११

[एकादशोऽध्यायः]

भागसूचना

देवासुर-संग्रामकी समाप्ति

श्लोक-१

मूलम् (वचनम्)

श्रीशुक उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथो सुराः प्रत्युपलब्धचेतसः
परस्य पुंसः परयानुकम्पया।
जघ्नुर्भृशं शक्रसमीरणादय-
स्तांस्तान्‍रणे यैरभिसंहताः पुरा॥

मूलम्

अथो सुराः प्रत्युपलब्धचेतसः
परस्य पुंसः परयानुकम्पया।
जघ्नुर्भृशं शक्रसमीरणादय-
स्तांस्तान्‍रणे यैरभिसंहताः पुरा॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! परम पुरुष भगवान‍्की अहैतुकी कृपासे देवताओंकी घबराहट जाती रही, उनमें नवीन उत्साहका संचार हो गया। पहले इन्द्र, वायु आदि देवगण रणभूमिमें जिन-जिन दैत्योंसे आहत हुए थे, उन्हींके ऊपर अब वे पूरी शक्तिसे प्रहार करने लगे॥ १॥

श्लोक-२

विश्वास-प्रस्तुतिः

वैरोचनाय संरब्धो भगवान् पाकशासनः।
उदयच्छद् यदा वज्रं प्रजा हाहेति चुक्रुशुः॥

मूलम्

वैरोचनाय संरब्धो भगवान् पाकशासनः।
उदयच्छद् यदा वज्रं प्रजा हाहेति चुक्रुशुः॥

अनुवाद (हिन्दी)

परम ऐश्वर्यशाली इन्द्रने बलिसे लड़ते-लड़ते जब उनपर क्रोध करके वज्र उठाया तब सारी प्रजामें हाहाकार मच गया॥ २॥

श्लोक-३

विश्वास-प्रस्तुतिः

वज्रपाणिस्तमाहेदं तिरस्कृत्य पुरःस्थितम्।
मनस्विनं सुसम्पन्नं विचरन्तं महामृधे॥

मूलम्

वज्रपाणिस्तमाहेदं तिरस्कृत्य पुरःस्थितम्।
मनस्विनं सुसम्पन्नं विचरन्तं महामृधे॥

अनुवाद (हिन्दी)

बलि अस्त्र-शस्त्रसे सुसज्जित होकर बड़े उत्साहसे युद्धभूमिमें बड़ी निर्भयतासे डटकर विचर रहे थे। उनको अपने सामने ही देखकर हाथमें वज्र लिये हुए इन्द्रने उनका तिरस्कार करके कहा—॥ ३॥

श्लोक-४

विश्वास-प्रस्तुतिः

नटवन्मूढ मायाभिर्मायेशान् नो जिगीषसि।
जित्वा बालान् निबद्धाक्षान् नटो हरति तद्धनम्॥

मूलम्

नटवन्मूढ मायाभिर्मायेशान् नो जिगीषसि।
जित्वा बालान् निबद्धाक्षान् नटो हरति तद्धनम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मूर्ख! जैसे नट बच्चोंकी आँखें बाँधकर अपने जादूसे उनका धन ऐंठ लेता है वैसे ही तू मायाकी चालोंसे हमपर विजय प्राप्त करना चाहता है। तुझे पता नहीं कि हमलोग मायाके स्वामी हैं, वह हमारा कुछ नहीं बिगाड़ सकती॥ ४॥

श्लोक-५

विश्वास-प्रस्तुतिः

आरुरुक्षन्ति मायाभिरुत्सिसृप्सन्ति ये दिवम्।
तान्दस्यून्विधुनोम्यज्ञान् पूर्वस्माच्च पदादधः॥

मूलम्

आरुरुक्षन्ति मायाभिरुत्सिसृप्सन्ति ये दिवम्।
तान्दस्यून्विधुनोम्यज्ञान् पूर्वस्माच्च पदादधः॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो मूर्ख मायाके द्वारा स्वर्गपर अधिकार करना चाहते हैं और उसको लाँघकर ऊपरके लोकोंमें भी धाक जमाना चाहते हैं—उन लुटेरे मूर्खोंको मैं उनके पहले स्थानसे भी नीचे पटक देता हूँ॥ ५॥

श्लोक-६

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोऽहं दुर्मायिनस्तेऽद्य वज्रेण शतपर्वणा।
शिरो हरिष्ये मन्दात्मन् घटस्व ज्ञातिभिः सह॥

मूलम्

सोऽहं दुर्मायिनस्तेऽद्य वज्रेण शतपर्वणा।
शिरो हरिष्ये मन्दात्मन् घटस्व ज्ञातिभिः सह॥

