[अष्टमोऽध्यायः]
भागसूचना
समुद्रसे अमृतका प्रकट होना और भगवान्का मोहिनी-अवतार ग्रहण करना
श्लोक-१
मूलम् (वचनम्)
श्रीशुक उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
पीते गरे वृषाङ्केण प्रीतास्तेऽमरदानवाः।
ममन्थुस्तरसा सिन्धुं हविर्धानी ततोऽभवत्॥
मूलम्
पीते गरे वृषाङ्केण प्रीतास्तेऽमरदानवाः।
ममन्थुस्तरसा सिन्धुं हविर्धानी ततोऽभवत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—इस प्रकार जब भगवान् शंकरने विष पी लिया, तब देवता और असुरोंको बड़ी प्रसन्नता हुई। वे फिर नये उत्साहसे समुद्र मथने लगे। तब समुद्रसे कामधेनु प्रकट हुई॥ १॥
श्लोक-२
विश्वास-प्रस्तुतिः
तामग्निहोत्रीमृषयो जगृहुर्ब्रह्मवादिनः।
यज्ञस्य देवयानस्य मेध्याय हविषे नृप॥
मूलम्
तामग्निहोत्रीमृषयो जगृहुर्ब्रह्मवादिनः।
यज्ञस्य देवयानस्य मेध्याय हविषे नृप॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह अग्निहोत्रकी सामग्री उत्पन्न करनेवाली थी। इसलिये ब्रह्मलोकतक पहुँचानेवाले यज्ञके लिये उपयोगी पवित्र घी, दूध आदि प्राप्त करनेके लिये ब्रह्मवादी ऋषियोंने उसे ग्रहण किया॥ २॥
श्लोक-३
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत उच्चैःश्रवा नाम हयोऽभूच्चन्द्रपाण्डुरः।
तस्मिन्बलिः स्पृहां चक्रे नेन्द्र ईश्वरशिक्षया॥
मूलम्
तत उच्चैःश्रवा नाम हयोऽभूच्चन्द्रपाण्डुरः।
तस्मिन्बलिः स्पृहां चक्रे नेन्द्र ईश्वरशिक्षया॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसके बाद उच्चैःश्रवा नामका घोड़ा निकला। वह चन्द्रमाके समान श्वेतवर्णका था। बलिने उसे लेनेकी इच्छा प्रकट की। इन्द्रने उसे नहीं चाहा; क्योंकि भगवान्ने उन्हें पहलेसे ही सिखा रखा था॥ ३॥
श्लोक-४
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत ऐरावतो नाम वारणेन्द्रो विनिर्गतः।
दन्तैश्चतुर्भिः श्वेताद्रेर्हरन्भगवतो महिम्॥
मूलम्
तत ऐरावतो नाम वारणेन्द्रो विनिर्गतः।
दन्तैश्चतुर्भिः श्वेताद्रेर्हरन्भगवतो महिम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर ऐरावत नामका श्रेष्ठ हाथी निकला। उसके बड़े-बड़े चार दाँत थे, जो उज्ज्वलवर्ण कैलासकी शोभाको भी मात करते थे॥ ४॥
श्लोक-५
विश्वास-प्रस्तुतिः
कौस्तुभाख्यमभूद् रत्नं पद्मरागो महोदधेः।
तस्मिन्हरिः स्पृहां चक्रे वक्षोऽलङ्करणे मणौ॥
मूलम्
कौस्तुभाख्यमभूद् रत्नं पद्मरागो महोदधेः।
तस्मिन्हरिः स्पृहां चक्रे वक्षोऽलङ्करणे मणौ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तत्पश्चात् कौस्तुभ नामक पद्मराग मणि समुद्रसे निकली। उस मणिको अपने हृदयपर धारण करनेके लिये अजितभगवान्ने लेना चाहा॥ ५॥
श्लोक-६
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततोऽभवत् पारिजातः सुरलोकविभूषणम्।
पूरयत्यर्थिनो योऽर्थैः शश्वद् भुवि यथा भवान्॥
मूलम्
ततोऽभवत् पारिजातः सुरलोकविभूषणम्।
पूरयत्यर्थिनो योऽर्थैः शश्वद् भुवि यथा भवान्॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! इसके बाद स्वर्गलोककी शोभा बढ़ानेवाला कल्पवृक्ष निकला। वह याचकोंकी इच्छाएँ उनकी इच्छित वस्तु देकर वैसे ही पूर्ण करता रहता है, जैसे पृथ्वीपर तुम सबकी इच्छाएँ पूर्ण करते हो॥ ६॥
