०३

[तृतीयोऽध्यायः]

भागसूचना

महर्षि च्यवन और सुकन्याका चरित्र, राजा शर्यातिका वंश

श्लोक-१

मूलम् (वचनम्)

श्रीशुक उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

शर्यातिर्मानवो राजा ब्रह्मिष्ठः स बभूव ह।
यो वा अङ्गिरसां सत्रे द्वितीयमह ऊचिवान्॥

मूलम्

शर्यातिर्मानवो राजा ब्रह्मिष्ठः स बभूव ह।
यो वा अङ्गिरसां सत्रे द्वितीयमह ऊचिवान्॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! मनुपुत्र राजा शर्याति वेदोंका निष्ठावान् विद्वान् था। उसने अंगिरागोत्रके ऋषियोंके यज्ञमें दूसरे दिनका कर्म बतलाया था॥ १॥

श्लोक-२

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुकन्या नाम तस्यासीत् कन्या कमललोचना।
तया सार्धं वनगतो ह्यगमच्च्यवनाश्रमम्॥

मूलम्

सुकन्या नाम तस्यासीत् कन्या कमललोचना।
तया सार्धं वनगतो ह्यगमच्च्यवनाश्रमम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसकी एक कमललोचना कन्या थी। उसका नाम था सुकन्या। एक दिन राजा शर्याति अपनी कन्याके साथ वनमें घूमते-घूमते च्यवन ऋषिके आश्रमपर जा पहुँचे॥ २॥

श्लोक-३

विश्वास-प्रस्तुतिः

सा सखीभिः परिवृता विचिन्वत्यङ्घ्रिपान् वने।
वल्मीकरन्ध्रे ददृशे खद्योते इव ज्योतिषी॥

मूलम्

सा सखीभिः परिवृता विचिन्वत्यङ्घ्रिपान् वने।
वल्मीकरन्ध्रे ददृशे खद्योते इव ज्योतिषी॥

अनुवाद (हिन्दी)

सुकन्या अपनी सखियोंके साथ वनमें घूम-घूमकर वृक्षोंका सौन्दर्य देख रही थी। उसने एक स्थानपर देखा कि बाँबी (दीमकोंकी एकत्रित की हुई मिट्टी)-के छेदमेंसे जुगनूकी तरह दो ज्योतियाँ दीख रही हैं॥ ३॥

श्लोक-४

विश्वास-प्रस्तुतिः

ते दैवचोदिता बाला ज्योतिषी कण्टकेन वै।
अविध्यन्मुग्धभावेन सुस्रावासृक् ततो बहु॥

मूलम्

ते दैवचोदिता बाला ज्योतिषी कण्टकेन वै।
अविध्यन्मुग्धभावेन सुस्रावासृक् ततो बहु॥

अनुवाद (हिन्दी)

दैवकी कुछ ऐसी ही प्रेरणा थी, सुकन्याने बालसुलभ चपलतासे एक काँटेके द्वारा उन ज्योतियोंको बेध दिया। इससे उनमेंसे बहुत-सा खून बह चला॥ ४॥

श्लोक-५

विश्वास-प्रस्तुतिः

शकृन्मूत्रनिरोधोऽभूत् सैनिकानां च तत्क्षणात्।
राजर्षिस्तमुपालक्ष्य पुरुषान् विस्मितोऽब्रवीत्॥

मूलम्

शकृन्मूत्रनिरोधोऽभूत् सैनिकानां च तत्क्षणात्।
राजर्षिस्तमुपालक्ष्य पुरुषान् विस्मितोऽब्रवीत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसी समय राजा शर्यातिके सैनिकोंका मल-मूत्र रुक गया। राजर्षि शर्यातिको यह देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ, उन्होंने अपने सैनिकोंसे कहा॥ ५॥

श्लोक-६

विश्वास-प्रस्तुतिः

अप्यभद्रं न युष्माभिर्भार्गवस्य विचेष्टितम्।
व्यक्तं केनापि नस्तस्य कृतमाश्रमदूषणम्॥

