[त्रयोविंशोऽध्यायः]
भागसूचना
बलिका बन्धनसे छूटकर सुतललोकको जाना
श्लोक-१
मूलम् (वचनम्)
श्रीशुक उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युक्तवन्तं पुरुषं पुरातनं
महानुभावोऽखिलसाधुसंमतः।
बद्धाञ्जलिर्बाष्पकलाकुलेक्षणो
भक्त्युद्गलो गद्गदया गिराब्रवीत्॥
मूलम्
इत्युक्तवन्तं पुरुषं पुरातनं
महानुभावोऽखिलसाधुसंमतः।
बद्धाञ्जलिर्बाष्पकलाकुलेक्षणो
भक्त्युद्गलो गद्गदया गिराब्रवीत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—जब सनातन पुरुष भगवान्ने इस प्रकार कहा, तो साधुओंके आदरणीय महानुभाव दैत्यराजके नेत्रोंमें आँसू छलक आये। प्रेमके उद्रेकसे उनका गला भर आया। वे हाथ जोड़कर गद्गद वाणीसे भगवान्से कहने लगे॥ १॥
श्लोक-२
मूलम् (वचनम्)
बलिरुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहो प्रणामाय कृतः समुद्यमः
प्रपन्नभक्तार्थविधौ समाहितः।
यल्लोकपालैस्त्वदनुग्रहोऽमरै-
रलब्धपूर्वोऽपसदेऽसुरेऽर्पितः॥
मूलम्
अहो प्रणामाय कृतः समुद्यमः
प्रपन्नभक्तार्थविधौ समाहितः।
यल्लोकपालैस्त्वदनुग्रहोऽमरै-
रलब्धपूर्वोऽपसदेऽसुरेऽर्पितः॥
अनुवाद (हिन्दी)
बलिने कहा—प्रभो! मैंने तो आपको पूरा प्रणाम भी नहीं किया, केवल प्रणाम करनेमात्रकी चेष्टाभर की। उसीसे मुझे वह फल मिला, जो आपके चरणोंके शरणागत भक्तोंको प्राप्त होता है। बड़े-बड़े लोकपाल और देवताओंपर आपने जो कृपा कभी नहीं की वह मुझ-जैसे नीच असुरको सहज ही प्राप्त हो गयी॥ २॥
श्लोक-३
मूलम् (वचनम्)
श्रीशुक उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युक्त्वा हरिमानम्य ब्रह्माणं सभवं ततः।
विवेश सुतलं प्रीतो बलिर्मुक्तः सहासुरैः॥
मूलम्
इत्युक्त्वा हरिमानम्य ब्रह्माणं सभवं ततः।
विवेश सुतलं प्रीतो बलिर्मुक्तः सहासुरैः॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! यों कहते ही बलि वरुणके पाशोंसे मुक्त हो गये। तब उन्होंने भगवान्, ब्रह्माजी और शंकरजीको प्रणाम किया और इसके बाद बड़ी प्रसन्नतासे असुरोंके साथ सुतल लोककी यात्रा की॥ ३॥
श्लोक-४
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमिन्द्राय भगवान् प्रत्यानीय त्रिविष्टपम्।
पूरयित्वादितेः काममशासत् सकलं जगत्॥
मूलम्
एवमिन्द्राय भगवान् प्रत्यानीय त्रिविष्टपम्।
पूरयित्वादितेः काममशासत् सकलं जगत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार भगवान्ने बलिसे स्वर्गका राज्य लेकर इन्द्रको दे दिया, अदितिकी कामना पूर्ण की और स्वयं उपेन्द्र बनकर वे सारे जगत्का शासन करने लगे॥ ४॥
श्लोक-५
विश्वास-प्रस्तुतिः
लब्धप्रसादं निर्मुक्तं पौत्रं वंशधरं बलिम्।
निशाम्य भक्तिप्रवणः प्रह्राद इदमब्रवीत्॥
मूलम्
लब्धप्रसादं निर्मुक्तं पौत्रं वंशधरं बलिम्।
