२४ मत्स्यावतारचरितानुवर्णनम्

[चतुर्विंशोऽध्यायः]

भागसूचना

भगवान‍्के मत्स्यावतारकी कथा

श्लोक-१

मूलम् (वचनम्)

राजोवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

भगवञ्छ्रोतुमिच्छामि हरेरद‍्भुतकर्मणः।
अवतारकथामाद्यां मायामत्स्यविडम्बनम्॥

मूलम्

भगवञ्छ्रोतुमिच्छामि हरेरद‍्भुतकर्मणः।
अवतारकथामाद्यां मायामत्स्यविडम्बनम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजा परीक्षित् ने पूछा—भगवान‍्के कर्म बड़े अद‍्भुत हैं। उन्होंने एक बार अपनी योगमायासे मत्स्यावतार धारण करके बड़ी सुन्दर लीला की थी, मैं उनके उसी आदि-अवतारकी कथा सुनना चाहता हूँ॥ १॥

श्लोक-२

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदर्थमदधाद्रूपं मात्स्यं लोकजुगुप्सितम्।
तमःप्रकृति दुर्मर्षं कर्मग्रस्त इवेश्वरः॥

मूलम्

यदर्थमदधाद्रूपं मात्स्यं लोकजुगुप्सितम्।
तमःप्रकृति दुर्मर्षं कर्मग्रस्त इवेश्वरः॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवन्! मत्स्ययोनि एक तो यों ही लोकनिन्दित है, दूसरे तमोगुणी और असह्य परतन्त्रतासे युक्त भी है। सर्वशक्तिमान् होनेपर भी भगवान‍्ने कर्मबन्धनमें बँधे हुए जीवकी तरह यह मत्स्यका रूप क्यों धारण किया?॥ २॥

श्लोक-३

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतन्नो भगवन् सर्वं यथावद् वक्तुमर्हसि।
उत्तमश्लोकचरितं सर्वलोकसुखावहम्॥

मूलम्

एतन्नो भगवन् सर्वं यथावद् वक्तुमर्हसि।
उत्तमश्लोकचरितं सर्वलोकसुखावहम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवन्! महात्माओंके कीर्तनीय भगवान‍्का चरित्र समस्त प्राणियोंको सुख देनेवाला है। आप कृपा करके उनकी वह सब लीला हमारे सामने पूर्णरूपसे वर्णन कीजिये॥ ३॥

श्लोक-४

मूलम् (वचनम्)

सूत उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्युक्तो विष्णुरातेन भगवान् बादरायणिः।
उवाच चरितं विष्णोर्मत्स्यरूपेण यत् कृतम्॥

मूलम्

इत्युक्तो विष्णुरातेन भगवान् बादरायणिः।
उवाच चरितं विष्णोर्मत्स्यरूपेण यत् कृतम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

सूतजी कहते हैं—शौनकादि ऋषियो! जब राजा परीक्षित् ने भगवान् श्रीशुकदेवजीसे यह प्रश्न किया, तब उन्होंने विष्णुभगवान‍्का वह चरित्र जो उन्होंने मत्स्यावतार धारण करके किया था, वर्णन किया॥ ४॥

श्लोक-५

मूलम् (वचनम्)

श्रीशुक उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

गोविप्रसुरसाधूनां छन्दसामपि चेश्वरः।
रक्षामिच्छंस्तनूर्धत्ते धर्मस्यार्थस्य चैव हि॥

मूलम्

गोविप्रसुरसाधूनां छन्दसामपि चेश्वरः।
रक्षामिच्छंस्तनूर्धत्ते धर्मस्यार्थस्य चैव हि॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! यों तो भगवान् सबके एकमात्र प्रभु हैं; फिर भी वे गौ, ब्राह्मण, देवता, साधु, वेद, धर्म और अर्थकी रक्षाके लिये शरीर धारण किया करते हैं॥ ५॥

श्लोक-६

विश्वास-प्रस्तुतिः

उच्चावचेषु भूतेषु चरन् वायुरिवेश्वरः।
नोच्चावचत्वं भजते निर्गुणत्वाद्धियो गुणैः॥

मूलम्

उच्चावचेषु भूतेषु चरन् वायुरिवेश्वरः।
नोच्चावचत्वं भजते निर्गुणत्वाद्धियो गुणैः॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे सर्वशक्तिमान् प्रभु वायुकी तरह नीचे-ऊँचे, छोटे-बड़े सभी प्राणियोंमें अन्तर्यामीरूपसे लीला करते रहते हैं। परन्तु उन-उन प्राणियोंके बुद्धिगत गुणोंसे वे छोटे-बड़े या ऊँचे-नीचे नहीं हो जाते। क्योंकि वे वास्तवमें समस्त प्राकृत गुणोंसे रहित—निर्गुण हैं॥ ६॥

श्लोक-७

विश्वास-प्रस्तुतिः

आसीदतीतकल्पान्ते ब्राह्मो नैमित्तिको लयः।
समुद्रोपप्लुतास्तत्र लोका भूरादयो नृप॥

मूलम्

आसीदतीतकल्पान्ते ब्राह्मो नैमित्तिको लयः।
समुद्रोपप्लुतास्तत्र लोका भूरादयो नृप॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! पिछले कल्पके अन्तमें ब्रह्माजीके सो जानेके कारण ब्राह्म नामक नैमित्तिक प्रलय हुआ था। उस समय भूर्लोक आदि सारे लोक समुद्रमें डूब गये थे॥ ७॥

श्लोक-८

विश्वास-प्रस्तुतिः

कालेनागतनिद्रस्य धातुः शिशयिषोर्बली।
मुखतो निःसृतान् वेदान् हयग्रीवोऽन्तिकेऽहरत्॥

मूलम्

कालेनागतनिद्रस्य धातुः शिशयिषोर्बली।
मुखतो निःसृतान् वेदान् हयग्रीवोऽन्तिकेऽहरत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रलयकाल आ जानेके कारण ब्रह्माजीको नींद आ रही थी, वे सोना चाहते थे। उसी समय वेद उनके मुखसे निकल पड़े और उनके पास ही रहनेवाले हयग्रीव नामक बली दैत्यने उन्हें योगबलसे चुरा लिया॥ ८॥

