[द्वादशोऽध्यायः]
भागसूचना
वृत्रासुरका वध
श्लोक-१
मूलम् (वचनम्)
ऋषिरुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं जिहासुर्नृप देहमाजौ
मृत्युं वरं विजयान्मन्यमानः।
शूलं प्रगृह्याभ्यपतत् सुरेन्द्रं
यथा महापुरुषं कैटभोऽप्सु॥
मूलम्
एवं जिहासुर्नृप देहमाजौ
मृत्युं वरं विजयान्मन्यमानः।
शूलं प्रगृह्याभ्यपतत् सुरेन्द्रं
यथा महापुरुषं कैटभोऽप्सु॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—राजन्! वृत्रासुर रणभूमिमें अपना शरीर छोड़ना चाहता था, क्योंकि उसके विचारसे इन्द्रपर विजय प्राप्त करके स्वर्ग पानेकी अपेक्षा मरकर भगवान्को प्राप्त करना श्रेष्ठ था। इसलिये जैसे प्रलयकालीन जलमें कैटभासुर भगवान् विष्णुपर चोट करनेके लिये दौड़ा था, वैसे ही वह भी त्रिशूल उठाकर इन्द्रपर टूट पड़ा॥ १॥
श्लोक-२
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो युगान्ताग्निकठोरजिह्व-
माविध्य शूलं तरसासुरेन्द्रः।
क्षिप्त्वा महेन्द्राय विनद्य वीरो
हतोऽसि पापेति रुषा जगाद॥
मूलम्
ततो युगान्ताग्निकठोरजिह्व-
माविध्य शूलं तरसासुरेन्द्रः।
क्षिप्त्वा महेन्द्राय विनद्य वीरो
हतोऽसि पापेति रुषा जगाद॥
अनुवाद (हिन्दी)
वीर वृत्रासुरने प्रलयकालीन अग्निकी लपटोंके समान तीखी नोकोंवाले त्रिशूलको घुमाकर बड़े वेगसे इन्द्रपर चलाया और अत्यन्त क्रोधसे सिंहनाद करके बोला—‘पापी इन्द्र! अब तू बच नहीं सकता’॥ २॥
श्लोक-३
विश्वास-प्रस्तुतिः
ख आपतत् तद् विचलद् ग्रहोल्कव-
न्निरीक्ष्य दुष्प्रेक्ष्यमजातविक्लवः।
वज्रेण वज्री शतपर्वणाच्छिनद्
भुजं च तस्योरगराजभोगम्॥
मूलम्
ख आपतत् तद् विचलद् ग्रहोल्कव-
न्निरीक्ष्य दुष्प्रेक्ष्यमजातविक्लवः।
वज्रेण वज्री शतपर्वणाच्छिनद्
भुजं च तस्योरगराजभोगम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
इन्द्रने यह देखकर कि वह भयंकर त्रिशूल ग्रह और उल्काके समान चक्कर काटता हुआ आकाशमें आ रहा है, किसी प्रकारकी अधीरता नहीं प्रकट की और उस त्रिशूलके साथ ही वासुकिनागके समान वृत्रासुरकी विशाल भुजा अपने सौ गाँठोंवाले वज्रसे काट डाली॥ ३॥
श्लोक-४
विश्वास-प्रस्तुतिः
छिन्नैकबाहुः परिघेण वृत्रः
संरब्ध आसाद्य गृहीतवज्रम्।
हनौ तताडेन्द्रमथामरेभं
वज्रं च हस्तान्न्यपतन्मघोनः॥
मूलम्
छिन्नैकबाहुः परिघेण वृत्रः
संरब्ध आसाद्य गृहीतवज्रम्।
हनौ तताडेन्द्रमथामरेभं
वज्रं च हस्तान्न्यपतन्मघोनः॥
अनुवाद (हिन्दी)
एक बाँह कट जानेपर वृत्रासुरको बहुत क्रोध हुआ। उसने वज्रधारी इन्द्रके पास जाकर उनकी ठोड़ीमें और गजराज ऐरावतपर परिघसे ऐसा प्रहार किया कि उनके हाथसे वह वज्र गिर पड़ा॥ ४॥
श्लोक-५
विश्वास-प्रस्तुतिः
