१५

[पञ्चदशोऽध्यायः]

भागसूचना

ऋचीक, जमदग्नि और परशुरामजीका चरित्र

श्लोक-१

मूलम् (वचनम्)

श्रीशुक उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऐलस्य चोर्वशीगर्भात् षडासन्नात्मजा नृप।
आयुः श्रुतायुः सत्यायू रयोऽथ विजयो जयः॥

मूलम्

ऐलस्य चोर्वशीगर्भात् षडासन्नात्मजा नृप।
आयुः श्रुतायुः सत्यायू रयोऽथ विजयो जयः॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! उर्वशीके गर्भसे पुरूरवाके छः पुत्र हुए—आयु, श्रुतायु, सत्यायु, रय, विजय और जय॥ १॥

श्लोक-२

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रुतायोर्वसुमान् पुत्रः सत्यायोश्च श्रुतञ्जयः।
रयस्य सुत एकश्च जयस्य तनयोऽमितः॥

मूलम्

श्रुतायोर्वसुमान् पुत्रः सत्यायोश्च श्रुतञ्जयः।
रयस्य सुत एकश्च जयस्य तनयोऽमितः॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रुतायुका पुत्र था वसुमान् , सत्यायुका श्रुतंजय, रयका एक और जयका अमित॥ २॥

श्लोक-३

विश्वास-प्रस्तुतिः

भीमस्तु विजयस्याथ काञ्चनो होत्रकस्ततः।
तस्य जह्नुः सुतो गङ्गां गण्डूषीकृत्य योऽपिबत्।
जह्नोस्तु पूरुस्तत्पुत्रो बलाकश्चात्मजोऽजकः॥

मूलम्

भीमस्तु विजयस्याथ काञ्चनो होत्रकस्ततः।
तस्य जह्नुः सुतो गङ्गां गण्डूषीकृत्य योऽपिबत्।
जह्नोस्तु पूरुस्तत्पुत्रो बलाकश्चात्मजोऽजकः॥

अनुवाद (हिन्दी)

विजयका भीम, भीमका कांचन, कांचनका होत्र और होत्रका पुत्र था जह्नु। ये जह्नु वही थे, जो गंगाजीको अपनी अंजलिमें लेकर पी गये थे। जह्नुका पुत्र था पूरु, पूरुका बलाक और बलाकका अजक॥ ३॥

श्लोक-४

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः कुशः कुशस्यापि कुशाम्बुस्तनयो वसुः।
कुशनाभश्च चत्वारो गाधिरासीत् कुशाम्बुजः॥

मूलम्

ततः कुशः कुशस्यापि कुशाम्बुस्तनयो वसुः।
कुशनाभश्च चत्वारो गाधिरासीत् कुशाम्बुजः॥

अनुवाद (हिन्दी)

अजकका कुश था। कुशके चार पुत्र थे—कुशाम्बु, तनय, वसु और कुशनाभ। इनमेंसे कुशाम्बुके पुत्र गाधि हुए॥ ४॥

श्लोक-५

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्य सत्यवतीं कन्यामृचीकोऽयाचत द्विजः।
वरं विसदृशं मत्वा गाधिर्भार्गवमब्रवीत्॥

मूलम्

तस्य सत्यवतीं कन्यामृचीकोऽयाचत द्विजः।
वरं विसदृशं मत्वा गाधिर्भार्गवमब्रवीत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! गाधिकी कन्याका नाम था सत्यवती। ऋचीक ऋषिने गाधिसे उनकी कन्या माँगी। गाधिने यह समझकर कि ये कन्याके योग्य वर नहीं है, ऋचीकसे कहा—॥ ५॥

श्लोक-६

विश्वास-प्रस्तुतिः

एकतः श्यामकर्णानां हयानां चन्द्रवर्चसाम्।
सहस्रं दीयतां शुल्कं कन्यायाः कुशिका वयम्॥

