[चतुर्थोऽध्यायः]
भागसूचना
नाभाग और अम्बरीषकी कथा
श्लोक-१
मूलम् (वचनम्)
श्रीशुक उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
नाभागो नभगापत्यं यं ततं भ्रातरः कविम्।
यविष्ठं व्यभजन् दायं ब्रह्मचारिणमागतम्॥
मूलम्
नाभागो नभगापत्यं यं ततं भ्रातरः कविम्।
यविष्ठं व्यभजन् दायं ब्रह्मचारिणमागतम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! मनुपुत्र नभगका पुत्र था नाभाग। जब वह दीर्घकालतक ब्रह्मचर्यका पालन करके लौटा, तब बड़े भाइयोंने अपनेसे छोटे किन्तु विद्वान् भाईको हिस्सेमें केवल पिताको ही दिया (सम्पत्ति तो उन्होंने पहले ही आपसमें बाँट ली थी)॥ १॥
श्लोक-२
विश्वास-प्रस्तुतिः
भ्रातरोऽभाङ्क्त किं मह्यं भजाम पितरं तव।
त्वां ममार्यास्तताभाङ्क्षुर्मा पुत्रक तदादृथाः॥
मूलम्
भ्रातरोऽभाङ्क्त किं मह्यं भजाम पितरं तव।
त्वां ममार्यास्तताभाङ्क्षुर्मा पुत्रक तदादृथाः॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसने अपने भाइयोंसे पूछा—‘भाइयो! आपलोगोंने मुझे हिस्सेमें क्या दिया है?’ तब उन्होंने उत्तर दिया कि ‘हम तुम्हारे हिस्सेमें पिताजीको ही तुम्हें देते हैं।’ उसने अपने पितासे जाकर कहा—‘पिताजी! मेरे बड़े भाइयोंने हिस्सेमें मेरे लिये आपको ही दिया है।’ पिताने कहा—‘बेटा! तुम उनकी बात न मानो॥ २॥
श्लोक-३
विश्वास-प्रस्तुतिः
इमे अङ्गिरसः सत्रमासतेऽद्य सुमेधसः।
षष्ठं षष्ठमुपेत्याहः कवे मुह्यन्ति कर्मणि॥
मूलम्
इमे अङ्गिरसः सत्रमासतेऽद्य सुमेधसः।
षष्ठं षष्ठमुपेत्याहः कवे मुह्यन्ति कर्मणि॥
अनुवाद (हिन्दी)
देखो, ये बड़े बुद्धिमान् आंगिरसगोत्रके ब्राह्मण इस समय एक बहुत बड़ा यज्ञ कर रहे हैं। परन्तु मेरे विद्वान् पुत्र! वे प्रत्येक छठे दिन अपने कर्ममें भूल कर बैठते हैं॥ ३॥
श्लोक-४
विश्वास-प्रस्तुतिः
तांस्त्वं शंसय सूक्ते द्वे वैश्वदेवे महात्मनः।
ते स्वर्यन्तो धनं सत्रपरिशेषितमात्मनः॥
मूलम्
तांस्त्वं शंसय सूक्ते द्वे वैश्वदेवे महात्मनः।
ते स्वर्यन्तो धनं सत्रपरिशेषितमात्मनः॥
श्लोक-५
विश्वास-प्रस्तुतिः
दास्यन्ति तेऽथ तान् गच्छ तथा स कृतवान् यथा।
तस्मै दत्त्वा ययुः स्वर्गं ते सत्रपरिशेषितम्॥
मूलम्
दास्यन्ति तेऽथ तान् गच्छ तथा स कृतवान् यथा।
तस्मै दत्त्वा ययुः स्वर्गं ते सत्रपरिशेषितम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
तुम उन महात्माओंके पास जाकर उन्हें वैश्व-देवसम्बन्धी दो सूक्त बतला दो; जब वे स्वर्ग जाने लगेंगे, तब यज्ञसे बचा हुआ अपना सारा धन तुम्हें दे देंगे। इसलिये अब तुम उन्हींके पास चले जाओ।’ उसने अपने पिताके आज्ञानुसार वैसा ही किया। उन आंगिरसगोत्री ब्राह्मणोंने भी यज्ञका बचा हुआ धन उसे दे दिया और वे स्वर्गमें चले गये॥ ४-५॥
श्लोक-६
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं कश्चित् स्वीकरिष्यन्तं पुरुषः कृष्णदर्शनः।
उवाचोत्तरतोऽभ्येत्य ममेदं वास्तुकं वसु॥
मूलम्
तं कश्चित् स्वीकरिष्यन्तं पुरुषः कृष्णदर्शनः।
उवाचोत्तरतोऽभ्येत्य ममेदं वास्तुकं वसु॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब नाभाग उस धनको लेने लगा, तब उत्तर दिशासे एक काले रंगका पुरुष आया। उसने कहा—‘इस यज्ञभूमिमें जो कुछ बचा हुआ है, वह सब धन मेरा है’॥ ६॥
श्लोक-७
विश्वास-प्रस्तुतिः
ममेदमृषिभिर्दत्तमिति तर्हि स्म मानवः।
स्यान्नौ ते पितरि प्रश्नः पृष्टवान् पितरं तथा॥
मूलम्
ममेदमृषिभिर्दत्तमिति तर्हि स्म मानवः।
स्यान्नौ ते पितरि प्रश्नः पृष्टवान् पितरं तथा॥
अनुवाद (हिन्दी)
नाभागने कहा—‘ऋषियोंने यह धन मुझे दिया है, इसलिये मेरा है।’ इसपर उस पुरुषने कहा—‘हमारे विवादके विषयमें तुम्हारे पितासे ही प्रश्न किया जाय।’ तब नाभागने जाकर पितासे पूछा॥ ७॥
श्लोक-८
विश्वास-प्रस्तुतिः
यज्ञवास्तुगतं सर्वमुच्छिष्टमृषयः क्वचित्।
चक्रुर्विभागं रुद्राय स देवः सर्वमर्हति॥
मूलम्
यज्ञवास्तुगतं सर्वमुच्छिष्टमृषयः क्वचित्।
चक्रुर्विभागं रुद्राय स देवः सर्वमर्हति॥
अनुवाद (हिन्दी)
पिताने कहा—‘एक बार दक्षप्रजापतिके यज्ञमें ऋषिलोग यह निश्चय कर चुके हैं कि यज्ञभूमिमें जो कुछ बच रहता है, वह सब रुद्रदेवका हिस्सा है। इसलिये वह धन तो महादेवजीको ही मिलना चाहिये’॥ ८॥
श्लोक-९
विश्वास-प्रस्तुतिः
नाभागस्तं प्रणम्याह तवेश किल वास्तुकम्।
इत्याह मे पिता ब्रह्मञ्छिरसा त्वां प्रसादये॥
मूलम्
नाभागस्तं प्रणम्याह तवेश किल वास्तुकम्।
इत्याह मे पिता ब्रह्मञ्छिरसा त्वां प्रसादये॥
अनुवाद (हिन्दी)
नाभागने जाकर उन काले रंगके पुरुष रुद्र-भगवान्को प्रणाम किया और कहा कि ‘प्रभो! यज्ञ-भूमिकी सभी वस्तुएँ आपकी हैं, मेरे पिताने ऐसा ही कहा है। भगवन्! मुझसे अपराध हुआ, मैं सिर झुकाकर आपसे क्षमा माँगता हूँ’॥ ९॥
श्लोक-१०
विश्वास-प्रस्तुतिः
यत् ते पितावदद् धर्मं त्वं च सत्यं प्रभाषसे।
ददामि ते मन्त्रदृशे ज्ञानं ब्रह्म सनातनम्॥
मूलम्
