१२ सदाचारनिर्णयः

[द्वादशोऽध्यायः]

भागसूचना

ब्रह्मचर्य और वानप्रस्थ आश्रमोंके नियम

श्लोक-१

मूलम् (वचनम्)

नारद उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्रह्मचारी गुरुकुले वसन्दान्तो गुरोर्हितम्।
आचरन्दासवन्नीचो गुरौ सुदृढसौहृदः॥

मूलम्

ब्रह्मचारी गुरुकुले वसन्दान्तो गुरोर्हितम्।
आचरन्दासवन्नीचो गुरौ सुदृढसौहृदः॥

अनुवाद (हिन्दी)

नारदजी कहते हैं—धर्मराज! गुरुकुलमें निवास करनेवाला ब्रह्मचारी अपनी इन्द्रियोंको वशमें रखकर दासके समान अपनेको छोटा माने, गुरुदेवके चरणोंमें सुदृढ़ अनुराग रखे और उनके हितके कार्य करता रहे॥ १॥

श्लोक-२

विश्वास-प्रस्तुतिः

सायं प्रातरुपासीत गुर्वग्न्यर्कसुरोत्तमान्।
उभे सन्ध्ये च यतवाग् जपन्ब्रह्म समाहितः॥

मूलम्

सायं प्रातरुपासीत गुर्वग्न्यर्कसुरोत्तमान्।
उभे सन्ध्ये च यतवाग् जपन्ब्रह्म समाहितः॥

अनुवाद (हिन्दी)

सायंकाल और प्रातःकाल गुरु, अग्नि, सूर्य और श्रेष्ठ देवताओंकी उपासना करे और मौन होकर एकाग्रतासे गायत्रीका जप करता हुआ दोनों समयकी सन्ध्या करे॥ २॥

श्लोक-३

विश्वास-प्रस्तुतिः

छन्दांस्यधीयीत गुरोराहूतश्चेत् सुयन्त्रितः।
उपक्रमेऽवसाने च चरणौ शिरसा नमेत्॥

मूलम्

छन्दांस्यधीयीत गुरोराहूतश्चेत् सुयन्त्रितः।
उपक्रमेऽवसाने च चरणौ शिरसा नमेत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

गुरुजी जब बुलावें तभी पूर्णतया अनुशासनमें रहकर उनसे वेदोंका स्वाध्याय करे। पाठके प्रारम्भ और अन्तमें उनके चरणोंमें सिर टेककर प्रणाम करे॥ ३॥

श्लोक-४

विश्वास-प्रस्तुतिः

मेखलाजिनवासांसि जटादण्डकमण्डलून्।
बिभृयादुपवीतं च दर्भपाणिर्यथोदितम्॥

मूलम्

मेखलाजिनवासांसि जटादण्डकमण्डलून्।
बिभृयादुपवीतं च दर्भपाणिर्यथोदितम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

शास्त्रकी आज्ञाके अनुसार मेखला, मृगचर्म, वस्त्र, जटा, दण्ड, कमण्डलु, यज्ञोपवीत तथा हाथमें कुश धारण करे॥ ४॥

श्लोक-५

विश्वास-प्रस्तुतिः

सायं प्रातश्चरेद‍्भैक्षं गुरवे तन्निवेदयेत्।
भुञ्जीत यद्यनुज्ञातो नो चेदुपवसेत् क्वचित्॥

मूलम्

सायं प्रातश्चरेद‍्भैक्षं गुरवे तन्निवेदयेत्।
भुञ्जीत यद्यनुज्ञातो नो चेदुपवसेत् क्वचित्॥

अनुवाद (हिन्दी)

सायंकाल और प्रातःकाल भिक्षा माँगकर लावे और उसे गुरुजीको समर्पित कर दे। वे आज्ञा दें, तब भोजन करे और यदि कभी आज्ञा न दें तो उपवास कर ले॥ ५॥

श्लोक-६

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुशीलो मितभुग्दक्षःश्रद्दधानो जितेन्द्रियः।
यावदर्थं व्यवहरेत् स्त्रीषु स्त्रीनिर्जितेषु च॥

मूलम्

सुशीलो मितभुग्दक्षःश्रद्दधानो जितेन्द्रियः।
यावदर्थं व्यवहरेत् स्त्रीषु स्त्रीनिर्जितेषु च॥

अनुवाद (हिन्दी)

