०१

[प्रथमोऽध्यायः]

भागसूचना

मन्वन्तरोंका वर्णन

श्लोक-१

मूलम् (वचनम्)

राजोवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वायम्भुवस्येह गुरो वंशोऽयं विस्तराच्छ्रुतः।
यत्र विश्वसृजां सर्गो मनूनन्यान्वदस्व नः॥

मूलम्

स्वायम्भुवस्येह गुरो वंशोऽयं विस्तराच्छ्रुतः।
यत्र विश्वसृजां सर्गो मनूनन्यान्वदस्व नः॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजा परीक्षित् ने पूछा—गुरुदेव! स्वायम्भुव मनुका वंश-विस्तार मैंने सुन लिया। इसी वंशमें उनकी कन्याओंके द्वारा मरीचि आदि प्रजापतियोंने अपनी वंशपरम्परा चलायी थी। अब आप हमसे दूसरे मनुओंका वर्णन कीजिये॥ १॥

श्लोक-२

विश्वास-प्रस्तुतिः

यत्र यत्र हरेर्जन्म कर्माणि च महीयसः।
गृणन्ति कवयो ब्रह्मंस्तानि नो वद शृण्वताम्॥

मूलम्

यत्र यत्र हरेर्जन्म कर्माणि च महीयसः।
गृणन्ति कवयो ब्रह्मंस्तानि नो वद शृण्वताम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्रह्मन्! ज्ञानी महात्मा जिस-जिस मन्वन्तरमें महामहिम भगवान‍्के जिन-जिन अवतारों और लीलाओंका वर्णन करते हैं, उन्हें आप अवश्य सुनाइये। हम बड़ी श्रद्धासे उनका श्रवण करना चाहते हैं॥ २॥

श्लोक-३

विश्वास-प्रस्तुतिः

यद्यस्मिन्नन्तरे ब्रह्मन् भगवान् विश्वभावनः।
कृतवान्कुरुते कर्ता ह्यतीतेऽनागतेऽद्य वा॥

मूलम्

यद्यस्मिन्नन्तरे ब्रह्मन् भगवान् विश्वभावनः।
कृतवान्कुरुते कर्ता ह्यतीतेऽनागतेऽद्य वा॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवन्! विश्वभावनभगवान् बीते हुए मन्वन्तरोंमें जो-जो लीलाएँ कर चुके हैं, वर्तमान मन्वन्तरमें जो कर रहे हैं और आगामी मन्वन्तरोंमें जो कुछ करेंगे, वह सब हमें सुनाइये॥ ३॥

श्लोक-४

मूलम् (वचनम्)

ऋषिरुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

मनवोऽस्मिन्व्यतीताः षट् कल्पे स्वायम्भुवादयः।
आद्यस्ते कथितो यत्र देवादीनां च सम्भवः॥

मूलम्

मनवोऽस्मिन्व्यतीताः षट् कल्पे स्वायम्भुवादयः।
आद्यस्ते कथितो यत्र देवादीनां च सम्भवः॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीशुकदेवजीने कहा—इस कल्पमें स्वायम्भुव आदि छः मन्वन्तर बीत चुके हैं। उनमेंसे पहले मन्वन्तरका मैंने वर्णन कर दिया, उसीमें देवता आदिकी उत्पत्ति हुई थी॥ ४॥

श्लोक-५

विश्वास-प्रस्तुतिः

आकूत्यां देवहूत्यां च दुहित्रोस्तस्य वै मनोः।
धर्मज्ञानोपदेशार्थं भगवान्पुत्रतां गतः॥

मूलम्

आकूत्यां देवहूत्यां च दुहित्रोस्तस्य वै मनोः।
धर्मज्ञानोपदेशार्थं भगवान्पुत्रतां गतः॥

अनुवाद (हिन्दी)

स्वायम्भुव मनुकी पुत्री आकूतिसे यज्ञपुरुषके रूपमें धर्मका उपदेश करनेके लिये तथा देवहूतिसे कपिलके रूपमें ज्ञानका उपदेश करनेके लिये भगवान‍्ने उनके पुत्ररूपसे अवतार ग्रहण किया था॥ ५॥

