[षष्ठोऽध्यायः]
भागसूचना
इक्ष्वाकुके वंशका वर्णन, मान्धाता और सौभरि ऋषिकी कथा
श्लोक-१
मूलम् (वचनम्)
श्रीशुक उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
विरूपः केतुमाञ्छम्भुरम्बरीषसुतास्त्रयः।
विरूपात् पृषदश्वोऽभूत् तत्पुत्रस्तु रथीतरः॥
मूलम्
विरूपः केतुमाञ्छम्भुरम्बरीषसुतास्त्रयः।
विरूपात् पृषदश्वोऽभूत् तत्पुत्रस्तु रथीतरः॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! अम्बरीषके तीन पुत्र थे—विरूप, केतुमान् और शम्भु। विरूपसे पृषदश्व और उसका पुत्र रथीतर हुआ॥ १॥
श्लोक-२
विश्वास-प्रस्तुतिः
रथीतरस्याप्रजस्य भार्यायां तन्तवेऽर्थितः।
अङ्गिरा जनयामास ब्रह्मवर्चस्विनः सुतान्॥
मूलम्
रथीतरस्याप्रजस्य भार्यायां तन्तवेऽर्थितः।
अङ्गिरा जनयामास ब्रह्मवर्चस्विनः सुतान्॥
अनुवाद (हिन्दी)
रथीतर सन्तानहीन था। वंश परम्पराकी रक्षाके लिये उसने अंगिरा ऋषिसे प्रार्थना की, उन्होंने उसकी पत्नीसे ब्रह्मतेजसे सम्पन्न कई पुत्र उत्पन्न किये॥ २॥
श्लोक-३
विश्वास-प्रस्तुतिः
एते क्षेत्रे प्रसूता वै पुनस्त्वाङ्गिरसाः स्मृताः।
रथीतराणां प्रवराः क्षत्रोपेता द्विजातयः॥
मूलम्
एते क्षेत्रे प्रसूता वै पुनस्त्वाङ्गिरसाः स्मृताः।
रथीतराणां प्रवराः क्षत्रोपेता द्विजातयः॥
अनुवाद (हिन्दी)
यद्यपि ये सब रथीतरकी भार्यासे उत्पन्न हुए थे, इसलिये इनका गोत्र वही होना चाहिये था जो रथीतरका था, फिर भी वे आंगिरस ही कहलाये। ये ही रथीतर-वंशियोंके प्रवर (कुलमें सर्वश्रेष्ठ पुरुष) कहलाये। क्योंकि ये क्षत्रोपेत ब्राह्मण थे—क्षत्रिय और ब्राह्मण दोनों गोत्रोंसे इनका सम्बन्ध था॥ ३॥
श्लोक-४
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्षुवतस्तु मनोर्जज्ञे इक्ष्वाकुर्घ्राणतः सुतः।
तस्य पुत्रशतज्येष्ठा विकुक्षिनिमिदण्डकाः॥
मूलम्
क्षुवतस्तु मनोर्जज्ञे इक्ष्वाकुर्घ्राणतः सुतः।
तस्य पुत्रशतज्येष्ठा विकुक्षिनिमिदण्डकाः॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! एक बार मनुजीके छींकनेपर उनकी नासिकासे इक्ष्वाकु नामका पुत्र उत्पन्न हुआ। इक्ष्वाकुके सौ पुत्र थे। उनमें सबसे बड़े तीन थे—विकुक्षि, निमि और दण्डक॥ ४॥
श्लोक-५
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेषां पुरस्तादभवन्नार्यावर्ते नृपा नृप।
पञ्चविंशतिः पश्चाच्च त्रयो मध्ये परेऽन्यतः॥
मूलम्
तेषां पुरस्तादभवन्नार्यावर्ते नृपा नृप।
पञ्चविंशतिः पश्चाच्च त्रयो मध्ये परेऽन्यतः॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! उनसे छोटे पचीस पुत्र आर्यावर्तके पूर्वभागके और पचीस पश्चिमभागके तथा उपर्युक्त तीन मध्यभागके अधिपति हुए। शेष सैंतालीस दक्षिण आदि अन्य प्रान्तोंके अधिपति हुए॥ ५॥
श्लोक-६
विश्वास-प्रस्तुतिः
स एकदाष्टकाश्राद्धे इक्ष्वाकुः सुतमादिशत्।
मांसमानीयतां मेध्यं विकुक्षे गच्छ माचिरम्॥
मूलम्
स एकदाष्टकाश्राद्धे इक्ष्वाकुः सुतमादिशत्।
मांसमानीयतां मेध्यं विकुक्षे गच्छ माचिरम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
एक बार राजा इक्ष्वाकुने अष्टका-श्राद्धके समय अपने बड़े पुत्रको आज्ञा दी—‘विकुक्षे! शीघ्र ही जाकर श्राद्धके योग्य पवित्र पशुओंका मांस लाओ’॥ ६॥
श्लोक-७
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथेति स वनं गत्वा मृगान् हत्वा क्रियार्हणान्।
श्रान्तो बुभुक्षितो वीरः शशं चाददपस्मृतिः॥
मूलम्
तथेति स वनं गत्वा मृगान् हत्वा क्रियार्हणान्।
श्रान्तो बुभुक्षितो वीरः शशं चाददपस्मृतिः॥
अनुवाद (हिन्दी)