अपने शीलकी रक्षा करे। थोड़ा खाये। अपने कामोंको निपुणताके साथ करे। श्रद्धा रखे और इन्द्रियोंको अपने वशमें रखे। स्त्री और स्त्रियोंके वशमें रहनेवालोंके साथ जितनी आवश्यकता हो, उतना ही व्यवहार करे॥ ६॥

श्लोक-७

विश्वास-प्रस्तुतिः

वर्जयेत् प्रमदागाथामगृहस्थो बृहद्‍व्रतः।
इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्त्यपि यतेर्मनः॥

मूलम्

वर्जयेत् प्रमदागाथामगृहस्थो बृहद्‍व्रतः।
इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्त्यपि यतेर्मनः॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो गृहस्थ नहीं है और ब्रह्मचर्यका व्रत लिये हुए है, उसे स्त्रियोंकी चर्चासे ही अलग रहना चाहिये। इन्द्रियाँ बड़ी बलवान् हैं। ये प्रयत्नपूर्वक साधन करनेवालोंके मनको भी क्षुब्ध करके खींच लेती हैं॥ ७॥

श्लोक-८

विश्वास-प्रस्तुतिः

केशप्रसाधनोन्मर्दस्नपनाभ्यञ्जनादिकम्।
गुरुस्त्रीभिर्युवतिभिः कारयेन्नात्मनो युवा॥

मूलम्

केशप्रसाधनोन्मर्दस्नपनाभ्यञ्जनादिकम्।
गुरुस्त्रीभिर्युवतिभिः कारयेन्नात्मनो युवा॥

अनुवाद (हिन्दी)

युवक ब्रह्मचारी युवती गुरुपत्नियोंसे बाल सुलझवाना, शरीर मलवाना, स्नान करवाना, उबटन लगवाना इत्यादि कार्य न करावे॥ ८॥

श्लोक-९

विश्वास-प्रस्तुतिः

नन्वग्निः प्रमदा नाम घृतकुम्भसमः पुमान्।
सुतामपि रहो जह्यादन्यदा यावदर्थकृत्॥

मूलम्

नन्वग्निः प्रमदा नाम घृतकुम्भसमः पुमान्।
सुतामपि रहो जह्यादन्यदा यावदर्थकृत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

स्त्रियाँ आगके समान हैं और पुरुष घीके घड़ेके समान। एकान्तमें तो अपनी कन्याके साथ भी न रहना चाहिये। जब वह एकान्तमें न हो, तब भी आवश्यकताके अनुसार ही उसके पास रहना चाहिये॥ ९॥

श्लोक-१०

विश्वास-प्रस्तुतिः

कल्पयित्वाऽऽत्मना यावदाभासमिदमीश्वरः।
द्वैतं तावन्न विरमेत् ततो ह्यस्य विपर्ययः॥

मूलम्

कल्पयित्वाऽऽत्मना यावदाभासमिदमीश्वरः।
द्वैतं तावन्न विरमेत् ततो ह्यस्य विपर्ययः॥

अनुवाद (हिन्दी)

जबतक यह जीव आत्मसाक्षात्कारके द्वारा इन देह और इन्द्रियोंको प्रतीतिमात्र निश्चय करके स्वतन्त्र नहीं हो जाता, तबतक ‘मैं पुरुष हूँ और यह स्त्री है’—यह द्वैत नहीं मिटता और तबतक यह भी निश्चित है कि ऐसे पुरुष यदि स्त्रीके संसर्गमें रहेंगे, तो उनकी उनमें भोग्यबुद्धि हो ही जायगी॥ १०॥

श्लोक-११

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतत् सर्वं गृहस्थस्य समाम्नातं यतेरपि।
गुरुवृत्तिर्विकल्पेन गृहस्थस्यर्तुगामिनः॥

मूलम्

एतत् सर्वं गृहस्थस्य समाम्नातं यतेरपि।
गुरुवृत्तिर्विकल्पेन गृहस्थस्यर्तुगामिनः॥

अनुवाद (हिन्दी)

ये सब शील-रक्षादि गुण गृहस्थके लिये और संन्यासीके लिये भी विहित हैं। गृहस्थके लिये गुरुकुलमें रहकर गुरुकी सेवा-शुश्रूषा वैकल्पिक है, क्योंकि ऋतुगमनके कारण उसे वहाँसे अलग भी होना पड़ता है॥ ११॥

