[त्रयोदशोऽध्यायः]
भागसूचना
राजा निमिके वंशका वर्णन
श्लोक-१
मूलम् (वचनम्)
श्रीशुक उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
निमिरिक्ष्वाकुतनयो वसिष्ठमवृतर्त्विजम्।
आरभ्य सत्रं सोऽप्याह शक्रेण प्राग्वृतोऽस्मि भोः॥
मूलम्
निमिरिक्ष्वाकुतनयो वसिष्ठमवृतर्त्विजम्।
आरभ्य सत्रं सोऽप्याह शक्रेण प्राग्वृतोऽस्मि भोः॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! इक्ष्वाकुके पुत्र थे निमि। उन्होंने यज्ञ आरम्भ करके महर्षि वसिष्ठको ऋत्विज्के रूपमें वरण किया। वसिष्ठजीने कहा कि ‘राजन्! इन्द्र अपने यज्ञके लिये मुझे पहले ही वरण कर चुके हैं॥ १॥
श्लोक-२
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं निर्वर्त्यागमिष्यामि तावन्मां प्रतिपालय।
तूष्णीमासीद् गृहपतिः सोऽपीन्द्रस्याकरोन्मखम्॥
मूलम्
तं निर्वर्त्यागमिष्यामि तावन्मां प्रतिपालय।
तूष्णीमासीद् गृहपतिः सोऽपीन्द्रस्याकरोन्मखम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनका यज्ञ पूरा करके मैं तुम्हारे पास आऊँगा। तबतक तुम मेरी प्रतीक्षा करना।’ यह बात सुनकर राजा निमि चुप हो रहे और वसिष्ठजी इन्द्रका यज्ञ कराने चले गये॥ २॥
श्लोक-३
विश्वास-प्रस्तुतिः
निमिश्चलमिदं विद्वान् सत्रमारभतात्मवान्।
ऋत्विग्भिरपरैस्तावन्नागमद् यावता गुरुः॥
मूलम्
निमिश्चलमिदं विद्वान् सत्रमारभतात्मवान्।
ऋत्विग्भिरपरैस्तावन्नागमद् यावता गुरुः॥
अनुवाद (हिन्दी)
विचारवान् निमिने यह सोचकर कि जीवन तो क्षणभंगुर है, विलम्ब करना उचित न समझा और यज्ञ प्रारम्भ कर दिया। जबतक गुरु वसिष्ठजी न लौटें, तबतकके लिये उन्होंने दूसरे ऋत्विजोंको वरण कर लिया॥ ३॥
श्लोक-४
विश्वास-प्रस्तुतिः
शिष्यव्यतिक्रमं वीक्ष्य निर्वर्त्य गुरुरागतः।
अशपत् पतताद् देहो निमेः पण्डितमानिनः॥
मूलम्
शिष्यव्यतिक्रमं वीक्ष्य निर्वर्त्य गुरुरागतः।
अशपत् पतताद् देहो निमेः पण्डितमानिनः॥
अनुवाद (हिन्दी)
गुरु वसिष्ठजी जब इन्द्रका यज्ञ सम्पन्न करके लौटे तो उन्होंने देखा कि उनके शिष्य निमिने तो उनकी बात न मानकर यज्ञ प्रारम्भ कर दिया है। उस समय उन्होंने शाप दिया कि ‘निमिको अपनी विचारशीलता और पाण्डित्यका बड़ा घमंड है, इसलिये इसका शरीरपात हो जाय’॥ ४॥
श्लोक-५
विश्वास-प्रस्तुतिः
निमिः प्रतिददौ शापं गुरवेऽधर्मवर्तिने।
तवापि पतताद् देहो लोभाद् धर्ममजानतः॥
मूलम्
निमिः प्रतिददौ शापं गुरवेऽधर्मवर्तिने।
तवापि पतताद् देहो लोभाद् धर्ममजानतः॥
अनुवाद (हिन्दी)
निमिकी दृष्टिमें गुरु वसिष्ठका यह शाप धर्मके अनुकूल नहीं, प्रतिकूल था। इसलिये उन्होंने भी शाप दिया कि ‘आपने लोभवश अपने धर्मका आदर नहीं किया, इसलिये आपका शरीर भी गिर जाय’॥ ५॥