श्लोक-६

विश्वास-प्रस्तुतिः

कृतं पुरा भगवतः कपिलस्यानुवर्णितम्।
आख्यास्ये भगवान्यज्ञो यच्चकार कुरूद्वह॥

मूलम्

कृतं पुरा भगवतः कपिलस्यानुवर्णितम्।
आख्यास्ये भगवान्यज्ञो यच्चकार कुरूद्वह॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! भगवान् कपिलका वर्णन मैं पहले ही (तीसरे स्कन्धमें) कर चुका हूँ। अब भगवान् यज्ञपुरुषने आकूतिके गर्भसे अवतार लेकर जो कुछ किया, उसका वर्णन करता हूँ॥ ६॥

श्लोक-७

विश्वास-प्रस्तुतिः

विरक्तः कामभोगेषु शतरूपापतिः प्रभुः।
विसृज्य राज्यं तपसे सभार्यो वनमाविशत्॥

मूलम्

विरक्तः कामभोगेषु शतरूपापतिः प्रभुः।
विसृज्य राज्यं तपसे सभार्यो वनमाविशत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! भगवान् स्वायम्भुव मनुने समस्त कामनाओं और भोगोंसे विरक्त होकर राज्य छोड़ दिया। वे अपनी पत्नी शतरूपाके साथ तपस्या करनेके लिये वनमें चले गये॥ ७॥

श्लोक-८

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुनन्दायां वर्षशतं पदैकेन भुवं स्पृशन्।
तप्यमानस्ततो घोरमिदमन्वाह भारत॥

मूलम्

सुनन्दायां वर्षशतं पदैकेन भुवं स्पृशन्।
तप्यमानस्ततो घोरमिदमन्वाह भारत॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! उन्होंने सुनन्दा नदीके किनारे पृथ्वीपर एक पैरसे खड़े रहकर सौ वर्षतक घोर तपस्या की। तपस्या करते समय वे प्रतिदिन इस प्रकार भगवान‍्की स्तुति करते थे॥ ८॥

श्लोक-९

मूलम् (वचनम्)

मनुरुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

येन चेतयते विश्वं विश्वं चेतयते न यम्।
यो जागर्ति शयानेऽस्मिन्नायं तं वेद वेद सः॥

मूलम्

येन चेतयते विश्वं विश्वं चेतयते न यम्।
यो जागर्ति शयानेऽस्मिन्नायं तं वेद वेद सः॥

अनुवाद (हिन्दी)

मनुजी कहा करते थे—जिनकी चेतनाके स्पर्शमात्रसे यह विश्व चेतन हो जाता है, किन्तु यह विश्व जिन्हें चेतनाका दान नहीं कर सकता; जो इसके सो जानेपर प्रलयमें भी जागते रहते हैं, जिनको यह नहीं जान सकता, परन्तु जो इसे जानते हैं—वही परमात्मा हैं॥ ९॥

श्लोक-१०

विश्वास-प्रस्तुतिः

आत्मावास्यमिदं विश्वं यत् किञ्चिज्जगत्यां जगत्।
तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्यस्विद्धनम्॥

मूलम्

आत्मावास्यमिदं विश्वं यत् किञ्चिज्जगत्यां जगत्।
तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्यस्विद्धनम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह सम्पूर्ण विश्व और इस विश्वमें रहनेवाले समस्त चर-अचर प्राणी—सब उन परमात्मासे ही ओतप्रोत हैं। इसलिये संसारके किसी भी पदार्थमें मोह न करके उसका त्याग करते हुए ही जीवन-निर्वाहमात्रके लिये उपभोग करना चाहिये। तृष्णाका सर्वथा त्याग कर देना चाहिये। भला, ये संसारकी सम्पत्तियाँ किसकी हैं?॥ १०॥

श्लोक-११

विश्वास-प्रस्तुतिः

यं न पश्यति पश्यन्तं चक्षुर्यस्य न रिष्यति।
तं भूतनिलयं देवं सुपर्णमुपधावत॥

मूलम्

यं न पश्यति पश्यन्तं चक्षुर्यस्य न रिष्यति।
तं भूतनिलयं देवं सुपर्णमुपधावत॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् सबके साक्षी हैं। उन्हें बुद्धि-वृत्तियाँ या नेत्र आदि इन्द्रियाँ नहीं देख सकतीं। परन्तु उनकी ज्ञानशक्ति अखण्ड है। समस्त प्राणियोंके हृदयमें रहनेवाले उन्हीं स्वयंप्रकाश असंग परमात्माकी शरण ग्रहण करो॥ ११॥