श्लोक-१२

विश्वास-प्रस्तुतिः

अञ्जनाभ्यञ्जनोन्मर्दस्त्र्यवलेखामिषं मधु।
स्रग्गन्धलेपालंकारांस्त्यजेयुर्ये धृतव्रताः॥

मूलम्

अञ्जनाभ्यञ्जनोन्मर्दस्त्र्यवलेखामिषं मधु।
स्रग्गन्धलेपालंकारांस्त्यजेयुर्ये धृतव्रताः॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो ब्रह्मचर्यका व्रत धारण करें, उन्हें चाहिये कि वे सुरमा या तेल न लगावें। उबटन न मलें। स्त्रियोंके चित्र न बनावें। मांस और मद्यसे कोई सम्बन्ध न रखें। फूलोंके हार, इत्र-फुलेल, चन्दन और आभूषणोंका त्याग कर दें॥ १२॥

श्लोक-१३

विश्वास-प्रस्तुतिः

उषित्वैवं गुरुकुले द्विजोऽधीत्यावबुध्य च।
त्रयीं साङ्गोपनिषदं यावदर्थं यथाबलम्॥

मूलम्

उषित्वैवं गुरुकुले द्विजोऽधीत्यावबुध्य च।
त्रयीं साङ्गोपनिषदं यावदर्थं यथाबलम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार गुरुकुलमें निवास करके द्विजातिको अपनी शक्ति और आवश्यकताके अनुसार वेद, उनके अंग—शिक्षा, कल्प आदि और उपनिषदोंका अध्ययन तथा ज्ञान प्राप्त करना चाहिये॥ १३॥

श्लोक-१४

विश्वास-प्रस्तुतिः

दत्त्वा वरमनुज्ञातो गुरोः कामं यदीश्वरः।
गृहं वनं वा प्रविशेत् प्रव्रजेत् तत्र वा वसेत्॥

मूलम्

दत्त्वा वरमनुज्ञातो गुरोः कामं यदीश्वरः।
गृहं वनं वा प्रविशेत् प्रव्रजेत् तत्र वा वसेत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर यदि सामर्थ्य हो तो गुरुको मुँहमाँगी दक्षिणा देनी चाहिये। इसके बाद उनकी आज्ञासे गृहस्थ, वानप्रस्थ अथवा संन्यास-आश्रममें प्रवेश करे या आजीवन ब्रह्मचर्यका पालन करते हुए उसी आश्रममें रहे॥ १४॥

श्लोक-१५

विश्वास-प्रस्तुतिः

अग्नो गुरावात्मनि च सर्वभूतेष्वधोक्षजम्।
भूतैः स्वधामभिः पश्येदप्रविष्टं प्रविष्टवत्॥

मूलम्

अग्नो गुरावात्मनि च सर्वभूतेष्वधोक्षजम्।
भूतैः स्वधामभिः पश्येदप्रविष्टं प्रविष्टवत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

यद्यपि भगवान् स्वरूपतः सर्वत्र एकरस स्थित हैं, अतएव उनका कहीं प्रवेश करना या निकलना नहीं हो सकता—फिर भी अग्नि, गुरु, आत्मा और समस्त प्राणियोंमें अपने आश्रित जीवोंके साथ वे विशेषरूपसे विराजमान हैं। इसलिये उनपर सदा दृष्टि जमी रहनी चाहिये॥ १५॥

श्लोक-१६

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवंविधो ब्रह्मचारी वानप्रस्थो यतिर्गृही।
चरन्विदितविज्ञानः परं ब्रह्माधिगच्छति॥

मूलम्

एवंविधो ब्रह्मचारी वानप्रस्थो यतिर्गृही।
चरन्विदितविज्ञानः परं ब्रह्माधिगच्छति॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार आचरण करनेवाला ब्रह्मचारी, वानप्रस्थ, संन्यासी अथवा गृहस्थ विज्ञानसम्पन्न होकर परब्रह्मतत्त्वका अनुभव प्राप्त कर लेता है॥ १६॥

श्लोक-१७

विश्वास-प्रस्तुतिः

वानप्रस्थस्य वक्ष्यामि नियमान्मुनिसम्मतान्।
यानातिष्ठन् मुनिर्गच्छेदृषिलोकमिहाञ्जसा॥

मूलम्

वानप्रस्थस्य वक्ष्यामि नियमान्मुनिसम्मतान्।
यानातिष्ठन् मुनिर्गच्छेदृषिलोकमिहाञ्जसा॥

अनुवाद (हिन्दी)

