[षोडशोऽध्यायः]
भागसूचना
परशुरामजीके द्वारा क्षत्रियसंहार और विश्वामित्रजीके वंशकी कथा
श्लोक-१
मूलम् (वचनम्)
श्रीशुक उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
पित्रोपशिक्षितो रामस्तथेति कुरुनन्दन।
संवत्सरं तीर्थयात्रां चरित्वाऽऽश्रममाव्रजत्॥
मूलम्
पित्रोपशिक्षितो रामस्तथेति कुरुनन्दन।
संवत्सरं तीर्थयात्रां चरित्वाऽऽश्रममाव्रजत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! अपने पिताकी यह शिक्षा भगवान् परशुरामने ‘जो आज्ञा’ कहकर स्वीकार की। इसके बाद वे एक वर्षतक तीर्थयात्रा करके अपने आश्रमपर लौट आये॥ १॥
श्लोक-२
विश्वास-प्रस्तुतिः
कदाचिद् रेणुका याता गङ्गायां पद्ममालिनम्।
गन्धर्वराजं क्रीडन्तमप्सरोभिरपश्यत॥
मूलम्
कदाचिद् रेणुका याता गङ्गायां पद्ममालिनम्।
गन्धर्वराजं क्रीडन्तमप्सरोभिरपश्यत॥
अनुवाद (हिन्दी)
एक दिनकी बात है, परशुरामजीकी माता रेणुका गंगातटपर गयी हुई थीं। वहाँ उन्होंने देखा कि गन्धर्वराज चित्ररथ कमलोंकी माला पहने अप्सराओंके साथ विहार कर रहा है॥ २॥
श्लोक-३
विश्वास-प्रस्तुतिः
विलोकयन्ती क्रीडन्तमुदकार्थं नदीं गता।
होमवेलां न सस्मार किञ्चिच्चित्ररथस्पृहा॥
मूलम्
विलोकयन्ती क्रीडन्तमुदकार्थं नदीं गता।
होमवेलां न सस्मार किञ्चिच्चित्ररथस्पृहा॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे जल लानेके लिये नदीतटपर गयी थीं, परन्तु वहाँ जलक्रीडा करते हुए गन्धर्वको देखने लगीं और पतिदेवके हवनका समय हो गया है—इस बातको भूल गयीं। उनका मन कुछ-कुछ चित्ररथकी ओर खिंच भी गया था॥ ३॥
श्लोक-४
विश्वास-प्रस्तुतिः
कालात्ययं तं विलोक्य मुनेः शापविशङ्किता।
आगत्य कलशं तस्थौ पुरोधाय कृताञ्जलिः॥
मूलम्
कालात्ययं तं विलोक्य मुनेः शापविशङ्किता।
आगत्य कलशं तस्थौ पुरोधाय कृताञ्जलिः॥
अनुवाद (हिन्दी)
हवनका समय बीत गया, यह जानकर वे महर्षि जमदग्निके शापसे भयभीत हो गयीं और तुरंत वहाँसे आश्रमपर चली आयीं। वहाँ जलका कलश महर्षिके सामने रखकर हाथ जोड़ खड़ी हो गयीं॥ ४॥
श्लोक-५
विश्वास-प्रस्तुतिः
व्यभिचारं मुनिर्ज्ञात्वा पत्न्याः प्रकुपितोऽब्रवीत्।
घ्नतैनां पुत्रकाः पापामित्युक्तास्ते न चक्रिरे॥
मूलम्
व्यभिचारं मुनिर्ज्ञात्वा पत्न्याः प्रकुपितोऽब्रवीत्।
घ्नतैनां पुत्रकाः पापामित्युक्तास्ते न चक्रिरे॥
अनुवाद (हिन्दी)
जमदग्नि मुनिने अपनी पत्नीका मानसिक व्यभिचार जान लिया और क्रोध करके कहा—‘मेरे पुत्रो! इस पापिनीको मार डालो।’ परन्तु उनके किसी भी पुत्रने उनकी वह आज्ञा स्वीकार नहीं की॥ ५॥
श्लोक-६
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामः सञ्चोदितः पित्रा भ्रातॄन् मात्रा सहावधीत्।
प्रभावज्ञो मुनेः सम्यक् समाधेस्तपसश्च सः॥
