११

[एकादशोऽध्यायः]

भागसूचना

भगवान् श्रीरामकी शेष लीलाओंका वर्णन

श्लोक-१

मूलम् (वचनम्)

श्रीशुक उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

भगवानात्मनाऽऽत्मानं राम उत्तमकल्पकैः।
सर्वदेवमयं देवमीज आचार्यवान् मखैः॥

मूलम्

भगवानात्मनाऽऽत्मानं राम उत्तमकल्पकैः।
सर्वदेवमयं देवमीज आचार्यवान् मखैः॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! भगवान् श्रीरामने गुरु वसिष्ठजीको अपना आचार्य बनाकर उत्तम सामग्रियोंसे युक्त यज्ञोंके द्वारा अपने-आप ही अपने सर्वदेवस्वरूप स्वयंप्रकाश आत्माका यजन किया॥ १॥

श्लोक-२

विश्वास-प्रस्तुतिः

होत्रेऽददाद् दिशं प्राचीं ब्रह्मणे दक्षिणां प्रभुः।
अध्वर्यवे प्रतीचीं च उदीचीं सामगाय सः॥

मूलम्

होत्रेऽददाद् दिशं प्राचीं ब्रह्मणे दक्षिणां प्रभुः।
अध्वर्यवे प्रतीचीं च उदीचीं सामगाय सः॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन्होंने होताको पूर्व दिशा, ब्रह्माको दक्षिण, अध्वर्युको पश्चिम और उद‍्गाताको उत्तर दिशा दे दी॥ २॥

श्लोक-३

विश्वास-प्रस्तुतिः

आचार्याय ददौ शेषां यावती भूस्तदन्तरा।
मन्यमान इदं कृत्स्नं ब्राह्मणोऽर्हति निःस्पृहः॥

मूलम्

आचार्याय ददौ शेषां यावती भूस्तदन्तरा।
मन्यमान इदं कृत्स्नं ब्राह्मणोऽर्हति निःस्पृहः॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनके बीचमें जितनी भूमि बच रही थी, वह उन्होंने आचार्यको दे दी। उनका यह निश्चय था कि सम्पूर्ण भूमण्डलका एकमात्र अधिकारी निःस्पृह ब्राह्मण ही है॥ ३॥

श्लोक-४

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्ययं तदलङ्कारवासोभ्यामवशेषितः।
तथा राज्ञ्यपि वैदेही सौमङ्गल्यावशेषिता॥

मूलम्

इत्ययं तदलङ्कारवासोभ्यामवशेषितः।
तथा राज्ञ्यपि वैदेही सौमङ्गल्यावशेषिता॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार सारे भूमण्डलका दान करके उन्होंने अपने शरीरके वस्त्र और अलंकार ही अपने पास रखे। इसी प्रकार महारानी सीताजीके पास भी केवल मांगलिक वस्त्र और आभूषण ही बच रहे॥ ४॥

श्लोक-५

विश्वास-प्रस्तुतिः

ते तु ब्रह्मण्यदेवस्य वात्सल्यं वीक्ष्य संस्तुतम्।
प्रीताः क्लिन्नधियस्तस्मै प्रत्यर्प्येदं बभाषिरे॥

मूलम्

ते तु ब्रह्मण्यदेवस्य वात्सल्यं वीक्ष्य संस्तुतम्।
प्रीताः क्लिन्नधियस्तस्मै प्रत्यर्प्येदं बभाषिरे॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब आचार्य आदि ब्राह्मणोंने देखा कि भगवान् श्रीराम तो ब्राह्मणोंको ही अपना इष्टदेव मानते हैं, उनके हृदयमें ब्राह्मणोंके प्रति अनन्त स्नेह है, तब उनका हृदय प्रेमसे द्रवित हो गया। उन्होंने प्रसन्न होकर सारी पृथ्वी भगवान‍्को लौटा दी और कहा॥ ५॥

श्लोक-६

विश्वास-प्रस्तुतिः

अप्रत्तं नस्त्वया किं नु भगवन् भुवनेश्वर।
यन्नोऽन्तर्हृदयं विश्य तमो हंसि स्वरोचिषा॥