अब मैं ऋषियोंके मतानुसार वानप्रस्थ-आश्रमके नियम बतलाता हूँ। इनका आचरण करनेसे वानप्रस्थ-आश्रमीको अनायास ही ऋषियोंके लोक महर्लोककी प्राप्ति हो जाती है॥ १७॥

श्लोक-१८

विश्वास-प्रस्तुतिः

न कृष्टपच्यमश्नीयादकृष्टं चाप्यकालतः।
अग्निपक्वमथामं वा अर्कपक्वमुताहरेत्॥

मूलम्

न कृष्टपच्यमश्नीयादकृष्टं चाप्यकालतः।
अग्निपक्वमथामं वा अर्कपक्वमुताहरेत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

वानप्रस्थ-आश्रमीको जोती हुई भूमिमें उत्पन्न होनेवाले चावल, गेहूँ आदि अन्न नहीं खाने चाहिये। बिना जोते पैदा हुआ अन्न भी यदि असमयमें पका हो, तो उसे भी न खाना चाहिये। आगसे पकाया हुआ या कच्चा अन्न भी न खाय। केवल सूर्यके तापसे पके हुए कन्द, मूल, फल आदिका ही सेवन करे॥ १८॥

श्लोक-१९

विश्वास-प्रस्तुतिः

वन्यैश्चरुपुरोडाशान् निर्वपेत् कालचोदितान्।
लब्धे नवे नवेऽन्नाद्ये पुराणं तु परित्यजेत्॥

मूलम्

वन्यैश्चरुपुरोडाशान् निर्वपेत् कालचोदितान्।
लब्धे नवे नवेऽन्नाद्ये पुराणं तु परित्यजेत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

जंगलोंमें अपने-आप पैदा हुए धान्योंसे नित्य-नैमित्तिक चरु और पुरोडाशका हवन करे। जब नये-नये अन्न, फल, फूल आदि मिलने लगें, तब पहलेके इकट्ठे किये हुए अन्नका परित्याग कर दे॥ १९॥

श्लोक-२०

विश्वास-प्रस्तुतिः

अग्न्यर्थमेव शरणमुटजं वाद्रिकन्दराम्।
श्रयेत हिमवाय्वग्निवर्षार्कातपषाट् स्वयम्॥

मूलम्

अग्न्यर्थमेव शरणमुटजं वाद्रिकन्दराम्।
श्रयेत हिमवाय्वग्निवर्षार्कातपषाट् स्वयम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

अग्निहोत्रके अग्निकी रक्षाके लिये ही घर, पर्णकुटी अथवा पहाड़की गुफाका आश्रय ले। स्वयं शीत, वायु, अग्नि, वर्षा और घामका सहन करे॥ २०॥

श्लोक-२१

विश्वास-प्रस्तुतिः

केशरोमनखश्मश्रुमलानि जटिलो दधत्।
कमण्डल्वजिने दण्डवल्कलाग्निपरिच्छदान्॥

मूलम्

केशरोमनखश्मश्रुमलानि जटिलो दधत्।
कमण्डल्वजिने दण्डवल्कलाग्निपरिच्छदान्॥

अनुवाद (हिन्दी)

सिरपर जटा धारण करे और केश, रोम, नख एवं दाढ़ी-मूँछ न कटवाये तथा मैलको भी शरीरसे अलग न करे। कमण्डलु, मृगचर्म, दण्ड, वल्कल-वस्त्र और अग्निहोत्रकी सामग्रियोंको अपने पास रखे॥ २१॥

श्लोक-२२

विश्वास-प्रस्तुतिः

चरेद् वने द्वादशाब्दानष्टौ वा चतुरो मुनिः।
द्वावेकं वा यथा बुद्धिर्न विपद्येत कृच्छ्रतः॥

मूलम्

चरेद् वने द्वादशाब्दानष्टौ वा चतुरो मुनिः।
द्वावेकं वा यथा बुद्धिर्न विपद्येत कृच्छ्रतः॥

अनुवाद (हिन्दी)

विचारवान् पुरुषको चाहिये कि बारह, आठ, चार, दो या एक वर्षतक वानप्रस्थ-आश्रमके नियमोंका पालन करे। ध्यान रहे कि कहीं अधिक तपस्याका क्लेश सहन करनेसे बुद्धि बिगड़ न जाय॥ २२॥

