२१ बलिनिग्रहः

[एकविंशोऽध्यायः]

भागसूचना

बलिका बाँधा जाना

श्लोक-१

मूलम् (वचनम्)

श्रीशुक उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

सत्यं समीक्ष्याब्जभवो नखेन्दुभि-
र्हतस्वधामद्युतिरावृतोऽभ्यगात्।
मरीचिमिश्रा ऋषयो बृहद्‍व्रताः
सनन्दनाद्या नरदेव योगिनः॥

मूलम्

सत्यं समीक्ष्याब्जभवो नखेन्दुभि-
र्हतस्वधामद्युतिरावृतोऽभ्यगात्।
मरीचिमिश्रा ऋषयो बृहद्‍व्रताः
सनन्दनाद्या नरदेव योगिनः॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! भगवान‍्का चरणकमल सत्यलोकमें पहुँच गया। उसके नखचन्द्रकी छटासे सत्यलोककी आभा फीकी पड़ गयी। स्वयं ब्रह्मा भी उसके प्रकाशमें डूब-से गये। उन्होंने मरीचि आदि ऋषियों, सनन्दन आदि नैष्ठिक ब्रह्मचारियों एवं बड़े-बड़े योगियोंके साथ भगवान‍्के चरणकमलकी अगवानी की॥ १॥

श्लोक-२

विश्वास-प्रस्तुतिः

वेदोपवेदा नियमान्विता यमा-
स्तर्केतिहासाङ्गपुराणसंहिताः।
ये चापरे योगसमीरदीपित-
ज्ञानाग्निना रन्धितकर्मकल्मषाः।
ववन्दिरे यत्स्मरणानुभावतः
स्वायम्भुवं धाम गता अकर्मकम्॥

मूलम्

वेदोपवेदा नियमान्विता यमा-
स्तर्केतिहासाङ्गपुराणसंहिताः।
ये चापरे योगसमीरदीपित-
ज्ञानाग्निना रन्धितकर्मकल्मषाः।
ववन्दिरे यत्स्मरणानुभावतः
स्वायम्भुवं धाम गता अकर्मकम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

वेद, उपवेद, नियम, यम, तर्क, इतिहास, वेदांग और पुराण-संहिताएँ—जो ब्रह्मलोकमें मूर्तिमान् होकर निवास करते हैं—तथा जिन लोगोंने योगरूप वायुसे ज्ञानाग्निको प्रज्वलित करके कर्ममलको भस्म कर डाला है, वे महात्मा, सबने भगवान‍्के चरणकी वन्दना की। इसी चरणकमलके स्मरणकी महिमासे ये सब कर्मके द्वारा प्राप्त न होनेयोग्य ब्रह्माजीके धाममें पहुँचे हैं॥ २॥

श्लोक-३

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथाङ्घ्रये प्रोन्नमिताय विष्णो-
रुपाहरत् पद्मभवोऽर्हणोदकम्।
समर्च्य भक्त्याभ्यगृणाच्छुचिश्रवा
यन्नाभिपङ्केरुहसंभवः स्वयम्॥

मूलम्

अथाङ्घ्रये प्रोन्नमिताय विष्णो-
रुपाहरत् पद्मभवोऽर्हणोदकम्।
समर्च्य भक्त्याभ्यगृणाच्छुचिश्रवा
यन्नाभिपङ्केरुहसंभवः स्वयम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् ब्रह्माकी कीर्ति बड़ी पवित्र है। वे विष्णुभगवान‍्के नाभिकमलसे उत्पन्न हुए हैं। अगवानी करनेके बाद उन्होंने स्वयं विश्वरूपभगवान‍्के ऊपर उठे हुए चरणका अर्घ्यपाद्यसे पूजन किया, प्रक्षालन किया। पूजा करके बड़े प्रेम और भक्तिसे उन्होंने भगवान‍्की स्तुति की॥ ३॥

श्लोक-४

विश्वास-प्रस्तुतिः

धातुः कमण्डलुजलं तदुरुक्रमस्य
पादावनेजनपवित्रतया नरेन्द्र।
स्वर्धुन्यभून्नभसि सा पतती निमार्ष्टि
लोकत्रयं भगवतो विशदेव कीर्तिः॥