यत् ते पितावदद् धर्मं त्वं च सत्यं प्रभाषसे।
ददामि ते मन्त्रदृशे ज्ञानं ब्रह्म सनातनम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब भगवान् रुद्रने कहा—‘तुम्हारे पिताने धर्मके अनुकूल निर्णय दिया है और तुमने भी मुझसे सत्य ही कहा है। तुम वेदोंका अर्थ तो पहलेसे ही जानते हो। अब मैं तुम्हें सनातन ब्रह्मतत्त्वका ज्ञान देता हूँ॥ १०॥
श्लोक-११
विश्वास-प्रस्तुतिः
गृहाण द्रविणं दत्तं मत्सत्रे परिशेषितम्।
इत्युक्त्वान्तर्हितो रुद्रो भगवान् सत्यवत्सलः॥
मूलम्
गृहाण द्रविणं दत्तं मत्सत्रे परिशेषितम्।
इत्युक्त्वान्तर्हितो रुद्रो भगवान् सत्यवत्सलः॥
अनुवाद (हिन्दी)
यहाँ यज्ञमें बचा हुआ मेरा जो अंश है, यह धन भी मैं तुम्हें ही दे रहा हूँ; तुम इसे स्वीकार करो।’ इतना कहकर सत्यप्रेमी भगवान् रुद्र अन्तर्धान हो गये॥ ११॥
श्लोक-१२
विश्वास-प्रस्तुतिः
य एतत् संस्मरेत् प्रातः सायं च सुसमाहितः।
कविर्भवति मन्त्रज्ञो गतिं चैव तथाऽऽत्मनः॥
मूलम्
य एतत् संस्मरेत् प्रातः सायं च सुसमाहितः।
कविर्भवति मन्त्रज्ञो गतिं चैव तथाऽऽत्मनः॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो मनुष्य प्रातः और सायंकाल एकाग्रचित्तसे इस आख्यानका स्मरण करता है वह प्रतिभाशाली एवं वेदज्ञ तो होता ही है, साथ ही अपने स्वरूपको भी जान लेता है॥ १२॥
श्लोक-१३
विश्वास-प्रस्तुतिः
नाभागादम्बरीषोऽभून्महाभागवतः कृती।
नास्पृशद् ब्रह्मशापोऽपि यं न प्रतिहतः क्वचित्॥
मूलम्
नाभागादम्बरीषोऽभून्महाभागवतः कृती।
नास्पृशद् ब्रह्मशापोऽपि यं न प्रतिहतः क्वचित्॥
अनुवाद (हिन्दी)
नाभागके पुत्र हुए अम्बरीष। वे भगवान्के बड़े प्रेमी एवं उदार धर्मात्मा थे। जो ब्रह्मशाप कभी कहीं रोका नहीं जा सका, वह भी अम्बरीषका स्पर्श न कर सका॥ १३॥
श्लोक-१४
मूलम् (वचनम्)
राजोवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
भगवञ्छ्रोतुमिच्छामि राजर्षेस्तस्य धीमतः।
न प्राभूद् यत्र निर्मुक्तो ब्रह्मदण्डो दुरत्ययः॥
मूलम्
भगवञ्छ्रोतुमिच्छामि राजर्षेस्तस्य धीमतः।
न प्राभूद् यत्र निर्मुक्तो ब्रह्मदण्डो दुरत्ययः॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजा परीक्षित् ने पूछा—भगवन्! मैं परमज्ञानी राजर्षि अम्बरीषका चरित्र सुनना चाहता हूँ। ब्राह्मणने क्रोधित होकर उन्हें ऐसा दण्ड दिया जो किसी प्रकार टाला नहीं जा सकता; परन्तु वह भी उनका कुछ न बिगाड़ सका॥ १४॥
श्लोक-१५
मूलम् (वचनम्)
श्रीशुक उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अम्बरीषो महाभागः सप्तद्वीपवतीं महीम्।
अव्ययां च श्रियं लब्ध्वा विभवं चातुलं भुवि॥
मूलम्
अम्बरीषो महाभागः सप्तद्वीपवतीं महीम्।
अव्ययां च श्रियं लब्ध्वा विभवं चातुलं भुवि॥
श्लोक-१६
विश्वास-प्रस्तुतिः
मेनेऽतिदुर्लभं पुंसां सर्वं तत् स्वप्नसंस्तुतम्।
विद्वान् विभवनिर्वाणं तमो विशति यत् पुमान्॥
मूलम्
मेनेऽतिदुर्लभं पुंसां सर्वं तत् स्वप्नसंस्तुतम्।
विद्वान् विभवनिर्वाणं तमो विशति यत् पुमान्॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीशुकदेवजीने कहा—परीक्षित्! अम्बरीष बड़े भाग्यवान् थे। पृथ्वीके सातों द्वीप, अचल सम्पत्ति और अतुलनीय ऐश्वर्य उनको प्राप्त था। यद्यपि ये सब साधारण मनुष्योंके लिये अत्यन्त दुर्लभ वस्तुएँ हैं, फिर भी वे इन्हें स्वप्नतुल्य समझते थे। क्योंकि वे जानते थे कि जिस धन-वैभवके लोभमें पड़कर मनुष्य घोर नरकमें जाता है, वह केवल चार दिनकी चाँदनी है। उसका दीपक तो बुझा-बुझाया है॥ १५-१६॥
श्लोक-१७
विश्वास-प्रस्तुतिः
वासुदेवे भगवति तद्भक्तेषु च साधुषु।
प्राप्तो भावं परं विश्वं येनेदं लोष्टवत् स्मृतम्॥
मूलम्
वासुदेवे भगवति तद्भक्तेषु च साधुषु।
प्राप्तो भावं परं विश्वं येनेदं लोष्टवत् स्मृतम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् श्रीकृष्णमें और उनके प्रेमी साधुओंमें उनका परम प्रेम था। उस प्रेमके प्राप्त हो जानेपर तो यह सारा विश्व और इसकी समस्त सम्पत्तियाँ मिट्टीके ढेलेके समान जान पड़ती हैं॥ १७॥
श्लोक-१८
विश्वास-प्रस्तुतिः
स वै मनः कृष्णपदारविन्दयो-
र्वचांसि वैकुण्ठगुणानुवर्णने।
करौ हरेर्मन्दिरमार्जनादिषु
श्रुतिं चकाराच्युतसत्कथोदये॥
मूलम्
स वै मनः कृष्णपदारविन्दयो-
र्वचांसि वैकुण्ठगुणानुवर्णने।
करौ हरेर्मन्दिरमार्जनादिषु
श्रुतिं चकाराच्युतसत्कथोदये॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन्होंने अपने मनको श्रीकृष्णचन्द्रके चरणारविन्दयुगलमें, वाणीको भगवद्गुणानुवर्णनमें, हाथोंको श्रीहरि-मन्दिरके मार्जन-सेचनमें और अपने कानोंको भगवान् अच्युतकी मंगलमयी कथाके श्रवणमें लगा रखा था॥ १८॥
श्लोक-१९
विश्वास-प्रस्तुतिः
मुकुन्दलिङ्गालयदर्शने दृशौ
तद्भृत्यगात्रस्पर्शेऽङ्गसङ्गमम्।
घ्राणं च तत्पादसरोजसौरभे
श्रीमत्तुलस्या रसनां तदर्पिते॥
मूलम्
मुकुन्दलिङ्गालयदर्शने दृशौ
तद्भृत्यगात्रस्पर्शेऽङ्गसङ्गमम्।