वीर विकुक्षिने ‘बहुत अच्छा’ कहकर वनकी यात्रा की। वहाँ उसने श्राद्धके योग्य बहुत-से पशुओंका शिकार किया। वह थक तो गया ही था, भूख भी लग आयी थी; इसलिये यह बात भूल गया कि श्राद्धके लिये मारे हुए पशुको स्वयं न खाना चाहिये। उसने एक खरगोश खा लिया॥ ७॥
श्लोक-८
विश्वास-प्रस्तुतिः
शेषं निवेदयामास पित्रे तेन च तद्गुरुः।
चोदितः प्रोक्षणायाह दुष्टमेतदकर्मकम्॥
मूलम्
शेषं निवेदयामास पित्रे तेन च तद्गुरुः।
चोदितः प्रोक्षणायाह दुष्टमेतदकर्मकम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
विकुक्षिने बचा हुआ मांस लाकर अपने पिताको दिया। इक्ष्वाकुने अब अपने गुरुसे उसे प्रोक्षण करनेके लिये कहा, तब गुरुजीने बताया कि यह मांस तो दूषित एवं श्राद्धके अयोग्य है॥ ८॥
श्लोक-९
विश्वास-प्रस्तुतिः
ज्ञात्वा पुत्रस्य तत् कर्म गुरुणाभिहितं नृपः।
देशान्निःसारयामास सुतं त्यक्तविधिं रुषा॥
मूलम्
ज्ञात्वा पुत्रस्य तत् कर्म गुरुणाभिहितं नृपः।
देशान्निःसारयामास सुतं त्यक्तविधिं रुषा॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! गुरुजीके कहनेपर राजा इक्ष्वाकुको अपने पुत्रकी करतूतका पता चल गया। उन्होंने शास्त्रीय विधिका उल्लंघन करनेवाले पुत्रको क्रोधवश अपने देशसे निकाल दिया॥ ९॥
श्लोक-१०
विश्वास-प्रस्तुतिः
स तु विप्रेण संवादं जापकेन समाचरन्।
त्यक्त्वा कलेवरं योगी स तेनावाप यत् परम्॥
मूलम्
स तु विप्रेण संवादं जापकेन समाचरन्।
त्यक्त्वा कलेवरं योगी स तेनावाप यत् परम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर राजा इक्ष्वाकुने अपने गुरुदेव वसिष्ठसे ज्ञानविषयक चर्चा की। फिर योगके द्वारा शरीरका परित्याग करके उन्होंने परमपद प्राप्त किया॥ १०॥
श्लोक-११
विश्वास-प्रस्तुतिः
पितर्युपरतेऽभ्येत्य विकुक्षिः पृथिवीमिमाम्।
शासदीजे हरिं यज्ञैः शशाद इति विश्रुतः॥
मूलम्
पितर्युपरतेऽभ्येत्य विकुक्षिः पृथिवीमिमाम्।
शासदीजे हरिं यज्ञैः शशाद इति विश्रुतः॥
अनुवाद (हिन्दी)
पिताका देहान्त हो जानेपर विकुक्षि अपनी राजधानीमें लौट आया और इस पृथ्वीका शासन करने लगा। उसने बड़े-बड़े यज्ञोंसे भगवान्की आराधना की और संसारमें शशादके नामसे प्रसिद्ध हुआ॥ ११॥
श्लोक-१२
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुरञ्जयस्तस्य सुत इन्द्रवाह इतीरितः।
ककुत्स्थ इति चाप्युक्तः शृणु नामानि कर्मभिः॥
मूलम्
पुरञ्जयस्तस्य सुत इन्द्रवाह इतीरितः।
ककुत्स्थ इति चाप्युक्तः शृणु नामानि कर्मभिः॥
अनुवाद (हिन्दी)
विकुक्षिके पुत्रका नाम था पुरंजय। उसीको कोई ‘इन्द्रवाह’ और कोई ‘ककुत्स्थ’ कहते हैं। जिन कर्मोंके कारण उसके ये नाम पड़े थे, उन्हें सुनो॥ १२॥
श्लोक-१३
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृतान्त आसीत् समरो देवानां सह दानवैः।
पार्ष्णिग्राहो वृतो वीरो देवैर्दैत्यपराजितैः॥
मूलम्
कृतान्त आसीत् समरो देवानां सह दानवैः।
पार्ष्णिग्राहो वृतो वीरो देवैर्दैत्यपराजितैः॥
अनुवाद (हिन्दी)
सत्ययुगके अन्तमें देवताओंका दानवोंके साथ घोर संग्राम हुआ था। उसमें सब-के-सब देवता दैत्योंसे हार गये। तब उन्होंने वीर पुरंजयको सहायताके लिये अपना मित्र बनाया॥ १३॥
श्लोक-१४
विश्वास-प्रस्तुतिः
वचनाद् देवदेवस्य विष्णोर्विश्वात्मनः प्रभोः।
वाहनत्वे वृतस्तस्य बभूवेन्द्रो महावृषः॥
मूलम्
वचनाद् देवदेवस्य विष्णोर्विश्वात्मनः प्रभोः।
वाहनत्वे वृतस्तस्य बभूवेन्द्रो महावृषः॥
अनुवाद (हिन्दी)
पुरंजयने कहा कि ‘यदि देवराज इन्द्र मेरे वाहन बनें तो मैं युद्ध कर सकता हूँ।’ पहले तो इन्द्रने अस्वीकार कर दिया, परन्तु देवताओंके आराध्यदेव सर्वशक्तिमान् विश्वात्मा भगवान्की बात मानकर पीछे वे एक बड़े भारी बैल बन गये॥ १४॥
