[सप्तमोऽध्यायः]
भागसूचना
राजा त्रिशङ्कु और हरिश्चन्द्रकी कथा
श्लोक-१
मूलम् (वचनम्)
श्रीशुक उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
मान्धातुः पुत्रप्रवरो योऽम्बरीषः प्रकीर्तितः।
पितामहेन प्रवृतो यौवनाश्वश्च तत्सुतः।
हारीतस्तस्य पुत्रोऽभून्मान्धातृप्रवरा इमे॥
मूलम्
मान्धातुः पुत्रप्रवरो योऽम्बरीषः प्रकीर्तितः।
पितामहेन प्रवृतो यौवनाश्वश्च तत्सुतः।
हारीतस्तस्य पुत्रोऽभून्मान्धातृप्रवरा इमे॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! मैं वर्णन कर चुका हूँ कि मान्धाताके पुत्रोंमें सबसे श्रेष्ठ अम्बरीष थे। उनके दादा युवनाश्वने उन्हें पुत्ररूपमें स्वीकार कर लिया। उनका पुत्र हुआ यौवनाश्व और यौवनाश्वका हारीत। मान्धाताके वंशमें ये तीन अवान्तर गोत्रोंके प्रवर्तक हुए॥ १॥
श्लोक-२
विश्वास-प्रस्तुतिः
नर्मदा भ्रातृभिर्दत्ता पुरुकुत्साय योरगैः।
तया रसातलं नीतो भुजगेन्द्रप्रयुक्तया॥
मूलम्
नर्मदा भ्रातृभिर्दत्ता पुरुकुत्साय योरगैः।
तया रसातलं नीतो भुजगेन्द्रप्रयुक्तया॥
अनुवाद (हिन्दी)
नागोंने अपनी बहिन नर्मदाका विवाह पुरुकुत्ससे कर दिया था। नागराज वासुकिकी आज्ञासे नर्मदा अपने पतिको रसातलमें ले गयी॥ २॥
श्लोक-३
विश्वास-प्रस्तुतिः
गन्धर्वानवधीत् तत्र वध्यान् वै विष्णुशक्तिधृक्।
नागाल्लब्धवरः सर्पादभयं स्मरतामिदम्॥
मूलम्
गन्धर्वानवधीत् तत्र वध्यान् वै विष्णुशक्तिधृक्।
नागाल्लब्धवरः सर्पादभयं स्मरतामिदम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
वहाँ भगवान्की शक्तिसे सम्पन्न होकर पुरुकुत्सने वध करनेयोग्य गन्धर्वोंको मार डाला। इसपर नागराजने प्रसन्न होकर पुरुकुत्सको वर दिया कि जो इस प्रसंगका स्मरण करेगा, वह सर्पोंसे निर्भय हो जायगा॥ ३॥
श्लोक-४
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्रसद्दस्युः पौरुकुत्सो योऽनरण्यस्य देहकृत्।
हर्यश्वस्तत्सुतस्तस्मादरुणोऽथ त्रिबन्धनः॥
मूलम्
त्रसद्दस्युः पौरुकुत्सो योऽनरण्यस्य देहकृत्।
हर्यश्वस्तत्सुतस्तस्मादरुणोऽथ त्रिबन्धनः॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजा पुरुकुत्सका पुत्र त्रसद्दस्यु था। उसके पुत्र हुए अनरण्य। अनरण्यके हर्यश्व,उसके अरुण और अरुणके त्रिबन्धन हुए॥ ४॥
श्लोक-५
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्य सत्यव्रतः पुत्रस्त्रिशङ्कुरिति विश्रुतः।
प्राप्तश्चाण्डालतां शापाद् गुरोः कौशिकतेजसा॥
मूलम्
तस्य सत्यव्रतः पुत्रस्त्रिशङ्कुरिति विश्रुतः।
प्राप्तश्चाण्डालतां शापाद् गुरोः कौशिकतेजसा॥
श्लोक-६
विश्वास-प्रस्तुतिः
सशरीरो गतः स्वर्गमद्यापि दिवि दृश्यते।
पातितोऽवाक्शिरा देवैस्तेनैव स्तम्भितो बलात्॥
मूलम्