घ्राणं च तत्पादसरोजसौरभे
श्रीमत्तुलस्या रसनां तदर्पिते॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन्होंने अपने नेत्र मुकुन्दमूर्ति एवं मन्दिरोंके दर्शनोंमें, अंग-संग भगवद्भक्तोंके शरीरस्पर्शमें, नासिका उनके चरणकमलोंपर चढ़ी श्रीमती तुलसीके दिव्य गन्धमें और रसना (जिह्वा)-को भगवान्के प्रति अर्पित नैवेद्य-प्रसादमें संलग्न कर दिया था॥ १९॥
श्लोक-२०
विश्वास-प्रस्तुतिः
पादौ हरेः क्षेत्रपदानुसर्पणे
शिरो हृषीकेशपदाभिवन्दने।
कामं च दास्ये न तु कामकाम्यया
यथोत्तमश्लोकजनाश्रया रतिः॥
मूलम्
पादौ हरेः क्षेत्रपदानुसर्पणे
शिरो हृषीकेशपदाभिवन्दने।
कामं च दास्ये न तु कामकाम्यया
यथोत्तमश्लोकजनाश्रया रतिः॥
अनुवाद (हिन्दी)
अम्बरीषके पैर भगवान्के क्षेत्र आदिकी पैदल यात्रा करनेमें ही लगे रहते और वे सिरसे भगवान् श्रीकृष्णके चरणकमलोंकी वन्दना किया करते। राजा अम्बरीषने माला, चन्दन आदि भोग-सामग्रीको भगवान्की सेवामें समर्पित कर दिया था। भोगनेकी इच्छासे नहीं, बल्कि इसलिये कि इससे वह भगवत्प्रेम प्राप्त हो, जो पवित्रकीर्ति भगवान्के निज-जनोंमें ही निवास करता है॥ २०॥
श्लोक-२१
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं सदा कर्मकलापमात्मनः
परेऽधियज्ञे भगवत्यधोक्षजे।
सर्वात्मभावं विदधन्महीमिमां
तन्निष्ठविप्राभिहितः शशास ह॥
मूलम्
एवं सदा कर्मकलापमात्मनः
परेऽधियज्ञे भगवत्यधोक्षजे।
सर्वात्मभावं विदधन्महीमिमां
तन्निष्ठविप्राभिहितः शशास ह॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार उन्होंने अपने सारे कर्म यज्ञपुरुष, इन्द्रियातीत भगवान्के प्रति उन्हें सर्वात्मा एवं सर्वस्वरूप समझकर समर्पित कर दिये थे और भगवद्भक्त ब्राह्मणोंकी आज्ञाके अनुसार वे इस पृथ्वीका शासन करते थे॥ २१॥
श्लोक-२२
विश्वास-प्रस्तुतिः
ईजेऽश्वमेधैरधियज्ञमीश्वरं
महाविभूत्योपचिताङ्गदक्षिणैः।
ततैर्वसिष्ठासितगौतमादिभि-
र्धन्वन्यभिस्रोतमसौ सरस्वतीम्॥
मूलम्
ईजेऽश्वमेधैरधियज्ञमीश्वरं
महाविभूत्योपचिताङ्गदक्षिणैः।
ततैर्वसिष्ठासितगौतमादिभि-
र्धन्वन्यभिस्रोतमसौ सरस्वतीम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन्होंने ‘धन्व’ नामके निर्जल देशमें सरस्वती नदीके प्रवाहके सामने वसिष्ठ, असित, गौतम आदि भिन्न-भिन्न आचार्योंद्वारा महान् ऐश्वर्यके कारण सर्वांगपरिपूर्ण तथा बड़ी-बड़ी दक्षिणावाले अनेकों अश्वमेध यज्ञ करके यज्ञाधिपति भगवान्की आराधना की थी॥ २२॥
श्लोक-२३
विश्वास-प्रस्तुतिः
यस्य क्रतुषु गीर्वाणैः सदस्या ऋत्विजो जनाः।
तुल्यरूपाश्चानिमिषा व्यदृश्यन्त सुवाससः॥
मूलम्
यस्य क्रतुषु गीर्वाणैः सदस्या ऋत्विजो जनाः।
तुल्यरूपाश्चानिमिषा व्यदृश्यन्त सुवाससः॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनके यज्ञोंमें देवताओंके साथ जब सदस्य और ऋत्विज् बैठ जाते थे, तब उनकी पलकें नहीं पड़ती थीं और वे अपने सुन्दर वस्त्र और वैसे ही रूपके कारण देवताओंके समान दिखायी पड़ते थे॥ २३॥
श्लोक-२४
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वर्गो न प्रार्थितो यस्य मनुजैरमरप्रियः।
शृण्वद्भिरुपगायद्भिरुत्तमश्लोकचेष्टितम्॥
मूलम्
स्वर्गो न प्रार्थितो यस्य मनुजैरमरप्रियः।
शृण्वद्भिरुपगायद्भिरुत्तमश्लोकचेष्टितम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनकी प्रजा महात्माओंके द्वारा गाये हुए भगवान्के उत्तम चरित्रोंका किसी समय बड़े प्रेमसे श्रवण करती और किसी समय उनका गान करती। इस प्रकार उनके राज्यके मनुष्य देवताओंके अत्यन्त प्यारे स्वर्गकी भी इच्छा नहीं करते॥ २४॥
श्लोक-२५
विश्वास-प्रस्तुतिः
समर्द्धयन्ति तान् कामाः स्वाराज्यपरिभाविताः।
दुर्लभा नापि सिद्धानां मुकुन्दं हृदि पश्यतः॥
मूलम्
समर्द्धयन्ति तान् कामाः स्वाराज्यपरिभाविताः।
दुर्लभा नापि सिद्धानां मुकुन्दं हृदि पश्यतः॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे अपने हृदयमें अनन्त प्रेमका दान करनेवाले श्रीहरिका नित्य-निरन्तर दर्शन करते रहते थे। इसलिये उन लोगोंको वह भोग-सामग्री भी हर्षित नहीं कर पाती थी, जो बड़े-बड़े सिद्धोंको भी दुर्लभ है। वे वस्तुएँ उनके आत्मानन्दके सामने अत्यन्त तुच्छ और तिरस्कृत थीं॥ २५॥
श्लोक-२६
विश्वास-प्रस्तुतिः
स इत्थं भक्तियोगेन तपोयुक्तेन पार्थिवः।
स्वधर्मेण हरिं प्रीणन् सङ्गान् सर्वाञ्छनैर्जहौ॥
मूलम्
स इत्थं भक्तियोगेन तपोयुक्तेन पार्थिवः।
स्वधर्मेण हरिं प्रीणन् सङ्गान् सर्वाञ्छनैर्जहौ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजा अम्बरीष इस प्रकार तपस्यासे युक्त भक्तियोग और प्रजापालनरूप स्वधर्मके द्वारा भगवान्को प्रसन्न करने लगे और धीरे-धीरे उन्होंने सब प्रकारकी आसक्तियोंका परित्याग कर दिया॥ २६॥
श्लोक-२७
विश्वास-प्रस्तुतिः
गृहेषु दारेषु सुतेषु बन्धुषु
द्विपोत्तमस्यन्दनवाजिपत्तिषु।
अक्षय्यरत्नाभरणायुधादि-
ष्वनन्तकोशेष्वकरोदसन्मतिम्॥
