०४ गजेन्द्रमोक्षणम्

[चतुर्थोऽध्यायः]

भागसूचना

गज और ग्राहका पूर्वचरित्र तथा उनका उद्धार

श्लोक-१

मूलम् (वचनम्)

श्रीशुक उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

तदा देवर्षिगन्धर्वा ब्रह्मेशानपुरोगमाः।
मुमुचुः कुसुमासारं शंसन्तः कर्म तद्धरेः॥

मूलम्

तदा देवर्षिगन्धर्वा ब्रह्मेशानपुरोगमाः।
मुमुचुः कुसुमासारं शंसन्तः कर्म तद्धरेः॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! उस समय ब्रह्मा, शंकर आदि देवता, ऋषि और गन्धर्व श्रीहरि भगवान‍्के इस कर्मकी प्रशंसा करने लगे तथा उनके ऊपर फूलोंकी वर्षा करने लगे॥ १॥

श्लोक-२

विश्वास-प्रस्तुतिः

नेदुर्दुन्दुभयो दिव्या गन्धर्वा ननृतुर्जगुः।
ऋषयश्चारणाः सिद्धास्तुष्टुवुः पुरुषोत्तमम्॥

मूलम्

नेदुर्दुन्दुभयो दिव्या गन्धर्वा ननृतुर्जगुः।
ऋषयश्चारणाः सिद्धास्तुष्टुवुः पुरुषोत्तमम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

स्वर्गमें दुन्दुभियाँ बजने लगीं, गन्धर्व नाचने-गाने लगे, ऋषि, चारण और सिद्धगण भगवान् पुरुषोत्तमकी स्तुति करने लगे॥ २॥

श्लोक-३

विश्वास-प्रस्तुतिः

योऽसौ ग्राहः स वै सद्यः परमाश्चर्यरूपधृक्।
मुक्तो देवलशापेन हूहूर्गन्धर्वसत्तमः॥

मूलम्

योऽसौ ग्राहः स वै सद्यः परमाश्चर्यरूपधृक्।
मुक्तो देवलशापेन हूहूर्गन्धर्वसत्तमः॥

अनुवाद (हिन्दी)

इधर वह ग्राह तुरंत ही परम आश्चर्यमय दिव्य शरीरसे सम्पन्न हो गया। यह ग्राह इसके पहले ‘हूहू’ नामका एक श्रेष्ठ गन्धर्व था। देवलके शापसे उसे यह गति प्राप्त हुई थी। अब भगवान‍्की कृपासे वह मुक्त हो गया॥ ३॥

श्लोक-४

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रणम्य शिरसाधीशमुत्तमश्लोकमव्ययम्।
अगायत यशोधाम कीर्तन्यगुणसत्कथम्॥

मूलम्

प्रणम्य शिरसाधीशमुत्तमश्लोकमव्ययम्।
अगायत यशोधाम कीर्तन्यगुणसत्कथम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसने सर्वेश्वर भगवान‍्के चरणोंमें सिर रखकर प्रणाम किया, इसके बाद वह भगवान‍्के सुयशका गान करने लगा। वास्तवमें अविनाशी भगवान् ही सर्वश्रेष्ठ कीर्तिसे सम्पन्न हैं। उन्हींके गुण और मनोहर लीलाएँ गान करनेयोग्य हैं॥ ४॥

श्लोक-५

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोऽनुकम्पित ईशेन परिक्रम्य प्रणम्य तम्।
लोकस्य पश्यतो लोकं स्वमगान्मुक्तकिल्बिषः॥

मूलम्

सोऽनुकम्पित ईशेन परिक्रम्य प्रणम्य तम्।
लोकस्य पश्यतो लोकं स्वमगान्मुक्तकिल्बिषः॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान‍्के कृपापूर्ण स्पर्शसे उसके सारे पाप-ताप नष्ट हो गये। उसने भगवान‍्की परिक्रमा करके उनके चरणोंमें प्रणाम किया और सबके देखते-देखते अपने लोककी यात्रा की॥ ५॥

