[अष्टादशोऽध्यायः]
भागसूचना
ययाति-चरित्र
श्लोक-१
मूलम् (वचनम्)
श्रीशुक उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
यतिर्ययातिः संयातिरायतिर्वियतिः कृतिः।
षडिमे नहुषस्यासन्निन्द्रियाणीव देहिनः॥
मूलम्
यतिर्ययातिः संयातिरायतिर्वियतिः कृतिः।
षडिमे नहुषस्यासन्निन्द्रियाणीव देहिनः॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! जैसे शरीरधारियोंके छः इन्द्रियाँ होती हैं, वैसे ही नहुषके छः पुत्र थे। उनके नाम थे—यति, ययाति, संयाति, आयति, वियति और कृति॥ १॥
श्लोक-२
विश्वास-प्रस्तुतिः
राज्यं नैच्छद् यतिः पित्रा दत्तं तत्परिणामवित्।
यत्र प्रविष्टः पुरुष आत्मानं नावबुध्यते॥
मूलम्
राज्यं नैच्छद् यतिः पित्रा दत्तं तत्परिणामवित्।
यत्र प्रविष्टः पुरुष आत्मानं नावबुध्यते॥
अनुवाद (हिन्दी)
नहुष अपने बड़े पुत्र यतिको राज्य देना चाहते थे। परन्तु उसने स्वीकार नहीं किया; क्योंकि वह राज्य पानेका परिणाम जानता था। राज्य एक ऐसी वस्तु है कि जो उसके दाव-पेंच और प्रबन्ध आदिमें भीतर प्रवेश कर जाता है, वह अपने आत्मस्वरूपको नहीं समझ सकता॥ २॥
श्लोक-३
विश्वास-प्रस्तुतिः
पितरि भ्रंशिते स्थानादिन्द्राण्या धर्षणाद् द्विजैः।
प्रापितेऽजगरत्वं वै ययातिरभवन्नृपः॥
मूलम्
पितरि भ्रंशिते स्थानादिन्द्राण्या धर्षणाद् द्विजैः।
प्रापितेऽजगरत्वं वै ययातिरभवन्नृपः॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब इन्द्रपत्नी शचीसे सहवास करनेकी चेष्टा करनेके कारण नहुषको ब्राह्मणोंने इन्द्रपदसे गिरा दिया और अजगर बना दिया, तब राजाके पदपर ययाति बैठे॥ ३॥
श्लोक-४
विश्वास-प्रस्तुतिः
चतसृष्वादिशद्दिक्षु भ्रातॄन् भ्राता यवीयसः।
कृतदारो जुगोपोर्वीं काव्यस्य वृषपर्वणः॥
मूलम्
चतसृष्वादिशद्दिक्षु भ्रातॄन् भ्राता यवीयसः।
कृतदारो जुगोपोर्वीं काव्यस्य वृषपर्वणः॥
अनुवाद (हिन्दी)
ययातिने अपने चार छोटे भाइयोंको चार दिशाओंमें नियुक्त कर दिया और स्वयं शुक्राचार्यकी पुत्री देवयानी और दैत्यराज वृषपर्वाकी पुत्री शर्मिष्ठाको पत्नीके रूपमें स्वीकार करके पृथ्वीकी रक्षा करने लगा॥ ४॥
श्लोक-५
मूलम् (वचनम्)
राजोवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्रह्मर्षिर्भगवान् काव्यः क्षत्रबन्धुश्च नाहुषः।
राजन्यविप्रयोः कस्माद् विवाहः प्रतिलोमकः॥
मूलम्
ब्रह्मर्षिर्भगवान् काव्यः क्षत्रबन्धुश्च नाहुषः।
राजन्यविप्रयोः कस्माद् विवाहः प्रतिलोमकः॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजा परीक्षित् ने पूछा—भगवन्! भगवान् शुक्राचार्यजी तो ब्राह्मण थे और ययाति क्षत्रिय। फिर ब्राह्मण-कन्या और क्षत्रिय-वरका प्रतिलोम (उलटा) विवाह कैसे हुआ?॥ ५॥
श्लोक-६
मूलम् (वचनम्)
श्रीशुक उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एकदा दानवेन्द्रस्य शर्मिष्ठा नाम कन्यका।
सखीसहस्रसंयुक्ता गुरुपुत्र्या च भामिनी॥
मूलम्
एकदा दानवेन्द्रस्य शर्मिष्ठा नाम कन्यका।
सखीसहस्रसंयुक्ता गुरुपुत्र्या च भामिनी॥
श्लोक-७
विश्वास-प्रस्तुतिः
देवयान्या पुरोद्याने पुष्पितद्रुमसङ्कुले।
व्यचरत् कलगीतालिनलिनीपुलिनेऽबला॥
मूलम्
देवयान्या पुरोद्याने पुष्पितद्रुमसङ्कुले।