श्लोक-२३

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदाकल्पः स्वक्रियायां व्याधिभिर्जरयाथवा।
आन्वीक्षिक्यां वा विद्यायां कुर्यादनशनादिकम्॥

मूलम्

यदाकल्पः स्वक्रियायां व्याधिभिर्जरयाथवा।
आन्वीक्षिक्यां वा विद्यायां कुर्यादनशनादिकम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

वानप्रस्थी पुरुष जब रोग अथवा बुढ़ापेके कारण अपने कर्म पूरे न कर सके और वेदान्त-विचार करनेकी भी सामर्थ्य न रहे, तब उसे अनशन आदि व्रत करने चाहिये॥ २३॥

श्लोक-२४

विश्वास-प्रस्तुतिः

आत्मन्यग्नीन्समारोप्य संन्यस्याहंममात्मताम्।
कारणेषु न्यसेत् सम्यक् संघातं तु यथार्हतः॥

मूलम्

आत्मन्यग्नीन्समारोप्य संन्यस्याहंममात्मताम्।
कारणेषु न्यसेत् सम्यक् संघातं तु यथार्हतः॥

अनुवाद (हिन्दी)

अनशनके पूर्व ही वह अपने आहवनीय आदि अग्नियोंको अपनी आत्मामें लीन कर ले। ‘मैंपन’ और ‘मेरेपन’ का त्याग करके शरीरको उसके कारणभूत तत्त्वोंमें यथायोग्य भलीभाँति लीन करे॥ २४॥

श्लोक-२५

विश्वास-प्रस्तुतिः

खे खानि वायौ निःश्वासांस्तेजस्यूष्माणमात्मवान्।
अप्स्वसृक्श्लेष्मपूयानि क्षितौ शेषं यथोद‍्भवम्॥

मूलम्

खे खानि वायौ निःश्वासांस्तेजस्यूष्माणमात्मवान्।
अप्स्वसृक्श्लेष्मपूयानि क्षितौ शेषं यथोद‍्भवम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

जितेन्द्रिय पुरुष अपने शरीरके छिद्राकाशोंको आकाशमें, प्राणोंको वायुमें, गरमीको अग्निमें, रक्त, कफ, पीब आदि जलीय तत्त्वोंको जलमें और हड्डी आदि ठोस वस्तुओंको पृथ्वीमें लीन करे॥ २५॥

श्लोक-२६

विश्वास-प्रस्तुतिः

वाचमग्नौ सवक्तव्यामिन्द्रे शिल्पं करावपि।
पदानि गत्या वयसि रत्योपस्थं प्रजापतौ॥

मूलम्

वाचमग्नौ सवक्तव्यामिन्द्रे शिल्पं करावपि।
पदानि गत्या वयसि रत्योपस्थं प्रजापतौ॥

श्लोक-२७

विश्वास-प्रस्तुतिः

मृत्यौ पायुं विसर्गं च यथास्थानं विनिर्दिशेत्।
दिक्षु श्रोत्रं सनादेन स्पर्शमध्यात्मनि त्वचम्॥

मूलम्

मृत्यौ पायुं विसर्गं च यथास्थानं विनिर्दिशेत्।
दिक्षु श्रोत्रं सनादेन स्पर्शमध्यात्मनि त्वचम्॥

श्लोक-२८

विश्वास-प्रस्तुतिः

रूपाणि चक्षुषा राजन् ज्योतिष्यभिनिवेशयेत्।
अप्सु प्रचेतसा जिह्वां घ्रेयैर्घ्राणं क्षितौ न्यसेत्॥

मूलम्

रूपाणि चक्षुषा राजन् ज्योतिष्यभिनिवेशयेत्।
अप्सु प्रचेतसा जिह्वां घ्रेयैर्घ्राणं क्षितौ न्यसेत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसी प्रकार वाणी और उसके कर्म भाषणको उसके अधिष्ठातृदेवता अग्निमें, हाथ और उसके द्वारा होनेवाले कला-कौशलको इन्द्रमें, चरण और उसकी गतिको कालस्वरूप विष्णुमें, रति और उपस्थको प्रजापतिमें एवं पायु और मलोत्सर्गको उनके आश्रयके अनुसार मृत्युमें लीन कर दे। श्रोत्र और उसके द्वारा सुने जानेवाले शब्दको दिशाओंमें, स्पर्श और त्वचाको वायुमें, नेत्रसहित रूपको ज्योतिमें, मधुर आदि रसके सहित* रसनेन्द्रियको जलमें और युधिष्ठिर! घ्राणेन्द्रिय एवं उसके द्वारा सूँघे जानेवाले गन्धको पृथ्वीमें लीन कर दे॥ २६—२८॥

