[षष्ठोऽध्यायः]
भागसूचना
प्रह्लादजीका असुर-बालकोंको उपदेश
श्लोक-१
मूलम् (वचनम्)
प्रह्राद उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
कौमार* आचरेत्प्राज्ञो धर्मान् भागवतानिह।
दुर्लभं मानुषं जन्म तदप्यध्रुवमर्थदम्॥
मूलम्
कौमार* आचरेत्प्राज्ञो धर्मान् भागवतानिह।
दुर्लभं मानुषं जन्म तदप्यध्रुवमर्थदम्॥
पादटिप्पनी
- प्राचीन प्रतिमें प्रह्लादके वाक्यमें ‘कौमार आचरेत्प्राज्ञो’ इस श्लोकके पहले पाँच श्लोक और अधिक हैं। ये पाँच श्लोक भागवतके विख्यात टीकाकार श्रीविजयध्वजजीने भी माने हैं और उन्होंने उनपर टीका भी लिखी है। प्राचीन प्रतिका लेख कहीं-कहीं अस्पष्ट और खण्डित होनेके कारण ये पाँच श्लोक शुद्ध रूपमें नहीं लिये जा सके, अतः उनको विजयध्वजकी टीकाके अनुसार शुद्ध करके यहाँ उद्धृत किया जा रहा है।—
हन्तार्भका मे शृणुत वचो वः सर्वतः शिवम्।
वयस्यान् पश्यत मृतान् क्रीडान्धा मा प्रमाद्यथ॥
न पुरा विवशं बाला आत्मनोऽर्थे प्रियैषिणः।
गुरूक्तमपि न ग्राह्यं यदनर्थेऽर्थकल्पनम्॥
यदुक्त्या न प्रबुद्ध्येत सुप्तस्त्वज्ञाननिद्रया।
न श्रद्दध्यान्मतं तस्य यथान्धो ह्यन्धनायकः॥
कः शत्रुः क उदासीनः किं मित्रं चेह आत्मनः।
भवत्स्वपि नयैः किं स्याद्दैवं सम्पद्विपत्पदम्॥
यो न हिंस्याद्धर्मकाममात्मानं स्वजने वशः।
पुनः श्रीलोकयोर्हेतुः स मुक्तान्ध्योऽतिदुर्लभः॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रह्लादजीने कहा—मित्रो! इस संसारमें मनुष्य-जन्म बड़ा दुर्लभ है। इसके द्वारा अविनाशी परमात्माकी प्राप्ति हो सकती है। परन्तु पता नहीं कब इसका अन्त हो जाय; इसलिये बुद्धिमान् पुरुषको बुढ़ापे या जवानीके भरोसे न रहकर बचपनमें ही भगवान्की प्राप्ति करानेवाले साधनोंका अनुष्ठान कर लेना चाहिये॥ १॥
श्लोक-२
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथा हि पुरुषस्येह विष्णोः पादोपसर्पणम्।
यदेष सर्वभूतानां प्रिय आत्मेश्वरः सुहृत्॥
मूलम्
यथा हि पुरुषस्येह विष्णोः पादोपसर्पणम्।
यदेष सर्वभूतानां प्रिय आत्मेश्वरः सुहृत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस मनुष्य-जन्ममें श्रीभगवान्के चरणोंकी शरण लेना ही जीवनकी एकमात्र सफलता है। क्योंकि भगवान् समस्त प्राणियोंके स्वामी, सुहृद्, प्रियतम और आत्मा हैं॥ २॥
श्लोक-३
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुखमैन्द्रियकं दैत्या देहयोगेन देहिनाम्।
सर्वत्र लभ्यते दैवाद्यथा दुःखमयत्नतः॥
मूलम्
सुखमैन्द्रियकं दैत्या देहयोगेन देहिनाम्।
सर्वत्र लभ्यते दैवाद्यथा दुःखमयत्नतः॥
अनुवाद (हिन्दी)
भाइयो! इन्द्रियोंसेजो सुख भोगा जाता है, वह तो—जीव चाहे जिस योनिमें रहे—प्रारब्धके अनुसार सर्वत्र वैसे ही मिलता रहता है, जैसे बिना किसी प्रकारका प्रयत्न किये, निवारण करनेपर भी दुःख मिलता है॥ ३॥
