[अष्टादशोऽध्यायः]
भागसूचना
अदिति और दितिकी सन्तानोंकी तथा मरुद्गणोंकी उत्पत्तिका वर्णन
श्लोक-१
मूलम् (वचनम्)
श्रीशुक उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
पृश्निस्तु पत्नी सवितुः सावित्रीं व्याहृतिं त्रयीम्।
अग्निहोत्रं पशुं सोमं चातुर्मास्यं महामखान्॥
मूलम्
पृश्निस्तु पत्नी सवितुः सावित्रीं व्याहृतिं त्रयीम्।
अग्निहोत्रं पशुं सोमं चातुर्मास्यं महामखान्॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! सविताकी पत्नी पृश्निके गर्भसे आठ सन्तानें हुईं—सावित्री, व्याहृति, त्रयी, अग्निहोत्र, पशु, सोम, चातुर्मास्य और पंचमहायज्ञ॥ १॥
श्लोक-२
विश्वास-प्रस्तुतिः
सिद्धिर्भगस्य भार्याङ्ग महिमानं विभुं प्रभुम्।
आशिषं च वरारोहां कन्यां प्रासूत सुव्रताम्॥
मूलम्
सिद्धिर्भगस्य भार्याङ्ग महिमानं विभुं प्रभुम्।
आशिषं च वरारोहां कन्यां प्रासूत सुव्रताम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगकी पत्नी सिद्धिने महिमा, विभु और प्रभु—ये तीन पुत्र और आशिष् नामकी एक कन्या उत्पन्न की। यह कन्या बड़ी सुन्दरी और सदाचारिणी थी॥ २॥
श्लोक-३
विश्वास-प्रस्तुतिः
धातुः कुहूः सिनीवाली राका चानुमतिस्तथा।
सायं दर्शमथ प्रातः पूर्णमासमनुक्रमात्॥
मूलम्
धातुः कुहूः सिनीवाली राका चानुमतिस्तथा।
सायं दर्शमथ प्रातः पूर्णमासमनुक्रमात्॥
अनुवाद (हिन्दी)
धाताकी चार पत्नियाँ थीं—कुहू, सिनीवाली, राका और अनुमति। उनसे क्रमशः सायं, दर्श, प्रातः और पूर्णमास—ये चार पुत्र हुए॥ ३॥
श्लोक-४
विश्वास-प्रस्तुतिः
अग्नीन् पुरीष्यानाधत्त क्रियायां समनन्तरः।
चर्षणी वरुणस्यासीद्यस्यां जातो भृगुः पुनः॥
मूलम्
अग्नीन् पुरीष्यानाधत्त क्रियायां समनन्तरः।
चर्षणी वरुणस्यासीद्यस्यां जातो भृगुः पुनः॥
अनुवाद (हिन्दी)
धाताके छोटे भाईका नाम था—विधाता, उनकी पत्नी क्रिया थी। उससे पुरीष्य नामके पाँच अग्नियोंकी उत्पत्ति हुई। वरुणजीकी पत्नीका नाम चर्षणी था। उससे भृगुजीने पुनः जन्म ग्रहण किया। इसके पहले वे ब्रह्माजीके पुत्र थे॥ ४॥
श्लोक-५
विश्वास-प्रस्तुतिः
वाल्मीकिश्च महायोगी वल्मीकादभवत्किल।
अगस्त्यश्च वसिष्ठश्च मित्रावरुणयोर्ऋषी॥
मूलम्
वाल्मीकिश्च महायोगी वल्मीकादभवत्किल।
अगस्त्यश्च वसिष्ठश्च मित्रावरुणयोर्ऋषी॥
श्लोक-६
विश्वास-प्रस्तुतिः
रेतः सिषिचतुः कुम्भे उर्वश्याः सन्निधौ द्रुतम्।
रेवत्यां मित्र उत्सर्गमरिष्टं पिप्पलं व्यधात्॥
मूलम्
रेतः सिषिचतुः कुम्भे उर्वश्याः सन्निधौ द्रुतम्।
रेवत्यां मित्र उत्सर्गमरिष्टं पिप्पलं व्यधात्॥
अनुवाद (हिन्दी)
महायोगी वाल्मीकिजी भी वरुणके पुत्र थे। वल्मीकसे पैदा होनेके कारण ही उनका नाम वाल्मीकि पड़ गया था। उर्वशीको देखकर मित्र और वरुण दोनोंका वीर्य स्खलित हो गया था। उसे उन लोगोंने घड़ेमें रख दिया। उसीसे मुनिवर अगस्त्य और वसिष्ठजीका जन्म हुआ। मित्रकी पत्नी थी रेवती। उसके तीन पुत्र हुए—उत्सर्ग, अरिष्ट और पिप्पल॥ ५-६॥
श्लोक-७
विश्वास-प्रस्तुतिः
पौलोम्यामिन्द्र आधत्त त्रीन् पुत्रानिति नः श्रुतम्।
जयन्तमृषभं तात तृतीयं मीढुषं प्रभुः॥
मूलम्
पौलोम्यामिन्द्र आधत्त त्रीन् पुत्रानिति नः श्रुतम्।
जयन्तमृषभं तात तृतीयं मीढुषं प्रभुः॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रिय परीक्षित्! देवराज इन्द्रकी पत्नी थीं पुलोमनन्दिनी शची। उनसे हमने सुना है, उन्होंने तीन पुत्र उत्पन्न किये—जयन्त, ऋषभ और मीढ्वान्॥ ७॥
श्लोक-८
विश्वास-प्रस्तुतिः
उरुक्रमस्य देवस्य मायावामनरूपिणः।
कीर्तौ पत्न्यां बृहच्छ्लोकस्तस्यासन् सौभगादयः॥
मूलम्
उरुक्रमस्य देवस्य मायावामनरूपिणः।
कीर्तौ पत्न्यां बृहच्छ्लोकस्तस्यासन् सौभगादयः॥
अनुवाद (हिन्दी)
स्वयं भगवान् विष्णु ही (बलिपर अनुग्रह करने और इन्द्रका राज्य लौटानेके लिये) मायासे वामन (उपेन्द्र)-के रूपमें अवतीर्ण हुए थे। उन्होंने तीन पग पृथ्वी माँगकर तीनों लोक नाप लिये थे। उनकी पत्नीका नाम था कीर्ति। उससे बृहच्छ्लोक नामका पुत्र हुआ। उसके सौभग आदि कई सन्तानें हुईं॥ ८॥
श्लोक-९
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्कर्मगुणवीर्याणि काश्यपस्य महात्मनः।
पश्चाद्वक्ष्यामहेऽदित्यां यथा वावततार ह॥
मूलम्
तत्कर्मगुणवीर्याणि काश्यपस्य महात्मनः।
पश्चाद्वक्ष्यामहेऽदित्यां यथा वावततार ह॥
अनुवाद (हिन्दी)
कश्यपनन्दन भगवान् वामनने माता अदितिके गर्भसे क्यों जन्म लिया और इस अवतारमें उन्होंने कौन-से गुण, लीलाएँ और पराक्रम प्रकट किये—इसका वर्णन मैं आगे (आठवें स्कन्धमें) करूँगा॥ ९॥
श्लोक-१०
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथ कश्यपदायादान् दैतेयान् कीर्तयामि ते।
यत्र भागवतः श्रीमान् प्रह्रादो बलिरेव च॥
मूलम्
अथ कश्यपदायादान् दैतेयान् कीर्तयामि ते।
यत्र भागवतः श्रीमान् प्रह्रादो बलिरेव च॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रिय परीक्षित्! अब मैं कश्यपजीकी दूसरी पत्नी दितिसे उत्पन्न होनेवाली उस सन्तानपरम्पराका वर्णन सुनाता हूँ, जिसमें भगवान्के प्यारे भक्त श्रीप्रह्लादजी और बलिका जन्म हुआ॥ १०॥
