१८

[अष्टादशोऽध्यायः]

भागसूचना

वामनभगवान‍्का प्रकट होकर राजा बलिकी यज्ञशालामें पधारना

श्लोक-१

मूलम् (वचनम्)

श्रीशुक उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्थं विरिञ्चस्तुतकर्मवीर्यः
प्रादुर्बभूवामृतभूरदित्याम्।
चतुर्भुजः शङ्खगदाब्जचक्रः
पिशङ्गवासा नलिनायतेक्षणः॥

मूलम्

इत्थं विरिञ्चस्तुतकर्मवीर्यः
प्रादुर्बभूवामृतभूरदित्याम्।
चतुर्भुजः शङ्खगदाब्जचक्रः
पिशङ्गवासा नलिनायतेक्षणः॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! इस प्रकार जब ब्रह्माजीने भगवान‍्की शक्ति और लीलाकी स्तुति की, तब जन्म-मृत्युरहित भगवान् अदितिके सामने प्रकट हुए। भगवान‍्के चार भुजाएँ थीं; उनमें वे शंख, गदा, कमल और चक्र धारण किये हुए थे। कमलके समान कोमल और बड़े-बड़े नेत्र थे। पीताम्बर शोभायमान हो रहा था॥ १॥

श्लोक-२

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्यामावदातो झषराजकुण्डल-
त्विषोल्लसच्छ्रीवदनाम्बुजः पुमान्।
श्रीवत्सवक्षा वलयाङ्गदोल्लस-
त्किरीटकाञ्चीगुणचारुनूपुरः॥

मूलम्

श्यामावदातो झषराजकुण्डल-
त्विषोल्लसच्छ्रीवदनाम्बुजः पुमान्।
श्रीवत्सवक्षा वलयाङ्गदोल्लस-
त्किरीटकाञ्चीगुणचारुनूपुरः॥

अनुवाद (हिन्दी)

विशुद्ध श्यामवर्णका शरीर था। मकराकृति कुण्डलोंकी कान्तिसे मुखकमलकी शोभा और भी उल्लसित हो रही थी। वक्षःस्थलपर श्रीवत्सका चिह्न, हाथोंमें कंगन और भुजाओंमें बाजूबंद, सिरपर किरीट, कमरमें करधनीकी लड़ियाँ और चरणोंमें सुन्दर नूपुर जगमगा रहे थे॥ २॥

श्लोक-३

विश्वास-प्रस्तुतिः

मधुव्रतव्रातविघुष्टया स्वया
विराजितः श्रीवनमालया हरिः।
प्रजापतेर्वेश्मतमः स्वरोचिषा
विनाशयन् कण्ठनिविष्टकौस्तुभः॥

मूलम्

मधुव्रतव्रातविघुष्टया स्वया
विराजितः श्रीवनमालया हरिः।
प्रजापतेर्वेश्मतमः स्वरोचिषा
विनाशयन् कण्ठनिविष्टकौस्तुभः॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् गलेमें अपनी स्वरूपभूत वनमाला धारण किये हुए थे, जिसके चारों ओर झुंड-के-झुंड भौंरे गुंजार कर रहे थे। उनके कण्ठमें कौस्तुभमणि सुशोभित थी। भगवान‍्की अंगकान्तिसे प्रजापति कश्यपजीके घरका अन्धकार नष्ट हो गया॥ ३॥

श्लोक-४

विश्वास-प्रस्तुतिः

दिशः प्रसेदुः सलिलाशयास्तदा
प्रजाः प्रहृष्टा ऋतवो गुणान्विताः।
द्यौरन्तरिक्षं क्षितिरग्निजिह्वा
गावो द्विजाः संजहृषुर्नगाश्च॥

