[सप्तमोऽध्यायः]
भागसूचना
समुद्रमन्थनका आरम्भ और भगवान् शंकरका विषपान
श्लोक-१
मूलम् (वचनम्)
श्रीशुक उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
ते नागराजमामन्त्र्य फलभागेन वासुकिम्।
परिवीय गिरौ तस्मिन् नेत्रमब्धिं मुदान्विताः॥
मूलम्
ते नागराजमामन्त्र्य फलभागेन वासुकिम्।
परिवीय गिरौ तस्मिन् नेत्रमब्धिं मुदान्विताः॥
श्लोक-२
विश्वास-प्रस्तुतिः
आरेभिरे सुसंयत्ता अमृतार्थं कुरूद्वह।
हरिः पुरस्ताज्जगृहे पूर्वं देवास्ततोऽभवन्॥
मूलम्
आरेभिरे सुसंयत्ता अमृतार्थं कुरूद्वह।
हरिः पुरस्ताज्जगृहे पूर्वं देवास्ततोऽभवन्॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! देवता और असुरोंने नागराज वासुकिको यह वचन देकर कि समुद्रमन्थनसे प्राप्त होनेवाले अमृतमें तुम्हारा भी हिस्सा रहेगा, उन्हें भी सम्मिलित कर लिया। इसके बाद उन लोगोंने वासुकि नागको नेतीके समान मन्दराचलमें लपेटकर भलीभाँति उद्यत हो बड़े उत्साह और आनन्दसे अमृतके लिये समुद्रमन्थन प्रारम्भ किया। उस समय पहले-पहल अजित भगवान् वासुकिके मुखकी ओर लग गये, इसलिये देवता भी उधर ही आ जुटे॥ १-२॥
श्लोक-३
विश्वास-प्रस्तुतिः
तन्नैच्छन् दैत्यपतयो महापुरुषचेष्टितम्।
न गृह्णीमो वयं पुच्छमहेरङ्गममङ्गलम्॥
मूलम्
तन्नैच्छन् दैत्यपतयो महापुरुषचेष्टितम्।
न गृह्णीमो वयं पुच्छमहेरङ्गममङ्गलम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
परन्तु भगवान्की यह चेष्टा दैत्यसेनापतियोंको पसंद न आयी। उन्होंने कहा कि ‘पूँछ तो साँपका अशुभ अंग है, हम उसे नहीं पकड़ेंगे॥ ३॥
श्लोक-४
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वाध्यायश्रुतसम्पन्नाः प्रख्याता जन्मकर्मभिः।
इति तूष्णीं स्थितान् दैत्यान् विलोक्य पुरुषोत्तमः।
स्मयमानो विसृज्याग्रं पुच्छं जग्राह सामरः॥
मूलम्
स्वाध्यायश्रुतसम्पन्नाः प्रख्याता जन्मकर्मभिः।
इति तूष्णीं स्थितान् दैत्यान् विलोक्य पुरुषोत्तमः।
स्मयमानो विसृज्याग्रं पुच्छं जग्राह सामरः॥
अनुवाद (हिन्दी)
हमने वेद-शास्त्रोंका विधिपूर्वक अध्ययन किया है, ऊँचे वंशमें हमारा जन्म हुआ है और वीरताके बड़े-बड़े काम हमने किये हैं। हम देवताओंसे किस बातमें कम हैं?’ यह कहकर वे लोग चुपचाप एक ओर खड़े हो गये। उनकी यह मनोवृत्ति देखकर भगवान्ने मुसकराकर वासुकिका मुँह छोड़ दिया और देवताओंके साथ उन्होंने पूँछ पकड़ ली॥ ४॥
श्लोक-५
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृतस्थानविभागास्त एवं कश्यपनन्दनाः।
ममन्थुः परमायत्ता अमृतार्थं पयोनिधिम्॥
मूलम्
कृतस्थानविभागास्त एवं कश्यपनन्दनाः।
ममन्थुः परमायत्ता अमृतार्थं पयोनिधिम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार अपना-अपना स्थान निश्चित करके देवता और असुर अमृतप्राप्तिके लिये पूरी तैयारीसे समुद्रमन्थन करने लगे॥ ५॥
श्लोक-६
विश्वास-प्रस्तुतिः
मथ्यमानेऽर्णवे सोऽद्रिरनाधारो ह्यपोऽविशत्।
ध्रियमाणोऽपि बलिभिर्गौरवात् पाण्डुनन्दन॥
मूलम्
मथ्यमानेऽर्णवे सोऽद्रिरनाधारो ह्यपोऽविशत्।
ध्रियमाणोऽपि बलिभिर्गौरवात् पाण्डुनन्दन॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! जब समुद्रमन्थन होने लगा, तब बड़े-बड़े बलवान् देवता और असुरोंके पकड़े रहनेपर भी अपने भारकी अधिकता और नीचे कोई आधार न होनेके कारण मन्दराचल समुद्रमें डूबने लगा॥ ६॥
श्लोक-७
विश्वास-प्रस्तुतिः
ते सुनिर्विण्णमनसः परिम्लानमुखश्रियः।
आसन् स्वपौरुषे नष्टे दैवेनातिबलीयसा॥
मूलम्
ते सुनिर्विण्णमनसः परिम्लानमुखश्रियः।