मूलम्
रामः सञ्चोदितः पित्रा भ्रातॄन् मात्रा सहावधीत्।
प्रभावज्ञो मुनेः सम्यक् समाधेस्तपसश्च सः॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसके बाद पिताकी आज्ञासे परशुरामजीने माताके साथ सब भाइयोंको भी मार डाला। इसका कारण था। वे अपने पिताजीके योग और तपस्याका प्रभाव भलीभाँति जानते थे॥ ६॥
श्लोक-७
विश्वास-प्रस्तुतिः
वरेणच्छन्दयामास प्रीतः सत्यवतीसुतः।
वव्रे हतानां रामोऽपि जीवितं चास्मृतिं वधे॥
मूलम्
वरेणच्छन्दयामास प्रीतः सत्यवतीसुतः।
वव्रे हतानां रामोऽपि जीवितं चास्मृतिं वधे॥
अनुवाद (हिन्दी)
परशुरामजीके इस कामसे सत्यवतीनन्दन महर्षि जमदग्नि बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने कहा—‘बेटा! तुम्हारी जो इच्छा हो, वर माँग लो।’ परशुरामजीने कहा—‘पिताजी! मेरी माता और सब भाई जीवित हो जायँ तथा उन्हें इस बातकी याद न रहे कि मैंने उन्हें मारा था’॥ ७॥
श्लोक-८
विश्वास-प्रस्तुतिः
उत्तस्थुस्ते कुशलिनो निद्रापाय इवाञ्जसा।
पितुर्विद्वांस्तपोवीर्यं रामश्चक्रे सुहृद्वधम्॥
मूलम्
उत्तस्थुस्ते कुशलिनो निद्रापाय इवाञ्जसा।
पितुर्विद्वांस्तपोवीर्यं रामश्चक्रे सुहृद्वधम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
परशुरामजीके इस प्रकार कहते ही जैसे कोई सोकर उठे, सब-के-सब अनायास ही सकुशल उठ बैठे। परशुरामजीने अपने पिताजीका तपोबल जानकर ही तो अपने सुहृदोंका वध किया था॥ ८॥
श्लोक-९
विश्वास-प्रस्तुतिः
येऽर्जुनस्य सुता राजन् स्मरन्तः स्वपितुर्वधम्।
रामवीर्यपराभूता लेभिरे शर्म न क्वचित्॥
मूलम्
येऽर्जुनस्य सुता राजन् स्मरन्तः स्वपितुर्वधम्।
रामवीर्यपराभूता लेभिरे शर्म न क्वचित्॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! सहस्रबाहु अर्जुनके जो लड़के परशुरामजीसे हारकर भाग गये थे, उन्हें अपने पिताके वधकी याद निरन्तर बनी रहती थी। कहीं एक क्षणके लिये भी उन्हें चैन नहीं मिलता था॥ ९॥
श्लोक-१०
विश्वास-प्रस्तुतिः
एकदाऽऽश्रमतो रामे सभ्रातरि वनं गते।
वैरं सिसाधयिषवो लब्धच्छिद्रा उपागमन्॥
मूलम्
एकदाऽऽश्रमतो रामे सभ्रातरि वनं गते।
वैरं सिसाधयिषवो लब्धच्छिद्रा उपागमन्॥
अनुवाद (हिन्दी)
एक दिनकी बात है, परशुरामजी अपने भाइयोंके साथ आश्रमसे बाहर वनकी ओर गये हुए थे। यह अवसर पाकर वैर साधनेके लिये सहस्रबाहुके लड़के वहाँ आ पहुँचे॥ १०॥
श्लोक-११
विश्वास-प्रस्तुतिः
दृष्ट्वाग्न्यगार आसीनमावेशितधियं मुनिम्।
भगवत्युत्तमश्लोके जघ्नुस्ते पापनिश्चयाः॥
मूलम्
दृष्ट्वाग्न्यगार आसीनमावेशितधियं मुनिम्।