श्लोक-७
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततश्चाप्सरसो जाता निष्ककण्ठ्यः सुवाससः।
रमण्यः स्वर्गिणां वल्गुगतिलीलावलोकनैः॥
मूलम्
ततश्चाप्सरसो जाता निष्ककण्ठ्यः सुवाससः।
रमण्यः स्वर्गिणां वल्गुगतिलीलावलोकनैः॥
अनुवाद (हिन्दी)
तत्पश्चात् अप्सराएँ प्रकट हुईं। वे सुन्दर वस्त्रोंसे सुसज्जित एवं गलेमें स्वर्णहार पहने हुए थीं। वे अपनी मनोहर चाल और विलासभरी चितवनसे देवताओंको सुख पहुँचानेवाली हुईं॥ ७॥
श्लोक-८
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततश्चाविरभूत् साक्षाच्छ्री रमा भगवत्परा।
रञ्जयन्ती दिशः कान्त्या विद्युत् सौदामनी यथा॥
मूलम्
ततश्चाविरभूत् साक्षाच्छ्री रमा भगवत्परा।
रञ्जयन्ती दिशः कान्त्या विद्युत् सौदामनी यथा॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसके बाद शोभाकी मूर्ति स्वयं भगवती लक्ष्मीदेवी प्रकट हुईं। वे भगवान्की नित्यशक्ति हैं। उनकी बिजलीके समान चमकीली छटासे दिशाएँ जगमगा उठीं॥ ८॥
श्लोक-९
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्यां चक्रुः स्पृहां सर्वे ससुरासुरमानवाः।
रूपौदार्यवयोवर्णमहिमाक्षिप्तचेतसः॥
मूलम्
तस्यां चक्रुः स्पृहां सर्वे ससुरासुरमानवाः।
रूपौदार्यवयोवर्णमहिमाक्षिप्तचेतसः॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनके सौन्दर्य, औदार्य, यौवन, रूप-रंग और महिमासे सबका चित्त खिंच गया। देवता, असुर, मनुष्य—सभीने चाहा कि ये हमें मिल जायँ॥ ९॥
श्लोक-१०
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्या आसनमानिन्ये महेन्द्रो महदद्भुतम्।
मूर्तिमत्यः सरिच्छ्रेष्ठा हेमकुम्भैर्जलं शुचि॥
मूलम्
तस्या आसनमानिन्ये महेन्द्रो महदद्भुतम्।
मूर्तिमत्यः सरिच्छ्रेष्ठा हेमकुम्भैर्जलं शुचि॥
अनुवाद (हिन्दी)
स्वयं इन्द्र अपने हाथों उनके बैठनेके लिये बड़ा विचित्र आसन ले आये। श्रेष्ठ नदियोंने मूर्तिमान् होकर उनके अभिषेकके लिये सोनेके घड़ोंमें भर-भरकर पवित्र जल ला दिया॥ १०॥
श्लोक-११
विश्वास-प्रस्तुतिः
आभिषेचनिका भूमिराहरत् सकलौषधीः।
गावः पञ्च पवित्राणि वसन्तो मधुमाधवौ॥
मूलम्
आभिषेचनिका भूमिराहरत् सकलौषधीः।
गावः पञ्च पवित्राणि वसन्तो मधुमाधवौ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पृथ्वीने अभिषेकके योग्य सब ओषधियाँ दीं। गौओंने पंचगव्य और वसन्त ऋतुने चैत्र-वैशाखमें होनेवाले सब फूल-फल उपस्थित कर दिये॥ ११॥
श्लोक-१२
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऋषयः कल्पयाञ्चक्रुरभिषेकं यथाविधि।
जगुर्भद्राणि गन्धर्वा नट्यश्च ननृतुर्जगुः॥
मूलम्
ऋषयः कल्पयाञ्चक्रुरभिषेकं यथाविधि।
जगुर्भद्राणि गन्धर्वा नट्यश्च ननृतुर्जगुः॥
अनुवाद (हिन्दी)
इन सामग्रियोंसे ऋषियोंने विधिपूर्वक उनका अभिषेक सम्पन्न किया। गन्धर्वोंने मंगलमय संगीतकी तान छेड़ दी। नर्तकियाँ नाच-नाचकर गाने लगीं॥ १२॥
श्लोक-१३
विश्वास-प्रस्तुतिः
मेघा मृदङ्गपणवमुरजानकगोमुखान्।
व्यनादयञ्छङ्खवेणुवीणास्तुमुलनिःस्वनान्॥