आसन् स्वपौरुषे नष्टे दैवेनातिबलीयसा॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार अत्यन्त बलवान् दैवके द्वारा अपना सब किया-कराया मिट्टीमें मिलते देख उनका मन टूट गया। सबके मुँहपर उदासी छा गयी॥ ७॥
श्लोक-८
विश्वास-प्रस्तुतिः
विलोक्य विघ्नेशविधिं तदेश्वरो
दुरन्तवीर्योऽवितथाभिसन्धिः।
कृत्वा वपुः काच्छपमद्भुतं महत्
प्रविश्य तोयं गिरिमुज्जहार॥
मूलम्
विलोक्य विघ्नेशविधिं तदेश्वरो
दुरन्तवीर्योऽवितथाभिसन्धिः।
कृत्वा वपुः काच्छपमद्भुतं महत्
प्रविश्य तोयं गिरिमुज्जहार॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय भगवान्ने देखा कि यह तो विघ्नराजकी करतूत है। इसलिये उन्होंने उसके निवारणका उपाय सोचकर अत्यन्त विशाल एवं विचित्र कच्छपका रूप धारण किया और समुद्रके जलमें प्रवेश करके मन्दराचलको ऊपर उठा दिया। भगवान्की शक्ति अनन्त है। वे सत्यसंकल्प हैं। उनके लिये यह कौन-सी बड़ी बात थी॥ ८॥
श्लोक-९
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमुत्थितं वीक्ष्य कुलाचलं पुनः
समुत्थिता निर्मथितुं सुरासुराः।
दधार पृष्ठेन स लक्षयोजन-
प्रस्तारिणा द्वीप इवापरो महान्॥
मूलम्
तमुत्थितं वीक्ष्य कुलाचलं पुनः
समुत्थिता निर्मथितुं सुरासुराः।
दधार पृष्ठेन स लक्षयोजन-
प्रस्तारिणा द्वीप इवापरो महान्॥
अनुवाद (हिन्दी)
देवता और असुरोंने देखा कि मन्दराचल तो ऊपर उठ आया है, तब वे फिरसे समुद्र-मन्थनके लिये उठ खड़े हुए। उस समय भगवान्ने जम्बूद्वीपके समान एक लाख योजन फैली हुई अपनी पीठपर मन्दराचलको धारण कर रखा था॥ ९॥
श्लोक-१०
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुरासुरेन्द्रैर्भुजवीर्यवेपितं
परिभ्रमन्तं गिरिमङ्ग पृष्ठतः।
बिभ्रत् तदावर्तनमादिकच्छपो
मेनेऽङ्गकण्डूयनमप्रमेयः॥
मूलम्
सुरासुरेन्द्रैर्भुजवीर्यवेपितं
परिभ्रमन्तं गिरिमङ्ग पृष्ठतः।
बिभ्रत् तदावर्तनमादिकच्छपो
मेनेऽङ्गकण्डूयनमप्रमेयः॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! जब बड़े-बड़े देवता और असुरोंने अपने बाहुबलसे मन्दराचलको प्रेरित किया, तब वह भगवान्की पीठपर घूमने लगा। अनन्त शक्तिशाली आदिकच्छप भगवान्को उस पर्वतका चक्कर लगाना ऐसा जान पड़ता था, मानो कोई उनकी पीठ खुजला रहा हो॥ १०॥
श्लोक-११
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथासुरानाविशदासुरेण
रूपेण तेषां बलवीर्यमीरयन्।
उद्दीपयन् देवगणांश्च विष्णु-
र्दैवेन नागेन्द्रमबोधरूपः॥
मूलम्
तथासुरानाविशदासुरेण
रूपेण तेषां बलवीर्यमीरयन्।
उद्दीपयन् देवगणांश्च विष्णु-
र्दैवेन नागेन्द्रमबोधरूपः॥
अनुवाद (हिन्दी)
साथ ही समुद्रमन्थन सम्पन्न करनेके लिये भगवान्ने असुरोंमें उनकी शक्ति और बलको बढ़ाते हुए असुररूपसे प्रवेश किया। वैसे ही उन्होंने देवताओंको उत्साहित करते हुए उनमें देवरूपसे प्रवेश किया और वासुकिनागमें निद्राके रूपसे॥ ११॥
श्लोक-१२
विश्वास-प्रस्तुतिः
उपर्यगेन्द्रं गिरिराडिवान्य
आक्रम्य हस्तेन सहस्रबाहुः।
तस्थौ दिवि ब्रह्मभवेन्द्रमुख्यै-
रभिष्टुवद्भिः सुमनोऽभिवृष्टः॥
मूलम्
उपर्यगेन्द्रं गिरिराडिवान्य
आक्रम्य हस्तेन सहस्रबाहुः।
तस्थौ दिवि ब्रह्मभवेन्द्रमुख्यै-
रभिष्टुवद्भिः सुमनोऽभिवृष्टः॥
अनुवाद (हिन्दी)
इधर पर्वतके ऊपर दूसरे पर्वतके समान बनकर सहस्रबाहु भगवान् अपने हाथोंसे उसे दबाकर स्थित हो गये। उस समय आकाशमें ब्रह्मा, शंकर, इन्द्र आदि उनकी स्तुति और उनके ऊपर पुष्पोंकी वर्षा करने लगे॥ १२॥
श्लोक-१३
विश्वास-प्रस्तुतिः
उपर्यधश्चात्मनि गोत्रनेत्रयोः
परेण ते प्राविशता समेधिताः।
ममन्थुरब्धिं तरसा मदोत्कटा
महाद्रिणा क्षोभितनक्रचक्रम्॥
मूलम्
उपर्यधश्चात्मनि गोत्रनेत्रयोः