अनुवाद (हिन्दी)

नासमझ! तूने मायाकी बड़ी-बड़ी चालें चली है। देख, आज मैं अपने सौ धारवाले वज्रसे तेरा सिर धड़से अलग किये देता हूँ। तू अपने भाई-बन्धुओंके साथ जो कुछ कर सकता हो, करके देख ले’॥ ६॥

श्लोक-७

मूलम् (वचनम्)

बलिरुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

सङ्ग्रामे वर्तमानानां कालचोदितकर्मणाम्।
कीर्तिर्जयोऽजयो मृत्युः सर्वेषां स्युरनुक्रमात्॥

मूलम्

सङ्ग्रामे वर्तमानानां कालचोदितकर्मणाम्।
कीर्तिर्जयोऽजयो मृत्युः सर्वेषां स्युरनुक्रमात्॥

अनुवाद (हिन्दी)

बलिने कहा—इन्द्र! जो लोग कालशक्तिकी प्रेरणासे अपने कर्मके अनुसार युद्ध करते हैं—उन्हें जीत या हार, यश या अपयश अथवा मृत्यु मिलती ही है॥ ७॥

श्लोक-८

विश्वास-प्रस्तुतिः

तदिदं कालरशनं जनाः पश्यन्ति सूरयः।
न हृष्यन्ति न शोचन्ति तत्र यूयमपण्डिताः॥

मूलम्

तदिदं कालरशनं जनाः पश्यन्ति सूरयः।
न हृष्यन्ति न शोचन्ति तत्र यूयमपण्डिताः॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसीसे ज्ञानीजन इस जगत‍्को कालके अधीन समझकर न तो विजय होनेपर हर्षसे फूल उठते हैं और न तो अपकीर्ति, हार अथवा मृत्युसे शोकके ही वशीभूत होते हैं। तुमलोग इस तत्त्वसे अनभिज्ञ हो॥ ८॥

श्लोक-९

विश्वास-प्रस्तुतिः

न वयं मन्यमानानामात्मानं तत्र साधनम्।
गिरो वः साधुशोच्यानां गृह्णीमो मर्मताडनाः॥

मूलम्

न वयं मन्यमानानामात्मानं तत्र साधनम्।
गिरो वः साधुशोच्यानां गृह्णीमो मर्मताडनाः॥

अनुवाद (हिन्दी)

तुम लोग अपनेको जय-पराजय आदिका कारण—कर्ता मानते हो, इसलिये महात्माओंकी दृष्टिसे तुम शोचनीय हो। हम तुम्हारे मर्मस्पर्शी वचनको स्वीकार ही नहीं करते, फिर हमें दुःख क्यों होने लगा?॥ ९॥

श्लोक-१०

मूलम् (वचनम्)

श्रीशुक उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्याक्षिप्य विभुं वीरो नाराचैर्वीरमर्दनः।
आकर्णपूर्णैरहनदाक्षेपैराहतं पुनः॥

मूलम्

इत्याक्षिप्य विभुं वीरो नाराचैर्वीरमर्दनः।
आकर्णपूर्णैरहनदाक्षेपैराहतं पुनः॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—वीर बलिने इन्द्रको इस प्रकार फटकारा। बलिकी फटकारसे इन्द्र कुछ झेंप गये। तबतक वीरोंका मान मर्दन करनेवाले बलिने अपने धनुषको कानतक खींच-खींचकर बहुत-से बाण मारे॥ १०॥

श्लोक-११

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं निराकृतो देवो वैरिणा तथ्यवादिना।
नामृष्यत् तदधिक्षेपं तोत्राहत इव द्विपः॥

मूलम्

एवं निराकृतो देवो वैरिणा तथ्यवादिना।
नामृष्यत् तदधिक्षेपं तोत्राहत इव द्विपः॥

अनुवाद (हिन्दी)

सत्यवादी देवशत्रु बलिने इस प्रकार इन्द्रका अत्यन्त तिरस्कार किया। अब तो इन्द्र अंकुशसे मारे हुए हाथीकी तरह और भी चिढ़ गये। बलिका आक्षेप वे सहन न कर सके॥ ११॥

श्लोक-१२

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्राहरत् कुलिशं तस्मा अमोघं परमर्दनः।
सयानो न्यपतद् भूमौ छिन्नपक्ष इवाचलः॥

मूलम्

प्राहरत् कुलिशं तस्मा अमोघं परमर्दनः।
सयानो न्यपतद् भूमौ छिन्नपक्ष इवाचलः॥

अनुवाद (हिन्दी)

