[दशमोऽध्यायः]
भागसूचना
प्रह्लादजीके राज्याभिषेक और त्रिपुरदहनकी कथा
श्लोक-१
मूलम् (वचनम्)
नारद उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
भक्तियोगस्य तत् सर्वमन्तरायतयार्भकः।
मन्यमानो हृषीकेशं स्मयमान उवाच ह॥
मूलम्
भक्तियोगस्य तत् सर्वमन्तरायतयार्भकः।
मन्यमानो हृषीकेशं स्मयमान उवाच ह॥
अनुवाद (हिन्दी)
नारदजी कहते हैं—प्रह्लादजीने बालक होनेपर भी यही समझा कि वरदान माँगना प्रेम-भक्तिका विघ्न है; इसलिये कुछ मुसकराते हुए वे भगवान्से बोले॥ १॥
श्लोक-२
मूलम् (वचनम्)
प्रह्राद उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
मा मां प्रलोभयोत्पत्त्याऽऽसक्तं कामेषु तैर्वरैः।
तत्सङ्गभीतो निर्विण्णो मुमुक्षुस्त्वामुपाश्रितः॥
मूलम्
मा मां प्रलोभयोत्पत्त्याऽऽसक्तं कामेषु तैर्वरैः।
तत्सङ्गभीतो निर्विण्णो मुमुक्षुस्त्वामुपाश्रितः॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रह्लादजीने कहा—प्रभो! मैं जन्मसे ही विषयभोगोंमें आसक्त हूँ, अब मुझे इन वरोंके द्वारा आप लुभाइये नहीं। मैं उन भोगोंके संगसे डरकर, उनके द्वारा होनेवाली तीव्र वेदनाका अनुभव कर उनसे छूटनेकी अभिलाषासे ही आपकी शरणमें आया हूँ॥ २॥
श्लोक-३
विश्वास-प्रस्तुतिः
भृत्यलक्षणजिज्ञासुर्भक्तं कामेष्वचोदयत्।
भवान् संसारबीजेषु हृदयग्रन्थिषु प्रभो॥
मूलम्
भृत्यलक्षणजिज्ञासुर्भक्तं कामेष्वचोदयत्।
भवान् संसारबीजेषु हृदयग्रन्थिषु प्रभो॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवन्! मुझमें भक्तके लक्षण हैं या नहीं—यह जाननेके लिये आपने अपने भक्तको वरदान माँगनेकी ओर प्रेरित किया है। ये विषय-भोग हृदयकी गाँठको और भी मजबूत करनेवाले तथा बार-बार जन्म-मृत्युके चक्करमें डालनेवाले हैं॥ ३॥
श्लोक-४
विश्वास-प्रस्तुतिः
नान्यथा तेऽखिलगुरो घटेत करुणात्मनः।
यस्त आशिष आशास्ते न स भृत्यः स वै वणिक्॥
मूलम्
नान्यथा तेऽखिलगुरो घटेत करुणात्मनः।
यस्त आशिष आशास्ते न स भृत्यः स वै वणिक्॥
अनुवाद (हिन्दी)
जगद्गुरो! परीक्षाके सिवा ऐसा कहनेका और कोई कारण नहीं दीखता; क्योंकि आप परम दयालु हैं। (अपने भक्तको भोगोंमें फँसानेवाला वर कैसे दे सकते हैं?) आपसे जो सेवक अपनी कामनाएँ पूर्ण करना चाहता है, वह सेवक नहीं; वह तो लेन-देन करनेवाला निरा बनिया है॥ ४॥
श्लोक-५
विश्वास-प्रस्तुतिः
आशासानो न वै भृत्यः स्वामिन्याशिष आत्मनः।
न स्वामी भृत्यतः स्वाम्यमिच्छन् यो राति चाशिषः॥
मूलम्
आशासानो न वै भृत्यः स्वामिन्याशिष आत्मनः।
न स्वामी भृत्यतः स्वाम्यमिच्छन् यो राति चाशिषः॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो स्वामीसे अपनी कामनाओंकी पूर्ति चाहता है, वह सेवक नहीं; और जो सेवकसे सेवा करानेके लिये, उसका स्वामी बननेके लिये उसकी कामनाएँ पूर्ण करता है, वह स्वामी नहीं॥ ५॥
श्लोक-६
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहं त्वकामस्त्वद्भक्तस्त्वं च स्वाम्यनपाश्रयः।
नान्यथेहावयोरर्थो राजसेवकयोरिव॥
मूलम्
अहं त्वकामस्त्वद्भक्तस्त्वं च स्वाम्यनपाश्रयः।
नान्यथेहावयोरर्थो राजसेवकयोरिव॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैं आपका निष्काम सेवक हूँ और आप मेरे निरपेक्ष स्वामी हैं। जैसे राजा और उसके सेवकोंका प्रयोजनवश स्वामी-सेवकका सम्बन्ध रहता है, वैसा तो मेरा और आपका सम्बन्ध है नहीं॥ ६॥
श्लोक-७
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदि रासीश मे कामान् वरांस्त्वं वरदर्षभ।
कामानां हृद्यसंरोहं भवतस्तु वृणे वरम्॥
मूलम्
यदि रासीश मे कामान् वरांस्त्वं वरदर्षभ।
कामानां हृद्यसंरोहं भवतस्तु वृणे वरम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
मेरे वरदानिशिरोमणि स्वामी! यदि आप मुझे मुँहमाँगा वर देना ही चाहते हैं तो यह वर दीजिये कि मेरे हृदयमें कभी किसी कामनाका बीज अंकुरित ही न हो॥ ७॥
श्लोक-८
विश्वास-प्रस्तुतिः
इन्द्रियाणि मनः प्राण आत्मा धर्मो धृतिर्मतिः।
ह्रीः श्रीस्तेजः स्मृतिः सत्यं यस्य नश्यन्ति जन्मना॥
मूलम्
इन्द्रियाणि मनः प्राण आत्मा धर्मो धृतिर्मतिः।
ह्रीः श्रीस्तेजः स्मृतिः सत्यं यस्य नश्यन्ति जन्मना॥
अनुवाद (हिन्दी)
हृदयमें किसी भी कामनाके उदय होते ही इन्द्रिय, मन, प्राण, देह, धर्म, धैर्य, बुद्धि, लज्जा, श्री, तेज, स्मृति और सत्य—ये सब-के-सब नष्ट हो जाते हैं॥ ८॥
श्लोक-९
विश्वास-प्रस्तुतिः
विमुञ्चति यदा कामान् मानवो मनसि स्थितान्।
तर्ह्येव पुण्डरीकाक्ष भगवत्त्वाय कल्पते॥
मूलम्
विमुञ्चति यदा कामान् मानवो मनसि स्थितान्।
तर्ह्येव पुण्डरीकाक्ष भगवत्त्वाय कल्पते॥
अनुवाद (हिन्दी)
