०८

[अष्टमोऽध्यायः]

भागसूचना

सगर-चरित्र

श्लोक-१

मूलम् (वचनम्)

श्रीशुक उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरितो रोहितसुतश्चम्पस्तस्माद् विनिर्मिता।
चम्पापुरी सुदेवोऽतो विजयो यस्य चात्मजः॥

मूलम्

हरितो रोहितसुतश्चम्पस्तस्माद् विनिर्मिता।
चम्पापुरी सुदेवोऽतो विजयो यस्य चात्मजः॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—रोहितका पुत्र था हरित। हरितसे चम्प हुआ। उसीने चम्पापुरी बसायी थी। चम्पसे सुदेव और उसका पुत्र विजय हुआ॥ १॥

श्लोक-२

विश्वास-प्रस्तुतिः

भरुकस्तत्सुतस्तस्माद् वृकस्तस्यापि बाहुकः।
सोऽरिभिर्हृतभू राजा सभार्यो वनमाविशत्॥

मूलम्

भरुकस्तत्सुतस्तस्माद् वृकस्तस्यापि बाहुकः।
सोऽरिभिर्हृतभू राजा सभार्यो वनमाविशत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

विजयका भरुक, भरुकका वृक और वृकका पुत्र हुआ बाहुक। शत्रुओंने बाहुकसे राज्य छीन लिया, तब वह अपनी पत्नीके साथ वनमें चला गया॥ २॥

श्लोक-३

विश्वास-प्रस्तुतिः

वृद्धं तं पञ्चतां प्राप्तं महिष्यनु मरिष्यती।
और्वेण जानताऽऽत्मानं प्रजावन्तं निवारिता॥

मूलम्

वृद्धं तं पञ्चतां प्राप्तं महिष्यनु मरिष्यती।
और्वेण जानताऽऽत्मानं प्रजावन्तं निवारिता॥

अनुवाद (हिन्दी)

वनमें जानेपर बुढ़ापेके कारण जब बाहुककी मृत्यु हो गयी, तब उसकी पत्नी भी उसके साथ सती होनेको उद्यत हुई। परन्तु महर्षि और्वको यह मालूम था कि इसे गर्भ है। इसलिये उन्होंने उसे सती होनेसे रोक दिया॥ ३॥

श्लोक-४

विश्वास-प्रस्तुतिः

आज्ञायास्यै सपत्नीभिर्गरो दत्तोऽन्धसा सह।
सह तेनैव संजातः सगराख्यो महायशाः॥

मूलम्

आज्ञायास्यै सपत्नीभिर्गरो दत्तोऽन्धसा सह।
सह तेनैव संजातः सगराख्यो महायशाः॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब उसकी सौतोंको यह बात मालूम हुई तो उन्होंने उसे भोजनके साथ गर (विष) दे दिया। परन्तु गर्भपर उस विषका कोई प्रभाव नहीं पड़ा; बल्कि उस विषको लिये हुए ही एक बालकका जन्म हुआ जो गरके साथ पैदा होनेके कारण ‘सगर’ कहलाया। सगर बड़े यशस्वी राजा हुए॥ ४॥

श्लोक-५

विश्वास-प्रस्तुतिः

सगरश्चक्रवर्त्यासीत् सागरो यत्सुतैः कृतः।
यस्तालजङ‍‍्घान् यवनाञ्छकान् हैहयबर्बरान्॥

मूलम्

सगरश्चक्रवर्त्यासीत् सागरो यत्सुतैः कृतः।
यस्तालजङ‍‍्घान् यवनाञ्छकान् हैहयबर्बरान्॥

श्लोक-६

विश्वास-प्रस्तुतिः

नावधीद् गुरुवाक्येन चक्रे विकृतवेषिणः।
मुण्डाञ्छ्मश्रुधरान् कांश्चिन्मुक्तकेशार्धमुण्डितान्॥

मूलम्

नावधीद् गुरुवाक्येन चक्रे विकृतवेषिणः।
मुण्डाञ्छ्मश्रुधरान् कांश्चिन्मुक्तकेशार्धमुण्डितान्॥

अनुवाद (हिन्दी)