मूलम्
गृहेषु दारेषु सुतेषु बन्धुषु
द्विपोत्तमस्यन्दनवाजिपत्तिषु।
अक्षय्यरत्नाभरणायुधादि-
ष्वनन्तकोशेष्वकरोदसन्मतिम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
घर, स्त्री, पुत्र, भाई-बन्धु, बड़े-बड़े हाथी, रथ, घोड़े एवं पैदलोंकी चतुरंगिणी सेना, अक्षय रत्न, आभूषण और आयुध आदि समस्त वस्तुओं तथा कभी समाप्त न होनेवाले कोशोंके सम्बन्धमें उनका ऐसा दृढ़ निश्चय था कि वे सब-के-सब असत्य हैं॥ २७॥
श्लोक-२८
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मा अदाद्धरिश्चक्रं प्रत्यनीकभयावहम्।
एकान्तभक्तिभावेन प्रीतो भृत्याभिरक्षणम्॥
मूलम्
तस्मा अदाद्धरिश्चक्रं प्रत्यनीकभयावहम्।
एकान्तभक्तिभावेन प्रीतो भृत्याभिरक्षणम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनकी अनन्य प्रेममयी भक्तिसे प्रसन्न होकर भगवान्ने उनकी रक्षाके लिये सुदर्शनचक्रको नियुक्त कर दिया था, जो विरोधियोंको भयभीत करनेवाला एवं भगवद्भक्तोंकी रक्षा करनेवाला है॥ २८॥
श्लोक-२९
विश्वास-प्रस्तुतिः
आरिराधयिषुः कृष्णं महिष्या तुल्यशीलया।
युक्तः सांवत्सरं वीरो दधार द्वादशीव्रतम्॥
मूलम्
आरिराधयिषुः कृष्णं महिष्या तुल्यशीलया।
युक्तः सांवत्सरं वीरो दधार द्वादशीव्रतम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजा अम्बरीषकी पत्नी भी उन्हींके समान धर्मशील, संसारसे विरक्त एवं भक्तिपरायण थीं। एक बार उन्होंने अपनी पत्नीके साथ भगवान् श्रीकृष्णकी आराधना करनेके लिये एक वर्षतक द्वादशीप्रधान एकादशी-व्रत करनेका नियम ग्रहण किया॥ २९॥
श्लोक-३०
विश्वास-प्रस्तुतिः
व्रतान्ते कार्तिके मासि त्रिरात्रं समुपोषितः।
स्नातः कदाचित् कालिन्द्यां हरिं मधुवनेऽर्चयत्॥
मूलम्
व्रतान्ते कार्तिके मासि त्रिरात्रं समुपोषितः।
स्नातः कदाचित् कालिन्द्यां हरिं मधुवनेऽर्चयत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
व्रतकी समाप्ति होनेपर कार्तिक महीनेमें उन्होंने तीन रातका उपवास किया और एक दिन यमुनाजीमें स्नान करके मधुवनमें भगवान् श्रीकृष्णकी पूजा की॥ ३०॥
श्लोक-३१
विश्वास-प्रस्तुतिः
महाभिषेकविधिना सर्वोपस्करसम्पदा।
अभिषिच्याम्बराकल्पैर्गन्धमाल्यार्हणादिभिः॥
मूलम्
महाभिषेकविधिना सर्वोपस्करसम्पदा।
अभिषिच्याम्बराकल्पैर्गन्धमाल्यार्हणादिभिः॥
श्लोक-३२
विश्वास-प्रस्तुतिः
तद्गतान्तरभावेन पूजयामास केशवम्।
ब्राह्मणांश्च महाभागान् सिद्धार्थानपि भक्तितः॥
मूलम्
तद्गतान्तरभावेन पूजयामास केशवम्।
ब्राह्मणांश्च महाभागान् सिद्धार्थानपि भक्तितः॥
श्लोक-३३
विश्वास-प्रस्तुतिः
गवां रुक्मविषाणीनां रूप्याङ्घ्रीणां सुवाससाम्।
पयःशीलवयोरूपवत्सोपस्करसम्पदाम्॥
मूलम्
गवां रुक्मविषाणीनां रूप्याङ्घ्रीणां सुवाससाम्।
पयःशीलवयोरूपवत्सोपस्करसम्पदाम्॥
श्लोक-३४
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्राहिणोत् साधुविप्रेभ्यो गृहेषु न्यर्बुदानि षट्।
भोजयित्वा द्विजानग्रे स्वाद्वन्नं गुणवत्तमम्॥
मूलम्
प्राहिणोत् साधुविप्रेभ्यो गृहेषु न्यर्बुदानि षट्।
भोजयित्वा द्विजानग्रे स्वाद्वन्नं गुणवत्तमम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन्होंने महाभिषेककी विधिसे सब प्रकारकी सामग्री और सम्पत्तिद्वारा भगवान्का अभिषेक किया और हृदयसे तन्मय होकर वस्त्र, आभूषण, चन्दन, माला एवं अर्घ्य आदिके द्वारा उनकी पूजा की। यद्यपि महाभाग्यवान् ब्राह्मणोंको इस पूजाकी कोई आवश्यकता नहीं थी, स्वयं ही उनकी सारी कामनाएँ पूर्ण हो चुकी थीं—वे सिद्ध थे—तथापि राजा अम्बरीषने भक्ति-भावसे उनका पूजन किया। तत्पश्चात् पहले ब्राह्मणोंको स्वादिष्ट और अत्यन्त गुणकारी भोजन कराकर उन लोगोंके घर साठ करोड़ गौएँ सुसज्जित करके भेज दीं। उन गौओंके सींग सुवर्णसे और खुर चाँदीसे मढ़े हुए थे। सुन्दर-सुन्दर वस्त्र उन्हें ओढ़ा दिये गये थे। वे गौएँ बड़ी सुशील, छोटी अवस्थाकी, देखनेमें सुन्दर, बछड़ेवाली और खूब दूध देनेवाली थीं। उनके साथ दुहनेकी उपयुक्त सामग्री भी उन्होंने भेजवा दी थी॥ ३१—३४॥
श्लोक-३५
विश्वास-प्रस्तुतिः
लब्धकामैरनुज्ञातः पारणायोपचक्रमे।
तस्य तर्ह्यतिथिः साक्षाद् दुर्वासा भगवानभूत्॥
मूलम्
लब्धकामैरनुज्ञातः पारणायोपचक्रमे।
तस्य तर्ह्यतिथिः साक्षाद् दुर्वासा भगवानभूत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब ब्राह्मणोंको सब कुछ मिल चुका, तब राजाने उन लोगोंसे आज्ञा लेकर व्रतका पारण करनेकी तैयारी की। उसी समय शाप और वरदान देनेमें समर्थ स्वयं दुर्वासाजी भी उनके यहाँ अतिथिके रूपमें पधारे॥ ३५॥
श्लोक-३६
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमानर्चातिथिं भूपः प्रत्युत्थानासनार्हणैः।
ययाचेऽभ्यवहाराय पादमूलमुपागतः॥
मूलम्
तमानर्चातिथिं भूपः प्रत्युत्थानासनार्हणैः।