कमलनयन! जिस समय मनुष्य अपने मनमें रहनेवाली कामनाओंका परित्याग कर देता है, उसी समय वह भगवत्स्वरूपको प्राप्त कर लेता है॥ ९॥
श्लोक-१०
विश्वास-प्रस्तुतिः
नमो भगवते तुभ्यं पुरुषाय महात्मने।
हरयेऽद्भुतसिंहाय ब्रह्मणे परमात्मने॥
मूलम्
नमो भगवते तुभ्यं पुरुषाय महात्मने।
हरयेऽद्भुतसिंहाय ब्रह्मणे परमात्मने॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवन्! आपको नमस्कार है। आप सबके हृदयमें विराजमान, उदारशिरोमणि स्वयं परब्रह्म परमात्मा हैं। अद्भुत नृसिंहरूपधारी श्रीहरिके चरणोंमें मैं बार-बार प्रणाम करता हूँ॥ १०॥
श्लोक-११
मूलम् (वचनम्)
नृसिंह उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
नैकान्तिनो मे मयि जात्विहाशिष
आशासतेऽमुत्र च ये भवद्विधाः।
अथापि मन्वन्तरमेतदत्र
दैत्येश्वराणामनुभुङ्क्ष्व भोगान्॥
मूलम्
नैकान्तिनो मे मयि जात्विहाशिष
आशासतेऽमुत्र च ये भवद्विधाः।
अथापि मन्वन्तरमेतदत्र
दैत्येश्वराणामनुभुङ्क्ष्व भोगान्॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीनृसिंहभगवान्ने कहा—प्रह्लाद! तुम्हारे-जैसे मेरे एकान्तप्रेमी इस लोक अथवा परलोककी किसी भी वस्तुके लिये कभी कोई कामना नहीं करते। फिर भी अधिक नहीं, केवल एक मन्वन्तरतक मेरी प्रसन्नताके लिये तुम इस लोकमें दैत्याधिपतियोंके समस्त भोग स्वीकार कर लो॥ ११॥
श्लोक-१२
विश्वास-प्रस्तुतिः
कथा मदीया जुषमाणः प्रियास्त्व-
मावेश्य मामात्मनि सन्तमेकम्।
सर्वेषु भूतेष्वधियज्ञमीशं
यजस्व योगेन च कर्म हिन्वन्॥
मूलम्
कथा मदीया जुषमाणः प्रियास्त्व-
मावेश्य मामात्मनि सन्तमेकम्।
सर्वेषु भूतेष्वधियज्ञमीशं
यजस्व योगेन च कर्म हिन्वन्॥
अनुवाद (हिन्दी)
समस्त प्राणियोंके हृदयमें यज्ञोंके भोक्ता ईश्वरके रूपमें मैं ही विराजमान हूँ। तुम अपने हृदयमें मुझे देखते रहना और मेरी लीला-कथाएँ, जो तुम्हें अत्यन्त प्रिय हैं, सुनते रहना। समस्त कर्मोंके द्वारा मेरी ही आराधना करना और इस प्रकार अपने प्रारब्ध-कर्मका क्षय कर देना॥ १२॥
श्लोक-१३
विश्वास-प्रस्तुतिः
भोगेन पुण्यं कुशलेन पापं
कलेवरं कालजवेन हित्वा।
कीर्तिं विशुद्धां सुरलोकगीतां
विताय मामेष्यसि मुक्तबन्धः॥
मूलम्
भोगेन पुण्यं कुशलेन पापं
कलेवरं कालजवेन हित्वा।
कीर्तिं विशुद्धां सुरलोकगीतां
विताय मामेष्यसि मुक्तबन्धः॥
अनुवाद (हिन्दी)
भोगके द्वारा पुण्यकर्मोंके फल और निष्काम पुण्यकर्मोंके द्वारा पापका नाश करते हुए समयपर शरीरका त्याग करके समस्त बन्धनोंसे मुक्त होकर तुम मेरे पास आ जाओगे। देवलोकमें भी लोग तुम्हारी विशुद्ध कीर्तिका गान करेंगे॥ १३॥
श्लोक-१४
विश्वास-प्रस्तुतिः
य एतत् कीर्तयेन्मह्यं त्वया गीतमिदं नरः।
त्वां च मां च स्मरन्काले कर्मबन्धात् प्रमुच्यते॥
मूलम्
य एतत् कीर्तयेन्मह्यं त्वया गीतमिदं नरः।
त्वां च मां च स्मरन्काले कर्मबन्धात् प्रमुच्यते॥
अनुवाद (हिन्दी)
तुम्हारे द्वारा की हुई मेरी इस स्तुतिका जो मनुष्य कीर्तन करेगा और साथ ही मेरा और तुम्हारा स्मरण भी करेगा, वह समयपर कर्मोंके बन्धनसे मुक्त हो जायगा॥ १४॥
श्लोक-१५
मूलम् (वचनम्)
प्रह्राद उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
वरं वरय एतत् ते वरदेशान्महेश्वर।
यदनिन्दत् पिता मे त्वामविद्वांस्तेज ऐश्वरम्॥
मूलम्
वरं वरय एतत् ते वरदेशान्महेश्वर।
यदनिन्दत् पिता मे त्वामविद्वांस्तेज ऐश्वरम्॥
श्लोक-१६
विश्वास-प्रस्तुतिः
विद्धामर्षाशयः साक्षात् सर्वलोकगुरुं प्रभुम्।
भ्रातृहेति मृषादृष्टिस्त्वद्भक्ते मयि चाघवान्॥
मूलम्
विद्धामर्षाशयः साक्षात् सर्वलोकगुरुं प्रभुम्।
भ्रातृहेति मृषादृष्टिस्त्वद्भक्ते मयि चाघवान्॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रह्लादजीने कहा—महेश्वर! आप वर देनेवालोंके स्वामी हैं। आपसे मैं एक वर और माँगता हूँ। मेरे पिताने आपके ईश्वरीय तेजको और सर्वशक्तिमान् चराचरगुरु स्वयं आपको न जानकर आपकी बड़ी निन्दा की है। ‘इस विष्णुने मेरे भाईको मार डाला है’ ऐसी मिथ्यादृष्टि रखनेके कारण पिताजी क्रोधके वेगको सहन करनेमें असमर्थ हो गये थे। इसीसे उन्होंने आपका भक्त होनेके कारण मुझसे भी द्रोह किया॥ १५-१६॥
श्लोक-१७
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मात् पिता मे पूयेत दुरन्ताद् दुस्तरादघात्।
पूतस्तेऽपाङ्गसंदृष्टस्तदा कृपणवत्सल॥
मूलम्
तस्मात् पिता मे पूयेत दुरन्ताद् दुस्तरादघात्।
पूतस्तेऽपाङ्गसंदृष्टस्तदा कृपणवत्सल॥
अनुवाद (हिन्दी)
दीनबन्धो! यद्यपि आपकी दृष्टि पड़ते ही वे पवित्र हो चुके, फिर भी मैं आपसे प्रार्थना करता हूँ कि उस जल्दी नाश न होनेवाले दुस्तर दोषसे मेरे पिता शुद्ध हो जायँ॥ १७॥
श्लोक-१८
मूलम् (वचनम्)