मूलम्
मेघा मृदङ्गपणवमुरजानकगोमुखान्।
व्यनादयञ्छङ्खवेणुवीणास्तुमुलनिःस्वनान्॥
अनुवाद (हिन्दी)
बादल सदेह होकर मृदंग, डमरू, ढोल, नगारे, नरसिंगे, शंख, वेणु और वीणा बड़े जोरसे बजाने लगे॥ १३॥
श्लोक-१४
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततोऽभिषिषिचुर्देवीं श्रियं पद्मकरां सतीम्।
दिगिभाः पूर्णकलशैः सूक्तवाक्यैर्द्विजेरितैः॥
मूलम्
ततोऽभिषिषिचुर्देवीं श्रियं पद्मकरां सतीम्।
दिगिभाः पूर्णकलशैः सूक्तवाक्यैर्द्विजेरितैः॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब भगवती लक्ष्मीदेवी हाथमें कमल लेकर सिंहासनपर विराजमान हो गयीं। दिग्गजोंने जलसे भरे कलशोंसे उनको स्नान कराया। उस समय ब्राह्मणगण वेदमन्त्रोंका पाठ कर रहे थे॥ १४॥
श्लोक-१५
विश्वास-प्रस्तुतिः
समुद्रः पीतकौशेयवाससी समुपाहरत्।
वरुणः स्रजं वैजयन्तीं मधुना मत्तषट्पदाम्॥
मूलम्
समुद्रः पीतकौशेयवाससी समुपाहरत्।
वरुणः स्रजं वैजयन्तीं मधुना मत्तषट्पदाम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
समुद्रने पीले रेशमी वस्त्र उनको पहननेके लिये दिये। वरुणने ऐसी वैजयन्ती माला समर्पित की, जिसकी मधुमय सुगन्धसे भौंरे मतवाले हो रहे थे॥ १५॥
श्लोक-१६
विश्वास-प्रस्तुतिः
भूषणानि विचित्राणि विश्वकर्मा प्रजापतिः।
हारं सरस्वती पद्ममजो नागाश्च कुण्डले॥
मूलम्
भूषणानि विचित्राणि विश्वकर्मा प्रजापतिः।
हारं सरस्वती पद्ममजो नागाश्च कुण्डले॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रजापति विश्वकर्माने भाँति-भाँतिके गहने, सरस्वतीने मोतियोंका हार, ब्रह्माजीने कमल और नागोंने दो कुण्डल समर्पित किये॥ १६॥
श्लोक-१७
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः कृतस्वस्त्ययनोत्पलस्रजं
नदद्द्विरेफां परिगृह्य पाणिना।
चचाल वक्त्रं सुकपोलकुण्डलं
सव्रीडहासं दधती सुशोभनम्॥
मूलम्
ततः कृतस्वस्त्ययनोत्पलस्रजं
नदद्द्विरेफां परिगृह्य पाणिना।
चचाल वक्त्रं सुकपोलकुण्डलं
सव्रीडहासं दधती सुशोभनम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसके बाद लक्ष्मीजी ब्राह्मणोंके स्वस्त्ययन-पाठ कर चुकनेपर अपने हाथोंमें कमलकी माला लेकर उसे सर्वगुणसम्पन्न पुरुषके गलेमें डालने चलीं। मालाके आसपास उसकी सुगन्धसे मतवाले हुए भौंरे गुंजार कर रहे थे। उस समय लक्ष्मीजीके मुखकी शोभा अवर्णनीय हो रही थी। सुन्दर कपोलोंपर कुण्डल लटक रहे थे। लक्ष्मीजी कुछ लज्जाके साथ मन्द-मन्द मुसकरा रही थीं॥ १७॥
श्लोक-१८
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्तनद्वयं चातिकृशोदरी समं
निरन्तरं चन्दनकुङ्कुमोक्षितम्।
ततस्ततो नूपुरवल्गुशिञ्जितै-
र्विसर्पती हेमलतेव सा बभौ॥
मूलम्
स्तनद्वयं चातिकृशोदरी समं
निरन्तरं चन्दनकुङ्कुमोक्षितम्।
ततस्ततो नूपुरवल्गुशिञ्जितै-
र्विसर्पती हेमलतेव सा बभौ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनकी कमर बहुत पतली थी। दोनों स्तन बिल्कुल सटे हुए और सुन्दर थे। उनपर चन्दन और केसरका लेप किया हुआ था। जब वे इधर-उधर चलती थीं, तब उनके पायजेबसे बड़ी मधुर झनकार निकलती थी। ऐसा जान पड़ता था, मानो कोई सोनेकी लता इधर-उधर घूम-फिर रही है॥ १८॥