श्लोक-४
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्प्रयासो न कर्तव्यो यत आयुर्व्ययः परम्।
न तथा विन्दते क्षेमं मुकुन्दचरणाम्बुजम्॥
मूलम्
तत्प्रयासो न कर्तव्यो यत आयुर्व्ययः परम्।
न तथा विन्दते क्षेमं मुकुन्दचरणाम्बुजम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसलिये सांसारिक सुखके उद्देश्यसे प्रयत्न करनेकी कोई आवश्यकता नहीं है। क्योंकि स्वयं मिलनेवाली वस्तुके लिये परिश्रम करना आयु और शक्तिको व्यर्थ गँवाना है। जो इनमें उलझ जाते हैं, उन्हें भगवान्के परम कल्याणस्वरूप चरणकमलोंकी प्राप्ति नहीं होती॥ ४॥
श्लोक-५
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो यतेत कुशलः क्षेमाय भयमाश्रितः।
शरीरं पौरुषं यावन्न विपद्येत पुष्कलम्॥
मूलम्
ततो यतेत कुशलः क्षेमाय भयमाश्रितः।
शरीरं पौरुषं यावन्न विपद्येत पुष्कलम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
हमारे सिरपर अनेकों प्रकारके भय सवार रहते हैं। इसलिये यह शरीर—जो भगवत्प्राप्तिके लिये पर्याप्त है—जबतक रोग-शोकादिग्रस्त होकर मृत्युके मुखमें नहीं चला जाता, तभीतक बुद्धिमान् पुरुषको अपने कल्याणके लिये प्रयत्न कर लेना चाहिये॥ ५॥
श्लोक-६
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुंसो वर्षशतं ह्यायुस्तदर्धं चाजितात्मनः।
निष्फलं यदसौ रात्र्यां शेतेऽन्धं प्रापितस्तमः॥
मूलम्
पुंसो वर्षशतं ह्यायुस्तदर्धं चाजितात्मनः।
निष्फलं यदसौ रात्र्यां शेतेऽन्धं प्रापितस्तमः॥
अनुवाद (हिन्दी)
मनुष्यकी पूरी आयु सौ वर्षकी है। जिन्होंने अपनी इन्द्रियोंको वशमें नहीं कर लिया है, उनकी आयुका आधा हिस्सा तो यों ही बीत जाता है। क्योंकि वे रातमें घोर तमोगुण—अज्ञानसे ग्रस्त होकर सोते रहते हैं॥ ६॥
श्लोक-७
विश्वास-प्रस्तुतिः
मुग्धस्य बाल्ये कौमारे क्रीडतो याति विंशतिः।
जरया ग्रस्तदेहस्य यात्यकल्पस्य विंशतिः॥
मूलम्
मुग्धस्य बाल्ये कौमारे क्रीडतो याति विंशतिः।
जरया ग्रस्तदेहस्य यात्यकल्पस्य विंशतिः॥
अनुवाद (हिन्दी)
बचपनमें उन्हें अपने हित-अहितका ज्ञान नहीं रहता, कुछ बड़े होनेपर कुमार अवस्थामें वे खेल-कूदमें लग जाते हैं। इस प्रकार बीस वर्षका तो पता ही नहीं चलता। जब बुढ़ापा शरीरको ग्रस लेता है, तब अन्तके बीस वर्षोंमें कुछ करने-धरनेकी शक्ति ही नहीं रह जाती॥ ७॥
श्लोक-८
विश्वास-प्रस्तुतिः
दुरापूरेण कामेन मोहेन च बलीयसा।
शेषं गृहेषु सक्तस्य प्रमत्तस्यापयाति हि॥
मूलम्
दुरापूरेण कामेन मोहेन च बलीयसा।
शेषं गृहेषु सक्तस्य प्रमत्तस्यापयाति हि॥
अनुवाद (हिन्दी)
रह गयी बीचकी कुछ थोड़ी-सी आयु। उसमें कभी न पूरी होनेवाली बड़ी-बड़ी कामनाएँ हैं, बलात् पकड़ रखनेवाला मोह है और घर-द्वारकी वह आसक्ति है, जिससे जीव इतना उलझ जाता है कि उसे कुछ कर्तव्य-अकर्तव्यका ज्ञान ही नहीं रहता। इस प्रकार बची-खुची आयु भी हाथसे निकल जाती है॥ ८॥