श्रीभगवानुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्रिःसप्तभिः पिता पूतः पितृभिः सह तेऽनघ।
यत् साधोऽस्य गृहे जातो भवान्वै कुलपावनः॥
मूलम्
त्रिःसप्तभिः पिता पूतः पितृभिः सह तेऽनघ।
यत् साधोऽस्य गृहे जातो भवान्वै कुलपावनः॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीनृसिंहभगवान्ने कहा—निष्पाप प्रह्लाद! तुम्हारे पिता स्वयं पवित्र होकर तर गये, इसकी तो बात ही क्या है, यदि उनकी इक्कीस पीढ़ियोंके पितर होते तो उन सबके साथ भी वे तर जाते; क्योंकि तुम्हारे-जैसा कुलको पवित्र करनेवाला पुत्र उनको प्राप्त हुआ॥ १८॥
श्लोक-१९
विश्वास-प्रस्तुतिः
यत्र यत्र च मद्भक्ताः प्रशान्ताः समदर्शिनः।
साधवः समुदाचारास्ते पूयन्त्यपि कीकटाः॥
मूलम्
यत्र यत्र च मद्भक्ताः प्रशान्ताः समदर्शिनः।
साधवः समुदाचारास्ते पूयन्त्यपि कीकटाः॥
अनुवाद (हिन्दी)
मेरे शान्त, समदर्शी और सुखसे सदाचार पालन करनेवाले प्रेमी भक्तजन जहाँ-जहाँ निवास करते हैं, वे स्थान चाहे कीकट ही क्यों न हों, पवित्र हो जाते हैं॥ १९॥
श्लोक-२०
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वात्मना न हिंसन्ति भूतग्रामेषु किञ्चन।
उच्चावचेषु दैत्येन्द्र मद्भावेन गतस्पृहाः॥
मूलम्
सर्वात्मना न हिंसन्ति भूतग्रामेषु किञ्चन।
उच्चावचेषु दैत्येन्द्र मद्भावेन गतस्पृहाः॥
अनुवाद (हिन्दी)
दैत्यराज! मेरे भक्तिभावसे जिनकी कामनाएँ नष्ट हो गयी हैं, वे सर्वत्र आत्मभाव हो जानेके कारण छोटे-बड़े किसी भी प्राणीको किसी भी प्रकारसे कष्ट नहीं पहुँचाते॥ २०॥
श्लोक-२१
विश्वास-प्रस्तुतिः
भवन्ति पुरुषा लोके मद्भक्तास्त्वामनुव्रताः।
भवान्मे खलु भक्तानां सर्वेषां प्रतिरूपधृक्॥
मूलम्
भवन्ति पुरुषा लोके मद्भक्तास्त्वामनुव्रताः।
भवान्मे खलु भक्तानां सर्वेषां प्रतिरूपधृक्॥
अनुवाद (हिन्दी)
संसारमें जो लोग तुम्हारे अनुयायी होंगे, वे भी मेरे भक्त हो जायँगे। बेटा! तुम मेरे सभी भक्तोंके आदर्श हो॥ २१॥
श्लोक-२२
विश्वास-प्रस्तुतिः
कुरु त्वं प्रेतकार्याणि पितुः पूतस्य सर्वशः।
मदङ्गस्पर्शनेनाङ्ग लोकान्यास्यति सुप्रजाः॥
मूलम्
कुरु त्वं प्रेतकार्याणि पितुः पूतस्य सर्वशः।
मदङ्गस्पर्शनेनाङ्ग लोकान्यास्यति सुप्रजाः॥
अनुवाद (हिन्दी)
यद्यपि मेरे अंगोंका स्पर्श होनेसे तुम्हारे पिता पूर्णरूपसे पवित्र हो गये हैं, तथापि तुम उनकी अन्त्येष्टि-क्रिया करो। तुम्हारे-जैसी सन्तानके कारण उन्हें उत्तम लोकोंकी प्राप्ति होगी॥ २२॥
श्लोक-२३
विश्वास-प्रस्तुतिः
पित्र्यं च स्थानमातिष्ठ यथोक्तं ब्रह्मवादिभिः।
मय्यावेश्य मनस्तात कुरु कर्माणि मत्परः॥
मूलम्
पित्र्यं च स्थानमातिष्ठ यथोक्तं ब्रह्मवादिभिः।
मय्यावेश्य मनस्तात कुरु कर्माणि मत्परः॥
अनुवाद (हिन्दी)
वत्स! तुम अपने पिताके पदपर स्थित हो जाओ और वेदवादी मुनियोंकी आज्ञाके अनुसार मुझमें अपना मन लगाकर और मेरी शरणमें रहकर मेरी सेवाके लिये ही अपने सारे कार्य करो॥ २३॥
श्लोक-२४
मूलम् (वचनम्)
नारद उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रह्रादोऽपि तथा चक्रे पितुर्यत्साम्परायिकम्।
यथाऽऽह भगवान् राजन्नभिषिक्तो द्विजोत्तमैः॥
मूलम्
प्रह्रादोऽपि तथा चक्रे पितुर्यत्साम्परायिकम्।
यथाऽऽह भगवान् राजन्नभिषिक्तो द्विजोत्तमैः॥
अनुवाद (हिन्दी)
नारदजी कहते हैं—युधिष्ठिर! भगवान्की आज्ञाके अनुसार प्रह्लादजीने अपने पिताकी अन्त्येष्टि-क्रिया की, इसके बाद श्रेष्ठ ब्राह्मणोंने उनका राज्याभिषेक किया॥ २४॥
श्लोक-२५
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रसादसुमुखं दृष्ट्वा ब्रह्मा नरहरिं हरिम्।
स्तुत्वा वाग्भिः पवित्राभिः प्राह देवादिभिर्वृतः॥
मूलम्
प्रसादसुमुखं दृष्ट्वा ब्रह्मा नरहरिं हरिम्।
स्तुत्वा वाग्भिः पवित्राभिः प्राह देवादिभिर्वृतः॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसी समय देवता, ऋषि आदिके साथ ब्रह्माजीने नृसिंहभगवान्को प्रसन्नवदन देखकर पवित्र वचनोंके द्वारा उनकी स्तुति की और उनसे यह बात कही॥ २५॥
श्लोक-२६
मूलम् (वचनम्)
ब्रह्मोवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
देवदेवाखिलाध्यक्ष भूतभावन पूर्वज।
दिष्ट्या ते निहतः पापो लोकसन्तापनोऽसुरः॥
मूलम्
देवदेवाखिलाध्यक्ष भूतभावन पूर्वज।
दिष्ट्या ते निहतः पापो लोकसन्तापनोऽसुरः॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्रह्माजीने कहा—देवताओंके आराध्यदेव! आप सर्वान्तर्यामी, जीवोंके जीवनदाता और मेरे भी पिता हैं। यह पापी दैत्य लोगोंको बहुत ही सता रहा था। यह बड़े सौभाग्यकी बात है कि आपने इसे मार डाला॥ २६॥
श्लोक-२७
विश्वास-प्रस्तुतिः
योऽसौ लब्धवरो मत्तो न वध्यो मम सृष्टिभिः।
तपोयोगबलोन्नद्धः समस्तनिगमानहन्॥
मूलम्