वृत्रस्य कर्मातिमहाद्भुतं तत्
सुरासुराश्चारणसिद्धसङ्घाः।
अपूजयंस्तत् पुरुहूतसंकटं
निरीक्ष्य हा हेति विचुक्रुशुर्भृशम्॥
मूलम्
वृत्रस्य कर्मातिमहाद्भुतं तत्
सुरासुराश्चारणसिद्धसङ्घाः।
अपूजयंस्तत् पुरुहूतसंकटं
निरीक्ष्य हा हेति विचुक्रुशुर्भृशम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
वृत्रासुरके इस अत्यन्त अलौकिक कार्यको देखकर देवता, असुर, चारण, सिद्धगण आदि सभी प्रशंसा करने लगे। परन्तु इन्द्रका संकट देखकर वे ही लोग बार-बार ‘हाय-हाय!’ कहकर चिल्लाने लगे॥ ५॥
श्लोक-६
विश्वास-प्रस्तुतिः
इन्द्रो न वज्रं जगृहे विलज्जित-
श्च्युतं स्वहस्तादरिसन्निधौ पुनः।
तमाह वृत्रो हर आत्तवज्रो
जहि स्वशत्रुं न विषादकालः॥
मूलम्
इन्द्रो न वज्रं जगृहे विलज्जित-
श्च्युतं स्वहस्तादरिसन्निधौ पुनः।
तमाह वृत्रो हर आत्तवज्रो
जहि स्वशत्रुं न विषादकालः॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! वह वज्र इन्द्रके हाथसे छूटकर वृत्रासुरके पास ही जा पड़ा था। इसलिये लज्जित होकर इन्द्रने उसे फिर नहीं उठाया। तब वृत्रासुरने कहा—‘इन्द्र! तुम वज्र उठाकर अपने शत्रुको मार डालो। यह विषाद करनेका समय नहीं है॥ ६॥
श्लोक-७
विश्वास-प्रस्तुतिः
युयुत्सतां कुत्रचिदाततायिनां
जयः सदैकत्र न वै परात्मनाम्।
विनैकमुत्पत्तिलयस्थितीश्वरं
सर्वज्ञमाद्यं पुरुषं सनातनम्॥
मूलम्
युयुत्सतां कुत्रचिदाततायिनां
जयः सदैकत्र न वै परात्मनाम्।
विनैकमुत्पत्तिलयस्थितीश्वरं
सर्वज्ञमाद्यं पुरुषं सनातनम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
(देखो—) सर्वज्ञ, सनातन, आदिपुरुष भगवान् ही जगत्की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय करनेमें समर्थ हैं। उनके अतिरिक्त देहाभिमानी और युद्धके लिये उत्सुक आततायियोंको सर्वदा जय ही नहीं मिलती। वे कभी जीतते हैं तो कभी हारते हैं॥ ७॥
श्लोक-८
विश्वास-प्रस्तुतिः
लोकाः सपाला यस्येमे श्वसन्ति विवशा वशे।
द्विजा इव शिचा बद्धाः स काल इह कारणम्॥
मूलम्
लोकाः सपाला यस्येमे श्वसन्ति विवशा वशे।
द्विजा इव शिचा बद्धाः स काल इह कारणम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
ये सब लोक और लोकपाल जालमें फँसे हुए पक्षियोंकी भाँति जिसकी अधीनतामें विवश होकर चेष्टा करते हैं, वह काल ही सबकी जय-पराजयका कारण है॥ ८॥
श्लोक-९
विश्वास-प्रस्तुतिः
ओजः सहो बलं प्राणममृतं मृत्युमेव च।
तमज्ञाय जनो हेतुमात्मानं मन्यते जडम्॥
मूलम्
ओजः सहो बलं प्राणममृतं मृत्युमेव च।
तमज्ञाय जनो हेतुमात्मानं मन्यते जडम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