श्लोक-९
विश्वास-प्रस्तुतिः
को गृहेषु पुमान्सक्तमात्मानमजितेन्द्रियः।
स्नेहपाशैर्दृढैर्बद्धमुत्सहेत विमोचितुम्॥
मूलम्
को गृहेषु पुमान्सक्तमात्मानमजितेन्द्रियः।
स्नेहपाशैर्दृढैर्बद्धमुत्सहेत विमोचितुम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
दैत्यबालको! जिसकी इन्द्रियाँ वशमें नहीं हैं, ऐसा कौन-सा पुरुष होगा, जो घर-गृहस्थीमें आसक्त और माया-ममताकी मजबूत फाँसीमें फँसे हुए अपने-आपको उससे छुड़ानेका साहस कर सके॥ ९॥
श्लोक-१०
विश्वास-प्रस्तुतिः
कोन्वर्थतृष्णां विसृजेत् प्राणेभ्योऽपि य ईप्सितः।
यं क्रीणात्यसुभिः प्रेष्ठैस्तस्करः सेवको वणिक्॥
मूलम्
कोन्वर्थतृष्णां विसृजेत् प्राणेभ्योऽपि य ईप्सितः।
यं क्रीणात्यसुभिः प्रेष्ठैस्तस्करः सेवको वणिक्॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिसे चोर, सेवक एवं व्यापारी अपने अत्यन्त प्यारे प्राणोंकी भी बाजी लगाकर संग्रह करते हैं और इसलिये उन्हें जो प्राणोंसे भी अधिक वांछनीय है—उस धनकी तृष्णाको भला कौन त्याग सकता है॥ १०॥
श्लोक-११
विश्वास-प्रस्तुतिः
कथं प्रियाया अनुकम्पितायाः
सङ्गं रहस्यं रुचिरांश्च मन्त्रान्।
सुहृत्सु च स्नेहसितः शिशूनां
कलाक्षराणामनुरक्तचित्तः॥
मूलम्
कथं प्रियाया अनुकम्पितायाः
सङ्गं रहस्यं रुचिरांश्च मन्त्रान्।
सुहृत्सु च स्नेहसितः शिशूनां
कलाक्षराणामनुरक्तचित्तः॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो अपनी प्रियतमा पत्नीके एकान्त सहवास, उसकी प्रेमभरी बातों और मीठी-मीठी सलाहपर अपनेको निछावर कर चुका है, भाई-बन्धु और मित्रोंके स्नेह-पाशमें बँध चुका है और नन्हें-नन्हें शिशुओंकी तोतली बोलीपर लुभा चुका है—भला, वह उन्हें कैसे छोड़ सकता है॥ ११॥
श्लोक-१२
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुत्रान्स्मरंस्ता दुहितॄर्हृदय्या
भ्रातॄन् स्वसॄर्वा पितरौ च दीनौ।
गृहान् मनोज्ञोरुपरिच्छदांश्च
वृत्तीश्च कुल्याः पशुभृत्यवर्गान्॥
मूलम्
पुत्रान्स्मरंस्ता दुहितॄर्हृदय्या
भ्रातॄन् स्वसॄर्वा पितरौ च दीनौ।
गृहान् मनोज्ञोरुपरिच्छदांश्च
वृत्तीश्च कुल्याः पशुभृत्यवर्गान्॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो अपनी ससुराल गयी हुई प्रिय पुत्रियों, पुत्रों, भाई-बहिनों और दीन अवस्थाको प्राप्त पिता-माता, बहुत-सी सुन्दर-सुन्दर बहुमूल्य सामग्रियोंसे सजे हुए घरों, कुलपरम्परागत जीविकाके साधनों तथा पशुओं और सेवकोंके निरन्तर स्मरणमें रम गया है, वह भला-उन्हें कैसे छोड़ सकता है॥ १२॥
श्लोक-१३
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्यजेत कोशस्कृदिवेहमानः
कर्माणि लोभादवितृप्तकामः।