श्लोक-९

विश्वास-प्रस्तुतिः

ज्ञात्वा तद् दानवेन्द्रस्य हयग्रीवस्य चेष्टितम्।
दधार शफरीरूपं भगवान् हरिरीश्वरः॥

मूलम्

ज्ञात्वा तद् दानवेन्द्रस्य हयग्रीवस्य चेष्टितम्।
दधार शफरीरूपं भगवान् हरिरीश्वरः॥

अनुवाद (हिन्दी)

सर्वशक्तिमान् भगवान् श्रीहरिने दानवराज हयग्रीवकी यह चेष्टा जान ली । इसलिये उन्होंने मत्स्यावतार ग्रहण किया॥ ९॥

श्लोक-१०

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्र राजऋषिः कश्चिन्नाम्ना सत्यव्रतो महान्।
नारायणपरोऽतप्यत् तपः स सलिलाशनः॥

मूलम्

तत्र राजऋषिः कश्चिन्नाम्ना सत्यव्रतो महान्।
नारायणपरोऽतप्यत् तपः स सलिलाशनः॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! उस समय सत्यव्रत नामके एक बड़े उदार एवं भगवत्परायण राजर्षि केवल जल पीकर तपस्या कर रहे थे॥ १०॥

श्लोक-११

विश्वास-प्रस्तुतिः

योऽसावस्मिन्महाकल्पे तनयः स विवस्वतः।
श्राद्धदेव इति ख्यातो मनुत्वे हरिणार्पितः॥

मूलम्

योऽसावस्मिन्महाकल्पे तनयः स विवस्वतः।
श्राद्धदेव इति ख्यातो मनुत्वे हरिणार्पितः॥

अनुवाद (हिन्दी)

वही सत्यव्रत वर्तमान महाकल्पमें विवस्वान् (सूर्य)-के पुत्र श्राद्धदेवके नामसे विख्यात हुए और उन्हें भगवान‍्ने वैवस्वत मनु बना दिया॥ ११॥

श्लोक-१२

विश्वास-प्रस्तुतिः

एकदा कृतमालायां कुर्वतो जलतर्पणम्।
तस्याञ्जल्युदके काचिच्छफर्येकाभ्यपद्यत॥

मूलम्

एकदा कृतमालायां कुर्वतो जलतर्पणम्।
तस्याञ्जल्युदके काचिच्छफर्येकाभ्यपद्यत॥

अनुवाद (हिन्दी)

एक दिन वे राजर्षि कृतमाला नदीमें जलसे तर्पण कर रहे थे। उसी समय उनकी अंजलिके जलमें एक छोटी-सी मछली आ गयी॥ १२॥

श्लोक-१३

विश्वास-प्रस्तुतिः

सत्यव्रतोऽञ्जलिगतां सह तोयेन भारत।
उत्ससर्ज नदीतोये शफरीं द्रविडेश्वरः॥

मूलम्

सत्यव्रतोऽञ्जलिगतां सह तोयेन भारत।
उत्ससर्ज नदीतोये शफरीं द्रविडेश्वरः॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! द्रविडदेशके राजा सत्यव्रतने अपनी अंजलिमें आयी हुई मछलीको जलके साथ ही फिरसे नदीमें डाल दिया॥ १३॥

श्लोक-१४

विश्वास-प्रस्तुतिः

तमाह सातिकरुणं महाकारुणिकं नृपम्।
यादोभ्यो ज्ञातिघातिभ्यो दीनां मां दीनवत्सल।
कथं विसृजसे राजन् भीतामस्मिन् सरिज्जले॥

मूलम्

तमाह सातिकरुणं महाकारुणिकं नृपम्।
यादोभ्यो ज्ञातिघातिभ्यो दीनां मां दीनवत्सल।
कथं विसृजसे राजन् भीतामस्मिन् सरिज्जले॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस मछलीने बड़ी करुणाके साथ परम दयालु राजा सत्यव्रतसे कहा—‘राजन्! आप बड़े दीनदयालु हैं। आप जानते ही हैं कि जलमें रहनेवाले जन्तु अपनी जातिवालोंको भी खा डालते हैं। मैं उनके भयसे अत्यन्त व्याकुल हो रही हूँ। आप मुझे फिर इसी नदीके जलमें क्यों छोड़ रहे हैं?॥ १४॥

श्लोक-१५

विश्वास-प्रस्तुतिः

तमात्मनोऽनुग्रहार्थं प्रीत्या मत्स्यवपुर्धरम्।
अजानन् रक्षणार्थाय शफर्याः स मनो दधे॥

मूलम्

तमात्मनोऽनुग्रहार्थं प्रीत्या मत्स्यवपुर्धरम्।
अजानन् रक्षणार्थाय शफर्याः स मनो दधे॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजा सत्यव्रतको इस बातका पता नहीं था कि स्वयं भगवान् मुझपर प्रसन्न होकर कृपा करनेके लिये मछलीके रूपमें पधारे हैं। इसलिये उन्होंने उस मछलीकी रक्षाका मन-ही-मन संकल्प किया॥ १५॥

श्लोक-१६

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्या दीनतरं वाक्यमाश्रुत्य स महीपतिः।
कलशाप्सु निधायैनां दयालुर्निन्य आश्रमम्॥

मूलम्

तस्या दीनतरं वाक्यमाश्रुत्य स महीपतिः।
कलशाप्सु निधायैनां दयालुर्निन्य आश्रमम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजा सत्यव्रतने उस मछलीकी अत्यन्त दीनतासे भरी बात सुनकर बड़ी दयासे उसे अपने पात्रके जलमें रख लिया और अपने आश्रमपर ले आये॥ १६॥

श्लोक-१७

विश्वास-प्रस्तुतिः

सा तु तत्रैकरात्रेण वर्धमाना कमण्डलौ।
अलब्ध्वाऽऽत्मावकाशं वा इदमाह महीपतिम्॥

मूलम्

सा तु तत्रैकरात्रेण वर्धमाना कमण्डलौ।
अलब्ध्वाऽऽत्मावकाशं वा इदमाह महीपतिम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