मूलम्

दिशः प्रसेदुः सलिलाशयास्तदा
प्रजाः प्रहृष्टा ऋतवो गुणान्विताः।
द्यौरन्तरिक्षं क्षितिरग्निजिह्वा
गावो द्विजाः संजहृषुर्नगाश्च॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय दिशाएँ निर्मल हो गयीं। नदी और सरोवरोंका जल स्वच्छ हो गया। प्रजाके हृदयमें आनन्दकी बाढ़ आ गयी। सब ऋतुएँ एक साथ अपना-अपना गुण प्रकट करने लगीं। स्वर्गलोक, अन्तरिक्ष, पृथ्वी, देवता, गौ, द्विज और पर्वत—इन सबके हृदयमें हर्षका संचार हो गया॥ ४॥

श्लोक-५

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रोणायां श्रवणद्वादश्यां मुहूर्तेऽभिजिति प्रभुः।
सर्वे नक्षत्रताराद्याश्चक्रुस्तज्जन्म दक्षिणम्॥

मूलम्

श्रोणायां श्रवणद्वादश्यां मुहूर्तेऽभिजिति प्रभुः।
सर्वे नक्षत्रताराद्याश्चक्रुस्तज्जन्म दक्षिणम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! जिस समय भगवान‍्ने जन्म ग्रहण किया, उस समय चन्द्रमा श्रवण नक्षत्रपर थे। भाद्रपद मासके शुक्लपक्षकी श्रवणनक्षत्रवाली द्वादशी थी। अभिजित् मुहूर्तमें भगवान‍्का जन्म हुआ था। सभी नक्षत्र और तारे भगवान‍्के जन्मको मंगलमय सूचित कर रहे थे॥ ५॥

श्लोक-६

विश्वास-प्रस्तुतिः

द्वादश्यां सवितातिष्ठन् मध्यंदिनगतो नृप।
विजया नाम सा प्रोक्ता यस्यां जन्म विदुहर्रेः॥

मूलम्

द्वादश्यां सवितातिष्ठन् मध्यंदिनगतो नृप।
विजया नाम सा प्रोक्ता यस्यां जन्म विदुहर्रेः॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! जिस तिथिमें भगवान‍्का जन्म हुआ था, उसे ‘विजया द्वादशी’ कहते हैं। जन्मके समय सूर्य आकाशके मध्यभागमें स्थित थे॥ ६॥

श्लोक-७

विश्वास-प्रस्तुतिः

शङ्खदुन्दुभयो नेदुर्मृदङ्गपणवानकाः।
चित्रवादित्रतूर्याणां निर्घोषस्तुमुलोऽभवत्॥

मूलम्

शङ्खदुन्दुभयो नेदुर्मृदङ्गपणवानकाः।
चित्रवादित्रतूर्याणां निर्घोषस्तुमुलोऽभवत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान‍्के अवतारके समय शंख, ढोल, मृदंग, डफ और नगाड़े आदि बाजे बजने लगे। इन तरह-तरहके बाजों और तुरहियोंकी तुमुल ध्वनि होने लगी॥ ७॥

श्लोक-८

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रीताश्चाप्सरसोऽनृत्यन् गन्धर्वप्रवरा जगुः।
तुष्टुवुर्मुनयो देवा मनवः पितरोऽग्नयः॥

मूलम्

प्रीताश्चाप्सरसोऽनृत्यन् गन्धर्वप्रवरा जगुः।
तुष्टुवुर्मुनयो देवा मनवः पितरोऽग्नयः॥

अनुवाद (हिन्दी)

अप्सराएँ प्रसन्न होकर नाचने लगीं। श्रेष्ठ गन्धर्व गाने लगे। मुनि, देवता, मनु, पितर और अग्नि स्तुति करने लगे॥ ८॥