औपस्थ्यजैह्व्यं बहु मन्यमानः
कथं विरज्येत दुरन्तमोहः॥
मूलम्
त्यजेत कोशस्कृदिवेहमानः
कर्माणि लोभादवितृप्तकामः।
औपस्थ्यजैह्व्यं बहु मन्यमानः
कथं विरज्येत दुरन्तमोहः॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो जननेन्द्रिय और रसनेन्द्रियके सुखोंको ही सर्वस्व मान बैठा है, जिसकी भोगवासनाएँ कभी तृप्त नहीं होतीं, जो लोभवश कर्म-पर-कर्म करता हुआ रेशमके कीड़ेकी तरह अपनेको और भी कड़े बन्धनमें जकड़ता जा रहा है और जिसके मोहकी कोई सीमा नहीं है—वह उनसे किस प्रकार विरक्त हो सकता है और कैसे उनका त्याग कर सकता है॥ १३॥
श्लोक-१४
विश्वास-प्रस्तुतिः
कुटुम्बपोषाय वियन् निजायु-
र्न बुध्यतेऽर्थं विहतं प्रमत्तः।
सर्वत्र तापत्रयदुःखितात्मा
निर्विद्यते न स्वकुटुम्बरामः॥
मूलम्
कुटुम्बपोषाय वियन् निजायु-
र्न बुध्यतेऽर्थं विहतं प्रमत्तः।
सर्वत्र तापत्रयदुःखितात्मा
निर्विद्यते न स्वकुटुम्बरामः॥
श्लोक-१५
विश्वास-प्रस्तुतिः
वित्तेषु नित्याभिनिविष्टचेता
विद्वांश्च दोषं परवित्तहर्तुः।
प्रेत्येह चाथाप्यजितेन्द्रियस्त-
दशान्तकामो हरते कुटुम्बी॥
मूलम्
वित्तेषु नित्याभिनिविष्टचेता
विद्वांश्च दोषं परवित्तहर्तुः।
प्रेत्येह चाथाप्यजितेन्द्रियस्त-
दशान्तकामो हरते कुटुम्बी॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह मेरा कुटुम्ब है, इस भावसे उसमें वह इतना रम जाता है कि उसीके पालन-पोषणके लिये अपनी अमूल्य आयुको गवाँ देता है और उसे यह भी नहीं जान पड़ता कि मेरे जीवनका वास्तविक उद्देश्य नष्ट हो रहा है। भला, इस प्रमादकी भी कोई सीमा है। यदि इन कामोंमें कुछ सुख मिले तो भी एक बात है; परन्तु यहाँ तो जहाँ-जहाँ वह जाता है, वहीं-वहीं दैहिक, दैविक और भौतिक ताप उसके हृदयको जलाते ही रहते हैं। फिर भी वैराग्यका उदय नहीं होता। कितनी विडम्बना है। कुटुम्बकी ममताके फेरमें पड़कर वह इतना असावधान हो जाता है, उसका मन धनके चिन्तनमें सदा इतना लवलीन रहता है कि वह दूसरेका धन चुरानेके लौकिक-पारलौकिक दोषोंको जानता हुआ भी कामनाओंको वशमें न कर सकनेके कारण इन्द्रियोंके भोगकी लालसासे चोरी कर ही बैठता है॥ १४-१५॥
श्लोक-१६
विश्वास-प्रस्तुतिः
विद्वानपीत्थं दनुजाः कुटुम्बं
पुष्णन्स्वलोकाय न कल्पते वै।
यः स्वीयपारक्यविभिन्नभाव-
स्तमः प्रपद्येत यथा विमूढः॥
मूलम्
विद्वानपीत्थं दनुजाः कुटुम्बं
पुष्णन्स्वलोकाय न कल्पते वै।
यः स्वीयपारक्यविभिन्नभाव-
स्तमः प्रपद्येत यथा विमूढः॥
अनुवाद (हिन्दी)
भाइयो! जो इस प्रकार अपने कुटुम्बयोंके पेट पालनेमें ही लगा रहता है—कभी भगवद्भजन नहीं करता—वह विद्वान् हो, तो भी उसे परमात्माकी प्राप्ति नहीं हो सकती। क्योंकि अपने-परायेका भेद-भाव रहनेके कारण उसे भी अज्ञानियोंके समान ही तमःप्रधान गति प्राप्त होती है॥ १६॥