पादटिप्पनी
  • यहाँ मूलमें ‘प्रचेतसा’ पद है, जिसका अर्थ ‘वरुणके सहित’ होता है। वरुण रसनेन्द्रियके अधिष्ठाता हैं। श्रीधर-स्वामीने भी इसी मतको स्वीकार किया है। परन्तु इस प्रसंगमें सर्वत्र इन्द्रिय और उसके विषयका अधिष्ठातृदेवमें लय करना बताया गया है, फिर रसनेन्द्रियके लिये ही नया क्रम युक्तियुक्त नहीं जँचता। इसलिये यहाँ श्रीविश्वनाथ चक्रवर्तीके मतानुसार ‘प्रचेतसा’ पदका (‘प्रकृष्टं चेतो यत्र स प्रचेतो मधुरादिरसस्तेन’—जिसकी ओर चित्त अधिक आकृष्ट हो, वह मधुरादि रस ‘प्रचेतस्’ है, उसके सहित) इस विग्रहके अनुसार प्रस्तुत अर्थ किया गया है और यही युक्तियुक्त मालूम होता है।

श्लोक-२९

विश्वास-प्रस्तुतिः

मनो मनोरथैश्चन्द्रे बुद्धिं बोध्यैः कवौ परे।
कर्माण्यध्यात्मना रुद्रे यदहंममताक्रिया।
सत्त्वेन चित्तं क्षेत्रज्ञे गुणैर्वैकारिकं परे॥

मूलम्

मनो मनोरथैश्चन्द्रे बुद्धिं बोध्यैः कवौ परे।
कर्माण्यध्यात्मना रुद्रे यदहंममताक्रिया।
सत्त्वेन चित्तं क्षेत्रज्ञे गुणैर्वैकारिकं परे॥

अनुवाद (हिन्दी)

मनोरथोंके साथ मनको चन्द्रमामें, समझमें आनेवाले पदार्थोंके सहित बुद्धिको ब्रह्मामें तथा अहंता और ममतारूप क्रिया करनेवाले अहंकारको उसके कर्मोंके साथ रुद्रमें लीन कर दे। इसी प्रकार चेतना-सहित चित्तको क्षेत्रज्ञ (जीव)-में और गुणोंके कारण विकारी-से प्रतीत होनेवाले जीवको परब्रह्ममें लीन कर दे॥ २९॥

श्लोक-३०

विश्वास-प्रस्तुतिः

अप्सु क्षितिमपो ज्योतिष्यदो वायौ नभस्यमुम्।
कूटस्थे तच्च महति तदव्यक्तेऽक्षरे च तत्॥

मूलम्

अप्सु क्षितिमपो ज्योतिष्यदो वायौ नभस्यमुम्।
कूटस्थे तच्च महति तदव्यक्तेऽक्षरे च तत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

साथ ही पृथ्वीका जलमें, जलका अग्निमें, अग्निका वायुमें, वायुका आकाशमें, आकाशका अहंकारमें, अहंकारका महत्तत्त्वमें, महत्तत्त्वका अव्यक्तमें और अव्यक्तका अविनाशी परमात्मामें लयकर दे॥ ३०॥

श्लोक-३१

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्यक्षरतयाऽऽत्मानं चिन्मात्रमवशेषितम्।
ज्ञात्वाद्वियोऽथ विरमेद् दग्धयोनिरिवानलः॥

मूलम्

इत्यक्षरतयाऽऽत्मानं चिन्मात्रमवशेषितम्।
ज्ञात्वाद्वियोऽथ विरमेद् दग्धयोनिरिवानलः॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार अविनाशी परमात्माके रूपमें अवशिष्ट जो चिद्वस्तु है, वह आत्मा है, वह मैं हूँ—यह जानकर अद्वितीय भावमें स्थित हो जाय। जैसे अपने आश्रय काष्ठादिके भस्म हो जानेपर अग्नि शान्त होकर अपने स्वरूपमें स्थित हो जाता है, वैसे ही वह भी उपरत हो जाय॥ ३१॥

अनुवाद (समाप्ति)

इति श्रीमद‍्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां सप्तमस्कन्धे युधिष्ठिरनारदसंवादे सदाचारनिर्णयो नाम द्वादशोऽध्यायः॥ १२॥