भगवत्युत्तमश्लोके जघ्नुस्ते पापनिश्चयाः॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय महर्षि जमदग्नि अग्निशालामें बैठे हुए थे और अपनी समस्त वृत्तियोंसे पवित्रकीर्ति भगवान्के ही चिन्तनमें मग्न हो रहे थे। उन्हें बाहरकी कोई सुध न थी। उसी समय उन पापियोंने जमदग्नि ऋषिको मार डाला। उन्होंने पहलेसे ही ऐसा पापपूर्ण निश्चय कर रखा था॥ ११॥
श्लोक-१२
विश्वास-प्रस्तुतिः
याच्यमानाः कृपणया राममात्रातिदारुणाः।
प्रसह्य शिर उत्कृत्य निन्युस्ते क्षत्रबन्धवः॥
मूलम्
याच्यमानाः कृपणया राममात्रातिदारुणाः।
प्रसह्य शिर उत्कृत्य निन्युस्ते क्षत्रबन्धवः॥
अनुवाद (हिन्दी)
परशुरामकी माता रेणुका बड़ी दीनतासे उनसे प्रार्थना कर रही थीं, परन्तु उन सबोंने उनकी एक न सुनी। वे बलपूर्वक महर्षि जमदग्निका सिर काटकर ले गये। परीक्षित्! वास्तवमें वे नीच क्षत्रिय अत्यन्त क्रूर थे॥ १२॥
श्लोक-१३
विश्वास-प्रस्तुतिः
रेणुका दुःखशोकार्ता निघ्नन्त्यात्मानमात्मना।
राम रामेहि तातेति विचुक्रोशोच्चकैः सती॥
मूलम्
रेणुका दुःखशोकार्ता निघ्नन्त्यात्मानमात्मना।
राम रामेहि तातेति विचुक्रोशोच्चकैः सती॥
अनुवाद (हिन्दी)
सती रेणुका दुःख और शोकसे आतुर हो गयीं। वे अपने हाथों अपनी छाती और सिर पीट-पीटकर जोर-जोरसे रोने लगीं—‘परशुराम! बेटा परशुराम! शीघ्र आओ’॥ १३॥
श्लोक-१४
विश्वास-प्रस्तुतिः
तदुपश्रुत्य दूरस्थो हा रामेत्यार्तवत्स्वनम्।
त्वरयाऽऽश्रममासाद्य ददृशे पितरं हतम्॥
मूलम्
तदुपश्रुत्य दूरस्थो हा रामेत्यार्तवत्स्वनम्।
त्वरयाऽऽश्रममासाद्य ददृशे पितरं हतम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
परशुरामजीने बहुत दूरसे माताका ‘हा राम!’ यह करुण-क्रन्दन सुन लिया। वे बड़ी शीघ्रतासे आश्रमपर आये और वहाँ आकर देखा कि पिताजी मार डाले गये हैं॥ १४॥
श्लोक-१५
विश्वास-प्रस्तुतिः
तद् दुःखरोषामर्षार्तिशोकवेगविमोहितः।
हा तात साधो धर्मिष्ठ त्यक्त्वास्मान् स्वर्गतो भवान्॥
मूलम्
तद् दुःखरोषामर्षार्तिशोकवेगविमोहितः।
हा तात साधो धर्मिष्ठ त्यक्त्वास्मान् स्वर्गतो भवान्॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! उस समय परशुरामजीको बड़ा दुःख हुआ। साथ ही क्रोध, असहिष्णुता, मानसिक पीड़ा और शोकके वेगसे वे अत्यन्त मोहित हो गये। ‘हाय पिताजी! आप तो बड़े महात्मा थे। पिताजी! आप तो धर्मके सच्चे पुजारी थे। आप हमलोगोंको छोड़कर स्वर्ग चले गये’॥ १५॥
श्लोक-१६
विश्वास-प्रस्तुतिः
विलप्यैवं पितुर्देहं निधाय भ्रातृषु स्वयम्।
प्रगृह्य परशुं रामः क्षत्रान्ताय मनो दधे॥
मूलम्
विलप्यैवं पितुर्देहं निधाय भ्रातृषु स्वयम्।
प्रगृह्य परशुं रामः क्षत्रान्ताय मनो दधे॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार विलापकर उन्होंने पिताका शरीर तो भाइयोंको सौंप दिया और स्वयं हाथमें फरसा उठाकर क्षत्रियोंका संहार कर डालनेका निश्चय किया॥ १६॥