श्लोक-१५
विश्वास-प्रस्तुतिः
स संनद्धो धनुर्दिव्यमादाय विशिखाञ्छितान्।
स्तूयमानः समारुह्य युयुत्सुः ककुदि स्थितः॥
मूलम्
स संनद्धो धनुर्दिव्यमादाय विशिखाञ्छितान्।
स्तूयमानः समारुह्य युयुत्सुः ककुदि स्थितः॥
श्लोक-१६
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेजसाऽऽप्यायितो विष्णोः पुरुषस्य परात्मनः।
प्रतीच्यां दिशि दैत्यानां न्यरुणत् त्रिदशैः पुरम्॥
मूलम्
तेजसाऽऽप्यायितो विष्णोः पुरुषस्य परात्मनः।
प्रतीच्यां दिशि दैत्यानां न्यरुणत् त्रिदशैः पुरम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
सर्वान्तर्यामी भगवान् विष्णुने अपनी शक्तिसे पुरंजयको भर दिया। उन्होंने कवच पहनकर दिव्य धनुष और तीखे बाण ग्रहण किये। इसके बाद बैलपर चढ़कर वे उसके ककुद् (डील)-के पास बैठ गये। जब इस प्रकार वे युद्धके लिये तत्पर हुए तब देवता उनकी स्तुति करने लगे। देवताओंको साथ लेकर उन्होंने पश्चिमकी ओरसे दैत्योंका नगर घेर लिया॥ १५-१६॥
श्लोक-१७
विश्वास-प्रस्तुतिः
तैस्तस्य चाभूत् प्रधनं तुमुलं लोमहर्षणम्।
यमाय भल्लैरनयद् दैत्यान् येऽभिययुर्मृधे॥
मूलम्
तैस्तस्य चाभूत् प्रधनं तुमुलं लोमहर्षणम्।
यमाय भल्लैरनयद् दैत्यान् येऽभिययुर्मृधे॥
अनुवाद (हिन्दी)
वीर पुरंजयका दैत्योंके साथ अत्यन्त रोमांचकारी घोर संग्राम हुआ। युद्धमें जो-जो दैत्य उनके सामने आये पुरंजयने बाणोंके द्वारा उन्हें यमराजके हवाले कर दिया॥ १७॥
श्लोक-१८
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्येषुपाताभिमुखं युगान्ताग्निमिवोल्बणम्।
विसृज्य दुद्रुवुर्दैत्या हन्यमानाः स्वमालयम्॥
मूलम्
तस्येषुपाताभिमुखं युगान्ताग्निमिवोल्बणम्।
विसृज्य दुद्रुवुर्दैत्या हन्यमानाः स्वमालयम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनके बाणोंकी वर्षा क्या थी, प्रलयकालकी धधकती हुई आग थी। जो भी उसके सामने आता, छिन्न-भिन्न हो जाता। दैत्योंका साहस जाता रहा। वे रणभूमि छोड़कर अपने-अपने घरोंमें घुस गये॥ १८॥
श्लोक-१९
विश्वास-प्रस्तुतिः
जित्वा पुरं धनं सर्वं सश्रीकं वज्रपाणये।
प्रत्ययच्छत् स राजर्षिरिति नामभिराहृतः॥
मूलम्
जित्वा पुरं धनं सर्वं सश्रीकं वज्रपाणये।
प्रत्ययच्छत् स राजर्षिरिति नामभिराहृतः॥
अनुवाद (हिन्दी)
पुरंजयने उनका नगर, धन और ऐश्वर्य—सब कुछ जीतकर इन्द्रको दे दिया। इसीसे उन राजर्षिको पुर जीतनेके कारण ‘पुरंजय’, इन्द्रको वाहन बनानेके कारण ‘इन्द्रवाह’ और बैलके ककुद्पर बैठनेके कारण ‘ककुत्स्थ’ कहा जाता है॥ १९॥
श्लोक-२०
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुरञ्जयस्य पुत्रोऽभूदनेनास्तत्सुतः पृथुः।
विश्वरन्धिस्ततश्चन्द्रो युवनाश्वश्च तत्सुतः॥
मूलम्
पुरञ्जयस्य पुत्रोऽभूदनेनास्तत्सुतः पृथुः।
विश्वरन्धिस्ततश्चन्द्रो युवनाश्वश्च तत्सुतः॥
अनुवाद (हिन्दी)
पुरंजयका पुत्र था अनेना। उसका पुत्र पृथु हुआ। पृथुके विश्वरन्धि, उसके चन्द्र और चन्द्रके युवनाश्व॥ २०॥
श्लोक-२१
विश्वास-प्रस्तुतिः
शाबस्तस्तत्सुतो येन शाबस्ती निर्ममे पुरी।
बृहदश्वस्तु शाबस्तिस्ततः कुवलयाश्वकः॥
मूलम्
शाबस्तस्तत्सुतो येन शाबस्ती निर्ममे पुरी।
बृहदश्वस्तु शाबस्तिस्ततः कुवलयाश्वकः॥
अनुवाद (हिन्दी)
युवनाश्वके पुत्र हुए शाबस्त, जिन्होंने शाबस्तीपुरी बसायी। शाबस्तके बृहदश्व और उसके कुवलयाश्व हुए॥ २१॥
श्लोक-२२
विश्वास-प्रस्तुतिः
यः प्रियार्थमुतङ्कस्य धुन्धुनामासुरं बली।
सुतानामेकविंशत्या सहस्रैरहनद् वृतः॥
मूलम्
यः प्रियार्थमुतङ्कस्य धुन्धुनामासुरं बली।
सुतानामेकविंशत्या सहस्रैरहनद् वृतः॥