मूलम्

अप्यभद्रं न युष्माभिर्भार्गवस्य विचेष्टितम्।
व्यक्तं केनापि नस्तस्य कृतमाश्रमदूषणम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘अरे, तुम-लोगोंने कहीं महर्षि च्यवनजीके प्रति कोई अनुचित व्यवहार तो नहीं कर दिया? मुझे तो यह स्पष्ट जान पड़ता है कि हमलोगोंमेंसे किसी-न-किसीने उनके आश्रममें कोई अनर्थ किया है’॥ ६॥

श्लोक-७

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुकन्या प्राह पितरं भीता किञ्चित् कृतं मया।
द्वे ज्योतिषी अजानन्त्या निर्भिन्ने कण्टकेन वै॥

मूलम्

सुकन्या प्राह पितरं भीता किञ्चित् कृतं मया।
द्वे ज्योतिषी अजानन्त्या निर्भिन्ने कण्टकेन वै॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब सुकन्याने अपने पितासे डरते-डरते कहा कि ‘पिताजी! मैंने कुछ अपराध अवश्य किया है। मैंने अनजानमें दो ज्योतियोंको काँटेसे छेद दिया है’॥ ७॥

श्लोक-८

विश्वास-प्रस्तुतिः

दुहितुस्तद् वचः श्रुत्वा शर्यातिर्जातसाध्वसः।
मुनिं प्रसादयामास वल्मीकान्तर्हितं शनैः॥

मूलम्

दुहितुस्तद् वचः श्रुत्वा शर्यातिर्जातसाध्वसः।
मुनिं प्रसादयामास वल्मीकान्तर्हितं शनैः॥

अनुवाद (हिन्दी)

अपनी कन्याकी यह बात सुनकर शर्याति घबरा गये। उन्होंने धीरे-धीरे स्तुति करके बाँबीमें छिपे हुए च्यवन मुनिको प्रसन्न किया॥ ८॥

श्लोक-९

विश्वास-प्रस्तुतिः

तदभिप्रायमाज्ञाय प्रादाद् दुहितरं मुनेः।
कृच्छ्रान्मुक्तस्तमामन्त्र्य पुरं प्रायात् समाहितः॥

मूलम्

तदभिप्रायमाज्ञाय प्रादाद् दुहितरं मुनेः।
कृच्छ्रान्मुक्तस्तमामन्त्र्य पुरं प्रायात् समाहितः॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर च्यवन मुनिका अभिप्राय जानकर उन्होंने अपनी कन्या उन्हें समर्पित कर दी और इस संकटसे छूटकर बड़ी सावधानीसे उनकी अनुमति लेकर वे अपनी राजधानीमें चले आये॥ ९॥

श्लोक-१०

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुकन्या च्यवनं प्राप्य पतिं परमकोपनम्।
प्रीणयामास चित्तज्ञा अप्रमत्तानुवृत्तिभिः॥

मूलम्

सुकन्या च्यवनं प्राप्य पतिं परमकोपनम्।
प्रीणयामास चित्तज्ञा अप्रमत्तानुवृत्तिभिः॥

अनुवाद (हिन्दी)

इधर सुकन्या परम क्रोधी च्यवन मुनिको अपने पतिके रूपमें प्राप्त करके बड़ी सावधानीसे उनकी सेवा करती हुई उन्हें प्रसन्न करने लगी। वह उनकी मनोवृत्तिको जानकर उसके अनुसार ही बर्ताव करती थी॥ १०॥

श्लोक-११

विश्वास-प्रस्तुतिः

कस्यचित् त्वथ कालस्य नासत्यावाश्रमागतौ।
तौ पूजयित्वा प्रोवाच वयो मे दत्तमीश्वरौ॥

मूलम्

कस्यचित् त्वथ कालस्य नासत्यावाश्रमागतौ।
तौ पूजयित्वा प्रोवाच वयो मे दत्तमीश्वरौ॥

श्लोक-१२

विश्वास-प्रस्तुतिः

ग्रहं ग्रहीष्ये सोमस्य यज्ञे वामप्यसोमपोः।
क्रियतां मे वयो रूपं प्रमदानां यदीप्सितम्॥