सगर चक्रवर्ती सम्राट् थे। उन्हींके पुत्रोंने पृथ्वी खोदकर समुद्र बना दिया था। सगरने अपने गुरुदेव और्वकी आज्ञा मानकर तालजंघ, यवन, शक, हैहय और बर्बर जातिके लोगोंका वध नहीं किया, बल्कि उन्हें विरूप बना दिया। उनमेंसे कुछके सिर मुड़वा दिये, कुछके मूँछ-दाढ़ी रखवा दी, कुछको खुले बालोंवाला बना दिया तो कुछको आधा मुँडवा दिया॥ ५-६॥

श्लोक-७

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनन्तर्वाससः कांश्चिदबहिर्वाससोऽपरान्।
सोऽश्वमेधैरयजत सर्ववेदसुरात्मकम्॥

मूलम्

अनन्तर्वाससः कांश्चिदबहिर्वाससोऽपरान्।
सोऽश्वमेधैरयजत सर्ववेदसुरात्मकम्॥

श्लोक-८

विश्वास-प्रस्तुतिः

और्वोपदिष्टयोगेन हरिमात्मानमीश्वरम्।
तस्योत्सृष्टं पशुं यज्ञे जहाराश्वं पुरन्दरः॥

मूलम्

और्वोपदिष्टयोगेन हरिमात्मानमीश्वरम्।
तस्योत्सृष्टं पशुं यज्ञे जहाराश्वं पुरन्दरः॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुछ लोगोंको सगरने केवल वस्त्र ओढ़नेकी ही आज्ञा दी, पहननेकी नहीं। और कुछको केवल लँगोटी पहननेको ही कहा, ओढ़नेको नहीं। इसके बाद राजा सगरने और्व ऋषिके उपदेशानुसार अश्वमेध यज्ञके द्वारा सम्पूर्ण वेद एवं देवतामय, आत्मस्वरूप, सर्वशक्तिमान् भगवान‍्की आराधना की। उसके यज्ञमें जो घोड़ा छोड़ा गया था, उसे इन्द्रने चुरा लिया॥ ७-८॥

श्लोक-९

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुमत्यास्तनया दृप्ताः पितुरादेशकारिणः।
हयमन्वेषमाणास्ते समन्तान्न्यखनन् महीम्॥

मूलम्

सुमत्यास्तनया दृप्ताः पितुरादेशकारिणः।
हयमन्वेषमाणास्ते समन्तान्न्यखनन् महीम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय महारानी सुमतिके गर्भसे उत्पन्न सगरके पुत्रोंने अपने पिताके आज्ञानुसार घोड़ेके लिये सारी पृथ्वी छान डाली। जब उन्हें कहीं घोड़ा न मिला, तब उन्होंने बड़े घमण्डसे सब ओरसे पृथ्वीको खोद डाला॥ ९॥

श्लोक-१०

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रागुदीच्यां दिशि हयं ददृशुः कपिलान्तिके।
एष वाजिहरश्चौर आस्ते मीलितलोचनः॥

मूलम्

प्रागुदीच्यां दिशि हयं ददृशुः कपिलान्तिके।
एष वाजिहरश्चौर आस्ते मीलितलोचनः॥

श्लोक-११

विश्वास-प्रस्तुतिः

हन्यतां हन्यतां पाप इति षष्टिसहस्रिणः।
उदायुधा अभिययुरुन्मिमेष तदा मुनिः॥

मूलम्

हन्यतां हन्यतां पाप इति षष्टिसहस्रिणः।
उदायुधा अभिययुरुन्मिमेष तदा मुनिः॥

अनुवाद (हिन्दी)

खोदते-खोदते उन्हें पूर्व और उत्तरके कोनेपर कपिलमुनिके पास अपना घोड़ा दिखायी दिया। घोड़ेको देखकर वे साठ हजार राजकुमार शस्त्र उठाकर यह कहते हुए उनकी ओर दौड़ पड़े कि ‘यही हमारे घोड़ेको चुरानेवाला चोर है। देखो तो सही, इसने इस समय कैसे आँखें मूँद रखी हैं! यह पापी है। इसको मार डालो, मार डालो!’ उसी समय कपिलमुनिने अपनी पलकें खोलीं॥ १०-११॥

श्लोक-१२

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वशरीराग्निना तावन्महेन्द्रहृतचेतसः।
महद्‍व्यतिक्रमहता भस्मसादभवन् क्षणात्॥

