०६ मन्दराचलानयनम्

[षष्ठोऽध्यायः]

भागसूचना

देवताओं और दैत्योंका मिलकर समुद्रमन्थनके लिये उद्योग करना

श्लोक-१

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं स्तुतः सुरगणैर्भगवान् हरिरीश्वरः।
तेषामाविरभूद् राजन् सहस्रार्कोदयद्युतिः॥

मूलम्

एवं स्तुतः सुरगणैर्भगवान् हरिरीश्वरः।
तेषामाविरभूद् राजन् सहस्रार्कोदयद्युतिः॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! जब देवताओंने सर्वशक्तिमान् भगवान् श्रीहरिकी इस प्रकार स्तुति की, तब वे उनके बीचमें ही प्रकट हो गये। उनके शरीरकी प्रभा ऐसी थी, मानो हजारों सूर्य एक साथ ही उग गये हों॥ १॥

श्लोक-२

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेनैव महसा सर्वे देवाः प्रतिहतेक्षणाः।
नापश्यन्खं दिशः क्षोणिमात्मानं च कुतो विभुम्॥

मूलम्

तेनैव महसा सर्वे देवाः प्रतिहतेक्षणाः।
नापश्यन्खं दिशः क्षोणिमात्मानं च कुतो विभुम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान‍्की उस प्रभासे सभी देवताओंकी आँखें चौंधिया गयीं। वे भगवान‍्को तो क्या—आकाश, दिशाएँ, पृथ्वी और अपने शरीरको भी न देख सके॥ २॥

श्लोक-३

विश्वास-प्रस्तुतिः

विरिञ्चो भगवान् दृष्ट्वा सह शर्वेण तां तनुम्।
स्वच्छां मरकतश्यामां कञ्जगर्भारुणेक्षणाम्॥

मूलम्

विरिञ्चो भगवान् दृष्ट्वा सह शर्वेण तां तनुम्।
स्वच्छां मरकतश्यामां कञ्जगर्भारुणेक्षणाम्॥

श्लोक-४

विश्वास-प्रस्तुतिः

तप्तहेमावदातेन लसत्कौशेयवाससा।
प्रसन्नचारुसर्वाङ्गीं सुमुखीं सुन्दरभ्रुवम्॥

मूलम्

तप्तहेमावदातेन लसत्कौशेयवाससा।
प्रसन्नचारुसर्वाङ्गीं सुमुखीं सुन्दरभ्रुवम्॥

श्लोक-५

विश्वास-प्रस्तुतिः

महामणिकिरीटेन केयूराभ्यां च भूषिताम्।
कर्णाभरणनिर्भातकपोलश्रीमुखाम्बुजाम्॥

मूलम्

महामणिकिरीटेन केयूराभ्यां च भूषिताम्।
कर्णाभरणनिर्भातकपोलश्रीमुखाम्बुजाम्॥

श्लोक-६

विश्वास-प्रस्तुतिः

काञ्चीकलापवलयहारनूपुरशोभिताम्।
कौस्तुभाभरणां लक्ष्मीं बिभ्रतीं वनमालिनीम्॥

मूलम्

काञ्चीकलापवलयहारनूपुरशोभिताम्।
कौस्तुभाभरणां लक्ष्मीं बिभ्रतीं वनमालिनीम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

केवल भगवान् शंकर और ब्रह्माजीने उस छबिका दर्शन किया। बड़ी ही सुन्दर झाँकी थी। मरकतमणि (पन्ने)-के समान स्वच्छ श्यामल शरीर, कमलके भीतरी भागके समान सुकुमार नेत्रोंमें लाल-लाल डोरियाँ और चमकते हुए सुनहले रंगका रेशमी पीताम्बर! सर्वांगसुन्दर शरीरके रोम-रोमसे प्रसन्नता फूटी पड़ती थी। धनुषके समान टेढ़ी भौंहें और बड़ा ही सुन्दर मुख। सिरपर महामणिमय किरीट और भुजाओंमें बाजूबंद। कानोंके झलकते हुए कुण्डलोंकी चमक पड़नेसे कपोल और भी सुन्दर हो उठते थे, जिससे मुखकमल खिल उठता था। कमरमें करधनीकी लड़ियाँ, हाथोंमें कंगन, गलेमें हार और चरणोंमें नूपुर शोभायमान थे। वक्षःस्थलपर लक्ष्मी और गलेमें कौस्तुभमणि तथा वनमाला सुशोभित थीं॥ ३—६॥

