[पञ्चमोऽध्यायः]
भागसूचना
दुर्वासाजीकी दुःखनिवृत्ति
श्लोक-१
मूलम् (वचनम्)
श्रीशुक उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं भगवताऽऽदिष्टो दुर्वासाश्चक्रतापितः।
अम्बरीषमुपावृत्य तत्पादौ दुःखितोऽग्रहीत्॥
मूलम्
एवं भगवताऽऽदिष्टो दुर्वासाश्चक्रतापितः।
अम्बरीषमुपावृत्य तत्पादौ दुःखितोऽग्रहीत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! जब भगवान्ने इस प्रकार आज्ञा दी तब सुदर्शन चक्रकी ज्वालासे जलते हुए दुर्वासा लौटकर राजा अम्बरीषके पास आये और उन्होंने अत्यन्त दुःखी होकर राजाके पैर पकड़ लिये॥ १॥
श्लोक-२
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्य सोद्यमनं वीक्ष्य पादस्पर्शविलज्जितः।
अस्तावीत् तद्धरेरस्त्रं कृपया पीडितो भृशम्॥
मूलम्
तस्य सोद्यमनं वीक्ष्य पादस्पर्शविलज्जितः।
अस्तावीत् तद्धरेरस्त्रं कृपया पीडितो भृशम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
दुर्वासाजीकी यह चेष्टा देखकर और उनके चरण पकड़नेसे लज्जित होकर राजा अम्बरीष भगवान्के चक्रकी स्तुति करने लगे। उस समय उनका हृदय दयावश अत्यन्त पीड़ित हो रहा था॥ २॥
श्लोक-३
मूलम् (वचनम्)
अम्बरीष उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वमग्निर्भगवान् सूर्यस्त्वं सोमो ज्योतिषां पतिः।
त्वमापस्त्वं क्षितिर्व्योम वायुर्मात्रेन्द्रियाणि च॥
मूलम्
त्वमग्निर्भगवान् सूर्यस्त्वं सोमो ज्योतिषां पतिः।
त्वमापस्त्वं क्षितिर्व्योम वायुर्मात्रेन्द्रियाणि च॥
अनुवाद (हिन्दी)
अम्बरीषने कहा—प्रभो सुदर्शन! आप अग्निस्वरूप हैं। आप ही परम समर्थ सूर्य हैं। समस्त नक्षत्रमण्डलके अधिपति चन्द्रमा भी आपके स्वरूप हैं। जल, पृथ्वी, आकाश, वायु, पंचतन्मात्रा और सम्पूर्ण इन्द्रियोंके रूपमें भी आप ही हैं॥ ३॥
श्लोक-४
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुदर्शन नमस्तुभ्यं सहस्राराच्युतप्रिय।
सर्वास्त्रघातिन् विप्राय स्वस्ति भूया इडस्पते॥
मूलम्
सुदर्शन नमस्तुभ्यं सहस्राराच्युतप्रिय।
सर्वास्त्रघातिन् विप्राय स्वस्ति भूया इडस्पते॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान्के प्यारे, हजार दाँतवाले चक्रदेव! मैं आपको नमस्कार करता हूँ। समस्त अस्त्र-शस्त्रोंको नष्ट कर देनेवाले एवं पृथ्वीके रक्षक! आप इन ब्राह्मणकी रक्षा कीजिये॥ ४॥
श्लोक-५
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वं धर्मस्त्वमृतं सत्यं त्वं यज्ञोऽखिलयज्ञभुक्।
त्वं लोकपालः सर्वात्मा त्वं तेजः पौरुषं परम्॥
मूलम्
त्वं धर्मस्त्वमृतं सत्यं त्वं यज्ञोऽखिलयज्ञभुक्।
त्वं लोकपालः सर्वात्मा त्वं तेजः पौरुषं परम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
आप ही धर्म हैं, मधुर एवं सत्य वाणी हैं; आप ही समस्त यज्ञोंके अधिपति और स्वयं यज्ञ भी हैं। आप समस्त लोकोंके रक्षक एवं सर्वलोकस्वरूप भी हैं। आप परमपुरुष परमात्माके श्रेष्ठ तेज हैं॥ ५॥
श्लोक-६
विश्वास-प्रस्तुतिः
नमः सुनाभाखिलधर्मसेतवे
ह्यधर्मशीलासुरधूमकेतवे।
त्रैलोक्यगोपाय विशुद्धवर्चसे
मनोजवायाद्भुतकर्मणे गृणे॥