श्लोक-१९
विश्वास-प्रस्तुतिः
विलोकयन्ती निरवद्यमात्मनः
पदं ध्रुवं चाव्यभिचारिसद्गुणम्।
गन्धर्वयक्षासुरसिद्धचारण-
त्रैविष्टपेयादिषु नान्वविन्दत॥
मूलम्
विलोकयन्ती निरवद्यमात्मनः
पदं ध्रुवं चाव्यभिचारिसद्गुणम्।
गन्धर्वयक्षासुरसिद्धचारण-
त्रैविष्टपेयादिषु नान्वविन्दत॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे चाहती थीं कि मुझे कोई निर्दोष और समस्त उत्तम गुणोंसे नित्ययुक्त अविनाशी पुरुष मिले तो मैं उसे अपना आश्रय बनाऊँ, वरण करूँ। परन्तु गन्धर्व, यक्ष, असुर, सिद्ध, चारण, देवता आदिमें कोई भी वैसा पुरुष उन्हें न मिला॥ १९॥
श्लोक-२०
विश्वास-प्रस्तुतिः
नूनं तपो यस्य न मन्युनिर्जयो
ज्ञानं क्वचित् तच्च न सङ्गवर्जितम्।
कश्चिन्महांस्तस्य न कामनिर्जयः
स ईश्वरः किं परतो व्यपाश्रयः॥
मूलम्
नूनं तपो यस्य न मन्युनिर्जयो
ज्ञानं क्वचित् तच्च न सङ्गवर्जितम्।
कश्चिन्महांस्तस्य न कामनिर्जयः
स ईश्वरः किं परतो व्यपाश्रयः॥
अनुवाद (हिन्दी)
(वे मन-ही-मन सोचने लगीं कि) कोई तपस्वी तो हैं, परन्तु उन्होंने क्रोधपर विजय नहीं प्राप्त की है। किन्हींमें ज्ञान तो है, परन्तु वे पूरे अनासक्त नहीं हैं। कोई-कोई हैं तो बड़े महत्त्वशाली, परन्तु वे कामको नहीं जीत सके हैं। किन्हींमें ऐश्वर्य भी बहुत है; परन्तु वह ऐश्वर्य ही किस कामका, जब उन्हें दूसरोंका आश्रय लेना पड़ता है॥ २०॥
श्लोक-२१
विश्वास-प्रस्तुतिः
धर्मः क्वचित् तत्र न भूतसौहृदं
त्यागः क्वचित् तत्र न मुक्तिकारणम्।
वीर्यं न पुंसोऽस्त्यजवेगनिष्कृतं
न हि द्वितीयो गुणसङ्गवर्जितः॥
मूलम्
धर्मः क्वचित् तत्र न भूतसौहृदं
त्यागः क्वचित् तत्र न मुक्तिकारणम्।
वीर्यं न पुंसोऽस्त्यजवेगनिष्कृतं
न हि द्वितीयो गुणसङ्गवर्जितः॥
अनुवाद (हिन्दी)
किन्हींमें धर्माचरण तो है; परन्तु प्राणियोंके प्रति वे प्रेमका पूरा बर्ताव नहीं करते। त्याग तो है, परन्तु केवल त्याग ही तो मुक्तिका कारण नहीं है। किन्हीं-किन्हींमें वीरता तो अवश्य है, परन्तु वे भी कालके पंजेसे बाहर नहीं हैं। अवश्य ही कुछ महात्माओंमें विषयासक्ति नहीं है, परन्तु वे तो निरन्तर अद्वैत-समाधिमें ही तल्लीन रहते हैं॥ २१॥
श्लोक-२२
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्वचिच्चिरायुर्न हि शीलमङ्गलं
क्वचित् तदप्यस्ति न वेद्यमायुषः।
यत्रोभयं कुत्र च सोऽप्यमङ्गलः
सुमङ्गलः कश्च न काङ्क्षते हि माम्॥
मूलम्
क्वचिच्चिरायुर्न हि शीलमङ्गलं
क्वचित् तदप्यस्ति न वेद्यमायुषः।
यत्रोभयं कुत्र च सोऽप्यमङ्गलः
सुमङ्गलः कश्च न काङ्क्षते हि माम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
किसी-किसी ऋषिने आयु तो बहुत लंबी प्राप्त कर ली है, परन्तु उनका शील-मंगल भी मेरे योग्य नहीं है। किन्हींमें शील-मंगल भी है परन्तु उनकी आयुका कुछ ठिकाना नहीं। अवश्य ही किन्हींमें दोनों ही बातें हैं, परन्तु वे अमंगल-वेषमें रहते हैं। रहे एक भगवान् विष्णु—उनमें सभी मंगलमय गुण नित्य निवास करते हैं, परन्तु वे मुझे चाहते ही नहीं॥ २२॥
