०९ हिन्द्या

अथ नवमोऽध्याय:

भागसूचना

भरतजीका ब्राह्मणकुलमें जन्म

श्लोक-१
विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रीशुक उवाच

मूलम् (वचनम्)

श्रीशुक उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथ कस्यचिद् द्विजवरस्याङ्गिर:प्रवरस्य शमदमतप:स्वाध्यायाध्ययनत्यागसन्तोषतितिक्षाप्रश्रयविद्यानसूयात्मज्ञानानन्दयुक्तस्यात्मसदृशश्रुतशीलाचाररूपौदार्यगुणा नव सोदर्या अङ्गजा बभूवुर्मिथुनं च यवीयस्यां भार्यायाम्॥

मूलम्

अथ कस्यचिद् द्विजवरस्याङ्गिर:प्रवरस्य शमदमतप:स्वाध्यायाध्ययनत्यागसन्तोषतितिक्षाप्रश्रयविद्यानसूयात्मज्ञानानन्दयुक्तस्यात्मसदृशश्रुतशीलाचाररूपौदार्यगुणा नव सोदर्या अङ्गजा बभूवुर्मिथुनं च यवीयस्यां भार्यायाम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—राजन्! आंगिरस गोत्रमें शम, दम, तप, स्वाध्याय, वेदाध्ययन, त्याग (अतिथि आदिको अन्न देना), सन्तोष, तितिक्षा, विनय, विद्या (कर्मविद्या), अनसूया (दूसरोंके गुणोंमें दोष न ढूँढ़ना), आत्मज्ञान (आत्माके कर्तृत्व और भोक्तृत्वका ज्ञान) एवं आनन्द (धर्मपालनजनित सुख) सभी गुणोंसे सम्पन्न एक श्रेष्ठ ब्राह्मण थे। उनकी बड़ी स्त्रीसे उन्हींके समान विद्या, शील, आचार, रूप और उदारता आदि गुणोंवाले नौ पुत्र हुए तथा छोटी पत्नीसे एक ही साथ एक पुत्र और एक कन्याका जन्म हुआ॥ १॥

श्लोक-२
विश्वास-प्रस्तुतिः

यस्तु तत्र पुमांस्तं परमभागवतं राजर्षिप्रवरं भरतमुत्सृष्टमृगशरीरं चरमशरीरेण विप्रत्वं गतमाहु:॥

मूलम्

यस्तु तत्र पुमांस्तं परमभागवतं राजर्षिप्रवरं भरतमुत्सृष्टमृगशरीरं चरमशरीरेण विप्रत्वं गतमाहु:॥

अनुवाद (हिन्दी)

इन दोनोंमें जो पुरुष था वह परम भागवत राजर्षिशिरोमणि भरत ही थे। वे मृगशरीरका परित्याग करके अन्तिम जन्ममें ब्राह्मण हुए थे—ऐसा महापुरुषोंका कथन है॥ २॥

श्लोक-३
विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्रापि स्वजनसङ्गाच्च भृशमुद्विजमानो भगवत: कर्मबन्धविध्वंसनश्रवणस्मरणगुणविवरणचरणारविन्दयुगलं मनसा विदधदात्मन: प्रतिघातमाशङ्कमानो भगवदनुग्रहेणानुस्मृतस्वपूर्वजन्मावलिरात्मानमुन्मत्तजडान्धबधिरस्वरूपेण दर्शयामास लोकस्य॥

मूलम्

तत्रापि स्वजनसङ्गाच्च भृशमुद्विजमानो भगवत: कर्मबन्धविध्वंसनश्रवणस्मरणगुणविवरणचरणारविन्दयुगलं मनसा विदधदात्मन: प्रतिघातमाशङ्कमानो भगवदनुग्रहेणानुस्मृतस्वपूर्वजन्मावलिरात्मानमुन्मत्तजडान्धबधिरस्वरूपेण दर्शयामास लोकस्य॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस जन्ममें भी भगवान‍्की कृपासे अपनी पूर्वजन्म परम्पराका स्मरण रहनेके कारण, वे इस आशंकासे कि कहीं फिर कोई विघ्न उपस्थित न हो जाय, अपने स्वजनोंके संगसे भी बहुत डरते थे। हर समय जिनका श्रवण, स्मरण और गुणकीर्तन सब प्रकारके कर्मबन्धनको काट देता है, श्रीभगवान‍्के उन युगल चरणकमलोंको ही हृदयमें धारण किये रहते तथा दूसरोंकी दृष्टिमें अपनेको पागल, मूर्ख, अंधे और बहरेके समान दिखाते॥ ३॥