मूलम्

अप्रत्तं नस्त्वया किं नु भगवन् भुवनेश्वर।
यन्नोऽन्तर्हृदयं विश्य तमो हंसि स्वरोचिषा॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘प्रभो! आप सब लोकोंके एकमात्र स्वामी हैं। आप तो हमारे हृदयके भीतर रहकर अपनी ज्योतिसे अज्ञानान्धकारका नाश कर रहे हैं। ऐसी स्थितिमें भला, आपने हमें क्या नहीं दे रखा है॥ ६॥

श्लोक-७

विश्वास-प्रस्तुतिः

नमो ब्रह्मण्यदेवाय रामायाकुण्ठमेधसे।
उत्तमश्लोकधुर्याय न्यस्तदण्डार्पिताङ्घ्रये॥

मूलम्

नमो ब्रह्मण्यदेवाय रामायाकुण्ठमेधसे।
उत्तमश्लोकधुर्याय न्यस्तदण्डार्पिताङ्घ्रये॥

अनुवाद (हिन्दी)

आपका ज्ञान अनन्त है। पवित्र कीर्तिवाले पुरुषोंमें आप सर्वश्रेष्ठ हैं। उन महात्माओंको, जो किसीको किसी प्रकारकी पीड़ा नहीं पहुँचाते, आपने अपने चरणकमल दे रखे हैं। ऐसा होनेपर भी आप ब्राह्मणोंको अपना इष्टदेव मानते हैं। भगवन्! आपके इस रामरूपको हम नमस्कार करते हैं’॥ ७॥

श्लोक-८

विश्वास-प्रस्तुतिः

कदाचिल्लोकजिज्ञासुर्गूढो रात्र्यामलक्षितः।
चरन् वाचोऽशृणोद् रामोभार्यामुद्दिश्य कस्यचित्॥

मूलम्

कदाचिल्लोकजिज्ञासुर्गूढो रात्र्यामलक्षितः।
चरन् वाचोऽशृणोद् रामोभार्यामुद्दिश्य कस्यचित्॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! एक बार अपनी प्रजाकी स्थिति जाननेके लिये भगवान् श्रीरामजी रातके समय छिपकर बिना किसीको बतलाये घूम रहे थे। उस समय उन्होंने किसीकी यह बात सुनी। वह अपनी पत्नीसे कह रहा था॥ ८॥

श्लोक-९

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाहं बिभर्मि त्वां दुष्टामसतीं परवेश्मगाम्।
स्त्रीलोभी बिभृयात् सीतां रामो नाहं भजे पुनः॥

मूलम्

नाहं बिभर्मि त्वां दुष्टामसतीं परवेश्मगाम्।
स्त्रीलोभी बिभृयात् सीतां रामो नाहं भजे पुनः॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘अरी! तू दुष्ट और कुलटा है। तू पराये घरमें रह आयी है। स्त्री-लोभी राम भले ही सीताको रख लें, परन्तु मैं तुझे फिर नहीं रख सकता’॥ ९॥

श्लोक-१०

विश्वास-प्रस्तुतिः

इति लोकाद् बहुमुखाद् दुराराध्यादसंविदः।
पत्या भीतेन सा त्यक्ता प्राप्ता प्राचेतसाश्रमम्॥

मूलम्

इति लोकाद् बहुमुखाद् दुराराध्यादसंविदः।
पत्या भीतेन सा त्यक्ता प्राप्ता प्राचेतसाश्रमम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

सचमुच सब लोगोंको प्रसन्न रखना टेढ़ी खीर है। क्योंकि मूर्खोंकी तो कमी नहीं है। जब भगवान् श्रीरामने बहुतोंके मुँहसे ऐसी बात सुनी, तो वे लोकापवादसे कुछ भयभीत-से हो गये। उन्होंने श्रीसीताजीका परित्याग कर दिया और वे वाल्मीकि मुनिके आश्रममें रहने लगीं॥ १०॥

श्लोक-११

विश्वास-प्रस्तुतिः

अन्तर्वत्न्यागते काले यमौ सा सुषुवे सुतौ।
कुशो लव इति ख्यातौ तयोश्चक्रे क्रिया मुनिः॥

मूलम्

अन्तर्वत्न्यागते काले यमौ सा सुषुवे सुतौ।
कुशो लव इति ख्यातौ तयोश्चक्रे क्रिया मुनिः॥