सशरीरो गतः स्वर्गमद्यापि दिवि दृश्यते।
पातितोऽवाक्शिरा देवैस्तेनैव स्तम्भितो बलात्॥
अनुवाद (हिन्दी)
त्रिबन्धनके पुत्र सत्यव्रत हुए। यही सत्यव्रत त्रिशंकुके नामसे विख्यात हुए। यद्यपि त्रिशंकु अपने पिता और गुरुके शापसे चाण्डाल हो गये थे, परन्तु विश्वामित्रजीके प्रभावसे वे सशरीर स्वर्गमें चले गये। देवताओंने उन्हें वहाँसे ढकेल दिया और वे नीचेको सिर किये हुए गिर पड़े; परन्तु विश्वामित्रजीने अपने तपोबलसे उन्हें आकाशमें ही स्थिर कर दिया। वे अब भी आकाशमें लटके हुए दीखते हैं॥ ५-६॥
श्लोक-७
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्रैशङ्कवो हरिश्चन्द्रो विश्वामित्रवसिष्ठयोः।
यन्निमित्तमभूद् युद्धं पक्षिणोर्बहुवार्षिकम्॥
मूलम्
त्रैशङ्कवो हरिश्चन्द्रो विश्वामित्रवसिष्ठयोः।
यन्निमित्तमभूद् युद्धं पक्षिणोर्बहुवार्षिकम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
त्रिशंकुके पुत्र थे हरिश्चन्द्र। उनके लिये विश्वामित्र और वसिष्ठ एक-दूसरेको शाप देकर पक्षी हो गये और बहुत वर्षोंतक लड़ते रहे॥ ७॥
श्लोक-८
विश्वास-प्रस्तुतिः
सोऽनपत्यो विषण्णात्मा नारदस्योपदेशतः।
वरुणं शरणं यातः पुत्रो मे जायतां प्रभो॥
मूलम्
सोऽनपत्यो विषण्णात्मा नारदस्योपदेशतः।
वरुणं शरणं यातः पुत्रो मे जायतां प्रभो॥
अनुवाद (हिन्दी)
हरिश्चन्द्रके कोई सन्तान न थी। इससे वे बहुत उदास रहा करते थे। नारदके उपदेशसे वे वरुणदेवताकी शरणमें गये और उनसे प्रार्थना की कि ‘प्रभो! मुझे पुत्र प्राप्त हो॥ ८॥
श्लोक-९
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदि वीरो महाराज तेनैव त्वां यजे इति।
तथेति वरुणेनास्य पुत्रो जातस्तु रोहितः॥
मूलम्
यदि वीरो महाराज तेनैव त्वां यजे इति।
तथेति वरुणेनास्य पुत्रो जातस्तु रोहितः॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! यदि मेरे वीर पुत्र होगा तो मैं उसीसे आपका यजन करूँगा।’ वरुणने कहा—‘ठीक है।’ तब वरुणकी कृपासे हरिश्चन्द्रके रोहित नामका पुत्र हुआ॥ ९॥
श्लोक-१०
विश्वास-प्रस्तुतिः
जातः सुतो ह्यनेनाङ्ग मां यजस्वेति सोऽब्रवीत्।
यदा पशुर्निर्दशः स्यादथ मेध्यो भवेदिति॥
मूलम्
जातः सुतो ह्यनेनाङ्ग मां यजस्वेति सोऽब्रवीत्।
यदा पशुर्निर्दशः स्यादथ मेध्यो भवेदिति॥
अनुवाद (हिन्दी)
पुत्र होते ही वरुणने आकर कहा—‘हरिश्चन्द्र! तुम्हें पुत्र प्राप्त हो गया। अब इसके द्वारा मेरा यज्ञ करो।’ हरिश्चन्द्रने कहा—‘जब आपका यह यज्ञपशु (रोहित) दस दिनसे अधिकका हो जायगा, तब यज्ञके योग्य होगा’॥ १०॥
श्लोक-११
विश्वास-प्रस्तुतिः
निर्दशे च स आगत्य यजस्वेत्याह सोऽब्रवीत्।
दन्ताः पशोर्यज्जायेरन्नथ मेध्यो भवेदिति॥
मूलम्
निर्दशे च स आगत्य यजस्वेत्याह सोऽब्रवीत्।