मूलम्

ग्रहं ग्रहीष्ये सोमस्य यज्ञे वामप्यसोमपोः।
क्रियतां मे वयो रूपं प्रमदानां यदीप्सितम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुछ समय बीत जानेपर उनके आश्रमपर दोनों अश्विनीकुमार आये। च्यवन मुनिने उनका यथोचित सत्कार किया और कहा कि ‘आप दोनों समर्थ हैं, इसलिये मुझे युवा-अवस्था प्रदान कीजिये। मेरा रूप एवं अवस्था ऐसी कर दीजिये, जिसे युवती स्त्रियाँ चाहती हैं। मैं जानता हूँ कि आपलोग सोमपानके अधिकारी नहीं हैं, फिर भी मैं आपको यज्ञमें सोमरसका भाग दूँगा’॥ ११-१२॥

श्लोक-१३

विश्वास-प्रस्तुतिः

बाढमित्यूचतुर्विप्रमभिनन्द्य भिषक्तमौ।
निमज्जतां भवानस्मिन् ह्रदे सिद्धविनिर्मिते॥

मूलम्

बाढमित्यूचतुर्विप्रमभिनन्द्य भिषक्तमौ।
निमज्जतां भवानस्मिन् ह्रदे सिद्धविनिर्मिते॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैद्यशिरोमणि अश्विनीकुमारोंने महर्षि च्यवनका अभिनन्दन करके कहा, ‘ठीक है।’ और इसके बाद उनसे कहा कि ‘यह सिद्धोंके द्वारा बनाया हुआ कुण्ड है, आप इसमें स्नान कीजिये’॥ १३॥

श्लोक-१४

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्युक्त्वा जरया ग्रस्तदेहो धमनिसन्ततः।
ह्रदं प्रवेशितोऽश्विभ्यां वलीपलितविप्रियः॥

मूलम्

इत्युक्त्वा जरया ग्रस्तदेहो धमनिसन्ततः।
ह्रदं प्रवेशितोऽश्विभ्यां वलीपलितविप्रियः॥

अनुवाद (हिन्दी)

च्यवन मुनिके शरीरको बुढ़ापेने घेर रखा था। सब ओर नसें दीख रही थीं, झुर्रियाँ पड़ जाने एवं बाल पक जानेके कारण वे देखनेमें बहुत भद्दे लगते थे। अश्विनीकुमारोंने उन्हें अपने साथ लेकर कुण्डमें प्रवेश किया॥ १४॥

श्लोक-१५

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुरुषास्त्रय उत्तस्थुरपीच्या वनिताप्रियाः।
पद्मस्रजः कुण्डलिनस्तुल्यरूपाः सुवाससः॥

मूलम्

पुरुषास्त्रय उत्तस्थुरपीच्या वनिताप्रियाः।
पद्मस्रजः कुण्डलिनस्तुल्यरूपाः सुवाससः॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसी समय कुण्डसे तीन पुरुष बाहर निकले। वे तीनों ही कमलोंकी माला, कुण्डल और सुन्दर वस्त्र पहने एक-से मालूम होते थे। वे बड़े ही सुन्दर एवं स्त्रियोंको प्रिय लगनेवाले थे॥ १५॥

श्लोक-१६

विश्वास-प्रस्तुतिः

तान् निरीक्ष्य वरारोहा सरूपान् सूर्यवर्चसः।
अजानती पतिं साध्वी अश्विनौ शरणं ययौ॥

मूलम्

तान् निरीक्ष्य वरारोहा सरूपान् सूर्यवर्चसः।
अजानती पतिं साध्वी अश्विनौ शरणं ययौ॥

अनुवाद (हिन्दी)