मूलम्

धातुः कमण्डलुजलं तदुरुक्रमस्य
पादावनेजनपवित्रतया नरेन्द्र।
स्वर्धुन्यभून्नभसि सा पतती निमार्ष्टि
लोकत्रयं भगवतो विशदेव कीर्तिः॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! ब्रह्माके कमण्डलुका वही जल विश्वरूप भगवान‍्के पाँव पखारनेसे पवित्र होनेके कारण उन गंगाजीके रूपमें परिणत हो गया, जो आकाशमार्गसे पृथ्वीपर गिरकर तीनों लोकोंको पवित्र करती हैं। ये गंगाजी क्या हैं, भगवान‍्की मूर्तिमान् उज्ज्वल कीर्ति॥ ४॥

श्लोक-५

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्रह्मादयो लोकनाथाः स्वनाथाय समादृताः।
सानुगा बलिमाजह्रुः संक्षिप्तात्मविभूतये॥

मूलम्

ब्रह्मादयो लोकनाथाः स्वनाथाय समादृताः।
सानुगा बलिमाजह्रुः संक्षिप्तात्मविभूतये॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब भगवान‍्ने अपने स्वरूपको कुछ छोटा कर लिया, अपनी विभूतियोंको कुछ समेट लिया, तब ब्रह्मा आदि लोकपालोंने अपने अनुचरोंके साथ बड़े आदरभावसे अपने स्वामी भगवान‍्को अनेकों प्रकारकी भेंटें समर्पित कीं॥ ५॥

श्लोक-६

विश्वास-प्रस्तुतिः

तोयैः समर्हणैः स्रग्भिर्दिव्यगन्धानुलेपनैः।
धूपैर्दीपैः सुरभिभिर्लाजाक्षतफलाङ्कुरैः॥

मूलम्

तोयैः समर्हणैः स्रग्भिर्दिव्यगन्धानुलेपनैः।
धूपैर्दीपैः सुरभिभिर्लाजाक्षतफलाङ्कुरैः॥

श्लोक-७

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्तवनैर्जयशब्दैश्च तद्वीर्यमहिमाङ्कितैः।
नृत्यवादित्रगीतैश्च शङ्खदुन्दुभिनिःस्वनैः॥

मूलम्

स्तवनैर्जयशब्दैश्च तद्वीर्यमहिमाङ्कितैः।
नृत्यवादित्रगीतैश्च शङ्खदुन्दुभिनिःस्वनैः॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन लोगोंने जल-उपहार, माला, दिव्य गन्धोंसे भरे अंगराग, सुगन्धित धूप, दीप, खील, अक्षत, फल, अंकुर, भगवान‍्की महिमा और प्रभावसे युक्त स्तोत्र, जयघोष, नृत्य, बाजे-गाजे, गान एवं शंख और दुन्दुभिके शब्दोंसे भगवान‍्की आराधना की॥ ६-७॥

श्लोक-८

विश्वास-प्रस्तुतिः

जाम्बवानृक्षराजस्तु भेरीशब्दैर्मनोजवः।
विजयं दिक्षु सर्वासु महोत्सवमघोषयत्॥

मूलम्

जाम्बवानृक्षराजस्तु भेरीशब्दैर्मनोजवः।
विजयं दिक्षु सर्वासु महोत्सवमघोषयत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय ऋक्षराज जाम्बवान् मनके समान वेगसे दौड़कर सब दिशाओंमें भेरी बजा-बजाकर भगवान‍्की मंगलमय विजयकी घोषणा कर आये॥ ८॥

श्लोक-९

विश्वास-प्रस्तुतिः

महीं सर्वां हृतां दृष्ट्वा त्रिपदव्याजयाच्ञया।
ऊचुः स्वभर्तुरसुरा दीक्षितस्यात्यमर्षिताः॥

मूलम्

महीं सर्वां हृतां दृष्ट्वा त्रिपदव्याजयाच्ञया।
ऊचुः स्वभर्तुरसुरा दीक्षितस्यात्यमर्षिताः॥

अनुवाद (हिन्दी)

दैत्योंने देखा कि वामनजीने तीन पग पृथ्वी माँगनेके बहाने सारी पृथ्वी ही छीन ली। तब वे सोचने लगे कि हमारे स्वामी बलि इस समय यज्ञमें दीक्षित हैं,वे तो कुछ कहेंगे नहीं। इसलिये बहुत चिढ़कर वे आपसमें कहने लगे॥ ९॥

श्लोक-१०

विश्वास-प्रस्तुतिः

न वा अयं ब्रह्मबन्धुर्विष्णुर्मायाविनां वरः।
द्विजरूपप्रतिच्छन्नो देवकार्यं चिकीर्षति॥

