[नवमोऽध्यायः]
भागसूचना
विश्वरूपका वध, वृत्रासुरद्वारा देवताओंकी हार और भगवान्की प्रेरणासे देवताओंका दधीचि ऋषिके पास जाना
श्लोक-१
मूलम् (वचनम्)
श्रीशुक उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्यासन् विश्वरूपस्य शिरांसि त्रीणि भारत।
सोमपीथं सुरापीथमन्नादमिति शुश्रुम॥
मूलम्
तस्यासन् विश्वरूपस्य शिरांसि त्रीणि भारत।
सोमपीथं सुरापीथमन्नादमिति शुश्रुम॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! हमने सुना है कि विश्वरूपके तीन सिर थे। वे एक मुँहसे सोमरस तथा दूसरेसे सुरा पीते थे और तीसरेसे अन्न खाते थे॥ १॥
श्लोक-२
विश्वास-प्रस्तुतिः
स वै बर्हिषि देवेभ्यो भागं प्रत्यक्षमुच्चकैः।
अवदद् यस्य पितरो देवाः सप्रश्रयं नृप॥
मूलम्
स वै बर्हिषि देवेभ्यो भागं प्रत्यक्षमुच्चकैः।
अवदद् यस्य पितरो देवाः सप्रश्रयं नृप॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनके पिता त्वष्टा आदि बारह आदित्य देवता थे, इसलिये वे यज्ञके समय प्रत्यक्षरूपमें ऊँचे स्वरसे बोलकर बड़े विनयके साथ देवताओंको आहुति देते थे॥ २॥
श्लोक-३
विश्वास-प्रस्तुतिः
स एव हि ददौ भागं परोक्षमसुरान् प्रति।
यजमानोऽवहद् भागं मातृस्नेहवशानुगः॥
मूलम्
स एव हि ददौ भागं परोक्षमसुरान् प्रति।
यजमानोऽवहद् भागं मातृस्नेहवशानुगः॥
अनुवाद (हिन्दी)
साथ ही वे छिप-छिपकर असुरोंको भी आहुति दिया करते थे। उनकी माता असुरकुलकी थीं, इसीलिये वे मातृस्नेहके वशीभूत होकर यज्ञ करते समय उस प्रकार असुरोंको भाग पहुँचाया करते थे॥ ३॥
श्लोक-४
विश्वास-प्रस्तुतिः
तद् देवहेलनं तस्य धर्मालीकं सुरेश्वरः।
आलक्ष्य तरसा भीतस्तच्छीर्षाण्यच्छिनद् रुषा॥
मूलम्
तद् देवहेलनं तस्य धर्मालीकं सुरेश्वरः।
आलक्ष्य तरसा भीतस्तच्छीर्षाण्यच्छिनद् रुषा॥
अनुवाद (हिन्दी)
देवराज इन्द्रने देखा कि इस प्रकार वे देवताओंका अपराध और धर्मकी ओटमें कपट कर रहे हैं। इससे इन्द्र डर गये और क्रोधमें भरकर उन्होंने बड़ी फुर्तीसे उनके तीनों सिर काट लिये॥ ४॥
श्लोक-५
विश्वास-प्रस्तुतिः
सोमपीथं तु यत् तस्य शिर आसीत् कपिञ्जलः।
कलविङ्कः सुरापीथमन्नादं यत् स तित्तिरिः॥
मूलम्
सोमपीथं तु यत् तस्य शिर आसीत् कपिञ्जलः।
कलविङ्कः सुरापीथमन्नादं यत् स तित्तिरिः॥
अनुवाद (हिन्दी)
विश्वरूपका सोमरस पीनेवाला सिर पपीहा, सुरापान करनेवाला गौरैया और अन्न खानेवाला तीतर हो गया॥ ५॥
श्लोक-६
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्रह्महत्यामञ्जलिना जग्राह यदपीश्वरः।
संवत्सरान्ते तदघं भूतानां स विशुद्धये।
भूम्यम्बुद्रुमयोषिद्भ्यश्चतुर्धा व्यभजद्धरिः॥
मूलम्
ब्रह्महत्यामञ्जलिना जग्राह यदपीश्वरः।
संवत्सरान्ते तदघं भूतानां स विशुद्धये।
भूम्यम्बुद्रुमयोषिद्भ्यश्चतुर्धा व्यभजद्धरिः॥
अनुवाद (हिन्दी)
इन्द्र चाहते तो विश्वरूपके वधसे लगी हुई हत्याको दूर कर सकते थे; परन्तु उन्होंने ऐसा करना उचित न समझा, वरं हाथ जोड़कर उसे स्वीकार कर लिया तथा एक वर्षतक उससे छूटनेका कोई उपाय नहीं किया। तदनन्तर सब लोगोंके सामने अपनी शुद्धि प्रकट करनेके लिये उन्होंने अपनी ब्रह्महत्याको चार हिस्सोंमें बाँटकर पृथ्वी, जल, वृक्ष और स्त्रियोंको दे दिया॥ ६॥
श्लोक-७
विश्वास-प्रस्तुतिः
भूमिस्तुरीयं जग्राह खातपूरवरेण वै।
ईरिणं ब्रह्महत्याया रूपं भूमौ प्रदृश्यते॥
मूलम्
भूमिस्तुरीयं जग्राह खातपूरवरेण वै।
ईरिणं ब्रह्महत्याया रूपं भूमौ प्रदृश्यते॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! पृथ्वीने बदलेमें यह वरदान लेकर कि जहाँ कहीं गड्ढा होगा, वह समयपर अपने-आप भर जायगा, इन्द्रकी ब्रह्महत्याका चतुर्थांश स्वीकार कर लिया। वही ब्रह्महत्या पृथ्वीमें कहीं-कहीं ऊसरके रूपमें दिखायी पड़ती है॥ ७॥
श्लोक-८
विश्वास-प्रस्तुतिः
तुर्यं छेदविरोहेण वरेण जगृहुर्द्रुमाः।
तेषां निर्यासरूपेण ब्रह्महत्या प्रदृश्यते॥
मूलम्
तुर्यं छेदविरोहेण वरेण जगृहुर्द्रुमाः।
तेषां निर्यासरूपेण ब्रह्महत्या प्रदृश्यते॥
अनुवाद (हिन्दी)
दूसरा चतुर्थांश वृक्षोंने लिया। उन्हें यह वर मिला कि उनका कोई हिस्सा कट जानेपर फिर जम जायगा। उनमें अब भी गोंदके रूपमें ब्रह्महत्या दिखायी पड़ती है॥ ८॥
श्लोक-९
विश्वास-प्रस्तुतिः
शश्वत्कामवरेणांहस्तुरीयं जगृहुः स्त्रियः।
रजोरूपेण तास्वंहो मासि मासि प्रदृश्यते॥
मूलम्
शश्वत्कामवरेणांहस्तुरीयं जगृहुः स्त्रियः।
रजोरूपेण तास्वंहो मासि मासि प्रदृश्यते॥
अनुवाद (हिन्दी)
स्त्रियोंने यह वर पाकर कि वे सर्वदा पुरुषका सहवास कर सकें, ब्रह्महत्याका तीसरा चतुर्थांश स्वीकार किया। उनकी ब्रह्महत्या प्रत्येक महीनेमें रजके रूपसे दिखायी पड़ती है॥ ९॥
श्लोक-१०
विश्वास-प्रस्तुतिः
द्रव्यभूयोवरेणापस्तुरीयं जगृहुर्मलम्।
तासु बुद्बुदफेनाभ्यां दृष्टं तद्धरति क्षिपन्॥
मूलम्