व्यचरत् कलगीतालिनलिनीपुलिनेऽबला॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीशुकदेवजीने कहा—राजन्! दानवराज वृषपर्वाकी एक बड़ी मानिनी कन्या थी। उसका नाम था शर्मिष्ठा। वह एक दिन अपनी गुरुपुत्री देवयानी और हजारों सखियोंके साथ अपनी राजधानीके श्रेष्ठ उद्यानमें टहल रही थी। उस उद्यानमें सुन्दर-सुन्दर पुष्पोंसे लदे हुए अनेकों वृक्ष थे। उसमें एक बड़ा ही सुन्दर सरोवर था। सरोवरमें कमल खिले हुए थे और उनपर बड़े ही मधुर स्वरसे भौंरे गुंजार कर रहे थे। उसकी ध्वनिसे सरोवरका तट गूँज रहा था॥ ६-७॥
श्लोक-८
विश्वास-प्रस्तुतिः
ता जलाशयमासाद्य कन्याः कमललोचनाः।
तीरे न्यस्य दुकूलानि विजह्रुः सिञ्चतीर्मिथः॥
मूलम्
ता जलाशयमासाद्य कन्याः कमललोचनाः।
तीरे न्यस्य दुकूलानि विजह्रुः सिञ्चतीर्मिथः॥
अनुवाद (हिन्दी)
जलाशयके पास पहुँचनेपर उन सुन्दरी कन्याओंने अपने-अपने वस्त्र तो घाटपर रख दिये और उस तालाबमें प्रवेश करके वे एक-दूसरेपर जल उलीच-उलीचकर क्रीडा करने लगीं॥ ८॥
श्लोक-९
विश्वास-प्रस्तुतिः
वीक्ष्य व्रजन्तं गिरिशं सह देव्या वृषस्थितम्।
सहसोत्तीर्य वासांसि पर्यधुर्व्रीडिताः स्त्रियः॥
मूलम्
वीक्ष्य व्रजन्तं गिरिशं सह देव्या वृषस्थितम्।
सहसोत्तीर्य वासांसि पर्यधुर्व्रीडिताः स्त्रियः॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसी समय उधरसे पार्वतीजीके साथ बैलपर चढ़े हुए भगवान् शंकर आ निकले। उनको देखकर सब-की-सब कन्याएँ सकुचा गयीं और उन्होंने झटपट सरोवरसे निकलकर अपने-अपने वस्त्र पहन लिये॥ ९॥
श्लोक-१०
विश्वास-प्रस्तुतिः
शर्मिष्ठाजानती वासो गुरुपुत्र्याः समव्ययत्।
स्वीयं मत्वा प्रकुपिता देवयानीदमब्रवीत्॥
मूलम्
शर्मिष्ठाजानती वासो गुरुपुत्र्याः समव्ययत्।
स्वीयं मत्वा प्रकुपिता देवयानीदमब्रवीत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
शीघ्रताके कारण शर्मिष्ठाने अनजानमें देवयानीके वस्त्रको अपना समझकर पहन लिया। इसपर देवयानी क्रोधके मारे आग-बबूला हो गयी। उसने कहा—॥ १०॥
श्लोक-११
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहो निरीक्ष्यतामस्या दास्याः कर्म ह्यसाम्प्रतम्।
अस्मद्धार्यं धृतवती शुनीव हविरध्वरे॥
मूलम्
अहो निरीक्ष्यतामस्या दास्याः कर्म ह्यसाम्प्रतम्।
अस्मद्धार्यं धृतवती शुनीव हविरध्वरे॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘अरे, देखो तो सही, इस दासीने कितना अनुचित काम कर डाला! राम-राम, जैसे कुतिया यज्ञका हविष्य उठा ले जाय, वैसे ही इसने मेरे वस्त्र पहन लिये हैं॥ ११॥
श्लोक-१२
विश्वास-प्रस्तुतिः
यैरिदं तपसा सृष्टं मुखं पुंसः परस्य ये।
धार्यते यैरिह ज्योतिः शिवः पन्थाश्च दर्शितः॥
मूलम्
यैरिदं तपसा सृष्टं मुखं पुंसः परस्य ये।
धार्यते यैरिह ज्योतिः शिवः पन्थाश्च दर्शितः॥
श्लोक-१३
विश्वास-प्रस्तुतिः
यान् वन्दन्त्युपतिष्ठन्ते लोकनाथाः सुरेश्वराः।
भगवानपि विश्वात्मा पावनः श्रीनिकेतनः॥
मूलम्
यान् वन्दन्त्युपतिष्ठन्ते लोकनाथाः सुरेश्वराः।
भगवानपि विश्वात्मा पावनः श्रीनिकेतनः॥
श्लोक-१४
विश्वास-प्रस्तुतिः
वयं तत्रापि भृगवः शिष्योऽस्या नः पितासुरः।
अस्मद्धार्यं धृतवती शूद्रो वेदमिवासती॥
मूलम्
वयं तत्रापि भृगवः शिष्योऽस्या नः पितासुरः।
