[प्रथमोऽध्यायः]
भागसूचना
वैवस्वत मनुके पुत्र राजा सुद्युम्नकी कथा
श्लोक-१
मूलम् (वचनम्)
राजोवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
मन्वन्तराणि सर्वाणि त्वयोक्तानि श्रुतानि मे।
वीर्याण्यनन्तवीर्यस्य हरेस्तत्र कृतानि च॥
मूलम्
मन्वन्तराणि सर्वाणि त्वयोक्तानि श्रुतानि मे।
वीर्याण्यनन्तवीर्यस्य हरेस्तत्र कृतानि च॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजा परिक्षित् ने पुछा— भगवन्! आपने सब मन्वन्तरों और उनमें अनन्त शक्तिशाली भगवान्के द्वारा किये हुए ऐश्वर्यपूर्ण चरित्रोंका वर्णन किया और मैंने उनका श्रवण भी किया॥ १॥
श्लोक-२
विश्वास-प्रस्तुतिः
योऽसौ सत्यव्रतो नाम राजर्षिर्द्रविडेश्वरः।
ज्ञानं योऽतीतकल्पान्ते लेभे पुरुषसेवया॥
मूलम्
योऽसौ सत्यव्रतो नाम राजर्षिर्द्रविडेश्वरः।
ज्ञानं योऽतीतकल्पान्ते लेभे पुरुषसेवया॥
श्लोक-३
विश्वास-प्रस्तुतिः
स वै विवस्वतः पुत्रो मनुरासीदिति श्रुतम्।
त्वत्तस्तस्य सुताश्चोक्ता इक्ष्वाकुप्रमुखा नृपाः॥
मूलम्
स वै विवस्वतः पुत्रो मनुरासीदिति श्रुतम्।
त्वत्तस्तस्य सुताश्चोक्ता इक्ष्वाकुप्रमुखा नृपाः॥
अनुवाद (हिन्दी)
आपने कहा कि पिछले कल्पके अन्तमें द्रविड़ देशके स्वामी राजर्षि सत्यव्रतने भगवान्की सेवासे ज्ञान प्राप्त किया और वही इस कल्पमें वैवस्वत मनु हुए। आपने उनके इक्ष्वाकु आदि नरपति पुत्रोंका भी वर्णन किया॥ २-३॥
श्लोक-४
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेषां वंशं पृथग् ब्रह्मन् वंश्यानुचरितानि च।
कीर्तयस्व महाभाग नित्यं शुश्रूषतां हि नः॥
मूलम्
तेषां वंशं पृथग् ब्रह्मन् वंश्यानुचरितानि च।
कीर्तयस्व महाभाग नित्यं शुश्रूषतां हि नः॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्रह्मन्! अबआप कृपा करके उनके वंश और वंशमें होनेवालोंका अलग-अलग चरित्र वर्णन कीजिये। महाभाग! हमारे हृदयमें सर्वदा ही कथा सुननेकी उत्सुकता बनी रहती है॥ ४॥
श्लोक-५
विश्वास-प्रस्तुतिः
ये भूता ये भविष्याश्च भवन्त्यद्यतनाश्च ये।
तेषां नः पुण्यकीर्तीनां सर्वेषां वद विक्रमान्॥
मूलम्
ये भूता ये भविष्याश्च भवन्त्यद्यतनाश्च ये।
तेषां नः पुण्यकीर्तीनां सर्वेषां वद विक्रमान्॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैवस्वत मनुके वंशमें जो हो चुके हों, इस समय विद्यमान हों और आगे होनेवाले हों—उन सब पवित्रकीर्ति पुरुषोंके पराक्रमका वर्णन कीजिये॥ ५॥
श्लोक-६
मूलम् (वचनम्)
सूत उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं परीक्षिता राज्ञा सदसि ब्रह्मवादिनाम्।
पृष्टः प्रोवाच भगवाञ्छुकः परमधर्मवित्॥
मूलम्
एवं परीक्षिता राज्ञा सदसि ब्रह्मवादिनाम्।
पृष्टः प्रोवाच भगवाञ्छुकः परमधर्मवित्॥
अनुवाद (हिन्दी)
सूतजी कहते हैं—शौनकादि ऋषियो! ब्रह्मवादी ऋषियोंकी सभामें राजा परीक्षित् ने जब यह प्रश्न किया, तब धर्मके परम मर्मज्ञ भगवान् श्रीशुकदेवजीने कहा॥ ६॥