मूलम्

एकतः श्यामकर्णानां हयानां चन्द्रवर्चसाम्।
सहस्रं दीयतां शुल्कं कन्यायाः कुशिका वयम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मुनिवर! हमलोग कुशिकवंशके हैं। हमारी कन्या मिलनी कठिन है। इसलिये आप एक हजार ऐसे घोड़े लाकर मुझे शुल्करूपमें दीजिये, जिनका सारा शरीर तो श्वेत हो, परन्तु एक-एक कान श्याम वर्णका हो’॥ ६॥

श्लोक-७

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्युक्तस्तन्मतं ज्ञात्वा गतः स वरुणान्तिकम्।
आनीय दत्त्वा तानश्वानुपयेमे वराननाम्॥

मूलम्

इत्युक्तस्तन्मतं ज्ञात्वा गतः स वरुणान्तिकम्।
आनीय दत्त्वा तानश्वानुपयेमे वराननाम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब गाधिने यह बात कही, तब ऋचीक मुनि उनका आशय समझ गये और वरुणके पास जाकर वैसे ही घोड़े ले आये तथा उन्हें देकर सुन्दरी सत्यवतीसे विवाह कर लिया॥ ७॥

श्लोक-८

विश्वास-प्रस्तुतिः

स ऋषिः प्रार्थितः पत्न्या श्वश्र्वा चापत्यकाम्यया।
श्रपयित्वोभयैर्मन्त्रैश्चरुं स्नातुं गतो मुनिः॥

मूलम्

स ऋषिः प्रार्थितः पत्न्या श्वश्र्वा चापत्यकाम्यया।
श्रपयित्वोभयैर्मन्त्रैश्चरुं स्नातुं गतो मुनिः॥

अनुवाद (हिन्दी)

एक बार महर्षि ऋचीकसे उनकी पत्नी और सास दोनोंने ही पुत्र प्राप्तिके लिये प्रार्थना की। महर्षि ऋचीकने उनकी प्रार्थना स्वीकार करके दोनोंके लिये अलग-अलग मन्त्रोंसे चरु पकाया और स्नान करनेके लिये चले गये॥ ८॥

श्लोक-९

विश्वास-प्रस्तुतिः

तावत् सत्यवती मात्रा स्वचरुं याचिता सती।
श्रेष्ठं मत्वा तयायच्छन्मात्रे मातुरदत् स्वयम्॥

मूलम्

तावत् सत्यवती मात्रा स्वचरुं याचिता सती।
श्रेष्ठं मत्वा तयायच्छन्मात्रे मातुरदत् स्वयम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

सत्यवतीकी माँने यह समझकर कि ऋषिने अपनी पत्नीके लिये श्रेष्ठ चरु पकाया होगा, उससे वह चरु माँग लिया। इसपर सत्यवतीने अपना चरु तो माँको दे दिया और माँका चरु वह स्वयं खा गयी॥ ९॥

श्लोक-१०

विश्वास-प्रस्तुतिः

तद् विज्ञाय मुनिः प्राह पत्नीं कष्टमकारषीः।
घोरो दण्डधरः पुत्रो भ्राता ते ब्रह्मवित्तमः॥

मूलम्

तद् विज्ञाय मुनिः प्राह पत्नीं कष्टमकारषीः।
घोरो दण्डधरः पुत्रो भ्राता ते ब्रह्मवित्तमः॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब ऋचीक मुनिको इस बातका पता चला, तब उन्होंने अपनी पत्नी सत्यवतीसे कहा कि ‘तुमने बड़ा अनर्थ कर डाला। अब तुम्हारा पुत्र तो लोगोंको दण्ड देनेवाला घोर प्रकृतिका होगा और तुम्हारा भाई होगा एक श्रेष्ठ ब्रह्मवेत्ता’॥ १०॥

श्लोक-११

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रसादितः सत्यवत्या मैवं भूदिति भार्गवः।
अथ तर्हि भवेत् पौत्रो जमदग्निस्ततोऽभवत्॥

मूलम्

प्रसादितः सत्यवत्या मैवं भूदिति भार्गवः।
अथ तर्हि भवेत् पौत्रो जमदग्निस्ततोऽभवत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