श्लोक-११
विश्वास-प्रस्तुतिः
दितेर्द्वावेव दायादौ दैत्यदानववन्दितौ।
हिरण्यकशिपुर्नाम हिरण्याक्षश्च कीर्तितौ॥
मूलम्
दितेर्द्वावेव दायादौ दैत्यदानववन्दितौ।
हिरण्यकशिपुर्नाम हिरण्याक्षश्च कीर्तितौ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दितिके दैत्य और दानवोंके वन्दनीय दो ही पुत्र हुए—हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्ष। इनकी संक्षिप्त कथा मैं तुम्हें (तीसरे स्कन्धमें) सुना चुका हूँ॥ ११॥
श्लोक-१२
विश्वास-प्रस्तुतिः
हिरण्यकशिपोर्भार्या कयाधुर्नाम दानवी।
जम्भस्य तनया दत्ता सुषुवे चतुरः सुतान्॥
मूलम्
हिरण्यकशिपोर्भार्या कयाधुर्नाम दानवी।
जम्भस्य तनया दत्ता सुषुवे चतुरः सुतान्॥
श्लोक-१३
विश्वास-प्रस्तुतिः
संह्रादं प्रागनुह्रादं ह्रादं प्रह्रादमेव च।
तत्स्वसा सिंहिका नाम राहुं विप्रचितोऽग्रहीत्॥
मूलम्
संह्रादं प्रागनुह्रादं ह्रादं प्रह्रादमेव च।
तत्स्वसा सिंहिका नाम राहुं विप्रचितोऽग्रहीत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
हिरण्यकशिपुकी पत्नी दानवी कयाधु थी। उसके पिता जम्भने उसका विवाह हिरण्यकशिपुसे कर दिया था। कयाधुके चार पुत्र हुए—संह्राद, अनुह्राद, ह्राद और प्रह्राद। इनकी सिंहिका नामकी एक बहिन भी थी। उसका विवाह विप्रचित्ति नामक दानवसे हुआ। उससे राहु नामक पुत्रकी उत्पत्ति हुई॥ १२-१३॥
श्लोक-१४
विश्वास-प्रस्तुतिः
शिरोऽहरद्यस्य हरिश्चक्रेण पिबतोऽमृतम्।
संह्रादस्य कृतिर्भार्यासूत पञ्चजनं ततः॥
मूलम्
शिरोऽहरद्यस्य हरिश्चक्रेण पिबतोऽमृतम्।
संह्रादस्य कृतिर्भार्यासूत पञ्चजनं ततः॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह वही राहु है, जिसका सिर अमृतपानके समय मोहिनीरूपधारी भगवान्ने चक्रसे काट लिया था। संह्रादकी पत्नी थी कृति। उससे पंचजन नामक पुत्र उत्पन्न हुआ॥ १४॥
श्लोक-१५
विश्वास-प्रस्तुतिः
ह्रादस्य धमनिर्भार्यासूत वातापिमिल्वलम्।
योऽगस्त्याय त्वतिथये पेचे वातापिमिल्वलः॥
मूलम्
ह्रादस्य धमनिर्भार्यासूत वातापिमिल्वलम्।
योऽगस्त्याय त्वतिथये पेचे वातापिमिल्वलः॥
अनुवाद (हिन्दी)
ह्रादकी पत्नी थी धमनि। उसके दो पुत्र हुए—वातापि और इल्वल। इस इल्वलने ही महर्षि अगस्त्यके आतिथ्यके समय वातापिको पकाकर उन्हें खिला दिया था॥ १५॥
श्लोक-१६
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनुह्रादस्य सूर्म्यायां बाष्कलो महिषस्तथा।
विरोचनस्तु प्राह्रादिर्देव्यास्तस्याभवद्बलिः॥
मूलम्
अनुह्रादस्य सूर्म्यायां बाष्कलो महिषस्तथा।
विरोचनस्तु प्राह्रादिर्देव्यास्तस्याभवद्बलिः॥
अनुवाद (हिन्दी)
अनुह्रादकी पत्नी सूर्म्या थी, उसके दो पुत्र हुए—बाष्कल और महिषासुर। प्रह्रादका पुत्र था विरोचन। उसकी पत्नी देवीके गर्भसे दैत्यराज बलिका जन्म हुआ॥ १६॥
श्लोक-१७
विश्वास-प्रस्तुतिः
बाणज्येष्ठं पुत्रशतमशनायां ततोऽभवत्।
तस्यानुभावः सुश्लोक्यः पश्चादेवाभिधास्यते॥
मूलम्
बाणज्येष्ठं पुत्रशतमशनायां ततोऽभवत्।
तस्यानुभावः सुश्लोक्यः पश्चादेवाभिधास्यते॥
अनुवाद (हिन्दी)
बलिकी पत्नीका नाम अशना था। उससे बाण आदि सौ पुत्र हुए। दैत्यराज बलिकी महिमा गान करनेयोग्य है। उसे मैं आगे (आठवें स्कन्धमें) सुनाऊँगा॥ १७॥
श्लोक-१८
विश्वास-प्रस्तुतिः
बाण आराध्य गिरिशं लेभे तद्गणमुख्यताम्।
यत्पार्श्वे भगवानास्ते ह्यद्यापि पुरपालकः॥
मूलम्
बाण आराध्य गिरिशं लेभे तद्गणमुख्यताम्।
यत्पार्श्वे भगवानास्ते ह्यद्यापि पुरपालकः॥
अनुवाद (हिन्दी)
बलिका पुत्र बाणासुर भगवान् शंकरकी आराधना करके उनके गणोंका मुखिया बन गया। आज भी भगवान् शंकर उसके नगरकी रक्षा करनेके लिये उसके पास ही रहते हैं॥ १८॥
श्लोक-१९
विश्वास-प्रस्तुतिः
मरुतश्च दितेः पुत्राश्चत्वारिंशन्नवाधिकाः।
त आसन्नप्रजाः सर्वे नीता इन्द्रेण सात्मताम्॥
मूलम्
मरुतश्च दितेः पुत्राश्चत्वारिंशन्नवाधिकाः।
त आसन्नप्रजाः सर्वे नीता इन्द्रेण सात्मताम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
दितिके हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्षके अतिरिक्त उनचास पुत्र और थे। उन्हें मरुद्गण कहते हैं। वे सब निःसन्तान रहे। देवराज इन्द्रने उन्हें अपने ही समान देवता बना लिया॥ १९॥
श्लोक-२०
मूलम् (वचनम्)
राजोवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
कथं त आसुरं भावमपोह्यौत्पत्तिकं गुरो।
इन्द्रेण प्रापिताः सात्म्यं किं तत्साधु कृतं हि तैः॥
मूलम्
कथं त आसुरं भावमपोह्यौत्पत्तिकं गुरो।
इन्द्रेण प्रापिताः सात्म्यं किं तत्साधु कृतं हि तैः॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजा परीक्षित् ने पूछा—भगवन्! मरुद्गणने ऐसा कौन-सा सत्कर्म किया था, जिसके कारण वे अपने जन्मजात असुरोचित भावको छोड़ सके और देवराज इन्द्रके द्वारा देवता बना लिये गये?॥ २०॥
श्लोक-२१
विश्वास-प्रस्तुतिः
इमे श्रद्दधते ब्रह्मन्नृषयो हि मया सह।
परिज्ञानाय भगवंस्तन्नो व्याख्यातुमर्हसि॥
मूलम्
इमे श्रद्दधते ब्रह्मन्नृषयो हि मया सह।