द्रव्यभूयोवरेणापस्तुरीयं जगृहुर्मलम्।
तासु बुद्बुदफेनाभ्यां दृष्टं तद्धरति क्षिपन्॥
अनुवाद (हिन्दी)
जलने यह वर पाकर कि खर्च करते रहनेपर भी निर्झर आदिके रूपमें तुम्हारी बढ़ती ही होती रहेगी, ब्रह्महत्याका चौथा चतुर्थांश स्वीकार किया। फेन, बुद्बुद आदिके रूपमें वही ब्रह्महत्या दिखायी पड़ती है। अतएव मनुष्य उसे हटाकर जल ग्रहण किया करते हैं॥ १०॥
श्लोक-११
विश्वास-प्रस्तुतिः
हतपुत्रस्ततस्त्वष्टा जुहावेन्द्राय शत्रवे।
इन्द्रशत्रो विवर्धस्व माचिरं जहि विद्विषम्॥
मूलम्
हतपुत्रस्ततस्त्वष्टा जुहावेन्द्राय शत्रवे।
इन्द्रशत्रो विवर्धस्व माचिरं जहि विद्विषम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
विश्वरूपकी मृत्युके बाद उनके पिता त्वष्टा ‘हे इन्द्रशत्रो! तुम्हारी अभिवृद्धि हो और शीघ्र-से-शीघ्र तुम अपने शत्रुको मार डालो’—इस मन्त्रसे इन्द्रका शत्रु उत्पन्न करनेके लिये हवन करने लगे॥ ११॥
श्लोक-१२
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथान्वाहार्यपचनादुत्थितो घोरदर्शनः।
कृतान्त इव लोकानां युगान्तसमये यथा॥
मूलम्
अथान्वाहार्यपचनादुत्थितो घोरदर्शनः।
कृतान्त इव लोकानां युगान्तसमये यथा॥
अनुवाद (हिन्दी)
यज्ञ समाप्त होनेपर अन्वाहार्य-पचन नामक अग्नि (दक्षिणाग्नि)-से एक बड़ा भयावना दैत्य प्रकट हुआ। वह ऐसा जान पड़ता था, मानो लोकोंका नाश करनेके लिये प्रलयकालीन विकराल काल ही प्रकट हुआ हो॥ १२॥
श्लोक-१३
विश्वास-प्रस्तुतिः
विष्वग्विवर्धमानं तमिषुमात्रं दिने दिने।
दग्धशैलप्रतीकाशं सन्ध्याभ्रानीकवर्चसम्॥
मूलम्
विष्वग्विवर्धमानं तमिषुमात्रं दिने दिने।
दग्धशैलप्रतीकाशं सन्ध्याभ्रानीकवर्चसम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! वह प्रतिदिन अपने शरीरके सब ओर बाणके बराबर बढ़ जाया करता था। वह जले हुए पहाड़के समान काला और बड़े डील-डौलका था। उसके शरीरमेंसे सन्ध्याकालीन बादलोंके समान दीप्ति निकलती रहती थी॥ १३॥
श्लोक-१४
विश्वास-प्रस्तुतिः
तप्तताम्रशिखाश्मश्रुं मध्याह्नार्कोग्रलोचनम्॥
मूलम्
तप्तताम्रशिखाश्मश्रुं मध्याह्नार्कोग्रलोचनम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसके सिरके बाल और दाढ़ी-मूँछ तपे हुए ताँबेके समान लाल रंगके तथा नेत्र दोपहरके सूर्यके समान प्रचण्ड थे॥ १४॥
श्लोक-१५
विश्वास-प्रस्तुतिः
देदीप्यमाने त्रिशिखे शूल आरोप्य रोदसी।
नृत्यन्तमुन्नदन्तं च चालयन्तं पदा महीम्॥
मूलम्
देदीप्यमाने त्रिशिखे शूल आरोप्य रोदसी।
नृत्यन्तमुन्नदन्तं च चालयन्तं पदा महीम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
चमकते हुए तीन नोकोंवाले त्रिशूलको लेकर जब वह नाचने, चिल्लाने और कूदने लगता था, उस समय पृथ्वी काँप उठती थी और ऐसा जान पड़ता था कि उस त्रिशूलपर उसने अन्तरिक्षको उठा रखा है॥ १५॥
श्लोक-१६
विश्वास-प्रस्तुतिः
दरीगम्भीरवक्त्रेण पिबता च नभस्तलम्।
लिहता जिह्वयर्क्षाणि ग्रसता भुवनत्रयम्॥
मूलम्
दरीगम्भीरवक्त्रेण पिबता च नभस्तलम्।
लिहता जिह्वयर्क्षाणि ग्रसता भुवनत्रयम्॥
श्लोक-१७
विश्वास-प्रस्तुतिः
महता रौद्रदंष्ट्रेण जृम्भमाणं मुहुर्मुहुः।
वित्रस्ता दुद्रुवुर्लोका वीक्ष्य सर्वे दिशो दश॥
मूलम्
महता रौद्रदंष्ट्रेण जृम्भमाणं मुहुर्मुहुः।
वित्रस्ता दुद्रुवुर्लोका वीक्ष्य सर्वे दिशो दश॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह बार-बार जँभाई लेता था। इससे जब उसका कन्दराके समान गम्भीर मुँह खुल जाता, तब जान पड़ता कि वह सारे आकाशको पी जायगा, जीभसे सारे नक्षत्रोंको चाट जायगा और अपनी विशाल एवं विकराल दाढ़ोंवाले मुँहसे तीनों लोकोंको निगल जायगा। उसके भयावने रूपको देखकर सब लोग डर गये और इधर-उधर भागने लगे॥ १६-१७॥
श्लोक-१८
विश्वास-प्रस्तुतिः
येनावृता इमे लोकास्तमसा त्वाष्ट्रमूर्तिना।
स वै वृत्र इति प्रोक्तः पापः परमदारुणः॥
मूलम्
येनावृता इमे लोकास्तमसा त्वाष्ट्रमूर्तिना।
स वै वृत्र इति प्रोक्तः पापः परमदारुणः॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! त्वष्टाके तमोगुणी पुत्रने सारे लोकोंको घेर लिया था। इसीसे उस पापी और अत्यन्त क्रूर पुरुषका नाम वृत्रासुर पड़ा॥ १८॥
श्लोक-१९
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं निजघ्नुरभिद्रुत्य सगणा विबुधर्षभाः।
स्वैः स्वैर्दिव्यास्त्रशस्त्रौघैः सोऽग्रसत् तानि कृत्स्नशः॥
मूलम्
तं निजघ्नुरभिद्रुत्य सगणा विबुधर्षभाः।
स्वैः स्वैर्दिव्यास्त्रशस्त्रौघैः सोऽग्रसत् तानि कृत्स्नशः॥
अनुवाद (हिन्दी)
बड़े-बड़े देवता अपने-अपने अनुयायियोंके सहित एक साथ ही उसपर टूट पड़े तथा अपने-अपने दिव्य अस्त्र-शस्त्रोंसे प्रहार करने लगे। परन्तु वृत्रासुर उनके सारे अस्त्र-शस्त्रोंको निगल गया॥ १९॥
श्लोक-२०