श्लोक-२३
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं विमृश्याव्यभिचारिसद्गुणै-
र्वरं निजैकाश्रयताऽगुणाश्रयम्।
वव्रे वरं सर्वगुणैरपेक्षितं
रमा मुकुन्दं निरपेक्षमीप्सितम्॥
मूलम्
एवं विमृश्याव्यभिचारिसद्गुणै-
र्वरं निजैकाश्रयताऽगुणाश्रयम्।
वव्रे वरं सर्वगुणैरपेक्षितं
रमा मुकुन्दं निरपेक्षमीप्सितम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार सोच-विचारकर अन्तमें श्रीलक्ष्मीजीने अपने चिर अभीष्ट भगवान्को ही वरके रूपमें चुना; क्योंकि उनमें समस्त सद्गुण नित्य निवास करते हैं। प्राकृत गुण उनका स्पर्श नहीं कर सकते और अणिमा आदि समस्त गुण उनको चाहा करते हैं; परन्तु वे किसीकी भी अपेक्षा नहीं रखते। वास्तवमें लक्ष्मीजीके एकमात्र आश्रय भगवान् ही हैं। इसीसे उन्होंने उन्हींको वरण किया॥ २३॥
श्लोक-२४
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्यांसदेश उशतीं नवकञ्जमालां
माद्यन्मधुव्रतवरूथगिरोपघुष्टाम्।
तस्थौ निधाय निकटे तदुरः स्वधाम
सव्रीडहासविकसन्नयनेन याता॥
मूलम्
तस्यांसदेश उशतीं नवकञ्जमालां
माद्यन्मधुव्रतवरूथगिरोपघुष्टाम्।
तस्थौ निधाय निकटे तदुरः स्वधाम
सव्रीडहासविकसन्नयनेन याता॥
अनुवाद (हिन्दी)
लक्ष्मीजीने भगवान्के गलेमें वह नवीन कमलोंकी सुन्दर माला पहना दी, जिसके चारों ओर झुंड-के-झुंड मतवाले मधुकर गुंजार कर रहे थे। इसके बाद लज्जापूर्ण मुसकान और प्रेमपूर्ण चितवनसे अपने निवासस्थान उनके वक्षःस्थलको देखती हुई वे उनके पास ही खड़ी हो गयीं॥ २४॥
श्लोक-२५
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्याः श्रियस्त्रिजगतो जनको जनन्या
वक्षोनिवासमकरोत् परमं विभूतेः।
श्रीः स्वाः प्रजाः सकरुणेन निरीक्षणेन
यत्र स्थितैधयत साधिपतींस्त्रिलोकान्॥
मूलम्
तस्याः श्रियस्त्रिजगतो जनको जनन्या
वक्षोनिवासमकरोत् परमं विभूतेः।
श्रीः स्वाः प्रजाः सकरुणेन निरीक्षणेन
यत्र स्थितैधयत साधिपतींस्त्रिलोकान्॥
अनुवाद (हिन्दी)
जगत्पिता भगवान्ने जगज्जननी, समस्त सम्पत्तियोंकी अधिष्ठातृदेवता श्रीलक्ष्मीजीको अपने वक्षःस्थलपर ही सर्वदा निवास करनेका स्थान दिया। लक्ष्मीजीने वहाँ विराजमान होकर अपनी करुणाभरी चितवनसे तीनों लोक, लोकपति और अपनी प्यारी प्रजाकी अभिवृद्धि की॥ २५॥
श्लोक-२६
विश्वास-प्रस्तुतिः
शङ्खतूर्यमृदङ्गानां वादित्राणां पृथुः स्वनः।
देवानुगानां सस्त्रीणां नृत्यतां गायतामभूत्॥
मूलम्
शङ्खतूर्यमृदङ्गानां वादित्राणां पृथुः स्वनः।
देवानुगानां सस्त्रीणां नृत्यतां गायतामभूत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय शंख, तुरही, मृदंग आदि बाजे बजने लगे। गन्धर्व अप्सराओंके साथ नाचने-गाने लगे। इससे बड़ा भारी शब्द होने लगा॥ २६॥
श्लोक-२७
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्रह्मरुद्राङ्गिरोमुख्याः सर्वे विश्वसृजो विभुम्।
ईडिरेऽवितथैर्मन्त्रैस्तल्लिङ्गैः पुष्पवर्षिणः॥
मूलम्
ब्रह्मरुद्राङ्गिरोमुख्याः सर्वे विश्वसृजो विभुम्।