शत्रुघाती इन्द्रने बलिपर अपने अमोघ वज्रका प्रहार किया। उसकी चोटसे बलि पंख कटे हुए पर्वतके समान अपने विमानके साथ पृथ्वीपर गिर पड़े॥ १२॥

श्लोक-१३

विश्वास-प्रस्तुतिः

सखायं पतितं दृष्ट्वा जम्भो बलिसखः सुहृत्।
अभ्ययात् सौहृदं सख्युर्हतस्यापि समाचरन्॥

मूलम्

सखायं पतितं दृष्ट्वा जम्भो बलिसखः सुहृत्।
अभ्ययात् सौहृदं सख्युर्हतस्यापि समाचरन्॥

अनुवाद (हिन्दी)

बलिका एक बड़ा हितैषी और घनिष्ठ मित्र जम्भासुर था। अपने मित्रके गिर जानेपर भी उनको मारनेका बदला लेनेके लिये वह इन्द्रके सामने आ खड़ा हुआ॥ १३॥

श्लोक-१४

विश्वास-प्रस्तुतिः

स सिंहवाह आसाद्य गदामुद्यम्य रंहसा।
जत्रावताडयच्छक्रं गजं च सुमहाबलः॥

मूलम्

स सिंहवाह आसाद्य गदामुद्यम्य रंहसा।
जत्रावताडयच्छक्रं गजं च सुमहाबलः॥

अनुवाद (हिन्दी)

सिंहपर चढ़कर वह इन्द्रके पास पहुँच गया और बड़े वेगसे अपनी गदा उठाकर उनके जत्रुस्थान (हँसली)-पर प्रहार किया। साथ ही उस महाबलीने ऐरावतपर भी एक गदा जमायी॥ १४॥

श्लोक-१५

विश्वास-प्रस्तुतिः

गदाप्रहारव्यथितो भृशं विह्वलितो गजः।
जानुभ्यां धरणीं स्पृष्ट्वा कश्मलं परमं ययौ॥

मूलम्

गदाप्रहारव्यथितो भृशं विह्वलितो गजः।
जानुभ्यां धरणीं स्पृष्ट्वा कश्मलं परमं ययौ॥

अनुवाद (हिन्दी)

गदाकी चोटसे ऐरावतको बड़ी पीड़ा हुई, उसने व्याकुलतासे घुटने टेक दिये और फिर मूर्च्छित हो गया!॥ १५॥

श्लोक-१६

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो रथो मातलिना हरिभिर्दशशतैर्वृतः।
आनीतो द्विपमुत्सृज्य रथमारुरुहे विभुः॥

मूलम्

ततो रथो मातलिना हरिभिर्दशशतैर्वृतः।
आनीतो द्विपमुत्सृज्य रथमारुरुहे विभुः॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसी समय इन्द्रका सारथि मातलि हजार घोड़ोंसे जुता हुआ रथ ले आया और शक्तिशाली इन्द्र ऐरावतको छोड़कर तुरंत रथपर सवार हो गये॥ १६॥

श्लोक-१७

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्य तत् पूजयन् कर्म यन्तुर्दानवसत्तमः।
शूलेन ज्वलता तं तु स्मयमानोऽहनन्मृधे॥

मूलम्

तस्य तत् पूजयन् कर्म यन्तुर्दानवसत्तमः।
शूलेन ज्वलता तं तु स्मयमानोऽहनन्मृधे॥

अनुवाद (हिन्दी)

दानवश्रेष्ठ जम्भने रणभूमिमें मातलिके इस कामकी बड़ी प्रशंसा की और मुसकराकर चमकता हुआ त्रिशूल उसके ऊपर चलाया॥ १७॥

श्लोक-१८

विश्वास-प्रस्तुतिः

सेहे रुजं सुदुर्मर्षां सत्त्वमालम्ब्य मातलिः।
इन्द्रो जम्भस्य संक्रुद्धो वज्रेणापाहरच्छिरः॥

मूलम्

सेहे रुजं सुदुर्मर्षां सत्त्वमालम्ब्य मातलिः।
इन्द्रो जम्भस्य संक्रुद्धो वज्रेणापाहरच्छिरः॥

अनुवाद (हिन्दी)

मातलिने धैर्यके साथ इस असह्य पीड़ाको सह लिया। तब इन्द्रने क्रोधित होकर अपने वज्रसे जम्भका सिर काट डाला॥ १८॥

श्लोक-१९

विश्वास-प्रस्तुतिः

जम्भं श्रुत्वा हतं तस्य ज्ञातयो नारदादृषेः।
नमुचिश्च बलः पाकस्तत्रापेतुस्त्वरान्विताः॥

