[द्वाविंशोऽध्यायः]
भागसूचना
बलिके द्वारा भगवान्की स्तुति और भगवान्का उसपर प्रसन्न होना
श्लोक-१
मूलम् (वचनम्)
श्रीशुक उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं विप्रकृतो राजन् बलिर्भगवतासुरः।
भिद्यमानोऽप्यभिन्नात्मा प्रत्याहाविक्लवं वचः॥
मूलम्
एवं विप्रकृतो राजन् बलिर्भगवतासुरः।
भिद्यमानोऽप्यभिन्नात्मा प्रत्याहाविक्लवं वचः॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! इस प्रकार भगवान्ने असुरराज बलिका बड़ा तिरस्कार किया और उन्हें धैर्यसे विचलित करना चाहा। परन्तु वे तनिक भी विचलित न हुए , बड़े धैर्यसे बोले॥ १॥
श्लोक-२
मूलम् (वचनम्)
बलिरुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
यद्युत्तमश्लोक भवान् ममेरितं
वचो व्यलीकं सुरवर्य मन्यते।
करोम्यृतं तन्न भवेत् प्रलम्भनं
पदं तृतीयं कुरु शीर्ष्णि मे निजम्॥
मूलम्
यद्युत्तमश्लोक भवान् ममेरितं
वचो व्यलीकं सुरवर्य मन्यते।
करोम्यृतं तन्न भवेत् प्रलम्भनं
पदं तृतीयं कुरु शीर्ष्णि मे निजम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
दैत्यराज बलिने कहा—देवताओंके आराध्यदेव! आपकी कीर्ति बड़ी पवित्र है। क्या आप मेरी बातको असत्य समझते हैं? ऐसा नहीं है। मैं उसे सत्य कर दिखाता हूँ। आप धोखेमें नहीं पड़ेंगे। आप कृपा करके अपना तीसरा पग मेरे सिरपर रख दीजिये॥ २॥
श्लोक-३
विश्वास-प्रस्तुतिः
बिभेमि नाहं निरयात् पदच्युतो
न पाशबन्धाद् व्यसनाद् दुरत्ययात्।
नैवार्थकृच्छ्राद् भवतो विनिग्रहा-
दसाधुवादाद् भृशमुद्विजे यथा॥
मूलम्
बिभेमि नाहं निरयात् पदच्युतो
न पाशबन्धाद् व्यसनाद् दुरत्ययात्।
नैवार्थकृच्छ्राद् भवतो विनिग्रहा-
दसाधुवादाद् भृशमुद्विजे यथा॥
अनुवाद (हिन्दी)
मुझे नरकमें जानेका अथवा राज्यसे च्युत होनेका भय नहीं है। मैं पाशमें बँधने अथवा अपार दुःखमें पड़नेसे भी नहीं डरता। मेरे पास फूटी कौड़ी भी न रहे अथवा आप मुझे घोर दण्ड दें—यह भी मेरे भयका कारण नहीं है। मैं डरता हूँ तो केवल अपनी अपकीर्तिसे!॥ ३॥
श्लोक-४
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुंसां श्लाघ्यतमं मन्ये दण्डमर्हत्तमार्पितम्।
यं न माता पिता भ्राता सुहृदश्चादिशन्ति हि॥
मूलम्
पुंसां श्लाघ्यतमं मन्ये दण्डमर्हत्तमार्पितम्।
यं न माता पिता भ्राता सुहृदश्चादिशन्ति हि॥
अनुवाद (हिन्दी)
अपने पूजनीय गुरुजनोंके द्वारा दिया हुआ दण्ड तो जीवमात्रके लिये अत्यन्त वाञ्छनीय है। क्योंकि वैसा दण्ड माता, पिता, भाई और सुहृद् भी मोहवश नहीं दे पाते॥ ४॥
श्लोक-५
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वं नूनमसुराणां नः पारोक्ष्यः परमो गुरुः।
यो नोऽनेकमदान्धानां विभ्रंशं चक्षुरादिशत्॥