परम साध्वी सुन्दरी सुकन्याने जब देखा कि ये तीनों ही एक आकृतिके तथा सूर्यके समान तेजस्वी हैं, तब अपने पतिको न पहचानकर उसने अश्विनीकुमारोंकी शरण ली॥ १६॥

श्लोक-१७

विश्वास-प्रस्तुतिः

दर्शयित्वा पतिं तस्यै पातिव्रत्येन तोषितौ।
ऋषिमामन्त्र्य ययतुर्विमानेन त्रिविष्टपम्॥

मूलम्

दर्शयित्वा पतिं तस्यै पातिव्रत्येन तोषितौ।
ऋषिमामन्त्र्य ययतुर्विमानेन त्रिविष्टपम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसके पातिव्रत्यसे अश्विनीकुमार बहुत सन्तुष्ट हुए। उन्होंने उसके पतिको बतला दिया और फिर च्यवन मुनिसे आज्ञा लेकर विमानके द्वारा वे स्वर्गको चले गये॥ १७॥

श्लोक-१८

विश्वास-प्रस्तुतिः

यक्ष्यमाणोऽथ शर्यातिश्च्यवनस्याश्रमं गतः।
ददर्श दुहितुः पार्श्वे पुरुषं सूर्यवर्चसम्॥

मूलम्

यक्ष्यमाणोऽथ शर्यातिश्च्यवनस्याश्रमं गतः।
ददर्श दुहितुः पार्श्वे पुरुषं सूर्यवर्चसम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुछ समयके बाद यज्ञ करनेकी इच्छासे राजा शर्याति च्यवन मुनिके आश्रमपर आये। वहाँ उन्होंने देखा कि उनकी कन्या सुकन्याके पास एक सूर्यके समान तेजस्वी पुरुष बैठा हुआ है॥ १८॥

श्लोक-१९

विश्वास-प्रस्तुतिः

राजा दुहितरं प्राह कृतपादाभिवन्दनाम्।
आशिषश्चाप्रयुञ्जानो नातिप्रीतमना इव॥

मूलम्

राजा दुहितरं प्राह कृतपादाभिवन्दनाम्।
आशिषश्चाप्रयुञ्जानो नातिप्रीतमना इव॥

अनुवाद (हिन्दी)

सुकन्याने उनके चरणोंकी वन्दना की। शर्यातिने उसे आशीर्वाद नहीं दिया और कुछ अप्रसन्न-से होकर बोले॥ १९॥

श्लोक-२०

विश्वास-प्रस्तुतिः

चिकीर्षितं ते किमिदं पतिस्त्वया
प्रलम्भितो लोकनमस्कृतो मुनिः।
यत् त्वं जराग्रस्तमसत्यसम्मतं
विहाय जारं भजसेऽमुमध्वगम्॥

मूलम्

चिकीर्षितं ते किमिदं पतिस्त्वया
प्रलम्भितो लोकनमस्कृतो मुनिः।
यत् त्वं जराग्रस्तमसत्यसम्मतं
विहाय जारं भजसेऽमुमध्वगम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘दुष्टे! यह तूने क्या किया? क्या तूने सबके वन्दनीय च्यवन मुनिको धोखा दे दिया? अवश्य ही तूने उनको बूढ़ा और अपने कामका न समझकर छोड़ दिया और अब तू इस राह चलते जार पुरुषकी सेवा कर रही है॥ २०॥

श्लोक-२१

विश्वास-प्रस्तुतिः

कथं मतिस्तेऽवगतान्यथा सतां
कुलप्रसूते कुलदूषणं त्विदम्।
बिभर्षि जारं यदपत्रपा कुलं
पितुश्च भर्तुश्च नयस्यधस्तमः॥

मूलम्

कथं मतिस्तेऽवगतान्यथा सतां
कुलप्रसूते कुलदूषणं त्विदम्।
बिभर्षि जारं यदपत्रपा कुलं
पितुश्च भर्तुश्च नयस्यधस्तमः॥