परिज्ञानाय भगवंस्तन्नो व्याख्यातुमर्हसि॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्रह्मन्! मेरे साथ यहाँकी सभी ऋषिमण्डली यह बात जाननेके लिये अत्यन्त उत्सुक हो रही है। अतः आप कृपा करके विस्तारसे वह रहस्य बतलाइये॥ २१॥
श्लोक-२२
मूलम् (वचनम्)
सूत उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
तद्विष्णुरातस्य स बादरायणि-
र्वचो निशम्यादृतमल्पमर्थवत्।
सभाजयन् संनिभृतेन चेतसा
जगाद सत्रायण सर्वदर्शनः॥
मूलम्
तद्विष्णुरातस्य स बादरायणि-
र्वचो निशम्यादृतमल्पमर्थवत्।
सभाजयन् संनिभृतेन चेतसा
जगाद सत्रायण सर्वदर्शनः॥
अनुवाद (हिन्दी)
सूतजी कहते हैं—शौनकजी! राजा परीक्षित् का प्रश्न थोड़े शब्दोंमें बड़ा सारगर्भित था। उन्होंने बड़े आदरसे पूछा भी था। इसलिये सर्वज्ञ श्रीशुकदेवजी महाराजने बड़े ही प्रसन्न चित्तसे उनका अभिनन्दन करके यों कहा॥ २२॥
श्लोक-२३
मूलम् (वचनम्)
श्रीशुक उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
हतपुत्रा दितिः शक्रपार्ष्णिग्राहेण विष्णुना।
मन्युना शोकदीप्तेन ज्वलन्ती पर्यचिन्तयत्॥
मूलम्
हतपुत्रा दितिः शक्रपार्ष्णिग्राहेण विष्णुना।
मन्युना शोकदीप्तेन ज्वलन्ती पर्यचिन्तयत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीशुकदेवजी कहने लगे—परीक्षित्! भगवान् विष्णुने इन्द्रका पक्ष लेकर दितिके दोनों पुत्र हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्षको मार डाला। अतः दिति शोककी आगसे उद्दीप्त क्रोधसे जलकर इस प्रकार सोचने लगी॥ २३॥
श्लोक-२४
विश्वास-प्रस्तुतिः
कदा नु भ्रातृहन्तारमिन्द्रियाराममुल्बणम्।
अक्लिन्नहृदयं पापं घातयित्वा शये सुखम्॥
मूलम्
कदा नु भ्रातृहन्तारमिन्द्रियाराममुल्बणम्।
अक्लिन्नहृदयं पापं घातयित्वा शये सुखम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘सचमुच इन्द्र बड़ा विषयी, क्रूर और निर्दयी है। राम! राम! उसने अपने भाइयोंको ही मरवा डाला। वह दिन कब होगा, जब मैं भी उस पापीको मरवाकर आरामसे सोऊँगी॥ २४॥
श्लोक-२५
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृमिविड्भस्मसंज्ञाऽऽसीद्यस्येशाभिहितस्य च।
भूतध्रुक् तत्कृते स्वार्थं किं वेद निरयो यतः॥
मूलम्
कृमिविड्भस्मसंज्ञाऽऽसीद्यस्येशाभिहितस्य च।
भूतध्रुक् तत्कृते स्वार्थं किं वेद निरयो यतः॥
अनुवाद (हिन्दी)
लोग राजाओंके, देवताओंके शरीरको ‘प्रभु’ कहकर पुकारते हैं; परन्तु एक दिन वह कीड़ा, विष्ठा या राखका ढेर हो जाता है, इसके लिये जो दूसरे प्राणियोंको सताता है, उसे अपने सच्चे स्वार्थ या परमार्थका पता नहीं है; क्योंकि इससे तो नरकमें जाना पड़ेगा॥ २५॥
श्लोक-२६
विश्वास-प्रस्तुतिः
आशासानस्य तस्येदं ध्रुवमुन्नद्धचेतसः।
मदशोषक इन्द्रस्य भूयाद्येन सुतो हि मे॥
मूलम्
आशासानस्य तस्येदं ध्रुवमुन्नद्धचेतसः।
मदशोषक इन्द्रस्य भूयाद्येन सुतो हि मे॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैं समझती हूँ इन्द्र अपने शरीरको नित्य मानकर मतवाला हो रहा है। उसे अपने विनाशका पता ही नहीं है। अब मैं वह उपाय करूँगी, जिससे मुझे ऐसा पुत्र प्राप्त हो, जो इन्द्रका घमण्ड चूर-चूर कर दे’॥ २६॥
श्लोक-२७
विश्वास-प्रस्तुतिः
इति भावेन सा भर्तुराचचारासकृत्प्रियम्।
शुश्रूषयानुरागेण प्रश्रयेण दमेन च॥
मूलम्
इति भावेन सा भर्तुराचचारासकृत्प्रियम्।
शुश्रूषयानुरागेण प्रश्रयेण दमेन च॥
अनुवाद (हिन्दी)
दिति अपने मनमें ऐसा विचार करके सेवा-शुश्रूषा, विनय-प्रेम और जितेन्द्रियता आदिके द्वारा निरन्तर अपने पतिदेव कश्यपजीको प्रसन्न रखने लगी॥ २७॥
श्लोक-२८
विश्वास-प्रस्तुतिः
भक्त्या परमया राजन् मनोज्ञैर्वल्गुभाषितैः।
मनो जग्राह भावज्ञा सुस्मितापाङ्गवीक्षणैः॥
मूलम्
भक्त्या परमया राजन् मनोज्ञैर्वल्गुभाषितैः।
मनो जग्राह भावज्ञा सुस्मितापाङ्गवीक्षणैः॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह अपने पतिदेवके हृदयका एक-एक भाव जानती रहती थी और परम प्रेमभाव, मनोहर एवं मधुर भाषण तथा मुसकान भरी तिरछी चितवनसे उनका मन अपनी ओर आकर्षित करती रहती थी॥ २८॥
श्लोक-२९
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं स्त्रिया जडीभूतो विद्वानपि विदग्धया।
बाढमित्याह विवशो न तच्चित्रं हि योषिति॥
मूलम्
एवं स्त्रिया जडीभूतो विद्वानपि विदग्धया।
बाढमित्याह विवशो न तच्चित्रं हि योषिति॥
अनुवाद (हिन्दी)
कश्यपजी महाराज बड़े विद्वान् और विचारवान् होनेपर भी चतुर दितिकी सेवासे मोहित हो गये और उन्होंने विवश होकर यह स्वीकार कर लिया कि ‘मैं तुम्हारी इच्छा पूर्ण करूँगा।’ स्त्रियोंके सम्बन्धमें यह कोई आश्चर्यकी बात नहीं है॥ २९॥
श्लोक-३०
विश्वास-प्रस्तुतिः
विलोक्यैकान्तभूतानि भूतान्यादौ प्रजापतिः।
स्त्रियं चक्रे स्वदेहार्धं यया पुंसां मतिर्हृता॥
मूलम्
विलोक्यैकान्तभूतानि भूतान्यादौ प्रजापतिः।
स्त्रियं चक्रे स्वदेहार्धं यया पुंसां मतिर्हृता॥
अनुवाद (हिन्दी)