अनुवाद (हिन्दी)
ये बड़े बली थे। इन्होंने उतंक ऋषिको प्रसन्न करनेके लिये अपने इक्कीस हजार पुत्रोंको साथ लेकर धुन्धु नामक दैत्यका वध किया॥ २२॥
श्लोक-२३
विश्वास-प्रस्तुतिः
धुन्धुमार इति ख्यातस्तत्सुतास्ते च जज्वलुः।
धुन्धोर्मुखाग्निना सर्वे त्रय एवावशेषिताः॥
मूलम्
धुन्धुमार इति ख्यातस्तत्सुतास्ते च जज्वलुः।
धुन्धोर्मुखाग्निना सर्वे त्रय एवावशेषिताः॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसीसे उनका नाम हुआ ‘धुन्धुमार’। धुन्धु दैत्यके मुखकी आगसे उनके सब पुत्र जल गये। केवल तीन ही बच रहे थे॥ २३॥
श्लोक-२४
विश्वास-प्रस्तुतिः
दृढाश्वः कपिलाश्वश्च भद्राश्व इति भारत।
दृढाश्वपुत्रो हर्यश्वो निकुम्भस्तत्सुतः स्मृतः॥
मूलम्
दृढाश्वः कपिलाश्वश्च भद्राश्व इति भारत।
दृढाश्वपुत्रो हर्यश्वो निकुम्भस्तत्सुतः स्मृतः॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! बचे हुए पुत्रोंके नाम थे—दृढाश्व, कपिलाश्व और भद्राश्व। दृढाश्वसे हर्यश्व और उससे निकुम्भका जन्म हुआ॥ २४॥
श्लोक-२५
विश्वास-प्रस्तुतिः
बर्हणाश्वो निकुम्भस्य कृशाश्वोऽथास्य सेनजित्।
युवनाश्वोऽभवत् तस्य सोऽनपत्यो वनं गतः॥
मूलम्
बर्हणाश्वो निकुम्भस्य कृशाश्वोऽथास्य सेनजित्।
युवनाश्वोऽभवत् तस्य सोऽनपत्यो वनं गतः॥
श्लोक-२६
विश्वास-प्रस्तुतिः
भार्याशतेन निर्विण्ण ऋषयोऽस्य कृपालवः।
इष्टिं स्म वर्तयाञ्चक्रुरैन्द्रीं ते सुसमाहिताः॥
मूलम्
भार्याशतेन निर्विण्ण ऋषयोऽस्य कृपालवः।
इष्टिं स्म वर्तयाञ्चक्रुरैन्द्रीं ते सुसमाहिताः॥
अनुवाद (हिन्दी)
निकुम्भके बर्हणाश्व, उसके कृशाश्व, कृशाश्वके सेनजित् और सेनजित् के युवनाश्वनामक पुत्र हुआ। युवनाश्व सन्तानहीन था, इसलिये वह बहुत दुःखी होकर अपनी सौ स्त्रियोंके साथ वनमें चला गया। वहाँ ऋषियोंने बड़ी कृपा करके युवनाश्वसे पुत्र-प्राप्तिके लिये बड़ी एकाग्रताके साथ इन्द्रदेवताका यज्ञ कराया॥ २५-२६॥
श्लोक-२७
विश्वास-प्रस्तुतिः
राजा तद् यज्ञसदनं प्रविष्टो निशि तर्षितः।
दृष्ट्वा शयानान् विप्रांस्तान् पपौ मन्त्रजलं स्वयम्॥
मूलम्
राजा तद् यज्ञसदनं प्रविष्टो निशि तर्षितः।
दृष्ट्वा शयानान् विप्रांस्तान् पपौ मन्त्रजलं स्वयम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
एक दिन राजा युवनाश्वको रात्रिके समय बड़ी प्यास लगी। वह यज्ञशालामें गया, किन्तु वहाँ देखा कि ऋषिलोग तो सो रहे हैं। तब जल मिलनेका और कोई उपाय न देख उसने वह मन्त्रसे अभिमन्त्रित जल ही पी लिया॥ २७॥
श्लोक-२८
विश्वास-प्रस्तुतिः
उत्थितास्ते निशाम्याथ व्युदकं कलशं प्रभो।
पप्रच्छुः कस्य कर्मेदं पीतं पुंसवनं जलम्॥
मूलम्
उत्थितास्ते निशाम्याथ व्युदकं कलशं प्रभो।
पप्रच्छुः कस्य कर्मेदं पीतं पुंसवनं जलम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! जब प्रातःकाल ऋषिलोग सोकर उठे और उन्होंने देखा कि कलशमें तो जल ही नहीं है, तब उन लोगोंने पूछा कि ‘यह किसका काम है? पुत्र उत्पन्न करनेवाला जल किसने पी लिया?’॥ २८॥
श्लोक-२९
विश्वास-प्रस्तुतिः
राज्ञा पीतं विदित्वाथ ईश्वरप्रहितेन ते।
ईश्वराय नमश्चक्रुरहो दैवबलं बलम्॥
मूलम्
राज्ञा पीतं विदित्वाथ ईश्वरप्रहितेन ते।
ईश्वराय नमश्चक्रुरहो दैवबलं बलम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
अन्तमें जब उन्हें यह मालूम हुआ कि भगवान्की प्रेरणासे राजा युवनाश्वने ही उस जलको पी लिया है तो उन लोगोंने भगवान्के चरणोंमें नमस्कार किया और कहा—‘धन्य है! भगवान्का बल ही वास्तवमें बल है’॥ २९॥
श्लोक-३०
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः काल उपावृत्ते कुक्षिं निर्भिद्य दक्षिणम्।