अस्मद्धार्यं धृतवती शूद्रो वेदमिवासती॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिन ब्राह्मणोंने अपने तपोबलसे इस संसारकी सृष्टि की है, जो परम पुरुष परमात्माके मुखरूप हैं, जो अपने हृदयमें निरन्तर ज्योतिर्मय परमात्माको धारण किये रहते हैं और जिन्होंने सम्पूर्ण प्राणियोंके कल्याणके लिये वैदिक मार्गका निर्देश किया है, बड़े-बड़े लोकपाल तथा देवराज इन्द्र-ब्रह्मा आदि भी जिनके चरणोंकी वन्दना और सेवा करते हैं—और तो क्या, लक्ष्मीजीके एकमात्र आश्रय परम पावन विश्वात्मा भगवान् भी जिनकी वन्दना और स्तुति करते हैं—उन्हीं ब्राह्मणोंमें हम सबसे श्रेष्ठ भृगुवंशी हैं। और इसका पिता प्रथम तो असुर है, फिर हमारा शिष्य है। इसपर भी इस दुष्टाने जैसे शूद्र वेद पढ़ ले, उसी तरह हमारे कपड़ोंको पहन लिया है’॥ १२—१४॥
श्लोक-१५
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं शपन्तीं शर्मिष्ठा गुरुपुत्रीमभाषत।
रुषा श्वसन्त्युरङ्गीव धर्षिता दष्टदच्छदा॥
मूलम्
एवं शपन्तीं शर्मिष्ठा गुरुपुत्रीमभाषत।
रुषा श्वसन्त्युरङ्गीव धर्षिता दष्टदच्छदा॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब देवयानी इस प्रकार गाली देने लगी, तब शर्मिष्ठा क्रोधसे तिलमिला उठी। वह चोट खायी हुई नागिनके समान लंबी साँस लेने लगी। उसने अपने दाँतोंसे होठ दबाकर कहा—॥ १५॥
श्लोक-१६
विश्वास-प्रस्तुतिः
आत्मवृत्तमविज्ञाय कत्थसे बहु भिक्षुकि।
किं न प्रतीक्षसेऽस्माकं गृहान् बलिभुजो यथा॥
मूलम्
आत्मवृत्तमविज्ञाय कत्थसे बहु भिक्षुकि।
किं न प्रतीक्षसेऽस्माकं गृहान् बलिभुजो यथा॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘भिखारिन! तू इतना बहक रही है। तुझे कुछ अपनी बातका भी पता है? जैसे कौए और कुत्ते हमारे दरवाजेपर रोटीके टुकड़ोंके लिये प्रतीक्षा करते हैं, वैसे ही क्या तुम भी हमारे घरोंकी ओर नहीं ताकती रहतीं’॥ १६॥
श्लोक-१७
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवंविधैः सुपरुषैः क्षिप्त्वाऽऽचार्यसुतां सतीम्।
शर्मिष्ठा प्राक्षिपत् कूपे वास आदाय मन्युना॥
मूलम्
एवंविधैः सुपरुषैः क्षिप्त्वाऽऽचार्यसुतां सतीम्।
शर्मिष्ठा प्राक्षिपत् कूपे वास आदाय मन्युना॥
अनुवाद (हिन्दी)
शर्मिष्ठाने इस प्रकार बड़ी कड़ी-कड़ी बात कहकर गुरुपुत्री देवयानीका तिरस्कार किया और क्रोधवश उसके वस्त्र छीनकर उसे कूएँमें ढकेल दिया॥ १७॥
श्लोक-१८
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्यां गतायां स्वगृहं ययातिर्मृगयां चरन्।
प्राप्तो यदृच्छया कूपे जलार्थी तां ददर्श ह॥
मूलम्
तस्यां गतायां स्वगृहं ययातिर्मृगयां चरन्।
प्राप्तो यदृच्छया कूपे जलार्थी तां ददर्श ह॥
अनुवाद (हिन्दी)
शर्मिष्ठाके चले जानेके बाद संयोगवश शिकार खेलते हुए राजा ययाति उधर आ निकले। उन्हें जलकी आवश्यकता थी, इसलिये कूएँमें पड़ी हुई देवयानीको उन्होंने देख लिया॥ १८॥
श्लोक-१९
विश्वास-प्रस्तुतिः
दत्त्वा स्वमुत्तरं वासस्तस्यै राजा विवाससे।
गृहीत्वा पाणिना पाणिमुज्जहार दयापरः॥
मूलम्
दत्त्वा स्वमुत्तरं वासस्तस्यै राजा विवाससे।
गृहीत्वा पाणिना पाणिमुज्जहार दयापरः॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय वह वस्त्रहीन थी। इसलिये उन्होंने अपना दुपट्टा उसे दे दिया और दया करके अपने हाथसे उसका हाथ पकड़कर उसे बाहर निकाल लिया॥ १९॥
श्लोक-२०
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं वीरमाहौशनसी प्रेमनिर्भरया गिरा।
राजंस्त्वया गृहीतो मे पाणिः परपुरञ्जय॥
मूलम्
तं वीरमाहौशनसी प्रेमनिर्भरया गिरा।
राजंस्त्वया गृहीतो मे पाणिः परपुरञ्जय॥
श्लोक-२१