श्लोक-७

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुदर्शनादिभिः स्वास्त्रैर्मूर्तिमद‍्भिरुपासिताम्।
तुष्टाव देवप्रवरः सशर्वः पुरुषं परम्।
सर्वामरगणैः साकं सर्वाङ्गैरवनिं गतैः॥

मूलम्

सुदर्शनादिभिः स्वास्त्रैर्मूर्तिमद‍्भिरुपासिताम्।
तुष्टाव देवप्रवरः सशर्वः पुरुषं परम्।
सर्वामरगणैः साकं सर्वाङ्गैरवनिं गतैः॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान‍्के निज अस्त्र सुदर्शन चक्र आदि मूर्तिमान् होकर उनकी सेवा कर रहे थे। सभी देवताओंने पृथ्वीपर गिरकर साष्टांग प्रणाम किया फिर सारे देवताओंको साथ ले शंकरजी तथा ब्रह्माजी परम पुरुष भगवान‍्की स्तुति करने लगे॥ ७॥

श्लोक-८

मूलम् (वचनम्)

ब्रह्मोवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अजातजन्मस्थितिसंयमाया-
गुणाय निर्वाणसुखार्णवाय।
अणोरणिम्नेऽपरिगण्यधाम्ने
महानुभावाय नमो नमस्ते॥

मूलम्

अजातजन्मस्थितिसंयमाया-
गुणाय निर्वाणसुखार्णवाय।
अणोरणिम्नेऽपरिगण्यधाम्ने
महानुभावाय नमो नमस्ते॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्रह्माजीने कहा—जो जन्म, स्थिति और प्रलयसे कोई सम्बन्ध नहीं रखते, जो प्राकृत गुणोंसे रहित एवं मोक्षस्वरूप परमानन्दके महान् समुद्र हैं, जो सूक्ष्मसे भी सूक्ष्म हैं और जिनका स्वरूप अनन्त है—उनपर ऐश्वर्यशाली प्रभुको हमलोग बार-बार नमस्कार करते हैं॥ ८॥

श्लोक-९

विश्वास-प्रस्तुतिः

रूपं तवैतत् पुरुषर्षभेज्यं
श्रेयोऽर्थिभिर्वैदिकतान्त्रिकेण।
योगेन धातः सह नस्त्रिलोकान्
पश्याम्यमुष्मिन् नु ह विश्वमूर्तौ॥

मूलम्

रूपं तवैतत् पुरुषर्षभेज्यं
श्रेयोऽर्थिभिर्वैदिकतान्त्रिकेण।
योगेन धातः सह नस्त्रिलोकान्
पश्याम्यमुष्मिन् नु ह विश्वमूर्तौ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पुरुषोत्तम! अपना कल्याण चाहनेवाले साधक वेदोक्त एवं पांचरात्रोक्त विधिसे आपके इसी स्वरूपकी उपासना करते हैं। मुझे भी रचनेवाले प्रभो! आपके इस विश्वमय स्वरूपमें मुझे समस्त देवगणोंके सहित तीनों लोक दिखायी दे रहे हैं॥ ९॥

श्लोक-१०

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वय्यग्र आसीत् त्वयि मध्य आसीत्
त्वय्यन्त आसीदिदमात्मतन्त्रे।
त्वमादिरन्तो जगतोऽस्य मध्यं
घटस्य मृत्स्नेव परः परस्मात्॥

मूलम्

त्वय्यग्र आसीत् त्वयि मध्य आसीत्
त्वय्यन्त आसीदिदमात्मतन्त्रे।
त्वमादिरन्तो जगतोऽस्य मध्यं
घटस्य मृत्स्नेव परः परस्मात्॥