मूलम्
त्वं नूनमसुराणां नः पारोक्ष्यः परमो गुरुः।
यो नोऽनेकमदान्धानां विभ्रंशं चक्षुरादिशत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
आप छिपे रूपसे अवश्य ही हम असुरोंको श्रेष्ठ शिक्षा दिया करते हैं, अतः आप हमारे परम गुरु हैं। जब हमलोग धन, कुलीनता, बल आदिके मदसे अंधे हो जाते हैं, तब आप उन वस्तुओंको हमसे छीनकर हमें नेत्रदान करते हैं॥ ५॥
श्लोक-६
विश्वास-प्रस्तुतिः
यस्मिन् वैरानुबन्धेन रूढेन विबुधेतराः।
बहवो लेभिरे सिद्धिं यामु हैकान्तयोगिनः॥
मूलम्
यस्मिन् वैरानुबन्धेन रूढेन विबुधेतराः।
बहवो लेभिरे सिद्धिं यामु हैकान्तयोगिनः॥
अनुवाद (हिन्दी)
आपसे हमलोगोंका जो उपकार होता है, उसे मैं क्या बताऊँ? अनन्यभावसे योग करनेवाले योगीगण जो सिद्धि प्राप्त करते हैं, वही सिद्धि बहुत-से असुरोंको आपके साथ दृढ़ वैरभाव करनेसे ही प्राप्त हो गयी है॥ ६॥
श्लोक-७
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेनाहं निगृहीतोऽस्मि भवता भूरिकर्मणा।
बद्धश्च वारुणैः पाशैर्नातिव्रीडे न च व्यथे॥
मूलम्
तेनाहं निगृहीतोऽस्मि भवता भूरिकर्मणा।
बद्धश्च वारुणैः पाशैर्नातिव्रीडे न च व्यथे॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिनकी ऐसी महिमा, ऐसी अनन्त लीलाएँ हैं, वही आप मुझे दण्ड दे रहे हैं और वरुणपाशसे बाँध रहे हैं। इसकी न तो मुझे कोई लज्जा है और न किसी प्रकारकी व्यथा ही॥ ७॥
श्लोक-८
विश्वास-प्रस्तुतिः
पितामहो मे भवदीयसंमतः
प्रह्राद आविष्कृतसाधुवादः।
भवद्विपक्षेण विचित्रवैशसं
संप्रापितस्त्वत्परमः स्वपित्रा॥
मूलम्
पितामहो मे भवदीयसंमतः
प्रह्राद आविष्कृतसाधुवादः।
भवद्विपक्षेण विचित्रवैशसं
संप्रापितस्त्वत्परमः स्वपित्रा॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रभो! मेरे पितामह प्रह्लादजीकी कीर्ति सारे जगत्में प्रसिद्ध है। वे आपके भक्तोंमें श्रेष्ठ माने गये हैं। उनके पिता हिरण्यकशिपुने आपसे वैर-विरोध रखनेके कारण उन्हें अनेकों प्रकारके दुःख दिये। परन्तु वे आपके ही परायण रहे, उन्होंने अपना जीवन आपपर ही निछावर कर दिया॥ ८॥
श्लोक-९
विश्वास-प्रस्तुतिः
किमात्मनानेन जहाति योऽन्ततः
किं रिक्थहारैः स्वजनाख्यदस्युभिः।
किं जायया संसृतिहेतुभूतया
मर्त्यस्य गेहैः किमिहायुषो व्ययः॥
मूलम्
किमात्मनानेन जहाति योऽन्ततः
किं रिक्थहारैः स्वजनाख्यदस्युभिः।
किं जायया संसृतिहेतुभूतया