विश्वास-प्रस्तुतिः
हस्तग्राहोऽपरो मा भूद् गृहीतायास्त्वया हि मे।
एष ईशकृतो वीर सम्बन्धो नौ न पौरुषः।
यदिदं कूपलग्नाया भवतो दर्शनं मम॥
मूलम्
हस्तग्राहोऽपरो मा भूद् गृहीतायास्त्वया हि मे।
एष ईशकृतो वीर सम्बन्धो नौ न पौरुषः।
यदिदं कूपलग्नाया भवतो दर्शनं मम॥
अनुवाद (हिन्दी)
देवयानीने प्रेमभरी वाणीसे वीर ययातिसे कहा—‘वीरशिरोमणे राजन्! आज आपने मेरा हाथ पकड़ा है। अब जब आपने मेरा हाथ पकड़ लिया, तब कोई दूसरा इसे न पकड़े। वीरश्रेष्ठ! कूएँमें गिर जानेपर मुझे जो आपका अचानक दर्शन हुआ है, यह भगवान्का ही किया हुआ सम्बन्ध समझना चाहिये। इसमें हमलोगोंकी या और किसी मनुष्यकी कोई चेष्टा नहीं है॥ २०-२१॥
श्लोक-२२
विश्वास-प्रस्तुतिः
न ब्राह्मणो मे भविता हस्तग्राहो महाभुज।
कचस्य बार्हस्पत्यस्य शापाद् यमशपं पुरा॥
मूलम्
न ब्राह्मणो मे भविता हस्तग्राहो महाभुज।
कचस्य बार्हस्पत्यस्य शापाद् यमशपं पुरा॥
अनुवाद (हिन्दी)
वीरश्रेष्ठ! पहले मैंने बृहस्पतिके पुत्र कचको शाप दे दिया था, इसपर उसने भी मुझे शाप दे दिया। इसी कारण ब्राह्मण मेरा पाणिग्रहण नहीं कर सकता’*॥ २२॥
पादटिप्पनी
- बृहस्पतिजीका पुत्र कच शुक्राचार्यजीसे मृतसंजीवनी विद्या पढ़ता था। अध्ययन समाप्त करके जब वह अपने घर जाने लगा तो देवयानीने उसे वरण करना चाहा। परन्तु गुरुपुत्री होनेके कारण कचने उसका प्रस्ताव स्वीकार नहीं किया। इसपर देवयानीने उसे शाप दे दिया कि ‘तुम्हारी पढ़ी हुई विद्या निष्फल हो जाय।’ कचने भी उसे शाप दिया कि ‘कोई भी ब्राह्मण तुम्हें पत्नीरूपमें स्वीकार न करेगा।’
श्लोक-२३
विश्वास-प्रस्तुतिः
ययातिरनभिप्रेतं दैवोपहृतमात्मनः।
मनस्तु तद्गतं बुद्ध्वा प्रतिजग्राह तद्वचः॥
मूलम्
ययातिरनभिप्रेतं दैवोपहृतमात्मनः।
मनस्तु तद्गतं बुद्ध्वा प्रतिजग्राह तद्वचः॥
अनुवाद (हिन्दी)
ययातिको शास्त्रप्रतिकूल होनेके कारण यह सम्बन्ध अभीष्ट तो न था; परन्तु उन्होंने देखा कि प्रारब्धने स्वयं ही मुझे यह उपहार दिया है और मेरा मन भी इसकी ओर खिंच रहा है। इसलिये ययातिने उसकी बात मान ली॥ २३॥
श्लोक-२४
विश्वास-प्रस्तुतिः
गते राजनि सा वीरे तत्र स्म रुदती पितुः।
न्यवेदयत् ततः सर्वमुक्तं शर्मिष्ठया कृतम्॥
मूलम्
गते राजनि सा वीरे तत्र स्म रुदती पितुः।
न्यवेदयत् ततः सर्वमुक्तं शर्मिष्ठया कृतम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
वीर राजा ययाति जब चले गये, तब देवयानी रोती-पीटती अपने पिता शुक्राचार्यके पास पहुँची और शर्मिष्ठाने जो कुछ किया था, वह सब उन्हें कह सुनाया॥ २४॥
श्लोक-२५
विश्वास-प्रस्तुतिः
दुर्मना भगवान् काव्यः पौरोहित्यं विगर्हयन्।
स्तुवन् वृत्तिं च कापोतीं दुहित्रा स ययौ पुरात्॥
मूलम्
दुर्मना भगवान् काव्यः पौरोहित्यं विगर्हयन्।
स्तुवन् वृत्तिं च कापोतीं दुहित्रा स ययौ पुरात्॥
अनुवाद (हिन्दी)
शर्मिष्ठाके व्यवहारसे भगवान् शुक्राचार्यजीका भी मन उचट गया। वे पुरोहिताईकी निन्दा करने लगे। उन्होंने सोचा कि इसकी अपेक्षा तो खेत या बाजारमेंसे कबूतरकी तरह कुछ बीनकर खा लेना अच्छा है। अतः अपनी कन्या देवयानीको साथ लेकर वे नगरसे निकल पड़े॥ २५॥
श्लोक-२६
विश्वास-प्रस्तुतिः
वृषपर्वा तमाज्ञाय प्रत्यनीकविवक्षितम्।
गुरुं प्रसादयन् मूर्ध्ना पादयोः पतितः पथि॥
मूलम्
वृषपर्वा तमाज्ञाय प्रत्यनीकविवक्षितम्।