मूलम्

जम्भं श्रुत्वा हतं तस्य ज्ञातयो नारदादृषेः।
नमुचिश्च बलः पाकस्तत्रापेतुस्त्वरान्विताः॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवर्षि नारदसे जम्भासुरकी मृत्युका समाचार जानकर उसके भाई-बन्धु नमुचि, बल और पाक झटपट रणभूमिमें आ पहुँचे॥ १९॥

श्लोक-२०

विश्वास-प्रस्तुतिः

वचोभिः परुषैरिन्द्रमर्दयन्तोऽस्य मर्मसु।
शरैरवाकिरन् मेघा धाराभिरिव पर्वतम्॥

मूलम्

वचोभिः परुषैरिन्द्रमर्दयन्तोऽस्य मर्मसु।
शरैरवाकिरन् मेघा धाराभिरिव पर्वतम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

अपने कठोर और मर्मस्पर्शी वाणीसे उन्होंने इन्द्रको बहुत कुछ बुरा-भला कहा और जैसे बादल पहाड़पर मूसलाधार पानी बरसाते हैं, वैसे ही उनके ऊपर बाणोंकी झड़ी लगा दी॥ २०॥

श्लोक-२१

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरीन्दशशतान्याजौ हर्यश्वस्य बलः शरैः।
तावद‍्भिरर्दयामास युगपल्लघुहस्तवान्॥

मूलम्

हरीन्दशशतान्याजौ हर्यश्वस्य बलः शरैः।
तावद‍्भिरर्दयामास युगपल्लघुहस्तवान्॥

अनुवाद (हिन्दी)

बलने बड़े हस्तलाघवसे एक साथ ही एक हजार बाण चलाकर इन्द्रके एक हजार घोड़ोंको घायल कर दिया॥ २१॥

श्लोक-२२

विश्वास-प्रस्तुतिः

शताभ्यां मातलिं पाको रथं सावयवं पृथक्।
सकृत्सन्धानमोक्षेण तदद‍्भुतमभूद् रणे॥

मूलम्

शताभ्यां मातलिं पाको रथं सावयवं पृथक्।
सकृत्सन्धानमोक्षेण तदद‍्भुतमभूद् रणे॥

अनुवाद (हिन्दी)

पाकने सौ बाणोंसे मातलिको और सौ बाणोंसे रथके एक-एक अंगको छेद डाला। युद्धभूमिमें यह बड़ी अद‍्भुत घटना हुई कि एक ही बार इतने बाण उसने चढ़ाये और चलाये॥ २२॥

श्लोक-२३

विश्वास-प्रस्तुतिः

नमुचिः पञ्चदशभिः स्वर्णपुङ्खैर्महेषुभिः।
आहत्य व्यनदत्संख्ये सतोय इव तोयदः॥

मूलम्

नमुचिः पञ्चदशभिः स्वर्णपुङ्खैर्महेषुभिः।
आहत्य व्यनदत्संख्ये सतोय इव तोयदः॥

अनुवाद (हिन्दी)

नमुचिने बड़े-बड़े पंद्रह बाणोंसे, जिनमें सोनेके पंख लगे हुए थे, इन्द्रको मारा और युद्धभूमिमें वह जलसे भरे बादलके समान गरजने लगा॥ २३॥

श्लोक-२४

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वतः शरकूटेन शक्रं सरथसारथिम्।
छादयामासुरसुराः प्रावृट्सूर्यमिवाम्बुदाः॥

मूलम्

सर्वतः शरकूटेन शक्रं सरथसारथिम्।
छादयामासुरसुराः प्रावृट्सूर्यमिवाम्बुदाः॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे वर्षाकालके बादल सूर्यको ढक लेते हैं, वैसे ही असुरोंने बाणोंकी वर्षासे इन्द्र और उनके रथ तथा सारथिको भी चारों ओरसे ढक दिया॥ २४॥

श्लोक-२५

विश्वास-प्रस्तुतिः

अलक्षयन्तस्तमतीव विह्वला
विचुक्रुशुर्देवगणाः सहानुगाः।
अनायकाः शत्रुबलेन निर्जिता
वणिक्पथा भिन्ननवो यथार्णवे॥

मूलम्

अलक्षयन्तस्तमतीव विह्वला
विचुक्रुशुर्देवगणाः सहानुगाः।
अनायकाः शत्रुबलेन निर्जिता
वणिक्पथा भिन्ननवो यथार्णवे॥

अनुवाद (हिन्दी)

इन्द्रको न देखकर देवता और उनके अनुचर अत्यन्त विह्वल होकर रोने-चिल्लाने लगे। एक तो शत्रुओंने उन्हें हरा दिया था और दूसरे अब उनका कोई सेनापति भी न रह गया था। उस समय देवताओंकी ठीक वैसी ही अवस्था हो रही थी, जैसे बीच समुद्रमें नाव टूट जानेपर व्यापारियोंकी होती है॥ २५॥