परेण ते प्राविशता समेधिताः।
ममन्थुरब्धिं तरसा मदोत्कटा
महाद्रिणा क्षोभितनक्रचक्रम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार भगवान्ने पर्वतके ऊपर उसको दबा रखनेवालेके रूपमें, नीचे उसके आधार कच्छपके रूपमें, देवता और असुरोंके शरीरमें उनकी शक्तिके रूपमें, पर्वतमें दृढ़ताके रूपमें और नेती बने हुए वासुकिनागमें निद्राके रूपमें—जिससे उसे कष्ट न हो—प्रवेश करके सब ओरसे सबको शक्तिसम्पन्न कर दिया। अब वे अपने बलके मदसे उन्मत्त होकर मन्दराचलके द्वारा बड़े वेगसे समुद्रमन्थन करने लगे। उस समय समुद्र और उसमें रहनेवाले मगर, मछली आदि जीव क्षुब्ध हो गये॥ १३॥
श्लोक-१४
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहीन्द्रसाहस्रकठोरदृङ्मुख-
श्वासाग्निधूमाहतवर्चसोऽसुराः।
पौलोमकालेयबलील्वलादयो
दावाग्निदग्धाः सरला इवाभवन्॥
मूलम्
अहीन्द्रसाहस्रकठोरदृङ्मुख-
श्वासाग्निधूमाहतवर्चसोऽसुराः।
पौलोमकालेयबलील्वलादयो
दावाग्निदग्धाः सरला इवाभवन्॥
अनुवाद (हिन्दी)
नागराज वासुकिके हजारों कठोर नेत्र, मुख और श्वासोंसे विषकी आग निकलने लगी। उनके धूएँसे पौलोम, कालेय, बलि, इल्वल आदि असुर निस्तेज हो गये। उस समय वे ऐसे जान पड़ते थे, मानो दावानलसे झुलसे हुए साखूके पेड़ खड़े हों॥ १४॥
श्लोक-१५
विश्वास-प्रस्तुतिः
देवांश्च तच्छ्वासशिखाहतप्रभान्
धूम्राम्बरस्रग्वरकञ्चुकाननान्।
समभ्यवर्षन् भगवद्वशा घना
ववुः समुद्रोर्म्युपगूढवायवः॥
मूलम्
देवांश्च तच्छ्वासशिखाहतप्रभान्
धूम्राम्बरस्रग्वरकञ्चुकाननान्।
समभ्यवर्षन् भगवद्वशा घना
ववुः समुद्रोर्म्युपगूढवायवः॥
अनुवाद (हिन्दी)
देवता भी उससे न बच सके। वासुकिके श्वासकी लपटोंसे उनका भी तेज फीका पड़ गया। वस्त्र, माला, कवच एवं मुख धूमिल हो गये। उनकी यह दशा देखकर भगवान्की प्रेरणासे बादल देवताओंके ऊपर वर्षा करने लगे एवं वायु समुद्रकी तरंगोंका स्पर्श करके शीतलता और सुगन्धिका संचार करने लगी॥ १५॥
श्लोक-१६
विश्वास-प्रस्तुतिः
मथ्यमानात् तथा सिन्धोर्देवासुरवरूथपैः।
यदा सुधा न जायेत निर्ममन्थाजितः स्वयम्॥
मूलम्
मथ्यमानात् तथा सिन्धोर्देवासुरवरूथपैः।
यदा सुधा न जायेत निर्ममन्थाजितः स्वयम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार देवता और असुरोंके समुद्रमन्थन करनेपर भी जब अमृत न निकला, तब स्वयं अजितभगवान् समुद्रमन्थन करने लगे॥ १६॥
श्लोक-१७
विश्वास-प्रस्तुतिः
मेघश्यामः कनकपरिधिः
कर्णविद्योतविद्यु-
न्मूर्ध्नि भ्राजद्विलुलितकचः
स्रग्धरो रक्तनेत्रः।
जैत्रैर्दोर्भिर्जगदभयदै-
र्दन्दशूकं गृहीत्वा
मथ्नन् मथ्ना प्रतिगिरिरिवा-
शोभताथोद्धृताद्रिः॥
मूलम्
मेघश्यामः कनकपरिधिः
कर्णविद्योतविद्यु-
न्मूर्ध्नि भ्राजद्विलुलितकचः
स्रग्धरो रक्तनेत्रः।
जैत्रैर्दोर्भिर्जगदभयदै-
र्दन्दशूकं गृहीत्वा
मथ्नन् मथ्ना प्रतिगिरिरिवा-
शोभताथोद्धृताद्रिः॥
अनुवाद (हिन्दी)
मेघके समान साँवले शरीरपर सुनहला पीताम्बर, कानोंमें बिजलीके समान चमकते हुए कुण्डल, सिरपर लहराते हुए घुँघराले बाल, नेत्रोंमें लाल-लाल रेखाएँ और गलेमें वनमाला सुशोभित हो रही थी। सम्पूर्ण जगत्को अभयदान करनेवाले अपने विश्वविजयी भुजदण्डोंसे वासुकिनागको पकड़कर तथा कूर्मरूपसे पर्वतको धारणकर जब भगवान् मन्दराचलकी मथानीसे समुद्रमन्थन करने लगे, उस समय वे दूसरे पर्वतराजके समान बड़े ही सुन्दर लग रहे थे॥ १७॥
श्लोक-१८
विश्वास-प्रस्तुतिः
निर्मथ्यमानादुदधेरभूद्विषं
महोल्बणं हालहलाह्वमग्रतः।
सम्भ्रान्तमीनोन्मकराहिकच्छपात्
तिमिद्विपग्राहतिमिङ्गिलाकुलात्॥
मूलम्
निर्मथ्यमानादुदधेरभूद्विषं
महोल्बणं हालहलाह्वमग्रतः।