युवनाश्वस्य तनयश्चक्रवर्ती जजान ह॥
मूलम्
ततः काल उपावृत्ते कुक्षिं निर्भिद्य दक्षिणम्।
युवनाश्वस्य तनयश्चक्रवर्ती जजान ह॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसके बाद प्रसवका समय आनेपर युवनाश्वकी दाहिनी कोख फाड़कर उसके एक चक्रवर्ती पुत्र उत्पन्न हुआ॥ ३०॥
श्लोक-३१
विश्वास-प्रस्तुतिः
कं धास्यति कुमारोऽयं स्तन्यं रोरूयते भृशम्।
मां धाता वत्स मा रोदीरितीन्द्रो देशिनीमदात्॥
मूलम्
कं धास्यति कुमारोऽयं स्तन्यं रोरूयते भृशम्।
मां धाता वत्स मा रोदीरितीन्द्रो देशिनीमदात्॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसे रोते देख ऋषियोंने कहा—‘यह बालक दूधके लिये बहुत रो रहा है; अतः किसका दूध पियेगा?’ तब इन्द्रने कहा, ‘मेरा पियेगा’ ‘(मां धाता)’ ‘बेटा! तू रो मत।’ यह कहकर इन्द्रने अपनी तर्जनी अँगुली उसके मुँहमें डाल दी॥ ३१॥
श्लोक-३२
विश्वास-प्रस्तुतिः
न ममार पिता तस्य विप्रदेवप्रसादतः।
युवनाश्वोऽथ तत्रैव तपसा सिद्धिमन्वगात्॥
मूलम्
न ममार पिता तस्य विप्रदेवप्रसादतः।
युवनाश्वोऽथ तत्रैव तपसा सिद्धिमन्वगात्॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्राह्मण और देवताओंके प्रसादसे उस बालकके पिता युवनाश्वकी भी मृत्यु नहीं हुई। वह वहीं तपस्या करके मुक्त हो गया॥ ३२॥
श्लोक-३३
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्रसद्दस्युरितीन्द्रोऽङ्ग विदधे नाम तस्य वै।
यस्मात् त्रसन्ति ह्युद्विग्ना दस्यवो रावणादयः॥
मूलम्
त्रसद्दस्युरितीन्द्रोऽङ्ग विदधे नाम तस्य वै।
यस्मात् त्रसन्ति ह्युद्विग्ना दस्यवो रावणादयः॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! इन्द्रने उस बालकका नाम रखा त्रसद्दस्यु, क्योंकि रावण आदि दस्यु (लुटेरे) उससे उद्विग्न एवं भयभीत रहते थे॥ ३३॥
श्लोक-३४
विश्वास-प्रस्तुतिः
यौवनाश्वोऽथ मान्धाता चक्रवर्त्यवनीं प्रभुः।
सप्तद्वीपवतीमेकः शशासाच्युततेजसा॥
मूलम्
यौवनाश्वोऽथ मान्धाता चक्रवर्त्यवनीं प्रभुः।
सप्तद्वीपवतीमेकः शशासाच्युततेजसा॥
अनुवाद (हिन्दी)
युवनाश्वके पुत्र मान्धाता (त्रसद्दस्यु) चक्रवर्ती राजा हुए। भगवान्के तेजसे तेजस्वी होकर उन्होंने अकेले ही सातों द्वीपवाली पृथ्वीका शासन किया॥ ३४॥
श्लोक-३५
विश्वास-प्रस्तुतिः
ईजे च यज्ञं क्रतुभिरात्मविद् भूरिदक्षिणैः।
सर्वदेवमयं देवं सर्वात्मकमतीन्द्रियम्॥
मूलम्
ईजे च यज्ञं क्रतुभिरात्मविद् भूरिदक्षिणैः।
सर्वदेवमयं देवं सर्वात्मकमतीन्द्रियम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे यद्यपि आत्मज्ञानी थे, उन्हें कर्मकाण्डकी कोई विशेष आवश्यकता नहीं थी—फिर भी उन्होंने बड़ी-बड़ी दक्षिणावाले यज्ञोंसे उन यज्ञस्वरूप प्रभुकी आराधना की जो स्वयंप्रकाश, सर्वदेवस्वरूप, सर्वात्मा एवं इन्द्रियातीत हैं॥ ३५॥
श्लोक-३६
विश्वास-प्रस्तुतिः
द्रव्यं मन्त्रो विधिर्यज्ञो यजमानस्तथर्त्विजः।
धर्मो देशश्च कालश्च सर्वमेतद् यदात्मकम्॥
मूलम्
द्रव्यं मन्त्रो विधिर्यज्ञो यजमानस्तथर्त्विजः।
धर्मो देशश्च कालश्च सर्वमेतद् यदात्मकम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान्के अतिरिक्त और है ही क्या? यज्ञकी सामग्री, मन्त्र, विधि-विधान, यज्ञ, यजमान, ऋत्विज्, धर्म, देश और काल—यह सब-का-सब भगवान्का ही स्वरूप तो है॥ ३६॥
श्लोक-३७
विश्वास-प्रस्तुतिः
यावत् सूर्य उदेति स्म यावच्च प्रतितिष्ठति।
सर्वं तद् यौवनाश्वस्य मान्धातुः क्षेत्रमुच्यते॥
मूलम्
यावत् सूर्य उदेति स्म यावच्च प्रतितिष्ठति।