गुरुं प्रसादयन् मूर्ध्ना पादयोः पतितः पथि॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब वृषपर्वाको यह मालूम हुआ तो उनके मनमें यह शंका हुई कि गुरुजी कहीं शत्रुओंकी जीत न करा दें, अथवा मुझे शाप न दे दें। अतएव वे उनको प्रसन्न करनेके लिये पीछे-पीछे गये और रास्तेमें उनके चरणोंपर सिरके बल गिर गये॥ २६॥
श्लोक-२७
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्षणार्धमन्युर्भगवान् शिष्यं व्याचष्ट भार्गवः।
कामोऽस्याः क्रियतां राजन् नैनां त्यक्तुमिहोत्सहे॥
मूलम्
क्षणार्धमन्युर्भगवान् शिष्यं व्याचष्ट भार्गवः।
कामोऽस्याः क्रियतां राजन् नैनां त्यक्तुमिहोत्सहे॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् शुक्राचार्यजीका क्रोध तो आधे ही क्षणका था। उन्होंने वृषपर्वासे कहा—‘राजन्! मैं अपनी पुत्री देवयानीको नहीं छोड़ सकता। इसलिये इसकी जो इच्छा हो, तुम पूरी कर दो। फिर मुझे लौट चलनेमें कोई आपत्ति न होगी’॥ २७॥
श्लोक-२८
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथेत्यवस्थिते प्राह देवयानी मनोगतम्।
पित्रा दत्ता यतो यास्ये सानुगा यातु मामनु॥
मूलम्
तथेत्यवस्थिते प्राह देवयानी मनोगतम्।
पित्रा दत्ता यतो यास्ये सानुगा यातु मामनु॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब वृषपर्वाने ‘ठीक है’ कहकर उनकी आज्ञा स्वीकार कर ली, तब देवयानीने अपने मनकी बात कही। उसने कहा—‘पिताजी मुझे जिस किसीको दे दें और मैं जहाँ कहीं जाऊँ, शर्मिष्ठा अपनी सहेलियोंके साथ मेरी सेवाके लिये वहीं चले’॥ २८॥
श्लोक-२९
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वानां तत् सङ्कटं वीक्ष्य तदर्थस्य च गौरवम्।
देवयानीं पर्यचरत् स्त्रीसहस्रेण दासवत्॥
मूलम्
स्वानां तत् सङ्कटं वीक्ष्य तदर्थस्य च गौरवम्।
देवयानीं पर्यचरत् स्त्रीसहस्रेण दासवत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
शर्मिष्ठाने अपने परिवारवालोंका संकट और उनके कार्यका गौरव देखकर देवयानीकी बात स्वीकार कर ली। वह अपनी एक हजार सहेलियोंके साथ दासीके समान उसकी सेवा करने लगी॥ २९॥
श्लोक-३०
विश्वास-प्रस्तुतिः
नाहुषाय सुतां दत्त्वा सह शर्मिष्ठयोशना।
तमाह राजञ्छर्मिष्ठामाधास्तल्पे न कर्हिचित्॥
मूलम्
नाहुषाय सुतां दत्त्वा सह शर्मिष्ठयोशना।
तमाह राजञ्छर्मिष्ठामाधास्तल्पे न कर्हिचित्॥
अनुवाद (हिन्दी)
शुक्राचार्यजीने देवयानीका विवाह राजा ययातिके साथ कर दिया और शर्मिष्ठाको दासीके रूपमें देकर उनसे कह दिया—‘राजन्! इसको अपनी सेजपर कभी न आने देना’॥ ३०॥
श्लोक-३१
विश्वास-प्रस्तुतिः
विलोक्यौशनसीं राजञ्छर्मिष्ठा सप्रजां क्वचित्।
तमेव वव्रे रहसि सख्याः पतिमृतौ सती॥
मूलम्
विलोक्यौशनसीं राजञ्छर्मिष्ठा सप्रजां क्वचित्।
तमेव वव्रे रहसि सख्याः पतिमृतौ सती॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! कुछ ही दिनों बाद देवयानी पुत्रवती हो गयी। उसको पुत्रवती देखकर एकदिन शर्मिष्ठाने भी अपने ऋतुकालमें देवयानीके पति ययातिसे एकान्तमें सहवासकी याचना की॥ ३१॥
श्लोक-३२
विश्वास-प्रस्तुतिः
राजपुत्र्यार्थितोऽपत्ये धर्मं चावेक्ष्य धर्मवित्।
स्मरञ्छुक्रवचः काले दिष्टमेवाभ्यपद्यत॥
मूलम्
राजपुत्र्यार्थितोऽपत्ये धर्मं चावेक्ष्य धर्मवित्।
स्मरञ्छुक्रवचः काले दिष्टमेवाभ्यपद्यत॥
अनुवाद (हिन्दी)