ईडिरेऽवितथैर्मन्त्रैस्तल्लिङ्गैः पुष्पवर्षिणः॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्रह्मा, रुद्र, अंगिरा आदि सब प्रजापति पुष्पवर्षा करते हुए भगवान्के गुण, स्वरूप और लीला आदिके यथार्थ वर्णन करनेवाले मन्त्रोंसे उनकी स्तुति करने लगे॥ २७॥
श्लोक-२८
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रिया विलोकिता देवाः सप्रजापतयः प्रजाः।
शीलादिगुणसम्पन्ना लेभिरे निर्वृतिं पराम्॥
मूलम्
श्रिया विलोकिता देवाः सप्रजापतयः प्रजाः।
शीलादिगुणसम्पन्ना लेभिरे निर्वृतिं पराम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
देवता, प्रजापति और प्रजा—सभी लक्ष्मीजीकी कृपा दृष्टिसे शील आदि उत्तम गुणोंसे सम्पन्न होकर बहुत सुखी हो गये॥ २८॥
श्लोक-२९
विश्वास-प्रस्तुतिः
निःसत्त्वा लोलुपा राजन् निरुद्योगा गतत्रपाः।
यदा चोपेक्षिता लक्ष्म्या बभूवुर्दैत्यदानवाः॥
मूलम्
निःसत्त्वा लोलुपा राजन् निरुद्योगा गतत्रपाः।
यदा चोपेक्षिता लक्ष्म्या बभूवुर्दैत्यदानवाः॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! इधर जब लक्ष्मीजीने दैत्य और दानवोंकी उपेक्षा कर दी, तब वे लोग निर्बल, उद्योगरहित, निर्लज्ज और लोभी हो गये॥ २९॥
श्लोक-३०
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथासीद् वारुणी देवी कन्या कमललोचना।
असुरा जगृहुस्तां वै हरेरनुमतेन ते॥
मूलम्
अथासीद् वारुणी देवी कन्या कमललोचना।
असुरा जगृहुस्तां वै हरेरनुमतेन ते॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसके बाद समुद्रमन्थन करनेपर कमलनयनी कन्याके रूपमें वारुणीदेवी प्रकट हुईं। भगवान्की अनुमतिसे दैत्योंने उसे ले लिया॥ ३०॥
श्लोक-३१
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथोदधेर्मथ्यमानात् काश्यपैरमृतार्थिभिः।
उदतिष्ठन्महाराज पुरुषः परमाद्भुतः॥
मूलम्
अथोदधेर्मथ्यमानात् काश्यपैरमृतार्थिभिः।
उदतिष्ठन्महाराज पुरुषः परमाद्भुतः॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर महाराज! देवता और असुरोंने अमृतकी इच्छासे जब और भी समुद्रमन्थन किया, तब उसमेंसे एक अत्यन्त अलौकिक पुरुष प्रकट हुआ॥ ३१॥
श्लोक-३२
विश्वास-प्रस्तुतिः
दीर्घपीवरदोर्दण्डः कम्बुग्रीवोऽरुणेक्षणः।
श्यामलस्तरुणः स्रग्वी सर्वाभरणभूषितः॥
मूलम्
दीर्घपीवरदोर्दण्डः कम्बुग्रीवोऽरुणेक्षणः।
श्यामलस्तरुणः स्रग्वी सर्वाभरणभूषितः॥
श्लोक-३३
विश्वास-प्रस्तुतिः
पीतवासा महोरस्कः सुमृष्टमणिकुण्डलः।
स्निग्धकुञ्चितकेशान्तः सुभगः सिंहविक्रमः॥
मूलम्
पीतवासा महोरस्कः सुमृष्टमणिकुण्डलः।
स्निग्धकुञ्चितकेशान्तः सुभगः सिंहविक्रमः॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसकी भुजाएँ लंबी एवं मोटी थीं। उसका गला शङ्खके समान उतार-चढ़ाववाला था और आँखोंमें लालिमा थी। शरीरका रंग बड़ा सुन्दर साँवला-साँवला था। गलेमें माला, अंग-अंग सब प्रकारके आभूषणोंसे सुसज्जित, शरीरपर पीताम्बर, कानोंमें चमकीले मणियोंके कुण्डल, चौड़ी छाती, तरुण अवस्था, सिंहके समान पराक्रम, अनुपम सौन्दर्य, चिकने और घुँघराले बाल लहराते हुए उस पुरुषकी छबि बड़ी अनोखी थी॥ ३२-३३॥
श्लोक-३४
विश्वास-प्रस्तुतिः
अमृतापूर्णकलशं बिभ्रद् वलयभूषितः।