सर्वं तद् यौवनाश्वस्य मान्धातुः क्षेत्रमुच्यते॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! जहाँसे सूर्यका उदय होता है और जहाँ वे अस्त होते हैं, वह सारा-का-सारा भूभाग युवनाश्वके पुत्र मान्धाताके ही अधिकारमें था॥ ३७॥
श्लोक-३८
विश्वास-प्रस्तुतिः
शशबिन्दोर्दुहितरि बिन्दुमत्यामधान्नृपः।
पुरुकुत्समम्बरीषं मुचुकुन्दं च योगिनम्।
तेषां स्वसारः पञ्चाशत् सौ भरिं वव्रिरे पतिम्॥
मूलम्
शशबिन्दोर्दुहितरि बिन्दुमत्यामधान्नृपः।
पुरुकुत्समम्बरीषं मुचुकुन्दं च योगिनम्।
तेषां स्वसारः पञ्चाशत् सौ भरिं वव्रिरे पतिम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजा मान्धाताकी पत्नी शशबिन्दुकी पुत्री बिन्दुमती थी। उसके गर्भसे उनके तीन पुत्र हुए—पुरुकुत्स, अम्बरीष (ये दूसरे अम्बरीष हैं) और योगी मुचुकुन्द। इनकी पचास बहनें थीं। उन पचासोंने अकेले सौभरि ऋषिको पतिके रूपमें वरण किया॥ ३८॥
श्लोक-३९
विश्वास-प्रस्तुतिः
यमुनान्तर्जले मग्नस्तप्यमानः परंतपः।
निर्वृतिं मीनराजस्य वीक्ष्य मैथुनधर्मिणः॥
मूलम्
यमुनान्तर्जले मग्नस्तप्यमानः परंतपः।
निर्वृतिं मीनराजस्य वीक्ष्य मैथुनधर्मिणः॥
अनुवाद (हिन्दी)
परम तपस्वी सौभरिजी एक बार यमुनाजलमें डुबकी लगाकर तपस्या कर रहे थे। वहाँ उन्होंने देखा कि एक मत्स्यराज अपनी पत्नियोंके साथ बहुत सुखी हो रहा है॥ ३९॥
श्लोक-४०
विश्वास-प्रस्तुतिः
जातस्पृहो नृपं विप्रः कन्यामेकामयाचत।
सोऽप्याह गृह्यतां ब्रह्मन् कामं कन्या स्वयंवरे॥
मूलम्
जातस्पृहो नृपं विप्रः कन्यामेकामयाचत।
सोऽप्याह गृह्यतां ब्रह्मन् कामं कन्या स्वयंवरे॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसके इस सुखको देखकर ब्राह्मण सौभरिके मनमें भी विवाह करनेकी इच्छा जग उठी और उन्होंने राजा मान्धाताके पास आकर उनकी पचास कन्याओंमेंसे एक कन्या माँगी। राजाने कहा—‘ब्रह्मन्! कन्यास्वयंवरमें आपको चुन ले तो आप उसे ले लीजिये’॥ ४०॥
श्लोक-४१
विश्वास-प्रस्तुतिः
स विचिन्त्याप्रियं स्त्रीणां जरठोऽयमसम्मतः।
वलीपलित एजत्क इत्यहं प्रत्युदाहृतः॥
मूलम्
स विचिन्त्याप्रियं स्त्रीणां जरठोऽयमसम्मतः।
वलीपलित एजत्क इत्यहं प्रत्युदाहृतः॥
अनुवाद (हिन्दी)
सौभरि ऋषि राजा मान्धाताका अभिप्राय समझ गये। उन्होंने सोचा कि ‘राजाने इसलिये मुझे ऐसा सूखा जवाब दिया है कि अब मैं बूढ़ा हो गया हूँ, शरीरमें झुर्रियाँ पड़ गयी हैं, बाल पक गये हैं और सिर काँपने लगा है! अब कोई स्त्री मुझसे प्रेम नहीं कर सकती॥ ४१॥
श्लोक-४२
विश्वास-प्रस्तुतिः
साधयिष्ये तथाऽऽत्मानं सुरस्त्रीणामपीप्सितम्।
किं पुनर्मनुजेन्द्राणामिति व्यवसितः प्रभुः॥
मूलम्
साधयिष्ये तथाऽऽत्मानं सुरस्त्रीणामपीप्सितम्।
किं पुनर्मनुजेन्द्राणामिति व्यवसितः प्रभुः॥
अनुवाद (हिन्दी)
अच्छी बात है! मैं अपनेको ऐसा सुन्दर बनाऊँगा कि राजकन्याएँ तो क्या, देवांगनाएँ भी मेरे लिये लालायित हो जायँगी।’ ऐसा सोचकर समर्थ सौभरिजीने वैसा ही किया॥ ४२॥
श्लोक-४३
विश्वास-प्रस्तुतिः
मुनिः प्रवेशितः क्षत्त्रा कन्यान्तःपुरमृद्धिमत्।
वृतश्च राजकन्याभिरेकः पञ्चाशता वरः॥
मूलम्
मुनिः प्रवेशितः क्षत्त्रा कन्यान्तःपुरमृद्धिमत्।
वृतश्च राजकन्याभिरेकः पञ्चाशता वरः॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर क्या था, अन्तःपुरके रक्षकने सौभरिमुनिको कन्याओंके सजे-सजाये महलमें पहुँचा दिया। फिर तो उन पचासों राजकन्याओंने एक सौभरिको ही अपना पति चुन लिया॥ ४३॥
श्लोक-४४
विश्वास-प्रस्तुतिः
तासां कलिरभूद् भूयांस्तदर्थेऽपोह्य सौहृदम्।
ममानुरूपो नायं व इति तद्गतचेतसाम्॥
मूलम्
तासां कलिरभूद् भूयांस्तदर्थेऽपोह्य सौहृदम्।