सृष्टिके प्रभातमें ब्रह्माजीने देखा कि सभी जीव असंग हो रहे हैं, तब उन्होंने अपने आधे शरीरसे स्त्रियोंकी रचना की और स्त्रियोंने पुरुषोंकी मति अपनी ओर आकर्षित कर ली॥ ३०॥
श्लोक-३१
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं शुश्रूषितस्तात भगवान् कश्यपः स्त्रिया।
प्रहस्य परमप्रीतो दितिमाहाभिनन्द्य च॥
मूलम्
एवं शुश्रूषितस्तात भगवान् कश्यपः स्त्रिया।
प्रहस्य परमप्रीतो दितिमाहाभिनन्द्य च॥
अनुवाद (हिन्दी)
हाँ, तो भैया! मैं कह रहा था कि दितिने भगवान् कश्यपकी बड़ी सेवा की। इससे वे उसपर बहुत ही प्रसन्न हुए। उन्होंने दितिका अभिनन्दन करते हुए उससे मुसकराकर कहा॥ ३१॥
श्लोक-३२
मूलम् (वचनम्)
कश्यप उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
वरं वरय वामोरु प्रीतस्तेऽहमनिन्दिते।
स्त्रिया भर्तरि सुप्रीते कः काम इह चागमः॥
मूलम्
वरं वरय वामोरु प्रीतस्तेऽहमनिन्दिते।
स्त्रिया भर्तरि सुप्रीते कः काम इह चागमः॥
अनुवाद (हिन्दी)
कश्यपजीने कहा—अनिन्द्यसुन्दरी प्रिये! मैं तुमपर प्रसन्न हूँ। तुम्हारी जो इच्छा हो, मुझसे माँग लो। पतिके प्रसन्न हो जानेपर पत्नीके लिये लोक या परलोकमें कौन-सी अभीष्ट वस्तु दुर्लभ है॥ ३२॥
श्लोक-३३
विश्वास-प्रस्तुतिः
पतिरेव हि नारीणां दैवतं परमं स्मृतम्।
मानसः सर्वभूतानां वासुदेवः श्रियः पतिः॥
मूलम्
पतिरेव हि नारीणां दैवतं परमं स्मृतम्।
मानसः सर्वभूतानां वासुदेवः श्रियः पतिः॥
अनुवाद (हिन्दी)
शास्त्रोंमें यह बात स्पष्ट कही गयी है कि पति ही स्त्रियोंका परमाराध्य इष्टदेव है। प्रिये! लक्ष्मीपति भगवान् वासुदेव ही समस्त प्राणियोंके हृदयमें विराजमान हैं॥ ३३॥
श्लोक-३४
विश्वास-प्रस्तुतिः
स एव देवतालिङ्गैर्नामरूपविकल्पितैः।
इज्यते भगवान् पुम्भिः स्त्रीभिश्च पतिरूपधृक्॥
मूलम्
स एव देवतालिङ्गैर्नामरूपविकल्पितैः।
इज्यते भगवान् पुम्भिः स्त्रीभिश्च पतिरूपधृक्॥
अनुवाद (हिन्दी)
विभिन्न देवताओंके रूपमें नाम और रूपके भेदसे उन्हींकी कल्पना हुई है। सभी पुरुष—चाहे किसी भी देवताकी उपासना करें—उन्हींकी उपासना करते हैं। ठीक वैसे ही स्त्रियोंके लिये भगवान्ने पतिका रूप धारण किया है। वे उनकी उसी रूपमें पूजा करती हैं॥ ३४॥
श्लोक-३५
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मात्पतिव्रता नार्यः श्रेयस्कामाः सुमध्यमे।
यजन्तेऽनन्यभावेन पतिमात्मानमीश्वरम्॥
मूलम्
तस्मात्पतिव्रता नार्यः श्रेयस्कामाः सुमध्यमे।
यजन्तेऽनन्यभावेन पतिमात्मानमीश्वरम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसलिये प्रिये! अपना कल्याण चाहनेवाली पतिव्रता स्त्रियाँ अनन्य प्रेमभावसे अपने पतिदेवकी ही पूजा करती हैं; क्योंकि पतिदेव ही उनके परम प्रियतम आत्मा और ईश्वर हैं॥ ३५॥
श्लोक-३६
विश्वास-प्रस्तुतिः
सोऽहं त्वयार्चितो भद्रे ईदृग्भावेन भक्तितः।
तत्ते सम्पादये काममसतीनां सुदुर्लभम्॥
मूलम्
सोऽहं त्वयार्चितो भद्रे ईदृग्भावेन भक्तितः।
तत्ते सम्पादये काममसतीनां सुदुर्लभम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
कल्याणी! तुमने बड़े प्रेमभावसे, भक्तिसे मेरी वैसी ही पूजा की है। अब मैं तुम्हारी सब अभिलाषाएँ पूर्ण कर दूँगा। असतियोंके जीवनमें ऐसा होना अत्यन्त दुर्लभ है॥ ३६॥
श्लोक-३७
मूलम् (वचनम्)
दितिरुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
वरदो यदि मे ब्रह्मन् पुत्रमिन्द्रहणं वृणे।
अमृत्युं मृतपुत्राहं येन मे घातितौ सुतौ॥
मूलम्
वरदो यदि मे ब्रह्मन् पुत्रमिन्द्रहणं वृणे।
अमृत्युं मृतपुत्राहं येन मे घातितौ सुतौ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दितिने कहा—ब्रह्मन्! इन्द्रने विष्णुके हाथों मेरे दो पुत्र मरवाकर मुझे निपूती बना दिया है। इसलिये यदि आप मुझे मुँहमाँगा वर देना चाहते हैं तो कृपा करके एक ऐसा अमर पुत्र दीजिये, जो इन्द्रको मार डाले॥ ३७॥
श्लोक-३८
विश्वास-प्रस्तुतिः
निशम्य तद्वचो विप्रो विमनाः पर्यतप्यत।
अहो अधर्मः सुमहानद्य मे समुपस्थितः॥
मूलम्
निशम्य तद्वचो विप्रो विमनाः पर्यतप्यत।
अहो अधर्मः सुमहानद्य मे समुपस्थितः॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! दितिकी बात सुनकर कश्यपजी खिन्न होकर पछताने लगे। वे मन-ही-मन कहने लगे—‘हाय! हाय! आज मेरे जीवनमें बहुत बड़े अधर्मका अवसर आ पहुँचा॥ ३८॥
श्लोक-३९
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहो अद्येन्द्रियारामो योषिन्मय्येह मायया।
गृहीतचेताः कृपणः पतिष्ये नरके ध्रुवम्॥
मूलम्
अहो अद्येन्द्रियारामो योषिन्मय्येह मायया।
गृहीतचेताः कृपणः पतिष्ये नरके ध्रुवम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
देखो तो सही, अब मैं इन्द्रियोंके विषयोंमें सुख मानने लगा हूँ। स्त्रीरूपिणी मायाने मेरे चित्तको अपने वशमें कर लिया है। हाय! हाय! आज मैं कितनी दीन-हीन अवस्थामें हूँ। अवश्य ही अब मुझे नरकमें गिरना पड़ेगा॥ ३९॥
श्लोक-४०
विश्वास-प्रस्तुतिः
कोऽतिक्रमोऽनुवर्तन्त्याः स्वभावमिह योषितः।
धिङ् मां बताबुधं स्वार्थे यदहं त्वजितेन्द्रियः॥
मूलम्
कोऽतिक्रमोऽनुवर्तन्त्याः स्वभावमिह योषितः।