श्लोक-७
मूलम् (वचनम्)
श्रीशुक उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रूयतां मानवो वंशः प्राचुर्येण परंतप।
न शक्यते विस्तरतो वक्तुं वर्षशतैरपि॥
मूलम्
श्रूयतां मानवो वंशः प्राचुर्येण परंतप।
न शक्यते विस्तरतो वक्तुं वर्षशतैरपि॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीशुकदेवजीने कहा—परीक्षित्! तुम मनुवंशका वर्णन संक्षेपसे सुनो। विस्तारसे तो सैकड़ों वर्षमें भी उसका वर्णन नहीं किया जा सकता॥ ७॥
श्लोक-८
विश्वास-प्रस्तुतिः
परावरेषां भूतानामात्मा यः पुरुषः परः।
स एवासीदिदं विश्वं कल्पान्तेऽन्यन्न किञ्चन॥
मूलम्
परावरेषां भूतानामात्मा यः पुरुषः परः।
स एवासीदिदं विश्वं कल्पान्तेऽन्यन्न किञ्चन॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो परम पुरुष परमात्मा छोटे-बड़े सभी प्राणियोंके आत्मा हैं, प्रलयके समय केवल वही थे; यह विश्व तथा और कुछ भी नहीं था॥ ८॥
श्लोक-९
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्य नाभेः समभवत् पद्मकोशो हिरण्मयः।
तस्मिञ्जज्ञे महाराज स्वयंभूश्चतुराननः॥
मूलम्
तस्य नाभेः समभवत् पद्मकोशो हिरण्मयः।
तस्मिञ्जज्ञे महाराज स्वयंभूश्चतुराननः॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! उनकी नाभिसे एक सुवर्णमय कमलकोष प्रकट हुआ। उसीमें चतुर्मुख ब्रह्माजीका आविर्भाव हुआ॥ ९॥
श्लोक-१०
विश्वास-प्रस्तुतिः
मरीचिर्मनसस्तस्य जज्ञे तस्यापि कश्यपः।
दाक्षायण्यां ततोऽदित्यां विवस्वानभवत् सुतः॥
मूलम्
मरीचिर्मनसस्तस्य जज्ञे तस्यापि कश्यपः।
दाक्षायण्यां ततोऽदित्यां विवस्वानभवत् सुतः॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्रह्माजीके मनसे मरीचि और मरीचिके पुत्र कश्यप हुए। उनकी धर्मपत्नी दक्षनन्दिनी अदितिसे विवस्वान् (सूर्य)-का जन्म हुआ॥ १०॥
श्लोक-११
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो मनुः श्राद्धदेवः संज्ञायामास भारत।
श्रद्धायां जनयामास दश पुत्रान् स आत्मवान्॥
मूलम्
ततो मनुः श्राद्धदेवः संज्ञायामास भारत।
श्रद्धायां जनयामास दश पुत्रान् स आत्मवान्॥
श्लोक-१२
विश्वास-प्रस्तुतिः
इक्ष्वाकुनृगशर्यातिदिष्टधृष्टकरूषकान्।
नरिष्यन्तं पृषध्रं च नभगं च कविं विभुः॥
मूलम्
इक्ष्वाकुनृगशर्यातिदिष्टधृष्टकरूषकान्।
नरिष्यन्तं पृषध्रं च नभगं च कविं विभुः॥
अनुवाद (हिन्दी)
विवस्वान् की संज्ञा नामक पत्नीसे श्राद्धदेव मनुका जन्म हुआ। परीक्षित्! परम मनस्वी राजा श्राद्धदेवने अपनी पत्नी श्रद्धाके गर्भसे दस पुत्र उत्पन्न किये। उनके नाम थे—इक्ष्वाकु, नृग, शर्याति, दिष्ट, धृष्ट, करूष, नरिष्यन्त, पृषध्र, नभग और कवि॥ ११-१२॥
श्लोक-१३
विश्वास-प्रस्तुतिः
अप्रजस्य मनोः पूर्वं वसिष्ठो भगवान् किल।
मित्रावरुणयोरिष्टिं प्रजार्थमकरोत् प्रभुः॥
मूलम्
अप्रजस्य मनोः पूर्वं वसिष्ठो भगवान् किल।