निशाम्य भक्तिप्रवणः प्रह्राद इदमब्रवीत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब प्रह्लादने देखा कि मेरे वंशधर पौत्र राजा बलि बन्धनसे छूट गये और उन्हें भगवान्का कृपा-प्रसाद प्राप्त हो गया तो वे भक्ति-भावसे भर गये। उस समय उन्होंने भगवान्की इस प्रकार स्तुति की॥ ५॥
श्लोक-६
मूलम् (वचनम्)
प्रह्राद उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
नेमं विरिञ्चो लभते प्रसादं
न श्रीर्न शर्वः किमुतापरे ते।
यन्नोऽसुराणामसि दुर्गपालो
विश्वाभिवन्द्यैरपि वन्दिताङ्घ्रिः॥
मूलम्
नेमं विरिञ्चो लभते प्रसादं
न श्रीर्न शर्वः किमुतापरे ते।
यन्नोऽसुराणामसि दुर्गपालो
विश्वाभिवन्द्यैरपि वन्दिताङ्घ्रिः॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रह्लादजीने कहा—प्रभो! यह कृपाप्रसाद तो कभी ब्रह्माजी, लक्ष्मीजी और शंकरजीको भी नहीं प्राप्त हुआ तब दूसरोंकी बात ही क्या है। अहो! विश्ववन्द्य ब्रह्मा आदि भी जिनके चरणोंकी वन्दना करते रहते हैं, वही आप हम असुरोंके दुर्गपाल—किलेदार हो गये॥ ६॥
श्लोक-७
विश्वास-प्रस्तुतिः
यत्पादपद्ममकरन्दनिषेवणेन
ब्रह्मादयः शरणदाश्नुवते विभूतीः।
कस्माद् वयं कुसृतयः खलयोनयस्ते
दाक्षिण्यदृष्टिपदवीं भवतः प्रणीताः॥
मूलम्
यत्पादपद्ममकरन्दनिषेवणेन
ब्रह्मादयः शरणदाश्नुवते विभूतीः।
कस्माद् वयं कुसृतयः खलयोनयस्ते
दाक्षिण्यदृष्टिपदवीं भवतः प्रणीताः॥
अनुवाद (हिन्दी)
शरणागतवत्सल प्रभो! ब्रह्मा आदि लोकपाल आपके चरणकमलोंका मकरन्द-रस सेवन करनेके कारण सृष्टिरचनाकी शक्ति आदि अनेक विभूतियाँ प्राप्त करते हैं। हमलोग तो जन्मसे ही खल और कुमार्गगामी हैं, हमपर आपकी ऐसी अनुग्रहपूर्ण दृष्टि कैसे हो गयी, जो आप हमारे द्वारपाल ही बन गये॥ ७॥
श्लोक-८
विश्वास-प्रस्तुतिः
चित्रं तवेहितमहोऽमितयोगमाया-
लीलाविसृष्टभुवनस्य विशारदस्य।
सर्वात्मनः समदृशो विषमः स्वभावो
भक्तप्रियो यदसि कल्पतरुस्वभावः॥
मूलम्
चित्रं तवेहितमहोऽमितयोगमाया-
लीलाविसृष्टभुवनस्य विशारदस्य।
सर्वात्मनः समदृशो विषमः स्वभावो
भक्तप्रियो यदसि कल्पतरुस्वभावः॥
अनुवाद (हिन्दी)
आपने अपनी योगमायासे खेल-ही-खेलमें त्रिभुवनकी रचना कर दी। आप सर्वज्ञ, सर्वात्मा और समदर्शी हैं। फिर भी आपकी लीलाएँ बड़ी विलक्षण जान पड़ती हैं। आपका स्वभाव कल्प-वृक्षके समान है; क्योंकि आप अपने भक्तोंसे अत्यन्त प्रेम करते है। इसीसे कभी-कभी उपासकोंके प्रति पक्षपात और विमुखोंके प्रति निर्दयता भी आपमें देखी जाती है॥ ८॥
श्लोक-९
मूलम् (वचनम्)
श्रीभगवानुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
वत्स प्रह्राद भद्रं ते प्रयाहि सुतलालयम्।
मोदमानः स्वपौत्रेण ज्ञातीनां सुखमावह॥
मूलम्
वत्स प्रह्राद भद्रं ते प्रयाहि सुतलालयम्।
