१९

[एकोनविंशोऽध्यायः]

भागसूचना

ययातिका गृहत्याग

श्लोक-१

मूलम् (वचनम्)

श्रीशुक उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

स इत्थमाचरन्कामान् स्त्रैणोऽपह्नवमात्मनः।
बुद्‍ध्वा प्रियायै निर्विण्णो गाथामेतामगायत॥

मूलम्

स इत्थमाचरन्कामान् स्त्रैणोऽपह्नवमात्मनः।
बुद्‍ध्वा प्रियायै निर्विण्णो गाथामेतामगायत॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! राजा ययाति इस प्रकार स्त्रीके वशमें होकर विषयोंका उपभोग करते रहे। एक दिन जब अपने अधःपतनपर दृष्टि गयी तब उन्हें बड़ा वैराग्य हुआ और उन्होंने अपनी प्रिय पत्नी देवयानीसे इस गाथाका गान किया॥ १॥

श्लोक-२

विश्वास-प्रस्तुतिः

शृणु भार्गव्यमूं गाथां मद्विधाचरितां भुवि।
धीरा यस्यानुशोचन्ति वने ग्रामनिवासिनः॥

मूलम्

शृणु भार्गव्यमूं गाथां मद्विधाचरितां भुवि।
धीरा यस्यानुशोचन्ति वने ग्रामनिवासिनः॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘भृगुनन्दिनी! तुम यह गाथा सुनो। पृथ्वीमें मेरे ही समान विषयीका यह सत्य इतिहास है। ऐसे ही ग्रामवासी विषयी पुरुषोंके सम्बन्धमें वनवासी जितेन्द्रिय पुरुष दुःखके साथ विचार किया करते हैं कि इनका कल्याण कैसे होगा?॥ २॥

श्लोक-३

विश्वास-प्रस्तुतिः

बस्त एको वने कश्चिद् विचिन्वन् प्रियमात्मनः।
ददर्श कूपे पतितां स्वकर्मवशगामजाम्॥

मूलम्

बस्त एको वने कश्चिद् विचिन्वन् प्रियमात्मनः।
ददर्श कूपे पतितां स्वकर्मवशगामजाम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

एक था बकरा। वह वनमें अकेला ही अपनेको प्रिय लगनेवाली वस्तुएँ ढूँढ़ता हुआ घूम रहा था। उसने देखा कि अपने कर्मवश एक बकरी कूएँमें गिर पड़ी है॥ ३॥

श्लोक-४

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्या उद्धरणोपायं बस्तः कामी विचिन्तयन्।
व्यधत्त तीर्थमुद‍्धृत्य विषाणाग्रेण रोधसी॥

मूलम्

तस्या उद्धरणोपायं बस्तः कामी विचिन्तयन्।
व्यधत्त तीर्थमुद‍्धृत्य विषाणाग्रेण रोधसी॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह बकरा बड़ा कामी था। वह सोचने लगा कि इस बकरीको किस प्रकार कूएँसे निकाला जाय। उसने अपने सींगसे कूएँके पासकी धरती खोद डाली और रास्ता तैयार कर लिया॥ ४॥

श्लोक-५

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोत्तीर्य कूपात् सुश्रोणी तमेव चकमे किल।
तया वृतं समुद्वीक्ष्य बह्व्योऽजाः कान्तकामिनीः॥

मूलम्

सोत्तीर्य कूपात् सुश्रोणी तमेव चकमे किल।
तया वृतं समुद्वीक्ष्य बह्व्योऽजाः कान्तकामिनीः॥

श्लोक-६

विश्वास-प्रस्तुतिः

पीवानं श्मश्रुलं प्रेष्ठं मीढ्वांसं याभकोविदम्।
स एकोऽजवृषस्तासां बह्वीनां रतिवर्धनः।
रेमे कामग्रहग्रस्त आत्मानं नावबुध्यत॥

मूलम्

पीवानं श्मश्रुलं प्रेष्ठं मीढ्वांसं याभकोविदम्।
स एकोऽजवृषस्तासां बह्वीनां रतिवर्धनः।
रेमे कामग्रहग्रस्त आत्मानं नावबुध्यत॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब वह सुन्दरी बकरी कूएँसे निकली तो उसने उस बकरेसे ही प्रेम करना चाहा। वह दाढ़ी-मूँछमण्डित बकरा हृष्ट-पुष्ट, जवान, बकरियोंको सुख देनेवाला, विहारकुशल और बहुत प्यारा था। जब दूसरी बकरियोंने देखा कि कूएँमें गिरी हुई बकरीने उसे अपना प्रेमपात्र चुन लिया है, तब उन्होंने भी उसीको अपना पति बना लिया। वे तो पहलेसे ही पतिकी तलाशमें थीं। उस बकरेके सिरपर कामरूप पिशाच सवार था। वह अकेला ही बहुत-सी बकरियोंके साथ विहार करने लगा और अपनी सब सुध-बुध खो बैठा॥ ५-६॥