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्ते विस्मिताः सर्वे विषण्णा ग्रस्ततेजसः।
प्रत्यञ्चमादिपुरुषमुपतस्थुः समाहिताः॥
मूलम्
ततस्ते विस्मिताः सर्वे विषण्णा ग्रस्ततेजसः।
प्रत्यञ्चमादिपुरुषमुपतस्थुः समाहिताः॥
अनुवाद (हिन्दी)
अब तो देवताओंके आश्चर्यकी सीमा न रही। उनका प्रभाव जाता रहा। वे सब-के-सब दीन-हीन और उदास हो गये तथा एकाग्रचित्तसे अपने हृदयमें विराजमान आदिपुरुष श्रीनारायणकी शरणमें गये॥ २०॥
श्लोक-२१
मूलम् (वचनम्)
देवा ऊचुः
विश्वास-प्रस्तुतिः
वाय्वम्बराग्न्यप्क्षितयस्त्रिलोका
ब्रह्मादयो ये वयमुद्विजन्तः।
हराम यस्मै बलिमन्तकोऽसौ
बिभेति यस्मादरणं ततो नः॥
मूलम्
वाय्वम्बराग्न्यप्क्षितयस्त्रिलोका
ब्रह्मादयो ये वयमुद्विजन्तः।
हराम यस्मै बलिमन्तकोऽसौ
बिभेति यस्मादरणं ततो नः॥
अनुवाद (हिन्दी)
देवताओंने भगवान्से प्रार्थना की—वायु, आकाश, अग्नि, जल और पृथ्वी—ये पाँचों भूत, इनसे बने हुए तीनों लोक उनके अधिपति ब्रह्मादि तथा हम सब देवता जिस कालसे डरकर उसे पूजा-सामग्रीकी भेंट दिया करते हैं, वही काल भगवान्से भयभीत रहता है। इसलिये अब भगवान् ही हमारे रक्षक हैं॥ २१॥
श्लोक-२२
विश्वास-प्रस्तुतिः
अविस्मितं तं परिपूर्णकामं
स्वेनैव लाभेन समं प्रशान्तम्।
विनोपसर्पत्यपरं हि बालिशः
श्वलाङ्गुलेनातितितर्ति सिन्धुम्॥
मूलम्
अविस्मितं तं परिपूर्णकामं
स्वेनैव लाभेन समं प्रशान्तम्।
विनोपसर्पत्यपरं हि बालिशः
श्वलाङ्गुलेनातितितर्ति सिन्धुम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रभो! आपके लिये कोई नयी बात न होनेके कारण कुछ भी देखकर आप विस्मित नहीं होते। आप अपने स्वरूपके साक्षात्कारसे ही सर्वथा पूर्णकाम, सम एवं शान्त हैं। जो आपको छोड़कर किसी दूसरेकी शरण लेता है, वह मूर्ख है। वह मानो कुत्तेकी पूँछ पकड़कर समुद्र पार करना चाहता है॥ २२॥
श्लोक-२३
विश्वास-प्रस्तुतिः
यस्योरुशृङ्गे जगतीं स्वनावं
मनुर्यथाऽऽबध्य ततार दुर्गम्।
स एव नस्त्वाष्ट्रभयाद् दुरन्तात्
त्राताऽऽश्रितान् वारिचरोऽपि नूनम्॥
मूलम्
यस्योरुशृङ्गे जगतीं स्वनावं
मनुर्यथाऽऽबध्य ततार दुर्गम्।
स एव नस्त्वाष्ट्रभयाद् दुरन्तात्
त्राताऽऽश्रितान् वारिचरोऽपि नूनम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैवस्वत मनु पिछले कल्पके अन्तमें जिनके विशाल सींगमें पृथ्वीरूप नौकाको बाँधकर अनायास ही प्रलयकालीन संकटसे बच गये, वे ही मत्स्यभगवान् हम शरणागतोंको वृत्रासुरके द्वारा उपस्थित किये हुए दुस्तर भयसे अवश्य बचायेंगे॥ २३॥
श्लोक-२४
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुरा स्वयम्भूरपि संयमाम्भ-
स्युदीर्णवातोर्मिरवैः कराले।
एकोऽरविन्दात् पतितस्ततार
तस्माद् भयाद् येन स नोऽस्तु पारः॥
मूलम्
पुरा स्वयम्भूरपि संयमाम्भ-
स्युदीर्णवातोर्मिरवैः कराले।
एकोऽरविन्दात् पतितस्ततार
तस्माद् भयाद् येन स नोऽस्तु पारः॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्राचीन कालमें प्रचण्ड पवनके थपेड़ोंसे उठी हुई उत्ताल तरंगोंकी गर्जनाके कारण ब्रह्माजी भगवान्के नाभिकमलसे अत्यन्त भयानक प्रलयकालीन जलमें गिर पड़े थे। यद्यपि वे असहाय थे, तथापि जिनकी कृपासे वे उस विपत्तिसे बच सके, वे ही भगवान् हमें इस संकटसे पार करें॥ २४॥
श्लोक-२५
विश्वास-प्रस्तुतिः
य एक ईशो निजमायया नः
ससर्ज येनानु सृजाम विश्वम्।
वयं न यस्यापि पुरः समीहतः
पश्याम लिङ्गं पृथगीशमानिनः॥
मूलम्
य एक ईशो निजमायया नः
ससर्ज येनानु सृजाम विश्वम्।
वयं न यस्यापि पुरः समीहतः
पश्याम लिङ्गं पृथगीशमानिनः॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन्हीं प्रभुने अद्वितीय होनेपर भी अपनी मायासे हमारी रचना की और उन्हींके अनुग्रहसे हमलोग सृष्टिकार्यका संचालन करते हैं। यद्यपि वे हमारे सामने ही सब प्रकारकी चेष्टाएँ कर-करा रहे हैं, तथापि ‘हम स्वतन्त्र ईश्वर हैं’—अपने इस अभिमानके कारण हमलोग उनके स्वरूपको देख नहीं पाते॥ २५॥
श्लोक-२६
विश्वास-प्रस्तुतिः
यो नः सपत्नैर्भृशमर्द्यमानान्
देवर्षितिर्यङ्नृषु नित्य एव।
कृतावतारस्तनुभिः स्वमायया
कृत्वाऽऽत्मसात् पाति युगे युगे च॥
मूलम्
यो नः सपत्नैर्भृशमर्द्यमानान्
देवर्षितिर्यङ्नृषु नित्य एव।
कृतावतारस्तनुभिः स्वमायया
कृत्वाऽऽत्मसात् पाति युगे युगे च॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे प्रभु जब देखते हैं कि देवता अपने शत्रुओंसे बहुत पीड़ित हो रहे हैं, तब वे वास्तवमें निर्विकार रहनेपर भी अपनी मायाका आश्रय लेकर देवता, ऋषि, पशु-पक्षी और मनुष्यादि योनियोंमें अवतार लेते हैं, तथा युग-युगमें हमें अपना समझकर हमारी रक्षा करते हैं॥ २६॥
श्लोक-२७
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमेव देवं वयमात्मदैवतं
परं प्रधानं पुरुषं विश्वमन्यम्।
व्रजाम सर्वे शरणं शरण्यं
स्वानां स नो धास्यति शं महात्मा॥