सम्भ्रान्तमीनोन्मकराहिकच्छपात्
तिमिद्विपग्राहतिमिङ्गिलाकुलात्॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब अजितभगवान्ने इस प्रकार समुद्र मन्थन किया, तब समुद्रमें बड़ी खलबली मच गयी। मछली, मगर, साँप और कछुए भयभीत होकर ऊपर आ गये और इधर-उधर भागने लगे। तिमि-तिमिंगिल आदिमच्छ, समुद्री हाथी और ग्राह व्याकुल हो गये। उसी समय पहले-पहल हालाहल नामका अत्यन्त उग्र विष निकला॥ १८॥
श्लोक-१९
विश्वास-प्रस्तुतिः
तदुग्रवेगं दिशि दिश्युपर्यधो
विसर्पदुत्सर्पदसह्यमप्रति।
भीताः प्रजा दुद्रुवुरङ्ग सेश्वरा
अरक्ष्यमाणाः शरणं सदाशिवम्॥
मूलम्
तदुग्रवेगं दिशि दिश्युपर्यधो
विसर्पदुत्सर्पदसह्यमप्रति।
भीताः प्रजा दुद्रुवुरङ्ग सेश्वरा
अरक्ष्यमाणाः शरणं सदाशिवम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह अत्यन्त उग्र विष दिशा-विदिशामें, ऊपर-नीचे सर्वत्र उड़ने और फैलने लगा। इस असह्य विषसे बचनेका कोई उपाय भी तो न था। भयभीत होकर सम्पूर्ण प्रजा और प्रजापति किसीके द्वारा त्राण न मिलनेपर भगवान् सदाशिवकी शरणमें गये॥ १९॥
श्लोक-२०
विश्वास-प्रस्तुतिः
विलोक्य तं देववरं त्रिलोक्या
भवाय देव्याभिमतं मुनीनाम्।
आसीनमद्रावपवर्गहेतो-
स्तपो जुषाणं स्तुतिभिः प्रणेमुः॥
मूलम्
विलोक्य तं देववरं त्रिलोक्या
भवाय देव्याभिमतं मुनीनाम्।
आसीनमद्रावपवर्गहेतो-
स्तपो जुषाणं स्तुतिभिः प्रणेमुः॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् शंकर सतीजीके साथ कैलास पर्वतपर विराजमान थे। बड़े-बड़े ऋषि-मुनि उनकी सेवा कर रहे थे। वे वहाँ तीनों लोकोंके अभ्युदय और मोक्षके लिये तपस्या कर रहे थे। प्रजापतियोंने उनका दर्शन करके उनकी स्तुति करते हुए उन्हें प्रणाम किया॥ २०॥
श्लोक-२१
मूलम् (वचनम्)
प्रजापतय ऊचुः
विश्वास-प्रस्तुतिः
देवदेव महादेव भूतात्मन् भूतभावन।
त्राहि नः शरणापन्नांस्त्रैलोक्यदहनाद् विषात्॥
मूलम्
देवदेव महादेव भूतात्मन् भूतभावन।
त्राहि नः शरणापन्नांस्त्रैलोक्यदहनाद् विषात्॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रजापतियोंने भगवान् शंकरकी स्तुति की—देवताओंके आराध्यदेव महादेव! आप समस्त प्राणियोंके आत्मा और उनके जीवनदाता हैं। हमलोग आपकी शरणमें आये हैं। त्रिलोकीको भस्म करनेवाले इस उग्र विषसे आप हमारी रक्षा कीजिये॥ २१॥
श्लोक-२२
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वमेकः सर्वजगत ईश्वरो बन्धमोक्षयोः।
तं त्वामर्चन्ति कुशलाः प्रपन्नार्तिहरं गुरुम्॥
मूलम्
त्वमेकः सर्वजगत ईश्वरो बन्धमोक्षयोः।
तं त्वामर्चन्ति कुशलाः प्रपन्नार्तिहरं गुरुम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
सारे जगत्को बाँधने और मुक्त करनेमें एकमात्र आप ही समर्थ हैं। इसलिये विवेकी पुरुष आपकी ही आराधना करते हैं। क्योंकि आप शरणागतकी पीड़ा नष्ट करनेवाले एवं जगद्गुरु हैं॥ २२॥
श्लोक-२३
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुणमय्या स्वशक्त्यास्य सर्गस्थित्यप्ययान्विभो।
धत्से यदा स्वदृग् भूमन् ब्रह्मविष्णुशिवाभिधाम्॥
मूलम्
गुणमय्या स्वशक्त्यास्य सर्गस्थित्यप्ययान्विभो।
धत्से यदा स्वदृग् भूमन् ब्रह्मविष्णुशिवाभिधाम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रभो! अपनी गुणमयी शक्तिसे इस जगत्की सृष्टि, स्थिति और प्रलय करनेके लिये आप अनन्त, एकरस होनेपर भी ब्रह्मा, विष्णु, शिव आदि नाम धारण कर लेते हैं॥ २३॥
श्लोक-२४
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वं ब्रह्म परमं गुह्यं सदसद्भावभावनः।
नानाशक्तिभिराभातस्त्वमात्मा जगदीश्वरः॥
मूलम्