मूलम्

स्वशरीराग्निना तावन्महेन्द्रहृतचेतसः।
महद्‍व्यतिक्रमहता भस्मसादभवन् क्षणात्॥

अनुवाद (हिन्दी)

इन्द्रने राजकुमारोंकी बुद्धि हर ली थी, इसीसे उन्होंने कपिलमुनि-जैसे महापुरुषका तिरस्कार किया। इस तिरस्कारके फलस्वरूप उनके शरीरमें ही आग जल उठी जिससे क्षणभरमें ही वे सब-के-सब जलकर खाक हो गये॥ १२॥

श्लोक-१३

विश्वास-प्रस्तुतिः

न साधुवादो मुनिकोपभर्जिता
नृपेन्द्रपुत्रा इति सत्त्वधामनि।
कथं तमो रोषमयं विभाव्यते
जगत्पवित्रात्मनि खे रजो भुवः॥

मूलम्

न साधुवादो मुनिकोपभर्जिता
नृपेन्द्रपुत्रा इति सत्त्वधामनि।
कथं तमो रोषमयं विभाव्यते
जगत्पवित्रात्मनि खे रजो भुवः॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! सगरके लड़के कपिलमुनिके क्रोधसे जल गये, ऐसा कहना उचित नहीं है। वे तो शुद्ध सत्त्वगुणके परम आश्रय हैं। उनका शरीर तो जगत‍्को पवित्र करता रहता है। उनमें भला क्रोधरूप तमोगुणकी सम्भावना कैसे की जा सकती है। भला, कहीं पृथ्वीकी धूलका भी आकाशसे सम्बन्ध होता है?॥ १३॥

श्लोक-१४

विश्वास-प्रस्तुतिः

यस्येरिता सांख्यमयी दृढेह नौ-
र्यया मुमुक्षुस्तरते दुरत्ययम्।
भवार्णवं मृत्युपथं विपश्चितः
परात्मभूतस्य कथं पृथङ्मतिः॥

मूलम्

यस्येरिता सांख्यमयी दृढेह नौ-
र्यया मुमुक्षुस्तरते दुरत्ययम्।
भवार्णवं मृत्युपथं विपश्चितः
परात्मभूतस्य कथं पृथङ्मतिः॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह संसार-सागर एक मृत्युमय पथ है। इसके पार जाना अत्यन्त कठिन है। परन्तु कपिलमुनिने इस जगत‍्में सांख्यशास्त्रकी एक ऐसी दृढ़ नाव बना दी है जिससे मुक्तिकी इच्छा रखनेवाला कोई भी व्यक्ति उस समुद्रके पार जा सकता है। वे केवल परम ज्ञानी ही नहीं, स्वयं परमात्मा हैं। उनमें भला, यह शत्रु है और यह मित्र—इस प्रकारकी भेदबुद्धि कैसे हो सकती है?॥ १४॥

श्लोक-१५

विश्वास-प्रस्तुतिः

योऽसमञ्जस इत्युक्तः स केशिन्या नृपात्मजः।
तस्य पुत्रोंऽशुमान् नाम पितामहहिते रतः॥

मूलम्

योऽसमञ्जस इत्युक्तः स केशिन्या नृपात्मजः।
तस्य पुत्रोंऽशुमान् नाम पितामहहिते रतः॥

अनुवाद (हिन्दी)

सगरकी दूसरी पत्नीका नाम था केशिनी। उसके गर्भसे उन्हें असमंजस नामका पुत्र हुआ था। असमंजसके पुत्रका नाम था अंशुमान्। वह अपने दादा सगरकी आज्ञाओंके पालन तथा उन्हींकी सेवामें लगा रहता॥ १५॥

श्लोक-१६

विश्वास-प्रस्तुतिः

असमञ्जस आत्मानं दर्शयन्नसमञ्जसम्।
जातिस्मरः पुरा सङ्गाद् योगी योगाद् विचालितः॥

मूलम्

असमञ्जस आत्मानं दर्शयन्नसमञ्जसम्।
जातिस्मरः पुरा सङ्गाद् योगी योगाद् विचालितः॥

श्लोक-१७

विश्वास-प्रस्तुतिः

आचरन् गर्हितं लोके ज्ञातीनां कर्म विप्रियम्।
सरय्वां क्रीडतो बालान् प्रास्यदुद्वेजयञ्जनम्॥