आश्रमपर लानेके बाद एक रातमें ही वह मछली उस कमण्डलुमें इतनी बढ़ गयी कि उसमें उसके लिये स्थान ही न रहा। उस समय मछलीने राजासे कहा॥ १७॥

श्लोक-१८

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाहं कमण्डलावस्मिन् कृच्छ्रं वस्तुमिहोत्सहे।
कल्पयौकः सुविपुलं यत्राहं निवसे सुखम्॥

मूलम्

नाहं कमण्डलावस्मिन् कृच्छ्रं वस्तुमिहोत्सहे।
कल्पयौकः सुविपुलं यत्राहं निवसे सुखम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘अब तो इस कमण्डलुमें मैं कष्टपूर्वक भी नहीं रह सकती; अतः मेरे लिये कोई बड़ा-सा स्थान नियत कर दें, जहाँ मैं सुखपूर्वक रह सकूँ’॥ १८॥

श्लोक-१९

विश्वास-प्रस्तुतिः

स एनां तत आदाय न्यधादौदञ्चनोदके।
तत्र क्षिप्ता मुहूर्तेन हस्तत्रयमवर्धत॥

मूलम्

स एनां तत आदाय न्यधादौदञ्चनोदके।
तत्र क्षिप्ता मुहूर्तेन हस्तत्रयमवर्धत॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजा सत्यव्रतने मछलीको कमण्डलुसे निकालकर एक बहुत बड़े पानीके मटकेमें रख दिया। परन्तु वहाँ डालनेपर वह मछली दो ही घड़ीमें तीन हाथ बढ़ गयी॥ १९॥

श्लोक-२०

विश्वास-प्रस्तुतिः

न म एतदलं राजन् सुखं वस्तुमुदञ्चनम्।
पृथु देहि पदं मह्यं यत् त्वाहं शरणं गता॥

मूलम्

न म एतदलं राजन् सुखं वस्तुमुदञ्चनम्।
पृथु देहि पदं मह्यं यत् त्वाहं शरणं गता॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर उसने राजा सत्यव्रतसे कहा—‘राजन्! अब यह मटका भी मेरे लिये पर्याप्त नहीं है। इसमें मैं सुखपूर्वक नहीं रह सकती। मैं तुम्हारी शरणमें हूँ, इसलिये मेरे रहनेयोग्य कोई बड़ा-सा स्थान मुझे दो’॥ २०॥

श्लोक-२१

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत आदाय सा राज्ञा क्षिप्ता राजन् सरोवरे।
तदावृत्यात्मना सोऽयं महामीनोऽन्ववर्धत॥

मूलम्

तत आदाय सा राज्ञा क्षिप्ता राजन् सरोवरे।
तदावृत्यात्मना सोऽयं महामीनोऽन्ववर्धत॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! सत्यव्रतने वहाँसे उस मछलीको उठाकर एक सरोवरमें डाल दिया। परन्तु वह थोड़ी ही देरमें इतनी बढ़ गयी कि उसने एक महामत्स्यका आकार धारण कर उस सरोवरके जलको घेर लिया॥ २१॥

श्लोक-२२

विश्वास-प्रस्तुतिः

नैतन्मे स्वस्तये राजन् नुदकं सलिलौकसः।
निधेहि रक्षायोगेन ह्रदे मामविदासिनि॥

मूलम्

नैतन्मे स्वस्तये राजन् नुदकं सलिलौकसः।
निधेहि रक्षायोगेन ह्रदे मामविदासिनि॥

अनुवाद (हिन्दी)

और कहा—‘राजन्! मैं जलचर प्राणी हूँ। इस सरोवरका जल भी मेरे सुखपूर्वक रहनेके लिये पर्याप्त नहीं है। इसलिये आप मेरी रक्षा कीजिये और मुझे किसी अगाध सरोवरमें रख दीजिये,॥ २२॥

श्लोक-२३

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्युक्तः सोऽनयन्मत्स्यं तत्र तत्राविदासिनि।
जलाशये सम्मितं तं समुद्रे प्राक्षिपज्झषम्॥

मूलम्

इत्युक्तः सोऽनयन्मत्स्यं तत्र तत्राविदासिनि।
जलाशये सम्मितं तं समुद्रे प्राक्षिपज्झषम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

मत्स्यभगवान‍्के इस प्रकार कहनेपर वे एक-एक करके उन्हें कई अटूट जलवाले सरोवरोंमें ले गये; परन्तु जितना बड़ा सरोवर होता, उतने ही बड़े वे बन जाते। अन्तमें उन्होंने उन लीलामत्स्यको समुद्रमें छोड़ दिया॥ २३॥

श्लोक-२४

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्षिप्यमाणस्तमाहेदमिह मां मकरादयः।
अदन्त्यतिबला वीर मां नेहोत्स्रष्टुमर्हसि॥

मूलम्

क्षिप्यमाणस्तमाहेदमिह मां मकरादयः।
अदन्त्यतिबला वीर मां नेहोत्स्रष्टुमर्हसि॥

अनुवाद (हिन्दी)

समुद्रमें डालते समय मत्स्यभगवान‍्ने सत्यव्रतसे कहा—‘वीर! समुद्रमें बड़े-बड़े बली मगर आदि रहते हैं, वे मुझे खा जायँगे, इसलिये आप मुझे समुद्रके जलमें मत छोड़िये’॥ २४॥

श्लोक-२५

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं विमोहितस्तेन वदता वल्गुभारतीम्।
तमाह को भवानस्मान् मत्स्यरूपेण मोहयन्॥

मूलम्

एवं विमोहितस्तेन वदता वल्गुभारतीम्।
तमाह को भवानस्मान् मत्स्यरूपेण मोहयन्॥

अनुवाद (हिन्दी)

मत्स्यभगवान‍्की यह मधुर वाणी सुनकर राजा सत्यव्रत मोहमुग्ध हो गये। उन्होंने कहा—‘मत्स्यका रूप धारण करके मुझे मोहित करनेवाले आप कौन हैं?॥ २५॥