अनुवाद (हिन्दी)

आपमें ही पहले यह जगत् लीन था, मध्यमें भी यह आपमें ही स्थित है और अन्तमें भी यह पुनः आपमें ही लीन हो जायगा। आप स्वयं कार्य-कारणसे परे परम स्वतन्त्र हैं। आप ही इस जगत‍्के आदि, अन्त और मध्य हैं—वैसे ही जैसे घड़ेका आदि, मध्य और अन्त मिट्टी है॥ १०॥

श्लोक-११

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वं माययाऽऽत्माश्रयया स्वयेदं
निर्माय विश्वं तदनुप्रविष्टः।
पश्यन्ति युक्ता मनसा मनीषिणो
गुणव्यवायेऽप्यगुणं विपश्चितः॥

मूलम्

त्वं माययाऽऽत्माश्रयया स्वयेदं
निर्माय विश्वं तदनुप्रविष्टः।
पश्यन्ति युक्ता मनसा मनीषिणो
गुणव्यवायेऽप्यगुणं विपश्चितः॥

अनुवाद (हिन्दी)

आप अपने ही आश्रय रहनेवाली अपनी मायासे इस संसारकी रचना करते हैं और इसमें फिरसे प्रवेश करके अन्तर्यामीके रूपमें विराजमान होते हैं। इसीलिये विवेकी और शास्त्रज्ञ पुरुष बड़ी सावधानीसे अपने मनको एकाग्र करके इन गुणोंकी, विषयोंकी भीड़में भी आपके निर्गुण स्वरूपका ही साक्षात्कार करते हैं॥ ११॥

श्लोक-१२

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथाग्निमेधस्यमृतं च गोषु
भुव्यन्नमम्बूद्यमने च वृत्तिम्।
योगैर्मनुष्या अधियन्ति हि त्वां
गुणेषु बुद्‍ध्या कवयो वदन्ति॥

मूलम्

यथाग्निमेधस्यमृतं च गोषु
भुव्यन्नमम्बूद्यमने च वृत्तिम्।
योगैर्मनुष्या अधियन्ति हि त्वां
गुणेषु बुद्‍ध्या कवयो वदन्ति॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे मनुष्य युक्तिके द्वारा लकड़ीसे आग, गौसे अमृतके समान दूध, पृथ्वीसे अन्न तथा जल और व्यापारसे अपनी आजीविका प्राप्त कर लेते हैं—वैसे ही विवेकी पुरुष भी अपनी शुद्ध बुद्धिसे भक्तियोग, ज्ञानयोग आदिके द्वारा आपको इन विषयोंमें ही प्राप्त कर लेते हैं और अपनी अनुभूतिके अनुसार आपका वर्णन भी करते हैं॥ १२॥

श्लोक-१३

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं त्वां वयं नाथ समुज्जिहानं
सरोजनाभातिचिरेप्सितार्थम्।
दृष्ट्वा गता निर्वृतिमद्य सर्वे
गजा दवार्ता इव गाङ्गमम्भः॥

मूलम्

तं त्वां वयं नाथ समुज्जिहानं
सरोजनाभातिचिरेप्सितार्थम्।
दृष्ट्वा गता निर्वृतिमद्य सर्वे
गजा दवार्ता इव गाङ्गमम्भः॥

अनुवाद (हिन्दी)

कमलनाभ! जिस प्रकार दावाग्निसे झुलसता हुआ हाथी गंगाजलमें डुबकी लगाकर सुख और शान्तिका अनुभव करने लगता है, वैसे ही आपके आविर्भावसे हमलोग परम सुखी और शान्त हो गये हैं। स्वामी! हमलोग बहुत दिनोंसे आपके दर्शनोंके लिये अत्यन्त लालायित हो रहे थे॥ १३॥

श्लोक-१४

विश्वास-प्रस्तुतिः

स त्वं विधत्स्वाखिललोकपाला
वयं यदर्थास्तव पादमूलम्।
समागतास्ते बहिरन्तरात्मन्
किं वान्यविज्ञाप्यमशेषसाक्षिणः॥