मूलम्
तमेव देवं वयमात्मदैवतं
परं प्रधानं पुरुषं विश्वमन्यम्।
व्रजाम सर्वे शरणं शरण्यं
स्वानां स नो धास्यति शं महात्मा॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे ही सबके आत्मा और परमाराध्य देव हैं। वे ही प्रकृति और पुरुषरूपसे विश्वके कारण हैं। वे विश्वसे पृथक् भी हैं और विश्वरूप भी हैं। हम सब उन्हीं शरणागतवत्सल भगवान् श्रीहरिकी शरण ग्रहण करते हैं। उदारशिरोमणि प्रभु अवश्य ही अपने निजजन हम देवताओंका कल्याण करेंगे॥ २७॥
श्लोक-२८
मूलम् (वचनम्)
श्रीशुक उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
इति तेषां महाराज सुराणामुपतिष्ठताम्।
प्रतीच्यां दिश्यभूदाविः शङ्खचक्रगदाधरः॥
मूलम्
इति तेषां महाराज सुराणामुपतिष्ठताम्।
प्रतीच्यां दिश्यभूदाविः शङ्खचक्रगदाधरः॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—महाराज! जब देवताओंने इस प्रकार भगवान्की स्तुति की, तब स्वयं शंख-चक्र-गदा-पद्मधारी भगवान् उनके सामने पश्चिमकी ओर (अन्तर्देशमें) प्रकट हुए॥ २८॥
श्लोक-२९
विश्वास-प्रस्तुतिः
आत्मतुल्यैः षोडशभिर्विना श्रीवत्सकौस्तुभौ।
पर्युपासितमुन्निद्रशरदम्बुरुहेक्षणम्॥
मूलम्
आत्मतुल्यैः षोडशभिर्विना श्रीवत्सकौस्तुभौ।
पर्युपासितमुन्निद्रशरदम्बुरुहेक्षणम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान्के नेत्र शरत्कालीन कमलके समान खिले हुए थे। उनके साथ सोलह पार्षद उनकी सेवामें लगे हुए थे। वे देखनेमें सब प्रकारसे भगवान्के समान ही थे। केवल उनके वक्षःस्थलपर श्रीवत्सका चिह्न और गलेमें कौस्तुभमणि नहीं थी॥ २९॥
श्लोक-३०
विश्वास-प्रस्तुतिः
दृष्ट्वा तमवनौ सर्व ईक्षणाह्लादविक्लवाः।
दण्डवत् पतिता राजञ्छनैरुत्थाय तुष्टुवुः॥
मूलम्
दृष्ट्वा तमवनौ सर्व ईक्षणाह्लादविक्लवाः।
दण्डवत् पतिता राजञ्छनैरुत्थाय तुष्टुवुः॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! भगवान्का दर्शन पाकर सभी देवता आनन्दसे विह्वल हो गये। उन लोगोंने धरतीपर लोटकर साष्टांग दण्डवत् किया और फिर धीरे-धीरे उठकर वे भगवान्की स्तुति करने लगे॥ ३०॥
श्लोक-३१
मूलम् (वचनम्)
देवा ऊचुः
विश्वास-प्रस्तुतिः
नमस्ते यज्ञवीर्याय वयसे उत ते नमः।
नमस्ते ह्यस्तचक्राय नमः सुपुरुहूतये॥
मूलम्
नमस्ते यज्ञवीर्याय वयसे उत ते नमः।
नमस्ते ह्यस्तचक्राय नमः सुपुरुहूतये॥
अनुवाद (हिन्दी)
देवताओंने कहा—भगवन्! यज्ञमें स्वर्गादि देनेकी शक्ति तथा उनके फलकी सीमा निश्चित करनेवाले काल भी आप ही हैं। यज्ञमें विघ्न डालनेवाले दैत्योंको आप चक्रसे छिन्न-भिन्न कर डालते हैं। इसलिये आपके नामोंकी कोई सीमा नहीं है। हम आपको बार-बार नमस्कार करते हैं॥ ३१॥
श्लोक-३२
विश्वास-प्रस्तुतिः
यत् ते गतीनां तिसॄणामीशितुः परमं पदम्।
नार्वाचीनो विसर्गस्य धातर्वेदितुमर्हति॥
मूलम्
यत् ते गतीनां तिसॄणामीशितुः परमं पदम्।
नार्वाचीनो विसर्गस्य धातर्वेदितुमर्हति॥
अनुवाद (हिन्दी)
विधातः! सत्त्व, रज, तम—इन तीन गुणोंके अनुसार जो उत्तम, मध्यम और निकृष्ट गतियाँ प्राप्त होती हैं, उनके नियामक आप ही हैं। आपके परमपदका वास्तविक स्वरूप इस कार्यरूप जगत्का कोई आधुनिक प्राणी नहीं जान सकता॥ ३२॥
श्लोक-३३
विश्वास-प्रस्तुतिः
ॐ नमस्तेऽस्तु भगवन् नारायण वासुदेवादिपुरुष महापुरुष महानुभाव परममङ्गल परमकल्याण परमकारुणिक केवल जगदाधार लोकैकनाथ सर्वेश्वर लक्ष्मीनाथ परमहंसपरिव्राजकैः परमेणात्मयोगसमाधिना परिभावितपरिस्फुटपारमहंस्यधर्मेणोद्घाटिततमःकपाटद्वारे चित्तेऽपावृत आत्मलोके स्वयमुपलब्धनिजसुखानुभवो भवान्॥
मूलम्
ॐ नमस्तेऽस्तु भगवन् नारायण वासुदेवादिपुरुष महापुरुष महानुभाव परममङ्गल परमकल्याण परमकारुणिक केवल जगदाधार लोकैकनाथ सर्वेश्वर लक्ष्मीनाथ परमहंसपरिव्राजकैः परमेणात्मयोगसमाधिना परिभावितपरिस्फुटपारमहंस्यधर्मेणोद्घाटिततमःकपाटद्वारे चित्तेऽपावृत आत्मलोके स्वयमुपलब्धनिजसुखानुभवो भवान्॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवन्! नारायण! वासुदेव! आप आदि पुरुष (जगत्के परम कारण) और महापुरुष (पुरुषोत्तम) हैं। आपकी महिमा असीम है। आप परम मंगलमय, परम कल्याण-स्वरूप और परम दयालु हैं। आप ही सारे जगत्के आधार एवं अद्वितीय हैं, केवल आप ही सारे जगत्के स्वामी हैं। आप सर्वेश्वर हैं तथा सौन्दर्य और मृदुलताकी अधिष्ठात्री देवी लक्ष्मीके परम पति हैं। प्रभो! परमहंस परिव्राजक विरक्त महात्मा जब आत्मसंयमरूप परम समाधिसे भलीभाँति आपका चिन्तन करते हैं, तब उनके शुद्ध हृदयमें परमहंसोंके धर्म वास्तविक भगवद्भजनका उदय होता है। इससे उनके हृदयके अज्ञानरूप किवाड़ खुल जाते हैं और उनके आत्मलोकमें आप आत्मानन्दके रूपमें बिना किसी आवरणके प्रकट हो जाते हैं और वे आपका अनुभव करके निहाल हो जाते हैं। हम आपको बार-बार नमस्कार करते हैं॥ ३३॥