श्लोक-४
विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्यापि ह वा आत्मजस्य विप्र: पुत्रस्नेहानुबद्धमना आसमावर्तनात्संस्कारान् यथोपदेशं विदधान उपनीतस्य च पुन: शौचाचमनादीन् कर्मनियमाननभिप्रेतानपि समशिक्षयदनुशिष्टेन हि भाव्यं पितु: पुत्रेणेति॥

मूलम्

तस्यापि ह वा आत्मजस्य विप्र: पुत्रस्नेहानुबद्धमना आसमावर्तनात्संस्कारान् यथोपदेशं विदधान उपनीतस्य च पुन: शौचाचमनादीन् कर्मनियमाननभिप्रेतानपि समशिक्षयदनुशिष्टेन हि भाव्यं पितु: पुत्रेणेति॥

अनुवाद (हिन्दी)

पिताका तो उनमें भी वैसा ही स्नेह था। इसलिये ब्राह्मणदेवताने अपने पागल पुत्रके भी शास्त्रानुसार समावर्तनपर्यन्त विवाहसे पूर्वके सभी संस्कार करनेके विचारसे उनका उपनयन-संस्कार किया। यद्यपि वे चाहते नहीं थे तो भी ‘पिताका कर्तव्य है कि पुत्रको शिक्षा दे’ इस शास्त्रविधिके अनुसार उन्होंने इन्हें शौच-आचमन आदि आवश्यक कर्मोंकी शिक्षा दी॥ ४॥

श्लोक-५
विश्वास-प्रस्तुतिः

स चापि तदु ह पितृसंनिधावेवासध्रीचीनमिव स्म करोति छन्दांस्यध्यापयिष्यन् सह व्याहृतिभि: सप्रणवशिरस्त्रिपदीं सावित्रीं ग्रैष्मवासन्तिकान्मासानधीयानमप्यसमवेतरूपं ग्राहयामास॥

मूलम्

स चापि तदु ह पितृसंनिधावेवासध्रीचीनमिव स्म करोति छन्दांस्यध्यापयिष्यन् सह व्याहृतिभि: सप्रणवशिरस्त्रिपदीं सावित्रीं ग्रैष्मवासन्तिकान्मासानधीयानमप्यसमवेतरूपं ग्राहयामास॥

अनुवाद (हिन्दी)

किन्तु भरतजी तो पिताके सामने ही उनके उपदेशके विरुद्ध आचरण करने लगते थे। पिता चाहते थे कि वर्षाकालमें इसे वेदाध्ययन आरम्भ करा दूँ। किन्तु वसन्त और ग्रीष्म ऋतुके चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ और आषाढ़—चार महीनोंतक पढ़ाते रहनेपर भी वे इन्हें व्याहृति और शिरोमन्त्रप्रणवके सहित त्रिपदा गायत्री भी अच्छी तरह याद न करा सके॥ ५॥

श्लोक-६
विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं स्वतनुज आत्मन्यनुरागावेशितचित्त: शौचाध्ययनव्रतनियमगुर्वनलशुश्रूषणाद्यौपकुर्वाणककर्माण्यनभियुक्तान्यपि समनुशिष्टेन भाव्यमित्यसदाग्रह: पुत्रमनुशास्य स्वयं तावदनधिगतमनोरथ: कालेनाप्रमत्तेन स्वयं गृह एव प्रमत्त उपसंहृत:॥

मूलम्

एवं स्वतनुज आत्मन्यनुरागावेशितचित्त: शौचाध्ययनव्रतनियमगुर्वनलशुश्रूषणाद्यौपकुर्वाणककर्माण्यनभियुक्तान्यपि समनुशिष्टेन भाव्यमित्यसदाग्रह: पुत्रमनुशास्य स्वयं तावदनधिगतमनोरथ: कालेनाप्रमत्तेन स्वयं गृह एव प्रमत्त उपसंहृत:॥