मर्त्यस्य गेहैः किमिहायुषो व्ययः॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन्होंने यह निश्चय कर लिया कि शरीरको लेकर क्या करना है, जब यह एक-न-एक दिन साथ छोड़ ही देता है। जो धन-सम्पत्ति लेनेके लिये स्वजन बने हुए हैं, उन डाकुओंसे अपना स्वार्थ ही क्या है? पत्नीसे भी क्या लाभ है, जब वह जन्म-मृत्युरूप संसारके चक्रमें डालनेवाली ही है। जब मर ही जाना है, तब घरसे मोह करनेमें भी क्या स्वार्थ है? इन सब वस्तुओंमें उलझ जाना तो केवल अपनी आयु खो देना है॥ ९॥
श्लोक-१०
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्थं स निश्चित्य पितामहो महा-
नगाधबोधो भवतः पादपद्मम्।
ध्रुवं प्रपेदे ह्यकुतोभयं जनाद्
भीतः स्वपक्षक्षपणस्य सत्तमः॥
मूलम्
इत्थं स निश्चित्य पितामहो महा-
नगाधबोधो भवतः पादपद्मम्।
ध्रुवं प्रपेदे ह्यकुतोभयं जनाद्
भीतः स्वपक्षक्षपणस्य सत्तमः॥
अनुवाद (हिन्दी)
ऐसा निश्चय करके मेरे पितामह प्रह्लादजीने, यह जानते हुए भी कि आप लौकिक दृष्टिसे उनके भाई-बन्धुओंके नाश करनेवाले शत्रु हैं, फिर आपके ही भयरहित एवं अविनाशी चरणकमलोंकी शरण ग्रहण की थी। क्यों न हो—वे संसारसे परम विरक्त, अगाध बोधसम्पन्न, उदार हृदय एवं संत-शिरोमणि जो हैं॥ १०॥
श्लोक-११
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथाहमप्यात्मरिपोस्तवान्तिकं
दैवेन नीतः प्रसभं त्याजितश्रीः।
इदं कृतान्तान्तिकवर्ति जीवितं
ययाध्रुवं स्तब्धमतिर्न बुध्यते॥
मूलम्
अथाहमप्यात्मरिपोस्तवान्तिकं
दैवेन नीतः प्रसभं त्याजितश्रीः।
इदं कृतान्तान्तिकवर्ति जीवितं
ययाध्रुवं स्तब्धमतिर्न बुध्यते॥
अनुवाद (हिन्दी)
आप उस दृष्टिसे मेरे भी शत्रु हैं, फिर भी विधाताने मुझे बलात् ऐश्वर्य-लक्ष्मीसे अलग करके आपके पास पहुँचा दिया है। अच्छा ही हुआ; क्योंकि ऐश्वर्य-लक्ष्मीके कारण जीवकी बुद्धि जड हो जाती है और वह यह नहीं समझ पाता कि ‘मेरा यह जीवन मृत्युके पंजेमें पड़ा हुआ और अनित्य है’॥ ११॥
श्लोक-१२
मूलम् (वचनम्)
श्रीशुक उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्येत्थं भाषमाणस्य प्रह्रादो भगवत्प्रियः।
आजगाम कुरुश्रेष्ठ राकापतिरिवोत्थितः॥
मूलम्
तस्येत्थं भाषमाणस्य प्रह्रादो भगवत्प्रियः।
आजगाम कुरुश्रेष्ठ राकापतिरिवोत्थितः॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! राजा बलि इस प्रकार कह ही रहे थे कि उदय होते हुए चन्द्रमाके समान भगवान्के प्रेमपात्र प्रह्लादजी वहाँ आ पहुँचे॥ १२॥
श्लोक-१३
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमिन्द्रसेनः स्वपितामहं श्रिया
विराजमानं नलिनायतेक्षणम्।
प्रांशुं पिशङ्गाम्बरमञ्जनत्विषं
प्रलम्बबाहुं सुभगं समैक्षत॥
मूलम्
तमिन्द्रसेनः स्वपितामहं श्रिया
विराजमानं नलिनायतेक्षणम्।
प्रांशुं पिशङ्गाम्बरमञ्जनत्विषं