मूलम्
नमः सुनाभाखिलधर्मसेतवे
ह्यधर्मशीलासुरधूमकेतवे।
त्रैलोक्यगोपाय विशुद्धवर्चसे
मनोजवायाद्भुतकर्मणे गृणे॥
अनुवाद (हिन्दी)
सुनाभ! आप समस्त धर्मोंकी मर्यादाके रक्षक हैं। अधर्मका आचरण करनेवाले असुरोंको भस्म करनेके लिये आप साक्षात् अग्नि हैं। आप ही तीनों लोकोंके रक्षक एवं विशुद्ध तेजोमय हैं। आपकी गति मनके वेगके समान है और आपके कर्म अद्भुत हैं। मैं आपको नमस्कार करता हूँ, आपकी स्तुति करता हूँ॥ ६॥
श्लोक-७
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वत्तेजसा धर्ममयेन संहृतं
तमः प्रकाशश्च धृतो महात्मनाम्।
दुरत्ययस्ते महिमा गिरां पते
त्वद्रूपमेतत् सदसत् परावरम्॥
मूलम्
त्वत्तेजसा धर्ममयेन संहृतं
तमः प्रकाशश्च धृतो महात्मनाम्।
दुरत्ययस्ते महिमा गिरां पते
त्वद्रूपमेतत् सदसत् परावरम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
वेदवाणीके अधीश्वर! आपके धर्ममय तेजसे अन्धकारका नाश होता है और सूर्य आदि महापुरुषोंके प्रकाशकी रक्षा होती है। आपकी महिमाका पार पाना अत्यन्त कठिन है। ऊँचे-नीचे और छोटे-बड़ेके भेदभावसे युक्त यह समस्त कार्य-कारणात्मक संसार आपका ही स्वरूप है॥ ७॥
श्लोक-८
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदा विसृष्टस्त्वमनञ्जनेन वै
बलं प्रविष्टोऽजित दैत्यदानवम्।
बाहूदरोर्वङ्घ्रिशिरोधराणि
वृक्णन्नजस्रं प्रधने विराजसे॥
मूलम्
यदा विसृष्टस्त्वमनञ्जनेन वै
बलं प्रविष्टोऽजित दैत्यदानवम्।
बाहूदरोर्वङ्घ्रिशिरोधराणि
वृक्णन्नजस्रं प्रधने विराजसे॥
अनुवाद (हिन्दी)
सुदर्शन चक्र! आपपर कोई विजय नहीं प्राप्त कर सकता। जिस समय निरंजनभगवान् आपको चलाते हैं और आप दैत्य एवं दानवोंकी सेनामें प्रवेश करते हैं, उस समय युद्धभूमिमें उनकी भुजा, उदर, जंघा, चरण और गरदन आदि निरन्तर काटते हुए आप अत्यन्त शोभायमान होते हैं॥ ८॥
श्लोक-९
विश्वास-प्रस्तुतिः
स त्वं जगत्त्राण खलप्रहाणये
निरूपितः सर्वसहो गदाभृता।
विप्रस्य चास्मत्कुलदैवहेतवे
विधेहि भद्रं तदनुग्रहो हि नः॥
मूलम्
स त्वं जगत्त्राण खलप्रहाणये
निरूपितः सर्वसहो गदाभृता।
विप्रस्य चास्मत्कुलदैवहेतवे
विधेहि भद्रं तदनुग्रहो हि नः॥
अनुवाद (हिन्दी)
विश्वके रक्षक! आप रणभूमिमें सबका प्रहार सह लेते हैं, आपका कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता। गदाधारी भगवान्ने दुष्टोंके नाशके लिये ही आपको नियुक्त किया है। आप कृपा करके हमारे कुलके भाग्योदयके लिये दुर्वासाजीका कल्याण कीजिये। हमारे ऊपर यह आपका महान् अनुग्रह होगा॥ ९॥
श्लोक-१०
विश्वास-प्रस्तुतिः
यद्यस्ति दत्तमिष्टं वा स्वधर्मो वा स्वनुष्ठितः।
कुलं नो विप्रदैवं चेद् द्विजो भवतु विज्वरः॥
मूलम्
यद्यस्ति दत्तमिष्टं वा स्वधर्मो वा स्वनुष्ठितः।
कुलं नो विप्रदैवं चेद् द्विजो भवतु विज्वरः॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदि मैंने कुछ भी दान किया हो, यज्ञ किया हो अथवा अपने धर्मका पालन किया हो, यदि हमारे वंशके लोग ब्राह्मणोंको ही अपना आराध्यदेव समझते रहे हों, तो दुर्वासाजीकी जलन मिट जाय॥ १०॥