वही काल मनुष्यके मनोबल, इन्द्रियबल, शरीरबल, प्राण, जीवन और मृत्युके रूपमें स्थित है। मनुष्य उसे न जानकर जड़ शरीरको ही जय-पराजय आदिका कारण समझता है॥ ९॥
श्लोक-१०
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथा दारुमयी नारी यथा यन्त्रमयो मृगः।
एवं भूतानि मघवन्नीशतन्त्राणि विद्धि भोः॥
मूलम्
यथा दारुमयी नारी यथा यन्त्रमयो मृगः।
एवं भूतानि मघवन्नीशतन्त्राणि विद्धि भोः॥
अनुवाद (हिन्दी)
इन्द्र! जैसे काठकी पुतली और यन्त्रका हरिण नचानेवालेके हाथमें होते हैं, वैसे ही तुम समस्त प्राणियोंको भगवान्के अधीन समझो॥ १०॥
श्लोक-११
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुरुषः प्रकृतिर्व्यक्तमात्मा भूतेन्द्रियाशयाः।
शक्नुवन्त्यस्य सर्गादौ न विना यदनुग्रहात्॥
मूलम्
पुरुषः प्रकृतिर्व्यक्तमात्मा भूतेन्द्रियाशयाः।
शक्नुवन्त्यस्य सर्गादौ न विना यदनुग्रहात्॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान्के कृपा-प्रसादके बिना पुरुष, प्रकृति, महत्तत्त्व, अहंकार, पंचभूत, इन्द्रियाँ और अन्तःकरण-चतुष्टय—ये कोई भी इस विश्वकी उत्पत्ति आदि करनेमें समर्थ नहीं हो सकते॥ ११॥
श्लोक-१२
विश्वास-प्रस्तुतिः
अविद्वानेवमात्मानं मन्यतेऽनीशमीश्वरम्।
भूतैः सृजति भूतानि ग्रसते तानि तैः स्वयम्॥
मूलम्
अविद्वानेवमात्मानं मन्यतेऽनीशमीश्वरम्।
भूतैः सृजति भूतानि ग्रसते तानि तैः स्वयम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिसे इस बातका पता नहीं है कि भगवान् ही सबका नियन्त्रण करते हैं, वही इस परतन्त्र जीवको स्वतन्त्र कर्ता-भोक्ता मान बैठता है। वस्तुतः स्वयं भगवान् ही प्राणियोंके द्वारा प्राणियोंकी रचना और उन्हींके द्वारा उनका संहार करते हैं॥ १२॥
श्लोक-१३
विश्वास-प्रस्तुतिः
आयुः श्रीः कीर्तिरैश्वर्यमाशिषः पुरुषस्य याः।
भवन्त्येव हि तत्काले यथानिच्छोर्विपर्ययाः॥
मूलम्
आयुः श्रीः कीर्तिरैश्वर्यमाशिषः पुरुषस्य याः।
भवन्त्येव हि तत्काले यथानिच्छोर्विपर्ययाः॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिस प्रकार इच्छा न होनेपर भी समय विपरीत होनेसे मनुष्यको मृत्यु और अपयश आदि प्राप्त होते हैं—वैसे ही समयकी अनुकूलता होनेपर इच्छा न होनेपर भी उसे आयु, लक्ष्मी, यश और ऐश्वर्य आदि भोग भी मिल जाते हैं॥ १३॥
श्लोक-१४
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मादकीर्तियशसोर्जयापजययोरपि।
समः स्यात् सुखदुःखाभ्यां मृत्युजीवितयोस्तथा॥
मूलम्
तस्मादकीर्तियशसोर्जयापजययोरपि।
समः स्यात् सुखदुःखाभ्यां मृत्युजीवितयोस्तथा॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसलिये यश-अपयश, जय-पराजय, सुख-दुःख, जीवन-मरण—इनमेंसे किसी एककी इच्छा-अनिच्छा न रखकर सभी परिस्थितियोंमें समभावसे रहना चाहिये—हर्ष-शोकके वशीभूत नहीं होना चाहिये॥ १४॥