श्लोक-६

विश्वास-प्रस्तुतिः

गजेन्द्रो भगवत्स्पर्शाद् विमुक्तोऽज्ञानबन्धनात्।
प्राप्तो भगवतो रूपं पीतवासाश्चतुर्भुजः॥

मूलम्

गजेन्द्रो भगवत्स्पर्शाद् विमुक्तोऽज्ञानबन्धनात्।
प्राप्तो भगवतो रूपं पीतवासाश्चतुर्भुजः॥

अनुवाद (हिन्दी)

गजेन्द्र भी भगवान‍्का स्पर्श प्राप्त होते ही अज्ञानके बन्धनसे मुक्त हो गया। उसे भगवान‍्का ही रूप प्राप्त हो गया। वह पीताम्बरधारी एवं चतुर्भुज बन गया॥ ६ ॥

श्लोक-७

विश्वास-प्रस्तुतिः

स वै पूर्वमभूद् राजा पाण्ड्यो द्रविडसत्तमः।
इन्द्रद्युम्न इति ख्यातो विष्णुव्रतपरायणः॥

मूलम्

स वै पूर्वमभूद् राजा पाण्ड्यो द्रविडसत्तमः।
इन्द्रद्युम्न इति ख्यातो विष्णुव्रतपरायणः॥

अनुवाद (हिन्दी)

गजेन्द्र पूर्वजन्ममें द्रविडदेशका पाण्ड्यवंशी राजा था। उसका नाम था इन्द्रद्युम्न। वह भगवान‍्का एक श्रेष्ठ उपासक एवं अत्यन्त यशस्वी था॥ ७॥

श्लोक-८

विश्वास-प्रस्तुतिः

स एकदाऽऽराधनकाल आत्मवान्
गृहीतमौनव्रत ईश्वरं हरिम्।
जटाधरस्तापस आप्लुतोऽच्युतं
समर्चयामास कुलाचलाश्रमः॥

मूलम्

स एकदाऽऽराधनकाल आत्मवान्
गृहीतमौनव्रत ईश्वरं हरिम्।
जटाधरस्तापस आप्लुतोऽच्युतं
समर्चयामास कुलाचलाश्रमः॥

अनुवाद (हिन्दी)

एक बार राजा इन्द्रद्युम्न राजपाट छोड़कर मलयपर्वतपर रहने लगे थे। उन्होंने जटाएँ बढ़ा लीं, तपस्वीका वेष धारण कर लिया। एक दिन स्नानके बाद पूजाके समय मनको एकाग्र करके एवं मौनव्रती होकर वे सर्वशक्तिमान् भगवान‍्की आराधना कर रहे थे॥ ८॥

श्लोक-९

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदृच्छया तत्र महायशा मुनिः
समागमच्छिष्यगणैः परिश्रितः।
तं वीक्ष्य तूष्णीमकृतार्हणादिकं
रहस्युपासीनमृषिश्चुकोप ह॥

मूलम्

यदृच्छया तत्र महायशा मुनिः
समागमच्छिष्यगणैः परिश्रितः।
तं वीक्ष्य तूष्णीमकृतार्हणादिकं
रहस्युपासीनमृषिश्चुकोप ह॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसी समय दैवयोगसे परम यशस्वी अगस्त्य मुनि अपनी शिष्यमण्डलीके साथ वहाँ आ पहुँचे। उन्होंने देखा कि यह प्रजापालन और गृहस्थोचित अतिथिसेवा आदि धर्मका परित्याग करके तपस्वियोंकी तरह एकान्तमें चुपचाप बैठकर उपासना कर रहा है, इसलिये वे राजा इन्द्रद्युम्नपर क्रुद्ध हो गये॥ ९॥

श्लोक-१०

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मा इमं शापमदादसाधु-
रयं दुरात्माकृतबुद्धिरद्य।
विप्रावमन्ता विशतां तमोऽन्धं
यथा गजः स्तब्धमतिः स एव॥