श्लोक-१२

विश्वास-प्रस्तुतिः

न यस्याद्यन्तौ मध्यं च स्वः परो नान्तरं बहिः।
विश्वस्यामूनि यद् यस्माद् विश्वं च तदृतं महत्॥

मूलम्

न यस्याद्यन्तौ मध्यं च स्वः परो नान्तरं बहिः।
विश्वस्यामूनि यद् यस्माद् विश्वं च तदृतं महत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिनका न आदि है न अन्त, फिर मध्य तो होगा ही कहाँसे? जिनका न कोई अपना है और न पराया और न बाहर है न भीतर, वे विश्वके आदि, अन्त, मध्य, अपने-पराये, बाहर और भीतर—सब कुछ हैं। उन्हींकी सत्तासे विश्वकी सत्ता है। वही अनन्त वास्तविक सत्य परब्रह्म हैं॥ १२॥

श्लोक-१३

विश्वास-प्रस्तुतिः

स विश्वकायः पुरुहूत ईशः
सत्यः स्वयंज्योतिरजः पुराणः।
धत्तेऽस्य जन्माद्यजयाऽऽत्मशक्त्या
तां विद्ययोदस्य निरीह आस्ते॥

मूलम्

स विश्वकायः पुरुहूत ईशः
सत्यः स्वयंज्योतिरजः पुराणः।
धत्तेऽस्य जन्माद्यजयाऽऽत्मशक्त्या
तां विद्ययोदस्य निरीह आस्ते॥

अनुवाद (हिन्दी)

वही परमात्मा विश्वरूप हैं। उनके अनन्त नाम हैं। वे सर्वशक्तिमान् सत्य, स्वयंप्रकाश, अजन्मा और पुराणपुरुष हैं। वे अपनी मायाशक्तिके द्वारा ही विश्वसृष्टिके जन्म आदिको स्वीकार कर लेते हैं और अपनी विद्याशक्तिके द्वारा उसका त्याग करके निष्क्रिय, सत्स्वरूपमात्र रहते हैं॥ १३॥

श्लोक-१४

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथाग्रे ऋषयः कर्माणीहन्तेऽकर्महेतवे।
ईहमानो हि पुरुषः प्रायोऽनीहां प्रपद्यते॥

मूलम्

अथाग्रे ऋषयः कर्माणीहन्तेऽकर्महेतवे।
ईहमानो हि पुरुषः प्रायोऽनीहां प्रपद्यते॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसीसे ऋषि-मुनि नैष्कर्म्य स्थिति अर्थात् ब्रह्मसे एकत्व प्राप्त करनेके लिये पहले कर्मयोगका अनुष्ठान करते हैं। प्रायः कर्म करनेवाला पुरुष ही अन्तमें निष्क्रिय होकर कर्मोंसे छुट्टी पा लेता है॥ १४॥

श्लोक-१५

विश्वास-प्रस्तुतिः

ईहते भगवानीशो न हि तत्र विषज्जते।
आत्मलाभेन पूर्णार्थो नावसीदन्ति येऽनु तम्॥

मूलम्

ईहते भगवानीशो न हि तत्र विषज्जते।
आत्मलाभेन पूर्णार्थो नावसीदन्ति येऽनु तम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

यों तो सर्वशक्तिमान् भगवान् भी कर्म करते हैं, परन्तु वे आत्मलाभसे पूर्णकाम होनेके कारण उन कर्मोंमें आसक्त नहीं होते। अतः उन्हींका अनुसरण करके अनासक्त रहकर कर्म करनेवाले भी कर्मबन्धनसे मुक्त ही रहते हैं॥ १५॥

श्लोक-१६

विश्वास-प्रस्तुतिः

तमीहमानं निरहङ्कृतं बुधं
निराशिषं पूर्णमनन्यचोदितम्।
नॄञ्छिक्षयन्तं निजवर्त्मसंस्थितं
प्रभुं प्रपद्येऽखिलधर्मभावनम्॥