श्लोक-१५
विश्वास-प्रस्तुतिः
सत्त्वं रजस्तम इति प्रकृतेर्नात्मनो गुणाः।
तत्र साक्षिणमात्मानं यो वेद न स बध्यते॥
मूलम्
सत्त्वं रजस्तम इति प्रकृतेर्नात्मनो गुणाः।
तत्र साक्षिणमात्मानं यो वेद न स बध्यते॥
अनुवाद (हिन्दी)
सत्त्व, रज और तम—ये तीनों गुण प्रकृतिके हैं, आत्माके नहीं; अतः जो पुरुष आत्माको उनका साक्षीमात्र जानता है, वह उनके गुण-दोषसे लिप्त नहीं होता॥ १५॥
श्लोक-१६
विश्वास-प्रस्तुतिः
पश्य मां निर्जितं शक्र वृक्णायुधभुजं मृधे।
घटमानं यथाशक्ति तव प्राणजिहीर्षया॥
मूलम्
पश्य मां निर्जितं शक्र वृक्णायुधभुजं मृधे।
घटमानं यथाशक्ति तव प्राणजिहीर्षया॥
अनुवाद (हिन्दी)
देवराज इन्द्र! मुझे भी तो देखो; तुमने मेरा हाथ और शस्त्र काटकर एक प्रकारसे मुझे परास्त कर दिया है, फिर भी मैं तुम्हारे प्राण लेनेके लिये यथाशक्ति प्रयत्न कर ही रहा हूँ॥ १६॥
श्लोक-१७
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्राणग्लहोऽयं समर इष्वक्षो वाहनासनः।
अत्र न ज्ञायतेऽमुष्य जयोऽमुष्य पराजयः॥
मूलम्
प्राणग्लहोऽयं समर इष्वक्षो वाहनासनः।
अत्र न ज्ञायतेऽमुष्य जयोऽमुष्य पराजयः॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह युद्ध क्या है, एक जूएका खेल। इसमें प्राणकी बाजी लगती है, बाणोंके पासे डाले जाते हैं और वाहन ही चौसर हैं। इसमें पहलेसे यह बात नहीं मालूम होती कि कौन जीतेगा और कौन हारेगा॥ १७॥
श्लोक-१८
मूलम् (वचनम्)
श्रीशुक उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
इन्द्रो वृत्रवचः श्रुत्वा गतालीकमपूजयत्।
गृहीतवज्रः प्रहसंस्तमाह गतविस्मयः॥
मूलम्
इन्द्रो वृत्रवचः श्रुत्वा गतालीकमपूजयत्।
गृहीतवज्रः प्रहसंस्तमाह गतविस्मयः॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! वृत्रासुरके ये सत्य एवं निष्कपट वचन सुनकर इन्द्रने उनका आदर किया और अपना वज्र उठा लिया। इसके बाद बिना किसी प्रकारका आश्चर्य किये मुसकराते हुए वे कहने लगे—॥ १८॥
श्लोक-१९
मूलम् (वचनम्)
इन्द्र उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहो दानव सिद्धोऽसि यस्य ते मतिरीदृशी।
भक्तः सर्वात्मनाऽऽत्मानं सुहृदं जगदीश्वरम्॥
मूलम्
अहो दानव सिद्धोऽसि यस्य ते मतिरीदृशी।
भक्तः सर्वात्मनाऽऽत्मानं सुहृदं जगदीश्वरम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
देवराज इन्द्रने कहा—अहो दानवराज! सचमुच तुम सिद्ध पुरुष हो। तभी तो तुम्हारा धैर्य, निश्चय और भगवद्भाव इतना विलक्षण है। तुमने समस्त प्राणियोंके सुहृद् आत्मस्वरूप जगदीश्वरकी अनन्यभावसे भक्ति की है॥ १९॥