श्लोक-२६

विश्वास-प्रस्तुतिः

नैवंवीर्यो जलचरो दृष्टोऽस्माभिः श्रुतोऽपि च।
यो भवान् योजनशतमह्नाभिव्यानशे सरः॥

मूलम्

नैवंवीर्यो जलचरो दृष्टोऽस्माभिः श्रुतोऽपि च।
यो भवान् योजनशतमह्नाभिव्यानशे सरः॥

अनुवाद (हिन्दी)

आपने एक ही दिनमें चार सौ कोसके विस्तारका सरोवर घेर लिया। आजतक ऐसी शक्ति रखनेवाला जलचर जीव तो न मैंने कभी देखा था और न सुना ही था॥ २६॥

श्लोक-२७

विश्वास-प्रस्तुतिः

नूनं त्वं भगवान् साक्षाद्धरिर्नारायणोऽव्ययः।
अनुग्रहाय भूतानां धत्से रूपं जलौकसाम्॥

मूलम्

नूनं त्वं भगवान् साक्षाद्धरिर्नारायणोऽव्ययः।
अनुग्रहाय भूतानां धत्से रूपं जलौकसाम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

अवश्य ही आप साक्षात् सर्वशक्तिमान् सर्वान्तर्यामी अविनाशी श्रीहरि हैं। जीवोंपर अनुग्रह करनेके लिये ही आपने जलचरका रूप धारण किया है॥ २७॥

श्लोक-२८

विश्वास-प्रस्तुतिः

नमस्ते पुरुषश्रेष्ठ स्थित्युत्पत्त्यप्ययेश्वर।
भक्तानां नः प्रपन्नानां मुख्यो ह्यात्मगतिर्विभो॥

मूलम्

नमस्ते पुरुषश्रेष्ठ स्थित्युत्पत्त्यप्ययेश्वर।
भक्तानां नः प्रपन्नानां मुख्यो ह्यात्मगतिर्विभो॥

अनुवाद (हिन्दी)

पुरुषोत्तम! आप जगत‍्की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलयके स्वामी हैं। आपको मैं नमस्कार करता हूँ। प्रभो! हम शरणागत भक्तोंके लिये आप ही आत्मा और आश्रय हैं॥ २८॥

श्लोक-२९

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वे लीलावतारास्ते भूतानां भूतिहेतवः।
ज्ञातुमिच्छाम्यदो रूपं यदर्थं भवता धृतम्॥

मूलम्

सर्वे लीलावतारास्ते भूतानां भूतिहेतवः।
ज्ञातुमिच्छाम्यदो रूपं यदर्थं भवता धृतम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

यद्यपि आपके सभी लीलावतार प्राणियोंके अभ्युदयके लिये ही होते हैं, तथापि मैं यह जानना चाहता हूँ कि आपने यह रूप किस उद्देश्यसे ग्रहण किया है॥ २९॥

श्लोक-३०

विश्वास-प्रस्तुतिः

न तेऽरविन्दाक्ष पदोपसर्पणं
मृषा भवेत् सर्वसुहृत्प्रियात्मनः।
यथेतरेषां पृथगात्मनां सता-
मदीदृशो यद् वपुरद‍्भुतं हि नः॥

मूलम्

न तेऽरविन्दाक्ष पदोपसर्पणं
मृषा भवेत् सर्वसुहृत्प्रियात्मनः।
यथेतरेषां पृथगात्मनां सता-
मदीदृशो यद् वपुरद‍्भुतं हि नः॥

अनुवाद (हिन्दी)

कमलनयन प्रभो! जैसे देहादि अनात्मपदार्थोंमें अपनेपनका अभिमान करनेवाले संसारी पुरुषोंका आश्रय व्यर्थ होता है, उस प्रकार आपके चरणोंकी शरण तो व्यर्थ हो नहीं सकती; क्योंकि आप सबके अहैतुक प्रेमी, परम प्रियतम और आत्मा हैं। आपने इस समय जो रूप धारण करके हमें दर्शन दिया है, यह बड़ा ही अद‍्भुत है॥ ३०॥

श्लोक-३१

मूलम् (वचनम्)

श्रीशुक उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

इति ब्रुवाणं नृपतिं जगत्पतिः
सत्यव्रतं मत्स्यवपुर्युगक्षये।
विहर्तुकामः प्रलयार्णवेऽब्रवी-
च्चिकीर्षुरेकान्तजनप्रियः प्रियम्॥

मूलम्

इति ब्रुवाणं नृपतिं जगत्पतिः
सत्यव्रतं मत्स्यवपुर्युगक्षये।
विहर्तुकामः प्रलयार्णवेऽब्रवी-
च्चिकीर्षुरेकान्तजनप्रियः प्रियम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! भगवान् अपने अनन्य प्रेमी भक्तोंपर अत्यन्त प्रेम करते हैं। जब जगत्पति मत्स्यभगवान‍्ने अपने प्यारे भक्त राजर्षि सत्यव्रतकी यह प्रार्थना सुनी तो उनका प्रिय और हित करनेके लिये, साथ ही कल्पान्तके प्रलयकालीन समुद्रमें विहार करनेके लिये उनसे कहा॥ ३१॥

श्लोक-३२

मूलम् (वचनम्)

श्रीभगवानुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

सप्तमेऽद्यतनादूर्ध्वमहन्येतदरिन्दम।
निमङ्क्ष्यत्यप्ययाम्भोधौ त्रैलोक्यं भूर्भुवादिकम्॥

मूलम्

सप्तमेऽद्यतनादूर्ध्वमहन्येतदरिन्दम।
निमङ्क्ष्यत्यप्ययाम्भोधौ त्रैलोक्यं भूर्भुवादिकम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीभगवान‍्ने कहा—सत्यव्रत! आजसे सातवें दिन भूर्लोक आदि तीनों लोक प्रलयके समुद्रमें डूब जायँगे॥ ३२॥

श्लोक-३३

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्रिलोक्यां लीयमानायां संवर्ताम्भसि वै तदा।
उपस्थास्यति नौः काचिद् विशाला त्वां मयेरिता॥