श्लोक-१७
विश्वास-प्रस्तुतिः
यतो न कश्चित् क्व च कुत्रचिद् वा
दीनः स्वमात्मानमलं समर्थः।
विमोचितुं कामदृशां विहार-
क्रीडामृगो यन्निगडो विसर्गः॥
मूलम्
यतो न कश्चित् क्व च कुत्रचिद् वा
दीनः स्वमात्मानमलं समर्थः।
विमोचितुं कामदृशां विहार-
क्रीडामृगो यन्निगडो विसर्गः॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो कामिनियोंके मनोरंजनका सामान—उनका क्रीडामृग बन रहा है और जिसने अपने पैरोंमें सन्तानकी बेड़ी जकड़ ली है, वह बेचारा गरीब—चाहे कोई भी हो, कहीं भी हो—किसी भी प्रकारसे अपना उद्धार नहीं कर सकता॥ १७॥
श्लोक-१८
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो विदूरात् परिहृत्य दैत्या
दैत्येषु सङ्गं विषयात्मकेषु।
उपेत नारायणमादिदेवं
स मुक्तसङ्गैरिषितोऽपवर्गः॥
मूलम्
ततो विदूरात् परिहृत्य दैत्या
दैत्येषु सङ्गं विषयात्मकेषु।
उपेत नारायणमादिदेवं
स मुक्तसङ्गैरिषितोऽपवर्गः॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसलिये भाइयो! तुमलोग विषयासक्त दैत्योंका संग दूरसे ही छोड़ दो और आदिदेव भगवान् नारायणकी शरण ग्रहण करो! क्योंकि जिन्होंने संसारकी आसक्ति छोड़ दी है, उन महात्माओंके वे ही परम प्रियतम और परम गति हैं॥ १८॥
श्लोक-१९
विश्वास-प्रस्तुतिः
न ह्यच्युतं प्रीणयतो बह्वायासोऽसुरात्मजाः।
आत्मत्वात् सर्वभूतानां सिद्धत्वादिह सर्वतः॥
मूलम्
न ह्यच्युतं प्रीणयतो बह्वायासोऽसुरात्मजाः।
आत्मत्वात् सर्वभूतानां सिद्धत्वादिह सर्वतः॥
अनुवाद (हिन्दी)
मित्रो! भगवान्को प्रसन्न करनेके लिये कोई बहुत परिश्रम या प्रयत्न नहीं करना पड़ता। क्योंकि वे समस्त प्राणियोंके आत्मा हैं और सर्वत्र सबकी सत्ताके रूपमें स्वयंसिद्ध वस्तु हैं॥ १९॥
श्लोक-२०
विश्वास-प्रस्तुतिः
परावरेषु भूतेषु ब्रह्मान्तस्थावरादिषु।
भौतिकेषु विकारेषु भूतेष्वथ महत्सु च॥
मूलम्
परावरेषु भूतेषु ब्रह्मान्तस्थावरादिषु।
भौतिकेषु विकारेषु भूतेष्वथ महत्सु च॥
श्लोक-२१
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुणेषु गुणसाम्ये च गुणव्यतिकरे तथा।
एक एव परो ह्यात्मा भगवानीश्वरोऽव्ययः॥
मूलम्
गुणेषु गुणसाम्ये च गुणव्यतिकरे तथा।
एक एव परो ह्यात्मा भगवानीश्वरोऽव्ययः॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्रह्मासे लेकर तिनकेतक छोटे-बड़े समस्त प्राणियोंमें, पंचभूतोंसे बनी हुई वस्तुओंमें, पंचभूतोंमें, सूक्ष्म तन्मात्राओंमें, महत्तत्त्वमें, तीनों गुणोंमें और गुणोंकी साम्यावस्था प्रकृतिमें एक ही अविनाशी परमात्मा विराजमान हैं। वे ही समस्त सौन्दर्य, माधुर्य और ऐश्वर्योंकी खान हैं॥ २०-२१॥
श्लोक-२२
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रत्यगात्मस्वरूपेण दृश्यरूपेण च स्वयम्।
व्याप्यव्यापकनिर्देश्यो ह्यनिर्देश्योऽविकल्पितः॥