धिङ् मां बताबुधं स्वार्थे यदहं त्वजितेन्द्रियः॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस स्त्रीका कोई दोष नहीं है; क्योंकि इसने अपने जन्मजात स्वभावका ही अनुसरण किया है। दोष मेरा है—जो मैं अपनी इन्द्रियोंको अपने वशमें न रख सका, अपने सच्चे स्वार्थ और परमार्थको न समझ सका। मुझ मूढको बार-बार धिक्कार है॥ ४०॥
श्लोक-४१
विश्वास-प्रस्तुतिः
शरत्पद्मोत्सवं वक्त्रं वचश्च श्रवणामृतम्।
हृदयं क्षुरधाराभं स्त्रीणां को वेद चेष्टितम्॥
मूलम्
शरत्पद्मोत्सवं वक्त्रं वचश्च श्रवणामृतम्।
हृदयं क्षुरधाराभं स्त्रीणां को वेद चेष्टितम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
सच है, स्त्रियोंके चरित्रको कौन जानता है। इनका मुँह तो ऐसा होता है जैसे शरद्ऋतुका खिला हुआ कमल। बातें सुननेमें ऐसी मीठी होती हैं, मानो अमृत घोल रखा हो। परन्तु हृदय, वह तो इतना तीखा होता है कि मानो छुरेकी पैनी धार हो॥ ४१॥
श्लोक-४२
विश्वास-प्रस्तुतिः
न हि कश्चित्प्रियः स्त्रीणामञ्जसा स्वाशिषात्मनाम्।
पतिं पुत्रं भ्रातरं वा घ्नन्त्यर्थे घातयन्ति च॥
मूलम्
न हि कश्चित्प्रियः स्त्रीणामञ्जसा स्वाशिषात्मनाम्।
पतिं पुत्रं भ्रातरं वा घ्नन्त्यर्थे घातयन्ति च॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसमें सन्देह नहीं कि स्त्रियाँ अपनी लालसाओंकी कठपुतली होती हैं। सच पूछो तो वे किसीसे प्यार नहीं करतीं। स्वार्थवश वे अपने पति, पुत्र और भाईतकको मार डालती हैं या मरवा डालती हैं॥ ४२॥
श्लोक-४३
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रतिश्रुतं ददामीति वचस्तन्न मृषा भवेत्।
वधं नार्हति चेन्द्रोऽपि तत्रेदमुपकल्पते॥
मूलम्
प्रतिश्रुतं ददामीति वचस्तन्न मृषा भवेत्।
वधं नार्हति चेन्द्रोऽपि तत्रेदमुपकल्पते॥
अनुवाद (हिन्दी)
अब तो मैं कह चुका हूँ कि जो तुम माँगोगी, दूँगा। मेरी बात झूठी नहीं होनी चाहिये। परन्तु इन्द्र भी वध करनेयोग्य नहीं है। अच्छा, अब इस विषयमें मैं यह युक्ति करता हूँ’॥ ४३॥
श्लोक-४४
विश्वास-प्रस्तुतिः
इति संचिन्त्य भगवान् मारीचः कुरुनन्दन।
उवाच किञ्चित् कुपित आत्मानं च विगर्हयन्॥
मूलम्
इति संचिन्त्य भगवान् मारीचः कुरुनन्दन।
उवाच किञ्चित् कुपित आत्मानं च विगर्हयन्॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रिय परीक्षित्! सर्वसमर्थ कश्यपजीने इस प्रकार मन-ही-मन अपनी भर्त्सना करके दोनों बात बनानेका उपाय सोचा और फिर तनिक रुष्ट होकर दितिसे कहा॥ ४४॥
श्लोक-४५
मूलम् (वचनम्)
कश्यप उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुत्रस्ते भविता भद्रे इन्द्रहा देवबान्धवः।
संवत्सरं व्रतमिदं यद्यञ्जो धारयिष्यसि॥
मूलम्
पुत्रस्ते भविता भद्रे इन्द्रहा देवबान्धवः।
संवत्सरं व्रतमिदं यद्यञ्जो धारयिष्यसि॥
अनुवाद (हिन्दी)
कश्यपजी बोले—कल्याणी! यदि तुम मेरे बतलाये हुए व्रतका एक वर्षतक विधिपूर्वक पालन करोगी तो तुम्हें इन्द्रको मारनेवाला पुत्र प्राप्त होगा। परन्तु यदि किसी प्रकार नियमोंमें त्रुटि हो गयी तो वह देवताओंका मित्र बन जायगा॥ ४५॥
श्लोक-४६
मूलम् (वचनम्)
दितिरुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
धारयिष्ये व्रतं ब्रह्मन् ब्रूहि कार्याणि यानि मे।
यानि चेह निषिद्धानि न व्रतं घ्नन्ति यानि तु॥
मूलम्
धारयिष्ये व्रतं ब्रह्मन् ब्रूहि कार्याणि यानि मे।
यानि चेह निषिद्धानि न व्रतं घ्नन्ति यानि तु॥
अनुवाद (हिन्दी)
दितिने कहा—ब्रह्मन्! मैं उस व्रतका पालन करूँगी। आप बतलाइये कि मुझे क्या-क्या करना चाहिये, कौन-कौनसे काम छोड़ देने चाहिये और कौन-से काम ऐसे हैं, जिनसे व्रत भंग नहीं होता॥ ४६॥
श्लोक-४७
मूलम् (वचनम्)
कश्यप उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
न हिंस्याद्भूतजातानि न शपेन्नानृतं वदेत्।
नच्छिन्द्यान्नखरोमाणि न स्पृशेद्यदमङ्गलम्॥
मूलम्
न हिंस्याद्भूतजातानि न शपेन्नानृतं वदेत्।
नच्छिन्द्यान्नखरोमाणि न स्पृशेद्यदमङ्गलम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
कश्यपजीने उत्तर दिया—प्रिये! इस व्रतमें किसी भी प्राणीको मन, वाणी या क्रियाके द्वारा सताये नहीं, किसीको शाप या गाली न दे, झूठ न बोले, शरीरके नख और रोएँ न काटे और किसी भी अशुभ वस्तुका स्पर्श न करे॥ ४७॥
श्लोक-४८
विश्वास-प्रस्तुतिः
नाप्सु स्नायान्न कुप्येत न सम्भाषेत दुर्जनैः।
न वसीताधौतवासः स्रजं च विधृतां क्वचित्॥
मूलम्
नाप्सु स्नायान्न कुप्येत न सम्भाषेत दुर्जनैः।
न वसीताधौतवासः स्रजं च विधृतां क्वचित्॥
अनुवाद (हिन्दी)
जलमें घुसकर स्नान न करे, क्रोध न करे, दुर्जनोंसे बातचीत न करे, बिना धुला वस्त्र न पहने और किसीकी पहनी हुई माला न पहने॥ ४८॥
श्लोक-४९
विश्वास-प्रस्तुतिः
नोच्छिष्टं चण्डिकान्नं च सामिषं वृषलाहृतम्।
भुञ्जीतोदक्यया दृष्टं पिबेदञ्जलिना त्वपः॥
मूलम्
नोच्छिष्टं चण्डिकान्नं च सामिषं वृषलाहृतम्।
भुञ्जीतोदक्यया दृष्टं पिबेदञ्जलिना त्वपः॥
अनुवाद (हिन्दी)
