१३ इन्द्रविजयः

[त्रयोदशोऽध्यायः]

भागसूचना

इन्द्रपर ब्रह्महत्याका आक्रमण

श्लोक-१

मूलम् (वचनम्)

श्रीशुक उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

वृत्रे हते त्रयो लोका विना शक्रेण भूरिद।
सपाला ह्यभवन् सद्यो विज्वरा निर्वृतेन्द्रियाः॥

मूलम्

वृत्रे हते त्रयो लोका विना शक्रेण भूरिद।
सपाला ह्यभवन् सद्यो विज्वरा निर्वृतेन्द्रियाः॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—महादानी परीक्षित्! वृत्रासुरकी मृत्युसे इन्द्रके अतिरिक्त तीनों लोक और लोकपाल तत्क्षण परम प्रसन्न हो गये। उनका भय, उनकी चिन्ता जाती रही॥ १॥

श्लोक-२

विश्वास-प्रस्तुतिः

देवर्षिपितृभूतानि दैत्या देवानुगाः स्वयम्।
प्रतिजग्मुः स्वधिष्ण्यानि ब्रह्मेशेन्द्रादयस्ततः॥

मूलम्

देवर्षिपितृभूतानि दैत्या देवानुगाः स्वयम्।
प्रतिजग्मुः स्वधिष्ण्यानि ब्रह्मेशेन्द्रादयस्ततः॥

अनुवाद (हिन्दी)

युद्ध समाप्त होनेपर देवता, ऋषि, पितर, भूत, दैत्य और देवताओंके अनुचर गन्धर्व आदि इन्द्रसे बिना पूछे ही अपने-अपने लोकको लौट गये। इसके पश्चात् ब्रह्मा, शंकर और इन्द्र आदि भी चले गये॥ २॥

श्लोक-३

मूलम् (वचनम्)

राजोवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

इन्द्रस्यानिर्वृतेर्हेतुं श्रोतुमिच्छामि भो मुने।
येनासन् सुखिनो देवा हरेर्दुःखं कुतोऽभवत्॥

मूलम्

इन्द्रस्यानिर्वृतेर्हेतुं श्रोतुमिच्छामि भो मुने।
येनासन् सुखिनो देवा हरेर्दुःखं कुतोऽभवत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजा परीक्षित् ने पूछा—भगवन्! मैं देवराज इन्द्रकी अप्रसन्नताका कारण सुनना चाहता हूँ। जब वृत्रासुरके वधसे सभी देवता सुखी हुए , तब इन्द्रको दुःख होनेका क्या कारण था?॥ ३॥

श्लोक-४

मूलम् (वचनम्)

श्रीशुक उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

वृत्रविक्रमसंविग्नाः सर्वे देवाः सहर्षिभिः।
तद्वधायार्थयन्निन्द्रं नैच्छद् भीतो बृहद्वधात्॥

मूलम्

वृत्रविक्रमसंविग्नाः सर्वे देवाः सहर्षिभिः।
तद्वधायार्थयन्निन्द्रं नैच्छद् भीतो बृहद्वधात्॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीशुकदेवजीने कहा—परीक्षित्! जब वृत्रासुरके पराक्रमसे सभी देवता और ऋषि-महर्षि अत्यन्त भयभीत हो गये, तब उन लोगोंने उसके वधके लिये इन्द्रसे प्रार्थना की; परन्तु वे ब्रह्महत्याके भयसे उसे मारना नहीं चाहते थे॥ ४॥

श्लोक-५

मूलम् (वचनम्)

इन्द्र उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्त्रीभूजलद्रुमैरेनो विश्वरूपवधोद‍्भवम्।
विभक्तमनुगृह्णद‍्भिर्वृत्रहत्यां क्व मार्ज्म्यहम्॥

मूलम्

स्त्रीभूजलद्रुमैरेनो विश्वरूपवधोद‍्भवम्।
विभक्तमनुगृह्णद‍्भिर्वृत्रहत्यां क्व मार्ज्म्यहम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवराज इन्द्रने उन लोगोंसे कहा—देवताओ और ऋषियो! मुझे विश्वरूपके वधसे जो ब्रह्महत्या लगी थी, उसे तो स्त्री, पृथ्वी, जल और वृक्षोंने कृपा करके बाँट लिया। अब यदि मैं वृत्रका वध करूँ तो उसकी हत्यासे मेरा छुटकारा कैसे होगा?॥ ५॥