सत्यवतीने ऋचीक मुनिको प्रसन्न किया और प्रार्थना की कि ‘स्वामी! ऐसा नहीं होना चाहिये।’ तब उन्होंने कहा—‘अच्छी बात है। पुत्रके बदले तुम्हारा पौत्र वैसा (घोर प्रकृतिका) होगा।’ समयपर सत्यवतीके गर्भसे जमदग्निका जन्म हुआ॥ ११॥

श्लोक-१२

विश्वास-प्रस्तुतिः

सा चाभूत् सुमहापुण्या कौशिकी लोकपावनी।
रेणोः सुतां रेणुकां वै जमदग्निरुवाह याम्॥

मूलम्

सा चाभूत् सुमहापुण्या कौशिकी लोकपावनी।
रेणोः सुतां रेणुकां वै जमदग्निरुवाह याम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

सत्यवती समस्त लोकोंको पवित्र करनेवाली परम पुण्यमयी ‘कौशिकी’ नदी बन गयी। रेणु ऋषिकी कन्या थी रेणुका। जमदग्निने उसका पाणिग्रहण किया॥ १२॥

श्लोक-१३

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्यां वै भार्गवऋषेः सुता वसुमदादयः।
यवीयाञ्जज्ञ एतेषां राम इत्यभिविश्रुतः॥

मूलम्

तस्यां वै भार्गवऋषेः सुता वसुमदादयः।
यवीयाञ्जज्ञ एतेषां राम इत्यभिविश्रुतः॥

अनुवाद (हिन्दी)

रेणुकाके गर्भसे जमदग्नि ऋषिके वसुमान् आदि कई पुत्र हुए। उनमें सबसे छोटे परशुरामजी थे। उनका यश सारे संसारमें प्रसिद्ध है॥ १३॥

श्लोक-१४

विश्वास-प्रस्तुतिः

यमाहुर्वासुदेवांशं हैहयानां कुलान्तकम्।
त्रिःसप्तकृत्वो य इमां चक्रे निःक्षत्रियां महीम्॥

मूलम्

यमाहुर्वासुदेवांशं हैहयानां कुलान्तकम्।
त्रिःसप्तकृत्वो य इमां चक्रे निःक्षत्रियां महीम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

कहते हैं कि हैहयवंशका अन्त करनेके लिये स्वयं भगवान‍्ने ही परशुरामके रूपमें अंशावतार ग्रहण किया था। उन्होंने इस पृथ्वीको इक्‍कीस बार क्षत्रियहीन कर दिया॥ १४॥

श्लोक-१५

विश्वास-प्रस्तुतिः

दुष्टं क्षत्रं भुवो भारमब्रह्मण्यमनीनशत्।
रजस्तमोवृतमहन् फल्गुन्यपि कृतेंऽहसि॥

मूलम्

दुष्टं क्षत्रं भुवो भारमब्रह्मण्यमनीनशत्।
रजस्तमोवृतमहन् फल्गुन्यपि कृतेंऽहसि॥

अनुवाद (हिन्दी)

यद्यपि क्षत्रियोंने उनका थोड़ा-सा ही अपराध किया था—फिर भी वे लोग बड़े दुष्ट, ब्राह्मणोंके अभक्त, रजोगुणी और विशेष करके तमोगुणी हो रहे थे। यही कारण था कि वे पृथ्वीके भार हो गये थे और इसीके फलस्वरूप भगवान् परशुरामने उनका नाश करके पृथ्वीका भार उतार दिया॥ १५॥

श्लोक-१६

मूलम् (वचनम्)

राजोवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

किं तदंहो भगवतो राजन्यैरजितात्मभिः।
कृतं येन कुलं नष्टं क्षत्रियाणामभीक्ष्णशः॥

मूलम्

किं तदंहो भगवतो राजन्यैरजितात्मभिः।
कृतं येन कुलं नष्टं क्षत्रियाणामभीक्ष्णशः॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजा परीक्षित् ने पूछा—भगवन्! अवश्य ही उस समयके क्षत्रिय विषयलोलुप हो गये थे; परन्तु उन्होंने परशुरामजीका ऐसा कौन-सा अपराध कर दिया, जिसके कारण उन्होंने बार-बार क्षत्रियोंके वंशका संहार किया?॥ १६॥