अनुवाद (हिन्दी)

ऐसा होनेपर भी अपने इस पुत्रमें उनका आत्माके समान अनुराग था। इसलिये उसकी प्रवृत्ति न होनेपर भी वे ‘पुत्रको अच्छी तरह शिक्षा देनी चाहिये’ इस अनुचित आग्रहसे उसे शौच, वेदाध्ययन, व्रत, नियम तथा गुरु और अग्निकी सेवा आदि ब्रह्मचर्याश्रमके आवश्यक नियमोंकी शिक्षा देते ही रहे। किन्तु अभी पुत्रको सुशिक्षित देखनेका उनका मनोरथ पूरा न हो पाया था और स्वयं भी भगवद‍्भजनरूप अपने मुख्य कर्तव्यसे असावधान रहकर केवल घरके धंधोंमें ही व्यस्त थे कि सदा सजग रहनेवाले कालभगवान‍्ने आक्रमण करके उनका अन्त कर दिया॥ ६॥

श्लोक-७
विश्वास-प्रस्तुतिः

अथ यवीयसी द्विजसती स्वगर्भजातं मिथुनं सपत्न्या उपन्यस्य स्वयमनुसंस्थया पतिलोकमगात्॥

मूलम्

अथ यवीयसी द्विजसती स्वगर्भजातं मिथुनं सपत्न्या उपन्यस्य स्वयमनुसंस्थया पतिलोकमगात्॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब उनकी छोटी भार्या अपने गर्भसे उत्पन्न हुए दोनों बालक अपनी सौतको सौंपकर स्वयं सती होकर पतिलोकको चली गयी॥ ७॥

श्लोक-८
विश्वास-प्रस्तुतिः

पितर्युपरते भ्रातर एनमतत्प्रभावविदस्त्रय्यां विद्यायामेव पर्यवसितमतयो न परविद्यायां जडमतिरिति भ्रातुरनुशासननिर्बन्धान्न्यवृत्सन्त॥

मूलम्

पितर्युपरते भ्रातर एनमतत्प्रभावविदस्त्रय्यां विद्यायामेव पर्यवसितमतयो न परविद्यायां जडमतिरिति भ्रातुरनुशासननिर्बन्धान्न्यवृत्सन्त॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतजीके भाई कर्मकाण्डको सबसे श्रेष्ठ समझते थे। वे ब्रह्मज्ञानरूप पराविद्यासे सर्वथा अनभिज्ञ थे। इसलिये उन्हें भरतजीका प्रभाव भी ज्ञात नहीं था, वे उन्हें निरा मूर्ख समझते थे। अत: पिताके परलोक सिधारनेपर उन्होंने उन्हें पढ़ाने-लिखानेका आग्रह छोड़ दिया॥ ८॥

श्लोक-९
विश्वास-प्रस्तुतिः

स च प्राकृतैर्द्विपदपशुभिरुन्मत्तजडबधिरेत्यभिभाष्यमाणो यदा तदनुरूपाणि प्रभाषते कर्माणि च स कार्यमाण: परेच्छया करोति विष्टितो वेतनतो वा याच्ञया यदृच्छया वोपसादितमल्पं बहु मृष्टं कदन्नं वाभ्यवहरति परं नेन्द्रियप्रीतिनिमित्तम्। नित्यनिवृत्तनिमित्तस्वसिद्धविशुद्धानुभवानन्दस्वात्मलाभाधिगम: सुखदु:खयोर्द्वन्द्वनिमित्तयोरसम्भावितदेहाभिमान:॥