श्लोक-३४
विश्वास-प्रस्तुतिः
दुरवबोध इव तवायं विहारयोगो यदशरणोऽशरीर इदमनवेक्षितास्मत्समवाय आत्मनैवाविक्रियमाणेन सगुणमगुणः सृजसि पासि हरसि॥
मूलम्
दुरवबोध इव तवायं विहारयोगो यदशरणोऽशरीर इदमनवेक्षितास्मत्समवाय आत्मनैवाविक्रियमाणेन सगुणमगुणः सृजसि पासि हरसि॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवन्! आपकी लीलाका रहस्य जानना बड़ा ही कठिन है। क्योंकि आप बिना किसी आश्रय और प्राकृत शरीरके हमलोगोंके सहयोगकी अपेक्षा न करके निर्गुण और निर्विकार होनेपर भी स्वयं ही इस सगुण जगत्की सृष्टि, रक्षा और संहार करते हैं॥ ३४॥
श्लोक-३५
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथ तत्र भवान् किं देवदत्तवदिह गुणविसर्गपतितः पारतन्त्र्येण स्वकृतकुशलाकुशलं फलमुपाददात्याहोस्विदात्माराम उपशमशीलः समञ्जसदर्शन उदास्त इति ह वाव न विदामः॥
मूलम्
अथ तत्र भवान् किं देवदत्तवदिह गुणविसर्गपतितः पारतन्त्र्येण स्वकृतकुशलाकुशलं फलमुपाददात्याहोस्विदात्माराम उपशमशीलः समञ्जसदर्शन उदास्त इति ह वाव न विदामः॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवन्! हमलोग यह बात भी ठीक-ठीक नहीं समझ पाते कि सृष्टिकर्ममें आप देवदत्त आदि किसी व्यक्तिके समान गुणोंके कार्यरूप इस जगत्में जीवरूपसे प्रकट हो जाते हैं और कर्मोंके अधीन होकर अपने किये अच्छे-बुरे कर्मोंका फल भोगते हैं, अथवा आप आत्माराम, शान्तस्वभाव एवं सबसे उदासीन—साक्षीमात्र रहते हैं तथा सबको समान देखते हैं॥ ३५॥
श्लोक-३६
विश्वास-प्रस्तुतिः
न हि विरोध उभयं भगवत्यपरिगणितगुणगणे ईश्वरेऽनवगाह्यमाहात्म्येऽर्वाचीनविकल्पवितर्कविचारप्रमाणाभासकुतर्कशास्त्रकलिलान्तःकरणाश्रयदुरवग्रहवादिनां विवादानवसर उपरतसमस्तमायामये केवल एवात्ममायामन्तर्धाय को न्वर्थो दुर्घट इव भवति स्वरूपद्वयाभावात्॥
मूलम्
न हि विरोध उभयं भगवत्यपरिगणितगुणगणे ईश्वरेऽनवगाह्यमाहात्म्येऽर्वाचीनविकल्पवितर्कविचारप्रमाणाभासकुतर्कशास्त्रकलिलान्तःकरणाश्रयदुरवग्रहवादिनां विवादानवसर उपरतसमस्तमायामये केवल एवात्ममायामन्तर्धाय को न्वर्थो दुर्घट इव भवति स्वरूपद्वयाभावात्॥
अनुवाद (हिन्दी)
हम तो यह समझते हैं कि यदि आपमें ये दोनों बातें रहें तो भी कोई विरोध नहीं है। क्योंकि आप स्वयं भगवान् हैं। आपके गुण अगणित हैं, महिमा अगाध है और आप सर्वशक्तिमान् हैं। आधुनिक लोग अनेकों प्रकारके विकल्प, वितर्क, विचार, झूठे प्रमाण और कुतर्कपूर्ण शास्त्रोंका अध्ययन करके अपने हृदयको दूषित कर लेते हैं और यही कारण है कि वे दुराग्रही हो जाते हैं। आपमें उनके वाद-विवादके लिये अवसर ही नहीं है। आपका वास्तविक स्वरूप समस्त मायामय पदार्थोंसे परे, केवल है। जब आप उसीमें अपनी मायाको छिपा लेते हैं, तब ऐसी कौन-सी बात है जो आपमें नहीं हो सकती? इसलिये आप साधारण पुरुषोंके समान कर्ता-भोक्ता भी हो सकते हैं और महापुरुषोंके समान उदासीन भी। इसका कारण यह है कि न तो आपमें कर्तृत्व-भोक्तृत्व है और न तो उदासीनता ही। आप तो दोनोंसे विलक्षण, अनिर्वचनीय हैं॥ ३६॥
श्लोक-३७
विश्वास-प्रस्तुतिः
समविषममतीनां मतमनुसरसि यथा रज्जुखण्डः सर्पादिधियाम्॥
मूलम्
समविषममतीनां मतमनुसरसि यथा रज्जुखण्डः सर्पादिधियाम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे एक ही रस्सीका टुकड़ा भ्रान्त पुरुषोंको सर्प, माला, धारा आदिके रूपमें प्रतीत होता है, किन्तु जानकारको रस्सीके रूपमें—वैसे ही आप भी भ्रान्तबुद्धिवालोंको कर्ता, भोक्ता आदि अनेक रूपोंमें दीखते हैं और ज्ञानीको शुद्ध सच्चिदानन्दके रूपमें। आप सभीकी बुद्धिका अनुसरण करते हैं॥ ३७॥
श्लोक-३८
विश्वास-प्रस्तुतिः
स एव हि पुनः सर्ववस्तुनि वस्तुस्वरूपः सर्वेश्वरः सकलजगत्कारणभूतः सर्वप्रत्यगात्मत्वात् सर्वगुणाभासोपलक्षित एक एव पर्यवशेषितः॥
मूलम्
स एव हि पुनः सर्ववस्तुनि वस्तुस्वरूपः सर्वेश्वरः सकलजगत्कारणभूतः सर्वप्रत्यगात्मत्वात् सर्वगुणाभासोपलक्षित एक एव पर्यवशेषितः॥
अनुवाद (हिन्दी)
विचारपूर्वक देखनेसे मालूम होता है कि आप ही समस्त वस्तुओंमें वस्तुत्वके रूपसे विराजमान हैं, सबके स्वामी हैं और सम्पूर्ण जगत्के कारण ब्रह्मा, प्रकृति आदिके भी कारण हैं। आप सबके अन्तर्यामी अन्तरात्मा हैं; इसलिये जगत्में जितने भी गुण-दोष प्रतीत हो रहे हैं, उन सबकी प्रतीतियाँ अपने अधिष्ठानस्वरूप आपका ही संकेत करती हैं और श्रुतियोंने समस्त पदार्थोंका निषेध करके अन्तमें निषेधकी अवधिके रूपमें केवल आपको ही शेष रखा है॥ ३८॥
श्लोक-३९
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथ ह वाव तव महिमामृतरससमुद्रविप्रुषा सकृदवलीढया स्वमनसि निष्यन्दमानानवरतसुखेन विस्मारितदृष्टश्रुतविषयसुखलेशाभासाः परमभागवता एकान्तिनो भगवति सर्वभूतप्रियसुहृदि सर्वात्मनि नितरां निरन्तरं निर्वृतमनसः कथमु ह वा एते मधुमथन पुनः स्वार्थकुशला ह्यात्मप्रियसुहृदः साधवस्त्वच्चरणाम्बुजानुसेवां विसृजन्ति न यत्र पुनरयं संसारपर्यावर्तः॥