श्लोक-२६

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततस्तुराषाडिषुबद्धपञ्जराद्
विनिर्गतः साश्वरथध्वजाग्रणीः।
बभौ दिशः खं पृथिवीं च रोचयन्
स्वतेजसा सूर्य इव क्षपात्यये॥

मूलम्

ततस्तुराषाडिषुबद्धपञ्जराद्
विनिर्गतः साश्वरथध्वजाग्रणीः।
बभौ दिशः खं पृथिवीं च रोचयन्
स्वतेजसा सूर्य इव क्षपात्यये॥

अनुवाद (हिन्दी)

परन्तु थोड़ी ही देरमें शत्रुओंके बनाये हुए बाणोंके पिंजड़ेसे घोड़े, रथ, ध्वजा और सारथिके साथ इन्द्र निकल आये। जैसे प्रातःकाल सूर्य अपनी किरणोंसे दिशा, आकाश और पृथ्वीको चमका देते हैं, वैसे ही इन्द्रके तेजसे सब-के-सब जगमगा उठे॥ २६॥

श्लोक-२७

विश्वास-प्रस्तुतिः

निरीक्ष्य पृतनां देवः परैरभ्यर्दितां रणे।
उदयच्छद् रिपुं हन्तुं वज्रं वज्रधरो रुषा॥

मूलम्

निरीक्ष्य पृतनां देवः परैरभ्यर्दितां रणे।
उदयच्छद् रिपुं हन्तुं वज्रं वज्रधरो रुषा॥

अनुवाद (हिन्दी)

वज्रधारी इन्द्रने देखा कि शत्रुओंने रणभूमिमें हमारी सेनाको रौंद डाला है, तब उन्होंने बड़े क्रोधसे शत्रुको मार डालनेके लिये वज्रसे आक्रमण किया॥ २७॥

श्लोक-२८

विश्वास-प्रस्तुतिः

स तेनैवाष्टधारेण शिरसी बलपाकयोः।
ज्ञातीनां पश्यतां राजञ्जहार जनयन्भयम्॥

मूलम्

स तेनैवाष्टधारेण शिरसी बलपाकयोः।
ज्ञातीनां पश्यतां राजञ्जहार जनयन्भयम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! उस आठ धारवाले पैने वज्रसे उन दैत्योंके भाई-बन्धुओंको भी भयभीत करते हुए उन्होंने बल और पाकके सिर काट लिये॥ २८॥

श्लोक-२९

विश्वास-प्रस्तुतिः

नमुचिस्तद्वधं दृष्ट्वा शोकामर्षरुषान्वितः।
जिघांसुरिन्द्रं नृपते चकार परमोद्यमम्॥

मूलम्

नमुचिस्तद्वधं दृष्ट्वा शोकामर्षरुषान्वितः।
जिघांसुरिन्द्रं नृपते चकार परमोद्यमम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! अपने भाइयोंको मरा हुआ देख नमुचिको बड़ा शोक हुआ। वह क्रोधके कारण आपेसे बाहर होकर इन्द्रको मार डालनेके लिये जी-जानसे प्रयास करने लगा॥ २९॥

श्लोक-३०

विश्वास-प्रस्तुतिः

अश्मसारमयं शूलं घण्टावद्धेमभूषणम्।
प्रगृह्याभ्यद्रवत् क्रुद्धो हतोऽसीति वितर्जयन्।
प्राहिणोद् देवराजाय निनदन् मृगराडिव॥

मूलम्

अश्मसारमयं शूलं घण्टावद्धेमभूषणम्।
प्रगृह्याभ्यद्रवत् क्रुद्धो हतोऽसीति वितर्जयन्।
प्राहिणोद् देवराजाय निनदन् मृगराडिव॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘इन्द्र! अब तुम बच नहीं सकते’—इस प्रकार ललकारते हुए एक त्रिशूल उठाकर वह इन्द्रपर टूट पड़ा। वह त्रिशूल फौलादका बना हुआ था, सोनेके आभूषणोंसे विभूषित था और उसमें घण्टे लगे हुए थे। नमुचिने क्रोधके मारे सिंहके समान गरजकर इन्द्रपर वह त्रिशूल चला दिया॥ ३०॥

श्लोक-३१

विश्वास-प्रस्तुतिः

तदापतद् गगनतले महाजवं
विचिच्छिदे हरिरिषुभिः सहस्रधा।
तमाहनन्नृप कुलिशेन कन्धरे
रुषान्वितस्त्रिदशपतिः शिरो हरन्॥