श्लोक-१७

मूलम् (वचनम्)

श्रीशुक उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

हैहयानामधिपतिरर्जुनः क्षत्रियर्षभः।
दत्तं नारायणस्यांशमाराध्य परिकर्मभिः॥

मूलम्

हैहयानामधिपतिरर्जुनः क्षत्रियर्षभः।
दत्तं नारायणस्यांशमाराध्य परिकर्मभिः॥

श्लोक-१८

विश्वास-प्रस्तुतिः

बाहून् दशशतं लेभे दुर्धर्षत्वमरातिषु।
अव्याहतेन्द्रियौजःश्रीतेजोवीर्ययशोबलम्॥

मूलम्

बाहून् दशशतं लेभे दुर्धर्षत्वमरातिषु।
अव्याहतेन्द्रियौजःश्रीतेजोवीर्ययशोबलम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीशुकदेवजी कहने लगे—परीक्षित्! उन दिनों हैहयवंशका अधिपति था अर्जुन। वह एक श्रेष्ठ क्षत्रिय था। उसने अनेकों प्रकारकी सेवा-शुश्रूषा करके भगवान् नारायणके अंशावतार दत्तात्रेयजीको प्रसन्न कर लिया और उनसे एक हजार भुजाएँ तथा कोई भी शत्रु युद्धमें पराजित न कर सके—यह वरदान प्राप्त कर लिया। साथ ही इन्द्रियोंका अबाध बल, अतुल सम्पत्ति, तेजस्विता, वीरता, कीर्ति और शारीरिक बल भी उसने उनकी कृपासे प्राप्त कर लिये थे॥ १७-१८॥

श्लोक-१९

विश्वास-प्रस्तुतिः

योगेश्वरत्वमैश्वर्यं गुणा यत्राणिमादयः।
चचाराव्याहतगतिर्लोकेषु पवनो यथा॥

मूलम्

योगेश्वरत्वमैश्वर्यं गुणा यत्राणिमादयः।
चचाराव्याहतगतिर्लोकेषु पवनो यथा॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह योगेश्वर हो गया था। उसमें ऐसा ऐश्वर्य था कि वह सूक्ष्म-से-सूक्ष्म, स्थूल-से-स्थूल रूप धारण कर लेता। सभी सिद्धियाँ उसे प्राप्त थीं। वह संसारमें वायुकी तरह सब जगह बेरोक-टोक विचरा करता॥ १९॥

श्लोक-२०

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्त्रीरत्नैरावृतः क्रीडन् रेवाम्भसि मदोत्कटः।
वैजयन्तीं स्रजं बिभ्रद् रुरोध सरितं भुजैः॥

मूलम्

स्त्रीरत्नैरावृतः क्रीडन् रेवाम्भसि मदोत्कटः।
वैजयन्तीं स्रजं बिभ्रद् रुरोध सरितं भुजैः॥

अनुवाद (हिन्दी)

एक बार गलेमें वैजयन्ती माला पहने सहस्रबाहु अर्जुन बहुत-सी सुन्दरी स्त्रियोंके साथ नर्मदा नदीमें जल-विहार कर रहा था। उस समय मदोन्मत्त सहस्रबाहुने अपनी बाँहोंसे नदीका प्रवाह रोक दिया॥ २०॥

श्लोक-२१

विश्वास-प्रस्तुतिः

विप्लावितं स्वशिबिरं प्रतिस्रोतः सरिज्जलैः।
नामृष्यत् तस्य तद् वीर्यं वीरमानी दशाननः॥

मूलम्

विप्लावितं स्वशिबिरं प्रतिस्रोतः सरिज्जलैः।
नामृष्यत् तस्य तद् वीर्यं वीरमानी दशाननः॥

अनुवाद (हिन्दी)

दशमुख रावणका शिविर भी वहीं कहीं पासमें ही था। नदीकी धारा उलटी बहने लगी, जिससे उसका शिविर डूबने लगा। रावण अपनेको बहुत बड़ा वीर तो मानता ही था, इसलिये सहस्रार्जुनका यह पराक्रम उससे सहन नहीं हुआ॥ २१॥