ममानुरूपो नायं व इति तद्गतचेतसाम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन कन्याओंका मन सौभरिजीमें इस प्रकार आसक्त हो गया कि वे उनके लिये आपसके प्रेमभावको तिलांजलि देकर परस्पर कलह करने लगीं और एक-दूसरीसे कहने लगी कि ‘ये तुम्हारे योग्य नहीं, मेरे योग्य हैं॥ ४४॥
श्लोक-४५
विश्वास-प्रस्तुतिः
स बह्वृचस्ताभिरपारणीय-
तपःश्रियानर्घ्यपरिच्छदेषु।
गृहेषु नानोपवनामलाम्भः
सरस्सु सौगन्धिककाननेषु॥
मूलम्
स बह्वृचस्ताभिरपारणीय-
तपःश्रियानर्घ्यपरिच्छदेषु।
गृहेषु नानोपवनामलाम्भः
सरस्सु सौगन्धिककाननेषु॥
श्लोक-४६
विश्वास-प्रस्तुतिः
महार्हशय्यासनवस्त्रभूषण-
स्नानानुलेपाभ्यवहारमाल्यकैः।
स्वलङ्कृतस्त्रीपुरुषेषु नित्यदा
रेमेऽनुगायद्द्विजभृङ्गवन्दिषु॥
मूलम्
महार्हशय्यासनवस्त्रभूषण-
स्नानानुलेपाभ्यवहारमाल्यकैः।
स्वलङ्कृतस्त्रीपुरुषेषु नित्यदा
रेमेऽनुगायद्द्विजभृङ्गवन्दिषु॥
अनुवाद (हिन्दी)
ऋग्वेदी सौभरिने उन सभीका पाणिग्रहण कर लिया। वे अपनी अपार तपस्याके प्रभावसे बहुमूल्य सामग्रियोंसे सुसज्जित, अनेकों उपवनों और निर्मल जलसे परिपूर्ण सरोवरोंसे युक्त एवं सौगन्धिक पुष्पोंके बगीचोंसे घिरे महलोंमें बहुमूल्य शय्या, आसन, वस्त्र, आभूषण, स्नान, अनुलेपन, सुस्वादु भोजन और पुष्पमालाओंके द्वारा अपनी पत्नियोंके साथ विहार करने लगे। सुन्दर-सुन्दर वस्त्राभूषण धारण किये स्त्री-पुरुष सर्वदा उनकी सेवामें लगे रहते। कहीं पक्षी चहकते रहते तो कहीं भौंरे गुंजार करते रहते और कहीं-कहीं वन्दीजन उनकी विरदावलीका बखान करते रहते॥ ४५-४६॥
श्लोक-४७
विश्वास-प्रस्तुतिः
यद्गार्हस्थ्यं तु संवीक्ष्य सप्तद्वीपवतीपतिः।
विस्मितः स्तम्भमजहात् सार्वभौमश्रियान्वितम्॥
मूलम्
यद्गार्हस्थ्यं तु संवीक्ष्य सप्तद्वीपवतीपतिः।
विस्मितः स्तम्भमजहात् सार्वभौमश्रियान्वितम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
सप्तद्वीपवती पृथ्वीके स्वामी मान्धाता सौभरिजीकी इस गृहस्थीका सुख देखकर आश्चर्यचकित हो गये। उनका यह गर्व कि मैं सार्वभौम सम्पत्तिका स्वामी हूँ, जाता रहा॥ ४७॥
श्लोक-४८
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं गृहेष्वभिरतो विषयान् विविधैः सुखैः।
सेवमानो न चातुष्यदाज्यस्तोकैरिवानलः॥
मूलम्
एवं गृहेष्वभिरतो विषयान् विविधैः सुखैः।
सेवमानो न चातुष्यदाज्यस्तोकैरिवानलः॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार सौभरिजी गृहस्थीके सुखमें रम गये और अपनी नीरोग इन्द्रियोंसे अनेकों विषयोंका सेवन करते रहे। फिर भी जैसे घीकी बूँदोंसे आग तृप्त नहीं होती, वैसे ही उन्हें सन्तोष नहीं हुआ॥ ४८॥
श्लोक-४९
विश्वास-प्रस्तुतिः
स कदाचिदुपासीन आत्मापह्नवमात्मनः।
ददर्श बह्वृचाचार्यो मीनसङ्गसमुत्थितम्॥
मूलम्
स कदाचिदुपासीन आत्मापह्नवमात्मनः।
ददर्श बह्वृचाचार्यो मीनसङ्गसमुत्थितम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
ऋग्वेदाचार्य सौभरिजी एक दिन स्वस्थ चित्तसे बैठे हुए थे। उस समय उन्होंने देखा कि मत्स्यराजके क्षणभरके संगसे मैं किस प्रकार अपनी तपस्या तथा अपना आपातक खो बैठा॥ ४९॥
श्लोक-५०
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहो इमं पश्यत मे विनाशं
तपस्विनः सच्चरितव्रतस्य।
अन्तर्जले वारिचरप्रसङ्गात्
प्रच्यावितं ब्रह्म चिरं धृतं यत्॥
मूलम्
अहो इमं पश्यत मे विनाशं
तपस्विनः सच्चरितव्रतस्य।
अन्तर्जले वारिचरप्रसङ्गात्