स वै भगवतः साक्षाद्विष्णोरंशांशसम्भवः॥
मूलम्
अमृतापूर्णकलशं बिभ्रद् वलयभूषितः।
स वै भगवतः साक्षाद्विष्णोरंशांशसम्भवः॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसके हाथोंमें कंगन और अमृतसे भरा हुआ कलश था। वह साक्षात् विष्णुभगवान्के अंशांश अवतार थे॥ ३४॥
श्लोक-३५
विश्वास-प्रस्तुतिः
धन्वन्तरिरिति ख्यात आयुर्वेददृगिज्यभाक्।
तमालोक्यासुराः सर्वे कलशं चामृताभृतम्॥
मूलम्
धन्वन्तरिरिति ख्यात आयुर्वेददृगिज्यभाक्।
तमालोक्यासुराः सर्वे कलशं चामृताभृतम्॥
श्लोक-३६
विश्वास-प्रस्तुतिः
लिप्सन्तः सर्ववस्तूनि कलशं तरसाहरन्।
नीयमानेऽसुरैस्तस्मिन् कलशेऽमृतभाजने॥
मूलम्
लिप्सन्तः सर्ववस्तूनि कलशं तरसाहरन्।
नीयमानेऽसुरैस्तस्मिन् कलशेऽमृतभाजने॥
श्लोक-३७
विश्वास-प्रस्तुतिः
विषण्णमनसो देवा हरिं शरणमाययुः।
इति तद्दैन्यमालोक्य भगवान् भृत्यकामकृत्।
मा खिद्यत मिथोऽर्थं वः साधयिष्ये स्वमायया॥
मूलम्
विषण्णमनसो देवा हरिं शरणमाययुः।
इति तद्दैन्यमालोक्य भगवान् भृत्यकामकृत्।
मा खिद्यत मिथोऽर्थं वः साधयिष्ये स्वमायया॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे ही आयुर्वेदके प्रवर्तक और यज्ञभोक्ता धन्वन्तरिके नामसे सुप्रसिद्ध हुए। जब दैत्योंकी दृष्टि उनपर तथा उनके हाथमें अमृतसे भरे हुए कलशपर पड़ी, तब उन्होंने शीघ्रतासे बलात् उस अमृतके कलशको छीन लिया। वे तो पहलेसे ही इस ताकमें थे कि किसी तरह समुद्रमन्थनसे निकली हुई सभी वस्तुएँ हमें मिल जायँ। जब असुर उस अमृतसे भरे कलशको छीन ले गये, तब देवताओंका मन विषादसे भर गया। अब वे भगवान्की शरणमें आये। उनकी दीन दशा देखकर भक्तवाञ्छाकल्पतरु भगवान्ने कहा—‘देवताओ! तुमलोग खेद मत करो। मैं अपनी मायासे उनमें आपसकी फूट डालकर अभी तुम्हारा काम बना देता हूँ’॥ ३५—३७॥
श्लोक-३८
विश्वास-प्रस्तुतिः
मिथः कलिरभूत्तेषां तदर्थे तर्षचेतसाम्।
अहं पूर्वमहं पूर्वं न त्वं न त्वमिति प्रभो॥
मूलम्
मिथः कलिरभूत्तेषां तदर्थे तर्षचेतसाम्।
अहं पूर्वमहं पूर्वं न त्वं न त्वमिति प्रभो॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! अमृतलोलुप दैत्योंमें उसके लिये आपसमें झगड़ा खड़ा हो गया। सभी कहने लगे ‘पहले मैं पीऊँगा, पहले मैं; तुम नहीं, तुम नहीं’॥ ३८॥
श्लोक-३९
विश्वास-प्रस्तुतिः
देवाः स्वं भागमर्हन्ति ये तुल्यायासहेतवः।
सत्रयाग इवैतस्मिन्नेष धर्मः सनातनः॥
मूलम्
देवाः स्वं भागमर्हन्ति ये तुल्यायासहेतवः।
सत्रयाग इवैतस्मिन्नेष धर्मः सनातनः॥
श्लोक-४०
विश्वास-प्रस्तुतिः
इति स्वान्प्रत्यषेधन्वै दैतेया जातमत्सराः।
दुर्बलाः प्रबलान् राजन् गृहीतकलशान् मुहुः॥
मूलम्
इति स्वान्प्रत्यषेधन्वै दैतेया जातमत्सराः।
दुर्बलाः प्रबलान् राजन् गृहीतकलशान् मुहुः॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनमें जो दुर्बल थे, वे उन बलवान् दैत्योंका विरोध करने लगे, जिन्होंने कलश छीनकर अपने हाथमें कर लिया था, वे ईर्ष्यावश धर्मकी दुहाई देकर उनको रोकने और बार-बार कहने लगे कि ‘भाई! देवताओंने भी हमारे बराबर ही परिश्रम किया है, उनको भी यज्ञभागके समान इसका भाग मिलना ही चाहिये। यही सनातनधर्म है’॥ ३९-४०॥