श्लोक-२२

विश्वास-प्रस्तुतिः

गृहीतो लीलया स्त्रीणां समक्षं कृतकिल्बिषः।
माहिष्मत्यां संनिरुद्धो मुक्तो येन कपिर्यथा॥

मूलम्

गृहीतो लीलया स्त्रीणां समक्षं कृतकिल्बिषः।
माहिष्मत्यां संनिरुद्धो मुक्तो येन कपिर्यथा॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब रावण सहस्रबाहु अर्जुनके पास जाकर बुरा-भला कहने लगा, तब उसने स्त्रियोंके सामने ही खेल-खेलमें रावणको पकड़ लिया और अपनी राजधानी माहिष्मतीमें ले जाकर बंदरके समान कैद कर लिया। पीछे पुलस्त्यजीके कहनेसे सहस्रबाहुने रावणको छोड़ दिया॥ २२॥

श्लोक-२३

विश्वास-प्रस्तुतिः

स एकदा तु मृगयां विचरन् विपिने वने।
यदृच्छयाऽऽश्रमपदं जमदग्नेरुपाविशत्॥

मूलम्

स एकदा तु मृगयां विचरन् विपिने वने।
यदृच्छयाऽऽश्रमपदं जमदग्नेरुपाविशत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

एक दिन सहस्रबाहु अर्जुन शिकार खेलनेके लिये बड़े घोर जंगलमें निकल गया था। दैववश वह जमदग्नि मुनिके आश्रमपर जा पहुँचा॥ २३॥

श्लोक-२४

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मै स नरदेवाय मुनिरर्हणमाहरत्।
ससैन्यामात्यवाहाय हविष्मत्या तपोधनः॥

मूलम्

तस्मै स नरदेवाय मुनिरर्हणमाहरत्।
ससैन्यामात्यवाहाय हविष्मत्या तपोधनः॥

अनुवाद (हिन्दी)

परम तपस्वी जमदग्नि मुनिके आश्रममें कामधेनु रहती थी। उसके प्रतापसे उन्होंने सेना, मन्त्री और वाहनोंके साथ हैहयाधिपतिका खूब स्वागत-सत्कार किया॥ २४॥

श्लोक-२५

विश्वास-प्रस्तुतिः

स वीरस्तत्र तद् दृष्ट्वा आत्मैश्वर्यातिशायनम्।
तन्नाद्रियताग्निहोत्र्यां साभिलाषः स हैहयः॥

मूलम्

स वीरस्तत्र तद् दृष्ट्वा आत्मैश्वर्यातिशायनम्।
तन्नाद्रियताग्निहोत्र्यां साभिलाषः स हैहयः॥

अनुवाद (हिन्दी)

वीर हैहयाधिपतिने देखा कि जमदग्नि मुनिका ऐश्वर्य तो मुझसे भी बढ़ा-चढ़ा है। इसलिये उसने उनके स्वागत-सत्कारको कुछ भी आदर न देकर कामधेनुको ही ले लेना चाहा॥ २५॥

श्लोक-२६

विश्वास-प्रस्तुतिः

हविर्धानीमृषेर्दर्पान्नरान् हर्तुमचोदयत्।
ते च माहिष्मतीं निन्युः सवत्सां क्रन्दतीं बलात्॥

मूलम्

हविर्धानीमृषेर्दर्पान्नरान् हर्तुमचोदयत्।
ते च माहिष्मतीं निन्युः सवत्सां क्रन्दतीं बलात्॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसने अभिमानवश जमदग्नि मुनिसे माँगा भी नहीं, अपने सेवकोंको आज्ञा दी कि कामधेनुको छीन ले चलो। उसकी आज्ञासे उसके सेवक बछड़ेके साथ ‘बाँ-बाँ’ डकराती हुई कामधेनुको बलपूर्वक माहिष्मतीपुरी ले गये॥ २६॥

श्लोक-२७

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथ राजनि निर्याते राम आश्रम आगतः।
श्रुत्वा तत् तस्य दौरात्म्यं चुक्रोधाहिरिवाहतः॥