मूलम्

न वा अयं ब्रह्मबन्धुर्विष्णुर्मायाविनां वरः।
द्विजरूपप्रतिच्छन्नो देवकार्यं चिकीर्षति॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘अरे, यह ब्राह्मण नहीं है। यह सबसे बड़ा मायावी विष्णु है। ब्राह्मणके रूपमें छिपकर यह देवताओंका काम बनाना चाहता है॥ १०॥

श्लोक-११

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनेन याचमानेन शत्रुणा वटुरूपिणा।
सर्वस्वं नो हृतं भर्तुर्न्यस्तदण्डस्य बर्हिषि॥

मूलम्

अनेन याचमानेन शत्रुणा वटुरूपिणा।
सर्वस्वं नो हृतं भर्तुर्न्यस्तदण्डस्य बर्हिषि॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब हमारे स्वामी यज्ञमें दीक्षित होकर किसीको किसी प्रकारका दण्ड देनेके लिये उपरत हो गये हैं, तब इस शत्रुने ब्रह्मचारीका वेष बनाकर पहले तो याचना की और पीछे हमारा सर्वस्व हरण कर लिया॥ ११॥

श्लोक-१२

विश्वास-प्रस्तुतिः

सत्यव्रतस्य सततं दीक्षितस्य विशेषतः।
नानृतं भाषितुं शक्यं ब्रह्मण्यस्य दयावतः॥

मूलम्

सत्यव्रतस्य सततं दीक्षितस्य विशेषतः।
नानृतं भाषितुं शक्यं ब्रह्मण्यस्य दयावतः॥

अनुवाद (हिन्दी)

यों तो हमारे स्वामी सदा ही सत्यनिष्ठ हैं, परन्तु यज्ञमें दीक्षित होनेपर वे इस बातका विशेष ध्यान रखते हैं। वे ब्राह्मणोंके बड़े भक्त हैं तथा उनके हृदयमें दया भी बहुत है। इसलिये वे कभी झूठ नहीं बोल सकते॥ १२॥

श्लोक-१३

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मादस्य वधो धर्मो भर्तुः शुश्रूषणं च नः।
इत्यायुधानि जगृहुर्बलेरनुचरासुराः॥

मूलम्

तस्मादस्य वधो धर्मो भर्तुः शुश्रूषणं च नः।
इत्यायुधानि जगृहुर्बलेरनुचरासुराः॥

अनुवाद (हिन्दी)

ऐसी अवस्थामें हमलोगोंका यही धर्म है कि इस शत्रुको मार डालें। इससे हमारे स्वामी बलिकी सेवा भी होती है।’ यों सोचकर राजा बलिके अनुचर असुरोंने अपने-अपने हथियार उठा लिये॥ १३॥

श्लोक-१४

विश्वास-प्रस्तुतिः

ते सर्वे वामनं हन्तुं शूलपट्टिशपाणयः।
अनिच्छतो बले राजन् प्राद्रवन् जातमन्यवः॥

मूलम्

ते सर्वे वामनं हन्तुं शूलपट्टिशपाणयः।
अनिच्छतो बले राजन् प्राद्रवन् जातमन्यवः॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! राजा बलिकी इच्छा न होनेपर भी वे सब बड़े क्रोधसे शूल, पट्टिश आदि ले-लेकर वामन-भगवान‍्को मारनेके लिये टूट पड़े॥ १४॥

श्लोक-१५

विश्वास-प्रस्तुतिः

तानभिद्रवतो दृष्ट्वा दितिजानीकपान् नृप।
प्रहस्यानुचरा विष्णोः प्रत्यषेधन्नुदायुधाः॥

मूलम्

तानभिद्रवतो दृष्ट्वा दितिजानीकपान् नृप।
प्रहस्यानुचरा विष्णोः प्रत्यषेधन्नुदायुधाः॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! जब विष्णुभगवान‍्के पार्षदोंने देखा कि दैत्योंके सेनापति आक्रमण करनेके लिये दौड़े आ रहे हैं, तब उन्होंने हँसकर अपने-अपने शस्त्र उठा लिये और उन्हें रोक दिया॥ १५॥

श्लोक-१६

विश्वास-प्रस्तुतिः

नन्दः सुनन्दोऽथ जयो विजयः प्रबलो बलः।
कुमुदः कुमुदाक्षश्च विष्वक्सेनः पतत्त्रिराट्॥

मूलम्

नन्दः सुनन्दोऽथ जयो विजयः प्रबलो बलः।
कुमुदः कुमुदाक्षश्च विष्वक्सेनः पतत्त्रिराट्॥