श्लोक-४१
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतस्मिन्नन्तरे विष्णुः सर्वोपायविदीश्वरः।
योषिद्रूपमनिर्देश्यं दधार परमाद्भुतम्॥
मूलम्
एतस्मिन्नन्तरे विष्णुः सर्वोपायविदीश्वरः।
योषिद्रूपमनिर्देश्यं दधार परमाद्भुतम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार इधर दैत्योंमें ‘तू-तू, मैं-मैं’ हो रही थी और उधर सभी उपाय जाननेवालोंके स्वामी चतुरशिरोमणि भगवान्ने अत्यन्त अद्भुत और अवर्णनीय स्त्रीका रूप धारण किया॥ ४१॥
श्लोक-४२
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रेक्षणीयोत्पलश्यामं सर्वावयवसुन्दरम्।
समानकर्णाभरणं सुकपोलोन्नसाननम्॥
मूलम्
प्रेक्षणीयोत्पलश्यामं सर्वावयवसुन्दरम्।
समानकर्णाभरणं सुकपोलोन्नसाननम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
शरीरका रंग नील कमलके समान श्याम एवं देखने ही योग्य था। अंग-प्रत्यंग बड़े ही आकर्षक थे। दोनों कान बराबर और कर्णफूलसे सुशोभित थे। सुन्दर कपोल, ऊँची नासिका और रमणीय मुख॥ ४२॥
श्लोक-४३
विश्वास-प्रस्तुतिः
नवयौवननिर्वृत्तस्तनभारकृशोदरम्।
मुखामोदानुरक्तालिझङ्कारोद्विग्नलोचनम्॥
मूलम्
नवयौवननिर्वृत्तस्तनभारकृशोदरम्।
मुखामोदानुरक्तालिझङ्कारोद्विग्नलोचनम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
नयी जवानीके कारण स्तन उभरे हुए थे और उन्हींके भारसे कमर पतली हो गयी थी। मुखसे निकलती हुई सुगन्धके प्रेमसे गुनगुनाते हुए भौंरे उसपर टूटे पड़ते थे, जिससे नेत्रोंमें कुछ घबराहटका भाव आ जाता था॥ ४३॥
श्लोक-४४
विश्वास-प्रस्तुतिः
बिभ्रत् स्वकेशभारेण मालामुत्फुल्लमल्लिकाम्।
सुग्रीवकण्ठाभरणं सुभुजाङ्गदभूषितम्॥
मूलम्
बिभ्रत् स्वकेशभारेण मालामुत्फुल्लमल्लिकाम्।
सुग्रीवकण्ठाभरणं सुभुजाङ्गदभूषितम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
अपने लंबे केशपाशोंमें उन्होंने खिले हुए बेलेके पुष्पोंकी माला गूँथ रखी थी। सुन्दर गलेमें कण्ठके आभूषण और सुन्दर भुजाओंमें बाजूबंद सुशोभित थे॥ ४४॥
श्लोक-४५
विश्वास-प्रस्तुतिः
विरजाम्बरसंवीतनितम्बद्वीपशोभया।
काञ्च्या प्रविलसद्वल्गुचलच्चरणनूपुरम्॥
मूलम्
विरजाम्बरसंवीतनितम्बद्वीपशोभया।
काञ्च्या प्रविलसद्वल्गुचलच्चरणनूपुरम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
इनके चरणोंके नूपुर मधुर ध्वनिसे रुनझुन-रुनझुन कर रहे थे और स्वच्छ साड़ीसे ढके नितम्बद्वीपपर शोभायमान करधनी अपनी अनूठी छटा छिटका रही थी॥ ४५॥
श्लोक-४६
विश्वास-प्रस्तुतिः
सव्रीडस्मितविक्षिप्तभ्रूविलासावलोकनैः।
दैत्ययूथपचेतःसु काममुद्दीपयन् मुहुः॥
मूलम्
सव्रीडस्मितविक्षिप्तभ्रूविलासावलोकनैः।
दैत्ययूथपचेतःसु काममुद्दीपयन् मुहुः॥
अनुवाद (हिन्दी)
अपनी सलज्ज मुसकान, नाचती हुई तिरछी भौंहें और विलासभरी चितवनसे मोहिनी-रूपधारी भगवान् दैत्यसेनापतियोंके चित्तमें बार-बार कामोद्दीपन करने लगे॥ ४६॥
अनुवाद (समाप्ति)
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायामष्टमस्कन्धे भगवन्मायोपलम्भनं नामाष्टमोऽध्यायः॥ ८॥