श्लोक-२०
विश्वास-प्रस्तुतिः
भवानतार्षीन्मायां वै वैष्णवीं जनमोहिनीम्।
यद् विहायासुरं भावं महापुरुषतां गतः॥
मूलम्
भवानतार्षीन्मायां वै वैष्णवीं जनमोहिनीम्।
यद् विहायासुरं भावं महापुरुषतां गतः॥
अनुवाद (हिन्दी)
अवश्य ही तुम लोगोंको मोहित करनेवाली भगवान्की मायाको पार कर गये हो। तभी तो तुम असुरोचित भाव छोड़कर महापुरुष हो गये हो॥ २०॥
श्लोक-२१
विश्वास-प्रस्तुतिः
खल्विदं महदाश्चर्यं यद् रजःप्रकृतेस्तव।
वासुदेवे भगवति सत्त्वात्मनि दृढा मतिः॥
मूलम्
खल्विदं महदाश्चर्यं यद् रजःप्रकृतेस्तव।
वासुदेवे भगवति सत्त्वात्मनि दृढा मतिः॥
अनुवाद (हिन्दी)
अवश्य ही यह बड़े आश्चर्यकी बात है कि तुम रजोगुणी प्रकृतिके हो तो भी विशुद्ध सत्त्वस्वरूप भगवान् वासुदेवमें तुम्हारी बुद्धि दृढ़तासे लगी हुई है॥ २१॥
श्लोक-२२
विश्वास-प्रस्तुतिः
यस्य भक्तिर्भगवति हरौ निःश्रेयसेश्वरे।
विक्रीडतोऽमृताम्भोधौ किं क्षुद्रैः खातकोदकैः॥
मूलम्
यस्य भक्तिर्भगवति हरौ निःश्रेयसेश्वरे।
विक्रीडतोऽमृताम्भोधौ किं क्षुद्रैः खातकोदकैः॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो परम कल्याणके स्वामी भगवान् श्रीहरिके चरणोंमें प्रेममय भक्तिभाव रखता है, उसे जगत्के भोगोंकी क्या आवश्यकता है। जो अमृतके समुद्रमें विहार कर रहा है, उसे क्षुद्र गड्ढोंके जलसे प्रयोजन ही क्या हो सकता है॥ २२॥
श्लोक-२३
मूलम् (वचनम्)
श्रीशुक उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
इति ब्रुवाणावन्योन्यं धर्मजिज्ञासया नृप।
युयुधाते महावीर्याविन्द्रवृत्रौ युधाम्पती॥
मूलम्
इति ब्रुवाणावन्योन्यं धर्मजिज्ञासया नृप।
युयुधाते महावीर्याविन्द्रवृत्रौ युधाम्पती॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! इस प्रकार योद्धाओंमें श्रेष्ठ महापराक्रमी देवराज इन्द्र और वृत्रासुर धर्मका तत्त्व जाननेकी अभिलाषासे एक-दूसरेके साथ बातचीत करते हुए आपसमें युद्ध करने लगे॥ २३॥
श्लोक-२४
विश्वास-प्रस्तुतिः
आविध्य परिघं वृत्रः कार्ष्णायसमरिन्दमः।
इन्द्राय प्राहिणोद् घोरं वामहस्तेन मारिष॥
मूलम्
आविध्य परिघं वृत्रः कार्ष्णायसमरिन्दमः।
इन्द्राय प्राहिणोद् घोरं वामहस्तेन मारिष॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! अब शत्रुसूदन वृत्रासुरने बायें हाथसे फौलादका बना हुआ एक बहुत भयावना परिघ उठाकर आकाशमें घुमाया और उससे इन्द्रपर प्रहार किया॥ २४॥
श्लोक-२५
विश्वास-प्रस्तुतिः
स तु वृत्रस्य परिघं करं च करभोपमम्।
चिच्छेद युगपद् देवो वज्रेण शतपर्वणा॥
मूलम्
स तु वृत्रस्य परिघं करं च करभोपमम्।