मूलम्

स त्वं विधत्स्वाखिललोकपाला
वयं यदर्थास्तव पादमूलम्।
समागतास्ते बहिरन्तरात्मन्
किं वान्यविज्ञाप्यमशेषसाक्षिणः॥

अनुवाद (हिन्दी)

आप ही हमारे बाहर और भीतरके आत्मा हैं। हम सब लोकपाल जिस उद्देश्यसे आपके चरणोंकी शरणमें आये हैं, उसे आप कृपा करके पूर्ण कीजिये। आप सबके साक्षी हैं, अतः इस विषयमें हमलोग आपसे और क्या निवेदन करें॥ १४॥

श्लोक-१५

विश्वास-प्रस्तुतिः

अहं गिरित्रश्च सुरादयो ये
दक्षादयोऽग्नेरिव केतवस्ते।
किं वा विदामेश पृथग्विभाता
विधत्स्व शं नो द्विजदेवमन्त्रम्॥

मूलम्

अहं गिरित्रश्च सुरादयो ये
दक्षादयोऽग्नेरिव केतवस्ते।
किं वा विदामेश पृथग्विभाता
विधत्स्व शं नो द्विजदेवमन्त्रम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रभो! मैं, शंकरजी, अन्य देवता, ऋषि और दक्ष आदि प्रजापति—सब-के-सब अग्निसे अलग हुई चिनगारीकी तरह आपके ही अंश हैं और अपनेको आपसे अलग मानते हैं। ऐसी स्थितिमें प्रभो! हमलोग समझ ही क्या सकते हैं। ब्राह्मण और देवताओंके कल्याणके लिये जो कुछ करना आवश्यक हो, उसका आदेश आप ही दीजिये और आप वैसा स्वयं कर भी लीजिये॥ १५॥

श्लोक-१६

मूलम् (वचनम्)

श्रीशुक उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं विरिञ्चादिभिरीडितस्तद्
विज्ञाय तेषां हृदयं तथैव।
जगाद जीमूतगभीरया गिरा
बद्धाञ्जलीन् संवृतसर्वकारकान्॥

मूलम्

एवं विरिञ्चादिभिरीडितस्तद्
विज्ञाय तेषां हृदयं तथैव।
जगाद जीमूतगभीरया गिरा
बद्धाञ्जलीन् संवृतसर्वकारकान्॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—ब्रह्मा आदि देवताओंने इस प्रकार स्तुति करके अपनी सारी इन्द्रियाँ रोक लीं और सब बड़ी सावधानीके साथ हाथ जोड़कर खड़े हो गये। उनकी स्तुति सुनकर और उसी प्रकार उनके हृदयकी बात जानकर भगवान् मेघके समान गम्भीर वाणीसे बोले॥ १६॥

श्लोक-१७

विश्वास-प्रस्तुतिः

एक एवेश्वरस्तस्मिन् सुरकार्ये सुरेश्वरः।
विहर्तुकामस्तानाह समुद्रोन्मथनादिभिः॥

मूलम्

एक एवेश्वरस्तस्मिन् सुरकार्ये सुरेश्वरः।
विहर्तुकामस्तानाह समुद्रोन्मथनादिभिः॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! समस्त देवताओंके तथा जगत‍्के एकमात्र स्वामी भगवान् अकेले ही उनका सब कार्य करनेमें समर्थ थे, फिर भी समुद्रमन्थन आदि लीलाओंके द्वारा विहार करनेकी इच्छासे वे देवताओंको सम्बोधित करके इस प्रकार कहने लगे॥ १७॥

श्लोक-१८

मूलम् (वचनम्)

श्रीभगवानुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

हन्त ब्रह्मन्नहो शम्भो हे देवा मम भाषितम्।
शृणुतावहिताः सर्वे श्रेयो वः स्याद् यथा सुराः॥