श्लोक-६
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युत्ससर्ज स्वं देहं निमिरध्यात्मकोविदः।
मित्रावरुणयोर्जज्ञे उर्वश्यां प्रपितामहः॥
मूलम्
इत्युत्ससर्ज स्वं देहं निमिरध्यात्मकोविदः।
मित्रावरुणयोर्जज्ञे उर्वश्यां प्रपितामहः॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह कहकर आत्मविद्यामें निपुण निमिने अपने शरीरका त्याग कर दिया। परीक्षित्! इधर हमारे वृद्ध प्रपितामह वसिष्ठजीने भी अपना शरीर त्यागकर मित्रावरुणके द्वारा उर्वशीके गर्भसे जन्म ग्रहण किया॥ ६॥
श्लोक-७
विश्वास-प्रस्तुतिः
गन्धवस्तुषु तद्देहं निधाय मुनिसत्तमाः।
समाप्ते सत्रयागेऽथ देवानूचुः समागतान्॥
मूलम्
गन्धवस्तुषु तद्देहं निधाय मुनिसत्तमाः।
समाप्ते सत्रयागेऽथ देवानूचुः समागतान्॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजा निमिके यज्ञमें आये हुए श्रेष्ठ मुनियोंने राजाके शरीरको सुगन्धित वस्तुओंमें रख दिया। जब सत्रयागकी समाप्ति हुई और देवतालोग आये, तब उन लोगोंने उनसे प्रार्थना की॥ ७॥
श्लोक-८
विश्वास-प्रस्तुतिः
राज्ञो जीवतु देहोऽयं प्रसन्नाः प्रभवो यदि।
तथेत्युक्ते निमिः प्राह मा भून्मे देहबन्धनम्॥
मूलम्
राज्ञो जीवतु देहोऽयं प्रसन्नाः प्रभवो यदि।
तथेत्युक्ते निमिः प्राह मा भून्मे देहबन्धनम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘महानुभावो! आपलोग समर्थ हैं। यदि आप प्रसन्न हैं तो राजा निमिका यह शरीर पुनः जीवित हो उठे।’ देवताओंने कहा—‘ऐसा ही हो।’ उस समय निमिने कहा—‘मुझे देहका बन्धन नहीं चाहिये॥ ८॥
श्लोक-९
विश्वास-प्रस्तुतिः
यस्य योगं न वाञ्छन्ति वियोगभयकातराः।
भजन्ति चरणाम्भोजं मुनयो हरिमेधसः॥
मूलम्
यस्य योगं न वाञ्छन्ति वियोगभयकातराः।
भजन्ति चरणाम्भोजं मुनयो हरिमेधसः॥
अनुवाद (हिन्दी)
विचारशील मुनिजन अपनी बुद्धिको पूर्णरूपसे श्रीभगवान्में ही लगा देते हैं और उन्हींके चरणकमलोंका भजन करते हैं। एक-न-एक दिन यह शरीर अवश्य ही छूटेगा—इस भयसे भीत होनेके कारण वे इस शरीरका कभी संयोग ही नहीं चाहते; वे तो मुक्त ही होना चाहते हैं॥ ९॥
श्लोक-१०
विश्वास-प्रस्तुतिः
देहं नावरुरुत्सेऽहं दुःखशोकभयावहम्।
सर्वत्रास्य यतो मृत्युर्मत्स्यानामुदके यथा॥
मूलम्
देहं नावरुरुत्सेऽहं दुःखशोकभयावहम्।
सर्वत्रास्य यतो मृत्युर्मत्स्यानामुदके यथा॥
अनुवाद (हिन्दी)
अतः मैं अब दुःख,शोक और भयके मूल कारण इस शरीरको धारण करना नहीं चाहता। जैसे जलमें मछलीके लिये सर्वत्र ही मृत्युके अवसर हैं, वैसे ही इस शरीरके लिये भी सब कहीं मृत्यु-ही-मृत्यु है’॥ १०॥