जूठा न खाय, भद्रकालीका प्रसाद या मांसयुक्त अन्नका भोजन न करे। शूद्रका लाया हुआ और रजस्वलाका देखा हुआ अन्न भी न खाय और अंजलिसे जलपान न करे॥ ४९॥
श्लोक-५०
विश्वास-प्रस्तुतिः
नोच्छिष्टास्पृष्टसलिला सन्ध्यायां मुक्तमूर्धजा।
अनर्चितासंयतवाङ्नासंवीता बहिश्चरेद्॥
मूलम्
नोच्छिष्टास्पृष्टसलिला सन्ध्यायां मुक्तमूर्धजा।
अनर्चितासंयतवाङ्नासंवीता बहिश्चरेद्॥
अनुवाद (हिन्दी)
जूठे मुँह, बिना आचमन किये, सन्ध्याके समय, बाल खोले हुए , बिना शृंगारके, वाणीका संयम किये बिना और बिना चद्दर ओढ़े घरसे बाहर न निकले॥ ५०॥
श्लोक-५१
विश्वास-प्रस्तुतिः
नाधौतपादाप्रयता नार्द्रपान्नो उदक्शिराः।
शयीत नापराङ्नान्यैर्न नग्ना न च सन्ध्ययोः॥
मूलम्
नाधौतपादाप्रयता नार्द्रपान्नो उदक्शिराः।
शयीत नापराङ्नान्यैर्न नग्ना न च सन्ध्ययोः॥
अनुवाद (हिन्दी)
बिना पैर धोये, अपवित्र अवस्थामें गीले पाँवोंसे, उत्तर या पश्चिम सिर करके, दूसरेके साथ, नग्नावस्थामें तथा सुबह-शाम सोना नहीं चाहिये॥ ५१॥
श्लोक-५२
विश्वास-प्रस्तुतिः
धौतवासाः शुचिर्नित्यं सर्वमङ्गलसंयुता।
पूजयेत्प्रातराशात्प्राग्गोविप्राञ् श्रियमच्युतम्॥
मूलम्
धौतवासाः शुचिर्नित्यं सर्वमङ्गलसंयुता।
पूजयेत्प्रातराशात्प्राग्गोविप्राञ् श्रियमच्युतम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार इन निषिद्ध कर्मोंका त्याग करके सर्वदा पवित्र रहे, धुला वस्त्र धारण करे और सभी सौभाग्यके चिह्नोंसे सुसज्जित रहे। प्रातःकाल कलेवा करनेके पहले ही गाय, ब्राह्मण, लक्ष्मीजी और भगवान् नारायणकी पूजा करे॥ ५२॥
श्लोक-५३
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्त्रियो वीरवतीश्चार्चेत् स्रग्गन्धबलिमण्डनैः।
पतिं चार्च्योपतिष्ठेत ध्यायेत्कोष्ठगतं च तम्॥
मूलम्
स्त्रियो वीरवतीश्चार्चेत् स्रग्गन्धबलिमण्डनैः।
पतिं चार्च्योपतिष्ठेत ध्यायेत्कोष्ठगतं च तम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसके बाद पुष्पमाला, चन्दनादि सुगन्धद्रव्य, नैवेद्य और आभूषणादिसे सुहागिनी स्त्रियोंकी पूजा करे तथा पतिकी पूजा करके उसकी सेवामें संलग्न रहे और यह भावना करती रहे कि पतिका तेज मेरी कोखमें स्थित है॥ ५३॥
श्लोक-५४
विश्वास-प्रस्तुतिः
सांवत्सरं पुंसवनं व्रतमेतदविप्लुतम्।
धारयिष्यसि चेत्तुभ्यं शक्रहा भविता सुतः॥
मूलम्
सांवत्सरं पुंसवनं व्रतमेतदविप्लुतम्।
धारयिष्यसि चेत्तुभ्यं शक्रहा भविता सुतः॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रिये! इस व्रतका नाम ‘पुंसवन’ है। यदि एक वर्षतक तुम इसे बिना किसी त्रुटिके पालन कर सकोगी तो तुम्हारी कोखसे इन्द्रघाती पुत्र उत्पन्न होगा॥ ५४॥
श्लोक-५५
विश्वास-प्रस्तुतिः
वाढमित्यभिप्रेत्याथ दिती राजन् महामनाः।
काश्यपं गर्भमाधत्त व्रतं चाञ्जो दधार सा॥
मूलम्
वाढमित्यभिप्रेत्याथ दिती राजन् महामनाः।
काश्यपं गर्भमाधत्त व्रतं चाञ्जो दधार सा॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! दिति बड़ी मनस्विनी और दृढ़ निश्चयवाली थी। उसने ‘बहुत ठीक’ कहकर उनकी आज्ञा स्वीकार कर ली। अब दिति अपनी कोखमें भगवान् कश्यपका वीर्य और जीवनमें उनका बतलाया हुआ व्रत धारण करके अनायास ही नियमोंका पालन करने लगी॥ ५५॥
श्लोक-५६
विश्वास-प्रस्तुतिः
मातृष्वसुरभिप्रायमिन्द्र आज्ञाय मानद।
शुश्रूषणेनाश्रमस्थां दितिं पर्यचरत्कविः॥
मूलम्
मातृष्वसुरभिप्रायमिन्द्र आज्ञाय मानद।
शुश्रूषणेनाश्रमस्थां दितिं पर्यचरत्कविः॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रिय परीक्षित्! देवराज इन्द्र अपनी मौसी दितिका अभिप्राय जान बड़ी बुद्धिमानीसे अपना वेष बदलकर दितिके आश्रमपर आये और उसकी सेवा करने लगे॥ ५६॥
श्लोक-५७
विश्वास-प्रस्तुतिः
नित्यं वनात्सुमनसः फलमूलसमित्कुशान्।
पत्राङ्कुरमृदोऽपश्च काले काल उपाहरत्॥
मूलम्
नित्यं वनात्सुमनसः फलमूलसमित्कुशान्।
पत्राङ्कुरमृदोऽपश्च काले काल उपाहरत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे दितिके लिये प्रतिदिन समय-समयपर वनसे फूल-फल, कन्द-मूल, समिधा, कुश, पत्ते, दूब, मिट्टी और जल लाकर उसकी सेवामें समर्पित करते॥ ५७॥
श्लोक-५८
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं तस्या व्रतस्थाया व्रतच्छिद्रं हरिर्नृप।
प्रेप्सुः पर्यचरज्जिह्मो मृगहेव मृगाकृतिः॥
मूलम्
एवं तस्या व्रतस्थाया व्रतच्छिद्रं हरिर्नृप।
प्रेप्सुः पर्यचरज्जिह्मो मृगहेव मृगाकृतिः॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! जिस प्रकार बहेलिया हरिनको मारनेके लिये हरिनकी-सी सूरत बनाकर उसके पास जाता है, वैसे ही देवराज इन्द्र भी कपटवेष धारण करके व्रतपरायणा दितिके व्रतपालनकी त्रुटि पकड़नेके लिये उसकी सेवा करने लगे॥ ५८॥
श्लोक-५९
विश्वास-प्रस्तुतिः
नाध्यगच्छद्व्रतच्छिद्रं तत्परोऽथ महीपते।
चिन्तां तीव्रां गतः शक्रः केन मे स्याच्छिवं त्विह॥
मूलम्
नाध्यगच्छद्व्रतच्छिद्रं तत्परोऽथ महीपते।
चिन्तां तीव्रां गतः शक्रः केन मे स्याच्छिवं त्विह॥
अनुवाद (हिन्दी)