मूलम्

हन्त ब्रह्मन्नहो शम्भो हे देवा मम भाषितम्।
शृणुतावहिताः सर्वे श्रेयो वः स्याद् यथा सुराः॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीभगवान‍्ने कहा—ब्रह्मा, शंकर और देवताओ! तुमलोग सावधान होकर मेरी सलाह सुनो। तुम्हारे कल्याणका यही उपाय है॥ १८॥

श्लोक-१९

विश्वास-प्रस्तुतिः

यात दानवदैतेयैस्तावत् सन्धिर्विधीयताम्।
कालेनानुगृहीतैस्तैर्यावद् वो भव आत्मनः॥

मूलम्

यात दानवदैतेयैस्तावत् सन्धिर्विधीयताम्।
कालेनानुगृहीतैस्तैर्यावद् वो भव आत्मनः॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस समय असुरोंपर कालकी कृपा है। इसलिये जबतक तुम्हारे अभ्युदय और उन्नतिका समय नहीं आता, तबतक तुम दैत्य और दानवोंके पास जाकर उनसे सन्धि कर लो॥ १९॥

श्लोक-२०

विश्वास-प्रस्तुतिः

अरयोऽपि हि सन्धेयाः सति कार्यार्थगौरवे।
अहिमूषकवद् देवा ह्यर्थस्य पदवीं गतैः॥

मूलम्

अरयोऽपि हि सन्धेयाः सति कार्यार्थगौरवे।
अहिमूषकवद् देवा ह्यर्थस्य पदवीं गतैः॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवताओ! कोई बड़ा कार्य करना हो तो शत्रुओंसे भी मेल-मिलाप कर लेना चाहिये। यह बात अवश्य है कि काम बन जानेपर उनके साथ साँप और चूहेवाला बर्ताव कर सकते हैं*॥ २०॥

पादटिप्पनी
  • किसी मदारीकी पिटारीमें साँप तो पहलेसे था ही, संयोगवश उसमें एक चूहा भी जा घुसा। चूहेके भयभीत होनेपर साँपने उसे प्रेमसे समझाया कि तुम पिटारीमें छेद कर दो, फिर हम दोनों भाग निकलेंगे। पहले तो साँपकी इस बातपर चूहेको विश्वास न हुआ, परन्तु पीछे उसने पिटारीमें छेद कर दिया। इस प्रकार काम बन जानेपर साँप चूहेको निगल गया और पिटारीसे निकल भागा।

श्लोक-२१

विश्वास-प्रस्तुतिः

अमृतोत्पादने यत्नः क्रियतामविलम्बितम्।
यस्य पीतस्य वै जन्तुर्मृत्युग्रस्तोऽमरो भवेत्॥

मूलम्

अमृतोत्पादने यत्नः क्रियतामविलम्बितम्।
यस्य पीतस्य वै जन्तुर्मृत्युग्रस्तोऽमरो भवेत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

तुमलोग बिना विलम्बके अमृत निकालनेका प्रयत्न करो। उसे पी लेनेपर मरनेवाला प्राणी भी अमर हो जाता है॥ २१॥

श्लोक-२२

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्षिप्त्वा क्षीरोदधौ सर्वा वीरुत्तृणलतौषधीः।
मन्थानं मन्दरं कृत्वा नेत्रं कृत्वा तु वासुकिम्॥

मूलम्

क्षिप्त्वा क्षीरोदधौ सर्वा वीरुत्तृणलतौषधीः।
मन्थानं मन्दरं कृत्वा नेत्रं कृत्वा तु वासुकिम्॥

पादटिप्पनी

श्लोक-२३

विश्वास-प्रस्तुतिः

सहायेन मया देवा निर्मन्थध्वमतन्द्रिताः।
क्लेशभाजो भविष्यन्ति दैत्या यूयं फलग्रहाः॥

मूलम्

सहायेन मया देवा निर्मन्थध्वमतन्द्रिताः।
क्लेशभाजो भविष्यन्ति दैत्या यूयं फलग्रहाः॥

अनुवाद (हिन्दी)