मूलम्
प्रत्यगात्मस्वरूपेण दृश्यरूपेण च स्वयम्।
व्याप्यव्यापकनिर्देश्यो ह्यनिर्देश्योऽविकल्पितः॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे ही अन्तर्यामी द्रष्टाके रूपमें हैं और वे ही दृश्य जगत्के रूपमें भी हैं। सर्वथा अनिर्वचनीय तथा विकल्परहित होनेपर भी द्रष्टा और दृश्य, व्याप्य और व्यापकके रूपमें उनका निर्वचन किया जाता है। वस्तुतः उनमें एक भी विकल्प नहीं है॥ २२॥
श्लोक-२३
विश्वास-प्रस्तुतिः
केवलानुभवानन्दस्वरूपः परमेश्वरः।
माययान्तर्हितैश्वर्य ईयते गुणसर्गया॥
मूलम्
केवलानुभवानन्दस्वरूपः परमेश्वरः।
माययान्तर्हितैश्वर्य ईयते गुणसर्गया॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे केवल अनुभवस्वरूप, आनन्दस्वरूप एकमात्र परमेश्वर ही हैं। गुणमयी सृष्टि करनेवाली मायाके द्वारा ही उनका ऐश्वर्य छिप रहा है। इसके निवृत्त होते ही उनके दर्शन हो जाते हैं॥ २३॥
श्लोक-२४
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मात् सर्वेषु भूतेषु दयां कुरुत सौहृदम्।
आसुरं भावमुन्मुच्य यया तुष्यत्यधोक्षजः॥
मूलम्
तस्मात् सर्वेषु भूतेषु दयां कुरुत सौहृदम्।
आसुरं भावमुन्मुच्य यया तुष्यत्यधोक्षजः॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसलिये तुमलोग अपने दैत्यपनेका, आसुरी सम्पत्तिका त्याग करके समस्त प्राणियोंपर दया करो। प्रेमसे उनकी भलाई करो। इसीसे भगवान् प्रसन्न होते हैं॥ २४॥
श्लोक-२५
विश्वास-प्रस्तुतिः
तुष्टे च तत्र किमलभ्यमनन्त आद्ये
किं तैर्गुणव्यतिकरादिह ये स्वसिद्धाः।
धर्मादयः किमगुणेन च काङ्क्षितेन
सारंजुषां चरणयोरुपगायतां नः॥
मूलम्
तुष्टे च तत्र किमलभ्यमनन्त आद्ये
किं तैर्गुणव्यतिकरादिह ये स्वसिद्धाः।
धर्मादयः किमगुणेन च काङ्क्षितेन
सारंजुषां चरणयोरुपगायतां नः॥
अनुवाद (हिन्दी)
आदिनारायण अनन्तभगवान्के प्रसन्न हो जानेपर ऐसी कौन-सी वस्तु है, जो नहीं मिल जाती? लोक और परलोकके लिये जिन धर्म, अर्थ आदिकी आवश्यकता बतलायी जाती है—वे तो गुणोंके परिणामसे बिना प्रयासके स्वयं ही मिलनेवाले हैं। जब हम श्रीभगवान्के चरणामृतका सेवन करने और उनके नाम-गुणोंका कीर्तन करनेमें लगे हैं, तब हमें मोक्षकी भी क्या आवश्यकता है॥ २५॥
श्लोक-२६
विश्वास-प्रस्तुतिः
धर्मार्थकाम इति योऽभिहितस्त्रिवर्ग
ईक्षा त्रयी नयदमौ विविधा च वार्ता।
मन्ये तदेतदखिलं निगमस्य सत्यं
स्वात्मार्पणं स्वसुहृदः परमस्य पुंसः॥
मूलम्
धर्मार्थकाम इति योऽभिहितस्त्रिवर्ग
ईक्षा त्रयी नयदमौ विविधा च वार्ता।
मन्ये तदेतदखिलं निगमस्य सत्यं
स्वात्मार्पणं स्वसुहृदः परमस्य पुंसः॥
अनुवाद (हिन्दी)