मूलम्

तदापतद् गगनतले महाजवं
विचिच्छिदे हरिरिषुभिः सहस्रधा।
तमाहनन्नृप कुलिशेन कन्धरे
रुषान्वितस्त्रिदशपतिः शिरो हरन्॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! इन्द्रने देखा कि त्रिशूल बड़े वेगसे मेरी ओर आ रहा है। उन्होंने अपने बाणोंसे आकाशमें ही उसके हजारों टुकड़े कर दिये और इसके बाद देवराज इन्द्रने बड़े क्रोधसे उसका सिर काट लेनेके लिये उसकी गर्दनपर वज्र मारा॥ ३१॥

श्लोक-३२

विश्वास-प्रस्तुतिः

न तस्य हि त्वचमपि वज्र ऊर्जितो
बिभेद यः सुरपतिनौजसेरितः।
तदद‍्भुतं परमतिवीर्यवृत्रभित्
तिरस्कृतो नमुचिशिरोधरत्वचा॥

मूलम्

न तस्य हि त्वचमपि वज्र ऊर्जितो
बिभेद यः सुरपतिनौजसेरितः।
तदद‍्भुतं परमतिवीर्यवृत्रभित्
तिरस्कृतो नमुचिशिरोधरत्वचा॥

अनुवाद (हिन्दी)

यद्यपि इन्द्रने बड़े वेगसे वह वज्र चलाया था, परन्तु उस यशस्वी वज्रसे उसके चमड़ेपर खरोंचतक नहीं आयी। यह बड़ी आश्चर्यजनक घटना हुई कि जिस वज्रने महाबली वृत्रासुरका शरीर टुकड़े-टुकड़े कर डाला था, नमुचिके गलेकी त्वचाने उसका तिरस्कार कर दिया॥ ३२॥

श्लोक-३३

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मादिन्द्रोऽबिभेच्छत्रोर्वज्रः प्रतिहतो यतः।
किमिदं दैवयोगेन भूतं लोकविमोहनम्॥

मूलम्

तस्मादिन्द्रोऽबिभेच्छत्रोर्वज्रः प्रतिहतो यतः।
किमिदं दैवयोगेन भूतं लोकविमोहनम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब वज्र नमुचिका कुछ न बिगाड़ सका, तब इन्द्र उससे डर गये। वे सोचने लगे कि ‘दैवयोगसे संसारभरको संशयमें डालनेवाली यह कैसी घटना हो गयी!॥ ३३॥

श्लोक-३४

विश्वास-प्रस्तुतिः

येन मे पूर्वमद्रीणां पक्षच्छेदः प्रजात्यये।
कृतो निविशतां भारैः पतत्त्रैः पततां भुवि॥

मूलम्

येन मे पूर्वमद्रीणां पक्षच्छेदः प्रजात्यये।
कृतो निविशतां भारैः पतत्त्रैः पततां भुवि॥

अनुवाद (हिन्दी)

पहले युगमें जब ये पर्वत पाँखोंसे उड़ते थे और घूमते-फिरते भारके कारण पृथ्वीपर गिर पड़ते थे, तब प्रजाका विनाश होते देखकर इसी वज्रसे मैंने उन पहाड़ोंकी पाँखें काट डाली थीं॥ ३४॥

श्लोक-३५

विश्वास-प्रस्तुतिः

तपःसारमयं त्वाष्ट्रं वृत्रो येन विपाटितः।
अन्ये चापि बलोपेताः सर्वास्त्रैरक्षतत्वचः॥

मूलम्

तपःसारमयं त्वाष्ट्रं वृत्रो येन विपाटितः।
अन्ये चापि बलोपेताः सर्वास्त्रैरक्षतत्वचः॥

अनुवाद (हिन्दी)

त्वष्टाकी तपस्याका सार ही वृत्रासुरके रूपमें प्रकट हुआ था! उसे भी मैंने इसी वज्रके द्वारा काट डाला था। और भी अनेकों दैत्य, जो बहुत बलवान् थे और किसी अस्त्र-शस्त्रसे जिनके चमड़ेको भी चोट नहीं पहुँचायी जा सकी थी, इसी वज्रसे मैंने मृत्युके घाट उतार दिये थे॥ ३५॥

श्लोक-३६

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोऽयं प्रतिहतो वज्रो मया मुक्तोऽसुरेऽल्पके।
नाहं तदाददे दण्डं ब्रह्मतेजोऽप्यकारणम्॥

मूलम्

सोऽयं प्रतिहतो वज्रो मया मुक्तोऽसुरेऽल्पके।
नाहं तदाददे दण्डं ब्रह्मतेजोऽप्यकारणम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