मोदमानः स्वपौत्रेण ज्ञातीनां सुखमावह॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीभगवान्ने कहा—बेटा प्रह्लाद! तुम्हारा कल्याण हो। अब तुम भी सुतल लोकमें जाओ। वहाँ अपने पौत्र बलिके साथ आनन्दपूर्वक रहो और जाति-बन्धुओंको सुखी करो॥ ९॥
श्लोक-१०
विश्वास-प्रस्तुतिः
नित्यं द्रष्टासि मां तत्र गदापाणिमवस्थितम्।
मद्दर्शनमहाह्लादध्वस्तकर्मनिबन्धनः॥
मूलम्
नित्यं द्रष्टासि मां तत्र गदापाणिमवस्थितम्।
मद्दर्शनमहाह्लादध्वस्तकर्मनिबन्धनः॥
अनुवाद (हिन्दी)
वहाँ तुम मुझे नित्य ही गदा हाथमें लिये खड़ा देखोगे। मेरे दर्शनके परमानन्दमें मग्न रहनेके कारण तुम्हारे सारे कर्मबन्धन नष्ट हो जायँगे॥ १०॥
श्लोक-११
मूलम् (वचनम्)
श्रीशुक उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
आज्ञां भगवतो राजन् प्रह्रादो बलिना सह।
बाढमित्यमलप्रज्ञो मूर्ध्न्याधाय कृताञ्जलिः॥
मूलम्
आज्ञां भगवतो राजन् प्रह्रादो बलिना सह।
बाढमित्यमलप्रज्ञो मूर्ध्न्याधाय कृताञ्जलिः॥
श्लोक-१२
विश्वास-प्रस्तुतिः
परिक्रम्यादिपुरुषं सर्वासुरचमूपतिः।
प्रणतस्तदनुज्ञातः प्रविवेश महाबिलम्॥
मूलम्
परिक्रम्यादिपुरुषं सर्वासुरचमूपतिः।
प्रणतस्तदनुज्ञातः प्रविवेश महाबिलम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! समस्त दैत्यसेनाके स्वामी विशुद्धबुद्धि प्रह्लादजीने ‘जो आज्ञा’ कहकर, हाथ जोड़, भगवान्का आदेश मस्तकपर चढ़ाया। फिर उन्होंने बलिके साथ आदिपुरुष भगवान्की परिक्रमा की, उन्हें प्रणाम किया और उनसे अनुमति लेकर सुतल लोककी यात्रा की॥ ११-१२॥
श्लोक-१३
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथाहोशनसं राजन् हरिर्नारायणोऽन्तिके।
आसीनमृत्विजां मध्ये सदसि ब्रह्मवादिनाम्॥
मूलम्
अथाहोशनसं राजन् हरिर्नारायणोऽन्तिके।
आसीनमृत्विजां मध्ये सदसि ब्रह्मवादिनाम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! उस समय भगवान् श्रीहरिने ब्रह्मवादी ऋत्विजोंकी सभामें अपने पास ही बैठे हुए शुक्राचार्यजीसे कहा॥ १३॥
श्लोक-१४
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्रह्मन् संतनु शिष्यस्य कर्मच्छिद्रं वितन्वतः।
यत् तत् कर्मसु वैषम्यं ब्रह्मदृष्टं समं भवेत्॥
मूलम्
ब्रह्मन् संतनु शिष्यस्य कर्मच्छिद्रं वितन्वतः।
यत् तत् कर्मसु वैषम्यं ब्रह्मदृष्टं समं भवेत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘ब्रह्मन्! आपका शिष्य यज्ञ कर रहा था। उसमें जो त्रुटि रह गयी है, उसे आप पूर्ण कर दीजिये। क्योंकि कर्म करनेमें जो कुछ भूल-चूक हो जाती है, वह ब्राह्मणोंकी कृपादृष्टिसे सुधर जाती है’॥ १४॥
श्लोक-१५
मूलम् (वचनम्)
शुक्र उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
कुतस्तत्कर्मवैषम्यं यस्य कर्मेश्वरो भवान्।