मूलम्

तस्मा इमं शापमदादसाधु-
रयं दुरात्माकृतबुद्धिरद्य।
विप्रावमन्ता विशतां तमोऽन्धं
यथा गजः स्तब्धमतिः स एव॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन्होंने राजाको यह शाप दिया—‘इस राजाने गुरुजनोंसे शिक्षा नहीं ग्रहण की है, अभिमानवश परोपकारसे निवृत्त होकर मनमानी कर रहा है। ब्राह्मणोंका अपमान करनेवाला यह हाथीके समान जडबुद्धि है, इसलिये इसे वही घोर अज्ञानमयी हाथीकी योनि प्राप्त हो’॥ १०॥

श्लोक-११

मूलम् (वचनम्)

श्रीशुक उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं शप्त्वा गतोऽगस्त्यो भगवान् नृप सानुगः।
इन्द्रद्युम्नोऽपि राजर्षिर्दिष्टं तदुपधारयन्॥

मूलम्

एवं शप्त्वा गतोऽगस्त्यो भगवान् नृप सानुगः।
इन्द्रद्युम्नोऽपि राजर्षिर्दिष्टं तदुपधारयन्॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! शाप एवं वरदान देनेमें समर्थ अगस्त्य ऋषि इस प्रकार शाप देकर अपनी शिष्यमण्डलीके साथ वहाँसे चले गये। राजर्षि इन्द्रद्युम्नने यह समझकर सन्तोष किया कि यह मेरा प्रारब्ध ही था॥ ११॥

श्लोक-१२

विश्वास-प्रस्तुतिः

आपन्नः कौञ्जरीं योनिम्
आत्म-स्मृति-विनाशिनीम्।
हर्य्-अर्चनानुभावेन
यद‍् गजत्वे ऽप्य् अनुस्मृतिः॥

मूलम्

आपन्नः कौञ्जरीं योनिमात्मस्मृतिविनाशिनीम्।
हर्यर्चनानुभावेन यद‍्गजत्वेऽप्यनुस्मृतिः॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसके बाद आत्माकी विस्मृति करा देनेवाली हाथीकी योनि उन्हें प्राप्त हुई। परन्तु भगवान‍्की आराधनाका ऐसा प्रभाव है कि हाथी होनेपर भी उन्हें भगवान‍्की स्मृति हो ही गयी॥ १२॥

श्लोक-१३

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं विमोक्ष्य गजयूथपमब्जनाभ-
स्तेनापि पार्षदगतिं गमितेन युक्तः।
गन्धर्वसिद्धविबुधैरुपगीयमान-
कर्माद‍्भुतं स्वभवनं गरुडासनोऽगात्॥

मूलम्

एवं विमोक्ष्य गजयूथपमब्जनाभ-
स्तेनापि पार्षदगतिं गमितेन युक्तः।
गन्धर्वसिद्धविबुधैरुपगीयमान-
कर्माद‍्भुतं स्वभवनं गरुडासनोऽगात्॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् श्रीहरिने इस प्रकार गजेन्द्रका उद्धार करके उसे अपना पार्षद बना लिया। गन्धर्व, सिद्ध, देवता उनकी इस लीलाका गान करने लगे और वे पार्षदरूप गजेन्द्रको साथ ले गरुड़पर सवार होकर अपने अलौकिक धामको चले गये॥ १३॥

श्लोक-१४

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतन्महाराज तवेरितो मया
कृष्णानुभावो गजराजमोक्षणम्।
स्वर्ग्यं यशस्यं कलिकल्मषापहं
दुःस्वप्ननाशं कुरुवर्य शृण्वताम्॥

मूलम्

एतन्महाराज तवेरितो मया
कृष्णानुभावो गजराजमोक्षणम्।
स्वर्ग्यं यशस्यं कलिकल्मषापहं
दुःस्वप्ननाशं कुरुवर्य शृण्वताम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुरुवंशशिरोमणि परीक्षित्! मैंने भगवान् श्रीकृष्णकी महिमा तथा गजेन्द्रके उद्धारकी कथा तुम्हें सुना दी। यह प्रसंग सुननेवालोंके कलिमल और दुःस्वप्नको मिटानेवाला एवं यश, उन्नति और स्वर्ग देनेवाला है॥ १४॥