वही मेरा वज्र मेरे प्रहार करनेपर भी इस तुच्छ असुरको न मार सका, अतः अब मैं इसे अंगीकार नहीं कर सकता। यह ब्रह्मतेजसे बना है तो क्या हुआ, अब तो निकम्मा हो चुका है’॥ ३६॥

श्लोक-३७

विश्वास-प्रस्तुतिः

इति शक्रं विषीदन्तमाह वागशरीरिणी।
नायं शुष्कैरथो नार्द्रैर्वधमर्हति दानवः॥

मूलम्

इति शक्रं विषीदन्तमाह वागशरीरिणी।
नायं शुष्कैरथो नार्द्रैर्वधमर्हति दानवः॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार इन्द्र विषाद करने लगे। उसी समय यह आकाशवाणी हुई—‘‘यह दानव न तो सूखी वस्तुसे मर सकता है, न गीलीसे॥ ३७॥

श्लोक-३८

विश्वास-प्रस्तुतिः

मयास्मै यद् वरो दत्तो मृत्युर्नैवार्द्रशुष्कयोः।
अतोऽन्यश्चिन्तनीयस्ते उपायो मघवन् रिपोः॥

मूलम्

मयास्मै यद् वरो दत्तो मृत्युर्नैवार्द्रशुष्कयोः।
अतोऽन्यश्चिन्तनीयस्ते उपायो मघवन् रिपोः॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसे मैं वर दे चुका हूँ कि ‘सूखी या गीली वस्तुसे तुम्हारी मृत्यु न होगी।’ इसलिये इन्द्र! इस शत्रुको मारनेके लिये अब तुम कोई दूसरा उपाय सोचो!’’॥ ३८॥

श्लोक-३९

विश्वास-प्रस्तुतिः

तां दैवीं गिरमाकर्ण्य मघवान् सुसमाहितः।
ध्यायन् फेनमथापश्यदुपायमुभयात्मकम्॥

मूलम्

तां दैवीं गिरमाकर्ण्य मघवान् सुसमाहितः।
ध्यायन् फेनमथापश्यदुपायमुभयात्मकम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस आकाशवाणीको सुनकर देवराज इन्द्र बड़ी एकाग्रतासे विचार करने लगे। सोचते-सोचते उन्हें सूझ गया कि समुद्रका फेन तो सूखा भी है, गीला भी;॥ ३९॥

श्लोक-४०

विश्वास-प्रस्तुतिः

न शुष्केण न चार्द्रेण जहार नमुचेः शिरः।
तं तुष्टुवुर्मुनिगणा माल्यैश्चावाकिरन्विभुम्॥

मूलम्

न शुष्केण न चार्द्रेण जहार नमुचेः शिरः।
तं तुष्टुवुर्मुनिगणा माल्यैश्चावाकिरन्विभुम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसलिये न उसे सूखा कह सकते हैं, न गीला। अतः इन्द्रने उस न सूखे और न गीले समुद्र फेनसे नमुचिका सिर काट डाला। उस समय बड़े-बड़े ऋषि-मुनि भगवान् इन्द्रपर पुष्पोंकी वर्षा और उनकी स्तुति करने लगे॥ ४०॥

श्लोक-४१

विश्वास-प्रस्तुतिः

गन्धर्वमुख्यौ जगतुर्विश्वावसुपरावसू।
देवदुन्दुभयो नेदुर्नर्तक्यो ननृतुर्मुदा॥

मूलम्

गन्धर्वमुख्यौ जगतुर्विश्वावसुपरावसू।
देवदुन्दुभयो नेदुर्नर्तक्यो ननृतुर्मुदा॥

अनुवाद (हिन्दी)

गन्धर्वशिरोमणि विश्वावसु तथा परावसु गान करने लगे, देवताओंकी दुन्दुभियाँ बजने लगीं और नर्तकियाँ आनन्दसे नाचने लगीं॥ ४१॥

श्लोक-४२

विश्वास-प्रस्तुतिः

अन्येऽप्येवं प्रतिद्वन्द्वान् वाय्वग्निवरुणादयः।
सूदयामासुरस्त्रौघैर्मृगान् केसरिणो यथा॥

मूलम्

अन्येऽप्येवं प्रतिद्वन्द्वान् वाय्वग्निवरुणादयः।
सूदयामासुरस्त्रौघैर्मृगान् केसरिणो यथा॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसी प्रकार वायु, अग्नि, वरुण आदि दूसरे देवताओंने भी अपने अस्त्र-शस्त्रोंसे विपक्षियोंको वैसे ही मार गिराया जैसे सिंह हरिनोंको मार डालते हैं॥ ४२॥