यज्ञेशो यज्ञपुरुषः सर्वभावेन पूजितः॥
मूलम्
कुतस्तत्कर्मवैषम्यं यस्य कर्मेश्वरो भवान्।
यज्ञेशो यज्ञपुरुषः सर्वभावेन पूजितः॥
अनुवाद (हिन्दी)
शुक्राचार्यजीने कहा—भगवन्! जिसने अपना समस्त कर्म समर्पित करके सब प्रकारसे यज्ञेश्वर यज्ञ-पुरुष आपकी पूजा की है—उसके कर्ममें कोई त्रुटि, कोई विषमता कैसे रह सकती है?॥ १५॥
श्लोक-१६
विश्वास-प्रस्तुतिः
मन्त्रतस्तन्त्रतश्छिद्रं देशकालार्हवस्तुतः।
सर्वं करोति निश्छिद्रं नामसंकीर्तनं तव॥
मूलम्
मन्त्रतस्तन्त्रतश्छिद्रं देशकालार्हवस्तुतः।
सर्वं करोति निश्छिद्रं नामसंकीर्तनं तव॥
अनुवाद (हिन्दी)
क्योंकि मन्त्रोंकी, अनुष्ठान-पद्धतिकी, देश, काल, पात्र और वस्तुकी सारी भूलें आपके नामसंकीर्तनमात्रसे सुधर जाती हैं; आपका नाम सारी त्रुटियोंको पूर्ण कर देता है॥ १६॥
श्लोक-१७
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथापि वदतो भूमन् करिष्याम्यनुशासनम्।
एतच्छ्रेयः परं पुंसां यत् तवाज्ञानुपालनम्॥
मूलम्
तथापि वदतो भूमन् करिष्याम्यनुशासनम्।
एतच्छ्रेयः परं पुंसां यत् तवाज्ञानुपालनम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
तथापि अनन्त! जब आप स्वयं कह रहे हैं, तब मैं आपकी आज्ञाका अवश्य पालन करूँगा। मनुष्यके लिये सबसे बड़ा कल्याणका साधन यही है कि वह आपकी आज्ञाका पालन करे॥ १७॥
श्लोक-१८
मूलम् (वचनम्)
श्रीशुक उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अभिनन्द्य हरेराज्ञामुशना भगवानिति।
यज्ञच्छिद्रं समाधत्त बलेर्विप्रर्षिभिः सह॥
मूलम्
अभिनन्द्य हरेराज्ञामुशना भगवानिति।
यज्ञच्छिद्रं समाधत्त बलेर्विप्रर्षिभिः सह॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—भगवान् शुक्राचार्यने भगवान् श्रीहरिकी यह आज्ञा स्वीकार करके दूसरे ब्रह्मर्षियोंके साथ, बलिके यज्ञमें जो कमी रह गयी थी, उसे पूर्ण किया॥ १८॥
श्लोक-१९
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं बलेर्महीं राजन् भिक्षित्वा वामनो हरिः।
ददौ भ्रात्रे महेन्द्राय त्रिदिवं यत् परैर्हृतम्॥
मूलम्
एवं बलेर्महीं राजन् भिक्षित्वा वामनो हरिः।
ददौ भ्रात्रे महेन्द्राय त्रिदिवं यत् परैर्हृतम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! इस प्रकार वामनभगवान्ने बलिसे पृथ्वीकी भिक्षा माँगकर अपने बड़े भाई इन्द्रको स्वर्गका राज्य दिया, जिसे उनके शत्रुओंने छीन लिया था॥ १९॥
श्लोक-२०
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रजापतिपतिर्ब्रह्मा देवर्षिपितृभूमिपैः।
दक्षभृग्वङ्गिरोमुख्यैः कुमारेण भवेन च॥
मूलम्
प्रजापतिपतिर्ब्रह्मा देवर्षिपितृभूमिपैः।
दक्षभृग्वङ्गिरोमुख्यैः कुमारेण भवेन च॥
श्लोक-२१
विश्वास-प्रस्तुतिः
कश्यपस्यादितेः प्रीत्यै सर्वभूतभवाय च।