मित्रावरुणयोरिष्टिं प्रजार्थमकरोत् प्रभुः॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैवस्वत मनु पहले सन्तानहीन थे। उस समय सर्वसमर्थ भगवान् वसिष्ठने उन्हें सन्तान प्राप्ति करानेके लिये मित्रावरुणका यज्ञ कराया था॥ १३॥
श्लोक-१४
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्र श्रद्धा मनोः पत्नी होतारं समयाचत।
दुहित्रर्थमुपागम्य प्रणिपत्य पयोव्रता॥
मूलम्
तत्र श्रद्धा मनोः पत्नी होतारं समयाचत।
दुहित्रर्थमुपागम्य प्रणिपत्य पयोव्रता॥
अनुवाद (हिन्दी)
यज्ञके आरम्भमें केवल दूध पीकर रहनेवाली वैवस्वत मनुकी धर्मपत्नी श्रद्धाने अपने होताके पास जाकर प्रणामपूर्वक याचना की कि मुझे कन्या ही प्राप्त हो॥ १४॥
श्लोक-१५
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रेषितोऽध्वर्युणा होता ध्यायंस्तत् सुसमाहितः।
हविषि व्यचरत् तेन वषट्कारं गृणन् द्विजः॥
मूलम्
प्रेषितोऽध्वर्युणा होता ध्यायंस्तत् सुसमाहितः।
हविषि व्यचरत् तेन वषट्कारं गृणन् द्विजः॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब अध्वर्युकी प्रेरणासे होता बने हुए ब्राह्मणने श्रद्धाके कथनका स्मरण करके एकाग्र चित्तसे वषट्कारका उच्चारण करते हुए यज्ञकुण्डमें आहुति दी॥ १५॥
श्लोक-१६
विश्वास-प्रस्तुतिः
होतुस्तद्व्यभिचारेण कन्येला नाम साभवत्।
तां विलोक्य मनुः प्राह नातिहृष्टमना गुरुम्॥
मूलम्
होतुस्तद्व्यभिचारेण कन्येला नाम साभवत्।
तां विलोक्य मनुः प्राह नातिहृष्टमना गुरुम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब होताने इस प्रकार विपरीत कर्म किया, तब यज्ञके फलस्वरूप पुत्रके स्थानपर इला नामकी कन्या हुई। उसे देखकर श्राद्धदेव मनुका मन कुछ विशेष प्रसन्न नहीं हुआ। उन्होंने अपने गुरु वसिष्ठजीसे कहा—॥ १६॥
श्लोक-१७
विश्वास-प्रस्तुतिः
भगवन् किमिदं जातं कर्म वो ब्रह्मवादिनाम्।
विपर्ययमहो कष्टं मैवं स्याद् ब्रह्मविक्रिया॥
मूलम्
भगवन् किमिदं जातं कर्म वो ब्रह्मवादिनाम्।
विपर्ययमहो कष्टं मैवं स्याद् ब्रह्मविक्रिया॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘भगवन्! आपलोग तो ब्रह्मवादी हैं, आपका कर्म इस प्रकार विपरीत फल देनेवाला कैसे हो गया? अरे, यह तो बड़े दुःखकी बात है। वैदिक कर्मका ऐसा विपरीत फल तो कभी नहीं होना चाहिये॥ १७॥
श्लोक-१८
विश्वास-प्रस्तुतिः
यूयं मन्त्रविदो युक्तास्तपसा दग्धकिल्बिषाः।
कुतः संकल्पवैषम्यमनृतं विबुधेष्विव॥
मूलम्
यूयं मन्त्रविदो युक्तास्तपसा दग्धकिल्बिषाः।
कुतः संकल्पवैषम्यमनृतं विबुधेष्विव॥
अनुवाद (हिन्दी)
आप लोगोंका मन्त्रज्ञान तो पूर्ण है ही; इसके अतिरिक्त आपलोग जितेन्द्रिय भी हैं तथा तपस्याके कारण निष्पाप हो चुके हैं। देवताओंमें असत्यकी प्राप्तिके समान आपके संकल्पका यह उलटा फल कैसे हुआ?’॥ १८॥
श्लोक-१९
विश्वास-प्रस्तुतिः
तन्निशम्य वचस्तस्य भगवान् प्रपितामहः।
होतुर्व्यतिक्रमं ज्ञात्वा बभाषे रविनन्दनम्॥