शर्मिष्ठाकी पुत्रके लिये प्रार्थना धर्मसंगत है—यह देखकर धर्मज्ञ राजा ययातिने शुक्राचार्यकी बात याद रहनेपर भी यही निश्चय किया कि समयपर प्रारब्धके अनुसार जो होना होगा, हो जायगा॥ ३२॥
श्लोक-३३
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदुं च तुर्वसुं चैव देवयानी व्यजायत।
द्रुह्युं चानुं च पूरुं च शर्मिष्ठा वार्षपर्वणी॥
मूलम्
यदुं च तुर्वसुं चैव देवयानी व्यजायत।
द्रुह्युं चानुं च पूरुं च शर्मिष्ठा वार्षपर्वणी॥
अनुवाद (हिन्दी)
देवयानीके दो पुत्र हुए—यदु और तुर्वसु। तथा वृषपर्वाकी पुत्री शर्मिष्ठाके तीन पुत्र हुए—द्रुह्यु, अनु और पूरु॥ ३३॥
श्लोक-३४
विश्वास-प्रस्तुतिः
गर्भसम्भवमासुर्या भर्तुर्विज्ञाय मानिनी।
देवयानी पितुर्गेहं ययौ क्रोधविमूर्च्छिता॥
मूलम्
गर्भसम्भवमासुर्या भर्तुर्विज्ञाय मानिनी।
देवयानी पितुर्गेहं ययौ क्रोधविमूर्च्छिता॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब मानिनी देवयानीको यह मालूम हुआ कि शर्मिष्ठाको भी मेरे पतिके द्वारा ही गर्भ रहा था, तब वह क्रोधसे बेसुध होकर अपने पिताके घर चली गयी॥ ३४॥
श्लोक-३५
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रियामनुगतः कामी वचोभिरुपमन्त्रयन्।
न प्रसादयितुं शेके पादसंवाहनादिभिः॥
मूलम्
प्रियामनुगतः कामी वचोभिरुपमन्त्रयन्।
न प्रसादयितुं शेके पादसंवाहनादिभिः॥
अनुवाद (हिन्दी)
कामी ययातिने मीठी-मीठी बातें, अनुनय-विनय और चरण दबाने आदिके द्वारा देवयानीको मनानेकी चेष्टा की, उसके पीछे-पीछे वहाँतक गये भी; परन्तु मना न सके॥ ३५॥
श्लोक-३६
विश्वास-प्रस्तुतिः
शुक्रस्तमाह कुपितः स्त्रीकामानृतपूरुष।
त्वां जरा विशतां मन्द विरूपकरणी नृणाम्॥
मूलम्
शुक्रस्तमाह कुपितः स्त्रीकामानृतपूरुष।
त्वां जरा विशतां मन्द विरूपकरणी नृणाम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
शुक्राचार्यजीने भी क्रोधमें भरकर ययातिसे कहा—‘तू अत्यन्त स्त्रीलम्पट, मन्दबुद्धि और झूठा है। जा, तेरे शरीरमें वह बुढ़ापा आ जाय, जो मनुष्योंको कुरूप कर देता है’॥ ३६॥
श्लोक-३७
मूलम् (वचनम्)
ययातिरुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अतृप्तोऽस्म्यद्य कामानां ब्रह्मन् दुहितरि स्म ते।
व्यत्यस्यतां यथाकामं वयसा योऽभिधास्यति॥
मूलम्
अतृप्तोऽस्म्यद्य कामानां ब्रह्मन् दुहितरि स्म ते।
व्यत्यस्यतां यथाकामं वयसा योऽभिधास्यति॥
अनुवाद (हिन्दी)
ययातिने कहा—‘ब्रह्मन्! आपकी पुत्रीके साथ विषय-भोग करते-करते अभी मेरी तृप्ति नहीं हुई है। इस शापसे तो आपकी पुत्रीका भी अनिष्ट ही है।’ इसपर शुक्राचार्यजीने कहा—‘अच्छा जाओ; जो प्रसन्नतासे तुम्हें अपनी जवानी दे दे, उससे अपना बुढ़ापा बदल लो’॥ ३७॥
श्लोक-३८
विश्वास-प्रस्तुतिः
इति लब्धव्यवस्थानः पुत्रं ज्येष्ठमवोचत।
यदो तात प्रतीच्छेमां जरां देहि निजं वयः॥
मूलम्
इति लब्धव्यवस्थानः पुत्रं ज्येष्ठमवोचत।
यदो तात प्रतीच्छेमां जरां देहि निजं वयः॥
श्लोक-३९
विश्वास-प्रस्तुतिः
मातामहकृतां वत्स न तृप्तो विषयेष्वहम्।
वयसा भवदीयेन रंस्ये कतिपयाः समाः॥
मूलम्
मातामहकृतां वत्स न तृप्तो विषयेष्वहम्।
वयसा भवदीयेन रंस्ये कतिपयाः समाः॥
अनुवाद (हिन्दी)
शुक्राचार्यजीने जब ऐसी व्यवस्था दे दी, तब अपनी राजधानीमें आकर ययातिने अपने बड़े पुत्र यदुसे कहा—‘बेटा! तुम अपनी जवानी मुझे दे दो और अपने नानाका दिया हुआ यह बुढ़ापा तुम स्वीकार कर लो। क्योंकि मेरे प्यारे पुत्र! मैं अभी विषयोंसे तृप्त नहीं हुआ हूँ। इसलिये तुम्हारी आयु लेकर मैं कुछ वर्षोंतक और आनन्द भोगूँगा’॥ ३८-३९॥