मूलम्

त्रिलोक्यां लीयमानायां संवर्ताम्भसि वै तदा।
उपस्थास्यति नौः काचिद् विशाला त्वां मयेरिता॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय जब तीनों लोक प्रलयकालकी जलराशिमें डूबने लगेंगे, तब मेरी प्रेरणासे तुम्हारे पास एक बहुत बड़ी नौका आयेगी॥ ३३॥

श्लोक-३४

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वं तावदोषधीः सर्वा बीजान्युच्चावचानि च।
सप्तर्षिभिः परिवृतः सर्वसत्त्वोपबृंहितः॥

मूलम्

त्वं तावदोषधीः सर्वा बीजान्युच्चावचानि च।
सप्तर्षिभिः परिवृतः सर्वसत्त्वोपबृंहितः॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय तुम समस्त प्राणियोंके सूक्ष्मशरीरोंको लेकर सप्तर्षियोंके साथ उस नौकापर चढ़ जाना और समस्त धान्य तथा छोटे-बड़े अन्य प्रकारके बीजोंको साथ रख लेना॥ ३४॥

श्लोक-३५

विश्वास-प्रस्तुतिः

आरुह्य बृहतीं नावं विचरिष्यस्यविक्लवः।
एकार्णवे निरालोके ऋषीणामेव वर्चसा॥

मूलम्

आरुह्य बृहतीं नावं विचरिष्यस्यविक्लवः।
एकार्णवे निरालोके ऋषीणामेव वर्चसा॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय सब ओर एकमात्र महासागर लहराता होगा। प्रकाश नहीं होगा। केवल ऋषियोंकी दिव्य ज्योतिके सहारे ही बिना किसी प्रकारकी विकलताके तुम उस बड़ी नावपर चढ़कर चारों ओर विचरण करना॥ ३५॥

श्लोक-३६

विश्वास-प्रस्तुतिः

दोधूयमानां तां नावं समीरेण बलीयसा।
उपस्थितस्य मे शृङ्गे निबध्नीहि महाहिना॥

मूलम्

दोधूयमानां तां नावं समीरेण बलीयसा।
उपस्थितस्य मे शृङ्गे निबध्नीहि महाहिना॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब प्रचण्ड आँधी चलनेके कारण नाव डगमगाने लगेगी, तब मैं इसी रूपमें वहाँ आ जाऊँगा और तुम लोग वासुकिनागके द्वारा उस नावको मेरे सींगमें बाँध देना॥ ३६॥

श्लोक-३७

विश्वास-प्रस्तुतिः

अहं त्वामृषिभिः साकं सहनावमुदन्वति।
विकर्षन् विचरिष्यामि यावद् ब्राह्मी निशा प्रभो॥

मूलम्

अहं त्वामृषिभिः साकं सहनावमुदन्वति।
विकर्षन् विचरिष्यामि यावद् ब्राह्मी निशा प्रभो॥

अनुवाद (हिन्दी)

सत्यव्रत! इसके बाद जबतक ब्रह्माजीकी रात रहेगी तबतक मैं ऋषियोंके साथ तुम्हें उस नावमें बैठाकर उसे खींचता हुआ समुद्रमें विचरण करूँगा॥ ३७॥

श्लोक-३८

विश्वास-प्रस्तुतिः

मदीयं महिमानं च परं ब्रह्मेति शब्दितम्।
वेत्स्यस्यनुगृहीतं मे संप्रश्नैर्विवृतं हृदि॥

मूलम्

मदीयं महिमानं च परं ब्रह्मेति शब्दितम्।
वेत्स्यस्यनुगृहीतं मे संप्रश्नैर्विवृतं हृदि॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय जब तुम प्रश्न करोगे तब मैं तुम्हें उपदेश दूँगा। मेरे अनुग्रहसे मेरी वास्तविक महिमा, जिसका नाम ‘परब्रह्म’ है, तुम्हारे हृदयमें प्रकट हो जायगी और तुम उसे ठीक-ठीक जान लोगे॥ ३८॥

श्लोक-३९

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्थमादिश्य राजानं हरिरन्तरधीयत।
सोऽन्ववैक्षत तं कालं यं हृषीकेश आदिशत्॥

मूलम्

इत्थमादिश्य राजानं हरिरन्तरधीयत।
सोऽन्ववैक्षत तं कालं यं हृषीकेश आदिशत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् राजा सत्यव्रतको यह आदेश देकर अन्तर्धान हो गये। अतः अब राजा सत्यव्रत उसी समयकी प्रतीक्षा करने लगे, जिसके लिये भगवान‍्ने आज्ञा दी थी॥ ३९॥

श्लोक-४०

विश्वास-प्रस्तुतिः

आस्तीर्य दर्भान् प्राक्‍कूलान् राजर्षिः प्रागुदङ्मुखः।
निषसाद हरेः पादौ चिन्तयन् मत्स्यरूपिणः॥

मूलम्

आस्तीर्य दर्भान् प्राक्‍कूलान् राजर्षिः प्रागुदङ्मुखः।
निषसाद हरेः पादौ चिन्तयन् मत्स्यरूपिणः॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुशोंका अग्रभाग पूर्वकी ओर करके राजर्षि सत्यव्रत उनपर पूर्वोत्तर मुखसे बैठ गये और मत्स्यरूप भगवान‍्के चरणोंका चिन्तन करने लगे॥ ४०॥

श्लोक-४१

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः समुद्र उद्वेलः सर्वतः प्लावयन् महीम्।
वर्धमानो महामेघैर्वर्षद‍्भिः समदृश्यत॥

मूलम्

ततः समुद्र उद्वेलः सर्वतः प्लावयन् महीम्।
वर्धमानो महामेघैर्वर्षद‍्भिः समदृश्यत॥

अनुवाद (हिन्दी)

इतनेमें ही भगवान‍्का बताया हुआ वह समय आ पहुँचा। राजाने देखा कि समुद्र अपनी मर्यादा छोड़कर बढ़ रहा है। प्रलयकालके भयङ्कर मेघ वर्षा करने लगे। देखते-ही-देखते सारी पृथ्वी डूबने लगी॥ ४१॥