ययाचेऽभ्यवहाराय पादमूलमुपागतः॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजा अम्बरीष उन्हें देखते ही उठकर खड़े हो गये, आसन देकर बैठाया और विविध सामग्रियोंसे अतिथिके रूपमें आये हुए दुर्वासाजीकी पूजा की। उनके चरणोंमें प्रणाम करके अम्बरीषने भोजनके लिये प्रार्थना की॥ ३६॥
श्लोक-३७
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रतिनन्द्य स तद्याच्ञां कर्तुमावश्यकं गतः।
निममज्ज बृहद् ध्यायन् कालिन्दीसलिले शुभे॥
मूलम्
प्रतिनन्द्य स तद्याच्ञां कर्तुमावश्यकं गतः।
निममज्ज बृहद् ध्यायन् कालिन्दीसलिले शुभे॥
अनुवाद (हिन्दी)
दुर्वासाजीने अम्बरीषकी प्रार्थना स्वीकार कर ली और इसके बाद आवश्यक कर्मोंसे निवृत्त होनेके लिये वे नदीतटपर चले गये। वे ब्रह्मका ध्यान करते हुए यमुनाके पवित्र जलमें स्नान करने लगे॥ ३७॥
श्लोक-३८
विश्वास-प्रस्तुतिः
मुहूर्तार्धावशिष्टायां द्वादश्यां पारणं प्रति।
चिन्तयामास धर्मज्ञो द्विजैस्तद्धर्मसङ्कटे॥
मूलम्
मुहूर्तार्धावशिष्टायां द्वादश्यां पारणं प्रति।
चिन्तयामास धर्मज्ञो द्विजैस्तद्धर्मसङ्कटे॥
अनुवाद (हिन्दी)
इधर द्वादशी केवल घड़ीभर शेष रह गयी थी। धर्मज्ञ अम्बरीषने धर्म-संकटमें पड़कर ब्राह्मणोंके साथ परामर्श किया॥ ३८॥
श्लोक-३९
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्राह्मणातिक्रमे दोषो द्वादश्यां यदपारणे।
यत् कृत्वा साधु मे भूयादधर्मो वा न मां स्पृशेत्॥
मूलम्
ब्राह्मणातिक्रमे दोषो द्वादश्यां यदपारणे।
यत् कृत्वा साधु मे भूयादधर्मो वा न मां स्पृशेत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन्होंने कहा—‘ब्राह्मण-देवताओ! ब्राह्मणको बिना भोजन कराये स्वयं खा लेना और द्वादशी रहते पारण न करना—दोनों ही दोष हैं। इसलिये इस समय जैसा करनेसे मेरी भलाई हो और मुझे पाप न लगे, ऐसा काम करना चाहिये॥ ३९॥
श्लोक-४०
विश्वास-प्रस्तुतिः
अम्भसा केवलेनाथ करिष्ये व्रतपारणम्।
प्राहुरब्भक्षणं विप्रा ह्यशितं नाशितं च तत्॥
मूलम्
अम्भसा केवलेनाथ करिष्ये व्रतपारणम्।
प्राहुरब्भक्षणं विप्रा ह्यशितं नाशितं च तत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब ब्राह्मणोंके साथ विचार करके उन्होंने कहा—‘ब्राह्मणो! श्रुतियोंमें ऐसा कहा गया है कि जल पी लेना भोजन करना भी है, नहीं भी करना है। इसलिये इस समय केवल जलसे पारण किये लेता हूँ॥ ४०॥
श्लोक-४१
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्यपः प्राश्य राजर्षिश्चिन्तयन् मनसाच्युतम्।
प्रत्यचष्ट कुरुश्रेष्ठ द्विजागमनमेव सः॥
मूलम्
इत्यपः प्राश्य राजर्षिश्चिन्तयन् मनसाच्युतम्।
प्रत्यचष्ट कुरुश्रेष्ठ द्विजागमनमेव सः॥
अनुवाद (हिन्दी)
ऐसा निश्चय करके मन-ही-मन भगवान्का चिन्तन करते हुए राजर्षि अम्बरीषने जल पी लिया और परीक्षित्! वे केवल दुर्वासाजीके आनेकी बाट देखने लगे॥ ४१॥
श्लोक-४२
विश्वास-प्रस्तुतिः
दुर्वासा यमुनाकूलात् कृतावश्यक आगतः।
राज्ञाभिनन्दितस्तस्य बुबुधे चेष्टितं धिया॥
मूलम्
दुर्वासा यमुनाकूलात् कृतावश्यक आगतः।
राज्ञाभिनन्दितस्तस्य बुबुधे चेष्टितं धिया॥
अनुवाद (हिन्दी)
दुर्वासाजी आवश्यक कर्मोंसे निवृत्त होकर यमुनातटसे लौट आये। जब राजाने आगे बढ़कर उनका अभिनन्दन किया तब उन्होंने अनुमानसे ही समझ लिया कि राजाने पारण कर लिया है॥ ४२॥
श्लोक-४३
विश्वास-प्रस्तुतिः
मन्युना प्रचलद्गात्रो भ्रुकुटीकुटिलाननः।
बुभुक्षितश्च सुतरां कृताञ्जलिमभाषत॥
मूलम्
मन्युना प्रचलद्गात्रो भ्रुकुटीकुटिलाननः।
बुभुक्षितश्च सुतरां कृताञ्जलिमभाषत॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय दुर्वासाजी बहुत भूखे थे। इसलिये यह जानकर कि राजाने पारण कर लिया है, वे क्रोधसे थर-थर काँपने लगे। भौंहोंके चढ़ जानेसे उनका मुँह विकट हो गया। उन्होंने हाथ जोड़कर खड़े अम्बरीषसे डाँटकर कहा॥ ४३॥
श्लोक-४४
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहो अस्य नृशंसस्य श्रियोन्मत्तस्य पश्यत।
धर्मव्यतिक्रमं विष्णोरभक्तस्येशमानिनः॥
मूलम्
अहो अस्य नृशंसस्य श्रियोन्मत्तस्य पश्यत।
धर्मव्यतिक्रमं विष्णोरभक्तस्येशमानिनः॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘अहो! देखो तो सही, यह कितना क्रूर है! यह धनके मदमें मतवाला हो रहा है। भगवान्की भक्ति तो इसे छूतक नहीं गयी और यह अपनेको बड़ा समर्थ मानता है। आज इसने धर्मका उल्लंघन करके बड़ा अन्याय किया है॥ ४४॥
श्लोक-४५
विश्वास-प्रस्तुतिः
यो मामतिथिमायातमातिथ्येन निमन्त्र्य च।
अदत्त्वा भुक्तवांस्तस्य सद्यस्ते दर्शये फलम्॥
मूलम्
यो मामतिथिमायातमातिथ्येन निमन्त्र्य च।
अदत्त्वा भुक्तवांस्तस्य सद्यस्ते दर्शये फलम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
देखो, मैं इसका अतिथि होकर आया हूँ। इसने अतिथि-सत्कार करनेके लिये मुझे निमन्त्रण भी दिया है, किन्तु फिर भी मुझे खिलाये बिना ही खा लिया है। अच्छा देख, ‘तुझे अभी इसका फल चखाता हूँ’॥ ४५॥
श्लोक-४६