चिच्छेद युगपद् देवो वज्रेण शतपर्वणा॥
अनुवाद (हिन्दी)
किन्तु देवराज इन्द्रने वृत्रासुरका वह परिघ तथा हाथीकी सूँडके समान लंबी भुजा अपने सौ गाँठोंवाले वज्रसे एक साथ ही काट गिरायी॥ २५॥
श्लोक-२६
विश्वास-प्रस्तुतिः
दोर्भ्यामुत्कृत्तमूलाभ्यां बभौ रक्तस्रवोऽसुरः।
छिन्नपक्षो यथा गोत्रः खाद् भ्रष्टो वज्रिणा हतः॥
मूलम्
दोर्भ्यामुत्कृत्तमूलाभ्यां बभौ रक्तस्रवोऽसुरः।
छिन्नपक्षो यथा गोत्रः खाद् भ्रष्टो वज्रिणा हतः॥
अनुवाद (हिन्दी)
जड़से दोनों भुजाओंके कट जानेपर वृत्रासुरके बायें और दायें दोनों कंधोंसे खूनकी धारा बहने लगी। उस समय वह ऐसा जान पड़ा, मानो इन्द्रके वज्रकी चोटसे पंख कट जानेपर कोई पर्वत ही आकाशसे गिरा हो॥ २६॥
श्लोक-२७
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृत्वाधरां हनुं भूमौ दैत्यो दिव्युत्तरां हनुम्।
नभोगम्भीरवक्त्रेण लेलिहोल्बणजिह्वया॥
मूलम्
कृत्वाधरां हनुं भूमौ दैत्यो दिव्युत्तरां हनुम्।
नभोगम्भीरवक्त्रेण लेलिहोल्बणजिह्वया॥
श्लोक-२८
विश्वास-प्रस्तुतिः
दंष्ट्राभिः कालकल्पाभिर्ग्रसन्निव जगत्त्रयम्।
अतिमात्रमहाकाय आक्षिपंस्तरसा गिरीन्॥
मूलम्
दंष्ट्राभिः कालकल्पाभिर्ग्रसन्निव जगत्त्रयम्।
अतिमात्रमहाकाय आक्षिपंस्तरसा गिरीन्॥
श्लोक-२९
विश्वास-प्रस्तुतिः
गिरिराट् पादचारीव पद्भ्यां निर्जरयन् महीम्।
जग्रास स समासाद्य वज्रिणं सहवाहनम्॥
मूलम्
गिरिराट् पादचारीव पद्भ्यां निर्जरयन् महीम्।
जग्रास स समासाद्य वज्रिणं सहवाहनम्॥
श्लोक-३०
विश्वास-प्रस्तुतिः
महाप्राणो महावीर्यो महासर्प इव द्विपम्।
वृत्रग्रस्तं तमालक्ष्य सप्रजापतयः सुराः।
हा कष्टमिति निर्विण्णाश्चुक्रुशुः समहर्षयः॥
मूलम्
महाप्राणो महावीर्यो महासर्प इव द्विपम्।
वृत्रग्रस्तं तमालक्ष्य सप्रजापतयः सुराः।
हा कष्टमिति निर्विण्णाश्चुक्रुशुः समहर्षयः॥
अनुवाद (हिन्दी)
अब पैरोंसे चलने-फिरनेवाले पर्वतराजके समान अत्यन्त दीर्घकाय वृत्रासुरने अपनी ठोड़ीको धरतीसे और ऊपरके होठको स्वर्गसे लगाया तथा आकाशके समान गहरे मुँह, साँपके समान भयावनी जीभ एवं मृत्युके समान कराल दाढ़ोंसे मानो त्रिलोकीको निगलता, अपने पैरोंकी चोटसे पृथ्वीको रौंदता और प्रबल वेगसे पर्वतोंको उलटता-पलटता वह इन्द्रके पास आया और उन्हें उनके वाहन ऐरावत हाथीके सहित इस प्रकार लील गया, जैसे कोई परम पराक्रमी और अत्यन्त बलवान् अजगर हाथीको निगल जाय। प्रजापतियों और महर्षियोंके साथ देवताओंने जब देखा कि वृत्रासुर इन्द्रको निगल गया, तब तो वे अत्यन्त दुःखी हो गये तथा ‘हाय-हाय! बड़ा अनर्थ हो गया।’ यों कहकर विलाप करने लगे॥ २७-३०॥
श्लोक-३१
विश्वास-प्रस्तुतिः
निगीर्णोऽप्यसुरेन्द्रेण न ममारोदरं गतः।