श्लोक-११
मूलम् (वचनम्)
देवा ऊचुः
विश्वास-प्रस्तुतिः
विदेह उष्यतां कामं लोचनेषु शरीरिणाम्।
उन्मेषणनिमेषाभ्यां लक्षितोऽध्यात्मसंस्थितः॥
मूलम्
विदेह उष्यतां कामं लोचनेषु शरीरिणाम्।
उन्मेषणनिमेषाभ्यां लक्षितोऽध्यात्मसंस्थितः॥
अनुवाद (हिन्दी)
देवताओंने कहा—‘मुनियो! राजा निमि बिना शरीरके ही प्राणियोंके नेत्रोंमें अपनी इच्छाके अनुसार निवास करें। वे वहाँ रहकर सूक्ष्मशरीरसे भगवान्का चिन्तन करते रहें। पलक उठने और गिरनेसे उनके अस्तित्वका पता चलता रहेगा॥ ११॥
श्लोक-१२
विश्वास-प्रस्तुतिः
अराजकभयं नॄणां मन्यमाना महर्षयः।
देहं ममन्थुः स्म निमेः कुमारः समजायत॥
मूलम्
अराजकभयं नॄणां मन्यमाना महर्षयः।
देहं ममन्थुः स्म निमेः कुमारः समजायत॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसके बाद महर्षियोंने यह सोचकर कि ‘राजाके न रहनेपर लोगोंमें अराजकता फैल जायगी’ निमिके शरीरका मन्थन किया। उस मन्थनसे एक कुमार उत्पन्न हुआ॥ १२॥
श्लोक-१३
विश्वास-प्रस्तुतिः
जन्मना जनकः सोऽभूद् वैदेहस्तु विदेहजः।
मिथिलो मथनाज्जातो मिथिला येन निर्मिता॥
मूलम्
जन्मना जनकः सोऽभूद् वैदेहस्तु विदेहजः।
मिथिलो मथनाज्जातो मिथिला येन निर्मिता॥
अनुवाद (हिन्दी)
जन्म लेनेके कारण उसका नाम हुआ जनक। विदेहसे उत्पन्न होनेके कारण ‘वैदेह’ और मन्थनसे उत्पन्न होनेके कारण उसी बालकका नाम ‘मिथिल’ हुआ। उसीने मिथिलापुरी बसायी॥ १३॥
श्लोक-१४
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मादुदावसुस्तस्य पुत्रोऽभून्नन्दिवर्धनः।
ततः सुकेतुस्तस्यापि देवरातो महीपते॥
मूलम्
तस्मादुदावसुस्तस्य पुत्रोऽभून्नन्दिवर्धनः।
ततः सुकेतुस्तस्यापि देवरातो महीपते॥
श्लोक-१५
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्माद् बृहद्रथस्तस्य महावीर्यः सुधृत्पिता।
सुधृतेर्धृष्टकेतुर्वै हर्यश्वोऽथ मरुस्ततः॥
मूलम्
तस्माद् बृहद्रथस्तस्य महावीर्यः सुधृत्पिता।
सुधृतेर्धृष्टकेतुर्वै हर्यश्वोऽथ मरुस्ततः॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! जनकका उदावसु, उसका नन्दिवर्धन, नन्दिवर्धनका सुकेतु, उसका देवरात, देवरातका बृहद्रथ, बृहद्रथका महावीर्य, महावीर्यका सुधृति, सुधृतिका धृष्टकेतु, धृष्टकेतुका हर्यश्व और उसका मरु नामक पुत्र हुआ॥ १४-१५॥
श्लोक-१६
विश्वास-प्रस्तुतिः
मरोः प्रतीपकस्तस्माज्जातः कृतिरथो यतः।
देवमीढस्तस्य सुतो विश्रुतोऽथ महाधृतिः॥
मूलम्
मरोः प्रतीपकस्तस्माज्जातः कृतिरथो यतः।
देवमीढस्तस्य सुतो विश्रुतोऽथ महाधृतिः॥