श्लोक-१७
विश्वास-प्रस्तुतिः
गत्वा माहिष्मतीं रामो ब्रह्मघ्नविहतश्रियम्।
तेषां स शीर्षभी राजन् मध्ये चक्रे महागिरिम्॥
मूलम्
गत्वा माहिष्मतीं रामो ब्रह्मघ्नविहतश्रियम्।
तेषां स शीर्षभी राजन् मध्ये चक्रे महागिरिम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! परशुरामजीने माहिष्मती नगरीमें जाकर सहस्रबाहु अर्जुनके पुत्रोंके सिरोंसे नगरके बीचो-बीच एक बड़ा भारी पर्वत खड़ा कर दिया। उस नगरकी शोभा तो उन ब्रह्मघाती नीच क्षत्रियोंके कारण ही नष्ट हो चुकी थी॥ १७॥
श्लोक-१८
विश्वास-प्रस्तुतिः
तद्रक्तेन नदीं घोरामब्रह्मण्यभयावहाम्।
हेतुं कृत्वा पितृवधं क्षत्रेऽमङ्गलकारिणि॥
मूलम्
तद्रक्तेन नदीं घोरामब्रह्मण्यभयावहाम्।
हेतुं कृत्वा पितृवधं क्षत्रेऽमङ्गलकारिणि॥
श्लोक-१९
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्रिःसप्तकृत्वः पृथिवीं कृत्वा निःक्षत्रियां प्रभुः।
समन्तपञ्चके चक्रे शोणितोदान् ह्रदान् नृप॥
मूलम्
त्रिःसप्तकृत्वः पृथिवीं कृत्वा निःक्षत्रियां प्रभुः।
समन्तपञ्चके चक्रे शोणितोदान् ह्रदान् नृप॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनके रक्तसे एक बड़ी भयंकर नदी बह निकली, जिसे देखकर ब्राह्मणद्रोहियोंका हृदय भयसे काँप उठता था। भगवान्ने देखा कि वर्तमान क्षत्रिय अत्याचारी हो गये हैं। इसलिये राजन्! उन्होंने अपने पिताके वधको निमित्त बनाकर इक्कीस बार पृथ्वीको क्षत्रियहीन कर दिया और कुरुक्षेत्रके समन्तपंचकमें ऐसे-ऐसे पाँच तालाब बना दिये, जो रक्तके जलसे भरे हुए थे॥ १८-१९॥
श्लोक-२०
विश्वास-प्रस्तुतिः
पितुः कायेन सन्धाय शिर आदाय बर्हिषि।
सर्वदेवमयं देवमात्मानमयजन्मखैः॥
मूलम्
पितुः कायेन सन्धाय शिर आदाय बर्हिषि।
सर्वदेवमयं देवमात्मानमयजन्मखैः॥
अनुवाद (हिन्दी)
परशुरामजीने अपने पिताजीका सिर लाकर उनके धड़से जोड़ दिया और यज्ञोंद्वारा सर्वदेवमय आत्मस्वरूप भगवान्का यजन किया॥ २०॥
श्लोक-२१
विश्वास-प्रस्तुतिः
ददौ प्राचीं दिशं होत्रे ब्रह्मणे दक्षिणां दिशम्।
अध्वर्यवे प्रतीचीं वै उद्गात्रे उत्तरां दिशम्॥
मूलम्
ददौ प्राचीं दिशं होत्रे ब्रह्मणे दक्षिणां दिशम्।
अध्वर्यवे प्रतीचीं वै उद्गात्रे उत्तरां दिशम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
यज्ञोंमें उन्होंने पूर्व दिशा होताको, दक्षिण दिशा ब्रह्माको, पश्चिम दिशा अध्वर्युको और उत्तर दिशा सामगान करनेवाले उद्गाताको दे दी॥ २१॥
श्लोक-२२
विश्वास-प्रस्तुतिः
अन्येभ्योऽवान्तरदिशः कश्यपाय च मध्यतः।
आर्यावर्तमुपद्रष्ट्रे सदस्येभ्यस्ततः परम्॥
मूलम्
अन्येभ्योऽवान्तरदिशः कश्यपाय च मध्यतः।