मूलम्

अथ राजनि निर्याते राम आश्रम आगतः।
श्रुत्वा तत् तस्य दौरात्म्यं चुक्रोधाहिरिवाहतः॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब वे सब चले गये, तब परशुरामजी आश्रमपर आये और उसकी दुष्टताका वृत्तान्त सुनकर चोट खाये हुए साँपकी तरह क्रोधसे तिलमिला उठे॥ २७॥

श्लोक-२८

विश्वास-प्रस्तुतिः

घोरमादाय परशुं सतूणं चर्म कार्मुकम्।
अन्वधावत दुर्धर्षो मृगेन्द्र इव यूथपम्॥

मूलम्

घोरमादाय परशुं सतूणं चर्म कार्मुकम्।
अन्वधावत दुर्धर्षो मृगेन्द्र इव यूथपम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे अपना भयंकर फरसा, तरकस, ढाल एवं धनुष लेकर बड़े वेगसे उसके पीछे दौड़े—जैसे कोई किसीसे न दबनेवाला सिंह हाथीपर टूट पड़े॥ २८॥

श्लोक-२९

विश्वास-प्रस्तुतिः

तमापतन्तं भृगुवर्यमोजसा
धनुर्धरं बाणपरश्वधायुधम्।
ऐणेयचर्माम्बरमर्कधामभि-
र्युतं जटाभिर्ददृशे पुरीं विशन्॥

मूलम्

तमापतन्तं भृगुवर्यमोजसा
धनुर्धरं बाणपरश्वधायुधम्।
ऐणेयचर्माम्बरमर्कधामभि-
र्युतं जटाभिर्ददृशे पुरीं विशन्॥

अनुवाद (हिन्दी)

सहस्रबाहु अर्जुन अभी अपने नगरमें प्रवेश कर ही रहा था कि उसने देखा परशुरामजी महाराज बड़े वेगसे उसीकी ओर झपटे आ रहे हैं। उनकी बड़ी विलक्षण झाँकी थी। वे हाथमें धनुष-बाण और फरसा लिये हुए थे, शरीरपर काला मृगचर्म धारण किये हुए थे और उनकी जटाएँ सूर्यकी किरणोंके समान चमक रही थीं॥ २९॥

श्लोक-३०

विश्वास-प्रस्तुतिः

अचोदयद्धस्तिरथाश्वपत्तिभि-
र्गदासिबाणर्ष्टिशतघ्निशक्तिभिः।
अक्षौहिणीः सप्तदशातिभीषणा-
स्ता राम एको भगवानसूदयत्॥

मूलम्

अचोदयद्धस्तिरथाश्वपत्तिभि-
र्गदासिबाणर्ष्टिशतघ्निशक्तिभिः।
अक्षौहिणीः सप्तदशातिभीषणा-
स्ता राम एको भगवानसूदयत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन्हें देखते ही उसने गदा, खड्ग, बाण, ऋष्टि, शतघ्नी और शक्ति आदि आयुधोंसे सुसज्जित एवं हाथी, घोड़े, रथ तथा पदातियोंसे युक्त अत्यन्त भयंकर सत्रह अक्षौहिणी सेना भेजी। भगवान् परशुरामने बात-की-बातमें अकेले ही उस सारी सेनाको नष्ट कर दिया॥ ३०॥

श्लोक-३१

विश्वास-प्रस्तुतिः

यतो यतोऽसौ प्रहरत्परश्वधो
मनोऽनिलौजाः परचक्रसूदनः।
ततस्ततश्छिन्नभुजोरुकन्धरा
निपेतुरुर्व्यां हतसूतवाहनाः॥

मूलम्

यतो यतोऽसौ प्रहरत्परश्वधो
मनोऽनिलौजाः परचक्रसूदनः।
ततस्ततश्छिन्नभुजोरुकन्धरा
निपेतुरुर्व्यां हतसूतवाहनाः॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् परशुरामजीकी गति मन और वायुके समान थी। बस, वे शत्रुकी सेना काटते ही जा रहे थे। जहाँ-जहाँ वे अपने फरसेका प्रहार करते, वहाँ-वहाँ सारथि और वाहनोंके साथ बड़े-बड़े वीरोंकी बाँहें, जाँघें और कंधे कट-कटकर पृथ्वीपर गिरते जाते थे॥ ३१॥