अनुवाद (हिन्दी)
मरुसे प्रतीपक, प्रतीपकसे कृतिरथ, कृतिरथसे देवमीढ, देवमीढसे विश्रुत और विश्रुतसे महाधृतिका जन्म हुआ॥ १६॥
श्लोक-१७
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृतिरातस्ततस्तस्मान्महारोमाथ तत्सुतः।
स्वर्णरोमा सुतस्तस्य ह्रस्वरोमा व्यजायत॥
मूलम्
कृतिरातस्ततस्तस्मान्महारोमाथ तत्सुतः।
स्वर्णरोमा सुतस्तस्य ह्रस्वरोमा व्यजायत॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाधृतिका कृतिरात, कृतिरातका महारोमा, महारोमाका स्वर्णरोमा और स्वर्णरोमाका पुत्र हुआ ह्रस्वरोमा॥ १७॥
श्लोक-१८
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः सीरध्वजो जज्ञे यज्ञार्थं कर्षतो महीम्।
सीता सीराग्रतो जाता तस्मात् सीरध्वजः स्मृतः॥
मूलम्
ततः सीरध्वजो जज्ञे यज्ञार्थं कर्षतो महीम्।
सीता सीराग्रतो जाता तस्मात् सीरध्वजः स्मृतः॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसी ह्रस्वरोमाके पुत्र महाराज सीरध्वज थे। वे जब यज्ञके लिये धरती जोत रहे थे, तब उनके सीर (हल) के अग्रभाग (फाल)-से सीताजीकी उत्पत्ति हुई। इसीसे उनका नाम ‘सीरध्वज’ पड़ा॥ १८॥
श्लोक-१९
विश्वास-प्रस्तुतिः
कुशध्वजस्तस्य पुत्रस्ततो धर्मध्वजो नृपः।
धर्मध्वजस्य द्वौ पुत्रौ कृतध्वजमितध्वजौ॥
मूलम्
कुशध्वजस्तस्य पुत्रस्ततो धर्मध्वजो नृपः।
धर्मध्वजस्य द्वौ पुत्रौ कृतध्वजमितध्वजौ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सीरध्वजके कुशध्वज, कुशध्वजके धर्मध्वज और धर्मध्वजके दो पुत्र हुए—कृतध्वज और मितध्वज॥ १९॥
श्लोक-२०
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृतध्वजात् केशिध्वजः खाण्डिक्यस्तु मितध्वजात्।
कृतध्वजसुतो राजन्नात्मविद्याविशारदः॥
मूलम्
कृतध्वजात् केशिध्वजः खाण्डिक्यस्तु मितध्वजात्।
कृतध्वजसुतो राजन्नात्मविद्याविशारदः॥
अनुवाद (हिन्दी)
कृतध्वजके केशि-ध्वज और मितध्वजके खाण्डिक्य हुए। परीक्षित्! केशिध्वज आत्मविद्यामें बड़ा प्रवीण था॥ २०॥
श्लोक-२१
विश्वास-प्रस्तुतिः
खाण्डिक्यः कर्मतत्त्वज्ञो भीतः केशिध्वजाद् द्रुतः।
भानुमांस्तस्य पुत्रोऽभूच्छतद्युम्नस्तु तत्सुतः॥
मूलम्
खाण्डिक्यः कर्मतत्त्वज्ञो भीतः केशिध्वजाद् द्रुतः।
भानुमांस्तस्य पुत्रोऽभूच्छतद्युम्नस्तु तत्सुतः॥
अनुवाद (हिन्दी)
खाण्डिक्य था कर्मकाण्डका मर्मज्ञ। वह केशिध्वजसे भयभीत होकर भाग गया। केशिध्वजका पुत्र भानुमान् और भानुमान् का शतद्युम्न था॥ २१॥
श्लोक-२२
विश्वास-प्रस्तुतिः
शुचिस्तत्तनयस्तस्मात् सनद्वाजस्ततोऽभवत्।
ऊर्ध्वकेतुः सनद्वाजादजोऽथ पुरुजित्सुतः॥
मूलम्