अनुवाद (हिन्दी)

सीताजी उस समय गर्भवती थीं। समय आनेपर उन्होंने एक साथ ही दो पुत्र उत्पन्न किये। उनके नाम हुए—कुश और लव। वाल्मीकि मुनिने उनके जात-कर्मादि संस्कार किये॥ ११॥

श्लोक-१२

विश्वास-प्रस्तुतिः

अङ्गदश्चित्रकेतुश्च लक्ष्मणस्यात्मजौ स्मृतौ।
तक्षः पुष्कल इत्यास्तां भरतस्य महीपते॥

मूलम्

अङ्गदश्चित्रकेतुश्च लक्ष्मणस्यात्मजौ स्मृतौ।
तक्षः पुष्कल इत्यास्तां भरतस्य महीपते॥

अनुवाद (हिन्दी)

लक्ष्मणजीके दो पुत्र हुए—अंगद और चित्रकेतु। परीक्षित्! इसी प्रकार भरतजीके भी दो ही पुत्र थे—तक्ष और पुष्कल॥ १२॥

श्लोक-१३

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुबाहुः श्रुतसेनश्च शत्रुघ्नस्य बभूवतुः।
गन्धर्वान् कोटिशो जघ्ने भरतो विजये दिशाम्॥

मूलम्

सुबाहुः श्रुतसेनश्च शत्रुघ्नस्य बभूवतुः।
गन्धर्वान् कोटिशो जघ्ने भरतो विजये दिशाम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

तथा शत्रुघ्नके भी दो पुत्र हुए—सुबाहु और श्रुतसेन। भरतजीने दिग्विजयमें करोड़ों गन्धर्वोंका संहार किया॥ १३॥

श्लोक-१४

विश्वास-प्रस्तुतिः

तदीयं धनमानीय सर्वं राज्ञे न्यवेदयत्।
शत्रुघ्नश्च मधोः पुत्रं लवणं नाम राक्षसम्।
हत्वा मधुवने चक्रे मथुरां नाम वै पुरीम्॥

मूलम्

तदीयं धनमानीय सर्वं राज्ञे न्यवेदयत्।
शत्रुघ्नश्च मधोः पुत्रं लवणं नाम राक्षसम्।
हत्वा मधुवने चक्रे मथुरां नाम वै पुरीम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन्होंने उनका सब धन लाकर अपने बड़े भाई भगवान् श्रीरामकी सेवामें निवेदन किया। शत्रुघ्नजीने मधुवनमें मधुके पुत्र लवण नामक राक्षसको मारकर वहाँ मथुरा नामकी पुरी बसायी॥ १४॥

श्लोक-१५

विश्वास-प्रस्तुतिः

मुनौ निक्षिप्य तनयौ सीता भर्त्रा विवासिता।
ध्यायन्ती रामचरणौ विवरं प्रविवेश ह॥

मूलम्

मुनौ निक्षिप्य तनयौ सीता भर्त्रा विवासिता।
ध्यायन्ती रामचरणौ विवरं प्रविवेश ह॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् श्रीरामके द्वारा निर्वासित सीताजीने अपने पुत्रोंको वाल्मीकिजीके हाथोंमें सौंप दिया और भगवान् श्रीरामके चरणकमलोंका ध्यान करती हुई वे पृथ्वीदेवीके लोकमें चली गयीं॥ १५॥

श्लोक-१६

विश्वास-प्रस्तुतिः

तच्छ्रुत्वा भगवान् रामो रुन्धन्नपि धिया शुचः।
स्मरंस्तस्या गुणांस्तांस्तान्नाशक्नोद् रोद्धुमीश्वरः॥

मूलम्

तच्छ्रुत्वा भगवान् रामो रुन्धन्नपि धिया शुचः।
स्मरंस्तस्या गुणांस्तांस्तान्नाशक्नोद् रोद्धुमीश्वरः॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह समाचार सुनकर भगवान् श्रीरामने अपने शोकावेशको बुद्धिके द्वारा रोकना चाहा, परन्तु परम समर्थ होनेपर भी वे उसे रोक न सके। क्योंकि उन्हें जानकीजीके पवित्र गुण बार-बार स्मरण हो आया करते थे॥ १६॥

