दी थीं कि एक हजार ब्राह्मणोंमें प्रत्येक ब्राह्मणको एक-एक बद्व (१३०८४) गौएँ मिली थीं॥ २५-२६॥

श्लोक-२७

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्रयस्त्रिंशच्छतं ह्यश्वान् बद्‍‍ध्वा विस्मापयन् नृपान्।
दौष्यन्तिरत्यगान्मायां देवानां गुरुमाययौ॥

मूलम्

त्रयस्त्रिंशच्छतं ह्यश्वान् बद्‍‍ध्वा विस्मापयन् नृपान्।
दौष्यन्तिरत्यगान्मायां देवानां गुरुमाययौ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार राजा भरतने उन यज्ञोंमें एक सौ तैंतीस (५५+७८) घोड़े बाँधकर (१३३ यज्ञ करके) समस्त नरपतियोंको असीम आश्चर्यमें डाल दिया। इन यज्ञोंके द्वारा इस लोकमें तो राजा भरतको परम यश मिला ही, अन्तमें उन्होंने मायापर भी विजय प्राप्त की और देवताओंके परमगुरु भगवान् श्रीहरिको प्राप्त कर लिया॥ २७॥

श्लोक-२८

विश्वास-प्रस्तुतिः

मृगाञ्छुक्लदतः कृष्णान् हिरण्येन परीवृतान्।
अदात् कर्मणि मष्णारे नियुतानि चतुर्दश॥

मूलम्

मृगाञ्छुक्लदतः कृष्णान् हिरण्येन परीवृतान्।
अदात् कर्मणि मष्णारे नियुतानि चतुर्दश॥

अनुवाद (हिन्दी)

यज्ञमें एककर्म होता है ‘मष्णार’। उसमें भरतने सुवर्णसे विभूषित, श्वेत दाँतोंवाले तथा काले रंगके चौदह लाख हाथी दान किये॥ २८॥

श्लोक-२९

विश्वास-प्रस्तुतिः

भरतस्य महत् कर्म न पूर्वे नापरे नृपाः।
नैवापुर्नैव प्राप्स्यन्ति बाहुभ्यां त्रिदिवं यथा॥

मूलम्

भरतस्य महत् कर्म न पूर्वे नापरे नृपाः।
नैवापुर्नैव प्राप्स्यन्ति बाहुभ्यां त्रिदिवं यथा॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतने जो महान् कर्म किया, वह न तो पहले कोई राजा कर सका था और न तो आगे ही कोई कर सकेगा। क्या कभी कोई हाथसे स्वर्गको छू सकता है?॥ २९॥

श्लोक-३०

विश्वास-प्रस्तुतिः

किरातहूणान् यवनानन्ध्रान् कङ्कान् खशाञ्छकान्।
अब्रह्मण्यान् नृपांश्चाहन् म्लेच्छान् दिग्विजयेऽखिलान्॥

मूलम्

किरातहूणान् यवनानन्ध्रान् कङ्कान् खशाञ्छकान्।
अब्रह्मण्यान् नृपांश्चाहन् म्लेच्छान् दिग्विजयेऽखिलान्॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतने दिग्विजयके समय किरात, हूण, यवन, अन्ध्र, कंक, खश, शक और म्लेच्छ आदि समस्त ब्राह्मणद्रोही राजाओंको मार डाला॥ ३०॥

श्लोक-३१

विश्वास-प्रस्तुतिः

जित्वा पुरासुरा देवान् ये रसौकांसि भेजिरे।
देवस्त्रियो रसां नीताः प्राणिभिः पुनराहरत्॥

मूलम्

जित्वा पुरासुरा देवान् ये रसौकांसि भेजिरे।
देवस्त्रियो रसां नीताः प्राणिभिः पुनराहरत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

पहले युगमें बलवान् असुरोंने देवताओंपर विजय प्राप्त कर ली थी और वे रसातलमें रहने लगे थे। उस समय वे बहुत-सी देवांगनाओंको रसातलमें ले गये थे। राजा भरतने फिरसे उन्हें छुड़ा दिया॥ ३१॥

श्लोक-३२

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वकामान् दुदुहतुः प्रजानां तस्य रोदसी।
समास्त्रिणवसाहस्रीर्दिक्षु चक्रमवर्तयत्॥

मूलम्

सर्वकामान् दुदुहतुः प्रजानां तस्य रोदसी।
समास्त्रिणवसाहस्रीर्दिक्षु चक्रमवर्तयत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनके राज्यमें पृथ्वी और आकाश प्रजाकी सारी आवश्यकताएँ पूर्ण कर देते थे। भरतने सत्ताईस हजार वर्षतक समस्त दिशाओंका एकछत्र शासन किया॥ ३२॥

श्लोक-३३

विश्वास-प्रस्तुतिः

स सम्राड् लोकपालाख्यमैश्वर्यमधिराट् श्रियम्।
चक्रं चास्खलितं प्राणान् मृषेत्युपरराम ह॥

मूलम्

स सम्राड् लोकपालाख्यमैश्वर्यमधिराट् श्रियम्।
चक्रं चास्खलितं प्राणान् मृषेत्युपरराम ह॥

अनुवाद (हिन्दी)

अन्तमें सार्वभौम सम्राट् भरतने यही निश्चय किया कि लोकपालोंको भी चकित कर देनेवाला ऐश्वर्य, सार्वभौम सम्पत्ति, अखण्ड शासन और यह जीवन भी मिथ्या ही है। यह निश्चय करके वे संसारसे उदासीन हो गये॥ ३३॥