श्लोक-३२

विश्वास-प्रस्तुतिः

दृष्ट्वा स्वसैन्यं रुधिरौघकर्दमे
रणाजिरे रामकुठारसायकैः।
विवृक्णचर्मध्वजचापविग्रहं
निपातितं हैहय आपतद् रुषा॥

मूलम्

दृष्ट्वा स्वसैन्यं रुधिरौघकर्दमे
रणाजिरे रामकुठारसायकैः।
विवृक्णचर्मध्वजचापविग्रहं
निपातितं हैहय आपतद् रुषा॥

अनुवाद (हिन्दी)

हैहयाधिपति अर्जुनने देखा कि मेरी सेनाके सैनिक, उनके धनुष, ध्वजाएँ और ढाल भगवान् परशुरामके फरसे और बाणोंसे कट-कटकर खूनसे लथपथ रणभूमिमें गिर गये हैं, तब उसे बड़ा क्रोध आया और वह स्वयं भिड़नेके लिये आ धमका॥ ३२॥

श्लोक-३३

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथार्जुनः पञ्चशतेषु बाहुभि-
र्धनुःषु बाणान् युगपत् स सन्दधे।
रामाय रामोऽस्त्रभृतां समग्रणी-
स्तान्येकधन्वेषुभिराच्छिनत् समम्॥

मूलम्

अथार्जुनः पञ्चशतेषु बाहुभि-
र्धनुःषु बाणान् युगपत् स सन्दधे।
रामाय रामोऽस्त्रभृतां समग्रणी-
स्तान्येकधन्वेषुभिराच्छिनत् समम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसने एक साथ ही अपनी हजार भुजाओंसे पाँच सौ धनुषोंपर बाण चढ़ाये और परशुरामजीपर छोड़े। परन्तु परशुरामजी तो समस्त शस्त्रधारियोंके शिरोमणि ठहरे। उन्होंने अपने एक धनुषपर छोड़े हुए बाणोंसे ही एक साथ सबको काट डाला॥ ३३॥

श्लोक-३४

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुनः स्वहस्तैरचलान् मृधेऽङ्घ्रिपा-
नुत्क्षिप्य वेगादभिधावतो युधि।
भुजान् कुठारेण कठोरनेमिना
चिच्छेद रामः प्रसभं त्वहेरिव॥

मूलम्

पुनः स्वहस्तैरचलान् मृधेऽङ्घ्रिपा-
नुत्क्षिप्य वेगादभिधावतो युधि।
भुजान् कुठारेण कठोरनेमिना
चिच्छेद रामः प्रसभं त्वहेरिव॥

अनुवाद (हिन्दी)

अब हैहयाधिपति अपने हाथोंसे पहाड़ और पेड़ उखाड़कर बड़े वेगसे युद्धभूमिमें परशुरामजीकी ओर झपटा। परन्तु परशुरामजीने अपनी तीखी धारवाले फरसेसे बड़ी फुर्तीके साथ उसकी साँपोंके समान भुजाओंको काट डाला॥ ३४॥

श्लोक-३५

विश्वास-प्रस्तुतिः

कृत्तबाहोः शिरस्तस्य गिरेः शृङ्गमिवाहरत्।
हते पितरि तत्पुत्रा अयुतं दुद्रुवुर्भयात्॥

मूलम्

कृत्तबाहोः शिरस्तस्य गिरेः शृङ्गमिवाहरत्।
हते पितरि तत्पुत्रा अयुतं दुद्रुवुर्भयात्॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब उसकी बाँहें कट गयीं, तब उन्होंने पहाड़की चोटीकी तरह उसका ऊँचा सिर धड़से अलग कर दिया। पिताके मर जानेपर उसके दस हजार लड़के डरकर भग गये॥ ३५॥

श्लोक-३६

विश्वास-प्रस्तुतिः

अग्निहोत्रीमुपावर्त्य सवत्सां परवीरहा।
समुपेत्याश्रमं पित्रे परिक्लिष्टां समर्पयत्॥