आर्यावर्तमुपद्रष्ट्रे सदस्येभ्यस्ततः परम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसी प्रकार अग्निकोण आदि विदिशाएँ ऋत्विजोंको दीं, कश्यपजीको मध्यभूमि दी, उपद्रष्टाको आर्यावर्त दिया तथा दूसरे सदस्योंको अन्यान्य दिशाएँ प्रदान कर दीं॥ २२॥
श्लोक-२३
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततश्चावभृथस्नानविधूताशेषकिल्बिषः।
सरस्वत्यां ब्रह्मनद्यां रेजे व्यभ्र इवांशुमान्॥
मूलम्
ततश्चावभृथस्नानविधूताशेषकिल्बिषः।
सरस्वत्यां ब्रह्मनद्यां रेजे व्यभ्र इवांशुमान्॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसके बाद यज्ञान्त-स्नान करके वे समस्त पापोंसे मुक्त हो गये और ब्रह्मनदी सरस्वतीके तटपर मेघरहित सूर्यके समान शोभायमान हुए॥ २३॥
श्लोक-२४
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वदेहं जमदग्निस्तु लब्ध्वा संज्ञानलक्षणम्।
ऋषीणां मण्डले सोऽभूत् सप्तमो रामपूजितः॥
मूलम्
स्वदेहं जमदग्निस्तु लब्ध्वा संज्ञानलक्षणम्।
ऋषीणां मण्डले सोऽभूत् सप्तमो रामपूजितः॥
अनुवाद (हिन्दी)
महर्षि जमदग्निको स्मृतिरूप संकल्पमय शरीरकी प्राप्ति हो गयी। परशुरामजीसे सम्मानित होकर वे सप्तर्षियोंके मण्डलमें सातवें ऋषि हो गये॥ २४॥
श्लोक-२५
विश्वास-प्रस्तुतिः
जामदग्न्योऽपि भगवान् रामः कमललोचनः।
आगामिन्यन्तरे राजन् वर्तयिष्यति वै बृहत्॥
मूलम्
जामदग्न्योऽपि भगवान् रामः कमललोचनः।
आगामिन्यन्तरे राजन् वर्तयिष्यति वै बृहत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! कमललोचन जमदग्निनन्दन भगवान् परशुराम आगामी मन्वन्तरमें सप्तर्षियोंके मण्डलमें रहकर वेदोंका विस्तार करेंगे॥ २५॥
श्लोक-२६
विश्वास-प्रस्तुतिः
आस्तेऽद्यापि महेन्द्राद्रौ न्यस्तदण्डः प्रशान्तधीः।
उपगीयमानचरितः सिद्धगन्धर्वचारणैः॥
मूलम्
आस्तेऽद्यापि महेन्द्राद्रौ न्यस्तदण्डः प्रशान्तधीः।
उपगीयमानचरितः सिद्धगन्धर्वचारणैः॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे आज भी किसीको किसी प्रकारका दण्ड न देते हुए शान्त चित्तसे महेन्द्र पर्वतपर निवास करते हैं। वहाँ सिद्ध, गन्धर्व और चारण उनके चरित्रका मधुर स्वरसे गान करते रहते हैं॥ २६॥
श्लोक-२७
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं भृगुषु विश्वात्मा भगवान् हरिरीश्वरः।
अवतीर्य परं भारं भुवोऽहन् बहुशो नृपान्॥
मूलम्
एवं भृगुषु विश्वात्मा भगवान् हरिरीश्वरः।
अवतीर्य परं भारं भुवोऽहन् बहुशो नृपान्॥
अनुवाद (हिन्दी)
सर्वशक्तिमान् विश्वात्मा भगवान् श्रीहरिने इस प्रकार भृगुवंशियोंमें अवतार ग्रहण करके पृथ्वीके भारभूत राजाओंका बहुत बार वध किया॥ २७॥
श्लोक-२८
विश्वास-प्रस्तुतिः