श्लोक-९

विश्वास-प्रस्तुतिः

सिद्धविद्याधरगणाः सकिम्पुरुषकिन्नराः।
चारणा यक्षरक्षांसि सुपर्णा भुजगोत्तमाः॥

मूलम्

सिद्धविद्याधरगणाः सकिम्पुरुषकिन्नराः।
चारणा यक्षरक्षांसि सुपर्णा भुजगोत्तमाः॥

श्लोक-१०

विश्वास-प्रस्तुतिः

गायन्तोऽतिप्रशंसन्तो नृत्यन्तो विबुधानुगाः।
अदित्या आश्रमपदं कुसुमैः समवाकिरन्॥

मूलम्

गायन्तोऽतिप्रशंसन्तो नृत्यन्तो विबुधानुगाः।
अदित्या आश्रमपदं कुसुमैः समवाकिरन्॥

अनुवाद (हिन्दी)

सिद्ध, विद्याधर, किम्पुरुष, किन्नर, चारण, यक्ष, राक्षस, पक्षी, मुख्य-मुख्य नागगण और देवताओंके अनुचर नाचने-गाने एवं भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगे तथा उन लोगोंने अदितिके आश्रमको पुष्पोंकी वर्षासे ढक दिया॥ ९-१०॥

श्लोक-११

विश्वास-प्रस्तुतिः

दृष्ट्वादितिस्तं निजगर्भसम्भवं
परं पुमांसं मुदमाप विस्मिता।
गृहीतदेहं निजयोगमायया
प्रजापतिश्चाह जयेति विस्मितः॥

मूलम्

दृष्ट्वादितिस्तं निजगर्भसम्भवं
परं पुमांसं मुदमाप विस्मिता।
गृहीतदेहं निजयोगमायया
प्रजापतिश्चाह जयेति विस्मितः॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब अदितिने अपने गर्भसे प्रकट हुए परम पुरुष परमात्माको देखा, तो वह अत्यन्त आश्चर्यचकित और परमानन्दित हो गयी। प्रजापति कश्यपजी भी भगवान‍्को अपनी योगमायासे शरीर धारण किये हुए देख विस्मित हो गये और कहने लगे ‘जय हो! जय हो’॥ ११॥

श्लोक-१२

विश्वास-प्रस्तुतिः

यत् तद् वपुर्भाति विभूषणायुधै-
रव्यक्तचिद् व्यक्तमधारयद्धरिः।
बभूव तेनैव स वामनो वटुः
संपश्यतोर्दिव्यगतिर्यथा नटः॥

मूलम्

यत् तद् वपुर्भाति विभूषणायुधै-
रव्यक्तचिद् व्यक्तमधारयद्धरिः।
बभूव तेनैव स वामनो वटुः
संपश्यतोर्दिव्यगतिर्यथा नटः॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! भगवान् स्वयं अव्यक्त एवं चित‍्स्वरूप हैं। उन्होंने जो परम कान्तिमय आभूषण एवं आयुधोंसे युक्त वह शरीर ग्रहण किया था, उसी शरीरसे, कश्यप और अदितिके देखते-देखते वामन ब्रह्मचारीका रूप धारण कर लिया—ठीक वैसे ही, जैसे नट अपना वेष बदल ले। क्यों न हो, भगवान‍्की लीला तो अद‍्भुत है ही॥ १२॥

श्लोक-१३

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं वटुं वामनं दृष्ट्वा मोदमाना महर्षयः।
कर्माणि कारयामासुः पुरस्कृत्य प्रजापतिम्॥

मूलम्

तं वटुं वामनं दृष्ट्वा मोदमाना महर्षयः।
कर्माणि कारयामासुः पुरस्कृत्य प्रजापतिम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान‍्को वामन ब्रह्मचारीके रूपमें देखकर महर्षियोंको बड़ा आनन्द हुआ। उन लोगोंने कश्यप प्रजापतिको आगे करके उनके जातकर्म आदि संस्कार करवाये॥ १३॥

श्लोक-१४

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्योपनीयमानस्य सावित्रीं सविताब्रवीत्।
बृहस्पतिर्ब्रह्मसूत्रं मेखलां कश्यपोऽददात्॥