लोकानां लोकपालानामकरोद् वामनं पतिम्॥
मूलम्
कश्यपस्यादितेः प्रीत्यै सर्वभूतभवाय च।
लोकानां लोकपालानामकरोद् वामनं पतिम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसके बाद प्रजापतियोंके स्वामी ब्रह्माजीने देवर्षि, पितर, मनु, दक्ष, भृगु, अंगिरा, सनत्कुमार और शंकरजीके साथ कश्यप एवं अदितिकी प्रसन्नताके लिये तथा सम्पूर्ण प्राणियोंके अभ्युदयके लिये समस्त लोक और लोकपालोंके स्वामीके पदपर वामनभगवान्का अभिषेक कर दिया॥ २०-२१॥
श्लोक-२२
विश्वास-प्रस्तुतिः
वेदानां सर्वदेवानां धर्मस्य यशसः श्रियः।
मङ्गलानां व्रतानां च कल्पं स्वर्गापवर्गयोः॥
मूलम्
वेदानां सर्वदेवानां धर्मस्य यशसः श्रियः।
मङ्गलानां व्रतानां च कल्पं स्वर्गापवर्गयोः॥
श्लोक-२३
विश्वास-प्रस्तुतिः
उपेन्द्रं कल्पयाञ्चक्रे पतिं सर्वविभूतये।
तदा सर्वाणि भूतानि भृशं मुमुदिरे नृप॥
मूलम्
उपेन्द्रं कल्पयाञ्चक्रे पतिं सर्वविभूतये।
तदा सर्वाणि भूतानि भृशं मुमुदिरे नृप॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! वेद, समस्त देवता, धर्म, यश, लक्ष्मी, मंगल, व्रत, स्वर्ग और अपवर्ग—सबके रक्षकके रूपमें सबके परम कल्याणके लिये सर्वशक्तिमान् वामन-भगवान्को उन्होंने उपेन्द्रका पद दिया। उस समय सभी प्राणियोंको अत्यन्त आनन्द हुआ॥ २२-२३॥
श्लोक-२४
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्त्विन्द्रः पुरस्कृत्य देवयानेन वामनम्।
लोकपालैर्दिवं निन्ये ब्रह्मणा चानुमोदितः॥
मूलम्
ततस्त्विन्द्रः पुरस्कृत्य देवयानेन वामनम्।
लोकपालैर्दिवं निन्ये ब्रह्मणा चानुमोदितः॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसके बाद ब्रह्माजीकी अनुमतिसे लोकपालोंके साथ देवराज इन्द्रने वामनभगवान्को सबसे आगे विमानपर बैठाया और अपने साथ स्वर्ग लिवा ले गये॥ २४॥
श्लोक-२५
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्राप्य त्रिभुवनं चेन्द्र उपेन्द्रभुजपालितः।
श्रिया परमया जुष्टो मुमुदे गतसाध्वसः॥
मूलम्
प्राप्य त्रिभुवनं चेन्द्र उपेन्द्रभुजपालितः।
श्रिया परमया जुष्टो मुमुदे गतसाध्वसः॥
अनुवाद (हिन्दी)
इन्द्रको एक तो त्रिभुवनका राज्य मिल गया और दूसरे, वामनभगवान्के करकमलोंकी छत्रछाया! सर्वश्रेष्ठ ऐश्वर्यलक्ष्मी उनकी सेवा करने लगी और वे निर्भय होकर आनन्दोत्सव मनाने लगे॥ २५॥
श्लोक-२६
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्रह्मा शर्वः कुमारश्च भृग्वाद्या मुनयो नृप।
पितरः सर्वभूतानि सिद्धा वैमानिकाश्च ये॥
मूलम्
ब्रह्मा शर्वः कुमारश्च भृग्वाद्या मुनयो नृप।
पितरः सर्वभूतानि सिद्धा वैमानिकाश्च ये॥
श्लोक-२७
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुमहत् कर्म तद् विष्णोर्गायन्तः परमाद्भुतम्।