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं ब्रुवाण उत्कृत्य जटां रोषविदीपितः।
तया स निर्ममे तस्मै कृत्यां कालानलोपमाम्॥
मूलम्
एवं ब्रुवाण उत्कृत्य जटां रोषविदीपितः।
तया स निर्ममे तस्मै कृत्यां कालानलोपमाम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
यों कहते-कहते वे क्रोधसे जल उठे। उन्होंने अपनी एक जटा उखाड़ी और उससे अम्बरीषको मार डालनेके लिये एक कृत्या उत्पन्न की। वह प्रलयकालकी आगके समान दहक रही थी॥ ४६॥
श्लोक-४७
विश्वास-प्रस्तुतिः
तामापतन्तीं ज्वलतीमसिहस्तां पदा भुवम्।
वेपयन्तीं समुद्वीक्ष्य न चचाल पदान्नृपः॥
मूलम्
तामापतन्तीं ज्वलतीमसिहस्तां पदा भुवम्।
वेपयन्तीं समुद्वीक्ष्य न चचाल पदान्नृपः॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह आगके समान जलती हुई, हाथमें तलवार लेकर राजा अम्बरीषपर टूट पड़ी। उस समय उसके पैरोंकी धमकसे पृथ्वी काँप रही थी। परन्तु राजा अम्बरीष उसे देखकर उससे तनिक भी विचलित नहीं हुए। वे एक पग भी नहीं हटे, ज्यों-के-त्यों खड़े रहे॥ ४७॥
श्लोक-४८
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्राग्दिष्टं भृत्यरक्षायां पुरुषेण महात्मना।
ददाह कृत्यां तां चक्रं क्रुद्धाहिमिव पावकः॥
मूलम्
प्राग्दिष्टं भृत्यरक्षायां पुरुषेण महात्मना।
ददाह कृत्यां तां चक्रं क्रुद्धाहिमिव पावकः॥
अनुवाद (हिन्दी)
परमपुरुष परमात्माने अपने सेवककी रक्षाके लिये पहलेसे ही सुदर्शन चक्रको नियुक्त कर रखा था। जैसे आग क्रोधसे गुर्राते हुए साँपको भस्म कर देती है, वैसे ही चक्रने दुर्वासाजीकी कृत्याको जलाकर राखका ढेर कर दिया॥ ४८॥
श्लोक-४९
विश्वास-प्रस्तुतिः
तदभिद्रवदुद्वीक्ष्य स्वप्रयासं च निष्फलम्।
दुर्वासा दुद्रुवे भीतो दिक्षु प्राणपरीप्सया॥
मूलम्
तदभिद्रवदुद्वीक्ष्य स्वप्रयासं च निष्फलम्।
दुर्वासा दुद्रुवे भीतो दिक्षु प्राणपरीप्सया॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब दुर्वासाजीने देखा कि मेरी बनायी हुई कृत्या तो जल रही है और चक्र मेरी ओर आ रहा है, तब वे भयभीत हो अपने प्राण बचानेके लिये जी छोड़कर एकाएक भाग निकले॥ ४९॥
श्लोक-५०
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमन्वधावद् भगवद्रथाङ्गं
दावाग्निरुद्धूतशिखो यथाहिम्।
तथानुषक्तं मुनिरीक्षमाणो
गुहां विविक्षुः प्रससार मेरोः॥
मूलम्
तमन्वधावद् भगवद्रथाङ्गं
दावाग्निरुद्धूतशिखो यथाहिम्।
तथानुषक्तं मुनिरीक्षमाणो
गुहां विविक्षुः प्रससार मेरोः॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे ऊँची-ऊँची लपटोंवाला दावानल साँपके पीछे दौड़ता है, वैसे ही भगवान्का चक्र उनके पीछे-पीछे दौड़ने लगा। जब दुर्वासाजीने देखा कि चक्र तो मेरे पीछे लग गया है, तब सुमेरु पर्वतकी गुफामें प्रवेश करनेके लिये वे उसी ओर दौड़ पड़े॥ ५०॥
श्लोक-५१
विश्वास-प्रस्तुतिः
दिशो नभः क्ष्मां विवरान् समुद्रा-
ल्ँलोकान् सपालांस्त्रिदिवं गतः सः।
यतो यतो धावति तत्र तत्र
सुदर्शनं दुष्प्रसहं ददर्श॥
मूलम्
दिशो नभः क्ष्मां विवरान् समुद्रा-
ल्ँलोकान् सपालांस्त्रिदिवं गतः सः।
यतो यतो धावति तत्र तत्र
सुदर्शनं दुष्प्रसहं ददर्श॥
अनुवाद (हिन्दी)
दुर्वासाजी दिशा, आकाश, पृथ्वी, अतल-वितल आदि नीचेके लोक, समुद्र, लोकपाल और उनके द्वारा सुरक्षित लोक एवं स्वर्गतकमें गये; परन्तु जहाँ-जहाँ वे गये, वहीं-वहीं उन्होंने असह्य तेजवाले सुदर्शन चक्रको अपने पीछे लगा देखा॥ ५१॥
श्लोक-५२
विश्वास-प्रस्तुतिः
अलब्धनाथः स यदा कुतश्चित्
संत्रस्तचित्तोऽरणमेषमाणः।
देवं विरिञ्चं समगाद् विधात-
स्त्राह्यात्मयोनेऽजिततेजसो माम्॥
मूलम्
अलब्धनाथः स यदा कुतश्चित्
संत्रस्तचित्तोऽरणमेषमाणः।
देवं विरिञ्चं समगाद् विधात-
स्त्राह्यात्मयोनेऽजिततेजसो माम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब उन्हें कहीं भी कोई रक्षक न मिला तब तो वे और भी डर गये। अपने लिये त्राण ढूँढ़ते हुए वे देवशिरोमणि ब्रह्माजीके पास गये और बोले—‘ब्रह्माजी! आप स्वयम्भू हैं। भगवान्के इस तेजोमय चक्रसे मेरी रक्षा कीजिये’॥ ५२॥
श्लोक-५३
मूलम् (वचनम्)
ब्रह्मोवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्थानं मदीयं सहविश्वमेतत्
क्रीडावसाने द्विपरार्धसंज्ञे।
भ्रूभङ्गमात्रेण हि संदिधक्षोः
कालात्मनो यस्य तिरोभविष्यति॥
मूलम्
स्थानं मदीयं सहविश्वमेतत्
क्रीडावसाने द्विपरार्धसंज्ञे।
भ्रूभङ्गमात्रेण हि संदिधक्षोः
कालात्मनो यस्य तिरोभविष्यति॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्रह्माजीने कहा—‘जब मेरी दो परार्धकी आयु समाप्त होगी और कालस्वरूप भगवान् अपनी यह सृष्टिलीला समेटने लगेंगे और इस जगत्को जलाना चाहेंगे, उस समय उनके भ्रूभंगमात्रसे यह सारा संसार और मेरा यह लोक भी लीन हो जायगा॥ ५३॥
श्लोक-५४
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहं भवो दक्षभृगुप्रधानाः
प्रजेशभूतेशसुरेशमुख्याः।
सर्वे वयं यन्नियमं प्रपन्ना