श्लोक-१७

विश्वास-प्रस्तुतिः

जयन्तः श्रुतदेवश्च पुष्पदन्तोऽथ सात्वतः।
सर्वे नागायुतप्राणाश्चमूं ते जघ्नुरासुरीम्॥

मूलम्

जयन्तः श्रुतदेवश्च पुष्पदन्तोऽथ सात्वतः।
सर्वे नागायुतप्राणाश्चमूं ते जघ्नुरासुरीम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

नन्द, सुनन्द, जय, विजय,प्रबल, बल, कुमुद, कुमुदाक्ष, विष्वक्सेन, गरुड, जयन्त, श्रुतदेव, पुष्पदन्त और सात्वत—ये सभी भगवान‍्के पार्षद दस-दस हजार हाथियोंका बल रखते हैं। वे असुरोंकी सेनाका संहार करने लगे॥ १६-१७॥

श्लोक-१८

विश्वास-प्रस्तुतिः

हन्यमानान् स्वकान् दृष्ट्वा पुरुषानुचरैर्बलिः।
वारयामास संरब्धान् काव्यशापमनुस्मरन्॥

मूलम्

हन्यमानान् स्वकान् दृष्ट्वा पुरुषानुचरैर्बलिः।
वारयामास संरब्धान् काव्यशापमनुस्मरन्॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब राजा बलिने देखा कि भगवान‍्के पार्षद मेरे सैनिकोंको मार रहे हैं और वे भी क्रोधमें भरकर उनसे लड़नेके लिये तैयार हो रहे हैं, तो उन्होंने शुक्राचार्यके शापका स्मरण करके उन्हें युद्ध करनेसे रोक दिया॥ १८॥

श्लोक-१९

विश्वास-प्रस्तुतिः

हे विप्रचित्ते हे राहो हे नेमे श्रूयतां वचः।
मा युध्यत निवर्तध्वं न नः कालोऽयमर्थकृत्॥

मूलम्

हे विप्रचित्ते हे राहो हे नेमे श्रूयतां वचः।
मा युध्यत निवर्तध्वं न नः कालोऽयमर्थकृत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन्होंने विप्रचित्ति, राहु, नेमि आदि दैत्योंको सम्बोधित करके कहा—‘भाइयो! मेरी बात सुनो। लड़ो मत, वापस लौट आओ। यह समय हमारे कार्यके अनुकूल नहीं है॥ १९॥

श्लोक-२०

विश्वास-प्रस्तुतिः

यः प्रभुः सर्वभूतानां सुखदुःखोपपत्तये।
तं नातिवर्तितुं दैत्याः पौरुषैरीश्वरः पुमान्॥

मूलम्

यः प्रभुः सर्वभूतानां सुखदुःखोपपत्तये।
तं नातिवर्तितुं दैत्याः पौरुषैरीश्वरः पुमान्॥

अनुवाद (हिन्दी)

दैत्यो! जो काल समस्त प्राणियोंको सुख और दुःख देनेकी सामर्थ्य रखता है—उसे यदि कोई पुरुष चाहे कि मैं अपने प्रयत्नोंसे दबा दूँ, तो यह उसकी शक्तिसे बाहर है॥ २०॥

श्लोक-२१

विश्वास-प्रस्तुतिः

यो नो भवाय प्रागासीदभवाय दिवौकसाम्।
स एव भगवानद्य वर्तते तद्विपर्ययम्॥

मूलम्

यो नो भवाय प्रागासीदभवाय दिवौकसाम्।
स एव भगवानद्य वर्तते तद्विपर्ययम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो पहले हमारी उन्नति और देवताओंकी अवनतिके कारण हुए थे, वही कालभगवान् अब उनकी उन्नति और हमारी अवनतिके कारण हो रहे हैं॥ २१॥

श्लोक-२२

विश्वास-प्रस्तुतिः

बलेन सचिवैर्बुद्ध्या दुर्गैर्मन्त्रौषधादिभिः।
सामादिभिरुपायैश्च कालं नात्येति वै जनः॥

मूलम्

बलेन सचिवैर्बुद्ध्या दुर्गैर्मन्त्रौषधादिभिः।
सामादिभिरुपायैश्च कालं नात्येति वै जनः॥

अनुवाद (हिन्दी)

बल, मन्त्री, बुद्धि, दुर्ग, मन्त्र, ओषधि और सामादि उपाय—इनमेंसे किसी भी साधनके द्वारा अथवा सबके द्वारा मनुष्य कालपर विजय नहीं प्राप्त कर सकता॥ २२॥