धिष्ण्यानि स्वानि ते जग्मुरदितिं च शशंसिरे॥
मूलम्
सुमहत् कर्म तद् विष्णोर्गायन्तः परमाद्भुतम्।
धिष्ण्यानि स्वानि ते जग्मुरदितिं च शशंसिरे॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्रह्मा, शंकर, सनत्कुमार, भृगु आदि मुनि, पितर, सारे भूत, सिद्ध और विमानारोही देवगण भगवान्के इस परम अद्भुत एवं अत्यन्त महान् कर्मका गान करते हुए अपने-अपने लोकको चले गये और सबने अदितिकी भी बड़ी प्रशंसा की॥ २६-२७॥
श्लोक-२८
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वमेतन्मयाऽऽख्यातं भवतः कुलनन्दन।
उरुक्रमस्य चरितं श्रोतॄणामघमोचनम्॥
मूलम्
सर्वमेतन्मयाऽऽख्यातं भवतः कुलनन्दन।
उरुक्रमस्य चरितं श्रोतॄणामघमोचनम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! तुम्हें मैंने भगवान्की यह सब लीला सुनायी। इससे सुननेवालोंके सारे पाप छूट जाते हैं॥ २८॥
श्लोक-२९
विश्वास-प्रस्तुतिः
पारं महिम्न उरु विक्रमतो गृणानो
यः पार्थिवानि विममे स रजांसि मर्त्यः।
किं जायमान उत जात उपैति मर्त्य
इत्याह मन्त्रदृगृषिः पुरुषस्य यस्य॥
मूलम्
पारं महिम्न उरु विक्रमतो गृणानो
यः पार्थिवानि विममे स रजांसि मर्त्यः।
किं जायमान उत जात उपैति मर्त्य
इत्याह मन्त्रदृगृषिः पुरुषस्य यस्य॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान्की लीलाएँ अनन्त हैं, उनकी महिमा अपार है। जो मनुष्य उसका पार पाना चाहता है वह मानो पृथ्वीके परमाणुओंको गिन डालना चाहता है। भगवान्के सम्बन्धमें मन्त्रद्रष्टा महर्षि वसिष्ठने वेदोंमें कहा है कि ‘ऐसा पुरुष न कभी हुआ, न है और न होगा जो भगवान्की महिमाका पार पा सके’॥ २९॥
श्लोक-३०
विश्वास-प्रस्तुतिः
य इदं देवदेवस्य हरेरद्भुतकर्मणः।
अवतारानुचरितं शृण्वन् याति परां गतिम्॥
मूलम्
य इदं देवदेवस्य हरेरद्भुतकर्मणः।
अवतारानुचरितं शृण्वन् याति परां गतिम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
देवताओंके आराध्यदेव अद्भुतलीलाधारी वामन-भगवान्के अवतारचरित्रका जो श्रवण करता है, उसे परम गतिकी प्राप्ति होती है॥ ३०॥
श्लोक-३१
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्रियमाणे कर्मणीदं दैवे पित्र्येऽथ मानुषे।
यत्र यत्रानुकीर्त्येत तत् तेषां सुकृतं विदुः॥
मूलम्
क्रियमाणे कर्मणीदं दैवे पित्र्येऽथ मानुषे।
यत्र यत्रानुकीर्त्येत तत् तेषां सुकृतं विदुः॥
अनुवाद (हिन्दी)
देवयज्ञ, पितृयज्ञ और मनुष्ययज्ञ किसी भी कर्मका अनुष्ठान करते समय जहाँ-जहाँ भगवान्की इस लीलाका कीर्तन होता है वह कर्म सफलतापूर्वक सम्पन्न हो जाता है। यह बड़े-बड़े महात्माओंका अनुभव है॥ ३१॥
अनुवाद (समाप्ति)
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायामष्टमस्कन्धे वामनावतारचरिते त्रयोविंशोऽध्यायः॥ २३॥