पहले क्षीरसागरमें सब प्रकारके घास, तिनके, लताएँ और ओषधियाँ डाल दो। फिर तुमलोग मन्दराचलकी मथानी और वासुकि नागकी नेती बनाकर मेरी सहायतासे समुद्रका मन्थन करो। अब आलस्य और प्रमादका समय नहीं है। देवताओ! विश्वास रखो—दैत्योंको तो मिलेगा केवल श्रम और क्लेश, परन्तु फल मिलेगा तुम्हीं लोगोंको॥ २२-२३॥

श्लोक-२४

विश्वास-प्रस्तुतिः

यूयं तदनुमोदध्वं यदिच्छन्त्यसुराः सुराः।
न संरम्भेण सिध्यन्ति सर्वेऽर्थाः सान्त्वया यथा॥

मूलम्

यूयं तदनुमोदध्वं यदिच्छन्त्यसुराः सुराः।
न संरम्भेण सिध्यन्ति सर्वेऽर्थाः सान्त्वया यथा॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवताओ! असुरलोग तुमसे जो-जो चाहें, सब स्वीकार कर लो। शान्तिसे सब काम बन जाते हैं, क्रोध करनेसे कुछ नहीं होता॥ २४॥

श्लोक-२५

विश्वास-प्रस्तुतिः

न भेतव्यं कालकूटाद् विषाज्जलधिसम्भवात्।
लोभः कार्यो न वो जातु रोषः कामस्तु वस्तुषु॥

मूलम्

न भेतव्यं कालकूटाद् विषाज्जलधिसम्भवात्।
लोभः कार्यो न वो जातु रोषः कामस्तु वस्तुषु॥

अनुवाद (हिन्दी)

पहले समुद्रसे कालकूट विष निकलेगा, उससे डरना नहीं। और किसी भी वस्तुके लिये कभी भी लोभ न करना। पहले तो किसी वस्तुकी कामना ही नहीं करनी चाहिये, परन्तु यदि कामना हो और वह पूरी न हो तो क्रोध तो करना ही नहीं चाहिये॥ २५॥

श्लोक-२६

मूलम् (वचनम्)

श्रीशुक उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

इति देवान् समादिश्य भगवान् पुरुषोत्तमः।
तेषामन्तर्दधे राजन् स्वच्छन्दगतिरीश्वरः॥

मूलम्

इति देवान् समादिश्य भगवान् पुरुषोत्तमः।
तेषामन्तर्दधे राजन् स्वच्छन्दगतिरीश्वरः॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! देवताओंको यह आदेश देकर पुरुषोत्तम भगवान् उनके बीचमें ही अन्तर्धान हो गये। वे सर्वशक्तिमान् एवं परम स्वतन्त्र जो ठहरे। उनकी लीलाका रहस्य कौन समझे॥ २६॥

श्लोक-२७

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथ तस्मै भगवते नमस्कृत्य पितामहः।
भवश्च जग्मतुः स्वं स्वं धामोपेयुर्बलिं सुराः॥

मूलम्

अथ तस्मै भगवते नमस्कृत्य पितामहः।
भवश्च जग्मतुः स्वं स्वं धामोपेयुर्बलिं सुराः॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनके चले जानेपर ब्रह्मा और शंकरने फिरसे भगवान‍्को नमस्कार किया और वे अपने-अपने लोकोंको चले गये, तदनन्तर इन्द्रादि देवता राजा बलिके पास गये॥ २७॥

श्लोक-२८

विश्वास-प्रस्तुतिः

दृष्ट्वारीनप्यसंयत्ताञ्जातक्षोभान्स्वनायकान्।
न्यषेधद्‍दैत्यराट् श्लोक्यः सन्धिविग्रहकालवित्॥

मूलम्

दृष्ट्वारीनप्यसंयत्ताञ्जातक्षोभान्स्वनायकान्।
न्यषेधद्‍दैत्यराट् श्लोक्यः सन्धिविग्रहकालवित्॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवताओंको बिना अस्त्र-शस्त्रके सामने आते देख दैत्यसेनापतियोंके मनमें बड़ा क्षोभ हुआ। उन्होंने देवताओंको पकड़ लेना चाहा। परन्तु दैत्यराज बलि सन्धि और विरोधके अवसरको जाननेवाले एवं पवित्र कीर्तिसे सम्पन्न थे। उन्होंने दैत्योंको वैसा करनेसे रोक दिया॥ २८॥