श्लोक-६

मूलम् (वचनम्)

श्रीशुक उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऋषयस्तदुपाकर्ण्य महेन्द्रमिदमब्रुवन्।
याजयिष्याम भद्रं ते हयमेधेन मा स्म भैः॥

मूलम्

ऋषयस्तदुपाकर्ण्य महेन्द्रमिदमब्रुवन्।
याजयिष्याम भद्रं ते हयमेधेन मा स्म भैः॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—देवराज इन्द्रकी बात सुनकर ऋषियोंने उनसे कहा—‘देवराज! तुम्हारा कल्याण हो, तुम तनिक भी भय मत करो। क्योंकि हम अश्वमेध यज्ञ कराकर तुम्हें सारे पापोंसे मुक्त कर देंगे॥ ६॥

श्लोक-७

विश्वास-प्रस्तुतिः

हयमेधेन पुरुषं परमात्मानमीश्वरम्।
इष्ट्वा नारायणं देवं मोक्ष्यसेऽपि जगद्वधात्॥

मूलम्

हयमेधेन पुरुषं परमात्मानमीश्वरम्।
इष्ट्वा नारायणं देवं मोक्ष्यसेऽपि जगद्वधात्॥

अनुवाद (हिन्दी)

अश्वमेध यज्ञके द्वारा सबके अन्तर्यामी सर्वशक्तिमान् परमात्मा नारायणदेवकी आराधना करके तुम सम्पूर्ण जगत‍्का वध करनेके पापसे भी मुक्त हो सकोगे; फिर वृत्रासुरके वधकी तो बात ही क्या है॥ ७॥

श्लोक-८

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्रह्महा पितृहा गोघ्नो मातृहाऽऽचार्यहाघवान्।
श्वादः पुल्कसको वापि शुद्‍ध्येरन् यस्य कीर्तनात्॥

मूलम्

ब्रह्महा पितृहा गोघ्नो मातृहाऽऽचार्यहाघवान्।
श्वादः पुल्कसको वापि शुद्‍ध्येरन् यस्य कीर्तनात्॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवराज! भगवान‍्के नाम-कीर्तनमात्रसे ही ब्राह्मण, पिता, गौ, माता, आचार्य आदिकी हत्या करनेवाले महापापी, कुत्तेका मांस खानेवाले चाण्डाल और कसाई भी शुद्ध हो जाते हैं॥ ८॥

श्लोक-९

विश्वास-प्रस्तुतिः

तमश्वमेधेन महामखेन
श्रद्धान्वितोऽस्माभिरनुष्ठितेन।
हत्वापि सब्रह्म चराचरं त्वं
न लिप्यसे किं खलनिग्रहेण॥

मूलम्

तमश्वमेधेन महामखेन
श्रद्धान्वितोऽस्माभिरनुष्ठितेन।
हत्वापि सब्रह्म चराचरं त्वं
न लिप्यसे किं खलनिग्रहेण॥

अनुवाद (हिन्दी)

हमलोग ‘अश्वमेध’ नामक महायज्ञका अनुष्ठान करेंगे। उसके द्वारा श्रद्धापूर्वक भगवान‍्की आराधना करके तुम ब्रह्मापर्यन्त समस्त चराचर जगत‍्की हत्याके भी पापसे लिप्त नहीं होगे। फिर इस दुष्टको दण्ड देनेके पापसे छूटनेकी तो बात ही क्या है॥ ९॥

श्लोक-१०

मूलम् (वचनम्)

श्रीशुक उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं सञ्चोदितो विप्रैर्मरुत्वानहनद्रिपुम्।
ब्रह्महत्या हते तस्मिन्नाससाद वृषाकपिम्॥