श्लोक-७

विश्वास-प्रस्तुतिः

तमेव प्रेष्ठतमया रममाणमजान्यया।
विलोक्य कूपसंविग्ना नामृष्यद् बस्तकर्म तत्॥

मूलम्

तमेव प्रेष्ठतमया रममाणमजान्यया।
विलोक्य कूपसंविग्ना नामृष्यद् बस्तकर्म तत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब उसकी कूएँमेंसे निकाली हुई प्रियतमा बकरीने देखा कि मेरा पति तो अपनी दूसरी प्रियतमा बकरीसे विहार कर रहा है तो उसे बकरेकी यह करतूत सहन न हुई॥ ७॥

श्लोक-८

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं दुर्हृदं सुहृद‍‍्रूपं कामिनं क्षणसौहृदम्।
इन्द्रियाराममुत्सृज्य स्वामिनं दुःखिता ययौ॥

मूलम्

तं दुर्हृदं सुहृद‍‍्रूपं कामिनं क्षणसौहृदम्।
इन्द्रियाराममुत्सृज्य स्वामिनं दुःखिता ययौ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसने देखा कि यह तो बड़ा कामी है, इसके प्रेमका कोई भरोसा नहीं है और यह मित्रके रूपमें शत्रुका काम कर रहा है। अतः वह बकरी उस इन्द्रियलोलुप बकरेको छोड़कर बड़े दुःखसे अपने पालनेवालेके पास चली गयी॥ ८॥

श्लोक-९

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोऽपि चानुगतः स्त्रैणः कृपणस्तां प्रसादितुम्।
कुर्वन्निडविडाकारं नाशक्नोत् पथि संधितुम्॥

मूलम्

सोऽपि चानुगतः स्त्रैणः कृपणस्तां प्रसादितुम्।
कुर्वन्निडविडाकारं नाशक्नोत् पथि संधितुम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह दीन कामी बकरा उसे मनानेके लिये ‘में-में’ करता हुआ उसके पीछे-पीछे चला। परन्तु उसे मार्गमें मना न सका॥ ९॥

श्लोक-१०

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्यास्तत्र द्विजः कश्चिदजास्वाम्यच्छिनद् रुषा।
लम्बन्तं वृषणं भूयः सन्दधेऽर्थाय योगवित्॥

मूलम्

तस्यास्तत्र द्विजः कश्चिदजास्वाम्यच्छिनद् रुषा।
लम्बन्तं वृषणं भूयः सन्दधेऽर्थाय योगवित्॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस बकरीका स्वामी एक ब्राह्मण था। उसने क्रोधमें आकर बकरेके लटकते हुए अण्डकोषको काट दिया। परन्तु फिर उस बकरीका ही भला करनेके लिये फिरसे उसे जोड़ भी दिया। उसे इस प्रकारके बहुत-से उपाय मालूम थे॥ १०॥

श्लोक-११

विश्वास-प्रस्तुतिः

सम्बद्धवृषणः सोऽपि ह्यजया कूपलब्धया।
कालं बहुतिथं भद्रे कामैर्नाद्यापि तुष्यति॥

मूलम्

सम्बद्धवृषणः सोऽपि ह्यजया कूपलब्धया।
कालं बहुतिथं भद्रे कामैर्नाद्यापि तुष्यति॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रिये! इस प्रकार अण्डकोष जुड़ जानेपर वह बकरा फिर कूएँसे निकली हुई बकरीके साथ बहुत दिनोंतक विषयभोग करता रहा, परन्तु आजतक उसे सन्तोष न हुआ॥ ११॥

श्लोक-१२

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथाहं कृपणः सुभ्रु भवत्याः प्रेमयन्त्रितः।
आत्मानं नाभिजानामि मोहितस्तव मायया॥

मूलम्

तथाहं कृपणः सुभ्रु भवत्याः प्रेमयन्त्रितः।
आत्मानं नाभिजानामि मोहितस्तव मायया॥

अनुवाद (हिन्दी)

सुन्दरी! मेरी भी यही दशा है। तुम्हारे प्रेमपाशमें बँधकर मैं भी अत्यन्त दीन हो गया। तुम्हारी मायासे मोहित होकर मैं अपने-आपको भी भूल गया हूँ॥ १२॥