मूलम्
तन्निशम्य वचस्तस्य भगवान् प्रपितामहः।
होतुर्व्यतिक्रमं ज्ञात्वा बभाषे रविनन्दनम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! हमारे वृद्ध प्रपितामह भगवान् वसिष्ठने उनकी यह बात सुनकर जान लिया कि होताने विपरीत संकल्प किया है। इसलिये उन्होंने वैवस्वत मनुसे कहा—॥ १९॥
श्लोक-२०
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतत् संकल्पवैषम्यं होतुस्ते व्यभिचारतः।
तथापि साधयिष्ये ते सुप्रजास्त्वं स्वतेजसा॥
मूलम्
एतत् संकल्पवैषम्यं होतुस्ते व्यभिचारतः।
तथापि साधयिष्ये ते सुप्रजास्त्वं स्वतेजसा॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘राजन्! तुम्हारे होताके विपरीत संकल्पसे ही हमारा संकल्प ठीक-ठीक पूरा नहीं हुआ। फिर भी अपने तपके प्रभावसे मैं तुम्हें श्रेष्ठ पुत्र दूँगा’॥ २०॥
श्लोक-२१
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं व्यवसितो राजन् भगवान् स महायशाः।
अस्तौषीदादिपुरुषमिलायाः पुंस्त्वकाम्यया॥
मूलम्
एवं व्यवसितो राजन् भगवान् स महायशाः।
अस्तौषीदादिपुरुषमिलायाः पुंस्त्वकाम्यया॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! परम यशस्वी भगवान् वसिष्ठने ऐसा निश्चय करके उस इला नामकी कन्याको ही पुरुष बना देनेके लिये पुरुषोत्तम भगवान् नारायणकी स्तुति की॥ २१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्लोक-२२
तस्मै कामवरं तुष्टो भगवान् हरिरीश्वरः।
ददाविलाभवत् तेन सुद्युम्नः पुरुषर्षभः॥
मूलम्
श्लोक-२२
तस्मै कामवरं तुष्टो भगवान् हरिरीश्वरः।
ददाविलाभवत् तेन सुद्युम्नः पुरुषर्षभः॥
अनुवाद (हिन्दी)
सर्वशक्तिमान् भगवान् श्रीहरिने सन्तुष्ट होकर उन्हें मुँहमाँगा वर दिया, जिसके प्रभावसे वह कन्या ही सुद्युम्न नामक श्रेष्ठ पुत्र बन गयी॥ २२॥
श्लोक-२३
विश्वास-प्रस्तुतिः
स एकदा महाराज विचरन् मृगयां वने।
वृतः कतिपयामात्यैरश्वमारुह्य सैन्धवम्॥
मूलम्
स एकदा महाराज विचरन् मृगयां वने।
वृतः कतिपयामात्यैरश्वमारुह्य सैन्धवम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! एक बार राजा सुद्युम्न शिकार खेलनेके लिये सिन्धुदेशके घोड़ेपर सवार होकर कुछ मन्त्रियोंके साथ वनमें गये॥ २३॥
श्लोक-२४
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रगृह्य रुचिरं चापं शरांश्च परमाद्भुतान्।
दंशितोऽनुमृगं वीरो जगाम दिशमुत्तराम्॥
मूलम्
प्रगृह्य रुचिरं चापं शरांश्च परमाद्भुतान्।
दंशितोऽनुमृगं वीरो जगाम दिशमुत्तराम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
वीर सुद्युम्न कवच पहनकर और हाथमें सुन्दर धनुष एवं अत्यन्त अद्भुत बाण लेकर हरिनोंका पीछा करते हुए उत्तर दिशामें बहुत आगे बढ़ गये॥ २४॥
श्लोक-२५
विश्वास-प्रस्तुतिः
स कुमारो वनं मेरोरधस्तात् प्रविवेश ह।
यत्रास्ते भगवाञ्छर्वो रममाणः सहोमया॥
मूलम्
स कुमारो वनं मेरोरधस्तात् प्रविवेश ह।