श्लोक-२३

विश्वास-प्रस्तुतिः

भवद‍्भिर्निर्जिता ह्येते बहुशोऽनुचरा हरेः।
दैवेनर्द्धैस्त एवाद्य युधि जित्वा नदन्ति नः॥

मूलम्

भवद‍्भिर्निर्जिता ह्येते बहुशोऽनुचरा हरेः।
दैवेनर्द्धैस्त एवाद्य युधि जित्वा नदन्ति नः॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब दैव तुमलोगोंके अनुकूल था, तब तुमलोगोंने भगवान‍्के इन पार्षदोंको कई बार जीत लिया था। पर देखो, आज वे ही युद्धमें हमपर विजय प्राप्त करके सिंहनाद कर रहे हैं॥ २३॥

श्लोक-२४

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतान् वयं विजेष्यामो यदि दैवं प्रसीदति।
तस्मात् कालं प्रतीक्षध्वं यो नोऽर्थत्वाय कल्पते॥

मूलम्

एतान् वयं विजेष्यामो यदि दैवं प्रसीदति।
तस्मात् कालं प्रतीक्षध्वं यो नोऽर्थत्वाय कल्पते॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदि दैव हमारे अनुकूल हो जायगा, तो हम भी इन्हें जीत लेंगे। इसलिये उस समयकी प्रतीक्षा करो, जो हमारी कार्य-सिद्धिके लिये अनुकूल हो’॥ २४॥

श्लोक-२५

मूलम् (वचनम्)

श्रीशुक उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

पत्युर्निगदितं श्रुत्वा दैत्यदानवयूथपाः।
रसां निविविशू राजन् विष्णुपार्षदताडिताः॥

मूलम्

पत्युर्निगदितं श्रुत्वा दैत्यदानवयूथपाः।
रसां निविविशू राजन् विष्णुपार्षदताडिताः॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! अपने स्वामी बलिकी बात सुनकर भगवान‍्के पार्षदोंसे हारे हुए दानव और दैत्यसेनापति रसातलमें चले गये॥ २५॥

श्लोक-२६

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथ तार्क्ष्यसुतो ज्ञात्वा विराट् प्रभुचिकीर्षितम्।
बबन्ध वारुणैः पाशैर्बलिं सौत्येऽहनि क्रतौ॥

मूलम्

अथ तार्क्ष्यसुतो ज्ञात्वा विराट् प्रभुचिकीर्षितम्।
बबन्ध वारुणैः पाशैर्बलिं सौत्येऽहनि क्रतौ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनके जानेके बाद भगवान‍्के हृदयकी बात जानकर पक्षिराज गरुडने वरुणके पाशोंसे बलिको बाँध दिया। उस दिन उनके अश्वमेध यज्ञमें सोमपान होनेवाला था॥ २६॥

श्लोक-२७

विश्वास-प्रस्तुतिः

हाहाकारो महानासीद् रोदस्योः सर्वतोदिशम्।
गृह्यमाणेऽसुरपतौ विष्णुना प्रभविष्णुना॥

मूलम्

हाहाकारो महानासीद् रोदस्योः सर्वतोदिशम्।
गृह्यमाणेऽसुरपतौ विष्णुना प्रभविष्णुना॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब सर्वशक्तिमान् भगवान् विष्णुने बलिको इस प्रकार बँधवा दिया, तब पृथ्वी, आकाश और समस्त दिशाओंमें लोग ‘हाय-हाय!’ करने लगे॥ २७॥

श्लोक-२८

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं बद्धं वारुणैः पाशैर्भगवानाह वामनः।
नष्टश्रियं स्थिरप्रज्ञमुदारयशसं नृप॥

मूलम्

तं बद्धं वारुणैः पाशैर्भगवानाह वामनः।
नष्टश्रियं स्थिरप्रज्ञमुदारयशसं नृप॥

अनुवाद (हिन्दी)

यद्यपि बलि वरुणके पाशोंसे बँधे हुए थे, उनकी सम्पत्ति भी उनके हाथोंसे निकल गयी थी—फिर भी उनकी बुद्धि निश्चयात्मक थी और सब लोग उनके उदार यशका गान कर रहे थे। परीक्षित्! उस समय भगवान‍्ने बलिसे कहा॥ २८॥

श्लोक-२९

विश्वास-प्रस्तुतिः

पदानि त्रीणि दत्तानि भूमेर्मह्यं त्वयासुर।
द्वाभ्यां क्रान्ता मही सर्वा तृतीयमुपकल्पय॥