मूलम्

तस्योपनीयमानस्य सावित्रीं सविताब्रवीत्।
बृहस्पतिर्ब्रह्मसूत्रं मेखलां कश्यपोऽददात्॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब उनका उपनयन-संस्कार होने लगा, तब गायत्रीके अधिष्ठातृ-देवता स्वयं सविताने उन्हें गायत्रीका उपदेश किया। देवगुरु बृहस्पतिजीने यज्ञोपवीत और कश्यपने मेखला दी॥ १४॥

श्लोक-१५

विश्वास-प्रस्तुतिः

ददौ कृष्णाजिनं भूमिर्दण्डं सोमो वनस्पतिः।
कौपीनाच्छादनं माता द्यौश्छत्रं जगतः पतेः॥

मूलम्

ददौ कृष्णाजिनं भूमिर्दण्डं सोमो वनस्पतिः।
कौपीनाच्छादनं माता द्यौश्छत्रं जगतः पतेः॥

अनुवाद (हिन्दी)

पृथ्वीने कृष्णमृगका चर्म, वनके स्वामी चन्द्रमाने दण्ड, माता अदितिने कौपीन और कटिवस्त्र एवं आकाशके अभिमानी देवताने वामनवेषधारी भगवान‍्को छत्र दिया॥ १५॥

श्लोक-१६

विश्वास-प्रस्तुतिः

कमण्डलुं वेदगर्भः कुशान् सप्तर्षयो ददुः।
अक्षमालां महाराज सरस्वत्यव्ययात्मनः॥

मूलम्

कमण्डलुं वेदगर्भः कुशान् सप्तर्षयो ददुः।
अक्षमालां महाराज सरस्वत्यव्ययात्मनः॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! अविनाशी प्रभुको ब्रह्माजीने कमण्डलु, सप्तर्षियोंने कुश और सरस्वतीने रुद्राक्षकी माला समर्पित की॥ १६॥

श्लोक-१७

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मा इत्युपनीताय यक्षराट् पात्रिकामदात्।
भिक्षां भगवती साक्षादुमादादम्बिका सती॥

मूलम्

तस्मा इत्युपनीताय यक्षराट् पात्रिकामदात्।
भिक्षां भगवती साक्षादुमादादम्बिका सती॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस रीतिसे जब वामन-भगवान‍्का उपनयन-संस्कार हुआ, तब यक्षराज कुबेरने उनको भिक्षाका पात्र और सतीशिरोमणि जगज्जननी स्वयं भगवती उमाने भिक्षा दी॥ १७॥

श्लोक-१८

विश्वास-प्रस्तुतिः

स ब्रह्मवर्चसेनैवं सभां संभावितो वटुः।
ब्रह्मर्षिगणसञ्जुष्टामत्यरोचत मारिषः॥

मूलम्

स ब्रह्मवर्चसेनैवं सभां संभावितो वटुः।
ब्रह्मर्षिगणसञ्जुष्टामत्यरोचत मारिषः॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार जब सब लोगोंने वटुवेषधारी भगवान‍्का सम्मान किया, तब वे ब्रह्मर्षियोंसे भरी हुई सभामें अपने ब्रह्मतेजके कारण अत्यन्त शोभायमान हुए॥ १८॥

श्लोक-१९

विश्वास-प्रस्तुतिः

समिद्धमाहितं वह्निं कृत्वा परिसमूहनम्।
परिस्तीर्य समभ्यर्च्य समिद‍्भिरजुहोद् द्विजः॥

मूलम्

समिद्धमाहितं वह्निं कृत्वा परिसमूहनम्।
परिस्तीर्य समभ्यर्च्य समिद‍्भिरजुहोद् द्विजः॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसके बाद भगवान‍्ने स्थापित और प्रज्वलित अग्निका कुशोंसे परिसमूहन और परिस्तरण करके पूजा की और समिधाओंसे हवन किया॥ १९॥

श्लोक-२०

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रुत्वाश्वमेधैर्यजमानमूर्जितं
बलिं भृगूणामुपकल्पितैस्ततः।
जगाम तत्राखिलसारसंभृतो
भारेण गां सन्नमयन्पदे पदे॥