योऽसौ लब्धवरो मत्तो न वध्यो मम सृष्टिभिः।
तपोयोगबलोन्नद्धः समस्तनिगमानहन्॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैंने इसे वर दे दिया था कि मेरी सृष्टिका कोई भी प्राणी तुम्हारा वध न कर सकेगा। इससे यह मतवाला हो गया था। तपस्या, योग और बलके कारण उच्छृङ्खल होकर इसने वेदविधियोंका उच्छेद कर दिया था॥ २७॥
श्लोक-२८
विश्वास-प्रस्तुतिः
दिष्ट्यास्य तनयः साधुर्महाभागवतोऽर्भकः।
त्वया विमोचितो मृत्योर्दिष्ट्या त्वां समितोऽधुना॥
मूलम्
दिष्ट्यास्य तनयः साधुर्महाभागवतोऽर्भकः।
त्वया विमोचितो मृत्योर्दिष्ट्या त्वां समितोऽधुना॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह भी बड़े सौभाग्यकी बात है कि इसके पुत्र परमभागवत शुद्धहृदय नन्हे-से शिशु प्रह्लादको आपने मृत्युके मुखसे छुड़ा दिया; तथा यह भी बड़े आनन्द और मंगलकी बात है कि वह अब आपकी शरणमें है॥ २८॥
श्लोक-२९
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतद् वपुस्ते भगवन् ध्यायतः प्रयतात्मनः।
सर्वतो गोप्तृ संत्रासान् मृत्योरपि जिघांसतः॥
मूलम्
एतद् वपुस्ते भगवन् ध्यायतः प्रयतात्मनः।
सर्वतो गोप्तृ संत्रासान् मृत्योरपि जिघांसतः॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवन्! आपके इस नृसिंहरूपका ध्यान जो कोई एकाग्र मनसे करेगा, उसे यह सब प्रकारके भयोंसे बचा लेगा। यहाँतक कि मारनेकी इच्छासे आयी हुई मृत्यु भी उसका कुछ न बिगाड़ सकेगी॥ २९॥
श्लोक-३०
मूलम् (वचनम्)
नृसिंह उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
मैवं वरोऽसुराणां ते प्रदेयः पद्मसम्भव।
वरः क्रूरनिसर्गाणामहीनाममृतं यथा॥
मूलम्
मैवं वरोऽसुराणां ते प्रदेयः पद्मसम्भव।
वरः क्रूरनिसर्गाणामहीनाममृतं यथा॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीनृसिंहभगवान् बोले—ब्रह्माजी! आप दैत्योंको ऐसा वर न दिया करें। जो स्वभावसे ही क्रूर हैं, उनको दिया हुआ वर तो वैसा ही है जैसा साँपोंको दूध पिलाना॥ ३०॥
श्लोक-३१
मूलम् (वचनम्)
नारद उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युक्त्वा भगवान्राजंस्तत्रैवान्तर्दधे हरिः।
अदृश्यः सर्वभूतानां पूजितः परमेष्ठिना॥
मूलम्
इत्युक्त्वा भगवान्राजंस्तत्रैवान्तर्दधे हरिः।
अदृश्यः सर्वभूतानां पूजितः परमेष्ठिना॥
अनुवाद (हिन्दी)
नारदजी कहते हैं—युधिष्ठिर! नृसिंहभगवान् इतना कहकर और ब्रह्माजीके द्वारा की हुई पूजाको स्वीकार करके वहीं अन्तर्धान—समस्त प्राणियोंके लिये अदृश्य हो गये॥ ३१॥
श्लोक-३२
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः सम्पूज्य शिरसा ववन्दे परमेष्ठिनम्।
भवं प्रजापतीन् देवान् प्रह्रादो भगवत्कलाः॥
मूलम्
ततः सम्पूज्य शिरसा ववन्दे परमेष्ठिनम्।
भवं प्रजापतीन् देवान् प्रह्रादो भगवत्कलाः॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसके बाद प्रह्लादजीने भगवत्स्वरूप ब्रह्मा-शंकरकी तथा प्रजापति और देवताओंकी पूजा करके उन्हें माथा टेककर प्रणाम किया॥ ३२॥
श्लोक-३३
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः काव्यादिभिः सार्धं मुनिभिः कमलासनः।
दैत्यानां दानवानां च प्रह्रादमकरोत् पतिम्॥
मूलम्
ततः काव्यादिभिः सार्धं मुनिभिः कमलासनः।
दैत्यानां दानवानां च प्रह्रादमकरोत् पतिम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब शुक्राचार्य आदि मुनियोंके साथ ब्रह्माजीने प्रह्लादजीको समस्त दानव और दैत्योंका अधिपति बना दिया॥ ३३॥
श्लोक-३४
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रतिनन्द्य ततो देवाः प्रयुज्य परमाशिषः।
स्वधामानि ययू राजन् ब्रह्माद्याः प्रतिपूजिताः॥
मूलम्
प्रतिनन्द्य ततो देवाः प्रयुज्य परमाशिषः।
स्वधामानि ययू राजन् ब्रह्माद्याः प्रतिपूजिताः॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर ब्रह्मादि देवताओंने प्रह्लादका अभिनन्दन किया और उन्हें शुभाशीर्वाद दिये। प्रह्लादजीने भी यथायोग्य सबका सत्कार किया और वे लोग अपने-अपने लोकोंको चले गये॥ ३४॥
श्लोक-३५
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं तौ पार्षदौ विष्णोः पुत्रत्वं प्रापितौ दितेः।
हृदि स्थितेन हरिणा वैरभावेन तौ हतौ॥
मूलम्
एवं तौ पार्षदौ विष्णोः पुत्रत्वं प्रापितौ दितेः।
हृदि स्थितेन हरिणा वैरभावेन तौ हतौ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिर! इस प्रकार भगवान्के वे दोनों पार्षद जय और विजय दितिके पुत्र दैत्य हो गये थे। वे भगवान्से वैरभाव रखते थे। उनके हृदयमें रहनेवाले भगवान्ने उनका उद्धार करनेके लिये उन्हें मार डाला॥ ३५॥
श्लोक-३६
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुनश्च विप्रशापेन राक्षसौ तौ बभूवतुः।