श्लोक-१५

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथानुकीर्तयन्त्येतच्छ्रेयस्कामा द्विजातयः।
शुचयः प्रातरुत्थाय दुःस्वप्नाद्युपशान्तये॥

मूलम्

यथानुकीर्तयन्त्येतच्छ्रेयस्कामा द्विजातयः।
शुचयः प्रातरुत्थाय दुःस्वप्नाद्युपशान्तये॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसीसे कल्याणकामी द्विजगण दुःस्वप्न आदिकी शान्तिके लिये प्रातःकाल जगते ही पवित्र होकर इसका पाठ करते हैं॥ १५॥

श्लोक-१६

विश्वास-प्रस्तुतिः

इदमाह हरिः प्रीतो गजेन्द्रं कुरुसत्तम।
शृण्वतां सर्वभूतानां सर्वभूतमयो विभुः॥

मूलम्

इदमाह हरिः प्रीतो गजेन्द्रं कुरुसत्तम।
शृण्वतां सर्वभूतानां सर्वभूतमयो विभुः॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! गजेन्द्रकी स्तुतिसे प्रसन्न होकर सर्वव्यापक एवं सर्वभूतस्वरूप श्रीहरिभगवान‍्ने सब लोगोंके सामने ही उसे यह बात कही थी॥ १६॥

श्लोक-१७

मूलम् (वचनम्)

श्रीभगवानुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ये मां त्वां च सरश्चेदं गिरिकन्दरकाननम्।
वेत्रकीचकवेणूनां गुल्मानि सुरपादपान्॥

मूलम्

ये मां त्वां च सरश्चेदं गिरिकन्दरकाननम्।
वेत्रकीचकवेणूनां गुल्मानि सुरपादपान्॥

श्लोक-१८

विश्वास-प्रस्तुतिः

शृङ्गाणीमानि धिष्ण्यानि ब्रह्मणो मे शिवस्य च।
क्षीरोदं मे प्रियं धाम श्वेतद्वीपं च भास्वरम्॥

मूलम्

शृङ्गाणीमानि धिष्ण्यानि ब्रह्मणो मे शिवस्य च।
क्षीरोदं मे प्रियं धाम श्वेतद्वीपं च भास्वरम्॥

श्लोक-१९

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रीवत्सं कौस्तुभं मालां गदां कौमोदकीं मम।
सुदर्शनं पाञ्चजन्यं सुपर्णं पतगेश्वरम्॥

मूलम्

श्रीवत्सं कौस्तुभं मालां गदां कौमोदकीं मम।
सुदर्शनं पाञ्चजन्यं सुपर्णं पतगेश्वरम्॥

श्लोक-२०

विश्वास-प्रस्तुतिः

शेषं च मत्कलां सूक्ष्मां श्रियं देवीं मदाश्रयाम्।
ब्रह्माणं नारदमृषिं भवं प्रह्रादमेव च॥

मूलम्

शेषं च मत्कलां सूक्ष्मां श्रियं देवीं मदाश्रयाम्।
ब्रह्माणं नारदमृषिं भवं प्रह्रादमेव च॥

श्लोक-२१

विश्वास-प्रस्तुतिः

मत्स्यकूर्मवराहाद्यैरवतारैः कृतानि मे।
कर्माण्यनन्तपुण्यानि सूर्यं सोमं हुताशनम्॥

मूलम्

मत्स्यकूर्मवराहाद्यैरवतारैः कृतानि मे।
कर्माण्यनन्तपुण्यानि सूर्यं सोमं हुताशनम्॥

श्लोक-२२

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रणवं सत्यमव्यक्तं गोविप्रान् धर्ममव्ययम्।
दाक्षायणीर्धर्मपत्नीः सोमकश्यपयोरपि॥

मूलम्

प्रणवं सत्यमव्यक्तं गोविप्रान् धर्ममव्ययम्।
दाक्षायणीर्धर्मपत्नीः सोमकश्यपयोरपि॥

श्लोक-२३

विश्वास-प्रस्तुतिः

गङ्गां सरस्वतीं नन्दां कालिन्दीं सितवारणम्।
ध्रुवं ब्रह्मऋषीन्सप्त पुण्यश्लोकांश्च मानवान्॥