त्वं ब्रह्म परमं गुह्यं सदसद्भावभावनः।
नानाशक्तिभिराभातस्त्वमात्मा जगदीश्वरः॥
अनुवाद (हिन्दी)
आप स्वयंप्रकाश हैं। इसका कारण यह है कि आप परम रहस्यमय ब्रह्मतत्त्व हैं। जितने भी देवता, मनुष्य, पशु, पक्षी आदि सत् अथवा असत् चराचर प्राणी हैं—उनको जीवनदान देनेवाले आप ही हैं। आपके अतिरिक्त सृष्टि भी और कुछ नहीं है। क्योंकि आप आत्मा हैं। अनेक शक्तियोंके द्वारा आप ही जगत् रूपमें भी प्रतीत हो रहे हैं। क्योंकि आप ईश्वर हैं, सर्वसमर्थ हैं॥ २४॥
श्लोक-२५
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वं शब्दयोनिर्जगदादिरात्मा
प्राणेन्द्रियद्रव्यगुणस्वभावः।
कालः क्रतुः सत्यमृतं च धर्म-
स्त्वय्यक्षरं यत् त्रिवृदामनन्ति॥
मूलम्
त्वं शब्दयोनिर्जगदादिरात्मा
प्राणेन्द्रियद्रव्यगुणस्वभावः।
कालः क्रतुः सत्यमृतं च धर्म-
स्त्वय्यक्षरं यत् त्रिवृदामनन्ति॥
अनुवाद (हिन्दी)
समस्त वेद आपसे ही प्रकट हुए हैं। इसलिये आप समस्त ज्ञानोंके मूल स्रोत स्वतःसिद्ध ज्ञान हैं। आप ही जगत्के आदिकारण महत्तत्त्व और त्रिविध अहंकार हैं एवं आप ही प्राण, इन्द्रिय, पंचमहाभूत तथा शब्दादि विषयोंके भिन्न-भिन्न स्वभाव और उनके मूल कारण हैं। आप स्वयं ही प्राणियोंकी वृद्धि और ह्रास करनेवाले काल हैं, उनका कल्याण करनेवाले यज्ञ हैं एवं सत्य और मधुर वाणी हैं। धर्म भी आपका ही स्वरूप है। आप ही ‘अ, उ, म्’ इन तीनों अक्षरोंसे युक्त प्रणव हैं अथवा त्रिगुणात्मिका प्रकृति हैं—ऐसा वेदवादी महात्मा कहते हैं॥ २५॥
श्लोक-२६
विश्वास-प्रस्तुतिः
अग्निर्मुखं तेऽखिलदेवतात्मा
क्षितिं विदुर्लोकभवाङ्घ्रिपङ्कजम्।
कालं गतिं तेऽखिलदेवतात्मनो
दिशश्च कर्णौ रसनं जलेशम्॥
मूलम्
अग्निर्मुखं तेऽखिलदेवतात्मा
क्षितिं विदुर्लोकभवाङ्घ्रिपङ्कजम्।
कालं गतिं तेऽखिलदेवतात्मनो
दिशश्च कर्णौ रसनं जलेशम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
सर्वदेवस्वरूप अग्नि आपका मुख है। तीनों लोकोंके अभ्युदय करनेवाले शंकर! यह पृथ्वी आपका चरणकमल है। आप अखिल देवस्वरूप हैं। यह काल आपकी गति है, दिशाएँ कान हैं और वरुण रसनेन्द्रिय है॥ २६॥
श्लोक-२७
विश्वास-प्रस्तुतिः
नाभिर्नभस्ते श्वसनं नभस्वान्
सूर्यश्च चक्षूंषि जलं स्म रेतः।
परावरात्माश्रयणं तवात्मा
सोमो मनो द्यौर्भगवञ्छिरस्ते॥
मूलम्
नाभिर्नभस्ते श्वसनं नभस्वान्
सूर्यश्च चक्षूंषि जलं स्म रेतः।
परावरात्माश्रयणं तवात्मा
सोमो मनो द्यौर्भगवञ्छिरस्ते॥
अनुवाद (हिन्दी)
आकाश नाभि है, वायु श्वास है, सूर्य नेत्र हैं और जल वीर्य है। आपका अहंकार नीचे-ऊँचे सभी जीवोंका आश्रय है। चन्द्रमा मन है और प्रभो! स्वर्ग आपका सिर है॥ २७॥
श्लोक-२८
विश्वास-प्रस्तुतिः
कुक्षिः समुद्रा गिरयोऽस्थिसङ्घा
रोमाणि सर्वौषधिवीरुधस्ते।
छन्दांसि साक्षात् तव सप्त धातव-
स्त्रयीमयात्मन् हृदयं सर्वधर्मः॥
मूलम्
कुक्षिः समुद्रा गिरयोऽस्थिसङ्घा
रोमाणि सर्वौषधिवीरुधस्ते।
छन्दांसि साक्षात् तव सप्त धातव-
स्त्रयीमयात्मन् हृदयं सर्वधर्मः॥
अनुवाद (हिन्दी)
वेदस्वरूप भगवन्! समुद्र आपकी कोख हैं। पर्वत हड्डियाँ हैं। सब प्रकारकी ओषधियाँ और घास आपके रोम हैं। गायत्री आदि छन्द आपकी सातों धातुएँ हैं और सभी प्रकारके धर्म आपके हृदय हैं॥ २८॥
श्लोक-२९
विश्वास-प्रस्तुतिः
मुखानि पञ्चोपनिषदस्तवेश
यैस्त्रिंशदष्टोत्तरमन्त्रवर्गः।
यत् तच्छिवाख्यं परमार्थतत्त्वं
देव स्वयंज्योतिरवस्थितिस्ते॥
मूलम्
मुखानि पञ्चोपनिषदस्तवेश
यैस्त्रिंशदष्टोत्तरमन्त्रवर्गः।
यत् तच्छिवाख्यं परमार्थतत्त्वं
देव स्वयंज्योतिरवस्थितिस्ते॥
अनुवाद (हिन्दी)