यत्रास्ते भगवाञ्छर्वो रममाणः सहोमया॥
अनुवाद (हिन्दी)
अन्तमें सुद्युम्न मेरुपर्वतकी तलहटीके एक वनमें चले गये। उस वनमें भगवान् शंकर पार्वतीके साथ विहार करते रहते हैं॥ २५॥
श्लोक-२६
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मिन् प्रविष्ट एवासौ सुद्युम्नः परवीरहा।
अपश्यत् स्त्रियमात्मानमश्वं च वडवां नृप॥
मूलम्
तस्मिन् प्रविष्ट एवासौ सुद्युम्नः परवीरहा।
अपश्यत् स्त्रियमात्मानमश्वं च वडवां नृप॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसमें प्रवेश करते ही वीरवर सुद्युम्नने देखा कि मैं स्त्री हो गया हूँ और घोड़ा घोड़ी हो गया है॥ २६॥
श्लोक-२७
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथा तदनुगाः सर्वे आत्मलिङ्गविपर्ययम्।
दृष्ट्वा विमनसोऽभूवन् वीक्षमाणाः परस्परम्॥
मूलम्
तथा तदनुगाः सर्वे आत्मलिङ्गविपर्ययम्।
दृष्ट्वा विमनसोऽभूवन् वीक्षमाणाः परस्परम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! साथ ही उनके सब अनुचरोंने भी अपनेको स्त्रीरूपमें देखा। वे सब एक-दूसरेका मुँह देखने लगे, उनका चित्त बहुत उदास हो गया॥ २७॥
श्लोक-२८
मूलम् (वचनम्)
राजोवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
कथमेवंगुणो देशः केन वा भगवन् कृतः।
प्रश्नमेनं समाचक्ष्व परं कौतूहलं हि नः॥
मूलम्
कथमेवंगुणो देशः केन वा भगवन् कृतः।
प्रश्नमेनं समाचक्ष्व परं कौतूहलं हि नः॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजा परीक्षित् ने पूछा—भगवन्! उस भूखण्डमें ऐसा विचित्र गुण कैसे आ गया? किसने उसे ऐसा बना दिया था? आप कृपा कर हमारे इस प्रश्नका उत्तर दीजिये; क्योंकि हमें बड़ा कौतूहल हो रहा है॥ २८॥
श्लोक-२९
मूलम् (वचनम्)
श्रीशुक उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एकदा गिरिशं द्रष्टुमृषयस्तत्र सुव्रताः।
दिशो वितिमिराभासाः कुर्वन्तः समुपागमन्॥
मूलम्
एकदा गिरिशं द्रष्टुमृषयस्तत्र सुव्रताः।
दिशो वितिमिराभासाः कुर्वन्तः समुपागमन्॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीशुकदेवजीने कहा—परीक्षित्! एक दिन भगवान् शंकरका दर्शन करनेके लिये बड़े-बड़े व्रतधारी ऋषि अपने तेजसे दिशाओंका अन्धकार मिटाते हुए उस वनमें गये॥ २९॥
श्लोक-३०
विश्वास-प्रस्तुतिः
तान् विलोक्याम्बिका देवी विवासा व्रीडिता भृशम्।
भर्तुरङ्कात् समुत्थाय नीवीमाश्वथ पर्यधात्॥
मूलम्
तान् विलोक्याम्बिका देवी विवासा व्रीडिता भृशम्।
भर्तुरङ्कात् समुत्थाय नीवीमाश्वथ पर्यधात्॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय अम्बिका देवी वस्त्रहीन थीं। ऋषियोंको सहसा आया देख वे अत्यन्त लज्जित हो गयीं। झटपट उन्होंने भगवान् शंकरकी गोदसे उठकर वस्त्र धारण कर लिया॥ ३०॥
श्लोक-३१
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऋषयोऽपि तयोर्वीक्ष्य प्रसङ्गं रममाणयोः।
निवृत्ताः प्रययुस्तस्मान्नरनारायणाश्रमम्॥