मूलम्

तमीहमानं निरहङ्कृतं बुधं
निराशिषं पूर्णमनन्यचोदितम्।
नॄञ्छिक्षयन्तं निजवर्त्मसंस्थितं
प्रभुं प्रपद्येऽखिलधर्मभावनम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् ज्ञानस्वरूप हैं, इसलिये उनमें अहंकारका लेश भी नहीं है। वे सर्वतः परिपूर्ण हैं, इसलिये उन्हें किसी वस्तुकी कामना नहीं है। वे बिना किसीकी प्रेरणाके स्वच्छन्दरूपसे ही कर्म करते हैं। वे अपनी ही बनायी हुई मर्यादामें स्थित रहकर अपने कर्मोंके द्वारा मनुष्योंको शिक्षा देते हैं। वे ही समस्त धर्मोंके प्रवर्तक और उनके जीवनदाता हैं। मैं उन्हीं प्रभुकी शरणमें हूँ॥ १६॥

श्लोक-१७

मूलम् (वचनम्)

श्रीशुक उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

इति मन्त्रोपनिषदं व्याहरन्तं समाहितम्।
दृष्ट्वासुरा यातुधाना जग्धुमभ्यद्रवन् क्षुधा॥

मूलम्

इति मन्त्रोपनिषदं व्याहरन्तं समाहितम्।
दृष्ट्वासुरा यातुधाना जग्धुमभ्यद्रवन् क्षुधा॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! एक बार स्वायम्भुव मनु एकाग्रचित्तसे इस मन्त्रमय उपनिषत् स्वरूप श्रुतिका पाठ कर रहे थे। उन्हें नींदमें अचेत होकर बड़बड़ाते जान भूखे असुर और राक्षस खा डालनेके लिये उनपर टूट पड़े॥ १७॥

श्लोक-१८

विश्वास-प्रस्तुतिः

तांस्तथावसितान् वीक्ष्य यज्ञः सर्वगतो हरिः।
यामैः परिवृतो देवैर्हत्वाशासत् त्रिविष्टपम्॥

मूलम्

तांस्तथावसितान् वीक्ष्य यज्ञः सर्वगतो हरिः।
यामैः परिवृतो देवैर्हत्वाशासत् त्रिविष्टपम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह देखकर अन्तर्यामी भगवान् यज्ञपुरुष अपने पुत्र याम नामक देवताओंके साथ वहाँ आये। उन्होंने उन खा डालनेके निश्चयसे आये हुए असुरोंका संहार कर डाला और फिर वे इन्द्रके पदपर प्रतिष्ठित होकर स्वर्गका शासन करने लगे॥ १८॥

श्लोक-१९

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वारोचिषो द्वितीयस्तु मनुरग्नेः सुतोऽभवत्।
द्युमत्सुषेणरोचिष्मत्प्रमुखास्तस्य चात्मजाः॥

मूलम्

स्वारोचिषो द्वितीयस्तु मनुरग्नेः सुतोऽभवत्।
द्युमत्सुषेणरोचिष्मत्प्रमुखास्तस्य चात्मजाः॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! दूसरे मनु हुए स्वारोचिष। वे अग्निके पुत्र थे। उनके पुत्रोंके नाम थे—द्युमान्, सुषेण और रोचिष्मान् आदि॥ १९॥

श्लोक-२०

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्रेन्द्रो रोचनस्त्वासीद् देवाश्च तुषितादयः।
ऊर्जस्तम्भादयः सप्त ऋषयो ब्रह्मवादिनः॥

मूलम्

तत्रेन्द्रो रोचनस्त्वासीद् देवाश्च तुषितादयः।
ऊर्जस्तम्भादयः सप्त ऋषयो ब्रह्मवादिनः॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस मन्वन्तरमें इन्द्रका नाम था रोचन, प्रधान देवगण थे तुषित आदि। ऊर्जस्तम्भ आदि वेदवादीगण सप्तर्षि थे॥ २०॥

श्लोक-२१

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऋषेस्तु वेदशिरसस्तुषिता नाम पत्न्यभूत्।
तस्यां जज्ञे ततो देवो विभुरित्यभिविश्रुतः॥

मूलम्

ऋषेस्तु वेदशिरसस्तुषिता नाम पत्न्यभूत्।
तस्यां जज्ञे ततो देवो विभुरित्यभिविश्रुतः॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस मन्वन्तरमें वेदशिरा नामके ऋषिकी पत्नी तुषिता थीं। उनके गर्भसे भगवान‍्ने अवतार ग्रहण किया और विभु नामसे प्रसिद्ध हुए॥ २१॥