मूलम्

एवं सञ्चोदितो विप्रैर्मरुत्वानहनद्रिपुम्।
ब्रह्महत्या हते तस्मिन्नाससाद वृषाकपिम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! इस प्रकार ब्राह्मणोंसे प्रेरणा प्राप्त करके देवराज इन्द्रने वृत्रासुरका वध किया था। अब उसके मारे जानेपर ब्रह्महत्या इन्द्रके पास आयी॥ १०॥

श्लोक-११

विश्वास-प्रस्तुतिः

तयेन्द्रः स्मासहत् तापं निर्वृतिर्नामुमाविशत्।
ह्रीमन्तं वाच्यतां प्राप्तं सुखयन्त्यपि नो गुणाः॥

मूलम्

तयेन्द्रः स्मासहत् तापं निर्वृतिर्नामुमाविशत्।
ह्रीमन्तं वाच्यतां प्राप्तं सुखयन्त्यपि नो गुणाः॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसके कारण इन्द्रको बड़ा क्लेश, बड़ी जलन सहनी पड़ी। उन्हें एक क्षणके लिये भी चैन नहीं पड़ता था। सच है, जब किसी संकोची सज्जनपर कलंक लग जाता है, तब उसके धैर्य आदि गुण भी उसे सुखी नहीं कर पाते॥ ११॥

श्लोक-१२

विश्वास-प्रस्तुतिः

तां ददर्शानुधावन्तीं चाण्डालीमिव रूपिणीम्।
जरया वेपमानाङ्गीं यक्ष्मग्रस्तामसृक्पटाम्॥

मूलम्

तां ददर्शानुधावन्तीं चाण्डालीमिव रूपिणीम्।
जरया वेपमानाङ्गीं यक्ष्मग्रस्तामसृक्पटाम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवराज इन्द्रने देखा कि ब्रह्महत्या साक्षात् चाण्डालीके समान उनके पीछे-पीछे दौड़ी आ रही है। बुढ़ापेके कारण उसके सारे अंग काँप रहे हैं और क्षयरोग उसे सता रहा है। उसके सारे वस्त्र खूनसे लथपथ हो रहे हैं॥ १२॥

श्लोक-१३

विश्वास-प्रस्तुतिः

विकीर्य पलितान् केशांस्तिष्ठ तिष्ठेति भाषिणीम्।
मीनगन्ध्यसुगन्धेन कुर्वतीं मार्गदूषणम्॥

मूलम्

विकीर्य पलितान् केशांस्तिष्ठ तिष्ठेति भाषिणीम्।
मीनगन्ध्यसुगन्धेन कुर्वतीं मार्गदूषणम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह अपने सफेद-सफेद बालोंको बिखेरे ‘ठहर जा! ठहर जा!!’ इस प्रकार चिल्लाती आ रही है। उसके श्वासके साथ मछलीकी-सी दुर्गन्ध आ रही है, जिसके कारण मार्ग भी दूषित होता जा रहा है॥ १३॥

श्लोक-१४

विश्वास-प्रस्तुतिः

नभो गतो दिशः सर्वाः सहस्राक्षो विशाम्पते।
प्रागुदीचीं दिशं तूर्णं प्रविष्टो नृप मानसम्॥

मूलम्

नभो गतो दिशः सर्वाः सहस्राक्षो विशाम्पते।
प्रागुदीचीं दिशं तूर्णं प्रविष्टो नृप मानसम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! देवराज इन्द्र उसके भयसे दिशाओं और आकाशमें भागते फिरे। अन्तमें कहीं भी शरण न मिलनेके कारण उन्होंने पूर्व और उत्तरके कोनेमें स्थित मानसरोवरमें शीघ्रतासे प्रवेश किया॥ १४॥

श्लोक-१५

विश्वास-प्रस्तुतिः

स आवसत्पुष्करनालतन्तू-
नलब्धभोगो यदिहाग्निदूतः।
वर्षाणि साहस्रमलक्षितोऽन्तः
स चिन्तयन् ब्रह्मवधाद् विमोक्षम्॥