दन्ताः पशोर्यज्जायेरन्नथ मेध्यो भवेदिति॥
अनुवाद (हिन्दी)
दस दिन बीतनेपर वरुणने आकर फिर कहा—‘अब मेरा यज्ञ करो।’ हरिश्चन्द्रने कहा—‘जब आपके यज्ञपशुके मुँहमें दाँत निकल आयेंगे, तब वह यज्ञके योग्य होगा’॥ ११॥
श्लोक-१२
विश्वास-प्रस्तुतिः
जाता दन्ता यजस्वेति स प्रत्याहाथ सोऽब्रवीत्।
यदा पतन्त्यस्य दन्ता अथ मेध्यो भवेदिति॥
मूलम्
जाता दन्ता यजस्वेति स प्रत्याहाथ सोऽब्रवीत्।
यदा पतन्त्यस्य दन्ता अथ मेध्यो भवेदिति॥
अनुवाद (हिन्दी)
दाँत उग आनेपर वरुणने कहा—‘अब इसके दाँत निकल आये, मेरा यज्ञ करो।’ हरिश्चन्द्रने कहा— ‘जब इसके दूधके दाँत गिर जायँगे, तब यह यज्ञके योग्य होगा’॥ १२॥
श्लोक-१३
विश्वास-प्रस्तुतिः
पशोर्निपतिता दन्ता यजस्वेत्याह सोऽब्रवीत्।
यदा पशोः पुनर्दन्ता जायन्तेऽथ पशुः शुचिः॥
मूलम्
पशोर्निपतिता दन्ता यजस्वेत्याह सोऽब्रवीत्।
यदा पशोः पुनर्दन्ता जायन्तेऽथ पशुः शुचिः॥
अनुवाद (हिन्दी)
दूधके दाँत गिर जानेपर वरुणने कहा—‘अब इस यज्ञपशुके दाँत गिर गये, मेरा यज्ञ करो।’ हरिश्चन्द्रने कहा—‘जब इसके दुबारा दाँत आ जायँगे, तब यह पशु यज्ञके योग्य हो जायगा’॥ १३॥
श्लोक-१४
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुनर्जाता यजस्वेति स प्रत्याहाथ सोऽब्रवीत्।
सान्नाहिको यदा राजन् राजन्योऽथ पशुः शुचिः॥
मूलम्
पुनर्जाता यजस्वेति स प्रत्याहाथ सोऽब्रवीत्।
सान्नाहिको यदा राजन् राजन्योऽथ पशुः शुचिः॥
अनुवाद (हिन्दी)
दाँतोंके फिर उग आनेपर वरुणने कहा—‘अब मेरा यज्ञ करो।’ हरिश्चन्द्रने कहा—‘वरुणजी महाराज! क्षत्रियपशु तब यज्ञके योग्य होता है जब वह कवच धारण करने लगे’॥ १४॥
श्लोक-१५
विश्वास-प्रस्तुतिः
इति पुत्रानुरागेण स्नेहयन्त्रितचेतसा।
कालं वञ्चयता तं तमुक्तो देवस्तमैक्षत॥
मूलम्
इति पुत्रानुरागेण स्नेहयन्त्रितचेतसा।
कालं वञ्चयता तं तमुक्तो देवस्तमैक्षत॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! इस प्रकार राजा हरिश्चन्द्र पुत्रके प्रेमसे हीला-हवाला करके समय टालते रहे। इसका कारण यह था कि पुत्र-स्नेहकी फाँसीने उनके हृदयको जकड़ लिया था। वे जो-जो समय बताते वरुणदेवता उसीकी बाट देखते॥ १५॥
श्लोक-१६
विश्वास-प्रस्तुतिः
रोहितस्तदभिज्ञाय पितुः कर्म चिकीर्षितम्।
प्राणप्रेप्सुर्धनुष्पाणिररण्यं प्रत्यपद्यत॥
मूलम्
रोहितस्तदभिज्ञाय पितुः कर्म चिकीर्षितम्।
प्राणप्रेप्सुर्धनुष्पाणिररण्यं प्रत्यपद्यत॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब रोहितको इस बातका पता चला कि पिताजी तो मेरा बलिदान करना चाहते हैं, तब वह अपने प्राणोंकी रक्षाके लिये हाथमें धनुष लेकर वनमें चला गया॥ १६॥
श्लोक-१७
विश्वास-प्रस्तुतिः
पितरं वरुणग्रस्तं श्रुत्वा जातमहोदरम्।