मूर्ध्न्यर्पितं लोकहितं वहामः॥
मूलम्
अहं भवो दक्षभृगुप्रधानाः
प्रजेशभूतेशसुरेशमुख्याः।
सर्वे वयं यन्नियमं प्रपन्ना
मूर्ध्न्यर्पितं लोकहितं वहामः॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैं, शंकरजी, दक्ष-भृगु आदि प्रजापति, भूतेश्वर, देवेश्वर आदि सब जिनके बनाये नियमोंमें बँधे हैं तथा जिनकी आज्ञा शिरोधार्य करके हमलोग संसारका हित करते हैं, (उनके भक्तके द्रोहीको बचानेके लिये हम समर्थ नहीं हैं)’॥ ५४॥
श्लोक-५५
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रत्याख्यातो विरिञ्चेन विष्णुचक्रोपतापितः।
दुर्वासाः शरणं यातः शर्वं कैलासवासिनम्॥
मूलम्
प्रत्याख्यातो विरिञ्चेन विष्णुचक्रोपतापितः।
दुर्वासाः शरणं यातः शर्वं कैलासवासिनम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब ब्रह्माजीने इस प्रकार दुर्वासाको निराश कर दिया, तब भगवान्के चक्रसे संतप्त होकर वे कैलासवासी भगवान् शंकरकी शरणमें गये॥ ५५॥
श्लोक-५६
मूलम् (वचनम्)
श्रीरुद्र उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
वयं न तात प्रभवाम भूम्नि
यस्मिन् परेऽन्येऽप्यजजीवकोशाः।
भवन्ति काले न भवन्ति हीदृशाः
सहस्रशो यत्र वयं भ्रमामः॥
मूलम्
वयं न तात प्रभवाम भूम्नि
यस्मिन् परेऽन्येऽप्यजजीवकोशाः।
भवन्ति काले न भवन्ति हीदृशाः
सहस्रशो यत्र वयं भ्रमामः॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीमहादेवजीने कहा—‘दुर्वासाजी! जिन अनन्त परमेश्वरमें ब्रह्मा-जैसे जीव और उनके उपाधि भूतकोश, इस ब्रह्माण्डके समान ही अनेकों ब्रह्माण्ड समयपर पैदा होते हैं और समय आनेपर फिर उनका पता भी नहीं चलता, जिनमें हमारे-जैसे हजारों चक्कर काटते रहते हैं—उन प्रभुके सम्बन्धमें हम कुछ भी करनेकी सामर्थ्य नहीं रखते॥ ५६॥
श्लोक-५७
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहं सनत्कुमारश्च नारदो भगवानजः।
कपिलोऽपान्तरतमो देवलो धर्म आसुरिः॥
मूलम्
अहं सनत्कुमारश्च नारदो भगवानजः।
कपिलोऽपान्तरतमो देवलो धर्म आसुरिः॥
श्लोक-५८
विश्वास-प्रस्तुतिः
मरीचिप्रमुखाश्चान्ये सिद्धेशाः पारदर्शनाः।
विदाम न वयं सर्वे यन्मायां माययाऽऽवृताः॥
मूलम्
मरीचिप्रमुखाश्चान्ये सिद्धेशाः पारदर्शनाः।
विदाम न वयं सर्वे यन्मायां माययाऽऽवृताः॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैं, सनत्कुमार, नारद, भगवान् ब्रह्मा, कपिलदेव, अपान्तरतम, देवल, धर्म, आसुरि तथा मरीचि आदि दूसरे सर्वज्ञ सिद्धेश्वर—ये हम सभी भगवान्की मायाको नहीं जान सकते। क्योंकि हम उसी मायाके घेरेमें हैं॥ ५७-५८॥
श्लोक-५९
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्य विश्वेश्वरस्येदं शस्त्रं दुर्विषहं हि नः।
तमेव शरणं याहि हरिस्ते शं विधास्यति॥
मूलम्
तस्य विश्वेश्वरस्येदं शस्त्रं दुर्विषहं हि नः।
तमेव शरणं याहि हरिस्ते शं विधास्यति॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह चक्र उन विश्वेश्वरका शस्त्र है। यह हमलोगोंके लिये असह्य है। तुम उन्हींकी शरणमें जाओ। वे भगवान् ही तुम्हारा मंगल करेंगे’॥ ५९॥
श्लोक- ६०
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो निराशो दुर्वासाः पदं भगवतो ययौ।
वैकुण्ठाख्यं यदध्यास्ते श्रीनिवासः श्रिया सह॥
मूलम्
ततो निराशो दुर्वासाः पदं भगवतो ययौ।
वैकुण्ठाख्यं यदध्यास्ते श्रीनिवासः श्रिया सह॥
अनुवाद (हिन्दी)
वहाँसे भी निराश होकर दुर्वासा भगवान्के परमधाम वैकुण्ठमें गये। लक्ष्मीपति भगवान् लक्ष्मीके साथ वहीं निवास करते हैं॥ ६०॥
श्लोक-६१
विश्वास-प्रस्तुतिः
संदह्यमानोऽजितशस्त्रवह्निना
तत्पादमूले पतितः सवेपथुः।
आहाच्युतानन्त सदीप्सित प्रभो
कृतागसं माव हि विश्वभावन॥
मूलम्
संदह्यमानोऽजितशस्त्रवह्निना
तत्पादमूले पतितः सवेपथुः।
आहाच्युतानन्त सदीप्सित प्रभो
कृतागसं माव हि विश्वभावन॥
अनुवाद (हिन्दी)
दुर्वासाजी भगवान्के चक्रकी आगसे जल रहे थे। वे काँपते हुए भगवान्के चरणोंमें गिर पड़े। उन्होंने कहा—‘हे अच्युत! हे अनन्त! आप संतोंके एकमात्र वाञ्छनीय हैं। प्रभो! विश्वके जीवनदाता! मैं अपराधी हूँ। आप मेरी रक्षा कीजिये॥ ६१॥
श्लोक-६२
विश्वास-प्रस्तुतिः
अजानता ते परमानुभावं
कृतं मयाघं भवतः प्रियाणाम्।
विधेहि तस्यापचितिं विधात-
र्मुच्येत यन्नाम्न्युदिते नारकोऽपि॥
मूलम्
अजानता ते परमानुभावं
कृतं मयाघं भवतः प्रियाणाम्।
विधेहि तस्यापचितिं विधात-
र्मुच्येत यन्नाम्न्युदिते नारकोऽपि॥
अनुवाद (हिन्दी)
आपका परम प्रभाव न जाननेके कारण ही मैंने आपके प्यारे भक्तका अपराध किया है। प्रभो! आप मुझे उससे बचाइये। आपके तो नामका ही उच्चारण करनेसे नारकी जीव भी मुक्त हो जाता है’॥ ६२॥
श्लोक-६३
मूलम् (वचनम्)
श्रीभगवानुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहं भक्तपराधीनो ह्यस्वतन्त्र इव द्विज।
साधुभिर्ग्रस्तहृदयो भक्तैर्भक्तजनप्रियः॥
मूलम्