कुम्भकर्णदशग्रीवौ हतौ तौ रामविक्रमैः॥
मूलम्
पुनश्च विप्रशापेन राक्षसौ तौ बभूवतुः।
कुम्भकर्णदशग्रीवौ हतौ तौ रामविक्रमैः॥
अनुवाद (हिन्दी)
ऋषियोंके शापके कारण उनकी मुक्ति नहीं हुई, वे फिरसे कुम्भकर्ण और रावणके रूपमें राक्षस हुए। उस समय भगवान् श्रीरामके पराक्रमसे उनका अन्त हुआ॥ ३६॥
श्लोक-३७
विश्वास-प्रस्तुतिः
शयानौ युधि निर्भिन्नहृदयौ रामसायकैः।
तच्चित्तौ जहतुर्देहं यथा प्राक्तनजन्मनि॥
मूलम्
शयानौ युधि निर्भिन्नहृदयौ रामसायकैः।
तच्चित्तौ जहतुर्देहं यथा प्राक्तनजन्मनि॥
अनुवाद (हिन्दी)
युद्धमें भगवान् रामके बाणोंसे उनका कलेजा फट गया। वहीं पड़े-पड़े पूर्वजन्मकी भाँति भगवान्का स्मरण करते-करते उन्होंने अपने शरीर छोड़े॥ ३७॥
श्लोक-३८
विश्वास-प्रस्तुतिः
ताविहाथ पुनर्जातौ शिशुपालकरूषजौ।
हरौ वैरानुबन्धेन पश्यतस्ते समीयतुः॥
मूलम्
ताविहाथ पुनर्जातौ शिशुपालकरूषजौ।
हरौ वैरानुबन्धेन पश्यतस्ते समीयतुः॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे ही अब इस युगमें शिशुपाल और दन्तवक्त्रके रूपमें पैदा हुए थे। भगवान्के प्रति वैरभाव होनेके कारण तुम्हारे सामने ही वे उनमें समा गये॥ ३८॥
श्लोक-३९
विश्वास-प्रस्तुतिः
एनः पूर्वकृतं यत् तद् राजानः कृष्णवैरिणः।
जहुस्त्वन्ते तदात्मानः कीटः पेशस्कृतो यथा॥
मूलम्
एनः पूर्वकृतं यत् तद् राजानः कृष्णवैरिणः।
जहुस्त्वन्ते तदात्मानः कीटः पेशस्कृतो यथा॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिर! श्रीकृष्णसे शत्रुता रखनेवाले सभी राजा अन्तसमयमें श्रीकृष्णके स्मरणसे तद्रूप होकर अपने पूर्वकृत पापोंसे सदाके लिये मुक्त हो गये। जैसे भृंगीके द्वारा पकड़ा हुआ कीड़ा भयसे ही उसका स्वरूप प्राप्त कर लेता है॥ ३९॥
श्लोक-४०
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथा यथा भगवतो भक्त्या परमयाभिदा।
नृपाश्चैद्यादयः सात्म्यं हरेस्तच्चिन्तया ययुः॥
मूलम्
यथा यथा भगवतो भक्त्या परमयाभिदा।
नृपाश्चैद्यादयः सात्म्यं हरेस्तच्चिन्तया ययुः॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिस प्रकार भगवान्के प्यारे भक्त अपनी भेद-भावरहित अनन्य भक्तिके द्वारा भगवत्स्वरूपको प्राप्त कर लेते हैं, वैसे ही शिशुपाल आदि नरपति भी भगवान्के वैरभावजनित अनन्य चिन्तनसे भगवान्के सारूप्यको प्राप्त हो गये॥ ४०॥
श्लोक-४१
विश्वास-प्रस्तुतिः
आख्यातं सर्वमेतत् ते यन्मां त्वं परिपृष्टवान्।
दमघोषसुतादीनां हरेः सात्म्यमपि द्विषाम्॥
मूलम्
आख्यातं सर्वमेतत् ते यन्मां त्वं परिपृष्टवान्।
दमघोषसुतादीनां हरेः सात्म्यमपि द्विषाम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिर! तुमने मुझसे पूछा था कि भगवान्से द्वेष करनेवाले शिशुपाल आदिको उनके सारूप्यकी प्राप्ति कैसे हुई। उसका उत्तर मैंने तुम्हें दे दिया॥ ४१॥
श्लोक-४२
विश्वास-प्रस्तुतिः
एषा ब्रह्मण्यदेवस्य कृष्णस्य च महात्मनः।
अवतारकथा पुण्या वधो यत्रादिदैत्ययोः॥
मूलम्
एषा ब्रह्मण्यदेवस्य कृष्णस्य च महात्मनः।
अवतारकथा पुण्या वधो यत्रादिदैत्ययोः॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्रह्मण्यदेव परमात्मा श्रीकृष्णका यह परम पवित्र अवतार-चरित्र है। इसमें हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु इन दोनों दैत्योंके वधका वर्णन है॥ ४२॥
श्लोक-४३
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रह्रादस्यानुचरितं महाभागवतस्य च।
भक्तिर्ज्ञानं विरक्तिश्च याथात्म्यं चास्य वै हरेः॥
मूलम्
प्रह्रादस्यानुचरितं महाभागवतस्य च।
भक्तिर्ज्ञानं विरक्तिश्च याथात्म्यं चास्य वै हरेः॥
श्लोक-४४
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्गस्थित्यप्ययेशस्य गुणकर्मानुवर्णनम्।
परावरेषां स्थानानां कालेन व्यत्ययो महान्॥
मूलम्
सर्गस्थित्यप्ययेशस्य गुणकर्मानुवर्णनम्।
परावरेषां स्थानानां कालेन व्यत्ययो महान्॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रसंगमें भगवान्के परम भक्त प्रह्लादका चरित्र, भक्ति, ज्ञान, वैराग्य एवं संसारकी सृष्टि, स्थिति और प्रलयके स्वामी श्रीहरिके यथार्थ स्वरूप तथा उनके दिव्य गुण एवं लीलाओंका वर्णन है। इस आख्यानमें देवता और दैत्योंके पदोंमें कालक्रमसे जो महान् परिवर्तन होता है, उसका भी निरूपण किया गया है॥ ४३-४४॥
श्लोक-४५
विश्वास-प्रस्तुतिः
धर्मो भागवतानां च भगवान्येन गम्यते।
आख्यानेऽस्मिन्समाम्नातमाध्यात्मिकमशेषतः॥
मूलम्
धर्मो भागवतानां च भगवान्येन गम्यते।
आख्यानेऽस्मिन्समाम्नातमाध्यात्मिकमशेषतः॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिसके द्वारा भगवान्की प्राप्ति होती है, उस भागवत-धर्मका भी वर्णन है। अध्यात्मके सम्बन्धमें भी सभी जाननेयोग्य बातें इसमें हैं॥ ४५॥