मूलम्

श्रुत्वाश्वमेधैर्यजमानमूर्जितं
बलिं भृगूणामुपकल्पितैस्ततः।
जगाम तत्राखिलसारसंभृतो
भारेण गां सन्नमयन्पदे पदे॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! उसी समय भगवान‍्ने सुना कि सब प्रकारकी सामग्रियोंसे सम्पन्न यशस्वी बलि भृगुवंशी ब्राह्मणोंके आदेशानुसार बहुत-से अश्वमेध यज्ञ कर रहे हैं, तब उन्होंने वहाँके लिये यात्रा की। भगवान् समस्त शक्तियोंसे युक्त हैं। उनके चलनेके समय उनके भारसे पृथ्वी पग-पगपर झुकने लगी॥ २०॥

श्लोक-२१

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं नर्मदायास्तट उत्तरे बले-
र्य ऋत्विजस्ते भृगुकच्छसंज्ञके।
प्रवर्तयन्तो भृगवः क्रतूत्तमं
व्यचक्षतारादुदितं यथा रविम्॥

मूलम्

तं नर्मदायास्तट उत्तरे बले-
र्य ऋत्विजस्ते भृगुकच्छसंज्ञके।
प्रवर्तयन्तो भृगवः क्रतूत्तमं
व्यचक्षतारादुदितं यथा रविम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

नर्मदा नदीके उत्तर तटपर ‘भृगुकच्छ’ नामका एक बड़ा सुन्दर स्थान है। वहीं बलिके भृगुवंशी ऋत्विज् श्रेष्ठ यज्ञका अनुष्ठान करा रहे थे। उन लोगोंने दूरसे ही वामनभगवान‍्को देखा, तो उन्हें ऐसा जान पड़ा, मानो साक्षात् सूर्यदेवका उदय हो रहा हो॥ २१॥

श्लोक-२२

विश्वास-प्रस्तुतिः

त ऋत्विजो यजमानः सदस्या
हतत्विषो वामनतेजसा नृप।
सूर्यः किलायात्युत वा विभावसुः
सनत्कुमारोऽथ दिदृक्षया क्रतोः॥

मूलम्

त ऋत्विजो यजमानः सदस्या
हतत्विषो वामनतेजसा नृप।
सूर्यः किलायात्युत वा विभावसुः
सनत्कुमारोऽथ दिदृक्षया क्रतोः॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! वामनभगवान‍्के तेजसे ऋत्विज्, यजमान और सदस्य—सब-के-सब निस्तेज हो गये। वे लोग सोचने लगे कि कहीं यज्ञ देखनेके लिये सूर्य, अग्नि अथवा सनत्कुमार तो नहीं आ रहे हैं॥ २२॥

श्लोक-२३

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्थं सशिष्येषु भृगुष्वनेकधा
वितर्क्यमाणो भगवान् स वामनः।
छत्रं सदण्डं सजलं कमण्डलुं
विवेश बिभ्रद्धयमेधवाटम्॥

मूलम्

इत्थं सशिष्येषु भृगुष्वनेकधा
वितर्क्यमाणो भगवान् स वामनः।
छत्रं सदण्डं सजलं कमण्डलुं
विवेश बिभ्रद्धयमेधवाटम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

भृगुके पुत्र शुक्राचार्य आदि अपने शिष्योंके साथ इसी प्रकार अनेकों कल्पनाएँ कर रहे थे। उसी समय हाथमें छत्र, दण्ड और जलसे भरा कमण्डलु लिये हुए वामनभगवान‍्ने अश्वमेध यज्ञके मण्डपमें प्रवेश किया॥ २३॥

श्लोक-२४

विश्वास-प्रस्तुतिः

मौञ्ज्या मेखलया वीतमुपवीताजिनोत्तरम्।
जटिलं वामनं विप्रं मायामाणवकं हरिम्॥

मूलम्

मौञ्ज्या मेखलया वीतमुपवीताजिनोत्तरम्।
जटिलं वामनं विप्रं मायामाणवकं हरिम्॥

श्लोक-२५

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रविष्टं वीक्ष्य भृगवः सशिष्यास्ते सहाग्निभिः।
प्रत्यगृह्णन् समुत्थाय संक्षिप्तास्तस्य तेजसा॥