स्वामिन्! सद्योजातादि पाँच उपनिषद् ही आपके तत्पुरुष, अघोर, सद्योजात, वामदेव और ईशान नामक पाँच मुख हैं। उन्हींके पदच्छेदसे अड़तीस कलात्मक मन्त्र निकले हैं। आप जब समस्त प्रपंचसे उपरत होकर अपने स्वरूपमें स्थित हो जाते हैं, तब उसी स्थितिका नाम होता है ‘शिव’। वास्तवमें वही स्वयंप्रकाश परमार्थतत्त्व है॥ २९॥
श्लोक-३०
विश्वास-प्रस्तुतिः
छाया त्वधर्मोर्मिषु यैर्विसर्गो
नेत्रत्रयं सत्त्वरजस्तमांसि।
सांख्यात्मनः शास्त्रकृतस्तवेक्षा
छन्दोमयो देव ऋषिः पुराणः॥
मूलम्
छाया त्वधर्मोर्मिषु यैर्विसर्गो
नेत्रत्रयं सत्त्वरजस्तमांसि।
सांख्यात्मनः शास्त्रकृतस्तवेक्षा
छन्दोमयो देव ऋषिः पुराणः॥
अनुवाद (हिन्दी)
अधर्मकी दम्भ-लोभ आदि तरंगोंमें आपकी छाया है जिनसे विविध प्रकारकी सृष्टि होती है, वे सत्त्व, रज और तम—आपके तीन नेत्र हैं। प्रभो! गायत्री आदि छन्दरूप सनातन वेद ही आपका विचार है। क्योंकि आप ही सांख्य आदि समस्त शास्त्रोंके रूपमें स्थित हैं और उनके कर्ता भी हैं॥ ३०॥
श्लोक-३१
विश्वास-प्रस्तुतिः
न ते गिरित्राखिललोकपाल-
विरिञ्चवैकुण्ठसुरेन्द्रगम्यम्।
ज्योतिः परं यत्र रजस्तमश्च
सत्त्वं न यद् ब्रह्म निरस्तभेदम्॥
मूलम्
न ते गिरित्राखिललोकपाल-
विरिञ्चवैकुण्ठसुरेन्द्रगम्यम्।
ज्योतिः परं यत्र रजस्तमश्च
सत्त्वं न यद् ब्रह्म निरस्तभेदम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवन्! आपका परम ज्योतिर्मय स्वरूप स्वयं ब्रह्म है। उसमें न तो रजोगुण, तमोगुण एवं सत्त्वगुण हैं और न किसी प्रकारका भेदभाव ही। आपके उस स्वरूपको सारे लोकपाल—यहाँतक कि ब्रह्मा, विष्णु और देवराज इन्द्र भी नहीं जान सकते॥ ३१॥
श्लोक-३२
विश्वास-प्रस्तुतिः
कामाध्वरत्रिपुरकालगराद्यनेक-
भूतद्रुहः क्षपयतः स्तुतये न तत् ते।
यस्त्वन्तकाल इदमात्मकृतं स्वनेत्र-
वह्निस्फुलिङ्गशिखया भसितं न वेद॥
मूलम्
कामाध्वरत्रिपुरकालगराद्यनेक-
भूतद्रुहः क्षपयतः स्तुतये न तत् ते।
यस्त्वन्तकाल इदमात्मकृतं स्वनेत्र-
वह्निस्फुलिङ्गशिखया भसितं न वेद॥
अनुवाद (हिन्दी)
आपने कामदेव, दक्षके यज्ञ, त्रिपुरासुर और कालकूट विष (जिसको आप अभी-अभी अवश्य पी जायँगे) और अनेक जीवद्रोही असुरोंको नष्ट कर दिया है। परन्तु यह कहनेसे आपकी कोई स्तुति नहीं होती। क्योंकि प्रलयके समय आपका बनाया हुआ यह विश्व आपके ही नेत्रसे निकली हुई आगकी चिनगारी एवं लपटसे जलकर भस्म हो जाता है और आप इस प्रकार ध्यानमग्न रहते हैं कि आपको इसका पता ही नहीं चलता॥ ३२॥
श्लोक-३३
विश्वास-प्रस्तुतिः
ये त्वात्मरामगुरुभिर्हृदि चिन्तिताङ्घ्रि-
द्वन्द्वं चरन्तमुमया तपसाभितप्तम्।
कत्थन्त उग्रपरुषं निरतं श्मशाने
ते नूनमूतिमविदंस्तव हातलज्जाः॥
मूलम्
ये त्वात्मरामगुरुभिर्हृदि चिन्तिताङ्घ्रि-
द्वन्द्वं चरन्तमुमया तपसाभितप्तम्।
कत्थन्त उग्रपरुषं निरतं श्मशाने
ते नूनमूतिमविदंस्तव हातलज्जाः॥
अनुवाद (हिन्दी)
जीवन्मुक्त आत्माराम पुरुष अपने हृदयमें आपके युगल चरणोंका ध्यान करते रहते हैं तथा आप स्वयं भी निरन्तर ज्ञान और तपस्यामें ही लीन रहते हैं। फिर भी सतीके साथ रहते देखकर जो आपको आसक्त एवं श्मशानवासी होनेके कारण उग्र अथवा निष्ठुर बतलाते हैं—वे मूर्ख आपकी लीलाओंका रहस्य भला क्या जानें। उनका वैसा कहना निर्लज्जतासे भरा है॥ ३३॥
श्लोक-३४
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत् तस्य ते सदसतोः परतः परस्य
नाञ्जःस्वरूपगमने प्रभवन्ति भूम्नः।
ब्रह्मादयः किमुत संस्तवने वयं तु
तत्सर्गसर्गविषया अपि शक्तिमात्रम्॥
मूलम्
तत् तस्य ते सदसतोः परतः परस्य
नाञ्जःस्वरूपगमने प्रभवन्ति भूम्नः।