श्लोक-२९

विश्वास-प्रस्तुतिः

ते वैरोचनिमासीनं गुप्तं चासुरयूथपैः।
श्रिया परमया जुष्टं जिताशेषमुपागमन्॥

मूलम्

ते वैरोचनिमासीनं गुप्तं चासुरयूथपैः।
श्रिया परमया जुष्टं जिताशेषमुपागमन्॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसके बाद देवतालोग बलिके पास पहुँचे। बलिने तीनों लोकोंको जीत लिया था। वे समस्त सम्पत्तियोंसे सेवित एवं असुर सेनापतियोंसे सुरक्षित होकर अपने राजसिंहासनपर बैठे हुए थे॥ २९॥

श्लोक-३०

विश्वास-प्रस्तुतिः

महेन्द्रःश्लक्ष्णया वाचा सान्त्वयित्वा महामतिः।
अभ्यभाषत तत् सर्वं शिक्षितं पुरुषोत्तमात्॥

मूलम्

महेन्द्रःश्लक्ष्णया वाचा सान्त्वयित्वा महामतिः।
अभ्यभाषत तत् सर्वं शिक्षितं पुरुषोत्तमात्॥

अनुवाद (हिन्दी)

बुद्धिमान् इन्द्रने बड़ी मधुर वाणीसे समझाते हुए राजा बलिसे वे सब बातें कहीं, जिनकी शिक्षा स्वयं भगवान‍्ने उन्हें दी थी॥ ३०॥

श्लोक-३१

विश्वास-प्रस्तुतिः

तदरोचत दैत्यस्य तत्रान्ये येऽसुराधिपाः।
शम्बरोऽरिष्टनेमिश्च ये च त्रिपुरवासिनः॥

मूलम्

तदरोचत दैत्यस्य तत्रान्ये येऽसुराधिपाः।
शम्बरोऽरिष्टनेमिश्च ये च त्रिपुरवासिनः॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह बात दैत्यराज बलिको जँच गयी। वहाँ बैठे हुए दूसरे सेनापति शम्बर, अरिष्टनेमि और त्रिपुरनिवासी असुरोंको भी यह बात बहुत अच्छी लगी॥ ३१॥

श्लोक-३२

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो देवासुराः कृत्वा संविदं कृतसौहृदाः।
उद्यमं परमं चक्रुरमृतार्थे परन्तप॥

मूलम्

ततो देवासुराः कृत्वा संविदं कृतसौहृदाः।
उद्यमं परमं चक्रुरमृतार्थे परन्तप॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब देवता और असुरोंने आपसमें सन्धि समझौता करके मित्रता कर ली और परीक्षित्! वे सब मिलकर अमृत मन्थनके लिये पूर्ण उद्योग करने लगे॥ ३२॥

श्लोक-३३

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततस्ते मन्दरगिरिमोजसोत्पाट्य दुर्मदाः।
नदन्त उदधिं निन्युः शक्ताः परिघबाहवः॥

मूलम्

ततस्ते मन्दरगिरिमोजसोत्पाट्य दुर्मदाः।
नदन्त उदधिं निन्युः शक्ताः परिघबाहवः॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसके बाद उन्होंने अपनी शक्तिसे मन्दराचलको उखाड़ लिया और ललकारते तथा गरजते हुए उसे समुद्रतटकी ओर ले चले। उनकी भुजाएँ परिघके समान थीं, शरीरमें शक्ति थी और अपने-अपने बलका घमंड तो था ही॥ ३३॥

श्लोक-३४

विश्वास-प्रस्तुतिः

दूरभारोद्वहश्रान्ताः शक्रवैरोचनादयः।
अपारयन्तस्तं वोढुं विवशा विजहुः पथि॥

मूलम्

दूरभारोद्वहश्रान्ताः शक्रवैरोचनादयः।
अपारयन्तस्तं वोढुं विवशा विजहुः पथि॥

अनुवाद (हिन्दी)