गाधेरभून्महातेजाः समिद्ध इव पावकः।
तपसा क्षात्रमुत्सृज्य यो लेभे ब्रह्मवर्चसम्॥
मूलम्
गाधेरभून्महातेजाः समिद्ध इव पावकः।
तपसा क्षात्रमुत्सृज्य यो लेभे ब्रह्मवर्चसम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज गाधिके पुत्र हुए प्रज्वलित अग्निके समान परम तेजस्वी विश्वामित्रजी। इन्होंने अपने तपोबलसे क्षत्रियत्वका त्याग करके ब्रह्मतेज प्राप्त कर लिया॥ २८॥
श्लोक-२९
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वामित्रस्य चैवासन् पुत्रा एकशतं नृप।
मध्यमस्तु मधुच्छन्दा मधुच्छन्दस एव ते॥
मूलम्
विश्वामित्रस्य चैवासन् पुत्रा एकशतं नृप।
मध्यमस्तु मधुच्छन्दा मधुच्छन्दस एव ते॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! विश्वामित्रजीके सौ पुत्र थे। उनमें बिचले पुत्रका नाम था मधुच्छन्दा। इसलिये सभी पुत्र ‘मधुच्छन्दा’ के ही नामसे विख्यात हुए॥ २९॥
श्लोक-३०
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुत्रं कृत्वा शुनःशेपं देवरातं च भार्गवम्।
आजीगर्तं सुतानाह ज्येष्ठ एष प्रकल्प्यताम्॥
मूलम्
पुत्रं कृत्वा शुनःशेपं देवरातं च भार्गवम्।
आजीगर्तं सुतानाह ज्येष्ठ एष प्रकल्प्यताम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
विश्वामित्रजीने भृगुवंशी अजीगर्तके पुत्र अपने भानजे शुनःशेपको, जिसका एक नाम देवरात भी था, पुत्ररूपमें स्वीकार कर लिया और अपने पुत्रोंसे कहा कि ‘तुमलोग इसे अपना बड़ा भाई मानो’॥ ३०॥
श्लोक-३१
विश्वास-प्रस्तुतिः
यो वै हरिश्चन्द्रमखे विक्रीतः पुरुषः पशुः।
स्तुत्वा देवान् प्रजेशादीन् मुमुचे पाशबन्धनात्॥
मूलम्
यो वै हरिश्चन्द्रमखे विक्रीतः पुरुषः पशुः।
स्तुत्वा देवान् प्रजेशादीन् मुमुचे पाशबन्धनात्॥
श्लोक-३२
विश्वास-प्रस्तुतिः
यो रातो देवयजने देवैर्गाधिषु तापसः।
देवरात इति ख्यातः शुनःशेपः स भार्गवः॥
मूलम्
यो रातो देवयजने देवैर्गाधिषु तापसः।
देवरात इति ख्यातः शुनःशेपः स भार्गवः॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह वही प्रसिद्ध भृगुवंशी शुनःशेप था, जो हरिश्चन्द्रके यज्ञमें यज्ञपशुके रूपमें मोल लेकर लाया गया था। विश्वामित्रजीने प्रजापति वरुण आदि देवताओंकी स्तुति करके उसे पाशबन्धनसे छुड़ा लिया था। देवताओंके यज्ञमें यही शुनःशेप देवताओंद्वारा विश्वामित्रजीको दिया गया था; अतः ‘देवैः रातः’ इस व्युत्पत्तिके अनुसार गाधिवंशमें यह तपस्वी देवरातके नामसे विख्यात हुआ॥ ३१-३२॥
श्लोक-३३
विश्वास-प्रस्तुतिः
ये मधुच्छन्दसो ज्येष्ठाः कुशलं मेनिरे न तत्।
अशपत् तान्मुनिः क्रुद्धो म्लेच्छा भवत दुर्जनाः॥
मूलम्
ये मधुच्छन्दसो ज्येष्ठाः कुशलं मेनिरे न तत्।
अशपत् तान्मुनिः क्रुद्धो म्लेच्छा भवत दुर्जनाः॥