मूलम्

प्रविष्टं वीक्ष्य भृगवः सशिष्यास्ते सहाग्निभिः।
प्रत्यगृह्णन् समुत्थाय संक्षिप्तास्तस्य तेजसा॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे कमरमें मूँजकी मेखला और गलेमें यज्ञोपवीत धारण किये हुए थे। बगलमें मृगचर्म था और सिरपर जटा थी। इसी प्रकार बौने ब्राह्मणके वेषमें अपनी मायासे ब्रह्मचारी बने हुए भगवान‍्ने जब उनके यज्ञमण्डपमें प्रवेश किया, तब भृगुवंशी ब्राह्मण उन्हें देखकर अपने शिष्योंके साथ उनके तेजसे प्रभावित एवं निष्प्रभ हो गये। वे सब-के-सब अग्नियोंके साथ उठ खड़े हुए और उन्होंने वामनभगवान‍्का स्वागत-सत्कार किया॥ २४-२५॥

श्लोक-२६

विश्वास-प्रस्तुतिः

यजमानः प्रमुदितो दर्शनीयं मनोरमम्।
रूपानुरूपावयवं तस्मा आसनमाहरत्॥

मूलम्

यजमानः प्रमुदितो दर्शनीयं मनोरमम्।
रूपानुरूपावयवं तस्मा आसनमाहरत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान‍्के लघुरूपके अनुरूप सारे अंग छोटे-छोटे बड़े ही मनोरम एवं दर्शनीय थे। उन्हें देखकर बलिको बड़ा आनन्द हुआ और उन्होंने वामनभगवान‍्को एक उत्तम आसन दिया॥ २६॥

श्लोक-२७

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वागतेनाभिनन्द्याथ पादौ भगवतो बलिः।
अवनिज्यार्चयामास मुक्तसङ्गमनोरमम्॥

मूलम्

स्वागतेनाभिनन्द्याथ पादौ भगवतो बलिः।
अवनिज्यार्चयामास मुक्तसङ्गमनोरमम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर स्वागत-वाणीसे उनका अभिनन्दन करके पाँव पखारे और संगरहित महापुरुषोंको भी अत्यन्त मनोहर लगनेवाले वामनभगवान‍्की पूजा की॥ २७॥

श्लोक-२८

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्पादशौचं जनकल्मषापहं
स धर्मविन्मूर्ध्न्यदधात् सुमङ्गलम्।
यद् देवदेवो गिरिशश्चन्द्रमौलि-
र्दधार मूर्ध्ना परया च भक्त्या॥

मूलम्

तत्पादशौचं जनकल्मषापहं
स धर्मविन्मूर्ध्न्यदधात् सुमङ्गलम्।
यद् देवदेवो गिरिशश्चन्द्रमौलि-
र्दधार मूर्ध्ना परया च भक्त्या॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान‍्के चरणकमलोंका धोवन परम मंगलमय है। उससे जीवोंके सारे पाप-ताप धुल जाते हैं। स्वयं देवाधिदेव चन्द्रमौलि भगवान् शंकरने अत्यन्त भक्तिभावसे उसे अपने सिरपर धारण किया था। आज वही चरणामृत धर्मके मर्मज्ञ राजा बलिको प्राप्त हुआ। उन्होंने बड़े प्रेमसे उसे अपने मस्तकपर रखा॥ २८॥

श्लोक-२९

मूलम् (वचनम्)

बलिरुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वागतं ते नमस्तुभ्यं ब्रह्मन् किं करवाम ते।
ब्रह्मर्षीणां तपः साक्षान्मन्ये त्वाऽऽर्य वपुर्धरम्॥