प्रलम्बबाहुं सुभगं समैक्षत॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजा बलिने देखा कि मेरे पितामह बड़े श्रीसम्पन्न हैं। कमलके समान कोमल नेत्र हैं, लंबी-लंबी भुजाएँ हैं, सुन्दर ऊँचे और श्यामल शरीरपर पीताम्बर धारण किये हुए हैं॥ १३॥
श्लोक-१४
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मै बलिर्वारुणपाशयन्त्रितः
समर्हणं नोपजहार पूर्ववत्।
ननाम मूर्ध्नाश्रुविलोललोचनः
सव्रीडनीचीनमुखो बभूव ह॥
मूलम्
तस्मै बलिर्वारुणपाशयन्त्रितः
समर्हणं नोपजहार पूर्ववत्।
ननाम मूर्ध्नाश्रुविलोललोचनः
सव्रीडनीचीनमुखो बभूव ह॥
अनुवाद (हिन्दी)
बलि इस समय वरुणपाशमें बँधे हुए थे। इसलिये प्रह्लादजीके आनेपर जैसे पहले वे उनकी पूजा किया करते थे, उस प्रकार न कर सके। उनके नेत्र आँसुओंसे चंचल हो उठे, लज्जाके मारे मुँह नीचा हो गया। उन्होंने केवल सिर झुकाकर उन्हें नमस्कार किया॥ १४॥
श्लोक-१५
विश्वास-प्रस्तुतिः
स तत्र हासीनमुदीक्ष्य सत्पतिं
सुनन्दनन्दाद्यनुगैरुपासितम्।
उपेत्य भूमौ शिरसा महामना
ननाम मूर्ध्ना पुलकाश्रुविक्लवः॥
मूलम्
स तत्र हासीनमुदीक्ष्य सत्पतिं
सुनन्दनन्दाद्यनुगैरुपासितम्।
उपेत्य भूमौ शिरसा महामना
ननाम मूर्ध्ना पुलकाश्रुविक्लवः॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रह्लादजीने देखा कि भक्तवत्सल भगवान् वहीं विराजमान हैं और सुनन्द, नन्द आदि पार्षद उनकी सेवा कर रहे हैं। प्रेमके उद्रेकसे प्रह्लादजीका शरीर पुलकित हो गया, उनकी आँखोंमें आँसू छलक आये। वे आनन्दपूर्ण हृदयसे सिर झुकाये अपने स्वामीके पास गये और पृथ्वीपर सिर रखकर उन्हें साष्टांग प्रणाम किया॥ १५॥
श्लोक-१६
मूलम् (वचनम्)
प्रह्राद उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वयैव दत्तं पदमैन्द्रमूर्जितं
हृतं तदेवाद्य तथैव शोभनम्।
मन्ये महानस्य कृतो ह्यनुग्रहो
विभ्रंशितो यच्छ्रिय आत्ममोहनात्॥
मूलम्
त्वयैव दत्तं पदमैन्द्रमूर्जितं
हृतं तदेवाद्य तथैव शोभनम्।
मन्ये महानस्य कृतो ह्यनुग्रहो
विभ्रंशितो यच्छ्रिय आत्ममोहनात्॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रह्लादजीने कहा—प्रभो! आपने ही बलिको यह ऐश्वर्यपूर्ण इन्द्रपद दिया था, अब आज आपने ही उसे छीन लिया। आपका देना जैसा सुन्दर है, वैसा ही सुन्दर लेना भी! मैं समझता हूँ कि आपने इसपर बड़ी भारी कृपा की है, जो आत्माको मोहित करनेवाली राज्यलक्ष्मीसे इसे अलग कर दिया॥ १६॥
श्लोक-१७
विश्वास-प्रस्तुतिः
यया हि विद्वानपि मुह्यते यत-
स्तत् को विचष्टे गतिमात्मनो यथा।
तस्मै नमस्ते जगदीश्वराय वै
नारायणायाखिललोकसाक्षिणे॥
मूलम्
यया हि विद्वानपि मुह्यते यत-
स्तत् को विचष्टे गतिमात्मनो यथा।
तस्मै नमस्ते जगदीश्वराय वै