श्लोक-२२

विश्वास-प्रस्तुतिः

अष्टाशीतिसहस्राणि मुनयो ये धृतव्रताः।
अन्वशिक्षन्व्रतं तस्य कौमारब्रह्मचारिणः॥

मूलम्

अष्टाशीतिसहस्राणि मुनयो ये धृतव्रताः।
अन्वशिक्षन्व्रतं तस्य कौमारब्रह्मचारिणः॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे आजीवन नैष्ठिक ब्रह्मचारी रहे। उन्हींके आचरणसे शिक्षा ग्रहण करके अठासी हजार व्रतनिष्ठ ऋषियोंने भी ब्रह्मचर्यव्रतका पालन किया॥ २२॥

श्लोक-२३

विश्वास-प्रस्तुतिः

तृतीय उत्तमो नाम प्रियव्रतसुतो मनुः।
पवनः सृञ्जयो यज्ञहोत्राद्यास्तत्सुता नृप॥

मूलम्

तृतीय उत्तमो नाम प्रियव्रतसुतो मनुः।
पवनः सृञ्जयो यज्ञहोत्राद्यास्तत्सुता नृप॥

अनुवाद (हिन्दी)

तीसरे मनु थे उत्तम। वे प्रियव्रतके पुत्र थे। उनके पुत्रोंके नाम थे—पवन, सृंजय, यज्ञहोत्र आदि॥ २३॥

श्लोक-२४

विश्वास-प्रस्तुतिः

वसिष्ठतनयाः सप्त ऋषयः प्रमदादयः।
सत्या वेदश्रुता भद्रा देवा इन्द्रस्तु सत्यजित्॥

मूलम्

वसिष्ठतनयाः सप्त ऋषयः प्रमदादयः।
सत्या वेदश्रुता भद्रा देवा इन्द्रस्तु सत्यजित्॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस मन्वन्तरमें वसिष्ठजीके प्रमद आदि सात पुत्र सप्तर्षि थे। सत्य, वेदश्रुत और भद्र नामक देवताओंके प्रधान गण थे और इन्द्रका नाम था सत्यजित्॥ २४॥

श्लोक-२५

विश्वास-प्रस्तुतिः

धर्मस्य सूनृतायां तु भगवान् पुरुषोत्तमः।
सत्यसेन इति ख्यातो जातः सत्यव्रतैः सह॥

मूलम्

धर्मस्य सूनृतायां तु भगवान् पुरुषोत्तमः।
सत्यसेन इति ख्यातो जातः सत्यव्रतैः सह॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय धर्मकी पत्नी सूनृताके गर्भसे पुरुषोत्तमभगवान‍्ने सत्यसेनके नामसे अवतार ग्रहण किया था। उनके साथ सत्यव्रत नामके देवगण भी थे॥ २५॥

श्लोक-२६

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोऽनृतव्रतदुःशीलानसतो यक्षराक्षसान्।
भूतद्रुहो भूतगणांस्त्ववधीत् सत्यजित्सखः॥

मूलम्

सोऽनृतव्रतदुःशीलानसतो यक्षराक्षसान्।
भूतद्रुहो भूतगणांस्त्ववधीत् सत्यजित्सखः॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समयके इन्द्र सत्यजित् के सखा बनकर भगवान‍्ने असत्यपरायण, दुःशील और दुष्ट यक्षों, राक्षसों एवं जीवद्रोही भूतगणोंका संहार किया॥ २६॥

श्लोक-२७

विश्वास-प्रस्तुतिः

चतुर्थ उत्तमभ्राता मनुर्नाम्ना च तामसः।
पृथुः ख्यातिर्नरः केतुरित्याद्या दश तत्सुताः॥

मूलम्

चतुर्थ उत्तमभ्राता मनुर्नाम्ना च तामसः।
पृथुः ख्यातिर्नरः केतुरित्याद्या दश तत्सुताः॥

अनुवाद (हिन्दी)

चौथे मनुका नाम था तामस। वे तीसरे मनु उत्तमके सगे भाई थे। उनके पृथु, ख्याति, नर, केतु इत्यादि दस पुत्र थे॥ २७॥

श्लोक-२८

विश्वास-प्रस्तुतिः

सत्यका हरयो वीरा देवास्त्रिशिख ईश्वरः।
ज्योतिर्धामादयः सप्त ऋषयस्तामसेऽन्तरे॥

मूलम्

सत्यका हरयो वीरा देवास्त्रिशिख ईश्वरः।
ज्योतिर्धामादयः सप्त ऋषयस्तामसेऽन्तरे॥

अनुवाद (हिन्दी)