मूलम्

स च प्राकृतैर्द्विपदपशुभिरुन्मत्तजडबधिरेत्यभिभाष्यमाणो यदा तदनुरूपाणि प्रभाषते कर्माणि च स कार्यमाण: परेच्छया करोति विष्टितो वेतनतो वा याच्ञया यदृच्छया वोपसादितमल्पं बहु मृष्टं कदन्नं वाभ्यवहरति परं नेन्द्रियप्रीतिनिमित्तम्। नित्यनिवृत्तनिमित्तस्वसिद्धविशुद्धानुभवानन्दस्वात्मलाभाधिगम: सुखदु:खयोर्द्वन्द्वनिमित्तयोरसम्भावितदेहाभिमान:॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतजीको मानापमानका कोई विचार न था। जब साधारण नर-पशु उन्हें पागल, मूर्ख अथवा बहरा कहकर पुकारते तब वे भी उसीके अनुरूप भाषण करने लगते। कोई भी उनसे कुछ भी काम कराना चाहते, तो वे उनकी इच्छाके अनुसार कर देते। बेगारके रूपमें, मजदूरीके रूपमें, माँगनेपर अथवा बिना माँगे जो भी थोड़ा-बहुत अच्छा या बुरा अन्न उन्हें मिल जाता, उसीको जीभका जरा भी स्वाद न देखते हुए खा लेते। अन्य किसी कारणसे उत्पन्न न होनेवाला स्वत:सिद्ध केवल ज्ञानानन्दस्वरूप आत्मज्ञान उन्हें प्राप्त हो गया था; इसलिये शीतोष्ण, मानापमान आदि द्वन्द्वोंसे होनेवाले सुख-दु:खादिमें उन्हें देहाभिमानकी स्फूर्ति नहीं होती थी॥ ९॥

श्लोक-१०
विश्वास-प्रस्तुतिः

शीतोष्णवातवर्षेषु वृष इवानावृताङ्ग: पीन: संहननाङ्ग: स्थण्डिलसंवेशनानुन्मर्दनामज्जनरजसा महामणिरिवानभिव्यक्तब्रह्मवर्चस: कुपटावृतकटिरुपवीतेनोरुमषिणा द्विजातिरिति ब्रह्मबन्धुरिति संज्ञयातज्ज्ञजनावमतो विचचार॥

मूलम्

शीतोष्णवातवर्षेषु वृष इवानावृताङ्ग: पीन: संहननाङ्ग: स्थण्डिलसंवेशनानुन्मर्दनामज्जनरजसा महामणिरिवानभिव्यक्तब्रह्मवर्चस: कुपटावृतकटिरुपवीतेनोरुमषिणा द्विजातिरिति ब्रह्मबन्धुरिति संज्ञयातज्ज्ञजनावमतो विचचार॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे सर्दी, गरमी, वर्षा और आँधीके समय साँड़के समान नंगे पड़े रहते थे। उनके सभी अंग हृष्ट-पुष्ट एवं गठे हुए थे। वे पृथ्वीपर ही पड़े रहते थे, कभी तेल-उबटन आदि नहीं लगाते थे और न कभी स्नान ही करते थे, इससे उनके शरीरपर मैल जम गयी थी। उनका ब्रह्मतेज धूलिसे ढके हुए मूल्यवान् मणिके समान छिप गया था। वे अपनी कमरमें एक मैला-कुचैला कपड़ा लपेटे रहते थे। उनका यज्ञोपवीत भी बहुत ही मैला हो गया था। इसलिये अज्ञानी जनता ‘यह कोई द्विज है’, ‘कोई अधम ब्राह्मण है’ ऐसा कहकर उनका तिरस्कार कर दिया करती थी, किन्तु वे इसका कोई विचार न करके स्वच्छन्द विचरते थे॥ १०॥

श्लोक-११
विश्वास-प्रस्तुतिः

यदा तु परत आहारं कर्मवेतनत ईहमान: स्वभ्रातृभिरपि केदारकर्मणि निरूपितस्तदपि करोति किन्तु न समं विषमं न्यूनमधिकमिति वेद कणपिण्याकफलीकरणकुल्माषस्थालीपुरीषादीन्यप्यमृतवदभ्यवहरति॥

मूलम्

यदा तु परत आहारं कर्मवेतनत ईहमान: स्वभ्रातृभिरपि केदारकर्मणि निरूपितस्तदपि करोति किन्तु न समं विषमं न्यूनमधिकमिति वेद कणपिण्याकफलीकरणकुल्माषस्थालीपुरीषादीन्यप्यमृतवदभ्यवहरति॥

अनुवाद (हिन्दी)