श्लोक-४२

विश्वास-प्रस्तुतिः

ध्यायन् भगवदादेशं ददृशे नावमागताम्।
तामारुरोह विप्रेन्द्रैरादायौषधिवीरुधः॥

मूलम्

ध्यायन् भगवदादेशं ददृशे नावमागताम्।
तामारुरोह विप्रेन्द्रैरादायौषधिवीरुधः॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब राजाने भगवान‍्की आज्ञाका स्मरण किया और देखा कि नाव भी आ गयी है। तब वे धान्य तथा अन्य बीजोंको लेकर सप्तर्षियोंके साथ उसपर सवार हो गये॥ ४२॥

श्लोक-४३

विश्वास-प्रस्तुतिः

तमूचुर्मुनयः प्रीता राजन् ध्यायस्व केशवम्।
स वै नः संकटादस्मादविता शं विधास्यति॥

मूलम्

तमूचुर्मुनयः प्रीता राजन् ध्यायस्व केशवम्।
स वै नः संकटादस्मादविता शं विधास्यति॥

अनुवाद (हिन्दी)

सप्तर्षियोंने बड़े प्रेमसे राजा सत्यव्रतसे कहा—‘राजन्! तुम भगवान‍्का ध्यान करो। वे ही हमें इस संकटसे बचायेंगे और हमारा कल्याण करेंगे’॥ ४३॥

श्लोक-४४

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोऽनुध्यातस्ततो राज्ञा प्रादुरासीन्महार्णवे।
एकशृङ्गधरो मत्स्यो हैमो नियुतयोजनः॥

मूलम्

सोऽनुध्यातस्ततो राज्ञा प्रादुरासीन्महार्णवे।
एकशृङ्गधरो मत्स्यो हैमो नियुतयोजनः॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनकी आज्ञासे राजाने भगवान‍्का ध्यान किया। उसी समय उस महान् समुद्रमें मत्स्यके रूपमें भगवान् प्रकट हुए। मत्स्यभगवान‍्का शरीर सोनेके समान देदीप्यमान था और शरीरका विस्तार था चार लाख कोस। उनके शरीरमें एक बड़ा भारी सींग भी था॥ ४४॥

श्लोक-४५

विश्वास-प्रस्तुतिः

निबध्य नावं तच्छृङ्गे यथोक्तो हरिणा पुरा।
वरत्रेणाहिना तुष्टस्तुष्टाव मधुसूदनम्॥

मूलम्

निबध्य नावं तच्छृङ्गे यथोक्तो हरिणा पुरा।
वरत्रेणाहिना तुष्टस्तुष्टाव मधुसूदनम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान‍्ने पहले जैसी आज्ञा दी थी, उसके अनुसार वह नौका वासुकिनागके द्वारा भगवान‍्के सींगमें बाँध दी गयी और राजा सत्यव्रतने प्रसन्न होकर भगवान‍्की स्तुति की॥ ४५॥

श्लोक-४६

मूलम् (वचनम्)

राजोवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनाद्यविद्योपहतात्मसंविद-
स्तन्मूलसंसारपरिश्रमातुराः।
यदृच्छयेहोपसृता यमाप्नुयु-
र्विमुक्तिदो नः परमो गुरुर्भवान्॥

मूलम्

अनाद्यविद्योपहतात्मसंविद-
स्तन्मूलसंसारपरिश्रमातुराः।
यदृच्छयेहोपसृता यमाप्नुयु-
र्विमुक्तिदो नः परमो गुरुर्भवान्॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजा सत्यव्रतने कहा—प्रभो! संसारके जीवोंका आत्मज्ञान अनादि अविद्यासे ढक गया है। इसी कारण वे संसारके अनेकानेक क्लेशोंके भारसे पीड़ित हो रहे हैं। जब अनायास ही आपके अनुग्रहसे वे आपकी शरणमें पहुँच जाते हैं तब आपको प्राप्त कर लेते हैं। इसलिये हमें बन्धनसे छुड़ाकर वास्तविक मुक्ति देनेवाले परम गुरु आप ही हैं॥ ४६॥

श्लोक-४७

विश्वास-प्रस्तुतिः

जनोऽबुधोऽयं निजकर्मबन्धनः
सुखेच्छया कर्म समीहतेऽसुखम्।
यत्सेवया तां विधुनोत्यसन्मतिं
ग्रन्थिं स भिन्द्याद्‍धृदयं स नो गुरुः॥

मूलम्

जनोऽबुधोऽयं निजकर्मबन्धनः
सुखेच्छया कर्म समीहतेऽसुखम्।
यत्सेवया तां विधुनोत्यसन्मतिं
ग्रन्थिं स भिन्द्याद्‍धृदयं स नो गुरुः॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह जीव अज्ञानी है, अपने ही कर्मोंसे बँधा हुआ है। वह सुखकी इच्छासे दुःखप्रद कर्मोंका अनुष्ठान करता है। जिनकी सेवासे उसका यह अज्ञान नष्ट हो जाता है वे ही मेरे परम गुरु आप मेरे हृदयकी गाँठ काट दें॥ ४७॥

श्लोक-४८

विश्वास-प्रस्तुतिः

यत्सेवयाग्नेरिव रुद्ररोदनं
पुमान् विजह्यान्मलमात्मनस्तमः।
भजेत वर्णं निजमेष सोऽव्ययो
भूयात् स ईशः परमो गुरोर्गुरुः॥

मूलम्

यत्सेवयाग्नेरिव रुद्ररोदनं
पुमान् विजह्यान्मलमात्मनस्तमः।
भजेत वर्णं निजमेष सोऽव्ययो
भूयात् स ईशः परमो गुरोर्गुरुः॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे अग्निमें तपानेसे सोने-चाँदीके मल दूर हो जाते हैं और उनका सच्चा स्वरूप निखर आता है, वैसे ही आपकी सेवासे जीव अपने अन्तःकरणका अज्ञानरूप मल त्याग देता है और अपने वास्तविक स्वरूपमें स्थित हो जाता है। आप सर्वशक्तिमान् अविनाशी प्रभु ही हमारे गुरुजनोंके भी परम गुरु हैं। अतः आप ही हमारे भी गुरु बनें॥ ४८॥