श्लोक-११
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदि नो भगवान् प्रीत एकः सर्वगुणाश्रयः।
सर्वभूतात्मभावेन द्विजो भवतु विज्वरः॥
मूलम्
यदि नो भगवान् प्रीत एकः सर्वगुणाश्रयः।
सर्वभूतात्मभावेन द्विजो भवतु विज्वरः॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् समस्त गुणोंके एकमात्र आश्रय हैं। यदि मैंने समस्त प्राणियोंके आत्माके रूपमें उन्हें देखा हो और वे मुझपर प्रसन्न हों तो दुर्वासाजीके हृदयकी सारी जलन मिट जाय॥ ११॥
श्लोक-१२
मूलम् (वचनम्)
श्रीशुक उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
इति संस्तुवतो राज्ञो विष्णुचक्रं सुदर्शनम्।
अशाम्यत् सर्वतो विप्रं प्रदहद् राजयाच्ञया॥
मूलम्
इति संस्तुवतो राज्ञो विष्णुचक्रं सुदर्शनम्।
अशाम्यत् सर्वतो विप्रं प्रदहद् राजयाच्ञया॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—जब राजा अम्बरीषने दुर्वासाजीको सब ओरसे जलानेवाले भगवान्के सुदर्शन चक्रकी इस प्रकार स्तुति की, तब उनकी प्रार्थनासे चक्र शान्त हो गया॥ १२॥
श्लोक-१३
विश्वास-प्रस्तुतिः
स मुक्तोऽस्त्राग्नितापेन दुर्वासाः स्वस्तिमांस्ततः।
प्रशशंस तमुर्वीशं युञ्जानः परमाशिषः॥
मूलम्
स मुक्तोऽस्त्राग्नितापेन दुर्वासाः स्वस्तिमांस्ततः।
प्रशशंस तमुर्वीशं युञ्जानः परमाशिषः॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब दुर्वासा चक्रकी आगसे मुक्त हो गये और उनका चित्त स्वस्थ हो गया, तब वे राजा अम्बरीषको अनेकानेक उत्तम आशीर्वाद देते हुए उनकी प्रशंसा करने लगे॥ १३॥
श्लोक-१४
मूलम् (वचनम्)
दुर्वासा उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहो अनन्तदासानां महत्त्वं दृष्टमद्य मे।
कृतागसोऽपि यद् राजन् मङ्गलानि समीहसे॥
मूलम्
अहो अनन्तदासानां महत्त्वं दृष्टमद्य मे।
कृतागसोऽपि यद् राजन् मङ्गलानि समीहसे॥
अनुवाद (हिन्दी)
दुर्वासाजीने कहा—धन्य है! आज मैंने भगवान्के प्रेमी भक्तोंका महत्त्व देखा। राजन्! मैंने आपका अपराध किया, फिर भी आप मेरे लिये मंगल-कामना ही कर रहे हैं॥ १४॥
श्लोक-१५
विश्वास-प्रस्तुतिः
दुष्करः को नु साधूनां दुस्त्यजो वा महात्मनाम्।
यैः संगृहीतो भगवान् सात्वतामृषभो हरिः॥
मूलम्
दुष्करः को नु साधूनां दुस्त्यजो वा महात्मनाम्।
यैः संगृहीतो भगवान् सात्वतामृषभो हरिः॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिन्होंने भक्तवत्सल भगवान् श्रीहरिके चरण-कमलोंको दृढ़ प्रेमभावसे पकड़ लिया है—उन साधुपुरुषोंके लिये कौन-सा कार्य कठिन है? जिनका हृदय उदार है, वे महात्मा भला, किस वस्तुका परित्याग नहीं कर सकते?॥ १५॥
श्लोक-१६
विश्वास-प्रस्तुतिः
यन्नामश्रुतिमात्रेण पुमान् भवति निर्मलः।
तस्य तीर्थपदः किं वा दासानामवशिष्यते॥
मूलम्
यन्नामश्रुतिमात्रेण पुमान् भवति निर्मलः।
तस्य तीर्थपदः किं वा दासानामवशिष्यते॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिनके मंगलमय नामोंके श्रवणमात्रसे जीव निर्मल हो जाता है—उन्हीं तीर्थपाद भगवान्के चरणकमलोंके जो दास हैं, उनके लिये कौन-सा कर्तव्य शेष रह जाता है?॥ १६॥