नारायणायाखिललोकसाक्षिणे॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रभो! लक्ष्मीके मदसे तो विद्वान् पुरुष भी मोहित हो जाते हैं। उसके रहते भला, अपने वास्तविक स्वरूपको ठीक-ठीक कौन जान सकता है? अतः उस लक्ष्मीको छीनकर महान् उपकार करनेवाले, समस्त जगत्के महान् ईश्वर, सबके हृदयमें विराजमान और सबके परम साक्षी श्रीनारायणदेवको मैं नमस्कार करता हूँ॥ १७॥
श्लोक-१८
मूलम् (वचनम्)
श्रीशुक उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्यानुशृण्वतो राजन् प्रह्रादस्य कृताञ्जलेः।
हिरण्यगर्भो भगवानुवाच मधुसूदनम्॥
मूलम्
तस्यानुशृण्वतो राजन् प्रह्रादस्य कृताञ्जलेः।
हिरण्यगर्भो भगवानुवाच मधुसूदनम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! प्रह्लादजी अंजलि बाँधकर खड़े थे। उनके सामने ही भगवान् ब्रह्माजीने वामनभगवान्से कुछ कहना चाहा॥ १८॥
श्लोक-१९
विश्वास-प्रस्तुतिः
बद्धं वीक्ष्य पतिं साध्वी तत्पत्नी भयविह्वला।
प्राञ्जलिः प्रणतोपेन्द्रं बभाषेऽवाङ्मुखी नृप॥
मूलम्
बद्धं वीक्ष्य पतिं साध्वी तत्पत्नी भयविह्वला।
प्राञ्जलिः प्रणतोपेन्द्रं बभाषेऽवाङ्मुखी नृप॥
अनुवाद (हिन्दी)
परन्तु इतनेमें ही राजा बलिकी परम साध्वी पत्नी विन्ध्यावलीने अपने पतिको बँधा देखकर भयभीत हो भगवान्के चरणोंमें प्रणाम किया और हाथ जोड़, मुँह नीचा कर वह भगवान्से बोली॥ १९॥
श्लोक-२०
मूलम् (वचनम्)
विन्ध्यावलिरुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्रीडार्थमात्मन इदं त्रिजगत् कृतं ते
स्वाम्यं तु तत्र कुधियोऽपर ईश कुर्युः।
कर्तुः प्रभोस्तव किमस्यत आवहन्ति
त्यक्तह्रियस्त्वदवरोपितकर्तृवादाः॥
मूलम्
क्रीडार्थमात्मन इदं त्रिजगत् कृतं ते
स्वाम्यं तु तत्र कुधियोऽपर ईश कुर्युः।
कर्तुः प्रभोस्तव किमस्यत आवहन्ति
त्यक्तह्रियस्त्वदवरोपितकर्तृवादाः॥
अनुवाद (हिन्दी)
विन्ध्यावलीने कहा—प्रभो! आपने अपनी क्रीडाके लिये ही इस सम्पूर्ण जगत्की रचना की है। जो लोग कुबुद्धि हैं, वे ही अपनेको इसका स्वामी मानते हैं। जब आप ही इसके कर्ता, भर्ता और संहर्ता हैं, तब आपकी मायासे मोहित होकर अपनेको झूठमूठ कर्ता माननेवाले निर्लज्ज आपको समर्पण क्या करेंगे?॥ २०॥
श्लोक-२१
मूलम् (वचनम्)
ब्रह्मोवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
भूतभावन भूतेश देवदेव जगन्मय।
मुञ्चैनं हृतसर्वस्वं नायमर्हति निग्रहम्॥
मूलम्
भूतभावन भूतेश देवदेव जगन्मय।
मुञ्चैनं हृतसर्वस्वं नायमर्हति निग्रहम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्रह्माजीने कहा—समस्त प्राणियोंके जीवनदाता, उनके स्वामी और जगत्स्वरूप देवाधिदेव प्रभो! अब आप इसे छोड़ दीजिये। आपने इसका सर्वस्व ले लिया है, अतः अब यह दण्डका पात्र नहीं है॥ २१॥
श्लोक-२२