श्लोक-४३

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्रह्मणा प्रेषितो देवान् देवर्षिर्नारदो नृप।
वारयामास विबुधान् दृष्ट्वा दानवसंक्षयम्॥

मूलम्

ब्रह्मणा प्रेषितो देवान् देवर्षिर्नारदो नृप।
वारयामास विबुधान् दृष्ट्वा दानवसंक्षयम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! इधर ब्रह्माजीने देखा कि दानवोंका तो सर्वथा नाश हुआ जा रहा है। तब उन्होंने देवर्षि नारदको देवताओंके पास भेजा और नारदजीने वहाँ जाकर देवताओंको लड़नेसे रोक दिया॥ ४३॥

श्लोक-४४

मूलम् (वचनम्)

नारद उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

भवद‍्भिरमृतं प्राप्तं नारायणभुजाश्रयैः।
श्रिया समेधिताः सर्व उपारमत विग्रहात्॥

मूलम्

भवद‍्भिरमृतं प्राप्तं नारायणभुजाश्रयैः।
श्रिया समेधिताः सर्व उपारमत विग्रहात्॥

अनुवाद (हिन्दी)

नारदजीने कहा—देवताओ! भगवान‍्की भुजाओंकी छत्रछायामें रहकर आपलोगोंने अमृत प्राप्त कर लिया है और लक्ष्मीजीने भी अपनी कृपा-कोरसे आपकी अभिवृद्धि की है, इसलिये आपलोग अब लड़ाई बंद कर दें॥ ४४॥

श्लोक-४५

मूलम् (वचनम्)

श्रीशुक उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

संयम्य मन्युसंरम्भं मानयन्तो मुनेर्वचः।
उपगीयमानानुचरैर्ययुः सर्वे त्रिविष्टपम्॥

मूलम्

संयम्य मन्युसंरम्भं मानयन्तो मुनेर्वचः।
उपगीयमानानुचरैर्ययुः सर्वे त्रिविष्टपम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—देवताओंने देवर्षि नारदकी बात मानकर अपने क्रोधके वेगको शान्त कर लिया और फिर वे सब-के-सब अपने लोक स्वर्गको चले गये। उस समय देवताओंके अनुचर उनके यशका गान कर रहे थे॥ ४५॥

श्लोक-४६

विश्वास-प्रस्तुतिः

येऽवशिष्टा रणे तस्मिन् नारदानुमतेन ते।
बलिं विपन्नमादाय अस्तं गिरिमुपागमन्॥

मूलम्

येऽवशिष्टा रणे तस्मिन् नारदानुमतेन ते।
बलिं विपन्नमादाय अस्तं गिरिमुपागमन्॥

अनुवाद (हिन्दी)

युद्धमें बचे हुए दैत्योंने देवर्षि नारदकी सम्मतिसे वज्रकी चोटसे मरे हुए बलिको लेकर अस्ताचलकी यात्रा की॥ ४६॥

श्लोक-४७

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्राविनष्टावयवान् विद्यमानशिरोधरान्।
उशना जीवयामास संजीविन्या स्वविद्यया॥

मूलम्

तत्राविनष्टावयवान् विद्यमानशिरोधरान्।
उशना जीवयामास संजीविन्या स्वविद्यया॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ शुक्राचार्यने अपनी संजीवनी विद्यासे उन असुरोंको जीवित कर दिया, जिनके गरदन आदि अंग कटे नहीं थे, बच रहे थे॥ ४७॥

श्लोक-४८

विश्वास-प्रस्तुतिः

बलिश्चोशनसा स्पृष्टः प्रत्यापन्नेन्द्रियस्मृतिः।
पराजितोऽपि नाखिद्यल्लोकतत्त्वविचक्षणः॥

मूलम्

बलिश्चोशनसा स्पृष्टः प्रत्यापन्नेन्द्रियस्मृतिः।
पराजितोऽपि नाखिद्यल्लोकतत्त्वविचक्षणः॥

अनुवाद (हिन्दी)

शुक्राचार्यके स्पर्श करते ही बलिकी इन्द्रियोंमें चेतना और मनमें स्मरणशक्ति आ गयी। बलि यह बात समझते थे कि संसारमें जीवन-मृत्यु, जय-पराजय आदि उलट-फेर होते ही रहते हैं। इसलिये पराजित होनेपर भी उन्हें किसी प्रकारका खेद नहीं हुआ॥ ४८॥

अनुवाद (समाप्ति)

इति श्रीमद‍्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायामष्टमस्कन्धे देवासुरसंग्रामे एकादशोऽध्यायः॥ ११॥