अनुवाद (हिन्दी)

तेरा जन्म तो बड़े ऊँचे कुलमें हुआ था। यह उलटी बुद्धि तुझे कैसे प्राप्त हुई? तेरा यह व्यवहार तो कुलमें कलंक लगाने वाला है। अरे राम-राम! तू निर्लज्ज होकर जार पुरुषकी सेवा कर रही है और इस प्रकार अपने पिता और पति दोनोंके वंशको घोर नरकमें ले जा रही है’॥ २१॥

श्लोक-२२

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं ब्रुवाणं पितरं स्मयमाना शुचिस्मिता।
उवाच तात जामाता तवैष भृगुनन्दनः॥

मूलम्

एवं ब्रुवाणं पितरं स्मयमाना शुचिस्मिता।
उवाच तात जामाता तवैष भृगुनन्दनः॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजा शर्यातिके इस प्रकार कहनेपर पवित्र मुसकानवाली सुकन्याने मुसकराकर कहा—‘पिताजी! ये आपके जामाता स्वयं भृगुनन्दन महर्षि च्यवन ही हैं’॥ २२॥

श्लोक-२३

विश्वास-प्रस्तुतिः

शशंस पित्रे तत् सर्वं वयोरूपाभिलम्भनम्।
विस्मितः परमप्रीतस्तनयां परिषस्वजे॥

मूलम्

शशंस पित्रे तत् सर्वं वयोरूपाभिलम्भनम्।
विस्मितः परमप्रीतस्तनयां परिषस्वजे॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसके बाद उसने अपने पितासे महर्षि च्यवनके यौवन और सौन्दर्यकी प्राप्तिका सारा वृत्तान्त कह सुनाया। वह सब सुनकर राजा शर्याति अत्यन्त विस्मित हुए। उन्होंने बड़े प्रेमसे अपनी पुत्रीको गलेसे लगा लिया॥ २३॥

श्लोक-२४

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोमेन याजयन् वीरं ग्रहं सोमस्य चाग्रहीत्।
असोमपोरप्यश्विनोश्च्यवनः स्वेन तेजसा॥

मूलम्

सोमेन याजयन् वीरं ग्रहं सोमस्य चाग्रहीत्।
असोमपोरप्यश्विनोश्च्यवनः स्वेन तेजसा॥

अनुवाद (हिन्दी)

महर्षि च्यवनने वीर शर्यातिसे सोमयज्ञका अनुष्ठान करवाया और सोमपानके अधिकारी न होनेपर भी अपने प्रभावसे अश्विनीकुमारोंको सोमपान कराया॥ २४॥

श्लोक-२५

विश्वास-प्रस्तुतिः

हन्तुं तमाददे वज्रं सद्योमन्युरमर्षितः।
सवज्रं स्तम्भयामास भुजमिन्द्रस्य भार्गवः॥

मूलम्

हन्तुं तमाददे वज्रं सद्योमन्युरमर्षितः।
सवज्रं स्तम्भयामास भुजमिन्द्रस्य भार्गवः॥

अनुवाद (हिन्दी)

इन्द्र बहुत जल्दी क्रोध कर बैठते हैं। इसलिये उनसे यह सहा न गया। उन्होंने चिढ़-कर शर्यातिको मारनेके लिये वज्र उठाया। महर्षि च्यवनने वज्रके साथ उनके हाथको वहीं स्तम्भित कर दिया॥ २५॥

श्लोक-२६

विश्वास-प्रस्तुतिः

अन्वजानंस्ततः सर्वे ग्रहं सोमस्य चाश्विनोः।
भिषजाविति यत् पूर्वं सोमाहुत्या बहिष्कृतौ॥