दूसरोंकी मजदूरी करके पेट पालते देख जब उन्हें उनके भाइयोंने खेतकी क्यारियाँ ठीक करनेमें लगा दिया तब वे उस कार्यको भी करने लगे। परन्तु उन्हें इस बातका कुछ भी ध्यान न था कि उन क्यारियोंकी भूमि समतल है या ऊँची-नीची अथवा वह छोटी है या बड़ी। उनके भाई उन्हें चावलकी कनी, खली, भूसी, घुने हुए उड़द अथवा बरतनोंमें लगी हुई जले अन्नकी खुरचन—जो कुछ भी दे देते, उसीको वे अमृतके समान खा लेते थे॥ ११॥

श्लोक-१२
विश्वास-प्रस्तुतिः

अथ कदाचित्कश्चिद् वृषलपतिर्भद्रकाल्यै पुरुषपशुमालभतापत्यकाम:॥

मूलम्

अथ कदाचित्कश्चिद् वृषलपतिर्भद्रकाल्यै पुरुषपशुमालभतापत्यकाम:॥

अनुवाद (हिन्दी)

किसी समय डाकुओंके सरदारने, जिसके सामन्त शूद्र जातिके थे, पुत्रकी कामनासे भद्रकालीको मनुष्यकी बलि देनेका संकल्प किया॥ १२॥

श्लोक-१३
विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्य ह दैवमुक्तस्य पशो: पदवीं तदनुचरा: परिधावन्तो निशि निशीथसमये तमसाऽऽवृतायामनधिगतपशव आकस्मिकेन विधिना केदारान् वीरासनेन मृगवराहादिभ्य: संरक्षमाणमङ्गिर:प्रवरसुतमपश्यन्॥

मूलम्

तस्य ह दैवमुक्तस्य पशो: पदवीं तदनुचरा: परिधावन्तो निशि निशीथसमये तमसाऽऽवृतायामनधिगतपशव आकस्मिकेन विधिना केदारान् वीरासनेन मृगवराहादिभ्य: संरक्षमाणमङ्गिर:प्रवरसुतमपश्यन्॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसने जो पुरुष-पशु बलि देनेके लिये पकड़ मँगाया था, वह दैववश उसके फंदेसे निकलकर भाग गया। उसे ढूँढ़नेके लिये उसके सेवक चारों ओर दौड़े; किन्तु अँधेरी रातमें आधी रातके समय कहीं उसका पता न लगा। इसी समय दैवयोगसे अकस्मात् उनकी दृष्टि इन आंगिरसगोत्रीय ब्राह्मणकुमारपर पड़ी, जो वीरासनसे बैठे हुए मृग-वराहादि जीवोंसे खेतोंकी रखवाली कर रहे थे॥ १३॥

श्लोक-१४
विश्वास-प्रस्तुतिः

अथ त एनमनवद्यलक्षणमवमृश्य भर्तृकर्मनिष्पत्तिं मन्यमाना बद्‍ध्वा रशनया चण्डिकागृहमुपनिन्युर्मुदा विकसितवदना:॥

मूलम्

अथ त एनमनवद्यलक्षणमवमृश्य भर्तृकर्मनिष्पत्तिं मन्यमाना बद्‍ध्वा रशनया चण्डिकागृहमुपनिन्युर्मुदा विकसितवदना:॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन्होंने देखा कि यह पशु तो बड़े अच्छे लक्षणोंवाला है, इससे हमारे स्वामीका कार्य अवश्य सिद्ध हो जायगा। यह सोचकर उनका मुख आनन्दसे खिल उठा और वे उन्हें रस्सियोंसे बाँधकर चण्डिकाके मन्दिरमें ले आये॥ १४॥

श्लोक-१५
विश्वास-प्रस्तुतिः

अथ पणयस्तं स्वविधिनाभिषिच्याहतेन वाससाऽऽच्छाद्य भूषणालेपस्रक्‍तिलकादिभिरुपस्कृतं भुक्तवन्तं धूपदीपमाल्यलाजकिसलयाङ्कुरफलोपहारोपेतया वैशससंस्थया महता गीतस्तुतिमृदङ्गपणवघोषेण च पुरुषपशुं भद्रकाल्या: पुरत उपवेशयामासु:॥