परन्तु एक तो वह मन्दरपर्वत ही बहुत भारी था और दूसरे उसे ले जाना भी बहुत दूर था। इससे इन्द्र, बलि आदि सब-के-सब हार गये। जब ये किसी प्रकार भी मन्दराचलको आगे न ले जा सके, तब विवश होकर उन्होंने उसे रास्तेमें ही पटक दिया॥ ३४॥

श्लोक-३५

विश्वास-प्रस्तुतिः

निपतन्स गिरिस्तत्र बहूनमरदानवान्।
चूर्णयामास महता भारेण कनकाचलः॥

मूलम्

निपतन्स गिरिस्तत्र बहूनमरदानवान्।
चूर्णयामास महता भारेण कनकाचलः॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह सोनेका पर्वत मन्दराचल बड़ा भारी था। गिरते समय उसने बहुत-से देवता और दानवोंको चकनाचूर कर डाला॥ ३५॥

श्लोक-३६

विश्वास-प्रस्तुतिः

तांस्तथा भग्नमनसो भग्नबाहूरुकन्धरान्।
विज्ञाय भगवांस्तत्र बभूव गरुडध्वजः॥

मूलम्

तांस्तथा भग्नमनसो भग्नबाहूरुकन्धरान्।
विज्ञाय भगवांस्तत्र बभूव गरुडध्वजः॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन देवता और असुरोंके हाथ, कमर और कंधे टूट ही गये थे, मन भी टूट गया। उनका उत्साह भंग हुआ देख गरुड़पर चढ़े हुए भगवान् सहसा वहीं प्रकट हो गये॥ ३६॥

श्लोक-३७

विश्वास-प्रस्तुतिः

गिरिपातविनिष्पिष्टान् विलोक्यामरदानवान्।
ईक्षया जीवयामास निर्जरान् निर्व्रणान् यथा॥

मूलम्

गिरिपातविनिष्पिष्टान् विलोक्यामरदानवान्।
ईक्षया जीवयामास निर्जरान् निर्व्रणान् यथा॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन्होंने देखा कि देवता और असुर पर्वतके गिरनेसे पिस गये हैं। अतः उन्होंने अपनी अमृतमयी दृष्टिसे देवताओंको इस प्रकार जीवित कर दिया, मानो उनके शरीरमें बिलकुल चोट ही न लगी हो॥ ३७॥

श्लोक-३८

विश्वास-प्रस्तुतिः

गिरिं चारोप्य गरुडे हस्तेनैकेन लीलया।
आरुह्य प्रययावब्धिं सुरासुरगणैर्वृतः॥

मूलम्

गिरिं चारोप्य गरुडे हस्तेनैकेन लीलया।
आरुह्य प्रययावब्धिं सुरासुरगणैर्वृतः॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसके बाद उन्होंने खेल-ही-खेलमें एक हाथसे उस पर्वतको उठाकर गरुड़पर रख लिया और स्वयं भी सवार हो गये। फिर देवता और असुरोंके साथ उन्होंने समुद्रतटकी यात्रा की॥ ३८॥

श्लोक-३९

विश्वास-प्रस्तुतिः

अवरोप्य गिरिं स्कन्धात् सुपर्णः पततां वरः।
ययौ जलान्त उत्सृज्य हरिणा स विसर्जितः॥

मूलम्

अवरोप्य गिरिं स्कन्धात् सुपर्णः पततां वरः।
ययौ जलान्त उत्सृज्य हरिणा स विसर्जितः॥

अनुवाद (हिन्दी)

पक्षिराज गरुड़ने समुद्रके तटपर पर्वतको उतार दिया। फिर भगवान‍्के विदा करनेपर गरुड़जी वहाँसे चले गये॥ ३९॥

अनुवाद (समाप्ति)

इति श्रीमद‍्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायामष्टमस्कन्धेऽमृतमथने मन्दराचलानयनं नाम षष्ठोऽध्यायः॥ ६॥