शुचिस्तत्तनयस्तस्मात् सनद्वाजस्ततोऽभवत्।
ऊर्ध्वकेतुः सनद्वाजादजोऽथ पुरुजित्सुतः॥
श्लोक-२३
विश्वास-प्रस्तुतिः
अरिष्टनेमिस्तस्यापि श्रुतायुस्तत्सुपार्श्वकः।
ततश्चित्ररथो यस्य क्षेमधिर्मिथिलाधिपः॥
मूलम्
अरिष्टनेमिस्तस्यापि श्रुतायुस्तत्सुपार्श्वकः।
ततश्चित्ररथो यस्य क्षेमधिर्मिथिलाधिपः॥
अनुवाद (हिन्दी)
शतद्युम्नसे शुचि, शुचिसे सनद्वाज, सनद्वाजसे ऊर्ध्वकेतु, ऊर्ध्वकेतुसे अज, अजसे पुरुजित्, पुरुजित् से अरिष्टनेमि, अरिष्टनेमिसे श्रुतायु, श्रुतायुसे सुपार्श्वक, सुपार्श्वकसे चित्ररथ और चित्ररथसे मिथिलापति क्षेमधिका जन्म हुआ॥ २२-२३॥
श्लोक-२४
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मात् समरथस्तस्य सुतः सत्यरथस्ततः।
आसीदुपगुरुस्तस्मादुपगुप्तोऽग्निसंभवः॥
मूलम्
तस्मात् समरथस्तस्य सुतः सत्यरथस्ततः।
आसीदुपगुरुस्तस्मादुपगुप्तोऽग्निसंभवः॥
अनुवाद (हिन्दी)
क्षेमधिसे समरथ, समरथसे सत्यरथ, सत्यरथसे उपगुरु और उपगुरुसे उपगुप्त नामक पुत्र हुआ। यह अग्निका अंश था॥ २४॥
श्लोक-२५
विश्वास-प्रस्तुतिः
वस्वनन्तोऽथ तत्पुत्रो युयुधो यत् सुभाषणः।
श्रुतस्ततो जयस्तस्माद् विजयोऽस्मादृतः सुतः॥
मूलम्
वस्वनन्तोऽथ तत्पुत्रो युयुधो यत् सुभाषणः।
श्रुतस्ततो जयस्तस्माद् विजयोऽस्मादृतः सुतः॥
अनुवाद (हिन्दी)
उपगुप्तका वस्वनन्त, वस्वनन्तका युयुध, युयुधका सुभाषण, सुभाषणका श्रुत, श्रुतका जय, जयका विजय और विजयका ऋत नामक पुत्र हुआ॥ २५॥
श्लोक-२६
विश्वास-प्रस्तुतिः
शुनकस्तत्सुतो जज्ञे वीतहव्यो धृतिस्ततः।
बहुलाश्वो धृतेस्तस्य कृतिरस्य महावशी॥
मूलम्
शुनकस्तत्सुतो जज्ञे वीतहव्यो धृतिस्ततः।
बहुलाश्वो धृतेस्तस्य कृतिरस्य महावशी॥
अनुवाद (हिन्दी)
ऋतका शुनक, शुनकका वीतहव्य, वीतहव्यका धृति, धृतिका बहुलाश्व, बहुलाश्वका कृति और कृतिका पुत्र हुआ महावशी॥ २६॥
श्लोक-२७
विश्वास-प्रस्तुतिः
एते वै मैथिला राजन्नात्मविद्याविशारदाः।
योगेश्वरप्रसादेन द्वन्द्वैर्मुक्ता गृहेष्वपि॥
मूलम्
एते वै मैथिला राजन्नात्मविद्याविशारदाः।
योगेश्वरप्रसादेन द्वन्द्वैर्मुक्ता गृहेष्वपि॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! ये मिथिलके वंशमें उत्पन्न सभी नरपति ‘मैथिल’ कहलाते हैं। ये सब-के-सब आत्मज्ञानसे सम्पन्न एवं गृहस्थाश्रममें रहते हुए भी सुख-दुःख आदि द्वन्द्वोंसे मुक्त थे। क्यों न हो, याज्ञवल्क्य आदि बड़े-बड़े योगेश्वरोंकी इनपर महान् कृपा जो थी॥ २७॥
अनुवाद (समाप्ति)
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां नवमस्कन्धे निमिवंशानुवर्णनं नाम त्रयोदशोऽध्यायः॥ १३॥