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृत्स्ना तेऽनेन दत्ता भूर्लोकाःकर्मार्जिताश्च ये।
निवेदितं च सर्वस्वमात्माविक्लवया धिया॥
मूलम्
कृत्स्ना तेऽनेन दत्ता भूर्लोकाःकर्मार्जिताश्च ये।
निवेदितं च सर्वस्वमात्माविक्लवया धिया॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसने अपनी सारी भूमि और पुण्यकर्मोंसे उपार्जित स्वर्ग आदि लोक, अपना सर्वस्व तथा आत्मातक आपको समर्पित कर दिया है एवं ऐसा करते समय इसकी बुद्धि स्थिर रही है, यह धैर्यसे च्युत नहीं हुआ है॥ २२॥
श्लोक-२३
विश्वास-प्रस्तुतिः
यत्पादयोरशठधीः सलिलं प्रदाय
दूर्वाङ्कुरैरपि विधाय सतीं सपर्याम्।
अप्युत्तमां गतिमसौ भजते त्रिलोकीं
दाश्वानविक्लवमनाः कथमार्तिमृच्छेत्॥
मूलम्
यत्पादयोरशठधीः सलिलं प्रदाय
दूर्वाङ्कुरैरपि विधाय सतीं सपर्याम्।
अप्युत्तमां गतिमसौ भजते त्रिलोकीं
दाश्वानविक्लवमनाः कथमार्तिमृच्छेत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रभो! जो मनुष्य सच्चे हृदयसे कृपणता छोड़कर आपके चरणोंमें जलका अर्घ्य देता है और केवल दूर्वादलसे भी आपकी सच्ची पूजा करता है, उसे भी उत्तम गतिकी प्राप्ति होती है। फिर बलिने तो बड़ी प्रसन्नतासे धैर्य और स्थिरतापूर्वक आपको त्रिलोकीका दान कर दिया है। तब यह दुःखका भागी कैसे हो सकता है?॥ २३॥
श्लोक-२४
मूलम् (वचनम्)
श्रीभगवानुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्रह्मन् यमनुगृह्णामि तद्विशो विधुनोम्यहम्।
यन्मदः पुरुषः स्तब्धो लोकं मां चावमन्यते॥
मूलम्
ब्रह्मन् यमनुगृह्णामि तद्विशो विधुनोम्यहम्।
यन्मदः पुरुषः स्तब्धो लोकं मां चावमन्यते॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीभगवान्ने कहा—ब्रह्माजी! मैं जिसपर कृपा करता हूँ, उसका धन छीन लिया करता हूँ। क्योंकि जब मनुष्य धनके मदसे मतवाला हो जाता है, तब मेरा और लोगोंका तिरस्कार करने लगता है॥ २४॥
श्लोक-२५
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदाकदाचिज्जीवात्मा संसरन् निजकर्मभिः।
नानायोनिष्वनीशोऽयं पौरुषीं गतिमाव्रजेत्॥
मूलम्
यदाकदाचिज्जीवात्मा संसरन् निजकर्मभिः।
नानायोनिष्वनीशोऽयं पौरुषीं गतिमाव्रजेत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह जीव अपने कर्मोंके कारण विवश होकर अनेक योनियोंमें भटकता रहता है, जब कभी मेरी बड़ी कृपासे मनुष्यका शरीर प्राप्त करता है॥ २५॥
श्लोक-२६
विश्वास-प्रस्तुतिः
जन्मकर्मवयोरूपविद्यैश्वर्यधनादिभिः।
यद्यस्य न भवेत् स्तम्भस्तत्रायं मदनुग्रहः॥
मूलम्
जन्मकर्मवयोरूपविद्यैश्वर्यधनादिभिः।
यद्यस्य न भवेत् स्तम्भस्तत्रायं मदनुग्रहः॥
अनुवाद (हिन्दी)