श्लोक-४०
मूलम् (वचनम्)
यदुरुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
नोत्सहे जरसा स्थातुमन्तरा प्राप्तया तव।
अविदित्वा सुखं ग्राम्यं वैतृष्ण्यं नैति पूरुषः॥
मूलम्
नोत्सहे जरसा स्थातुमन्तरा प्राप्तया तव।
अविदित्वा सुखं ग्राम्यं वैतृष्ण्यं नैति पूरुषः॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदुने कहा—‘पिताजी! बिना समयके ही प्राप्त हुआ आपका बुढ़ापा लेकर तो मैं जीना भी नहीं चाहता। क्योंकि कोई भी मनुष्य जबतक विषय-सुखका अनुभव नहीं कर लेता, तबतक उसे उससे वैराग्य नहीं होता’॥ ४०॥
श्लोक-४१
विश्वास-प्रस्तुतिः
तुर्वसुश्चोदितः पित्रा द्रुह्युश्चानुश्च भारत।
प्रत्याचख्युरधर्मज्ञा ह्यनित्ये नित्यबुद्धयः॥
मूलम्
तुर्वसुश्चोदितः पित्रा द्रुह्युश्चानुश्च भारत।
प्रत्याचख्युरधर्मज्ञा ह्यनित्ये नित्यबुद्धयः॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! इसी प्रकार तुर्वसु, द्रुह्यु और अनुने भी पिताकी आज्ञा अस्वीकार कर दी। सच पूछो तो उन पुत्रोंको धर्मका तत्त्व मालूम नहीं था। वे इस अनित्य शरीरको ही नित्य माने बैठे थे॥ ४१॥
श्लोक-४२
विश्वास-प्रस्तुतिः
अपृच्छत् तनयं पूरुं वयसोनं गुणाधिकम्।
न त्वमग्रजवद् वत्स मां प्रत्याख्यातुमर्हसि॥
मूलम्
अपृच्छत् तनयं पूरुं वयसोनं गुणाधिकम्।
न त्वमग्रजवद् वत्स मां प्रत्याख्यातुमर्हसि॥
अनुवाद (हिन्दी)
अब ययातिने अवस्थामें सबसे छोटे किन्तु गुणोंमें बड़े अपने पुत्र पूरुको बुलाकर पूछा और कहा—‘बेटा! अपने बड़े भाइयोंके समान तुम्हें तो मेरी बात नहीं टालनी चाहिये’॥ ४२॥
श्लोक-४३
मूलम् (वचनम्)
पूरुरुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
को नु लोके मनुष्येन्द्र पितुरात्मकृतः पुमान्।
प्रतिकर्तुं क्षमो यस्य प्रसादाद् विन्दते परम्॥
मूलम्
को नु लोके मनुष्येन्द्र पितुरात्मकृतः पुमान्।
प्रतिकर्तुं क्षमो यस्य प्रसादाद् विन्दते परम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
पूरुने कहा—‘पिताजी! पिताकी कृपासे मनुष्यको परमपदकी प्राप्ति हो सकती है। वास्तवमें पुत्रका शरीर पिताका ही दिया हुआ है। ऐसी अवस्थामें ऐसा कौन है, जो इस संसारमें पिताके उपकारोंका बदला चुका सके?॥ ४३॥
श्लोक-४४
विश्वास-प्रस्तुतिः
उत्तमश्चिन्तितं कुर्यात् प्रोक्तकारी तु मध्यमः।
अधमोऽश्रद्धया कुर्यादकर्तोच्चरितं पितुः॥
मूलम्
उत्तमश्चिन्तितं कुर्यात् प्रोक्तकारी तु मध्यमः।
अधमोऽश्रद्धया कुर्यादकर्तोच्चरितं पितुः॥
अनुवाद (हिन्दी)
उत्तम पुत्र तो वह है जो पिताके मनकी बात बिना कहे ही कर दे। कहनेपर श्रद्धाके साथ आज्ञापालन करनेवाले पुत्रको मध्यम कहते हैं। जो आज्ञा प्राप्त होनेपर भी अश्रद्धासे उसका पालन करे, वह अधम पुत्र है। और जो किसी प्रकार भी पिताकी आज्ञाका पालन नहीं करता, उसको तो पुत्र कहना ही भूल है। वह तो पिताका मल-मूत्र ही है॥ ४४॥
श्लोक-४५
विश्वास-प्रस्तुतिः
इति प्रमुदितः पूरुः प्रत्यगृह्णाज्जरां पितुः।
सोऽपि तद्वयसा कामान् यथावज्जुजुषे नृप॥
मूलम्
इति प्रमुदितः पूरुः प्रत्यगृह्णाज्जरां पितुः।