ब्रह्मादयः किमुत संस्तवने वयं तु
तत्सर्गसर्गविषया अपि शक्तिमात्रम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस कार्य और कारणरूप जगत्से परे माया है और मायासे भी अत्यन्त परे आप हैं। इसलिये प्रभो! आपके अनन्त स्वरूपका साक्षात् ज्ञान प्राप्त करनेमें सहसा ब्रह्मा आदि भी समर्थ नहीं होते, फिर स्तुति तो कर ही कैसे सकते हैं। ऐसी अवस्थामें उनके पुत्रोंके पुत्र हमलोग कह ही क्या सकते हैं। फिर भी अपनी शक्तिके अनुसार हमने आपका कुछ गुणगान किया है॥ ३४॥
श्लोक-३५
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतत् परं प्रपश्यामो न परं ते महेश्वर।
मृडनाय हि लोकस्य व्यक्तिस्तेऽव्यक्तकर्मणः॥
मूलम्
एतत् परं प्रपश्यामो न परं ते महेश्वर।
मृडनाय हि लोकस्य व्यक्तिस्तेऽव्यक्तकर्मणः॥
अनुवाद (हिन्दी)
हमलोग तो केवल आपके इसी लीलाविहारी रूपको देख रहे हैं। आपके परम स्वरूपको हम नहीं जानते। महेश्वर! यद्यपि आपकी लीलाएँ अव्यक्त हैं, फिर भी संसारका कल्याण करनेके लिये आप व्यक्तरूपसे भी रहते हैं॥ ३५॥
श्लोक-३६
मूलम् (वचनम्)
श्रीशुक उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
तद्वीक्ष्य व्यसनं तासां कृपया भृशपीडितः।
सर्वभूतसुहृद् देव इदमाह सतीं प्रियाम्॥
मूलम्
तद्वीक्ष्य व्यसनं तासां कृपया भृशपीडितः।
सर्वभूतसुहृद् देव इदमाह सतीं प्रियाम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! प्रजाका यह संकट देखकर समस्त प्राणियोंके अकारण बन्धु देवाधिदेव भगवान् शंकरके हृदयमें कृपावश बड़ी व्यथा हुई। उन्होंने अपनी प्रिया सतीसे यह बात कही॥ ३६॥
श्लोक-३७
मूलम् (वचनम्)
शिव उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहो बत भवान्येतत् प्रजानां पश्य वैशसम्।
क्षीरोदमथनोद्भूतात् कालकूटादुपस्थितम्॥
मूलम्
अहो बत भवान्येतत् प्रजानां पश्य वैशसम्।
क्षीरोदमथनोद्भूतात् कालकूटादुपस्थितम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
शिवजीने कहा—देवि! यह बड़े खेदकी बात है। देखो तो सही, समुद्रमन्थनसे निकले हुए कालकूट विषके कारण प्रजापर कितना बड़ा दुःख आ पड़ा है॥ ३७॥
श्लोक-३८
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसां प्राणपरीप्सूनां विधेयमभयं हि मे।
एतावान्हि प्रभोरर्थो यद् दीनपरिपालनम्॥
मूलम्
आसां प्राणपरीप्सूनां विधेयमभयं हि मे।
एतावान्हि प्रभोरर्थो यद् दीनपरिपालनम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
ये बेचारे किसी प्रकार अपने प्राणोंकी रक्षा करना चाहते हैं। इस समय मेरा यह कर्तव्य है कि मैं इन्हें निर्भय कर दूँ। जिनके पास शक्ति-सामर्थ्य है, उनके जीवनकी सफलता इसीमें है कि वे दीन-दुःखियोंकी रक्षा करें॥ ३८॥
श्लोक-३९
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्राणैः स्वैः प्राणिनः पान्ति साधवः क्षणभङ्गुरैः।
बद्धवैरेषु भूतेषु मोहितेष्वात्ममायया॥
मूलम्
प्राणैः स्वैः प्राणिनः पान्ति साधवः क्षणभङ्गुरैः।
बद्धवैरेषु भूतेषु मोहितेष्वात्ममायया॥
अनुवाद (हिन्दी)
सज्जन पुरुष अपने क्षणभंगुर प्राणोंकी बलि देकर भी दूसरे प्राणियोंके प्राणकी रक्षा करते हैं। कल्याणि! अपने ही मोहकी मायामें फँसकर संसारके प्राणी मोहित हो रहे हैं और एक-दूसरेसे वैरकी गाँठ बाँधे बैठे हैं॥ ३९॥
श्लोक-४०
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुंसः कृपयतो भद्रे सर्वात्मा प्रीयते हरिः।
प्रीते हरौ भगवति प्रीयेऽहं सचराचरः।
तस्मादिदं गरं भुञ्जे प्रजानां स्वस्तिरस्तु मे॥
मूलम्
पुंसः कृपयतो भद्रे सर्वात्मा प्रीयते हरिः।
प्रीते हरौ भगवति प्रीयेऽहं सचराचरः।