श्लोक-१७
विश्वास-प्रस्तुतिः
राजन्ननुगृहीतोऽहं त्वयातिकरुणात्मना।
मदघं पृष्ठतः कृत्वा प्राणा यन्मेऽभिरक्षिताः॥
मूलम्
राजन्ननुगृहीतोऽहं त्वयातिकरुणात्मना।
मदघं पृष्ठतः कृत्वा प्राणा यन्मेऽभिरक्षिताः॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज अम्बरीष! आपका हृदय करुणाभावसे परिपूर्ण है। आपने मेरे ऊपर महान् अनुग्रह किया। अहो, आपने मेरे अपराधको भुलाकर मेरे प्राणोंकी रक्षा की है!॥ १७॥
श्लोक-१८
विश्वास-प्रस्तुतिः
राजा तमकृताहारः प्रत्यागमनकाङ्क्षया।
चरणावुपसंगृह्य प्रसाद्य समभोजयत्॥
मूलम्
राजा तमकृताहारः प्रत्यागमनकाङ्क्षया।
चरणावुपसंगृह्य प्रसाद्य समभोजयत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! जबसे दुर्वासाजी भागे थे, तबसे अबतक राजा अम्बरीषने भोजन नहीं किया था। वे उनके लौटनेकी बाट देख रहे थे। अब उन्होंने दुर्वासाजीके चरण पकड़ लिये और उन्हें प्रसन्न करके विधिपूर्वक भोजन कराया॥ १८॥
श्लोक-१९
विश्वास-प्रस्तुतिः
सोऽशित्वाऽऽदृतमानीतमातिथ्यं सार्वकामिकम्।
तृप्तात्मा नृपतिं प्राह भुज्यतामिति सादरम्॥
मूलम्
सोऽशित्वाऽऽदृतमानीतमातिथ्यं सार्वकामिकम्।
तृप्तात्मा नृपतिं प्राह भुज्यतामिति सादरम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजा अम्बरीष बड़े आदरसे अतिथिके योग्य सब प्रकारकी भोजन-सामग्री ले आये। दुर्वासाजी भोजन करके तृप्त हो गये। अब उन्होंने आदरसे कहा—‘राजन्! अब आप भी भोजन कीजिये॥ १९॥
श्लोक-२०
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रीतोऽस्म्यनुगृहीतोऽस्मि तव भागवतस्य वै।
दर्शनस्पर्शनालापैरातिथ्येनात्ममेधसा॥
मूलम्
प्रीतोऽस्म्यनुगृहीतोऽस्मि तव भागवतस्य वै।
दर्शनस्पर्शनालापैरातिथ्येनात्ममेधसा॥
अनुवाद (हिन्दी)
अम्बरीष! आप भगवान्के परम प्रेमी भक्त हैं। आपके दर्शन, स्पर्श, बातचीत और मनको भगवान्की ओर प्रवृत्त करनेवाले आतिथ्यसे मैं अत्यन्त प्रसन्न और अनुगृहीत हुआ हूँ॥ २०॥
श्लोक-२१
विश्वास-प्रस्तुतिः
कर्मावदातमेतत् ते गायन्ति स्वःस्त्रियो मुहुः।
कीर्तिं परमपुण्यां च कीर्तयिष्यति भूरियम्॥
मूलम्
कर्मावदातमेतत् ते गायन्ति स्वःस्त्रियो मुहुः।
कीर्तिं परमपुण्यां च कीर्तयिष्यति भूरियम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
स्वर्गकी देवांगनाएँ बार-बार आपके इस उज्ज्वल चरित्रका गान करेंगी। यह पृथ्वी भी आपकी परम पुण्यमयी कीर्तिका संकीर्तन करती रहेगी’॥ २१॥
श्लोक-२२
मूलम् (वचनम्)
श्रीशुक उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं संकीर्त्य राजानं दुर्वासाः परितोषितः।
ययौ विहायसाऽऽमन्त्र्य ब्रह्मलोकमहैतुकम्॥
मूलम्
एवं संकीर्त्य राजानं दुर्वासाः परितोषितः।
ययौ विहायसाऽऽमन्त्र्य ब्रह्मलोकमहैतुकम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—दुर्वासाजीने बहुत ही सन्तुष्ट होकर राजा अम्बरीषके गुणोंकी प्रशंसा की और उसके बाद उनसे अनुमति लेकर आकाशमार्गसे उस ब्रह्मलोककी यात्रा की जो केवल निष्काम कर्मसे ही प्राप्त होता है॥ २२॥
श्लोक-२३