सर्वदा पैनी दृष्टि रखनेपर भी उन्हें उसके व्रतमें किसी प्रकारकी त्रुटि न मिली और वे पूर्ववत् उसकी सेवा-टहलमें लगे रहे। अब तो इन्द्रको बड़ी चिन्ता हुई। वे सोचने लगे—मैं ऐसा कौन-सा उपाय करूँ, जिससे मेरा कल्याण हो?॥ ५९॥
श्लोक-६०
विश्वास-प्रस्तुतिः
एकदा सा तु सन्ध्यायामुच्छिष्टा व्रतकर्शिता।
अस्पृष्टवार्यधौताङ्घ्रिः सुष्वाप विधिमोहिता॥
मूलम्
एकदा सा तु सन्ध्यायामुच्छिष्टा व्रतकर्शिता।
अस्पृष्टवार्यधौताङ्घ्रिः सुष्वाप विधिमोहिता॥
अनुवाद (हिन्दी)
दिति व्रतके नियमोंका पालन करते-करते बहुत दुर्बल हो गयी थी। विधाताने भी उसे मोहमें डाल दिया। इसलिये एक दिन सन्ध्याके समय जूठे मुँह, बिना आचमन किये और बिना पैर धोये ही वह सो गयी॥ ६०॥
श्लोक-६१
विश्वास-प्रस्तुतिः
लब्ध्वा तदन्तरं शक्रो निद्रापहृतचेतसः।
दितेः प्रविष्ट उदरं योगेशो योगमायया॥
मूलम्
लब्ध्वा तदन्तरं शक्रो निद्रापहृतचेतसः।
दितेः प्रविष्ट उदरं योगेशो योगमायया॥
अनुवाद (हिन्दी)
योगेश्वर इन्द्रने देखा कि यह अच्छा अवसर हाथ लगा। वे योगबलसे झटपट सोयी हुई दितिके गर्भमें प्रवेश कर गये॥ ६१॥
श्लोक-६२
विश्वास-प्रस्तुतिः
चकर्त सप्तधा गर्भं वज्रेण कनकप्रभम्।
रुदन्तं सप्तधैकैकं मा रोदीरिति तान् पुनः॥
मूलम्
चकर्त सप्तधा गर्भं वज्रेण कनकप्रभम्।
रुदन्तं सप्तधैकैकं मा रोदीरिति तान् पुनः॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन्होंने वहाँ जाकर सोनेके समान चमकते हुए गर्भके वज्रके द्वारा सात टुकड़े कर दिये। जब वह गर्भ रोने लगा, तब उन्होंने ‘मत रो, मत रो’ यह कहकर सातों टुकड़ोंमेंसे एक-एकके और भी सात टुकड़े कर दिये॥ ६२॥
श्लोक-६३
विश्वास-प्रस्तुतिः
ते तमूचुः पाट्यमानाः सर्वे प्राञ्जलयो नृप।
नो जिघांससि किमिन्द्र भ्रातरो मरुतस्तव॥
मूलम्
ते तमूचुः पाट्यमानाः सर्वे प्राञ्जलयो नृप।
नो जिघांससि किमिन्द्र भ्रातरो मरुतस्तव॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! जब इन्द्र उनके टुकड़े-टुकड़े करने लगे, तब उन सबोंने हाथ जोड़कर इन्द्रसे कहा—‘देवराज! तुम हमें क्यों मार रहे हो? हम तो तुम्हारे भाई मरुद्गण हैं’॥ ६३॥
श्लोक-६४
विश्वास-प्रस्तुतिः
मा भैष्ट भ्रातरो मह्यं यूयमित्याह कौशिकः।
अनन्यभावान् पार्षदानात्मनो मरुतां गणान्॥
मूलम्
मा भैष्ट भ्रातरो मह्यं यूयमित्याह कौशिकः।
अनन्यभावान् पार्षदानात्मनो मरुतां गणान्॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब इन्द्रने अपने भावी अनन्यप्रेमी पार्षद मरुद्गणसे कहा—‘अच्छी बात है, तुमलोग मेरे भाई हो। अब मत डरो!’॥ ६४॥
श्लोक-६५
विश्वास-प्रस्तुतिः
न ममार दितेर्गर्भः श्रीनिवासानुकम्पया।
बहुधा कुलिशक्षुण्णो द्रौण्यस्त्रेण यथा भवान्॥
मूलम्
न ममार दितेर्गर्भः श्रीनिवासानुकम्पया।
बहुधा कुलिशक्षुण्णो द्रौण्यस्त्रेण यथा भवान्॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! जैसे अश्वत्थामाके ब्रह्मास्त्रसे तुम्हारा कुछ भी अनिष्ट नहीं हुआ, वैसे ही भगवान् श्रीहरिकी कृपासे दितिका वह गर्भ वज्रके द्वारा टुकड़े-टुकड़े होनेपर भी मरा नहीं॥ ६५॥
श्लोक-६६
विश्वास-प्रस्तुतिः
सकृदिष्ट्वाऽऽदिपुरुषं पुरुषो याति साम्यताम्।
संवत्सरं किञ्चिदूनं दित्या यद्धरिरर्चितः॥
मूलम्
सकृदिष्ट्वाऽऽदिपुरुषं पुरुषो याति साम्यताम्।
संवत्सरं किञ्चिदूनं दित्या यद्धरिरर्चितः॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसमें तनिक भी आश्चर्यकी बात नहीं है। क्योंकि जो मनुष्य एक बार भी आदि पुरुष भगवान् नारायणकी आराधना कर लेता है, वह उनकी समानता प्राप्त कर लेता है; फिर दितिने तो कुछ ही दिन कम एक वर्षतक भगवान्की आराधना की थी॥ ६६॥
श्लोक-६७
विश्वास-प्रस्तुतिः
सजूरिन्द्रेण पञ्चाशद्देवास्ते मरुतोऽभवन्।
व्यपोह्य मातृदोषं ते हरिणा सोमपाः कृताः॥
मूलम्
सजूरिन्द्रेण पञ्चाशद्देवास्ते मरुतोऽभवन्।
व्यपोह्य मातृदोषं ते हरिणा सोमपाः कृताः॥
अनुवाद (हिन्दी)
अब वे उनचास मरुद्गण इन्द्रके साथ मिलकर पचास हो गये। इन्द्रने भी सौतेली माताके पुत्रोंके साथ शत्रुभाव न रखकर उन्हें सोमपायी देवता बना लिया॥ ६७॥
श्लोक-६८
विश्वास-प्रस्तुतिः
दितिरुत्थाय ददृशे कुमाराननलप्रभान्।
इन्द्रेण सहितान् देवी पर्यतुष्यदनिन्दिता॥
मूलम्
दितिरुत्थाय ददृशे कुमाराननलप्रभान्।
इन्द्रेण सहितान् देवी पर्यतुष्यदनिन्दिता॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब दितिकी आँख खुली, तब उसने देखा कि उसके अग्निके समान तेजस्वी उनचास बालक इन्द्रके साथ हैं। इससे सुन्दर स्वभाववाली दितिको बड़ी प्रसन्नता हुई॥ ६८॥
श्लोक-६९
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथेन्द्रमाह ताताहमादित्यानां भयावहम्।
अपत्यमिच्छन्त्यचरं व्रतमेतत्सुदुष्करम्॥
मूलम्
अथेन्द्रमाह ताताहमादित्यानां भयावहम्।
अपत्यमिच्छन्त्यचरं व्रतमेतत्सुदुष्करम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसने इन्द्रको सम्बोधन करके कहा—‘बेटा! मैं इस इच्छासे इस अत्यन्त कठिन व्रतका पालन कर रही थी कि तुम अदितिके पुत्रोंको भयभीत करनेवाला पुत्र उत्पन्न हो॥ ६९॥