रोहितो ग्राममेयाय तमिन्द्रः प्रत्यषेधत॥
मूलम्
पितरं वरुणग्रस्तं श्रुत्वा जातमहोदरम्।
रोहितो ग्राममेयाय तमिन्द्रः प्रत्यषेधत॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुछ दिनके बाद उसे मालूम हुआ कि वरुणदेवताने रुष्ट होकर मेरे पिताजीपर आक्रमण किया है—जिसके कारण वे महोदर रोगसे पीड़ित हो रहे हैं, तब रोहित अपने नगरकी ओर चल पड़ा। परन्तु इन्द्रने आकर उसे रोक दिया॥ १७॥
श्लोक-१८
विश्वास-प्रस्तुतिः
भूमेः पर्यटनं पुण्यं तीर्थक्षेत्रनिषेवणैः।
रोहितायादिशच्छक्रः सोऽप्यरण्येऽवसत् समाम्॥
मूलम्
भूमेः पर्यटनं पुण्यं तीर्थक्षेत्रनिषेवणैः।
रोहितायादिशच्छक्रः सोऽप्यरण्येऽवसत् समाम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन्होंने कहा—‘बेटा रोहित! यज्ञपशु बनकर मरनेकी अपेक्षा तो पवित्र तीर्थ और क्षेत्रोंका सेवन करते हुए पृथ्वीमें विचरना ही अच्छा है।’ इन्द्रकी बात मानकर वह एक वर्षतक और वनमें ही रहा॥ १८॥
श्लोक-१९
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं द्वितीये तृतीये चतुर्थे पञ्चमे तथा।
अभ्येत्याभ्येत्य स्थविरो विप्रो भूत्वाऽऽह वृत्रहा॥
मूलम्
एवं द्वितीये तृतीये चतुर्थे पञ्चमे तथा।
अभ्येत्याभ्येत्य स्थविरो विप्रो भूत्वाऽऽह वृत्रहा॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसी प्रकार दूसरे, तीसरे, चौथे और पाँचवें वर्ष भी रोहितने अपने पिताके पास जानेका विचार किया; परन्तु बूढ़े ब्राह्मणका वेश धारण कर हर बार इन्द्र आते और उसे रोक देते॥ १९॥
श्लोक-२०
विश्वास-प्रस्तुतिः
षष्ठं संवत्सरं तत्र चरित्वा रोहितः पुरीम्।
उपव्रजन्नजीगर्तादक्रीणान्मध्यमं सुतम्॥
मूलम्
षष्ठं संवत्सरं तत्र चरित्वा रोहितः पुरीम्।
उपव्रजन्नजीगर्तादक्रीणान्मध्यमं सुतम्॥
श्लोक-२१
विश्वास-प्रस्तुतिः
शुनःशेपं पशुं पित्रे प्रदाय समवन्दत।
ततः पुरुषमेधेन हरिश्चन्द्रो महायशाः॥
मूलम्
शुनःशेपं पशुं पित्रे प्रदाय समवन्दत।
ततः पुरुषमेधेन हरिश्चन्द्रो महायशाः॥
श्लोक-२२
विश्वास-प्रस्तुतिः
मुक्तोदरोऽयजद् देवान् वरुणादीन् महत्कथः।
विश्वामित्रोऽभवत् तस्मिन् होता चाध्वर्युरात्मवान्॥
मूलम्
मुक्तोदरोऽयजद् देवान् वरुणादीन् महत्कथः।
विश्वामित्रोऽभवत् तस्मिन् होता चाध्वर्युरात्मवान्॥
श्लोक-२३
विश्वास-प्रस्तुतिः
जमदग्निरभूद् ब्रह्मा वसिष्ठोऽयास्यसामगः।
तस्मै तुष्टो ददाविन्द्रः शातकौम्भमयं रथम्॥
मूलम्
जमदग्निरभूद् ब्रह्मा वसिष्ठोऽयास्यसामगः।