मूलम्
अथ ह वाव तव महिमामृतरससमुद्रविप्रुषा सकृदवलीढया स्वमनसि निष्यन्दमानानवरतसुखेन विस्मारितदृष्टश्रुतविषयसुखलेशाभासाः परमभागवता एकान्तिनो भगवति सर्वभूतप्रियसुहृदि सर्वात्मनि नितरां निरन्तरं निर्वृतमनसः कथमु ह वा एते मधुमथन पुनः स्वार्थकुशला ह्यात्मप्रियसुहृदः साधवस्त्वच्चरणाम्बुजानुसेवां विसृजन्ति न यत्र पुनरयं संसारपर्यावर्तः॥
अनुवाद (हिन्दी)
मधुसूदन! आपकी अमृतमयी महिमा रसका अनन्त समुद्र है। उसके नन्हे-से सीकरका भी, अधिक नहीं—एक बार भी स्वाद चख लेनेसे हृदयमें नित्य-निरन्तर परमानन्दकी धारा बहने लगती है। उसके कारण अबतक जगत्में विषय-भोगोंके जितने भी लेशमात्र, प्रतीतिमात्र सुखका अनुभव हुआ है या परलोक आदिके विषयमें सुना गया है, वह सब-का-सब जिन्होंने भुला दिया है, समस्त प्राणियोंके परम प्रियतम, हितैषी, सुहृद् और सर्वात्मा आप ऐश्वर्य-निधि परमेश्वरमें जो अपने मनको नित्य-निरन्तर लगाये रखते और आपके चिन्तनका ही सुख लूटते रहते हैं, वे आपके अनन्यप्रेमी परम भक्त पुरुष ही अपने स्वार्थ और परमार्थमें निपुण हैं। मधुसूदन! आपके वे प्यारे और सुहृद् भक्तजन भला, आपके चरणकमलोंका सेवन कैसे त्याग सकते हैं, जिससे जन्म-मृत्युरूप संसारके चक्करसे सदाके लिये छुटकारा मिल जाता है॥ ३९॥
श्लोक-४०
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्रिभुवनात्मभवन त्रिविक्रम त्रिनयन त्रिलोकमनोहरानुभाव तवैव विभूतयो दितिजदनुजादयश्चापि तेषामनुपक्रमसमयोऽयमिति स्वात्ममायया सुरनरमृगमिश्रितजलचराकृतिभिर्यथापराधं दण्डं दण्डधर दधर्थ एवमेनमपि भगवञ्जहि त्वाष्ट्रमुत यदि मन्यसे॥
मूलम्
त्रिभुवनात्मभवन त्रिविक्रम त्रिनयन त्रिलोकमनोहरानुभाव तवैव विभूतयो दितिजदनुजादयश्चापि तेषामनुपक्रमसमयोऽयमिति स्वात्ममायया सुरनरमृगमिश्रितजलचराकृतिभिर्यथापराधं दण्डं दण्डधर दधर्थ एवमेनमपि भगवञ्जहि त्वाष्ट्रमुत यदि मन्यसे॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रभो! आप त्रिलोकीके आत्मा और आश्रय हैं। आपने अपने तीन पगोंसे सारे जगत्को नाप लिया था और आप ही तीनों लोकोंके संचालक हैं। आपकी महिमा त्रिलोकीका मन हरण करनेवाली है। इसमें सन्देह नहीं कि दैत्य, दानव आदि असुर भी आपकी ही विभूतियाँ हैं। तथापि यह उनकी उन्नतिका समय नहीं है—यह सोचकर आप अपनी योगमायासे देवता, मनुष्य, पशु, नृसिंह आदि मिश्रित और मत्स्य आदि जलचरोंके रूपमें अवतार ग्रहण करते और उनके अपराधके अनुसार उन्हें दण्ड देते हैं। दण्डधारी प्रभो! यदि जँचे तो आप उन्हीं असुरोंके समान इस वृत्रासुरका भी नाश कर डालिये॥ ४०॥
श्लोक-४१
विश्वास-प्रस्तुतिः
अस्माकं तावकानां तव नतानां तत ततामह तव चरणनलिनयुगलध्यानानुबद्धहृदयनिगडानां स्वलिङ्गविवरणेनात्मसात्कृतानामनुकम्पानुरञ्जितवशदरुचिरशिशिरस्मितावलोकेन विगलितमधुरमुखरसामृतकलया चान्तस्तापमनघार्हसि शमयितुम्॥
मूलम्
अस्माकं तावकानां तव नतानां तत ततामह तव चरणनलिनयुगलध्यानानुबद्धहृदयनिगडानां स्वलिङ्गविवरणेनात्मसात्कृतानामनुकम्पानुरञ्जितवशदरुचिरशिशिरस्मितावलोकेन विगलितमधुरमुखरसामृतकलया चान्तस्तापमनघार्हसि शमयितुम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवन्! आप हमारे पिता, पितामह—सब कुछ हैं। हम आपके निजजन हैं और निरन्तर आपके सामने सिर झुकाये रहते हैं। आपके चरणकमलोंका ध्यान करते-करते हमारा हृदय उन्हींके प्रेमबन्धनसे बँध गया है। आपने हमारे सामने अपना दिव्यगुणोंसे युक्त साकार विग्रह प्रकट करके हमें अपनाया है। इसलिये प्रभो! हम आपसे यह प्रार्थना करते हैं कि आप अपनी दयाभरी, विशद, सुन्दर और शीतल मुसकानयुक्त चितवनसे तथा अपने मुखारविन्दसे टपकते हुए मनोहर वाणीरूप सुमधुर सुधाबिन्दुसे हमारे हृदयका ताप शान्त कीजिये, हमारे अन्तरकी जलन बुझाइये॥ ४१॥
श्लोक-४२
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथ भगवंस्तवास्माभिरखिलजगदुत्पत्तिस्थितिलयनिमित्तायमानदिव्यमायाविनोदस्य सकलजीवनिकायानामन्तर्हृदयेषु बहिरपि च ब्रह्मप्रत्यगात्मस्वरूपेण प्रधानरूपेण च यथादेशकालदेहावस्थानविशेषं तदुपादानोपलम्भकतयानुभवतः सर्वप्रत्ययसाक्षिण आकाशशरीरस्य साक्षात्परब्रह्मणः परमात्मनः कियानिह वा अर्थविशेषो विज्ञापनीयः स्याद् विस्फुलिङ्गादिभिरिव हिरण्यरेतसः॥
मूलम्