श्लोक-७०
विश्वास-प्रस्तुतिः
एकः सङ्कल्पितः पुत्रःसप्त सप्ताभवन् कथम्।
यदि ते विदितं पुत्र सत्यं कथय मा मृषा॥
मूलम्
एकः सङ्कल्पितः पुत्रःसप्त सप्ताभवन् कथम्।
यदि ते विदितं पुत्र सत्यं कथय मा मृषा॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैंने केवल एक ही पुत्रके लिये संकल्प किया था, फिर ये उनचास पुत्र कैसे हो गये? बेटा इन्द्र! यदि तुम्हें इसका रहस्य मालूम हो, तो सच-सच मुझे बतला दो। झूठ न बोलना’॥ ७०॥
श्लोक-७१
मूलम् (वचनम्)
इन्द्र उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अम्ब तेऽहं व्यवसितमुपधार्यागतोऽन्तिकम्।
लब्धान्तरोऽच्छिदं गर्भमर्थबुद्धिर्न धर्मवित्॥
मूलम्
अम्ब तेऽहं व्यवसितमुपधार्यागतोऽन्तिकम्।
लब्धान्तरोऽच्छिदं गर्भमर्थबुद्धिर्न धर्मवित्॥
अनुवाद (हिन्दी)
इन्द्रने कहा—माता! मुझे इस बातका पता चल गया था कि तुम किस उद्देश्यसे व्रत कर रही हो। इसीलिये अपना स्वार्थ सिद्ध करनेके उद्देश्यसे मैं स्वर्ग छोड़कर तुम्हारे पास आया। मेरे मनमें तनिक भी धर्मभावना नहीं थी। इसीसे तुम्हारे व्रतमें त्रुटि होते ही मैंने उस गर्भके टुकड़े-टुकड़े कर दिये॥ ७१॥
श्लोक-७२
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृत्तो मे सप्तधा गर्भ आसन् सप्त कुमारकाः।
तेऽपि चैकैकशो वृक्णाः सप्तधा नापि मम्रिरे॥
मूलम्
कृत्तो मे सप्तधा गर्भ आसन् सप्त कुमारकाः।
तेऽपि चैकैकशो वृक्णाः सप्तधा नापि मम्रिरे॥
अनुवाद (हिन्दी)
पहले मैंने उसके सात टुकड़े किये थे। तब वे सातों टुकड़े सात बालक बन गये। इसके बाद मैंने फिर एक-एकके सात-सात टुकड़े कर दिये। तब भी वे न मरे, बल्कि उनचास हो गये॥ ७२॥
श्लोक-७३
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्तत्परमाश्चर्यं वीक्ष्याध्यवसितं मया।
महापुरुषपूजायाः सिद्धिः काप्यनुषङ्गिणी॥
मूलम्
ततस्तत्परमाश्चर्यं वीक्ष्याध्यवसितं मया।
महापुरुषपूजायाः सिद्धिः काप्यनुषङ्गिणी॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह परम आश्चर्यमयी घटना देखकर मैंने ऐसा निश्चय किया कि परमपुरुष भगवान्की उपासनाकी यह कोई स्वाभाविक सिद्धि है॥ ७३॥
श्लोक-७४
विश्वास-प्रस्तुतिः
आराधनं भगवत ईहमाना निराशिषः।
ये तु नेच्छन्त्यपि परं ते स्वार्थकुशलाः स्मृताः॥
मूलम्
आराधनं भगवत ईहमाना निराशिषः।
ये तु नेच्छन्त्यपि परं ते स्वार्थकुशलाः स्मृताः॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो लोग निष्कामभावसे भगवान्की आराधना करते हैं और दूसरी वस्तुओंकी तो बात ही क्या, मोक्षकी भी इच्छा नहीं करते, वे ही अपने स्वार्थ और परमार्थमें निपुण हैं॥ ७४॥
श्लोक-७५
विश्वास-प्रस्तुतिः
आराध्यात्मप्रदं देवं स्वात्मानं जगदीश्वरम्।
को वृणीते गुणस्पर्शं बुधः स्यान्नरकेऽपि यत्॥
मूलम्
आराध्यात्मप्रदं देवं स्वात्मानं जगदीश्वरम्।
को वृणीते गुणस्पर्शं बुधः स्यान्नरकेऽपि यत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् जगदीश्वर सबके आराध्यदेव और अपने आत्मा ही हैं। वे प्रसन्न होकर अपने-आपतकका दान कर देते हैं। भला, ऐसा कौन बुद्धिमान् है, जो उनकी आराधना करके विषयभोगोंका वरदान माँगे। माताजी! ये विषयभोग तो नरकमें भी मिल सकते हैं॥ ७५॥
श्लोक-७६
विश्वास-प्रस्तुतिः
तदिदं मम दौर्जन्यं बालिशस्य महीयसि।
क्षन्तुमर्हसि मातस्त्वं दिष्ट्या गर्भो मृतोत्थितः॥
मूलम्
तदिदं मम दौर्जन्यं बालिशस्य महीयसि।
क्षन्तुमर्हसि मातस्त्वं दिष्ट्या गर्भो मृतोत्थितः॥
अनुवाद (हिन्दी)
मेरी स्नेहमयी जननी! तुम सब प्रकार मेरी पूज्या हो। मैंने मूर्खतावश बड़ी दुष्टताका काम किया है। तुम मेरे अपराधको क्षमा कर दो। यह बड़े सौभाग्यकी बात है कि तुम्हारा गर्भ खण्ड-खण्ड हो जानेसे एक प्रकार मर जानेपर भी फिरसे जीवित हो गया॥ ७६॥
श्लोक-७७
मूलम् (वचनम्)
श्रीशुक उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
इन्द्रस्तयाभ्यनुज्ञातः शुद्धभावेन तुष्टया।
मरुद्भिः सह तां नत्वा जगाम त्रिदिवं प्रभुः॥
मूलम्
इन्द्रस्तयाभ्यनुज्ञातः शुद्धभावेन तुष्टया।
मरुद्भिः सह तां नत्वा जगाम त्रिदिवं प्रभुः॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! दिति देवराज इन्द्रके शुद्धभावसे सन्तुष्ट हो गयी। उससे आज्ञा लेकर देवराज इन्द्रने मरुद्गणोंके साथ उसे नमस्कार किया और स्वर्गमें चले गये॥ ७७॥
श्लोक-७८
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं ते सर्वमाख्यातं यन्मां त्वं परिपृच्छसि।
मङ्गलं मरुतां जन्म किं भूयः कथयामि ते॥
मूलम्
एवं ते सर्वमाख्यातं यन्मां त्वं परिपृच्छसि।
मङ्गलं मरुतां जन्म किं भूयः कथयामि ते॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! यह मरुद्गणका जन्म बड़ा ही मंगलमय है। इसके विषयमें तुमने मुझसे जो प्रश्न किया था, उसका उत्तर समग्ररूपसे मैंने तुम्हें दे दिया। अब तुम और क्या सुनना चाहते हो?॥ ७८॥
अनुवाद (समाप्ति)
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां षष्ठस्कन्धे मरुदुत्पत्तिकथनं नामाष्टादशोऽध्यायः॥ १८॥