मनुष्ययोनिमें जन्म लेकर यदि कुलीनता, कर्म, अवस्था, रूप, विद्या, ऐश्वर्य और धन आदिके कारण घमंड न हो जाय तो समझना चाहिये कि मेरी बड़ी ही कृपा है॥ २६॥
श्लोक-२७
विश्वास-प्रस्तुतिः
मानस्तम्भनिमित्तानां जन्मादीनां समन्ततः।
सर्वश्रेयः प्रतीपानां हन्त मुह्येन्न मत्परः॥
मूलम्
मानस्तम्भनिमित्तानां जन्मादीनां समन्ततः।
सर्वश्रेयः प्रतीपानां हन्त मुह्येन्न मत्परः॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुलीनता आदि बहुत-से ऐसे कारण हैं, जो अभिमान और जडता आदि उत्पन्न करके मनुष्यको कल्याणके समस्त साधनोंसे वंचित कर देते हैं; परन्तु जो मेरे शरणागत होते हैं, वे इनसे मोहित नहीं होते॥ २७॥
श्लोक-२८
विश्वास-प्रस्तुतिः
एष दानवदैत्यानामग्रणीः कीर्तिवर्धनः।
अजैषीदजयां मायां सीदन्नपि न मुह्यति॥
मूलम्
एष दानवदैत्यानामग्रणीः कीर्तिवर्धनः।
अजैषीदजयां मायां सीदन्नपि न मुह्यति॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह बलि दानव और दैत्य दोनों ही वंशोंमें अग्रगण्य और उनकी कीर्ति बढ़ानेवाला है। इसने उस मायापर विजय प्राप्त कर ली है, जिसे जीतना अत्यन्त कठिन है। तुम देख ही रहे हो, इतना दुःख भोगनेपर भी यह मोहित नहीं हुआ॥ २८॥
श्लोक-२९
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्षीणरिक्थश्च्युतः स्थानात् क्षिप्तो बद्धश्च शत्रुभिः।
ज्ञातिभिश्च परित्यक्तो यातनामनुयापितः॥
मूलम्
क्षीणरिक्थश्च्युतः स्थानात् क्षिप्तो बद्धश्च शत्रुभिः।
ज्ञातिभिश्च परित्यक्तो यातनामनुयापितः॥
श्लोक-३०
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुरुणा भर्त्सितः शप्तो जहौ सत्यं न सुव्रतः।
छलैरुक्तो मया धर्मो नायं त्यजति सत्यवाक्॥
मूलम्
गुरुणा भर्त्सितः शप्तो जहौ सत्यं न सुव्रतः।
छलैरुक्तो मया धर्मो नायं त्यजति सत्यवाक्॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसका धन छीन लिया, राजपदसे अलग कर दिया, तरह-तरहके आक्षेप किये, शत्रुओंने बाँध लिया, भाई-बन्धु छोड़कर चले गये, इतनी यातनाएँ भोगनी पड़ीं—यहाँतक कि गुरुदेवने भी इसको डाँटा-फटकारा और शापतक दे दिया। परन्तु इस दृढव्रतीने अपनी प्रतिज्ञा नहीं छोड़ी। मैंने इससे छलभरी बातें कीं, मनमें छल रखकर धर्मका उपदेश किया; परन्तु इस सत्यवादीने अपना धर्म न छोड़ा॥ २९-३०॥
श्लोक-३१
विश्वास-प्रस्तुतिः
एष मे प्रापितः स्थानं दुष्प्रापममरैरपि।
सावर्णेरन्तरस्यायं भवितेन्द्रो मदाश्रयः॥
मूलम्
एष मे प्रापितः स्थानं दुष्प्रापममरैरपि।
सावर्णेरन्तरस्यायं भवितेन्द्रो मदाश्रयः॥
अनुवाद (हिन्दी)
अतः मैंने इसे वह स्थान दिया है, जो बड़े-बड़े देवताओंको भी बड़ी कठिनाईसे प्राप्त होता है। सावर्णि मन्वन्तरमें यह मेरा परम भक्त इन्द्र होगा॥ ३१॥