अथ भगवंस्तवास्माभिरखिलजगदुत्पत्तिस्थितिलयनिमित्तायमानदिव्यमायाविनोदस्य सकलजीवनिकायानामन्तर्हृदयेषु बहिरपि च ब्रह्मप्रत्यगात्मस्वरूपेण प्रधानरूपेण च यथादेशकालदेहावस्थानविशेषं तदुपादानोपलम्भकतयानुभवतः सर्वप्रत्ययसाक्षिण आकाशशरीरस्य साक्षात्परब्रह्मणः परमात्मनः कियानिह वा अर्थविशेषो विज्ञापनीयः स्याद् विस्फुलिङ्गादिभिरिव हिरण्यरेतसः॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रभो! जिस प्रकार अग्निकी ही अंशभूत चिनगारियाँ आदि अग्निको प्रकाशित करनेमें असमर्थ हैं, वैसे ही हम भी आपको अपना कोई भी स्वार्थ-परमार्थ निवेदन करनेमें असमर्थ हैं। आपसे भला, कहना ही क्या है! क्योंकि आप सम्पूर्ण जगत्की उत्पत्ति, स्थिति और लय करनेवाली दिव्यमायाके साथ विनोद करते रहते हैं तथा समस्त जीवोंके अन्तःकरणमें ब्रह्म और अन्तर्यामीके रूपमें विराजमान रहते हैं। केवल इतना ही नहीं, उनके बाहर भी प्रकृतिके रूपसे आप ही विराजमान हैं। जगत्में जितने भी देश, काल, शरीर और अवस्था आदि हैं, उनके उपादान और प्रकाशकके रूपमें आप ही उनका अनुभव करते रहते हैं। आप सभी वृत्तियोंके साक्षी हैं। आप आकाशके समान सर्वगत हैं, निर्लिप्त हैं। आप स्वयं परब्रह्म परमात्मा हैं॥ ४२॥
श्लोक-४३
विश्वास-प्रस्तुतिः
अत एव स्वयं तदुपकल्पयास्माकं भगवतः परमगुरोस्तव चरणशतपलाशच्छायां विविधवृजिनसंसारपरिश्रमोपशमनीमुपसृतानां वयं यत्कामेनोपसादिताः॥
मूलम्
अत एव स्वयं तदुपकल्पयास्माकं भगवतः परमगुरोस्तव चरणशतपलाशच्छायां विविधवृजिनसंसारपरिश्रमोपशमनीमुपसृतानां वयं यत्कामेनोपसादिताः॥
अनुवाद (हिन्दी)
अतएव हम अपना अभिप्राय आपसे निवेदन करें—इसकी अपेक्षा न रखकर जिस अभिलाषासे हमलोग यहाँ आये हैं, उसे पूर्ण कीजिये। आप अचिन्त्य ऐश्वर्यसम्पन्न और जगत्के परमगुरु हैं। हम आपके चरणकमलोंकी छत्रछायामें आये हैं, जो विविध पापोंके फलस्वरूप जन्म-मृत्युरूप संसारमें भटकनेकी थकावटको मिटानेवाली है॥ ४३॥
श्लोक-४४
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथो ईश जहि त्वाष्ट्रं ग्रसन्तं भुवनत्रयम्।
ग्रस्तानि येन नः कृष्ण तेजांस्यस्त्रायुधानि च॥
मूलम्
अथो ईश जहि त्वाष्ट्रं ग्रसन्तं भुवनत्रयम्।
ग्रस्तानि येन नः कृष्ण तेजांस्यस्त्रायुधानि च॥
अनुवाद (हिन्दी)
सर्वशक्तिमान् श्रीकृष्ण! वृत्रासुरने हमारे प्रभाव और अस्त्र-शस्त्रोंको तो निगल ही लिया है। अब वह तीनों लोकोंको भी ग्रस रहा है आप उसे मार डालिये॥ ४४॥
श्लोक-४५
विश्वास-प्रस्तुतिः
हंसाय दह्रनिलयाय निरीक्षकाय
कृष्णाय मृष्टयशसे निरुपक्रमाय।
सत्संग्रहाय भवपान्थनिजाश्रमाप्ता-
वन्ते परीष्टगतये हरये नमस्ते॥
मूलम्
हंसाय दह्रनिलयाय निरीक्षकाय
कृष्णाय मृष्टयशसे निरुपक्रमाय।
सत्संग्रहाय भवपान्थनिजाश्रमाप्ता-
वन्ते परीष्टगतये हरये नमस्ते॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रभो! आप शुद्धस्वरूप हृदयस्थित शुद्ध ज्योतिर्मय आकाश, सबके साक्षी, अनादि,अनन्त और उज्ज्वल कीर्तिसम्पन्न हैं। संतलोग आपका ही संग्रह करते हैं। संसारके पथिक जब घूमते-घूमते आपकी शरणमें आ पहुँचते हैं, तब अन्तमें आप उन्हें परमानन्दस्वरूप अभीष्ट फल देते हैं और इस प्रकार उनके जन्म-जन्मान्तरके कष्टको हर लेते हैं। प्रभो! हम आपको नमस्कार करते हैं॥ ४५॥
श्लोक-४६
मूलम् (वचनम्)
श्रीशुक उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथैवमीडितो राजन् सादरं त्रिदशैर्हरिः।
स्वमुपस्थानमाकर्ण्य प्राह तानभिनन्दितः॥
मूलम्
अथैवमीडितो राजन् सादरं त्रिदशैर्हरिः।
स्वमुपस्थानमाकर्ण्य प्राह तानभिनन्दितः॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! जब देवताओंने बड़े आदरके साथ इस प्रकार भगवान्का स्तवन किया, तब वे अपनी स्तुति सुनकर बहुत प्रसन्न हुए तथा उनसे कहने लगे॥ ४६॥
श्लोक-४७
मूलम् (वचनम्)
श्रीभगवानुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रीतोऽहं वः सुरश्रेष्ठा मदुपस्थानविद्यया।
आत्मैश्वर्यस्मृतिः पुंसां भक्तिश्चैव यया मयि॥
मूलम्
प्रीतोऽहं वः सुरश्रेष्ठा मदुपस्थानविद्यया।
आत्मैश्वर्यस्मृतिः पुंसां भक्तिश्चैव यया मयि॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीभगवान्ने कहा—श्रेष्ठ देवताओ! तुमलोगोंने स्तुतियुक्त ज्ञानसे मेरी उपासना की है, इससे मैं तुमलोगोंपर प्रसन्न हूँ। इस स्तुतिके द्वारा जीवोंको अपने वास्तविक स्वरूपकी स्मृति और मेरी भक्ति प्राप्त होती है॥ ४७॥
श्लोक-४८
विश्वास-प्रस्तुतिः
किं दुरापं मयि प्रीत तथापि विबुधर्षभाः।
मय्येकान्तमतिर्नान्यन्मत्तो वाञ्छति तत्त्ववित्॥
मूलम्
किं दुरापं मयि प्रीत तथापि विबुधर्षभाः।
मय्येकान्तमतिर्नान्यन्मत्तो वाञ्छति तत्त्ववित्॥
अनुवाद (हिन्दी)
देवशिरोमणियो! मेरे प्रसन्न हो जानेपर कोई भी वस्तु दुर्लभ नहीं रह जाती। तथापि मेरे अनन्यप्रेमी तत्त्ववेत्ता भक्त मुझसे मेरे अतिरिक्त और कुछ भी नहीं चाहते॥ ४८॥
श्लोक-४९
विश्वास-प्रस्तुतिः
न वेद कृपणः श्रेय आत्मनो गुणवस्तुदृक्।
तस्य तानिच्छतो यच्छेद् यदि सोऽपि तथाविधः॥
मूलम्
न वेद कृपणः श्रेय आत्मनो गुणवस्तुदृक्।