मूलम्

अन्वजानंस्ततः सर्वे ग्रहं सोमस्य चाश्विनोः।
भिषजाविति यत् पूर्वं सोमाहुत्या बहिष्कृतौ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब सब देवताओंने अश्विनीकुमारोंको सोमका भाग देना स्वीकार कर लिया। उन लोगोंने वैद्य होनेके कारण पहले अश्विनीकुमारोंका सोमपानसे बहिष्कार कर रखा था॥ २६॥

श्लोक-२७

विश्वास-प्रस्तुतिः

उत्तानबर्हिरानर्तो भूरिषेण इति त्रयः।
शर्यातेरभवन् पुत्रा आनर्ताद् रेवतोऽभवत्॥

मूलम्

उत्तानबर्हिरानर्तो भूरिषेण इति त्रयः।
शर्यातेरभवन् पुत्रा आनर्ताद् रेवतोऽभवत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! शर्यातिके तीन पुत्र थे—उत्तानबर्हि, आनर्त और भूरिषेण। आनर्तसे रेवत हुए॥ २७॥

श्लोक-२८

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोऽन्तःसमुद्रे नगरीं विनिर्माय कुशस्थलीम्।
आस्थितोऽभुङ्‍‍क्त विषयानानर्तादीनरिन्दम॥

मूलम्

सोऽन्तःसमुद्रे नगरीं विनिर्माय कुशस्थलीम्।
आस्थितोऽभुङ्‍‍क्त विषयानानर्तादीनरिन्दम॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! रेवतने समुद्रके भीतर कुशस्थली नामकी एक नगरी बसायी थी। उसीमें रहकर वे आनर्त आदि देशोंका राज्य करते थे॥ २८॥

श्लोक-२९

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्य पुत्रशतं जज्ञे ककुद्मिज्येष्ठमुत्तमम्।
ककुद्मी रेवतीं कन्यां स्वामादाय विभुं गतः॥

मूलम्

तस्य पुत्रशतं जज्ञे ककुद्मिज्येष्ठमुत्तमम्।
ककुद्मी रेवतीं कन्यां स्वामादाय विभुं गतः॥

श्लोक-३०

विश्वास-प्रस्तुतिः

कन्यावरं परिप्रष्टुं ब्रह्मलोकमपावृतम्।
आवर्तमाने गान्धर्वे स्थितोऽलब्धक्षणः क्षणम्॥

मूलम्

कन्यावरं परिप्रष्टुं ब्रह्मलोकमपावृतम्।
आवर्तमाने गान्धर्वे स्थितोऽलब्धक्षणः क्षणम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनके सौ श्रेष्ठ पुत्र थे, जिनमें सबसे बड़े थे ककुद्मी। ककुद्मी अपनी कन्या रेवतीको लेकर उसके लिये वर पूछनेके उद्देश्यसे ब्रह्माजीके पास गये। उस समय ब्रह्मलोकका रास्ता ऐसे लोगोंके लिये बेरोक-टोक था। ब्रह्मलोकमें गाने-बजानेकी धूम मची हुई थी। बातचीतके लिये अवसर न मिलनेके कारण वे कुछ क्षण वहीं ठहर गये॥ २९-३०॥

श्लोक-३१

विश्वास-प्रस्तुतिः

तदन्त आद्यमानम्य स्वाभिप्रायं न्यवेदयत्।
तच्छ्रुत्वा भगवान् ब्रह्मा प्रहस्य तमुवाच ह॥

मूलम्

तदन्त आद्यमानम्य स्वाभिप्रायं न्यवेदयत्।
तच्छ्रुत्वा भगवान् ब्रह्मा प्रहस्य तमुवाच ह॥

अनुवाद (हिन्दी)

उत्सवके अन्तमें ब्रह्माजीको नमस्कार करके उन्होंने अपना अभिप्राय निवेदन किया। उनकी बात सुनकर भगवान् ब्रह्माजीने हँसकर उनसे कहा—॥ ३१॥