मूलम्

अग्निहोत्रीमुपावर्त्य सवत्सां परवीरहा।
समुपेत्याश्रमं पित्रे परिक्लिष्टां समर्पयत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! विपक्षी वीरोंके नाशक परशुरामजीने बछड़ेके साथ कामधेनु लौटा ली। वह बहुत ही दुःखी हो रही थी। उन्होंने उसे अपने आश्रमपर लाकर पिताजीको सौंप दिया॥ ३६॥

श्लोक-३७

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वकर्म तत्कृतं रामः पित्रे भ्रातृभ्य एव च।
वर्णयामास तच्छ्रुत्वा जमदग्निरभाषत॥

मूलम्

स्वकर्म तत्कृतं रामः पित्रे भ्रातृभ्य एव च।
वर्णयामास तच्छ्रुत्वा जमदग्निरभाषत॥

अनुवाद (हिन्दी)

और माहिष्मतीमें सहस्रबाहुने तथा उन्होंने जो कुछ किया था, सब अपने पिताजी तथा भाइयोंको कह सुनाया। सब कुछ सुनकर जमदग्नि मुनिने कहा—॥ ३७॥

श्लोक-३८

विश्वास-प्रस्तुतिः

राम राम महाबाहो भवान् पापमकारषीत्।
अवधीन्नरदेवं यत् सर्वदेवमयं वृथा॥

मूलम्

राम राम महाबाहो भवान् पापमकारषीत्।
अवधीन्नरदेवं यत् सर्वदेवमयं वृथा॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘हाय, हाय, परशुराम! तुमने बड़ा पाप किया। राम, राम! तुम बड़े वीर हो; परन्तु सर्वदेवमय नरदेवका तुमने व्यर्थ ही वध किया॥ ३८॥

श्लोक-३९

विश्वास-प्रस्तुतिः

वयं हि ब्राह्मणास्तात क्षमयार्हणतां गताः।
यया लोकगुरुर्देवः पारमेष्ठ्यमगात् पदम्॥

मूलम्

वयं हि ब्राह्मणास्तात क्षमयार्हणतां गताः।
यया लोकगुरुर्देवः पारमेष्ठ्यमगात् पदम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

बेटा! हमलोग ब्राह्मण हैं। क्षमाके प्रभावसे ही हम संसारमें पूजनीय हुए हैं। और तो क्या, सबके दादा ब्रह्माजी भी क्षमाके बलसे ही ब्रह्मपदको प्राप्त हुए हैं॥ ३९॥

श्लोक-४०

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्षमया रोचते लक्ष्मीर्ब्राह्मी सौरी यथा प्रभा।
क्षमिणामाशु भगवांस्तुष्यते हरिरीश्वरः॥

मूलम्

क्षमया रोचते लक्ष्मीर्ब्राह्मी सौरी यथा प्रभा।
क्षमिणामाशु भगवांस्तुष्यते हरिरीश्वरः॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्राह्मणोंकी शोभा क्षमाके द्वारा ही सूर्यकी प्रभाके समान चमक उठती है। सर्वशक्तिमान् भगवान् श्रीहरि भी क्षमावानोंपर ही शीघ्र प्रसन्न होते हैं॥ ४०॥

श्लोक-४१

विश्वास-प्रस्तुतिः

राज्ञो मूर्धाभिषिक्तस्य वधो ब्रह्मवधाद् गुरुः।
तीर्थसंसेवया चांहो जह्यङ्गाच्युतचेतनः॥

मूलम्

राज्ञो मूर्धाभिषिक्तस्य वधो ब्रह्मवधाद् गुरुः।
तीर्थसंसेवया चांहो जह्यङ्गाच्युतचेतनः॥

अनुवाद (हिन्दी)

बेटा! सार्वभौम राजाका वध ब्राह्मणकी हत्यासे भी बढ़कर है। जाओ, भगवान‍्का स्मरण करते हुए तीर्थोंका सेवन करके अपने पापोंको धो डालो’॥ ४१॥

अनुवाद (समाप्ति)

इति श्रीमद‍्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां नवमस्कन्धे पञ्चदशोऽध्यायः॥ १५॥