सत्यक, हरि और वीर नामक देवताओंके प्रधान गण थे। इन्द्रका नाम था त्रिशिख। उस मन्वन्तरमें ज्योतिर्धाम आदि सप्तर्षि थे॥ २८॥

श्लोक-२९

विश्वास-प्रस्तुतिः

देवा वैधृतयो नाम विधृतेस्तनया नृप।
नष्टाः कालेन यैर्वेदा विधृताः स्वेन तेजसा॥

मूलम्

देवा वैधृतयो नाम विधृतेस्तनया नृप।
नष्टाः कालेन यैर्वेदा विधृताः स्वेन तेजसा॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! उस तामस नामके मन्वन्तरमें विधृतिके पुत्र वैधृति नामके और भी देवता हुए। उन्होंने समयके फेरसे नष्टप्राय वेदोंको अपनी शक्तिसे बचाया था, इसीलिये ये ‘वैधृति’ कहलाये॥ २९॥

श्लोक-३०

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्रापि जज्ञे भगवान् हरिण्यां हरिमेधसः।
हरिरित्याहृतो येन गजेन्द्रो मोचितो ग्रहात्॥

मूलम्

तत्रापि जज्ञे भगवान् हरिण्यां हरिमेधसः।
हरिरित्याहृतो येन गजेन्द्रो मोचितो ग्रहात्॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस मन्वन्तरमें हरिमेधा ऋषिकी पत्नी हरिणीके गर्भसे हरिके रूपमें भगवान‍्ने अवतार ग्रहण किया। इसी अवतारमें उन्होंने ग्राहसे गजेन्द्रकी रक्षा की थी॥ ३०॥

श्लोक-३१

मूलम् (वचनम्)

राजोवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

बादरायण एतत् ते श्रोतुमिच्छामहे वयम्।
हरिर्यथा गजपतिं ग्राहग्रस्तममूमुचत्॥

मूलम्

बादरायण एतत् ते श्रोतुमिच्छामहे वयम्।
हरिर्यथा गजपतिं ग्राहग्रस्तममूमुचत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजा परीक्षित् ने पूछा—मुनिवर! हम आपसे यह सुनना चाहते हैं कि भगवान‍्ने गजेन्द्रको ग्राहके फंदेसे कैसे छुड़ाया था॥ ३१॥

श्लोक-३२

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्कथा सुमहत् पुण्यं धन्यं स्वस्त्ययनं शुभम्।
यत्र यत्रोत्तमश्लोको भगवान् गीयते हरिः॥

मूलम्

तत्कथा सुमहत् पुण्यं धन्यं स्वस्त्ययनं शुभम्।
यत्र यत्रोत्तमश्लोको भगवान् गीयते हरिः॥

अनुवाद (हिन्दी)

सब कथाओंमें वही कथा परम पुण्यमय, प्रशंसनीय, मंगलकारी और शुभ है, जिसमें महात्माओंके द्वारा गान किये हुए भगवान् श्रीहरिके पवित्र यशका वर्णन रहता है॥ ३२॥

श्लोक-३३

मूलम् (वचनम्)

सूत उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

परीक्षितैवं स तु बादरायणिः
प्रायोपविष्टेन कथासु चोदितः।
उवाच विप्राः प्रतिनन्द्य पार्थिवं
मुदा मुनीनां सदसि स्म शृण्वताम्॥

मूलम्

परीक्षितैवं स तु बादरायणिः
प्रायोपविष्टेन कथासु चोदितः।
उवाच विप्राः प्रतिनन्द्य पार्थिवं
मुदा मुनीनां सदसि स्म शृण्वताम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

सूतजी कहते हैं—शौनकादि ऋषियो! राजा परीक्षित् आमरण अनशन करके कथा सुननेके लिये ही बैठे हुए थे। उन्होंने जब श्रीशुकदेवजी महाराजको इस प्रकार कथा कहनेके लिये प्रेरित किया, तब वे बड़े आनन्दित हुए और प्रेमसे परीक्षित् का अभिनन्दन करके मुनियोंकी भरी सभामें कहने लगे॥ ३३॥

अनुवाद (समाप्ति)

इति श्रीमद‍्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां अष्टमस्कन्धे मन्वन्तरानुचरिते प्रथमोऽध्यायः॥ १॥