मूलम्

स्वागतं ते नमस्तुभ्यं ब्रह्मन् किं करवाम ते।
ब्रह्मर्षीणां तपः साक्षान्मन्ये त्वाऽऽर्य वपुर्धरम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

बलिने कहा—ब्राह्मणकुमार! आप भले पधारे। आपको मैं नमस्कार करता हूँ। आज्ञा कीजिये, मैं आपकी क्या सेवा करूँ? आर्य! ऐसा जान पड़ता है कि बड़े-बड़े ब्रह्मर्षियोंकी तपस्या ही स्वयं मूर्तिमान् होकर मेरे सामने आयी है॥ २९॥

श्लोक-३०

विश्वास-प्रस्तुतिः

अद्य नः पितरस्तृप्ता अद्य नः पावितं कुलम्।
अद्य स्विष्टः क्रतुरयं यद् भवानागतो गृहान्॥

मूलम्

अद्य नः पितरस्तृप्ता अद्य नः पावितं कुलम्।
अद्य स्विष्टः क्रतुरयं यद् भवानागतो गृहान्॥

अनुवाद (हिन्दी)

आज आप मेरे घर पधारे, इससे मेरे पितर तृप्त हो गये। आज मेरा वंश पवित्र हो गया। आज मेरा यह यज्ञ सफल हो गया॥ ३०॥

श्लोक-३१

विश्वास-प्रस्तुतिः

अद्याग्नयो मे सुहुता यथाविधि
द्विजात्मज त्वच्चरणावनेजनैः।
हतांहसो वार्भिरियं च भूरहो
तथा पुनीता तनुभिः पदैस्तव॥

मूलम्

अद्याग्नयो मे सुहुता यथाविधि
द्विजात्मज त्वच्चरणावनेजनैः।
हतांहसो वार्भिरियं च भूरहो
तथा पुनीता तनुभिः पदैस्तव॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्राह्मणकुमार! आपके पाँव पखारनेसे मेरे सारे पाप धुल गये और विधिपूर्वक यज्ञ करनेसे, अग्निमें आहुति डालनेसे जो फल मिलता, वह अनायास ही मिल गया। आपके इन नन्हे-नन्हे चरणों और इनके धोवनसे पृथ्वी पवित्र हो गयी॥ ३१॥

श्लोक-३२

विश्वास-प्रस्तुतिः

यद् यद् वटो वाञ्छसि तत्प्रतीच्छ मे
त्वामर्थिनं विप्रसुतानुतर्कये।
गां काञ्चनं गुणवद् धाम मृष्टं
तथान्नपेयमुत वा विप्रकन्याम्।
ग्रामान् समृद्धांस्तुरगान् गजान् वा
रथांस्तथार्हत्तम सम्प्रतीच्छ॥

मूलम्

यद् यद् वटो वाञ्छसि तत्प्रतीच्छ मे
त्वामर्थिनं विप्रसुतानुतर्कये।
गां काञ्चनं गुणवद् धाम मृष्टं
तथान्नपेयमुत वा विप्रकन्याम्।
ग्रामान् समृद्धांस्तुरगान् गजान् वा
रथांस्तथार्हत्तम सम्प्रतीच्छ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्राह्मणकुमार! ऐसा जान पड़ता है कि आप कुछ चाहते हैं। परम पूज्य ब्रह्मचारीजी! आप जो चाहते हों—गाय, सोना, सामग्रियोंसे सुसज्जित घर, पवित्र अन्न, पीनेकी वस्तु, विवाहके लिये ब्राह्मणकी कन्या, सम्पत्तियोंसे भरे हुए गाँव, घोड़े, हाथी, रथ—वह सब आप मुझसे माँग लीजिये। अवश्य ही वह सब मुझसे माँग लीजिये॥ ३२॥

अनुवाद (समाप्ति)

इति श्रीमद‍्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायामष्टमस्कन्धे वामनप्रादुर्भावे बलिवामनसंवादेऽष्टादशोऽध्यायः॥ १८॥