श्लोक-१३

विश्वास-प्रस्तुतिः

यत् पृथिव्यां व्रीहियवं हिरण्यं पशवः स्त्रियः।
न दुह्यन्ति मनःप्रीतिं पुंसः कामहतस्य ते॥

मूलम्

यत् पृथिव्यां व्रीहियवं हिरण्यं पशवः स्त्रियः।
न दुह्यन्ति मनःप्रीतिं पुंसः कामहतस्य ते॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘प्रिये! पृथ्वीमें जितने भी धान्य (चावल, जौ आदि), सुवर्ण, पशु और स्त्रियाँ हैं—वे सब-के-सब मिलकर भी उस पुरुषके मनको सन्तुष्ट नहीं कर सकते जो कामनाओंके प्रहारसे जर्जर हो रहा है॥ १३॥

श्लोक-१४

विश्वास-प्रस्तुतिः

न जातु कामः कामानामुपभोगेन शाम्यति।
हविषा कृष्णवर्त्मेव भूय एवाभिवर्धते॥

मूलम्

न जातु कामः कामानामुपभोगेन शाम्यति।
हविषा कृष्णवर्त्मेव भूय एवाभिवर्धते॥

अनुवाद (हिन्दी)

विषयोंके भोगनेसे भोगवासना कभी शान्त नहीं हो सकती। बल्कि जैसे घीकी आहुति डालनेपर आग और भड़क उठती है, वैसे ही भोगवासनाएँ भी भोगोंसे प्रबल हो जाती हैं॥ १४॥

श्लोक-१५

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदा न कुरुते भावं सर्वभूतेष्वमङ्गलम्।
समदृष्टेस्तदा पुंसः सर्वाः सुखमया दिशः॥

मूलम्

यदा न कुरुते भावं सर्वभूतेष्वमङ्गलम्।
समदृष्टेस्तदा पुंसः सर्वाः सुखमया दिशः॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब मनुष्य किसी भी प्राणी और किसी भी वस्तुके साथ राग-द्वेषका भाव नहीं रखता तब वह समदर्शी हो जाता है, तथा उसके लिये सभी दिशाएँ सुखमयी बन जाती हैं॥ १५॥

श्लोक-१६

विश्वास-प्रस्तुतिः

या दुस्त्यजा दुर्मतिभिर्जीर्यतो या न जीर्यते।
तां तृष्णां दुःखनिवहां शर्मकामो द्रुतं त्यजेत्॥

मूलम्

या दुस्त्यजा दुर्मतिभिर्जीर्यतो या न जीर्यते।
तां तृष्णां दुःखनिवहां शर्मकामो द्रुतं त्यजेत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

विषयोंकी तृष्णा ही दुःखोंका उद‍्गम स्थान है। मन्दबुद्धि लोग बड़ी कठिनाईसे उसका त्याग कर सकते हैं। शरीर बूढ़ा हो जाता है, पर तृष्णा नित्य नवीन ही होती जाती है। अतः जो अपना कल्याण चाहता है, उसे शीघ्र-से-शीघ्र इस तृष्णा (भोग-वासना) का त्याग कर देना चाहिये॥ १६॥

श्लोक-१७

विश्वास-प्रस्तुतिः

मात्रा स्वस्रा दुहित्रा वा नाविविक्तासनो भवेत्।
बलवानिन्द्रियग्रामो विद्वांसमपि कर्षति॥

मूलम्

मात्रा स्वस्रा दुहित्रा वा नाविविक्तासनो भवेत्।
बलवानिन्द्रियग्रामो विद्वांसमपि कर्षति॥

अनुवाद (हिन्दी)

और तो क्या—अपनी मा, बहिन और कन्याके साथ भी अकेले एक आसनपर सटकर नहीं बैठना चाहिये। इन्द्रियाँ इतनी बलवान् हैं कि वे बड़े-बड़े विद्वानोंको भी विचलित कर देती हैं॥ १७॥

श्लोक-१८

विश्वास-प्रस्तुतिः

पूर्णं वर्षसहस्रं मे विषयान् सेवतोऽसकृत्।
तथापि चानुसवनं तृष्णा तेषूपजायते॥

मूलम्

पूर्णं वर्षसहस्रं मे विषयान् सेवतोऽसकृत्।
तथापि चानुसवनं तृष्णा तेषूपजायते॥

अनुवाद (हिन्दी)

विषयोंका बार-बार सेवन करते-करते मेरे एक हजार वर्ष पूरे हो गये, फिर भी क्षण-प्रति-क्षण उन भोगोंकी लालसा बढ़ती ही जा रही है॥ १८॥