तस्मै तुष्टो ददाविन्द्रः शातकौम्भमयं रथम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार छः वर्षतक रोहित वनमें ही रहा। सातवें वर्ष जब वह अपने नगरको लौटने लगा, तब उसने अजीगर्तसे उनके मझले पुत्र शुनःशेपको मोल ले लिया और उसे यज्ञपशु बनानेके लिये अपने पिताको सौंपकर उनके चरणोंमें नमस्कार किया। तब परम यशस्वी एवं श्रेष्ठ चरित्रवाले राजा हरिश्चन्द्रने महोदर रोगसे छूटकर पुरुषमेध यज्ञद्वारा वरुण आदि देवताओंका यजन किया। उस यज्ञमें विश्वामित्रजी होता हुए। परम संयमी जमदग्निने अध्वर्युका काम किया। वसिष्ठजी ब्रह्मा बने और अयास्य मुनि सामगान करनेवाले उद्गाता बने। उस समय इन्द्रने प्रसन्न होकर हरिश्चन्द्रको एक सोनेका रथ दिया था॥ २०—२३॥
श्लोक-२४
विश्वास-प्रस्तुतिः
शुनःशेपस्य माहात्म्यमुपरिष्टात् प्रचक्ष्यते।
सत्यसारां धृतिं दृष्ट्वा सभार्यस्य च भूपतेः॥
मूलम्
शुनःशेपस्य माहात्म्यमुपरिष्टात् प्रचक्ष्यते।
सत्यसारां धृतिं दृष्ट्वा सभार्यस्य च भूपतेः॥
श्लोक-२५
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वामित्रो भृशं प्रीतो ददावविहतां गतिम्।
मनः पृथिव्यां तामद्भिस्तेजसापोऽनिलेन तत्॥
मूलम्
विश्वामित्रो भृशं प्रीतो ददावविहतां गतिम्।
मनः पृथिव्यां तामद्भिस्तेजसापोऽनिलेन तत्॥
श्लोक-२६
विश्वास-प्रस्तुतिः
खे वायुं धारयंस्तच्च भूतादौ तं महात्मनि।
तस्मिञ्ज्ञानकलां ध्यात्वा तयाज्ञानं विनिर्दहन्॥
मूलम्
खे वायुं धारयंस्तच्च भूतादौ तं महात्मनि।
तस्मिञ्ज्ञानकलां ध्यात्वा तयाज्ञानं विनिर्दहन्॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! आगे चलकर मैं शुनःशेपका माहात्म्य वर्णन करूँगा। हरिश्चन्द्रको अपनी पत्नीके साथ सत्यमें दृढ़तापूर्वक स्थित देखकर विश्वामित्रजी बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने उन्हें उस ज्ञानका उपदेश किया जिसका कभी नाश नहीं होता। उसके अनुसार राजा हरिश्चन्द्रने अपने मनको पृथ्वीमें, पृथ्वीको जलमें, जलको तेजमें, तेजको वायुमें और वायुको आकाशमें स्थिर करके, आकाशको अहंकारमें लीन कर दिया। फिर अहंकारको महत्तत्त्वमें लीन करके उसमें ज्ञान-कलाका ध्यान किया और उससे अज्ञानको भस्म कर दिया॥ २४—२६॥
श्लोक-२७
विश्वास-प्रस्तुतिः
हित्वा तां स्वेन भावेन निर्वाणसुखसंविदा।
अनिर्देश्याप्रतर्क्येण तस्थौ विध्वस्तबन्धनः॥
मूलम्
हित्वा तां स्वेन भावेन निर्वाणसुखसंविदा।
अनिर्देश्याप्रतर्क्येण तस्थौ विध्वस्तबन्धनः॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसके बाद निर्वाण-सुखकी अनुभूतिसे उस ज्ञान-कलाका भी परित्याग कर दिया और समस्त बन्धनोंसे मुक्त होकर वे अपने उस स्वरूपमें स्थित हो गये, जो न तो किसी प्रकार बतलाया जा सकता है और न उसके सम्बन्धमें किसी प्रकारका अनुमान ही किया जा सकता है॥ २७॥
अनुवाद (समाप्ति)
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां नवमस्कन्धे हरिश्चन्द्रोपाख्यानं नाम सप्तमोऽध्यायः॥ ७॥