श्लोक-३४

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्यासन् नृप वैदर्भ्यः पत्न्यस्तिस्रः सुसम्मताः।
जघ्नुस्त्यागभयात् पुत्रान् नानुरूपा इतीरिते॥

मूलम्

तस्यासन् नृप वैदर्भ्यः पत्न्यस्तिस्रः सुसम्मताः।
जघ्नुस्त्यागभयात् पुत्रान् नानुरूपा इतीरिते॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! विदर्भराजकी तीन कन्याएँ सम्राट् भरतकी पत्नियाँ थीं। वे उनका बड़ा आदर भी करते थे। परन्तु जब भरतने उनसे कह दिया कि तुम्हारे पुत्र मेरे अनुरूप नहीं हैं, तब वे डर गयीं कि कहीं सम्राट् हमें त्याग न दें। इसलिये उन्होंने अपने बच्चोंको मार डाला॥ ३४॥

श्लोक-३५

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्यैवं वितथे वंशे तदर्थं यजतः सुतम्।
मरुत्स्तोमेन मरुतो भरद्वाजमुपाददुः॥

मूलम्

तस्यैवं वितथे वंशे तदर्थं यजतः सुतम्।
मरुत्स्तोमेन मरुतो भरद्वाजमुपाददुः॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार सम्राट् भरतका वंश वितथ अर्थात् विच्छिन्न होने लगा। तब उन्होंने सन्तानके लिये ‘मरुत्स्तोम’ नामका यज्ञ किया। इससे मरुद‍्गणोंने प्रसन्न होकर भरतको भरद्वाज नामका पुत्र दिया॥ ३५॥

श्लोक-३६

विश्वास-प्रस्तुतिः

अन्तर्वत्न्यां भ्रातृपत्न्यां मैथुनाय बृहस्पतिः।
प्रवृत्तो वारितो गर्भं शप्त्वा वीर्यमवासृजत्॥

मूलम्

अन्तर्वत्न्यां भ्रातृपत्न्यां मैथुनाय बृहस्पतिः।
प्रवृत्तो वारितो गर्भं शप्त्वा वीर्यमवासृजत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरद्वाजकी उत्पत्तिका प्रसंग यह है कि एक बार बृहस्पतिजीने अपने भाई उतथ्यकी गर्भवती पत्नीसे मैथुन करना चाहा। उस समय गर्भमें जो बालक (दीर्घतमा) था, उसने मना किया। किन्तु बृहस्पतिजीने उसकी बातपर ध्यान न दिया और उसे ‘तू अंधा हो जा’ यह शाप देकर बलपूर्वक गर्भाधान कर दिया॥ ३६॥

श्लोक-३७

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं त्यक्तुकामां ममतां भर्तृत्यागविशङ्किताम्।
नामनिर्वचनं तस्य श्लोकमेनं सुरा जगुः॥

मूलम्

तं त्यक्तुकामां ममतां भर्तृत्यागविशङ्किताम्।
नामनिर्वचनं तस्य श्लोकमेनं सुरा जगुः॥

अनुवाद (हिन्दी)

उतथ्यकी पत्नी ममता इस बातसे डर गयी कि कहीं मेरे पति मेरा त्याग न कर दें। इसलिये उसने बृहस्पतिजीके द्वारा होनेवाले लड़केको त्याग देना चाहा। उस समय देवताओंने गर्भस्थ शिशुके नामका निर्वचन करते हुए यह कहा॥ ३७॥

श्लोक-३८

विश्वास-प्रस्तुतिः

मूढे भर द्वाजमिमं भर द्वाजं बृहस्पते।
यातौ यदुक्त्वा पितरौ भरद्वाजस्ततस्त्वयम्॥

मूलम्

मूढे भर द्वाजमिमं भर द्वाजं बृहस्पते।
यातौ यदुक्त्वा पितरौ भरद्वाजस्ततस्त्वयम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

बृहस्पतिजी कहते हैं कि ‘अरी मूढे! यह मेरा औरस और मेरे भाईका क्षेत्रज—इस प्रकार दोनोंका पुत्र (द्वाज) है; इसलिये तू डर मत, इसका भरण-पोषण कर (भर)।’ इसपर ममताने कहा—‘बृहस्पते! यह मेरे पतिका नहीं, हम दोनोंका ही पुत्र है; इसलिये तुम्हीं इसका भरण-पोषण करो।’ इस प्रकार आपसमें विवाद करते हुए माता-पिता दोनों ही इसको छोड़कर चले गये। इसलिये इस लड़केका नाम ‘भरद्वाज’ हुआ॥ ३८॥

श्लोक-३९

विश्वास-प्रस्तुतिः

चोद्यमाना सुरैरेवं मत्वा वितथमात्मजम्।
व्यसृजन् मरुतोऽबिभ्रन् दत्तोऽयं वितथेऽन्वये॥

मूलम्

चोद्यमाना सुरैरेवं मत्वा वितथमात्मजम्।
व्यसृजन् मरुतोऽबिभ्रन् दत्तोऽयं वितथेऽन्वये॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवताओंके द्वारा नामका ऐसा निर्वचन होनेपर भी ममताने यही समझा कि मेरा यह पुत्र वितथ अर्थात् अन्यायसे पैदा हुआ है। अतः उसने उस बच्चेको छोड़ दिया। अब मरुद‍्गणोंने उसका पालन किया और जब राजा भरतका वंश नष्ट होने लगा, तब उसे लाकर उनको दे दिया। यही वितथ (भरद्वाज) भरतका दत्तक पुत्र हुआ॥ ३९॥

अनुवाद (समाप्ति)

इति श्रीमद‍्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां नवमस्कन्धे विंशोऽध्यायः॥ २०॥