मूलम्

स आवसत्पुष्करनालतन्तू-
नलब्धभोगो यदिहाग्निदूतः।
वर्षाणि साहस्रमलक्षितोऽन्तः
स चिन्तयन् ब्रह्मवधाद् विमोक्षम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवराज इन्द्र मानसरोवरके कमलनालके तन्तुओंमें एक हजार वर्षोंतक छिपकर निवास करते रहे और सोचते रहे कि ब्रह्महत्यासे मेरा छुटकारा कैसे होगा। इतने दिनोंतक उन्हें भोजनके लिये किसी प्रकारकी सामग्री न मिल सकी। क्योंकि वे अग्निदेवताके मुखसे भोजन करते हैं और अग्निदेवता जलके भीतर कमलतन्तुओंमें जा नहीं सकते थे॥ १५॥

श्लोक-१६

विश्वास-प्रस्तुतिः

तावत्त्रिणाकं नहुषः शशास
विद्यातपोयोगबलानुभावः।
स सम्पदैश्वर्यमदान्धबुद्धि-
र्नीतस्तिरश्चां गतिमिन्द्रपत्न्या॥

मूलम्

तावत्त्रिणाकं नहुषः शशास
विद्यातपोयोगबलानुभावः।
स सम्पदैश्वर्यमदान्धबुद्धि-
र्नीतस्तिरश्चां गतिमिन्द्रपत्न्या॥

अनुवाद (हिन्दी)

जबतक देवराज इन्द्र कमलतन्तुओंमें रहे, तबतक अपनी विद्या, तपस्या और योगबलके प्रभावसे राजा नहुष स्वर्गका शासन करते रहे। परन्तु जब उन्होंने सम्पत्ति और ऐश्वर्यके मदसे अंधे होकर इन्द्रपत्नी शचीके साथ अनाचार करना चाहा, तब शचीने उनसे ऋषियोंका अपराध करवाकर उन्हें शाप दिला दिया—जिससे वे साँप हो गये॥ १६॥

श्लोक-१७

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो गतो ब्रह्मगिरोपहूत
ऋतम्भरध्याननिवारिताघः।
पापस्तु दिग्देवतया हतौजा-
स्तं नाभ्यभूदवितं विष्णुपत्न्या॥

मूलम्

ततो गतो ब्रह्मगिरोपहूत
ऋतम्भरध्याननिवारिताघः।
पापस्तु दिग्देवतया हतौजा-
स्तं नाभ्यभूदवितं विष्णुपत्न्या॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर जब सत्यके परम पोषक भगवान‍्का ध्यान करनेसे इन्द्रके पाप नष्टप्राय हो गये, तब ब्राह्मणोंके बुलवानेपर वे पुनः स्वर्गलोकमें गये। कमलवनविहारिणी विष्णुपत्नी लक्ष्मीजी इन्द्रकी रक्षा कर रही थीं और पूर्वोत्तर दिशाके अधिपति रुद्रने पापको पहले ही निस्तेज कर दिया था, जिससे वह इन्द्रपर आक्रमण नहीं कर सका॥ १७॥

श्लोक-१८

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं च ब्रह्मर्षयोऽभ्येत्य हयमेधेन भारत।
यथावद्दीक्षयाञ्चक्रुः पुरुषाराधनेन ह॥

मूलम्

तं च ब्रह्मर्षयोऽभ्येत्य हयमेधेन भारत।
यथावद्दीक्षयाञ्चक्रुः पुरुषाराधनेन ह॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! इन्द्रके स्वर्गमें आ जानेपर ब्रह्मर्षियोंने वहाँ आकर भगवान‍्की आराधनाके लिये इन्द्रको अश्वमेध यज्ञकी दीक्षा दी, उनसे अश्वमेध यज्ञ कराया॥ १८॥

श्लोक-१९

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथेज्यमाने पुरुषे सर्वदेवमयात्मनि।
अश्वमेधे महेन्द्रेण वितते ब्रह्मवादिभिः॥