यों शास्त्रोंमें धर्म, अर्थ और काम—इन तीनों पुरुषार्थोंका भी वर्णन है। आत्मविद्या, कर्मकाण्ड, न्याय (तर्कशास्त्र), दण्डनीति और जीविकाके विविध साधन—ये सभी वेदोंके प्रतिपाद्य विषय हैं; परन्तु यदि ये अपने परम हितैषी, परम पुरुष भगवान् श्रीहरिको आत्मसमर्पण करनेमें सहायक हैं, तभी मैं इन्हें सत्य (सार्थक) मानता हूँ। अन्यथा ये सब-के-सब निरर्थक हैं॥ २६॥
श्लोक-२७
विश्वास-प्रस्तुतिः
ज्ञानं तदेतदमलं दुरवापमाह
नारायणो नरसखः किल नारदाय।
एकान्तिनां भगवतस्तदकिञ्चनानां
पादारविन्दरजसाऽऽप्लुतदेहिनां स्यात्॥
मूलम्
ज्ञानं तदेतदमलं दुरवापमाह
नारायणो नरसखः किल नारदाय।
एकान्तिनां भगवतस्तदकिञ्चनानां
पादारविन्दरजसाऽऽप्लुतदेहिनां स्यात्॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह निर्मल ज्ञान जो मैंने तुम लोगोंको बतलाया है, बड़ा ही दुर्लभ है। इसे पहले नर-नारायणने नारदजीको उपदेश किया था और यह ज्ञान उन सब लोगोंको प्राप्त हो सकता है, जिन्होंने भगवान्के अनन्यप्रेमी एवं अकिंचन भक्तोंके चरणकमलोंकी धूलिसे अपने शरीरको नहला लिया है॥ २७॥
श्लोक-२८
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रुतमेतन्मया पूर्वं ज्ञानं विज्ञानसंयुतम्।
धर्मं भागवतं शुद्धं नारदाद् देवदर्शनात्॥
मूलम्
श्रुतमेतन्मया पूर्वं ज्ञानं विज्ञानसंयुतम्।
धर्मं भागवतं शुद्धं नारदाद् देवदर्शनात्॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह विज्ञानसहित ज्ञान विशुद्ध भागवतधर्म है। इसे मैंने भगवान्का दर्शन करानेवाले देवर्षि नारदजीके मुँहसे ही पहले-पहल सुना था॥ २८॥
श्लोक-२९
मूलम् (वचनम्)
दैत्यपुत्रा ऊचुः
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रह्राद त्वं वयं चापि नर्तेऽन्यं विद्महे गुरुम्।
एताभ्यां गुरुपुत्राभ्यां बालानामपि हीश्वरौ॥
मूलम्
प्रह्राद त्वं वयं चापि नर्तेऽन्यं विद्महे गुरुम्।
एताभ्यां गुरुपुत्राभ्यां बालानामपि हीश्वरौ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रह्लादजीके सहपाठियोंने पूछा—प्रह्लादजी! इन दोनों गुरुपुत्रोंको छोड़कर और किसी गुरुको तो न तुम जानते हो और न हम। ये ही हम सब बालकोंके शासक हैं॥ २९॥
श्लोक-३०
विश्वास-प्रस्तुतिः
बालस्यान्तःपुरस्थस्य महत्सङ्गो दुरन्वयः।
छिन्धि नः संशयं सौम्य स्याच्चेद्विश्रम्भकारणम्॥
मूलम्
बालस्यान्तःपुरस्थस्य महत्सङ्गो दुरन्वयः।
छिन्धि नः संशयं सौम्य स्याच्चेद्विश्रम्भकारणम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
तुम एक तो अभी छोटी अवस्थाके हो और दूसरे जन्मसे ही महलमें अपनी माँके पास रहे हो। तुम्हारा महात्मा नारदजीसे मिलना कुछ असंगत-सा जान पड़ता है। प्रियवर! यदि इस विषयमें विश्वास दिलानेवाली कोई बात हो तो तुम उसे कहकर हमारी शंका मिटा दो॥ ३०॥
अनुवाद (समाप्ति)
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां सप्तमस्कन्धे प्रह्रादानुचरिते षष्ठोऽध्यायः॥ ६॥