मूलम्

पदानि त्रीणि दत्तानि भूमेर्मह्यं त्वयासुर।
द्वाभ्यां क्रान्ता मही सर्वा तृतीयमुपकल्पय॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘असुर! तुमने मुझे पृथ्वीके तीन पग दिये थे; दो पगमें तो मैंने सारी त्रिलोकी नाप ली, अब तीसरा पग पूरा करो॥ २९॥

श्लोक-३०

विश्वास-प्रस्तुतिः

यावत् तपत्यसौ गोभिर्यावदिन्दुः सहोडुभिः।
यावद् वर्षति पर्जन्यस्तावती भूरियं तव॥

मूलम्

यावत् तपत्यसौ गोभिर्यावदिन्दुः सहोडुभिः।
यावद् वर्षति पर्जन्यस्तावती भूरियं तव॥

अनुवाद (हिन्दी)

जहाँतक सूर्यकी गरमी पहुँचती है, जहाँतक नक्षत्रों और चन्द्रमाकी किरणें पहुँचती हैं और जहाँतक बादल जाकर बरसते हैं—वहाँतककी सारी पृथ्वी तुम्हारे अधिकारमें थी॥ ३०॥

श्लोक-३१

विश्वास-प्रस्तुतिः

पदैकेन मया क्रान्तो भूर्लोकः खं दिशस्तनोः।
स्वर्लोकस्तु द्वितीयेन पश्यतस्ते स्वमात्मना॥

मूलम्

पदैकेन मया क्रान्तो भूर्लोकः खं दिशस्तनोः।
स्वर्लोकस्तु द्वितीयेन पश्यतस्ते स्वमात्मना॥

अनुवाद (हिन्दी)

तुम्हारे देखते-ही-देखते मैंने अपने एक पैरसे भूर्लोक, शरीरसे आकाश और दिशाएँ एवं दूसरे पैरसे स्वर्लोक नाप लिया है। इस प्रकार तुम्हारा सब कुछ मेरा हो चुका है॥ ३१॥

श्लोक-३२

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रतिश्रुतमदातुस्ते निरये वास इष्यते।
विश त्वं निरयं तस्माद् गुरुणा चानुमोदितः॥

मूलम्

प्रतिश्रुतमदातुस्ते निरये वास इष्यते।
विश त्वं निरयं तस्माद् गुरुणा चानुमोदितः॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर भी तुमने जो प्रतिज्ञा की थी, उसे पूरा न कर सकनेके कारण अब तुम्हें नरकमें रहना पड़ेगा। तुम्हारे गुरुकी तो इस विषयमें सम्मति है ही; अब जाओ, तुम नरकमें प्रवेश करो॥ ३२॥

श्लोक-३३

विश्वास-प्रस्तुतिः

वृथा मनोरथस्तस्य दूरे स्वर्गः पतत्यधः।
प्रतिश्रुतस्यादानेन योऽर्थिनं विप्रलम्भते॥

मूलम्

वृथा मनोरथस्तस्य दूरे स्वर्गः पतत्यधः।
प्रतिश्रुतस्यादानेन योऽर्थिनं विप्रलम्भते॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो याचकको देनेकी प्रतिज्ञा करके मुकर जाता है और इस प्रकार उसे धोखा देता है, उसके सारे मनोरथ व्यर्थ होते हैं। स्वर्गकी बात तो दूर रही, उसे नरकमें गिरना पड़ता है॥ ३३॥

श्लोक-३४

विश्वास-प्रस्तुतिः

विप्रलब्धो ददामीति त्वयाहं चाढ्यमानिना।
तद् व्यलीकफलं भुङ्क्ष्व निरयं कतिचित् समाः॥

मूलम्

विप्रलब्धो ददामीति त्वयाहं चाढ्यमानिना।
तद् व्यलीकफलं भुङ्क्ष्व निरयं कतिचित् समाः॥

अनुवाद (हिन्दी)

तुम्हें इस बातका बड़ा घमंड था कि मैं बड़ा धनी हूँ। तुमने मुझसे ‘दूँगा’—ऐसी प्रतिज्ञा करके फिर धोखा दे दिया। अब तुम कुछ वर्षोंतक इस झूठका फल नरक भोगो’॥ ३४॥

अनुवाद (समाप्ति)

इति श्रीमद‍्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायामष्टमस्कन्धे वामनप्रादुर्भावे बलिनिग्रहो नामैकविंशोऽध्यायः॥ २१॥