प्रच्यावितं ब्रह्म चिरं धृतं यत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे सोचने लगे—‘अरे, मैं तो बड़ा तपस्वी था। मैंने भलीभाँति अपने व्रतोंका अनुष्ठान भी किया था। मेरा यह अधःपतन तो देखो! मैंने दीर्घकालसे अपने ब्रह्मतेजको अक्षुण्ण रखा था, परन्तु जलके भीतर विहार करती हुई एक मछलीके संसर्गसे मेरा वह ब्रह्मतेज नष्ट हो गया॥ ५०॥
श्लोक-५१
विश्वास-प्रस्तुतिः
सङ्गं त्यजेत मिथुनव्रतिनां मुमुक्षुः
सर्वात्मना न विसृजेद् बहिरिन्द्रियाणि।
एकश्चरन् रहसि चित्तमनन्त ईशे
युञ्जीत तद्व्रतिषु साधुषु चेत् प्रसङ्गः॥
मूलम्
सङ्गं त्यजेत मिथुनव्रतिनां मुमुक्षुः
सर्वात्मना न विसृजेद् बहिरिन्द्रियाणि।
एकश्चरन् रहसि चित्तमनन्त ईशे
युञ्जीत तद्व्रतिषु साधुषु चेत् प्रसङ्गः॥
अनुवाद (हिन्दी)
अतः जिसे मोक्षकी इच्छा है, उस पुरुषको चाहिये कि वह भोगी प्राणियोंका संग सर्वथा छोड़ दे और एक क्षणके लिये भी अपनी इन्द्रियोंको बहिर्मुख न होने दे। अकेला ही रहे और एकान्तमें अपने चित्तको सर्वशक्तिमान् भगवान्में ही लगा दे। यदि संग करनेकी आवश्यकता ही हो तो भगवान्के अनन्यप्रेमी निष्ठावान् महात्माओंका ही संग करे॥ ५१॥
श्लोक-५२
विश्वास-प्रस्तुतिः
एकस्तपस्व्यहमथाम्भसि मत्स्यसङ्गात्
पञ्चाशदासमुत पञ्चसहस्रसर्गः।
नान्तं व्रजाम्युभयकृत्यमनोरथानां
मायागुणैर्हृतमतिर्विषयेऽर्थभावः॥
मूलम्
एकस्तपस्व्यहमथाम्भसि मत्स्यसङ्गात्
पञ्चाशदासमुत पञ्चसहस्रसर्गः।
नान्तं व्रजाम्युभयकृत्यमनोरथानां
मायागुणैर्हृतमतिर्विषयेऽर्थभावः॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैं पहले एकान्तमें अकेला ही तपस्यामें संलग्न था। फिर जलमें मछलीका संग होनेसे विवाह करके पचास हो गया और फिर सन्तानोंके रूपमें पाँच हजार। विषयोंमें सत्यबुद्धि होनेसे मायाके गुणोंने मेरी बुद्धि हर ली। अब तो लोक और परलोकके सम्बन्धमें मेरा मन इतनी लालसाओंसे भर गया है कि मैं किसी तरह उनका पार ही नहीं पाता॥ ५२॥
श्लोक-५३
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं वसन् गृहे कालं विरक्तो न्यासमास्थितः।
वनं जगामानुययुस्तत्पत्न्यः पतिदेवताः॥
मूलम्
एवं वसन् गृहे कालं विरक्तो न्यासमास्थितः।
वनं जगामानुययुस्तत्पत्न्यः पतिदेवताः॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार विचार करते हुए वे कुछ दिनोंतक तो घरमें ही रहे। फिर विरक्त होकर उन्होंने संन्यास ले लिया और वे वनमें चले गये। अपने पतिको ही सर्वस्व माननेवाली उनकी पत्नियोंने भी उनके साथ ही वनकी यात्रा की॥ ५३॥
श्लोक-५४
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्र तप्त्वा तपस्तीक्ष्णमात्मकर्शनमात्मवान्१-२।
सहैवाग्निभिरात्मानं युयोज परमात्मनि॥
मूलम्
तत्र तप्त्वा तपस्तीक्ष्णमात्मकर्शनमात्मवान्१-२।
सहैवाग्निभिरात्मानं युयोज परमात्मनि॥
पादटिप्पनी
१. तीव्र०। २. वित्।
अनुवाद (हिन्दी)
वहाँ जाकर परम संयमी सौभरिजीने बड़ी घोर तपस्या की, शरीरको सुखा दिया तथा आहवनीय आदि अग्नियोंके साथ ही अपने-आपको परमात्मामें लीन कर दिया॥ ५४॥
श्लोक-५५
विश्वास-प्रस्तुतिः
ताः स्वपत्युर्महाराज निरीक्ष्याध्यात्मिकीं गतिम्।
अन्वीयुस्तत्प्रभावेण अग्निं शान्तमिवार्चिषः॥
मूलम्
ताः स्वपत्युर्महाराज निरीक्ष्याध्यात्मिकीं गतिम्।
अन्वीयुस्तत्प्रभावेण अग्निं शान्तमिवार्चिषः॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! उनकी पत्नियोंने जब अपने पति सौभरि मुनिकी आध्यात्मिक गति देखी, तब जैसे ज्वालाएँ शान्त अग्निमें लीन हो जाती हैं—वैसे ही वे उनके प्रभावसे सती होकर उन्हींमें लीन हो गयीं, उन्हींकी गतिको प्राप्त हुईं॥ ५५॥
अनुवाद (समाप्ति)
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां नवमस्कन्धे सौभर्याख्याने षष्ठोऽध्यायः॥ ६॥