श्लोक-१७

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्त्रीपुंप्रसङ्ग एतादृक्सर्वत्र त्रासमावहः।
अपीश्वराणां किमुत ग्राम्यस्य गृहचेतसः॥

मूलम्

स्त्रीपुंप्रसङ्ग एतादृक्सर्वत्र त्रासमावहः।
अपीश्वराणां किमुत ग्राम्यस्य गृहचेतसः॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! यह स्त्री और पुरुषका सम्बन्ध सब कहीं इसी प्रकार दुःखका कारण है। यह बात बड़े-बड़े समर्थ लोगोंके विषयमें भी ऐसी ही है, फिर गृहासक्त विषयी पुरुषके सम्बन्धमें तो कहना ही क्या है॥ १७॥

श्लोक-१८

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत ऊर्ध्वं ब्रह्मचर्यं धारयन्नजुहोत् प्रभुः।
त्रयोदशाब्दसाहस्रमग्निहोत्रमखण्डितम्॥

मूलम्

तत ऊर्ध्वं ब्रह्मचर्यं धारयन्नजुहोत् प्रभुः।
त्रयोदशाब्दसाहस्रमग्निहोत्रमखण्डितम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसके बाद भगवान् श्रीरामने ब्रह्मचर्य धारण करके तेरह हजार वर्षतक अखण्डरूपसे अग्निहोत्र किया॥ १८॥

श्लोक-१९

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्मरतां हृदि विन्यस्य विद्धं दण्डककण्टकैः।
स्वपादपल्लवं राम आत्मज्योतिरगात् ततः॥

मूलम्

स्मरतां हृदि विन्यस्य विद्धं दण्डककण्टकैः।
स्वपादपल्लवं राम आत्मज्योतिरगात् ततः॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर अपना स्मरण करनेवाले भक्तोंके हृदयमें अपने उन चरणकमलोंको स्थापित करके, जो दण्डकवनके काँटोंसे बिंध गये थे, अपने स्वयंप्रकाश परम ज्योतिर्मय धाममें चले गये॥ १९॥

श्लोक-२०

विश्वास-प्रस्तुतिः

नेदं यशो रघुपतेः सुरयाच्ञयाऽऽत्त-
लीलातनोरधिकसाम्यविमुक्तधाम्नः।
रक्षोवधो जलधिबन्धनमस्त्रपूगैः
किं तस्य शत्रुहनने कपयः सहायाः॥

मूलम्

नेदं यशो रघुपतेः सुरयाच्ञयाऽऽत्त-
लीलातनोरधिकसाम्यविमुक्तधाम्नः।
रक्षोवधो जलधिबन्धनमस्त्रपूगैः
किं तस्य शत्रुहनने कपयः सहायाः॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! भगवान‍्के समान प्रतापशाली और कोई नहीं है, फिर उनसे बढ़कर तो हो ही कैसे सकता है। उन्होंने देवताओंकी प्रार्थनासे ही यह लीला-विग्रह धारण किया था। ऐसी स्थितिमें रघुवंश-शिरोमणि भगवान् श्रीरामके लिये यह कोई बड़े गौरवकी बात नहीं है कि उन्होंने अस्त्र-शस्त्रोंसे राक्षसोंको मार डाला या समुद्रपर पुल बाँध दिया। भला, उन्हें शत्रुओंको मारनेके लिये बंदरोंकी सहायताकी भी आवश्यकता थी क्या? यह सब उनकी लीला ही है॥ २०॥

श्लोक-२१

विश्वास-प्रस्तुतिः

यस्यामलं नृपसदस्सु यशोऽधुनापि
गायन्त्यघघ्नमृषयो दिगिभेन्द्रपट्टम्।
तं नाकपालवसुपालकिरीटजुष्ट-
पादाम्बुजं रघुपतिं शरणं प्रपद्ये॥