मूलम्

गङ्गां सरस्वतीं नन्दां कालिन्दीं सितवारणम्।
ध्रुवं ब्रह्मऋषीन्सप्त पुण्यश्लोकांश्च मानवान्॥

श्लोक-२४

विश्वास-प्रस्तुतिः

उत्थायापररात्रान्ते प्रयताः सुसमाहिताः।
स्मरन्ति मम रूपाणि मुच्यन्ते ह्येनसोऽखिलात्॥

मूलम्

उत्थायापररात्रान्ते प्रयताः सुसमाहिताः।
स्मरन्ति मम रूपाणि मुच्यन्ते ह्येनसोऽखिलात्॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीभगवान‍्ने कहा—जो लोग रातके पिछले पहरमें उठकर इन्द्रियनिग्रहपूर्वक एकाग्र चित्तसे मेरा, तेरा तथा इस सरोवर, पर्वत एवं कन्दरा, वन, बेंत, कीचक और बाँसके झुरमुट, यहाँके दिव्य वृक्ष तथा पर्वतशिखर, मेरे, ब्रह्माजी और शिवजीके निवासस्थान, मेरे प्यारे धाम क्षीरसागर, प्रकाशमय श्वेतद्वीप, श्रीवत्स, कौस्तुभमणि, वनमाला, मेरी कौमोदकी गदा, सुदर्शन चक्र, पांचजन्य शंख, पक्षिराज गरुड़, मेरे सूक्ष्म कलास्वरूप शेषजी, मेरे आश्रयमें रहनेवाली लक्ष्मीदेवी, ब्रह्माजी, देवर्षि नारद, शंकरजी तथा भक्तराज प्रह्लाद, मत्स्य, कच्छप, वराह आदि अवतारोंमें किये हुए मेरे अनन्त पुण्यमय चरित्र, सूर्य, चन्द्रमा, अग्नि, ॐकार, सत्य, मूलप्रकृति, गौ, ब्राह्मण, अविनाशी सनातनधर्म, सोम, कश्यप और धर्मकी पत्नी दक्षकन्याएँ, गंगा, सरस्वती, अलकनन्दा, यमुना, ऐरावत हाथी, भक्तशिरोमणि ध्रुव, सात ब्रह्मर्षि और पवित्रकीर्ति (नल, युधिष्ठिर, जनक आदि) महापुरुषोंका स्मरण करते हैं—वे समस्त पापोंसे छूट जाते हैं; क्योंकि ये सब-के-सब मेरे ही रूप हैं॥ १७—२४॥

श्लोक-२५

विश्वास-प्रस्तुतिः

ये मां स्तुवन्त्यनेनाङ्ग प्रतिबुध्य निशात्यये।
तेषां प्राणात्यये चाहं ददामि विमलां मतिम्॥

मूलम्

ये मां स्तुवन्त्यनेनाङ्ग प्रतिबुध्य निशात्यये।
तेषां प्राणात्यये चाहं ददामि विमलां मतिम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्यारे गजेन्द्र! जो लोग ब्राह्ममुहूर्तमें जगकर तुम्हारी की हुई स्तुतिसे मेरा स्तवन करेंगे, मृत्युके समय उन्हें मैं निर्मल बुद्धिका दान करूँगा॥ २५॥

श्लोक-२६

मूलम् (वचनम्)

श्रीशुक उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्यादिश्य हृषीकेशः प्रध्माय जलजोत्तमम्।
हर्षयन्विबुधानीकमारुरोह खगाधिपम्॥

मूलम्

इत्यादिश्य हृषीकेशः प्रध्माय जलजोत्तमम्।
हर्षयन्विबुधानीकमारुरोह खगाधिपम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! भगवान् श्रीकृष्णने ऐसा कहकर देवताओंको आनन्दित करते हुए अपना श्रेष्ठ शंख बजाया और गरुड़पर सवार हो गये॥ २६॥

अनुवाद (समाप्ति)

इति श्रीमद‍्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायामष्टमस्कन्धे गजेन्द्रमोक्षणं नाम चतुर्थोऽध्यायः॥ ४॥