तस्मादिदं गरं भुञ्जे प्रजानां स्वस्तिरस्तु मे॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनके ऊपर जो कृपा करता है, उसपर सर्वात्मा भगवान् श्रीकृष्ण प्रसन्न होते हैं और जब भगवान् प्रसन्न हो जाते हैं, तब चराचर जगत्के साथ मैं भी प्रसन्न हो जाता हूँ। इसलिये अभी-अभी मैं इस विषको भक्षण करता हूँ, जिससे मेरी प्रजाका कल्याण हो॥ ४०॥
श्लोक-४१
मूलम् (वचनम्)
श्रीशुक उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमामन्त्र्य भगवान् भवानीं विश्वभावनः।
तद् विषं जग्धुमारेभे प्रभावज्ञान्वमोदत॥
मूलम्
एवमामन्त्र्य भगवान् भवानीं विश्वभावनः।
तद् विषं जग्धुमारेभे प्रभावज्ञान्वमोदत॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—विश्वके जीवनदाता भगवान् शंकर इस प्रकार सती देवीसे प्रस्ताव करके उस विषको खानेके लिये तैयार हो गये। देवी तो उनका प्रभाव जानती ही थीं, उन्होंने हृदयसे इस बातका अनुमोदन किया॥ ४१॥
श्लोक-४२
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः करतलीकृत्य व्यापि हालाहलं विषम्।
अभक्षयन्महादेवः कृपया भूतभावनः॥
मूलम्
ततः करतलीकृत्य व्यापि हालाहलं विषम्।
अभक्षयन्महादेवः कृपया भूतभावनः॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् शंकर बड़े कृपालु हैं। उन्हींकी शक्तिसे समस्त प्राणी जीवित रहते हैं। उन्होंने उस तीक्ष्ण हालाहल विषको अपनी हथेलीपर उठाया और भक्षण कर गये॥ ४२॥
श्लोक-४३
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्यापि दर्शयामास स्ववीर्यं जलकल्मषः।
यच्चकार गले नीलं तच्च साधोर्विभूषणम्॥
मूलम्
तस्यापि दर्शयामास स्ववीर्यं जलकल्मषः।
यच्चकार गले नीलं तच्च साधोर्विभूषणम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह विष जलका पाप—मल था। उसने शंकरजीपर भी अपना प्रभाव प्रकट कर दिया, उससे उनका कण्ठ नीला पड़ गया, परन्तु वह तो प्रजाका कल्याण करनेवाले भगवान् शंकरके लिये भूषणरूप हो गया॥ ४३॥
श्लोक-४४
विश्वास-प्रस्तुतिः
तप्यन्ते लोकतापेन साधवः प्रायशो जनाः।
परमाराधनं तद्धि पुरुषस्याखिलात्मनः॥
मूलम्
तप्यन्ते लोकतापेन साधवः प्रायशो जनाः।
परमाराधनं तद्धि पुरुषस्याखिलात्मनः॥
अनुवाद (हिन्दी)
परोपकारी सज्जन प्रायः प्रजाका दुःख टालनेके लिये स्वयं दुःख झेला ही करते हैं। परन्तु यह दुःख नहीं है, यह तो सबके हृदयमें विराजमान भगवान्की परम आराधना है॥ ४४॥
श्लोक-४५
विश्वास-प्रस्तुतिः
निशम्य कर्म तच्छम्भोर्देवदेवस्य मीढुषः।
प्रजा दाक्षायणी ब्रह्मा वैकुण्ठश्च शशंसिरे॥
मूलम्
निशम्य कर्म तच्छम्भोर्देवदेवस्य मीढुषः।
प्रजा दाक्षायणी ब्रह्मा वैकुण्ठश्च शशंसिरे॥
अनुवाद (हिन्दी)
देवाधिदेव भगवान् शंकर सबकी कामना पूर्ण करनेवाले हैं। उनका यह कल्याणकारी अद्भुत कर्म सुनकर सम्पूर्ण प्रजा, दक्षकन्या सती, ब्रह्माजी और स्वयं विष्णुभगवान् भी उनकी प्रशंसा करने लगे॥ ४५॥
श्लोक-४६
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रस्कन्नं पिबतः पाणेर्यत् किञ्चिज्जगृहुः स्म तत्।
वृश्चिकाहिविषौषध्यो दन्दशूकाश्च येऽपरे॥
मूलम्
प्रस्कन्नं पिबतः पाणेर्यत् किञ्चिज्जगृहुः स्म तत्।
वृश्चिकाहिविषौषध्यो दन्दशूकाश्च येऽपरे॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिस समय भगवान् शंकर विषपान कर रहे थे, उस समय उनके हाथसे थोड़ा-सा विष टपक पड़ा था। उसे बिच्छू, साँप तथा अन्य विषैले जीवोंने एवं विषैली ओषधियोंने ग्रहण कर लिया॥ ४६॥
अनुवाद (समाप्ति)
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायामष्टमस्कन्धेऽमृतमथने सप्तमोऽध्यायः॥ ७॥