श्लोक-४६
विश्वास-प्रस्तुतिः
य एतत् पुण्यमाख्यानं विष्णोर्वीर्योपबृंहितम्।
कीर्तयेच्छ्रद्धया श्रुत्वा कर्मपाशैर्विमुच्यते॥
मूलम्
य एतत् पुण्यमाख्यानं विष्णोर्वीर्योपबृंहितम्।
कीर्तयेच्छ्रद्धया श्रुत्वा कर्मपाशैर्विमुच्यते॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान्के पराक्रमसे पूर्ण इस पवित्र आख्यानको जो कोई पुरुष श्रद्धासे कीर्तन करता और सुनता है, वह कर्मबन्धनसे मुक्त हो जाता है॥ ४६॥
श्लोक-४७
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतद् य आदिपुरुषस्य मृगेन्द्रलीलां
दैत्येन्द्रयूथपवधं प्रयतः पठेत।
दैत्यात्मजस्य च सतां प्रवरस्य पुण्यं
श्रुत्वानुभावमकुतोभयमेति लोकम्॥
मूलम्
एतद् य आदिपुरुषस्य मृगेन्द्रलीलां
दैत्येन्द्रयूथपवधं प्रयतः पठेत।
दैत्यात्मजस्य च सतां प्रवरस्य पुण्यं
श्रुत्वानुभावमकुतोभयमेति लोकम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो मनुष्य परम पुरुष परमात्माकी यह श्रीनृसिंहलीला, सेनापतियों सहित हिरण्यकशिपुका वध और संतशिरोमणि प्रह्लादजीका पावन प्रभाव एकाग्र मनसे पढ़ता और सुनता है, वह भगवान्के अभयपद वैकुण्ठको प्राप्त होता है॥ ४७॥
श्लोक-४८
विश्वास-प्रस्तुतिः
यूयं नृलोके बत भूरिभागा
लोकं पुनाना मुनयोऽभियन्ति।
येषां गृहानावसतीति साक्षाद्
गूढं परं ब्रह्म मनुष्यलिङ्गम्॥
मूलम्
यूयं नृलोके बत भूरिभागा
लोकं पुनाना मुनयोऽभियन्ति।
येषां गृहानावसतीति साक्षाद्
गूढं परं ब्रह्म मनुष्यलिङ्गम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिर! इस मनुष्यलोकमें तुमलोगोंके भाग्य अत्यन्त प्रशंसनीय हैं, क्योंकि तुम्हारे घरमें साक्षात् परब्रह्म परमात्मा मनुष्यका रूप धारण करके गुप्तरूपसे निवास करते हैं। इसीसे सारे संसारको पवित्र कर देनेवाले ऋषि-मुनि बार-बार उनका दर्शन करनेके लिये चारों ओरसे तुम्हारे पास आया करते हैं॥ ४८॥
श्लोक-४९
विश्वास-प्रस्तुतिः
स वा अयं ब्रह्म महद्विमृग्य-
कैवल्यनिर्वाणसुखानुभूतिः।
प्रियः सुहृद् वः खलु मातुलेय
आत्मार्हणीयो विधिकृद् गुरुश्च॥
मूलम्
स वा अयं ब्रह्म महद्विमृग्य-
कैवल्यनिर्वाणसुखानुभूतिः।
प्रियः सुहृद् वः खलु मातुलेय
आत्मार्हणीयो विधिकृद् गुरुश्च॥
अनुवाद (हिन्दी)
बड़े-बड़े महापुरुष निरन्तर जिनको ढूँढ़ते रहते हैं, जो मायाके लेशसे रहित परम शान्त परमानन्दानुभवस्वरूप परब्रह्म परमात्मा हैं—वे ही तुम्हारे प्रिय, हितैषी, ममेरे भाई, पूज्य, आज्ञाकारी, गुरु और स्वयं आत्मा श्रीकृष्ण हैं॥ ४९॥
श्लोक-५०
विश्वास-प्रस्तुतिः
न यस्य साक्षाद् भवपद्मजादिभी
रूपं धिया वस्तुतयोपवर्णितम्।
मौनेन भक्त्योपशमेन पूजितः
प्रसीदतामेष स सात्वतां पतिः॥
मूलम्
न यस्य साक्षाद् भवपद्मजादिभी
रूपं धिया वस्तुतयोपवर्णितम्।
मौनेन भक्त्योपशमेन पूजितः
प्रसीदतामेष स सात्वतां पतिः॥
अनुवाद (हिन्दी)
शंकर, ब्रह्मा आदि भी अपनी सारी बुद्धि लगाकर ‘वे यह हैं’—इस रूपमें उनका वर्णन नहीं कर सके, फिर हम तो कर ही कैसे सकते हैं। हम तो मौन, भक्ति और संयमके द्वारा ही उनकी पूजा करते हैं। कृपया हमारी यह पूजा स्वीकार करके भक्तवत्सल भगवान् हमपर प्रसन्न हों॥ ५०॥
श्लोक-५१
विश्वास-प्रस्तुतिः
स एष भगवान् राजन् व्यतनोद् विहतं यशः।
पुरा रुद्रस्य देवस्य मयेनानन्तमायिना॥
मूलम्
स एष भगवान् राजन् व्यतनोद् विहतं यशः।
पुरा रुद्रस्य देवस्य मयेनानन्तमायिना॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिर! यही एकमात्र आराध्यदेव हैं। प्राचीन कालमें बहुत बड़े मायावी मयासुरने जब रुद्रदेवकी कमनीय कीर्तिमें कलंक लगाना चाहा था, तब इन्हीं भगवान् श्रीकृष्णने फिरसे उनके यशकी रक्षा और विस्तार किया था॥ ५१॥
श्लोक-५२
मूलम् (वचनम्)
राजोवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
कस्मिन् कर्मणि देवस्य मयोऽहञ्जगदीशितुः।
यथा चोपचिता कीर्तिः कृष्णेनानेन कथ्यताम्॥
मूलम्
कस्मिन् कर्मणि देवस्य मयोऽहञ्जगदीशितुः।
यथा चोपचिता कीर्तिः कृष्णेनानेन कथ्यताम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजा युधिष्ठिरने पूछा—नारदजी! मयदानव किस कार्यमें जगदीश्वर रुद्रदेवका यश नष्ट करना चाहता था और भगवान् श्रीकृष्णने किस प्रकार उनके यशकी रक्षा की? आप कृपा करके बतलाइये॥ ५२॥
श्लोक-५३
मूलम् (वचनम्)
नारद उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
निर्जिता असुरा देवैर्युध्यनेनोपबृंहितैः।
मायिनां परमाचार्यं मयं शरणमाययुः॥
मूलम्
निर्जिता असुरा देवैर्युध्यनेनोपबृंहितैः।
मायिनां परमाचार्यं मयं शरणमाययुः॥
अनुवाद (हिन्दी)