तस्य तानिच्छतो यच्छेद् यदि सोऽपि तथाविधः॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो पुरुष जगत्के विषयोंको सत्य समझता है, वह नासमझ अपने वास्तविक कल्याणको नहीं जानता। यही कारण है कि वह विषय चाहता है; परन्तु यदि कोई जानकार उसे उसकी इच्छित वस्तु दे देता है, तो वह भी वैसा ही नासमझ है॥ ४९॥
श्लोक-५०
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वयं निःश्रेयसं विद्वान् न वक्त्यज्ञाय कर्म हि।
न राति रोगिणोऽपथ्यं वाञ्छतो हि भिषक्तमः॥
मूलम्
स्वयं निःश्रेयसं विद्वान् न वक्त्यज्ञाय कर्म हि।
न राति रोगिणोऽपथ्यं वाञ्छतो हि भिषक्तमः॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो पुरुष मुक्तिका स्वरूप जानता है, वह अज्ञानीको भी कर्मोंमें फँसनेका उपदेश नहीं देता—जैसे रोगीके चाहते रहनेपर भी सद्वैद्य उसे कुपथ्य नहीं देता॥ ५०॥ देवराज इन्द्र! तुमलोगोंका कल्याण हो।
श्लोक-५१
विश्वास-प्रस्तुतिः
मघवन् यात भद्रं वो दध्यञ्चमृषिसत्तमम्।
विद्याव्रततपःसारं गात्रं याचत मा चिरम्॥
मूलम्
मघवन् यात भद्रं वो दध्यञ्चमृषिसत्तमम्।
विद्याव्रततपःसारं गात्रं याचत मा चिरम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
अब देर मत करो। ऋषिशिरोमणि दधीचिके पास जाओ और उनसे उनका शरीर—जो उपासना, व्रत तथा तपस्याके कारण अत्यन्त दृढ़ हो गया है—माँग लो॥ ५१॥
श्लोक-५२
विश्वास-प्रस्तुतिः
स वा अधिगतो दध्यङ्ङश्विभ्यां ब्रह्म निष्कलम्।
यद् वा अश्वशिरो नाम तयोरमरतां व्यधात्॥
मूलम्
स वा अधिगतो दध्यङ्ङश्विभ्यां ब्रह्म निष्कलम्।
यद् वा अश्वशिरो नाम तयोरमरतां व्यधात्॥
अनुवाद (हिन्दी)
दधीचि ऋषिको शुद्ध ब्रह्मका ज्ञान है। अश्विनीकुमारोंको घोड़ेके सिरसे उपदेश करनेके कारण उनका एक नाम ‘अश्वशिर’* भी है। उनकी उपदेश की हुई आत्मविद्याके प्रभावसे ही दोनों अश्विनीकुमार जीवन्मुक्त हो गये॥ ५२॥
पादटिप्पनी
- यह कथा इस प्रकार है—दधीचि ऋषिको प्रवर्ग्य (यज्ञकर्मविशेष) और ब्रह्मविद्याका उत्तम ज्ञान है—यह जानकर एक बार उनके पास अश्विनीकुमार आये और उनसे ब्रह्मविद्याका उपदेश करनेके लिये प्रार्थना की। दधीचि मुनिने कहा—‘इस समय मैं एक कार्यमें लगा हुआ हूँ, इसलिये फिर किसी समय आना।’ इसपर अश्विनीकुमार चले गये। उनके जाते ही इन्द्रने आकर कहा—‘मुने! अश्विनीकुमार वैद्य हैं, उन्हें तुम ब्रह्मविद्याका उपदेश मत करना। यदि तुम मेरी बात न मानकर उन्हें उपदेश करोगे तो मैं तुम्हारा सिर काट डालूँगा।’ जब ऐसा कहकर इन्द्र चले गये, तब अश्विनीकुमारोंने आकर फिर वही प्रार्थना की। मुनिने इन्द्रका सब वृत्तान्त सुनाया। इसपर अश्विनीकुमारोंने कहा—‘हम पहले ही आपका यह सिर काटकर घोड़ेका सिर जोड़ देंगे, उससे आप हमें उपदेश करें और जब इन्द्र आपका घोड़ेका सिर काट देंगे तब हम फिर असली सिर जोड़ देंगे।’ मुनिने मिथ्या-भाषणके भयसे उनका कथन स्वीकार कर लिया। इस प्रकार अश्वमुखसे उपदेश की जानेके कारण ब्रह्मविद्याका नाम ‘अश्वशिरा’ पड़ा।
श्लोक-५३
विश्वास-प्रस्तुतिः
दध्यङ्ङाथर्वणस्त्वष्ट्रे वर्माभेद्यं मदात्मकम्।
विश्वरूपाय यत् प्रादात् त्वष्टा यत् त्वमधास्ततः॥
मूलम्
दध्यङ्ङाथर्वणस्त्वष्ट्रे वर्माभेद्यं मदात्मकम्।
विश्वरूपाय यत् प्रादात् त्वष्टा यत् त्वमधास्ततः॥
अनुवाद (हिन्दी)
अथर्ववेदी दधीचि ऋषिने ही पहले-पहल मेरे स्वरूपभूत अभेद्य नारायणकवचका त्वष्टाको उपदेश किया था। त्वष्टाने वही विश्वरूपको दिया और विश्वरूपसे तुम्हें मिला॥ ५३॥
श्लोक-५४
विश्वास-प्रस्तुतिः
युष्मभ्यं याचितोऽश्विभ्यां धर्मज्ञोऽङ्गानि दास्यति।
ततस्तैरायुधश्रेष्ठो विश्वकर्मविनिर्मितः।
येन वृत्रशिरो हर्ता मत्तेज उपबृंहितः॥
मूलम्
युष्मभ्यं याचितोऽश्विभ्यां धर्मज्ञोऽङ्गानि दास्यति।
ततस्तैरायुधश्रेष्ठो विश्वकर्मविनिर्मितः।
येन वृत्रशिरो हर्ता मत्तेज उपबृंहितः॥
अनुवाद (हिन्दी)
दधीचि ऋषि धर्मके परम मर्मज्ञ हैं। वे तुमलोगोंको अश्विनीकुमारके माँगनेपर, अपने शरीरके अंग अवश्य दे देंगे। इसके बाद विश्वकर्माके द्वारा उन अंगोंसे एक श्रेष्ठ आयुध तैयार करा लेना। देवराज! मेरी शक्तिसे युक्त होकर तुम उसी शस्त्रके द्वारा वृत्रासुरका सिर काट लोगे॥ ५४॥
श्लोक-५५
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मिन् विनिहते यूयं तेजोऽस्त्रायुधसम्पदः।
भूयः प्राप्स्यथ भद्रं वो न हिंसन्ति च मत्परान्॥
मूलम्
तस्मिन् विनिहते यूयं तेजोऽस्त्रायुधसम्पदः।
भूयः प्राप्स्यथ भद्रं वो न हिंसन्ति च मत्परान्॥
अनुवाद (हिन्दी)
देवताओ! वृत्रासुरके मर जानेपर तुम लोगोंको फिरसे तेज, अस्त्र-शस्त्र और सम्पत्तियाँ प्राप्त हो जायँगी। तुम्हारा कल्याण अवश्यम्भावी है; क्योंकि मेरे शरणागतोंको कोई सता नहीं सकता॥ ५५॥
अनुवाद (समाप्ति)
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां षष्ठस्कन्धे नवमोऽध्यायः॥ ९॥