श्लोक-३२
विश्वास-प्रस्तुतिः
तावत् सुतलमध्यास्तां विश्वकर्मविनिर्मितम्।
यन्नाधयो व्याधयश्च क्लमस्तन्द्रा पराभवः।
नोपसर्गा निवसतां संभवन्ति ममेक्षया॥
मूलम्
तावत् सुतलमध्यास्तां विश्वकर्मविनिर्मितम्।
यन्नाधयो व्याधयश्च क्लमस्तन्द्रा पराभवः।
नोपसर्गा निवसतां संभवन्ति ममेक्षया॥
अनुवाद (हिन्दी)
तबतक यह विश्वकर्माके बनाये हुए सुतललोकमें रहे। वहाँ रहनेवाले लोग मेरी कृपादृष्टिका अनुभव करते हैं। इसलिये उन्हें शारीरिक अथवा मानसिक रोग, थकावट, तन्द्रा, बाहरी या भीतरी शत्रुओंसे पराजय और किसी प्रकारके विघ्नोंका सामना नहीं करना पड़ता॥ ३२॥
श्लोक-३३
विश्वास-प्रस्तुतिः
इन्द्रसेन महाराज याहि भो भद्रमस्तु ते।
सुतलं स्वर्गिभिः प्रार्थ्यं ज्ञातिभिः परिवारितः॥
मूलम्
इन्द्रसेन महाराज याहि भो भद्रमस्तु ते।
सुतलं स्वर्गिभिः प्रार्थ्यं ज्ञातिभिः परिवारितः॥
अनुवाद (हिन्दी)
[बलिको सम्बोधित कर] महाराज इन्द्रसेन! तुम्हारा कल्याण हो। अब तुम अपने भाई-बन्धुओंके साथ उस सुतललोकमें जाओ जिसे स्वर्गके देवता भी चाहते रहते हैं॥ ३३॥
श्लोक-३४
विश्वास-प्रस्तुतिः
न त्वामभिभविष्यन्ति लोकेशाः किमुतापरे।
त्वच्छासनातिगान् दैत्यांश्चक्रं मे सूदयिष्यति॥
मूलम्
न त्वामभिभविष्यन्ति लोकेशाः किमुतापरे।
त्वच्छासनातिगान् दैत्यांश्चक्रं मे सूदयिष्यति॥
अनुवाद (हिन्दी)
बड़े-बड़े लोकपाल भी अब तुम्हें पराजित नहीं कर सकेंगे, दूसरोंकी तो बात ही क्या है! जो दैत्य तुम्हारी आज्ञाका उल्लंघन करेंगे, मेरा चक्र उनके टुकड़े-टुकड़े कर देगा॥ ३४॥
श्लोक-३५
विश्वास-प्रस्तुतिः
रक्षिष्ये सर्वतोऽहं त्वां सानुगं सपरिच्छदम्।
सदा सन्निहितं वीर तत्र मां द्रक्ष्यते भवान्॥
मूलम्
रक्षिष्ये सर्वतोऽहं त्वां सानुगं सपरिच्छदम्।
सदा सन्निहितं वीर तत्र मां द्रक्ष्यते भवान्॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैं तुम्हारी, तुम्हारे अनुचरोंकी और भोग-सामग्रीकी भी सब प्रकारके विघ्नोंसे रक्षा करूँगा। वीर बलि! तुम मुझे वहाँ सदा-सर्वदा अपने पास ही देखोगे॥ ३५॥
श्लोक-३६
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्र दानवदैत्यानां सङ्गात् ते भाव आसुरः।
दृष्ट्वा मदनुभावं वै सद्यः कुण्ठो विनङ्क्ष्यति॥
मूलम्
तत्र दानवदैत्यानां सङ्गात् ते भाव आसुरः।
दृष्ट्वा मदनुभावं वै सद्यः कुण्ठो विनङ्क्ष्यति॥
अनुवाद (हिन्दी)
दानव और दैत्योंके संसर्गसे तुम्हारा जो कुछ आसुरभाव होगा वह मेरे प्रभावसे तुरंत दब जायगा और नष्ट हो जायगा॥ ३६॥
अनुवाद (समाप्ति)
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायामष्टमस्कन्धे वामनप्रादुर्भावे बलिवामनसंवादो नाम द्वाविंशोऽध्यायः॥ २२॥