नारदजीने कहा—एक बार इन्हीं भगवान् श्रीकृष्णसे शक्ति प्राप्त करके देवताओंने युद्धमें असुरोंको जीत लिया था। उस समय सब-के-सब असुर मायावियोंके परमगुरु मयदानवकी शरणमें गये॥ ५३॥
श्लोक-५४
विश्वास-प्रस्तुतिः
स निर्माय पुरस्तिस्रो हैमीरौप्यायसीर्विभुः।
दुर्लक्ष्यापायसंयोगा दुर्वितर्क्यपरिच्छदाः॥
मूलम्
स निर्माय पुरस्तिस्रो हैमीरौप्यायसीर्विभुः।
दुर्लक्ष्यापायसंयोगा दुर्वितर्क्यपरिच्छदाः॥
अनुवाद (हिन्दी)
शक्तिशाली मयासुरने सोने, चाँदी और लोहेके तीन विमान बना दिये। वे विमान क्या थे, तीन पुर ही थे। वे इतने विलक्षण थे कि उनका आना-जाना जान नहीं पड़ता था। उनमें अपरिमित सामग्रियाँ भरी हुई थीं॥ ५४॥
श्लोक-५५
विश्वास-प्रस्तुतिः
ताभिस्तेऽसुरसेनान्यो लोकांस्त्रीन्सेश्वरान् नृप।
स्मरन्तो नाशयाञ्चक्रुः पूर्ववैरमलक्षिताः॥
मूलम्
ताभिस्तेऽसुरसेनान्यो लोकांस्त्रीन्सेश्वरान् नृप।
स्मरन्तो नाशयाञ्चक्रुः पूर्ववैरमलक्षिताः॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिर! दैत्यसेनापतियोंके मनमें तीनों लोक और लोकपतियोंके प्रति वैरभाव तो था ही, अब उसकी याद करके उन तीनों विमानोंके द्वारा वे उनमें छिपे रहकर सबका नाश करने लगे॥ ५५॥
श्लोक-५६
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्ते सेश्वरा लोका उपासाद्येश्वरं विभोः।
त्राहि नस्तावकान्देव विनष्टांस्त्रिपुरालयैः॥
मूलम्
ततस्ते सेश्वरा लोका उपासाद्येश्वरं विभोः।
त्राहि नस्तावकान्देव विनष्टांस्त्रिपुरालयैः॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब लोकपालोंके साथ सारी प्रजा भगवान् शंकरकी शरणमें गयी और उनसे प्रार्थना की कि ‘प्रभो! त्रिपुरमें रहनेवाले असुर हमारा नाश कर रहे हैं। हम आपके हैं; अतः देवाधिदेव! आप हमारी रक्षा कीजिये’॥ ५६॥
श्लोक-५७
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथानुगृह्य भगवान् मा भैष्टेति सुरान्विभुः।
शरं धनुषि सन्धाय पुरेष्वस्त्रं व्यमुञ्चत॥
मूलम्
अथानुगृह्य भगवान् मा भैष्टेति सुरान्विभुः।
शरं धनुषि सन्धाय पुरेष्वस्त्रं व्यमुञ्चत॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनकी प्रार्थना सुनकर भगवान् शंकरने कृपापूर्ण शब्दोंमें कहा—‘डरो मत।’ फिर उन्होंने अपने धनुषपर बाण चढ़ाकर तीनों पुरोंपर छोड़ दिया॥ ५७॥
श्लोक-५८
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततोऽग्निवर्णा इषव उत्पेतुः सूर्यमण्डलात्।
यथा मयूखसंदोहा नादृश्यन्त पुरो यतः॥
मूलम्
ततोऽग्निवर्णा इषव उत्पेतुः सूर्यमण्डलात्।
यथा मयूखसंदोहा नादृश्यन्त पुरो यतः॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनके उस बाणसे सूर्यमण्डलसे निकलनेवाली किरणोंके समान अन्य बहुत-से बाण निकले। उनमेंसे मानो आगकी लपटें निकल रही थीं। उनके कारण उन पुरोंका दीखना बंद हो गया॥ ५८॥
श्लोक-५९
विश्वास-प्रस्तुतिः
तैः स्पृष्टा व्यसवः सर्वे निपेतुः स्म पुरौकसः।
तानानीय महायोगी मयः कूपरसेऽक्षिपत्॥
मूलम्
तैः स्पृष्टा व्यसवः सर्वे निपेतुः स्म पुरौकसः।
तानानीय महायोगी मयः कूपरसेऽक्षिपत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनके स्पर्शसे सभी विमानवासी निष्प्राण होकर गिर पड़े। महामायावी मय बहुत-से उपाय जानता था, वह उन दैत्योंको उठा लाया और अपने बनाये हुए अमृतके कुएँमें डाल दिया॥ ५९॥
श्लोक-६०
विश्वास-प्रस्तुतिः
सिद्धामृतरसस्पृष्टा वज्रसारा महौजसः।
उत्तस्थुर्मेघदलना वैद्युता इव वह्नयः॥
मूलम्
सिद्धामृतरसस्पृष्टा वज्रसारा महौजसः।
उत्तस्थुर्मेघदलना वैद्युता इव वह्नयः॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस सिद्ध अमृत-रसका स्पर्श होते ही असुरोंका शरीर अत्यन्त तेजस्वी और वज्रके समान सुदृढ़ हो गया। वे बादलोंको विदीर्ण करनेवाली बिजलीकी आगकी तरह उठ खड़े हुए॥ ६०॥
श्लोक-६१
विश्वास-प्रस्तुतिः
विलोक्य भग्नसङ्कल्पं विमनस्कं वृषध्वजम्।
तदायं भगवान्विष्णुस्तत्रोपायमकल्पयत्॥
मूलम्
विलोक्य भग्नसङ्कल्पं विमनस्कं वृषध्वजम्।
तदायं भगवान्विष्णुस्तत्रोपायमकल्पयत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
इन्हीं भगवान् श्रीकृष्णने जब देखा कि महादेवजी तो अपना संकल्प पूरा न होनेके कारण उदास हो गये हैं, तब उन असुरोंपर विजय प्राप्त करनेके लिये इन्होंने एक युक्ति की॥ ६१॥
श्लोक-६२
विश्वास-प्रस्तुतिः
वत्स आसीत्तदा ब्रह्मा स्वयं विष्णुरयं हि गौः।
प्रविश्य त्रिपुरं काले रसकूपामृतं पपौ॥
मूलम्
वत्स आसीत्तदा ब्रह्मा स्वयं विष्णुरयं हि गौः।
प्रविश्य त्रिपुरं काले रसकूपामृतं पपौ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यही भगवान् विष्णु उस समय गौ बन गये और ब्रह्माजी बछड़ा बने। दोनों ही मध्याह्नके समय उन तीनों पुरोंमें गये और उस सिद्धरसके कुएँका सारा अमृत पी गये॥ ६२॥