श्लोक-४९

विश्वास-प्रस्तुतिः

न यत्प्रसादायुतभागलेशृ-
मन्ये च देवा गुरवो जनाः स्वयम्।
कर्तुं समेताः प्रभवन्ति पुंस-
स्तमीश्वरं त्वां शरणं प्रपद्ये॥

मूलम्

न यत्प्रसादायुतभागलेशृ-
मन्ये च देवा गुरवो जनाः स्वयम्।
कर्तुं समेताः प्रभवन्ति पुंस-
स्तमीश्वरं त्वां शरणं प्रपद्ये॥

अनुवाद (हिन्दी)

जितने भी देवता, गुरु और संसारके दूसरे जीव हैं—वे सब यदि स्वतन्त्ररूपसे एक साथ मिलकर भी कृपा करें, तो आपकी कृपाके दस हजारवें अंशके अंशकी भी बराबरी नहीं कर सकते। प्रभो! आप ही सर्वशक्तिमान् हैं। मैं आपकी शरण ग्रहण करता हूँ॥ ४९॥

श्लोक-५०

विश्वास-प्रस्तुतिः

अचक्षुरन्धस्य यथाग्रणीः कृत-
स्तथा जनस्याविदुषोऽबुधो गुरुः।
त्वमर्कदृक् सर्वदृशां समीक्षणो
वृतो गुरुर्नः स्वगतिं बुभुत्सताम्॥

मूलम्

अचक्षुरन्धस्य यथाग्रणीः कृत-
स्तथा जनस्याविदुषोऽबुधो गुरुः।
त्वमर्कदृक् सर्वदृशां समीक्षणो
वृतो गुरुर्नः स्वगतिं बुभुत्सताम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे कोई अंधा अंधेको ही अपना पथप्रदर्शक बना ले, वैसे ही अज्ञानी जीव अज्ञानीको ही अपना गुरु बनाते हैं। आप सूर्यके समान स्वयंप्रकाश और समस्त इन्द्रियोंके प्रेरक हैं। हम आत्मतत्त्वके जिज्ञासु आपको ही गुरुके रूपमें वरण करते हैं॥ ५०॥

श्लोक-५१

विश्वास-प्रस्तुतिः

जनो जनस्यादिशतेऽसतीं मतिं
यया प्रपद्येत दुरत्ययं तमः।
त्वं त्वव्ययं ज्ञानममोघमञ्जसा
प्रपद्यते येन जनो निजं पदम्॥

मूलम्

जनो जनस्यादिशतेऽसतीं मतिं
यया प्रपद्येत दुरत्ययं तमः।
त्वं त्वव्ययं ज्ञानममोघमञ्जसा
प्रपद्यते येन जनो निजं पदम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

अज्ञानी मनुष्य अज्ञानियोंको जिस ज्ञानका उपदेश करता है वह तो अज्ञान ही है। उसके द्वारा संसाररूप घोर अन्धकारकी अधिकाधिक प्राप्ति होती है। परन्तु आप तो उस अविनाशी और अमोघ ज्ञानका उपदेश करते हैं जिससे मनुष्य अनायास ही अपने वास्तविक स्वरूपको प्राप्त कर लेता है॥ ५१॥

श्लोक-५२

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वं सर्वलोकस्य सुहृत् प्रियेश्वरो
ह्यात्मा गुरुर्ज्ञानमभीष्टसिद्धिः।
तथापि लोको न भवन्तमन्धधी-
र्जानाति सन्तं हृदि बद्धकामः॥

मूलम्

त्वं सर्वलोकस्य सुहृत् प्रियेश्वरो
ह्यात्मा गुरुर्ज्ञानमभीष्टसिद्धिः।
तथापि लोको न भवन्तमन्धधी-
र्जानाति सन्तं हृदि बद्धकामः॥

अनुवाद (हिन्दी)

आप सारे लोकके सुहृद्, प्रियतम, ईश्वर और आत्मा हैं। गुरु, उसके द्वारा प्राप्त होनेवाला ज्ञान और अभीष्टकी सिद्धि भी आपका ही स्वरूप है। फिर भी कामनाओंके बन्धनमें जकड़े जाकर लोग अंधे हो रहे हैं। उन्हें इस बातका पता ही नहीं है कि आप उनके हृदयमें ही विराजमान् हैं॥ ५२॥

श्लोक-५३

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं त्वामहं देववरं वरेण्यं
प्रपद्य ईशं प्रतिबोधनाय।
छिन्ध्यर्थदीपैर्भगवन् वचोभि-
र्ग्रन्थीन् हृदय्यान् विवृणु स्वमोकः॥

मूलम्

तं त्वामहं देववरं वरेण्यं
प्रपद्य ईशं प्रतिबोधनाय।
छिन्ध्यर्थदीपैर्भगवन् वचोभि-
र्ग्रन्थीन् हृदय्यान् विवृणु स्वमोकः॥

अनुवाद (हिन्दी)

आप देवताओंके भी आराध्यदेव, परम पूजनीय परमेश्वर हैं। मैं आपसे ज्ञान प्राप्त करनेके लिये आपकी शरणमें आया हूँ। भगवन्! आप परमार्थको प्रकाशित करनेवाली अपनी वाणीके द्वारा मेरे हृदयकी ग्रन्थि काट डालिये और अपने स्वरूपको प्रकाशित कीजिये॥ ५३॥

श्लोक-५४

मूलम् (वचनम्)

श्रीशुक उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्युक्तवन्तं नृपतिं भगवानादिपूरुषः।
मत्स्यरूपी महाम्भोधौ विहरंस्तत्त्वमब्रवीत्॥

मूलम्

इत्युक्तवन्तं नृपतिं भगवानादिपूरुषः।
मत्स्यरूपी महाम्भोधौ विहरंस्तत्त्वमब्रवीत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! जब राजा सत्यव्रतने इस प्रकार प्रार्थना की; तब मत्स्यरूपधारी पुरुषोत्तमभगवान‍्ने प्रलयके समुद्रमें विहार करते हुए उन्हें आत्मतत्त्वका उपदेश किया॥ ५४॥