मूलम्

यस्यामलं नृपसदस्सु यशोऽधुनापि
गायन्त्यघघ्नमृषयो दिगिभेन्द्रपट्टम्।
तं नाकपालवसुपालकिरीटजुष्ट-
पादाम्बुजं रघुपतिं शरणं प्रपद्ये॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् श्रीरामका निर्मल यश समस्त पापोंको नष्ट कर देनेवाला है। वह इतना फैल गया है कि दिग्गजोंका श्यामल शरीर भी उसकी उज्ज्वलतासे चमक उठता है। आज भी बड़े-बड़े ऋषि-महर्षि राजाओंकी सभामें उसका गान करते रहते हैं। स्वर्गके देवता और पृथ्वीके नरपति अपने कमनीय किरीटोंसे उनके चरणकमलोंकी सेवा करते रहते हैं। मैं उन्हीं रघुवंशशिरोमणि भगवान् श्रीरामचन्द्रकी शरण ग्रहण करता हूँ॥ २१॥

श्लोक-२२

विश्वास-प्रस्तुतिः

स यैः स्पृष्टोऽभिदृष्टो वा संविष्टोऽनुगतोऽपि वा।
कोसलास्ते ययुः स्थानं यत्र गच्छन्ति योगिनः॥

मूलम्

स यैः स्पृष्टोऽभिदृष्टो वा संविष्टोऽनुगतोऽपि वा।
कोसलास्ते ययुः स्थानं यत्र गच्छन्ति योगिनः॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिन्होंने भगवान् श्रीरामका दर्शन और स्पर्श किया, उनका सहवास अथवा अनुगमन किया—वे सब-के-सब तथा कोसलदेशके निवासी भी उसी लोकमें गये, जहाँ बड़े-बड़े योगी योग-साधनाके द्वारा जाते हैं॥ २२॥

श्लोक-२३

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुरुषो रामचरितं श्रवणैरुपधारयन्।
आनृशंस्यपरो राजन् कर्मबन्धैर्विमुच्यते॥

मूलम्

पुरुषो रामचरितं श्रवणैरुपधारयन्।
आनृशंस्यपरो राजन् कर्मबन्धैर्विमुच्यते॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो पुरुष अपने कानोंसे भगवान् श्रीरामका चरित्र सुनता है—उसे सरलता, कोमलता आदि गुणोंकी प्राप्ति होती है। परीक्षित्! केवल इतना ही नहीं, वह समस्त कर्मबन्धनोंसे मुक्त हो जाता है॥ २३॥

श्लोक-२४

मूलम् (वचनम्)

राजोवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

कथं स भगवान् रामो भ्रातॄन् वा स्वयमात्मनः।
तस्मिन् वा तेऽन्ववर्तन्त प्रजाः पौराश्च ईश्वरे॥

मूलम्

कथं स भगवान् रामो भ्रातॄन् वा स्वयमात्मनः।
तस्मिन् वा तेऽन्ववर्तन्त प्रजाः पौराश्च ईश्वरे॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजा परीक्षित् ने पूछा—भगवान् श्रीराम स्वयं अपने भाइयोंके साथ किस प्रकारका व्यवहार करते थे? तथा भरत आदि भाई, प्रजाजन और अयोध्यावासी भगवान् श्रीरामके प्रति कैसा बर्ताव करते थे?॥ २४॥

श्लोक-२५

मूलम् (वचनम्)

श्रीशुक उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथादिशद् दिग्विजये भ्रातॄंस्त्रिभुवनेश्वरः।
आत्मानं दर्शयन् स्वानां पुरीमैक्षत सानुगः॥

मूलम्

अथादिशद् दिग्विजये भ्रातॄंस्त्रिभुवनेश्वरः।
आत्मानं दर्शयन् स्वानां पुरीमैक्षत सानुगः॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—त्रिभुवनपति महाराज श्रीरामने राजसिंहासन स्वीकार करनेके बाद अपने भाइयोंको दिग्विजयकी आज्ञा दी और स्वयं अपने निजजनोंको दर्शन देते हुए अपने अनुचरोंके साथ वे पुरीकी देख-रेख करने लगे॥ २५॥

श्लोक-२६

विश्वास-प्रस्तुतिः

आसिक्तमार्गां गन्धोदैः करिणां मदशीकरैः।
स्वामिनं प्राप्तमालोक्य मत्तां वा सुतरामिव॥