महापुरुषसन्नद्धो योगमायाबलेन च॥
मूलम्
निगीर्णोऽप्यसुरेन्द्रेण न ममारोदरं गतः।
महापुरुषसन्नद्धो योगमायाबलेन च॥
अनुवाद (हिन्दी)
बल दैत्यका संहार करनेवाले देवराज इन्द्रने महापुरुष-विद्या (नारायणकवच)-से अपनेको सुरक्षित कर रखा था और उनके पास योगमायाका बल था ही। इसलिये वृत्रासुरके निगल लेनेपर—उसके पेटमें पहुँचकर भी वे मरे नहीं॥ ३१॥
श्लोक-३२
विश्वास-प्रस्तुतिः
भित्त्वा वज्रेण तत्कुक्षिं निष्क्रम्य बलभिद् विभुः।
उच्चकर्त शिरः शत्रोर्गिरिशृङ्गमिवौजसा॥
मूलम्
भित्त्वा वज्रेण तत्कुक्षिं निष्क्रम्य बलभिद् विभुः।
उच्चकर्त शिरः शत्रोर्गिरिशृङ्गमिवौजसा॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन्होंने अपने वज्रसे उसकी कोख फाड़ डाली और उसके पेटसे निकलकर बड़े वेगसे उसका पर्वत-शिखरके समान उँचा सिर काट डाला॥ ३२॥
श्लोक-३३
विश्वास-प्रस्तुतिः
वज्रस्तु तत्कन्धरमाशुवेगः
कृन्तन् समन्तात् परिवर्तमानः।
न्यपातयत् तावदहर्गणेन
यो ज्योतिषामयने वार्त्रहत्ये॥
मूलम्
वज्रस्तु तत्कन्धरमाशुवेगः
कृन्तन् समन्तात् परिवर्तमानः।
न्यपातयत् तावदहर्गणेन
यो ज्योतिषामयने वार्त्रहत्ये॥
अनुवाद (हिन्दी)
सूर्यादि ग्रहोंकी उत्तरायण-दक्षिणायनरूप गतिमें जितना समय लगता है, उतने दिनोंमें अर्थात् एक वर्षमें वृत्रवधका योग उपस्थित होनेपर घूमते हुए उस तीव्र वेगशाली वज्रने उसकी गरदनको सब ओरसे काटकर भूमिपर गिरा दिया॥ ३३॥
श्लोक-३४
विश्वास-प्रस्तुतिः
तदा च खे दुन्दुभयो विनेदु-
र्गन्धर्वसिद्धाः समहर्षिसङ्घाः।
वार्त्रघ्नलिङ्गैस्तमभिष्टुवाना
मन्त्रैर्मुदा कुसुमैरभ्यवर्षन्॥
मूलम्
तदा च खे दुन्दुभयो विनेदु-
र्गन्धर्वसिद्धाः समहर्षिसङ्घाः।
वार्त्रघ्नलिङ्गैस्तमभिष्टुवाना
मन्त्रैर्मुदा कुसुमैरभ्यवर्षन्॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय आकाशमें दुन्दुभियाँ बजने लगीं। महर्षियोंके साथ गन्धर्व, सिद्ध आदि वृत्रघाती इन्द्रका पराक्रम सूचित करनेवाले मन्त्रोंसे उनकी स्तुति करके बड़े आनन्दके साथ उनपर पुष्पोंकी वर्षा करने लगे॥ ३४॥
श्लोक-३५
विश्वास-प्रस्तुतिः
वृत्रस्य देहान्निष्क्रान्तमात्मज्योतिररिन्दम।
पश्यतां सर्वलोकानामलोकं समपद्यत॥
मूलम्
वृत्रस्य देहान्निष्क्रान्तमात्मज्योतिररिन्दम।
पश्यतां सर्वलोकानामलोकं समपद्यत॥
अनुवाद (हिन्दी)
शत्रुदमन परीक्षित्! उस समय वृत्रासुरके शरीरसे उसकी आत्मज्योति बाहर निकली और इन्द्र आदि सब लोगोंके देखते-देखते सर्वलोकातीत भगवान्के स्वरूपमें लीन हो गयी॥ ३५॥
अनुवाद (समाप्ति)
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां षष्ठस्कन्धे वृत्रवधो नाम द्वादशोऽध्यायः॥ १२॥