मूलम्

आचरन् गर्हितं लोके ज्ञातीनां कर्म विप्रियम्।
सरय्वां क्रीडतो बालान् प्रास्यदुद्वेजयञ्जनम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

असमंजस पहले जन्ममें योगी थे। संगके कारण वे योगसे विचलित हो गये थे, परन्तु अब भी उन्हें अपने पूर्वजन्मका स्मरण बना हुआ था। इसलिये वे ऐसे काम किया करते थे, जिनसे भाई-बन्धु उन्हें प्रिय न समझें। वे कभी-कभी तो अत्यन्त निन्दित कर्म कर बैठते और अपनेको पागल-सा दिखलाते—यहाँतक कि खेलते हुए बच्चोंको सरयूमें डाल देते! इस प्रकार उन्होंने लोगोंको उद्विग्न कर दिया था॥ १६-१७॥

श्लोक-१८

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवंवृत्तः परित्यक्तः पित्रा स्नेहमपोह्य वै।
योगैश्वर्येण बालांस्तान् दर्शयित्वा ततो ययौ॥

मूलम्

एवंवृत्तः परित्यक्तः पित्रा स्नेहमपोह्य वै।
योगैश्वर्येण बालांस्तान् दर्शयित्वा ततो ययौ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अन्तमें उनकी ऐसी करतूत देखकर पिताने पुत्र-स्नेहको तिलांजलि दे दी और उन्हें त्याग दिया। तदनन्तर असमंजसने अपने योगबलसे उन सब बालकोंको जीवित कर दिया और अपने पिताको दिखाकर वे वनमें चले गये॥ १८॥

श्लोक-१९

विश्वास-प्रस्तुतिः

अयोध्यावासिनः सर्वे बालकान् पुनरागतान्।
दृष्ट्वा विसिस्मिरे राजन् राजा चाप्यन्वतप्यत॥

मूलम्

अयोध्यावासिनः सर्वे बालकान् पुनरागतान्।
दृष्ट्वा विसिस्मिरे राजन् राजा चाप्यन्वतप्यत॥

अनुवाद (हिन्दी)

अयोध्याके नागरिकोंने जब देखा कि हमारे बालक तो फिर लौट आये तब उन्हें असीम आश्चर्य हुआ और राजा सगरको भी बड़ा पश्चात्ताप हुआ॥ १९॥

श्लोक-२०

विश्वास-प्रस्तुतिः

अंशुमांश्चोदितो राज्ञा तुरङ्गान्वेषणे ययौ।
पितृव्यखातानुपथं भस्मान्ति ददृशे हयम्॥

मूलम्

अंशुमांश्चोदितो राज्ञा तुरङ्गान्वेषणे ययौ।
पितृव्यखातानुपथं भस्मान्ति ददृशे हयम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसके बाद राजा सगरकी आज्ञासे अंशुमान् घोड़ेको ढूँढ़नेके लिये निकले। उन्होंने अपने चाचाओंके द्वारा खोदे हुए समुद्रके किनारे-किनारे चलकर उनके शरीरके भस्मके पास ही घोड़ेको देखा॥ २०॥

श्लोक-२१

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्रासीनं मुनिं वीक्ष्य कपिलाख्यमधोक्षजम्।
अस्तौत् समाहितमनाः प्राञ्जलिः प्रणतो महान्॥

मूलम्

तत्रासीनं मुनिं वीक्ष्य कपिलाख्यमधोक्षजम्।
अस्तौत् समाहितमनाः प्राञ्जलिः प्रणतो महान्॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहीं भगवान‍्के अवतार कपिलमुनि बैठे हुए थे। उनको देखकर उदार हृदय अंशुमान् ने उनके चरणोंमें प्रणाम किया और हाथ जोड़कर एकाग्र मनसे उनकी स्तुति की॥ २१॥

श्लोक-२२

मूलम् (वचनम्)

अंशुमानुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

न पश्यति त्वां परमात्मनोऽजनो
न बुध्यतेऽद्यापि समाधियुक्तिभिः।
कुतोऽपरे तस्य मनःशरीरधी
विसर्गसृष्टा वयमप्रकाशाः॥