मूलम्

आसिक्तमार्गां गन्धोदैः करिणां मदशीकरैः।
स्वामिनं प्राप्तमालोक्य मत्तां वा सुतरामिव॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय अयोध्यापुरीके मार्ग सुगन्धित जल और हाथियोंके मदकणोंसे सिंचे रहते। ऐसा जान पड़ता, मानो यह नगरी अपने स्वामी भगवान् श्रीरामको देखकर अत्यन्त मतवाली हो रही है॥ २६॥

श्लोक-२७

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रासादगोपुरसभाचैत्यदेवगृहादिषु।
विन्यस्तहेमकलशैः पताकाभिश्च मण्डिताम्॥

मूलम्

प्रासादगोपुरसभाचैत्यदेवगृहादिषु।
विन्यस्तहेमकलशैः पताकाभिश्च मण्डिताम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसके महल, फाटक, सभाभवन, विहार और देवालय आदिमें सुवर्णके कलश रखे हुऐ थे और स्थान-स्थानपर पताकाएँ फहरा रही थीं॥ २७॥

श्लोक-२८

विश्वास-प्रस्तुतिः

पूगैः सवृन्तै रम्भाभिः पट्टिकाभिः सुवाससाम्।
आदर्शैरंशुकैः स्रग्भिः कृतकौतुकतोरणाम्॥

मूलम्

पूगैः सवृन्तै रम्भाभिः पट्टिकाभिः सुवाससाम्।
आदर्शैरंशुकैः स्रग्भिः कृतकौतुकतोरणाम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह डंठलसमेत सुपारी, केलेके खंभे और सुन्दर वस्त्रोंके पट्टोंसे सजायी हुई थी। दर्पण, वस्त्र और पुष्पमालाओंसे तथा मांगलिक चित्रकारियों और बंदनवारोंसे सारी नगरी जगमगा रही थी॥ २८॥

श्लोक-२९

विश्वास-प्रस्तुतिः

तमुपेयुस्तत्र तत्र पौरा अर्हणपाणयः।
आशिषो युयुजुर्देव पाहीमां प्राक् त्वयोद्‍धृताम्॥

मूलम्

तमुपेयुस्तत्र तत्र पौरा अर्हणपाणयः।
आशिषो युयुजुर्देव पाहीमां प्राक् त्वयोद्‍धृताम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

नगरवासी अपने हाथोंमें तरह-तरहकी भेंटें लेकर भगवान‍्के पास आते और उनसे प्रार्थना करते कि ‘देव! पहले आपने ही वराहरूपसे पृथ्वीका उद्धार किया था; अब आप ही इसका पालन कीजिये॥ २९॥

श्लोक-३०

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः प्रजा वीक्ष्य पतिं चिरागतं
दिदृक्षयोत्सृष्टगृहाः स्त्रियो नराः।
आरुह्य हर्म्याण्यरविन्दलोचन-
मतृप्तनेत्राः कुसुमैरवाकिरन्॥

मूलम्

ततः प्रजा वीक्ष्य पतिं चिरागतं
दिदृक्षयोत्सृष्टगृहाः स्त्रियो नराः।
आरुह्य हर्म्याण्यरविन्दलोचन-
मतृप्तनेत्राः कुसुमैरवाकिरन्॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! उस समय जब प्रजाको मालूम होता कि बहुत दिनोंके बाद भगवान् श्रीरामजी इधर पधारे हैं, तब सभी स्त्री-पुरुष उनके दर्शनकी लालसासे घर-द्वार छोड़कर दौड़ पड़ते। वे ऊँची-ऊँची अटारियोंपर चढ़ जाते और अतृप्त नेत्रोंसे कमलनयन भगवान‍्को देखते हुए उनपर पुष्पोंकी वर्षा करते॥ ३०॥

श्लोक-३१

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथ प्रविष्टः स्वगृहं जुष्टं स्वैः पूर्वराजभिः।
अनन्ताखिलकोशाढ्यमनर्घ्योरुपरिच्छदम्॥

मूलम्

अथ प्रविष्टः स्वगृहं जुष्टं स्वैः पूर्वराजभिः।
अनन्ताखिलकोशाढ्यमनर्घ्योरुपरिच्छदम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार प्रजाका निरीक्षण करके भगवान् फिर अपने महलोंमें आ जाते। उनके वे महल पूर्ववर्ती राजाओंके द्वारा सेवित थे। उनमें इतने बड़े-बड़े सब प्रकारके खजाने थे, जो कभी समाप्त नहीं होते थे। वे बड़ी-बड़ी बहुमूल्य बहुत-सी सामग्रियोंसे सुसज्जित थे॥ ३१॥