श्लोक-१९

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मादेतामहं त्यक्त्वा ब्रह्मण्याधाय मानसम्।
निर्द्वन्द्वो निरहंकारश्चरिष्यामि मृगैः सह॥

मूलम्

तस्मादेतामहं त्यक्त्वा ब्रह्मण्याधाय मानसम्।
निर्द्वन्द्वो निरहंकारश्चरिष्यामि मृगैः सह॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसलिये मैं अब भोगोंकी वासना—तृष्णाका परित्याग करके अपना अन्तःकरण परमात्माके प्रति समर्पित कर दूँगा और शीत-उष्ण, सुख-दुःख आदिके भावोंसे ऊपर उठकर अहंकारसे मुक्त हो हरिनोंके साथ वनमें विचरूँगा॥ १९॥

श्लोक-२०

विश्वास-प्रस्तुतिः

दृष्टं श्रुतमसद् बुद्‍ध्वा नानुध्यायेन्न संविशेत्।
संसृतिं चात्मनाशं च तत्र विद्वान् स आत्मदृक्॥

मूलम्

दृष्टं श्रुतमसद् बुद्‍ध्वा नानुध्यायेन्न संविशेत्।
संसृतिं चात्मनाशं च तत्र विद्वान् स आत्मदृक्॥

अनुवाद (हिन्दी)

लोक-परलोक दोनोंके ही भोग असत् हैं, ऐसा समझकर न तो उनका चिन्तन करना चाहिये और न भोग ही। समझना चाहिये कि उनके चिन्तनसे ही जन्म-मृत्युरूप संसारकी प्राप्ति होती है और उनके भोगसे तो आत्मनाश ही हो जाता है। वास्तवमें इनके रहस्यको जानकर इनसे अलग रहनेवाला ही आत्मज्ञानी है’॥ २०॥

श्लोक-२१

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्युक्त्वा नाहुषो जायां तदीयं पूरवे वयः।
दत्त्वा स्वां जरसं तस्मादाददे विगतस्पृहः॥

मूलम्

इत्युक्त्वा नाहुषो जायां तदीयं पूरवे वयः।
दत्त्वा स्वां जरसं तस्मादाददे विगतस्पृहः॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! ययातिने अपनी पत्नीसे इस प्रकार कहकर पूरुकी जवानी उसे लौटा दी और उससे अपना बुढ़ापा ले लिया। यह इसलिये कि अब उनके चित्तमें विषयोंकी वासना नहीं रह गयी थी॥ २१॥

श्लोक-२२

विश्वास-प्रस्तुतिः

दिशि दक्षिणपूर्वस्यां द्रुह्युं दक्षिणतो यदुम्।
प्रतीच्यां तुर्वसुं चक्र उदीच्यामनुमीश्वरम्॥

मूलम्

दिशि दक्षिणपूर्वस्यां द्रुह्युं दक्षिणतो यदुम्।
प्रतीच्यां तुर्वसुं चक्र उदीच्यामनुमीश्वरम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसके बाद उन्होंने दक्षिण-पूर्व दिशामें द्रुह्यु, दक्षिणमें यदु, पश्चिममें तुर्वसु और उत्तरमें अनुको राज्य दे दिया॥ २२॥

श्लोक-२३

विश्वास-प्रस्तुतिः

भूमण्डलस्य सर्वस्य पूरुमर्हत्तमं विशाम्।
अभिषिच्याग्रजांस्तस्य वशे स्थाप्य वनं ययौ॥

मूलम्

भूमण्डलस्य सर्वस्य पूरुमर्हत्तमं विशाम्।
अभिषिच्याग्रजांस्तस्य वशे स्थाप्य वनं ययौ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सारे भूमण्डलकी समस्त सम्पत्तियोंके योग्यतम पात्र पूरुको अपने राज्यपर अभिषिक्त करके तथा बड़े भाइयोंको उसके अधीन बनाकर वे वनमें चले गये॥ २३॥

श्लोक-२४

विश्वास-प्रस्तुतिः

आसेवितं वर्षपूगान् षड्वर्गं विषयेषु सः।
क्षणेन मुमुचे नीडं जातपक्ष इव द्विजः॥

मूलम्

आसेवितं वर्षपूगान् षड्वर्गं विषयेषु सः।
क्षणेन मुमुचे नीडं जातपक्ष इव द्विजः॥

अनुवाद (हिन्दी)