अनुवाद (हिन्दी)
विश्वामित्रजीके पुत्रोंमें जो बड़े थे, उन्हें शुनःशेपको बड़ा भाई माननेकी बात अच्छी न लगी। इसपर विश्वामित्रजीने क्रोधित होकर उन्हें शाप दे दिया कि ‘दुष्टो! तुम सब म्लेच्छ हो जाओ’॥ ३३॥
श्लोक-३४
विश्वास-प्रस्तुतिः
स होवाच मधुच्छन्दाः सार्धं पञ्चाशता ततः।
यन्नो भवान् संजानीते तस्मिंस्तिष्ठामहे वयम्॥
मूलम्
स होवाच मधुच्छन्दाः सार्धं पञ्चाशता ततः।
यन्नो भवान् संजानीते तस्मिंस्तिष्ठामहे वयम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार जब उनचास भाई म्लेच्छ हो गये तब विश्वामित्रजीके बिचले पुत्र मधुच्छन्दाने अपनेसे छोटे पचासों भाइयोंके साथ कहा—‘पिताजी! आप हमलोगोंको जो आज्ञा करते हैं, हम उसका पालन करनेके लिये तैयार हैं’॥ ३४॥
श्लोक-३५
विश्वास-प्रस्तुतिः
ज्येष्ठं मन्त्रदृशं चक्रुस्त्वामन्वञ्चो वयं स्म हि।
विश्वामित्रः सुतानाह वीरवन्तो भविष्यथ।
ये मानं मेऽनुगृह्णन्तो वीरवन्तमकर्त माम्॥
मूलम्
ज्येष्ठं मन्त्रदृशं चक्रुस्त्वामन्वञ्चो वयं स्म हि।
विश्वामित्रः सुतानाह वीरवन्तो भविष्यथ।
ये मानं मेऽनुगृह्णन्तो वीरवन्तमकर्त माम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह कहकर मधुच्छन्दाने मन्त्रद्रष्टा शुनःशेपको बड़ा भाई स्वीकार कर लिया और कहा कि ‘हम सब तुम्हारे अनुयायी—छोटे भाई हैं।’ तब विश्वामित्रजीने अपने इन आज्ञाकारी पुत्रोंसे कहा—‘तुम लोगोंने मेरी बात मानकर मेरे सम्मानकी रक्षा की है, इसलिये तुमलोगों-जैसे सुपुत्र प्राप्त करके मैं धन्य हुआ। मैं तुम्हें आशीर्वाद देता हूँ कि तुम्हें भी सुपुत्र प्राप्त होंगे॥ ३५॥
श्लोक-३६
विश्वास-प्रस्तुतिः
एष वः कुशिका वीरो देवरातस्तमन्वित।
अन्ये चाष्टकहारीतजयक्रतुमदादयः॥
मूलम्
एष वः कुशिका वीरो देवरातस्तमन्वित।
अन्ये चाष्टकहारीतजयक्रतुमदादयः॥
अनुवाद (हिन्दी)
मेरे प्यारे पुत्रो! यह देवरात शुनःशेप भी तुम्हारे ही गोत्रका है। तुमलोग इसकी आज्ञामें रहना।’ परीक्षित्! विश्वामित्रजीके अष्टक, हारीत, जय और क्रतुमान् आदि और भी पुत्र थे॥ ३६॥
श्लोक-३७
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं कौशिकगोत्रं तु विश्वामित्रैः पृथग्विधम्।
प्रवरान्तरमापन्नं तद्धि चैवं प्रकल्पितम्॥
मूलम्
एवं कौशिकगोत्रं तु विश्वामित्रैः पृथग्विधम्।
प्रवरान्तरमापन्नं तद्धि चैवं प्रकल्पितम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार विश्वामित्रजीकी सन्तानोंसे कौशिकगोत्रमें कई भेद हो गये और देवरातको बड़ा भाई माननेके कारण उसका प्रवर ही दूसरा हो गया॥ ३७॥
अनुवाद (समाप्ति)
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां नवमस्कन्धे षोडशोऽध्यायः॥ १६॥