श्लोक-३२

विश्वास-प्रस्तुतिः

अहो राजन् निरुद्धास्ते कालेन हृदि ये कृताः।
तत्पुत्रपौत्रनप्तॄणां गोत्राणि च न शृण्महे॥

मूलम्

अहो राजन् निरुद्धास्ते कालेन हृदि ये कृताः।
तत्पुत्रपौत्रनप्तॄणां गोत्राणि च न शृण्महे॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘महाराज! तुमने अपने मनमें जिन लोगोंके विषयमें सोच रखा था, वे सब तो कालके गालमें चले गये। अब उनके पुत्र, पौत्र अथवा नातियोंकी तो बात ही क्या है, गोत्रोंके नाम भी नहीं सुनायी पड़ते॥ ३२॥

श्लोक-३३

विश्वास-प्रस्तुतिः

कालोऽभियातस्त्रिणवचतुर्युगविकल्पितः।
तद् गच्छ देवदेवांशो बलदेवो महाबलः॥

मूलम्

कालोऽभियातस्त्रिणवचतुर्युगविकल्पितः।
तद् गच्छ देवदेवांशो बलदेवो महाबलः॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस बीचमें सत्ताईस चतुर्युगीका समय बीत चुका है। इसलिये तुम जाओ। इस समय भगवान् नारायणके अंशावतार महाबली बलदेवजी पृथ्वीपर विद्यमान हैं॥ ३३॥

श्लोक-३४

विश्वास-प्रस्तुतिः

कन्यारत्नमिदं राजन् नररत्नाय देहि भोः।
भुवो भारावताराय भगवान् भूतभावनः॥

मूलम्

कन्यारत्नमिदं राजन् नररत्नाय देहि भोः।
भुवो भारावताराय भगवान् भूतभावनः॥

श्लोक-३५

विश्वास-प्रस्तुतिः

अवतीर्णो निजांशेन पुण्यश्रवणकीर्तनः।
इत्यादिष्टोऽभिवन्द्याजं नृपः स्वपुरमागतः।
त्यक्तं पुण्यजनत्रासाद् भ्रातृभिर्दिक्ष्ववस्थितैः॥

मूलम्

अवतीर्णो निजांशेन पुण्यश्रवणकीर्तनः।
इत्यादिष्टोऽभिवन्द्याजं नृपः स्वपुरमागतः।
त्यक्तं पुण्यजनत्रासाद् भ्रातृभिर्दिक्ष्ववस्थितैः॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! उन्हीं नररत्नको यह कन्यारत्न तुम समर्पित कर दो। जिनके नाम, लीला आदिका श्रवण-कीर्तन बड़ा ही पवित्र है—वे ही प्राणियोंके जीवन सर्वस्व भगवान् पृथ्वीका भार उतारनेके लिये अपने अंशसे अवतीर्ण हुए हैं।’ राजा ककुद्मीने ब्रह्माजीका यह आदेश प्राप्त करके उनके चरणोंकी वन्दना की और अपने नगरमें चले आये। उनके वंशजोंने यक्षोंके भयसे वह नगरी छोड़ दी थी और जहाँ-तहाँ यों ही निवास कर रहे थे॥ ३४-३५॥

श्लोक-३६

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुतां दत्त्वानवद्याङ्गीं बलाय बलशालिने।
बदर्याख्यं गतो राजा तप्तुं नारायणाश्रमम्॥

मूलम्

सुतां दत्त्वानवद्याङ्गीं बलाय बलशालिने।
बदर्याख्यं गतो राजा तप्तुं नारायणाश्रमम्॥

पादटिप्पनी

राजा ककुद्मीने अपनी सर्वांगसुन्दरी पुत्री परम बलशाली बलरामजीको सौंप दी और स्वयं तपस्या करनेके लिये भगवान् नर-नारायणके आश्रम बदरीवनकी ओर चल दिये॥ ३६॥

अनुवाद (समाप्ति)

इति श्रीमद‍्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां नवमस्कन्धे तृतीयोऽध्यायः॥ ३॥