यद्यपि राजा ययातिने बहुत वर्षोंतक इन्द्रियोंसे विषयोंका सुख भोगा था—परन्तु जैसे पाँख निकल आनेपर पक्षी अपना घोंसला छोड़ देता है, वैसे ही उन्होंने एक क्षणमें ही सब कुछ छोड़ दिया॥ २४॥

श्लोक-२५

विश्वास-प्रस्तुतिः

स तत्र निर्मुक्तसमस्तसङ्ग
आत्मानुभूत्या विधुतत्रिलिङ्गः।
परेऽमले ब्रह्मणि वासुदेवे
लेभे गतिं भागवतीं प्रतीतः॥

मूलम्

स तत्र निर्मुक्तसमस्तसङ्ग
आत्मानुभूत्या विधुतत्रिलिङ्गः।
परेऽमले ब्रह्मणि वासुदेवे
लेभे गतिं भागवतीं प्रतीतः॥

अनुवाद (हिन्दी)

वनमें जाकर राजा ययातिने समस्त आसक्तियोंसे छुट्टी पा ली। आत्म-साक्षात्कारके द्वारा उनका त्रिगुणमय लिंगशरीर नष्ट हो गया। उन्होंने माया-मलसे रहित परब्रह्म परमात्मा वासुदेवमें मिलकर वह भागवती गति प्राप्त की, जो बड़े-बड़े भगवान‍्के प्रेमी संतोंको प्राप्त होती है॥ २५॥

श्लोक-२६

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रुत्वा गाथां देवयानी मेने प्रस्तोभमात्मनः।
स्त्रीपुंसोः स्नेहवैक्लव्यात् परिहासमिवेरितम्॥

मूलम्

श्रुत्वा गाथां देवयानी मेने प्रस्तोभमात्मनः।
स्त्रीपुंसोः स्नेहवैक्लव्यात् परिहासमिवेरितम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब देवयानीने वह गाथा सुनी, तो उसने समझा कि ये मुझे निवृत्तिमार्गके लिये प्रोत्साहित कर रहे हैं। क्योंकि स्त्री-पुरुषमें परस्पर प्रेमके कारण विरह होनेपर विकलता होती है, यह सोचकर ही इन्होंने यह बात हँसी-हँसीमें कही है॥ २६॥

श्लोक-२७

विश्वास-प्रस्तुतिः

सा संनिवासं सुहृदां प्रपायामिव गच्छताम्।
विज्ञायेश्वरतन्त्राणां मायाविरचितं प्रभोः॥

मूलम्

सा संनिवासं सुहृदां प्रपायामिव गच्छताम्।
विज्ञायेश्वरतन्त्राणां मायाविरचितं प्रभोः॥

श्लोक-२८

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वत्र सङ्गमुत्सृज्य स्वप्नौपम्येन भार्गवी।
कृष्णे मनः समावेश्य व्यधुनोल्लिङ्गमात्मनः॥

मूलम्

सर्वत्र सङ्गमुत्सृज्य स्वप्नौपम्येन भार्गवी।
कृष्णे मनः समावेश्य व्यधुनोल्लिङ्गमात्मनः॥

अनुवाद (हिन्दी)

स्वजन-सम्बन्धियोंका—जो ईश्वरके अधीन है—एक स्थानपर इकट्ठा हो जाना वैसा ही है, जैसा प्याऊपर पथिकोंका। यह सब भगवान‍्की मायाका खेल और स्वप्नके सरीखा ही है। ऐसा समझकर देवयानीने सब पदार्थोंकी आसक्ति त्याग दी और अपने मनको भगवान् श्रीकृष्णमें तन्मय करके बन्धनके हेतु लिंगशरीरका परित्याग कर दिया—वह भगवान‍्को प्राप्त हो गयी॥ २७-२८॥

श्लोक-२९

विश्वास-प्रस्तुतिः

नमस्तुभ्यं भगवते वासुदेवाय वेधसे।
सर्वभूताधिवासाय शान्ताय बृहते नमः॥

मूलम्

नमस्तुभ्यं भगवते वासुदेवाय वेधसे।
सर्वभूताधिवासाय शान्ताय बृहते नमः॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसने भगवान‍्को नमस्कार करके कहा—‘समस्त जगत‍्के रचयिता, सर्वान्तर्यामी, सबके आश्रयस्वरूप सर्वशक्तिमान् भगवान् वासुदेवको नमस्कार है। जो परमशान्त और अनन्त तत्त्व है, उसे मैं नमस्कार करती हूँ’॥ २९॥

अनुवाद (समाप्ति)

इति श्रीमद‍्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां नवमस्कन्धे एकोनविंशोऽध्यायः॥ १९॥