सोऽपि तद्वयसा कामान् यथावज्जुजुषे नृप॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! इस प्रकार कहकर पूरुने बड़े आनन्दसे अपने पिताका बुढ़ापा स्वीकार कर लिया। राजा ययाति भी उसकी जवानी लेकर पूर्ववत् विषयोंका सेवन करने लगे॥ ४५॥
श्लोक-४६
विश्वास-प्रस्तुतिः
सप्तद्वीपपतिः सम्यक् पितृवत् पालयन् प्रजाः।
यथोपजोषं विषयाञ्जुजुषेऽव्याहतेन्द्रियः॥
मूलम्
सप्तद्वीपपतिः सम्यक् पितृवत् पालयन् प्रजाः।
यथोपजोषं विषयाञ्जुजुषेऽव्याहतेन्द्रियः॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे सातों द्वीपोंके एकच्छत्र सम्राट् थे। पिताके समान भलीभाँति प्रजाका पालन करते थे। उनकी इन्द्रियोंमें पूरी शक्ति थी और वे यथावसर यथाप्राप्त विषयोंका यथेच्छ उपभोग करते थे॥ ४६॥
श्लोक-४७
विश्वास-प्रस्तुतिः
देवयान्यप्यनुदिनं मनोवाग्देहवस्तुभिः।
प्रेयसः परमां प्रीतिमुवाह प्रेयसी रहः॥
मूलम्
देवयान्यप्यनुदिनं मनोवाग्देहवस्तुभिः।
प्रेयसः परमां प्रीतिमुवाह प्रेयसी रहः॥
अनुवाद (हिन्दी)
देवयानी उनकी प्रियतमा पत्नी थी। वह अपने प्रियतम ययातिको अपने मन, वाणी, शरीर और वस्तुओंके द्वारा दिन-दिन और भी प्रसन्न करने लगी; और एकान्तमें सुख देने लगी॥ ४७॥
श्लोक-४८
विश्वास-प्रस्तुतिः
अयजद् यज्ञपुरुषं क्रतुभिर्भूरिदक्षिणैः।
सर्वदेवमयं देवं सर्ववेदमयं हरिम्॥
मूलम्
अयजद् यज्ञपुरुषं क्रतुभिर्भूरिदक्षिणैः।
सर्वदेवमयं देवं सर्ववेदमयं हरिम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजा ययातिने समस्त वेदोंके प्रतिपाद्य सर्वदेवस्वरूप यज्ञपुरुष भगवान् श्रीहरिका बहुत-से बड़ी-बड़ी दक्षिणावाले यज्ञोंसे यजन किया॥ ४८॥
श्लोक-४९
विश्वास-प्रस्तुतिः
यस्मिन्निदं विरचितं व्योम्नीव जलदावलिः।
नानेव भाति नाभाति स्वप्नमायामनोरथः॥
मूलम्
यस्मिन्निदं विरचितं व्योम्नीव जलदावलिः।
नानेव भाति नाभाति स्वप्नमायामनोरथः॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे आकाशमें दल-के-दल बादल दीखते हैं और कभी नहीं भी दीखते, वैसे ही परमात्माके स्वरूपमें यह जगत् स्वप्न, माया और मनोराज्यके समान कल्पित है। यह कभी अनेक नाम और रूपोंके रूपमें प्रतीत होता है और कभी नहीं भी॥ ४९॥
श्लोक-५०
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमेव हृदि विन्यस्य वासुदेवं गुहाशयम्।
नारायणमणीयांसं निराशीरयजत् प्रभुम्॥
मूलम्
तमेव हृदि विन्यस्य वासुदेवं गुहाशयम्।
नारायणमणीयांसं निराशीरयजत् प्रभुम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे परमात्मा सबके हृदयमें विराजमान हैं। उनका स्वरूप सूक्ष्मसे भी सूक्ष्म है। उन्हीं सर्वशक्तिमान् सर्वव्यापी भगवान् श्रीनारायणको अपने हृदयमें स्थापित करके राजा ययातिने निष्काम भावसे उनका यजन किया॥ ५०॥
श्लोक-५१
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं वर्षसहस्राणि मनःषष्ठैर्मनःसुखम्।
विदधानोऽपि नातृप्यत् सार्वभौमः कदिन्द्रियैः॥
मूलम्
एवं वर्षसहस्राणि मनःषष्ठैर्मनःसुखम्।
विदधानोऽपि नातृप्यत् सार्वभौमः कदिन्द्रियैः॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार एक हजार वर्षतक उन्होंने अपनी उच्छृंखल इन्द्रियोंके साथ मनको जोड़कर उसके प्रिय विषयोंको भोगा। परन्तु इतनेपर भी चक्रवर्ती सम्राट् ययातिकी भोगोंसे तृप्ति न हो सकी॥ ५१॥
अनुवाद (समाप्ति)
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां नवमस्कन्धेऽष्टादशोऽध्यायः॥ १८॥