मूलम्

न पश्यति त्वां परमात्मनोऽजनो
न बुध्यतेऽद्यापि समाधियुक्तिभिः।
कुतोऽपरे तस्य मनःशरीरधी
विसर्गसृष्टा वयमप्रकाशाः॥

अनुवाद (हिन्दी)

अंशुमान् ने कहा—भगवन्! आप अजन्मा ब्रह्माजीसे भी परे हैं। इसीलिये वे आपको प्रत्यक्ष नहीं देख पाते। देखनेकी बात तो अलग रही—वे समाधि करते-करते एवं युक्ति लड़ाते-लड़ाते हार गये, किन्तु आजतक आपको समझ भी नहीं पाये। हमलोग तो उनके मन, शरीर और बुद्धिसे होनेवाली सृष्टिके द्वारा बने हुए अज्ञानी जीव हैं। तब भला, हम आपको कैसे समझ सकते हैं॥ २२॥

श्लोक-२३

विश्वास-प्रस्तुतिः

ये देहभाजस्त्रिगुणप्रधाना
गुणान् विपश्यन्त्युत वा तमश्च।
यन्मायया मोहितचेतसस्ते
विदुः स्वसंस्थं न बहिःप्रकाशाः॥

मूलम्

ये देहभाजस्त्रिगुणप्रधाना
गुणान् विपश्यन्त्युत वा तमश्च।
यन्मायया मोहितचेतसस्ते
विदुः स्वसंस्थं न बहिःप्रकाशाः॥

अनुवाद (हिन्दी)

संसारके शरीरधारी सत्त्वगुण, रजोगुण या तमोगुण-प्रधान हैं। वे जाग्रत् और स्वप्न अवस्थाओंमें केवल गुणमय पदार्थों, विषयोंको और सुषुप्ति-अवस्थामें केवल अज्ञान-ही-अज्ञान देखते हैं। इसका कारण यह है कि वे आपकी मायासे मोहित हो रहे हैं। वे बहिर्मुख होनेके कारण बाहरकी वस्तुओंको तो देखते हैं, पर अपने ही हृदयमें स्थित आपको नहीं देख पाते॥ २३॥

श्लोक-२४

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं त्वामहं ज्ञानघनं स्वभाव-
प्रध्वस्तमायागुणभेदमोहैः।
सनन्दनाद्यैर्मुनिभिर्विभाव्यं
कथं हि मूढः परिभावयामि॥

मूलम्

तं त्वामहं ज्ञानघनं स्वभाव-
प्रध्वस्तमायागुणभेदमोहैः।
सनन्दनाद्यैर्मुनिभिर्विभाव्यं
कथं हि मूढः परिभावयामि॥

अनुवाद (हिन्दी)

आप एकरस, ज्ञानघन हैं। सनन्दन आदि मुनि, जो आत्मस्वरूपके अनुभवसे मायाके गुणोंके द्वारा होनेवाले भेदभावको और उसके कारण अज्ञानको नष्ट कर चुके हैं, आपका निरन्तर चिन्तन करते रहते हैं। मायाके गुणोंमें ही भूला हुआ मैं मूढ़ किस प्रकार आपका चिन्तन करूँ?॥ २४॥

श्लोक-२५

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रशान्तमायागुणकर्मलिङ्ग-
मनामरूपं सदसद्विमुक्तम्।
ज्ञानोपदेशाय गृहीतदेहं
नमामहे त्वां पुरुषं पुराणम्॥

मूलम्

प्रशान्तमायागुणकर्मलिङ्ग-
मनामरूपं सदसद्विमुक्तम्।
ज्ञानोपदेशाय गृहीतदेहं
नमामहे त्वां पुरुषं पुराणम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

माया, उसके गुण और गुणोंके कारण होनेवाले कर्म एवं कर्मोंके संस्कारसे बना हुआ लिंगशरीर आपमें है ही नहीं। न तो आपका नाम है और न तो रूप। आपमें न कार्य है और न तो कारण। आप सनातन आत्मा हैं। ज्ञानका उपदेश करनेके लिये ही आपने यह शरीर धारण कर रखा है। हम आपको नमस्कार करते हैं॥ २५॥

श्लोक-२६

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वन्मायारचिते लोके वस्तुबुद्ध्या गृहादिषु।
भ्रमन्ति कामलोभेर्ष्यामोहविभ्रान्तचेतसः॥