अहं भक्तपराधीनो ह्यस्वतन्त्र इव द्विज।
साधुभिर्ग्रस्तहृदयो भक्तैर्भक्तजनप्रियः॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीभगवान्ने कहा—दुर्वासाजी! मैं सर्वथा भक्तोंके अधीन हूँ। मुझमें तनिक भी स्वतन्त्रता नहीं है। मेरे सीधे-सादे सरल भक्तोंने मेरे हृदयको अपने हाथमें कर रखा है। भक्तजन मुझसे प्यार करते हैं और मैं उनसे॥ ६३॥
श्लोक-६४
विश्वास-प्रस्तुतिः
नाहमात्मानमाशासे मद्भक्तैः साधुभिर्विना।
श्रियं चात्यन्तिकीं ब्रह्मन् येषां गतिरहं परा॥
मूलम्
नाहमात्मानमाशासे मद्भक्तैः साधुभिर्विना।
श्रियं चात्यन्तिकीं ब्रह्मन् येषां गतिरहं परा॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्रह्मन्! अपने भक्तोंका एकमात्र आश्रय मैं ही हूँ। इसलिये अपने साधुस्वभाव भक्तोंको छोड़कर मैं न तो अपने-आपको चाहता हूँ और न अपनी अर्द्धांगिनी विनाशरहित लक्ष्मीको॥ ६४॥
श्लोक-६५
विश्वास-प्रस्तुतिः
ये दारागारपुत्राप्तान् प्राणान् वित्तमिमं परम्।
हित्वा मां शरणं याताः कथं तांस्त्यक्तुमुत्सहे॥
मूलम्
ये दारागारपुत्राप्तान् प्राणान् वित्तमिमं परम्।
हित्वा मां शरणं याताः कथं तांस्त्यक्तुमुत्सहे॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो भक्त स्त्री, पुत्र, गृह, गुरुजन, प्राण, धन, इहलोक और परलोक—सबको छोड़कर केवल मेरी शरणमें आ गये हैं, उन्हें छोड़नेका संकल्प भी मैं कैसे कर सकता हूँ?॥ ६५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मूलम्
श्लोक-६६
विश्वास-प्रस्तुतिः
मयि निर्बद्धहृदयाः साधवः समदर्शनाः।
वशीकुर्वन्ति मां भक्त्या सत्स्त्रियः सत्पतिं यथा॥
मूलम्
मयि निर्बद्धहृदयाः साधवः समदर्शनाः।
वशीकुर्वन्ति मां भक्त्या सत्स्त्रियः सत्पतिं यथा॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे सती स्त्री अपने पातिव्रत्यसे सदाचारी पतिको वशमें कर लेती है, वैसे ही मेरे साथ अपने हृदयको प्रेम-बन्धनसे बाँध रखनेवाले समदर्शी साधु भक्तिके द्वारा मुझे अपने वशमें कर लेते हैं॥ ६६॥
श्लोक-६७
विश्वास-प्रस्तुतिः
मत्सेवया प्रतीतं च सालोक्यादिचतुष्टयम्।
नेच्छन्ति सेवया पूर्णाः कुतोऽन्यत् कालविद्रुतम्॥
मूलम्
मत्सेवया प्रतीतं च सालोक्यादिचतुष्टयम्।
नेच्छन्ति सेवया पूर्णाः कुतोऽन्यत् कालविद्रुतम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
मेरे अनन्यप्रेमी भक्त सेवासे ही अपनेको परिपूर्ण—कृतकृत्य मानते हैं। मेरी सेवाके फलस्वरूप जब उन्हें सालोक्य, सारूप्य आदि मुक्तियाँ प्राप्त होती हैं तब वे उन्हें भी स्वीकार करना नहीं चाहते; फिर समयके फेरसे नष्ट हो जानेवाली वस्तुओंकी तो बात ही क्या है॥ ६७॥
श्लोक-६८
विश्वास-प्रस्तुतिः
साधवो हृदयं मह्यं साधूनां हृदयं त्वहम्।
मदन्यत् ते न जानन्ति नाहं तेभ्यो मनागपि॥
मूलम्
साधवो हृदयं मह्यं साधूनां हृदयं त्वहम्।
मदन्यत् ते न जानन्ति नाहं तेभ्यो मनागपि॥
अनुवाद (हिन्दी)
दुर्वासाजी! मैं आपसे और क्या कहूँ, मेरे प्रेमी भक्त तो मेरे हृदय हैं और उन प्रेमी भक्तोंका हृदय स्वयं मैं हूँ। वे मेरे अतिरिक्त और कुछ नहीं जानते तथा मैं उनके अतिरिक्त और कुछ भी नहीं जानता॥ ६८॥
श्लोक-६९
विश्वास-प्रस्तुतिः
उपायं कथयिष्यामि तव विप्र शृणुष्व तत्।
अयं ह्यात्माभिचारस्ते यतस्तं यातु वै भवान्।
साधुषु प्रहितं तेजः प्रहर्तुः कुरुतेऽशिवम्॥
मूलम्
उपायं कथयिष्यामि तव विप्र शृणुष्व तत्।
अयं ह्यात्माभिचारस्ते यतस्तं यातु वै भवान्।
साधुषु प्रहितं तेजः प्रहर्तुः कुरुतेऽशिवम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
दुर्वासाजी! सुनिये, मैं आपको एक उपाय बताता हूँ। जिसका अनिष्ट करनेसे आपको इस विपत्तिमें पड़ना पड़ा है, आप उसीके पास जाइये। निरपराध साधुओंके अनिष्टकी चेष्टासे अनिष्ट करनेवालेका ही अमंगल होता है॥ ६९॥
श्लोक-७०
विश्वास-प्रस्तुतिः
तपो विद्या च विप्राणां निःश्रेयसकरे उभे।
ते एव दुर्विनीतस्य कल्पेते कर्तुरन्यथा॥
मूलम्
तपो विद्या च विप्राणां निःश्रेयसकरे उभे।
ते एव दुर्विनीतस्य कल्पेते कर्तुरन्यथा॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसमें सन्देह नहीं कि ब्राह्मणोंके लिये तपस्या और विद्या परम कल्याणके साधन हैं। परन्तु यदि ब्राह्मण उद्दण्ड और अन्यायी हो जाय तो वे ही दोनों उलटा फल देने लगते हैं॥ ७०॥
श्लोक-७१
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्रह्मंस्तद् गच्छ भद्रं ते नाभागतनयं नृपम्।
क्षमापय महाभागं ततः शान्तिर्भविष्यति॥
मूलम्
ब्रह्मंस्तद् गच्छ भद्रं ते नाभागतनयं नृपम्।
क्षमापय महाभागं ततः शान्तिर्भविष्यति॥
अनुवाद (हिन्दी)
दुर्वासाजी! आपका कल्याण हो। आप नाभागनन्दन परम भाग्यशाली राजा अम्बरीषके पास जाइये और उनसे क्षमा माँगिये। तब आपको शान्ति मिलेगी॥ ७१॥
अनुवाद (समाप्ति)
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां नवमस्कन्धेऽम्बरीषचरिते चतुर्थोऽध्यायः॥ ४॥