श्लोक-५५

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुराणसंहितां दिव्यां सांख्ययोगक्रियावतीम्।
सत्यव्रतस्य राजर्षेरात्मगुह्यमशेषतः॥

मूलम्

पुराणसंहितां दिव्यां सांख्ययोगक्रियावतीम्।
सत्यव्रतस्य राजर्षेरात्मगुह्यमशेषतः॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान‍्ने राजर्षि सत्यव्रतको अपने स्वरूपके सम्पूर्ण रहस्यका वर्णन करते हुए ज्ञान, भक्ति और कर्मयोगसे परिपूर्ण दिव्य पुराणका उपदेश किया, जिसको ‘मत्स्यपुराण’ कहते हैं॥ ५५॥

श्लोक-५६

विश्वास-प्रस्तुतिः

अश्रौषीदृषिभिः साकमात्मतत्त्वमसंशयम्।
नाव्यासीनो भगवता प्रोक्तं ब्रह्म सनातनम्॥

मूलम्

अश्रौषीदृषिभिः साकमात्मतत्त्वमसंशयम्।
नाव्यासीनो भगवता प्रोक्तं ब्रह्म सनातनम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

सत्यव्रतने ऋषियोंके साथ नावमें बैठे हुए ही सन्देहरहित होकर भगवान‍्के द्वारा उपदिष्ट सनातन ब्रह्मस्वरूप आत्मतत्त्वका श्रवण किया॥ ५६॥

श्लोक-५७

विश्वास-प्रस्तुतिः

अतीतप्रलयापाय उत्थिताय स वेधसे।
हत्वासुरं हयग्रीवं वेदान् प्रत्याहरद्धरिः॥

मूलम्

अतीतप्रलयापाय उत्थिताय स वेधसे।
हत्वासुरं हयग्रीवं वेदान् प्रत्याहरद्धरिः॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसके बाद जब पिछले प्रलयका अन्त हो गया और ब्रह्माजीकी नींद टूटी, तब भगवान‍्ने हयग्रीव असुरको मारकर उससे वेद छीन लिये और ब्रह्माजीको दे दिये॥ ५७॥

श्लोक-५८

विश्वास-प्रस्तुतिः

स तु सत्यव्रतो राजा ज्ञानविज्ञानसंयुतः।
विष्णोः प्रसादात् कल्पेऽस्मिन्नासीद् वैवस्वतो मनुः॥

मूलम्

स तु सत्यव्रतो राजा ज्ञानविज्ञानसंयुतः।
विष्णोः प्रसादात् कल्पेऽस्मिन्नासीद् वैवस्वतो मनुः॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान‍्की कृपासे राजा सत्यव्रत ज्ञान और विज्ञानसे संयुक्त होकर इस कल्पमें वैवस्वत मनु हुए॥ ५८॥

श्लोक-५९

विश्वास-प्रस्तुतिः

सत्यव्रतस्य राजर्षेर्मायामत्स्यस्य शार्ङ्गिणः।
संवादं महदाख्यानं श्रुत्वा मुच्येत किल्बिषात्॥

मूलम्

सत्यव्रतस्य राजर्षेर्मायामत्स्यस्य शार्ङ्गिणः।
संवादं महदाख्यानं श्रुत्वा मुच्येत किल्बिषात्॥

अनुवाद (हिन्दी)

अपनी योगमायासे मत्स्यरूप धारण करनेवाले भगवान् विष्णु और राजर्षि सत्यव्रतका यह संवाद एवं श्रेष्ठ आख्यान सुनकर मनुष्य सब प्रकारके पापोंसे मुक्त हो जाता है॥ ५९॥

श्लोक-६०

विश्वास-प्रस्तुतिः

अवतारो हरेर्योऽयं कीर्तयेदन्वहं नरः।
सङ्कल्पास्तस्य सिध्यन्ति स याति परमां गतिम्॥

मूलम्

अवतारो हरेर्योऽयं कीर्तयेदन्वहं नरः।
सङ्कल्पास्तस्य सिध्यन्ति स याति परमां गतिम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो मनुष्य भगवान‍्के इस अवतारका प्रतिदिन कीर्तन करता है, उसके सारे संकल्प सिद्ध हो जाते हैं और उसे परमगतिकी प्राप्ति होती है॥ ६०॥

श्लोक-६१

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रलयपयसि धातुः सुप्तशक्तेर्मुखेभ्यः
श्रुतिगणमपनीतं प्रत्युपादत्त हत्वा।
दितिजमकथयद् यो ब्रह्म सत्यव्रतानां
तमहमखिलहेतुं जिह्ममीनं नतोऽस्मि॥

मूलम्

प्रलयपयसि धातुः सुप्तशक्तेर्मुखेभ्यः
श्रुतिगणमपनीतं प्रत्युपादत्त हत्वा।
दितिजमकथयद् यो ब्रह्म सत्यव्रतानां
तमहमखिलहेतुं जिह्ममीनं नतोऽस्मि॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रलयकालीन समुद्रमें जब ब्रह्माजी सो गये थे, उनकी सृष्टिशक्ति लुप्त हो चुकी थी, उस समय उनके मुखसे निकली हुई श्रुतियोंको चुराकर हयग्रीव दैत्य पातालमें ले गया था। भगवान‍्ने उसे मारकर वे श्रुतियाँ ब्रह्माजीको लौटा दीं एवं सत्यव्रत तथा सप्तर्षियोंको ब्रह्मतत्त्वका उपदेश किया। उन समस्त जगत‍्के परम कारण लीलामत्स्यभगवान‍्को मैं नमस्कार करता हूँ॥ ६१॥

अनुवाद (समाप्ति)

इति श्रीमद‍्भागवते महापुराणे वैयासिक्यामष्टादशसाहस्र्यां पारमहंस्यां संहितायामष्टमस्कन्धे मत्स्यावतारचरितानुवर्णनं नाम चतुर्विंशोऽध्यायः॥
॥ इत्यष्टमः स्कन्धः समाप्तः॥
॥ हरिः ॐ तत्सत्॥