मूलम्

त्वन्मायारचिते लोके वस्तुबुद्ध्या गृहादिषु।
भ्रमन्ति कामलोभेर्ष्यामोहविभ्रान्तचेतसः॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रभो! यह संसार आपकी मायाकी करामात है। इसको सत्य समझकर काम, लोभ, ईर्ष्या और मोहसे लोगोंका चित्त शरीर तथा घर आदिमें भटकने लगता है। लोग इसीके चक्‍करमें फँस जाते हैं॥ २६॥

श्लोक-२७

विश्वास-प्रस्तुतिः

अद्य नः सर्वभूतात्मन् कामकर्मेन्द्रियाशयः।
मोहपाशो दृढश्छिन्नो भगवंस्तव दर्शनात्॥

मूलम्

अद्य नः सर्वभूतात्मन् कामकर्मेन्द्रियाशयः।
मोहपाशो दृढश्छिन्नो भगवंस्तव दर्शनात्॥

अनुवाद (हिन्दी)

समस्त प्राणियोंके आत्मा प्रभो! आज आपके दर्शनसे मेरे मोहकी वह दृढ़ फाँसी कट गयी जो कामना, कर्म और इन्द्रियोंको जीवनदान देती है॥ २७॥

श्लोक-२८

मूलम् (वचनम्)

श्रीशुक उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्थंगीतानुभावस्तं भगवान् कपिलो मुनिः।
अंशुमन्तमुवाचेदमनुगृह्य धिया नृप॥

मूलम्

इत्थंगीतानुभावस्तं भगवान् कपिलो मुनिः।
अंशुमन्तमुवाचेदमनुगृह्य धिया नृप॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! जब अंशुमान् ने भगवान् कपिलमुनिके प्रभावका इस प्रकार गान किया, तब उन्होंने मन-ही-मन अंशुमान‍्पर बड़ा अनुग्रह किया और कहा॥ २८॥

श्लोक-२९

मूलम् (वचनम्)

श्रीभगवानुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अश्वोऽयं नीयतां वत्स पितामहपशुस्तव।
इमे च पितरो दग्धा गङ्गाम्भोऽर्हन्ति नेतरत्॥

मूलम्

अश्वोऽयं नीयतां वत्स पितामहपशुस्तव।
इमे च पितरो दग्धा गङ्गाम्भोऽर्हन्ति नेतरत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीभगवान‍्ने कहा—‘बेटा! यह घोड़ा तुम्हारे पितामहका यज्ञपशु है। इसे तुम ले जाओ। तुम्हारे जले हुए चाचाओंका उद्धार केवल गंगाजलसे होगा, और कोई उपाय नहीं है’॥ २९॥

श्लोक-३०

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं परिक्रम्य शिरसा प्रसाद्य हयमानयत्।
सगरस्तेन पशुना क्रतुशेषं समापयत्॥

मूलम्

तं परिक्रम्य शिरसा प्रसाद्य हयमानयत्।
सगरस्तेन पशुना क्रतुशेषं समापयत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

अंशुमान् ने बड़ी नम्रतासे उन्हें प्रसन्न करके उनकी परिक्रमा की और वे घोड़ेको ले आये। सगरने उस यज्ञपशुके द्वारा यज्ञकी शेष क्रिया समाप्त की॥ ३०॥

श्लोक-३१

विश्वास-प्रस्तुतिः

राज्यमंशुमति न्यस्य निःस्पृहो मुक्तबन्धनः।
और्वोपदिष्टमार्गेण लेभे गतिमनुत्तमाम्॥

मूलम्

राज्यमंशुमति न्यस्य निःस्पृहो मुक्तबन्धनः।
और्वोपदिष्टमार्गेण लेभे गतिमनुत्तमाम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब राजा सगरने अंशुमान् को राज्यका भार सौंप दिया और वे स्वयं विषयोंसे निःस्पृह एवं बन्धनमुक्त हो गये। उन्होंने महर्षि और्वके बतलाये हुए मार्गसे परमपदकी प्राप्ति की॥ ३१॥

अनुवाद (समाप्ति)

इति श्रीमद‍्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां नवमस्कन्धे सगरोपाख्यानेऽष्टमोऽध्यायः॥ ८॥