मूलम्
ऋषयोऽपि तयोर्वीक्ष्य प्रसङ्गं रममाणयोः।
निवृत्ताः प्रययुस्तस्मान्नरनारायणाश्रमम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
ऋषियोंने भी देखा कि भगवान् गौरी-शंकर इस समय विहार कर रहे हैं, इसलिये वहाँसे लौटकर वे भगवान् नर-नारायणके आश्रमपर चले गये॥ ३१॥
श्लोक-३२
विश्वास-प्रस्तुतिः
तदिदं भगवानाह प्रियायाः प्रियकाम्यया।
स्थानं यः प्रविशेदेतत् स वै योषिद् भवेदिति॥
मूलम्
तदिदं भगवानाह प्रियायाः प्रियकाम्यया।
स्थानं यः प्रविशेदेतत् स वै योषिद् भवेदिति॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसी समय भगवान् शंकरने अपनी प्रिया भगवती अम्बिकाको प्रसन्न करनेके लिये कहा कि ‘मेरे सिवा जो भी पुरुष इस स्थानमें प्रवेश करेगा, वही स्त्री हो जायेगा’॥ ३२॥
श्लोक-३३
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत ऊर्ध्वं वनं तद्वै पुरुषा वर्जयन्ति हि।
सा चानुचरसंयुक्ता विचचार वनाद् वनम्॥
मूलम्
तत ऊर्ध्वं वनं तद्वै पुरुषा वर्जयन्ति हि।
सा चानुचरसंयुक्ता विचचार वनाद् वनम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! तभीसे पुरुष उस स्थानमें प्रवेश नहीं करते। अब सुद्युम्न स्त्री हो गये थे। इसलिये वे अपने स्त्री बने हुए अनुचरोंके साथ एक वनसे दूसरे वनमें विचरने लगे॥ ३३॥
श्लोक-३४
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथ तामाश्रमाभ्याशे चरन्तीं प्रमदोत्तमाम्।
स्त्रीभिः परिवृतां वीक्ष्य चकमे भगवान् बुधः॥
मूलम्
अथ तामाश्रमाभ्याशे चरन्तीं प्रमदोत्तमाम्।
स्त्रीभिः परिवृतां वीक्ष्य चकमे भगवान् बुधः॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसी समय शक्तिशाली बुधने देखा कि मेरे आश्रमके पास ही बहुत-सी स्त्रियोंसे घिरी हुई एक सुन्दरी स्त्री विचर रही है। उन्होंने इच्छा की कि यह मुझे प्राप्त हो जाय॥ ३४॥
श्लोक-३५
विश्वास-प्रस्तुतिः
सापि तं चकमे सुभ्रूः सोमराजसुतं पतिम्।
स तस्यां जनयामास पुरूरवसमात्मजम्॥
मूलम्
सापि तं चकमे सुभ्रूः सोमराजसुतं पतिम्।
स तस्यां जनयामास पुरूरवसमात्मजम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस सुन्दरी स्त्रीने भी चन्द्रकुमार बुधको पति बनाना चाहा। इसपर बुधने उसके गर्भसे पुरूरवा नामका पुत्र उत्पन्न किया॥ ३५॥
श्लोक-३६
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं स्त्रीत्वमनुप्राप्तः सुद्युम्नो मानवो नृपः।
सस्मार स्वकुलाचार्यं वसिष्ठमिति शुश्रुम॥
मूलम्
एवं स्त्रीत्वमनुप्राप्तः सुद्युम्नो मानवो नृपः।
सस्मार स्वकुलाचार्यं वसिष्ठमिति शुश्रुम॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार मनुपुत्र राजा सुद्युम्न स्त्री हो गये। ऐसा सुनते हैं कि उन्होंने उस अवस्थामें अपने कुलपुरोहित वसिष्ठजीका स्मरण किया॥ ३६॥
श्लोक-३७
विश्वास-प्रस्तुतिः
स तस्य तां दशां दृष्ट्वा कृपया भृशपीडितः।