श्लोक-३२

विश्वास-प्रस्तुतिः

विद्रुमोदुम्बरद्वारैर्वैदूर्यस्तम्भपङ्क्तिभिः।
स्थलैर्मारकतैः स्वच्छैर्भातस्फटिकभित्तिभिः॥

मूलम्

विद्रुमोदुम्बरद्वारैर्वैदूर्यस्तम्भपङ्क्तिभिः।
स्थलैर्मारकतैः स्वच्छैर्भातस्फटिकभित्तिभिः॥

अनुवाद (हिन्दी)

महलोंके द्वार तथा देहलियाँ मूँगेकी बनी हुई थीं। उनमें जो खंभे थे, वे वैदूर्यमणिके थे। मरकतमणिके बड़े सुन्दर-सुन्दर फर्श थे, तथा स्फटिकमणिकी दीवारें चमकती रहती थीं॥ ३२॥

श्लोक-३३

विश्वास-प्रस्तुतिः

चित्रस्रग्भिः पट्टिकाभिर्वासोमणिगणांशुकैः।
मुक्ताफलैश्चिदुल्लासैः कान्तकामोपपत्तिभिः॥

मूलम्

चित्रस्रग्भिः पट्टिकाभिर्वासोमणिगणांशुकैः।
मुक्ताफलैश्चिदुल्लासैः कान्तकामोपपत्तिभिः॥

श्लोक-३४

विश्वास-प्रस्तुतिः

धूपदीपैः सुरभिभिर्मण्डितं पुष्पमण्डनैः।
स्त्रीपुम्भिः सुरसंकाशैर्जुष्टं भूषणभूषणैः॥

मूलम्

धूपदीपैः सुरभिभिर्मण्डितं पुष्पमण्डनैः।
स्त्रीपुम्भिः सुरसंकाशैर्जुष्टं भूषणभूषणैः॥

अनुवाद (हिन्दी)

रंग-बिरंगी मालाओं, पताकाओं, मणियोंकी चमक, शुद्ध चेतनके समान उज्ज्वल मोती, सुन्दर-सुन्दर भोग-सामग्री, सुगन्धित धूप-दीप तथा फूलोंके गहनोंसे वे महल खूब सजाये हुए थे। आभूषणोंको भी भूषित करनेवाले देवताओंके समान स्त्री-पुरुष उसकी सेवामें लगे रहते थे॥ ३३-३४॥

श्लोक-३५

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मिन् स भगवान् रामः स्निग्धया प्रिययेष्टया।
रेमे स्वारामधीराणामृषभः सीतया किल॥

मूलम्

तस्मिन् स भगवान् रामः स्निग्धया प्रिययेष्टया।
रेमे स्वारामधीराणामृषभः सीतया किल॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! भगवान् श्रीरामजी आत्माराम जितेन्द्रिय पुरुषोंके शिरोमणि थे। उसी महलमें वे अपनी प्राणप्रिया प्रेममयी पत्नी श्रीसीताजीके साथ विहार करते थे॥ ३५॥

श्लोक-३६

विश्वास-प्रस्तुतिः

बुभुजे च यथाकालं कामान् धर्ममपीडयन्।
वर्षपूगान् बहून् नॄणामभिध्याताङ्घ्रिपल्लवः॥

मूलम्

बुभुजे च यथाकालं कामान् धर्ममपीडयन्।
वर्षपूगान् बहून् नॄणामभिध्याताङ्घ्रिपल्लवः॥

अनुवाद (हिन्दी)

सभी स्त्री-पुरुष जिनके चरणकमलोंका ध्यान करते रहते हैं, वे ही भगवान् श्रीराम बहुत वर्षोंतक धर्मकी मर्यादाका पालन करते हुए समयानुसार भोगोंका उपभोग करते रहे॥ ३६॥

अनुवाद (समाप्ति)

इति श्रीमद‍्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां नवनमस्कन्धे श्रीरामोपाख्याने एकादशोऽध्यायः॥ ११॥