श्लोक-६३
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेऽसुरा ह्यपि पश्यन्तो न न्यषेधन्विमोहिताः।
तद् विज्ञाय महायोगी रसपालानिदं जगौ॥
मूलम्
तेऽसुरा ह्यपि पश्यन्तो न न्यषेधन्विमोहिताः।
तद् विज्ञाय महायोगी रसपालानिदं जगौ॥
श्लोक-६४
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वयं विशोकः शोकार्तान्स्मरन्दैवगतिं च ताम्।
देवोऽसुरो नरोऽन्यो वा नेश्वरोऽस्तीह कश्चन॥
मूलम्
स्वयं विशोकः शोकार्तान्स्मरन्दैवगतिं च ताम्।
देवोऽसुरो नरोऽन्यो वा नेश्वरोऽस्तीह कश्चन॥
श्लोक-६५
विश्वास-प्रस्तुतिः
आत्मनोऽन्यस्य वा दिष्टं दैवेनापोहितुं द्वयोः।
अथासौ शक्तिभिः स्वाभिः शम्भोः प्राधानिकं व्यधात्॥
मूलम्
आत्मनोऽन्यस्य वा दिष्टं दैवेनापोहितुं द्वयोः।
अथासौ शक्तिभिः स्वाभिः शम्भोः प्राधानिकं व्यधात्॥
अनुवाद (हिन्दी)
यद्यपि उसके रक्षक दैत्य इन दोनोंको देख रहे थे, फिर भी भगवान्की मायासे वे इतने मोहित हो गये कि इन्हें रोक न सके। जब उपाय जाननेवालोंमें श्रेष्ठ मयासुरको यह बात मालूम हुई, तब भगवान्की इस लीलाका स्मरण करके उसे कोई शोक न हुआ। शोक करनेवाले अमृत-रक्षकोंसे उसने कहा—‘भाई! देवता, असुर, मनुष्य अथवा और कोई भी प्राणी अपने, पराये अथवा दोनोंके लिये जो प्रारब्धका विधान है, उसे मिटा नहीं सकता। जो होना था, हो गया। शोक करके क्या करना है?’ इसके बाद भगवान् श्रीकृष्णने अपनी शक्तियोंके द्वारा भगवान् शंकरके युद्धकी सामग्री तैयार की॥ ६३—६५॥
श्लोक-६६
विश्वास-प्रस्तुतिः
धर्मज्ञानविरक्त्यृद्धितपोविद्याक्रियादिभिः।
रथं सूतं ध्वजं वाहान् धनुर्वर्म शरादि यत्॥
मूलम्
धर्मज्ञानविरक्त्यृद्धितपोविद्याक्रियादिभिः।
रथं सूतं ध्वजं वाहान् धनुर्वर्म शरादि यत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन्होंने धर्मसे रथ, ज्ञानसे सारथि, वैराग्यसे ध्वजा, ऐश्वर्यसे घोड़े, तपस्यासे धनुष, विद्यासे कवच, क्रियासे बाण और अपनी अन्यान्य शक्तियोंसे अन्यान्य वस्तुओंका निर्माण किया॥ ६६॥
श्लोक-६७
विश्वास-प्रस्तुतिः
सन्नद्धो रथमास्थाय शरं धनुरुपाददे।
शरं धनुषि सन्धाय मुहूर्तेऽभिजितीश्वरः॥
मूलम्
सन्नद्धो रथमास्थाय शरं धनुरुपाददे।
शरं धनुषि सन्धाय मुहूर्तेऽभिजितीश्वरः॥
श्लोक-६८
विश्वास-प्रस्तुतिः
ददाह तेन दुर्भेद्या हरोऽथ त्रिपुरो नृप।
दिवि दुन्दुभयो नेदुर्विमानशतसङ्कुलाः॥
मूलम्
ददाह तेन दुर्भेद्या हरोऽथ त्रिपुरो नृप।
दिवि दुन्दुभयो नेदुर्विमानशतसङ्कुलाः॥
अनुवाद (हिन्दी)
इन सामग्रियोंसे सज-धजकर भगवान् शंकर रथपर सवार हुए एवं धनुष-बाण धारण किया। भगवान् शंकरने अभिजित् मुहूर्तमें धनुषपर बाण चढ़ाया और उन तीनों दुर्भेद्य विमानोंको भस्म कर दिया। युधिष्ठिर! उसी समय स्वर्गमें दुन्दुभियाँ बजने लगीं। सैकड़ों विमानोंकी भीड़ लग गयी॥ ६७-६८॥
श्लोक-६९
विश्वास-प्रस्तुतिः
देवर्षिपितृसिद्धेशा जयेति कुसुमोत्करैः।
अवाकिरञ्जगुर्हृष्टा ननृतुश्चाप्सरोगणाः॥
मूलम्
देवर्षिपितृसिद्धेशा जयेति कुसुमोत्करैः।
अवाकिरञ्जगुर्हृष्टा ननृतुश्चाप्सरोगणाः॥
अनुवाद (हिन्दी)
देवता, ऋषि, पितर और सिद्धेश्वर आनन्दसे जय-जयकार करते हुए पुष्पोंकी वर्षा करने लगे। अप्सराएँ नाचने और गाने लगीं॥ ६९॥
श्लोक-७०
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं दग्ध्वा पुरस्तिस्रो भगवान्पुरहा नृप।
ब्रह्मादिभिः स्तूयमानः स्वधाम प्रत्यपद्यत॥
मूलम्
एवं दग्ध्वा पुरस्तिस्रो भगवान्पुरहा नृप।
ब्रह्मादिभिः स्तूयमानः स्वधाम प्रत्यपद्यत॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिर! इस प्रकार उन तीनों पुरोंको जलाकर भगवान् शंकरने ‘पुरारि’ की पदवी प्राप्त की और ब्रह्मादिकोंकी स्तुति सुनते हुए अपने धामको चले गये॥ ७०॥
श्लोक-७१
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवंविधान्यस्य हरेः स्वमायया
विडम्बमानस्य नृलोकमात्मनः।
वीर्याणि गीतान्यृषिभिर्जगद्गुरो-
र्लोकान् पुनानान्यपरं वदामि किम्॥
मूलम्
एवंविधान्यस्य हरेः स्वमायया
विडम्बमानस्य नृलोकमात्मनः।
वीर्याणि गीतान्यृषिभिर्जगद्गुरो-
र्लोकान् पुनानान्यपरं वदामि किम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
आत्मस्वरूप जगद्गुरु भगवान् श्रीकृष्ण इस प्रकार अपनी मायासे जो मनुष्योंकी-सी लीलाएँ करते हैं, ऋषिलोग उन्हीं अनेकों लोकपावन लीलाओंका गान किया करते हैं। बताओ, अब मैं तुम्हें और क्या सुनाऊँ?॥ ७१॥
अनुवाद (समाप्ति)
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां सप्तमस्कन्धे युधिष्ठिरनारदसंवादे त्रिपुरविजयो नाम दशमोऽध्यायः॥ १०॥