सुद्युम्नस्याशयन् पुंस्त्वमुपाधावत शङ्करम्॥
मूलम्
स तस्य तां दशां दृष्ट्वा कृपया भृशपीडितः।
सुद्युम्नस्याशयन् पुंस्त्वमुपाधावत शङ्करम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
सुद्युम्नकी यह दशा देखकर वसिष्ठजीके हृदयमें कृपावश अत्यन्त पीड़ा हुई। उन्होंने सुद्युम्नको पुनः पुरुष बना देनेके लिये भगवान् शंकरकी आराधना की॥ ३७॥
श्लोक-३८
विश्वास-प्रस्तुतिः
तुष्टस्तस्मै स भगवानृषये प्रियमावहन्।
स्वां च वाचमृतां कुर्वन्निदमाह विशाम्पते॥
मूलम्
तुष्टस्तस्मै स भगवानृषये प्रियमावहन्।
स्वां च वाचमृतां कुर्वन्निदमाह विशाम्पते॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् शंकर वसिष्ठजीपर प्रसन्न हुए। परीक्षित्! उन्होंने उनकी अभिलाषा पूर्ण करनेके लिये अपनी वाणीको सत्य रखते हुए ही यह बात कही—॥ ३८॥
श्लोक-३९
विश्वास-प्रस्तुतिः
मासं पुमान्स भविता मासं स्त्री तव गोत्रजः।
इत्थं व्यवस्थया कामं सुद्युम्नोऽवतु मेदिनीम्॥
मूलम्
मासं पुमान्स भविता मासं स्त्री तव गोत्रजः।
इत्थं व्यवस्थया कामं सुद्युम्नोऽवतु मेदिनीम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘वसिष्ठ! तुम्हारा यह यजमान एक महीनेतक पुरुष रहेगा और एक महीनेतक स्त्री। इस व्यवस्थासे सुद्युम्न इच्छानुसार पृथ्वीका पालन करे’॥ ३९॥
श्लोक-४०
विश्वास-प्रस्तुतिः
आचार्यानुग्रहात् कामं लब्ध्वा पुंस्त्वं व्यवस्थया।
पालयामास जगतीं नाभ्यनन्दन् स्म तं प्रजाः॥
मूलम्
आचार्यानुग्रहात् कामं लब्ध्वा पुंस्त्वं व्यवस्थया।
पालयामास जगतीं नाभ्यनन्दन् स्म तं प्रजाः॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार वसिष्ठजीके अनुग्रहसे व्यवस्थापूर्वक अभीष्ट पुरुषत्व लाभ करके सुद्युम्न पृथ्वीका पालन करने लगे। परंतु प्रजा उनका अभिनन्दन नहीं करती थी॥ ४०॥
श्लोक-४१
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्योत्कलो गयो राजन् विमलश्च सुतास्त्रयः।
दक्षिणापथराजानो बभूवुर्धर्मवत्सलाः॥
मूलम्
तस्योत्कलो गयो राजन् विमलश्च सुतास्त्रयः।
दक्षिणापथराजानो बभूवुर्धर्मवत्सलाः॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनके तीन पुत्र हुए—उत्कल, गय और विमल। परीक्षित्! वे सब दक्षिणापथके राजा हुए॥ ४१॥
श्लोक-४२
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः परिणते काले प्रतिष्ठानपतिः प्रभुः।
पुरूरवस उत्सृज्य गां पुत्राय गतो वनम्॥
मूलम्
ततः परिणते काले प्रतिष्ठानपतिः प्रभुः।
पुरूरवस उत्सृज्य गां पुत्राय गतो वनम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
बहुत दिनोंके बाद वृद्धावस्था आनेपर प्रतिष्ठान नगरीके अधिपति सुद्युम्नने अपने पुत्र पुरूरवाको राज्य दे दिया और स्वयं तपस्या करनेके लिये वनकी यात्रा की॥ ४२॥
अनुवाद (समाप्ति)
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां नवमस्कन्धे इलोपाख्याने प्रथमोऽध्यायः॥ १॥