विश्वास-प्रस्तुतिः
संवत्सरोऽत्यगात् तावद् यावता नागतो गतः।
मुनिस्तद्दर्शनाकाङ्क्षो राजाऽब्भक्षो बभूव ह॥
मूलम्
संवत्सरोऽत्यगात् तावद् यावता नागतो गतः।
मुनिस्तद्दर्शनाकाङ्क्षो राजाऽब्भक्षो बभूव ह॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! जब सुदर्शन चक्रसे भयभीत होकर दुर्वासाजी भगे थे, तबसे लेकर उनके लौटनेतक एक वर्षका समय बीत गया। इतने दिनोंतक राजा अम्बरीष उनके दर्शनकी आकांक्षासे केवल जल पीकर ही रहे॥ २३॥
श्लोक-२४
विश्वास-प्रस्तुतिः
गते च दुर्वाससि सोऽम्बरीषो
द्विजोपयोगातिपवित्रमाहरत्।
ऋषेर्विमोक्षं व्यसनं च बुद्ध्वा
मेने स्ववीर्यं च परानुभावम्॥
मूलम्
गते च दुर्वाससि सोऽम्बरीषो
द्विजोपयोगातिपवित्रमाहरत्।
ऋषेर्विमोक्षं व्यसनं च बुद्ध्वा
मेने स्ववीर्यं च परानुभावम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब दुर्वासाजी चले गये, तब उनके भोजनसे बचे हुए अत्यन्त पवित्र अन्नका उन्होंने भोजन किया। अपने कारण दुर्वासाजीका दुःखमें पड़ना और फिर अपनी ही प्रार्थनासे उनका छूटना—इन दोनों बातोंको उन्होंने अपने द्वारा होनेपर भी भगवान्की ही महिमा समझा॥ २४॥
श्लोक-२५
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवंविधानेकगुणः स राजा
परात्मनि ब्रह्मणि वासुदेवे।
क्रियाकलापैः समुवाह भक्तिं
ययाऽऽविरिञ्च्यान् निरयांश्चकार॥
मूलम्
एवंविधानेकगुणः स राजा
परात्मनि ब्रह्मणि वासुदेवे।
क्रियाकलापैः समुवाह भक्तिं
ययाऽऽविरिञ्च्यान् निरयांश्चकार॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजा अम्बरीषमें ऐसे-ऐसे अनेकों गुण थे। अपने समस्त कर्मोंके द्वारा वे परब्रह्म परमात्मा श्रीभगवान्में भक्तिभावकी अभिवृद्धि करते रहते थे। उस भक्तिके प्रभावसे उन्होंने ब्रह्मलोकतकके समस्त भोगोंको नरकके समान समझा॥ २५॥
श्लोक-२६
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथाम्बरीषस्तनयेषु राज्यं
समानशीलेषु विसृज्य धीरः।
वनं विवेशात्मनि वासुदेवे
मनो दधद् ध्वस्तगुणप्रवाहः॥
मूलम्
अथाम्बरीषस्तनयेषु राज्यं
समानशीलेषु विसृज्य धीरः।
वनं विवेशात्मनि वासुदेवे
मनो दधद् ध्वस्तगुणप्रवाहः॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर राजा अम्बरीषने अपने ही समान भक्त पुत्रोंपर राज्यका भार छोड़ दिया और स्वयं वे वनमें चले गये। वहाँ वे बड़ी धीरताके साथ आत्मस्वरूप भगवान्में अपना मन लगाकर गुणोंके प्रवाहरूप संसारसे मुक्त हो गये॥ २६॥
श्लोक-२७
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्येतत् पुण्यमाख्यानमम्बरीषस्य भूपतेः।
संकीर्तयन्ननुध्यायन् भक्तो भगवतो भवेत्॥
मूलम्
इत्येतत् पुण्यमाख्यानमम्बरीषस्य भूपतेः।
संकीर्तयन्ननुध्यायन् भक्तो भगवतो भवेत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! महाराज अम्बरीषका यह परम पवित्र आख्यान है। जो इसका संकीर्तन और स्मरण करता है, वह भगवान्का भक्त हो जाता है॥ २७॥
अनुवाद (समाप्ति)
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां नवमस्कन्धेऽम्बरीषचरितं नाम पञ्चमोऽध्यायः॥ ५॥