मूलम्

अथेज्यमाने पुरुषे सर्वदेवमयात्मनि।
अश्वमेधे महेन्द्रेण वितते ब्रह्मवादिभिः॥

श्लोक-२०

विश्वास-प्रस्तुतिः

स वै त्वाष्ट्रवधो भूयानपि पापचयो नृप।
नीतस्तेनैव शून्याय नीहार इव भानुना॥

मूलम्

स वै त्वाष्ट्रवधो भूयानपि पापचयो नृप।
नीतस्तेनैव शून्याय नीहार इव भानुना॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब वेदवादी ऋषियोंने उनसे अश्वमेध यज्ञ कराया तथा देवराज इन्द्रने उस यज्ञके द्वारा सर्वदेवस्वरूप पुरुषोत्तम भगवान‍्की आराधना की, तब भगवान‍्की आराधनाके प्रभावसे वृत्रासुरके वधकी वह बहुत बड़ी पापराशि इस प्रकार भस्म हो गयी, जैसे सूर्योदयसे कुहरेका नाश हो जाता है॥ १९-२०॥

श्लोक-२१

विश्वास-प्रस्तुतिः

स वाजिमेधेन यथोदितेन
वितायमानेन मरीचिमिश्रैः।
इष्ट्वाधियज्ञं पुरुषं पुराण-
मिन्द्रो महानास विधूतपापः॥

मूलम्

स वाजिमेधेन यथोदितेन
वितायमानेन मरीचिमिश्रैः।
इष्ट्वाधियज्ञं पुरुषं पुराण-
मिन्द्रो महानास विधूतपापः॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब मरीचि आदि मुनीश्वरोंने उनसे विधिपूर्वक अश्वमेध यज्ञ कराया, तब उसके द्वारा सनातन पुरुष यज्ञपति भगवान‍्की आराधना करके इन्द्र सब पापोंसे छूट गये और पूर्ववत् फिर पूजनीय हो गये॥ २१॥

श्लोक-२२

विश्वास-प्रस्तुतिः

इदं महाख्यानमशेषपाप्मनां
प्रक्षालनं तीर्थपदानुकीर्तनम्।
भक्त्युच्छ्रयं भक्तजनानुवर्णनं
महेन्द्रमोक्षं विजयं मरुत्वतः॥

मूलम्

इदं महाख्यानमशेषपाप्मनां
प्रक्षालनं तीर्थपदानुकीर्तनम्।
भक्त्युच्छ्रयं भक्तजनानुवर्णनं
महेन्द्रमोक्षं विजयं मरुत्वतः॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! इस श्रेष्ठ आख्यानमें इन्द्रकी विजय, उनकी पापोंसे मुक्ति और भगवान‍्के प्यारे भक्त वृत्रासुरका वर्णन हुआ है। इसमें तीर्थोंको भी तीर्थ बनानेवाले भगवान‍्के अनुग्रह आदि गुणोंका संकीर्तन है। यह सारे पापोंको धो बहाता है और भक्तिको बढ़ाता है॥ २२॥

श्लोक-२३

विश्वास-प्रस्तुतिः

पठेयुराख्यानमिदं सदा बुधाः
शृण्वन्त्यथो पर्वणि पर्वणीन्द्रियम्।
धन्यं यशस्यं निखिलाघमोचनं
रिपुञ्जयं स्वस्त्ययनं तथाऽऽयुषम्॥

मूलम्

पठेयुराख्यानमिदं सदा बुधाः
शृण्वन्त्यथो पर्वणि पर्वणीन्द्रियम्।
धन्यं यशस्यं निखिलाघमोचनं
रिपुञ्जयं स्वस्त्ययनं तथाऽऽयुषम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

बुद्धिमान् पुरुषोंको चाहिये कि वे इस इन्द्रसम्बन्धी आख्यानको सदा-सर्वदा पढ़ें और सुनें। विशेषतः पर्वोंके अवसरपर तो अवश्य ही इसका सेवन करें। यह धन और यशको बढ़ाता है, सारे पापोंसे छुड़ाता है, शत्रुपर विजय प्राप्त कराता है, तथा आयु और मंगलकी अभिवृद्धि करता है॥ २३॥

अनुवाद (समाप्ति)

इति श्रीमद‍्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां षष्ठस्कन्धे इन्द्रविजयो नाम त्रयोदशोऽध्यायः॥ १३॥