मूलम्

अथ पणयस्तं स्वविधिनाभिषिच्याहतेन वाससाऽऽच्छाद्य भूषणालेपस्रक्‍तिलकादिभिरुपस्कृतं भुक्तवन्तं धूपदीपमाल्यलाजकिसलयाङ्कुरफलोपहारोपेतया वैशससंस्थया महता गीतस्तुतिमृदङ्गपणवघोषेण च पुरुषपशुं भद्रकाल्या: पुरत उपवेशयामासु:॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर उन चोरोंने अपनी पद्धतिके अनुसार विधिपूर्वक उनको अभिषेक एवं स्नान कराकर कोरे वस्त्र पहनाये तथा नाना प्रकारके आभूषण, चन्दन, माला और तिलक आदिसे विभूषित कर अच्छी तरह भोजन कराया। फिर धूप, दीप, माला, खील, पत्ते, अंकुर और फल आदि उपहार-सामग्रीके सहित बलिदानकी विधिसे गान, स्तुति और मृदंग एवं ढोल आदिका महान् शब्द करते उस पुरुष-पशुको भद्रकालीके सामने नीचा सिर कराके बैठा दिया॥ १५॥

श्लोक-१६
विश्वास-प्रस्तुतिः

अथ वृषलराजपणि: पुरुषपशोरसृगासवेन देवीं भद्रकालीं यक्ष्यमाणस्तदभिमन्त्रितमसिमतिकरालनिशितमुपाददे॥

मूलम्

अथ वृषलराजपणि: पुरुषपशोरसृगासवेन देवीं भद्रकालीं यक्ष्यमाणस्तदभिमन्त्रितमसिमतिकरालनिशितमुपाददे॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसके पश्चात् दस्युराजके पुरोहित बने हुए लुटेरेने उस नर-पशुके रुधिरसे देवीको तृप्त करनेके लिये देवीमन्त्रोंसे अभिमन्त्रित एक तीक्ष्ण खड्ग उठाया॥ १६॥

श्लोक-१७
विश्वास-प्रस्तुतिः

इति तेषां वृषलानां रजस्तम:प्रकृतीनां धनमदरजउत्सिक्तमनसां भगवत्कलावीरकुलं कदर्थीकृत्योत्पथेन स्वैरं विहरतां हिंसाविहाराणां कर्मातिदारुणं यद‍्ब्रह्मभूतस्य साक्षाद‍्ब्रह्मर्षिसुतस्य निर्वैरस्य सर्वभूतसुहृद: सूनायामप्यननुमतमालम्भनं तदुपलभ्य ब्रह्मतेजसातिदुर्विषहेण दन्दह्यमानेन वपुषा सहसोच्चचाट सैव देवी भद्रकाली॥

मूलम्

इति तेषां वृषलानां रजस्तम:प्रकृतीनां धनमदरजउत्सिक्तमनसां भगवत्कलावीरकुलं कदर्थीकृत्योत्पथेन स्वैरं विहरतां हिंसाविहाराणां कर्मातिदारुणं यद‍्ब्रह्मभूतस्य साक्षाद‍्ब्रह्मर्षिसुतस्य निर्वैरस्य सर्वभूतसुहृद: सूनायामप्यननुमतमालम्भनं तदुपलभ्य ब्रह्मतेजसातिदुर्विषहेण दन्दह्यमानेन वपुषा सहसोच्चचाट सैव देवी भद्रकाली॥

अनुवाद (हिन्दी)

चोर स्वभावसे तो रजोगुणी-तमोगुणी थे ही, धनके मदसे उनका चित्त और भी उन्मत्त हो गया था। हिंसामें भी उनकी स्वाभाविक रुचि थी। इस समय तो वे भगवान‍्के अंशस्वरूप ब्राह्मणकुलका तिरस्कार करके स्वच्छन्दतासे कुमार्गकी ओर बढ़ रहे थे। आपत्तिकालमें भी जिस हिंसाका अनुमोदन किया गया है, उसमें भी ब्राह्मणवधका सर्वथा निषेध है, तो भी वे साक्षात् ब्रह्मभावको प्राप्त हुए वैरहीन तथा समस्त प्राणियोंके सुहृद् एक ब्रह्मर्षिकुमारकी बलि देना चाहते थे। यह भयंकर कुकर्म देखकर देवी भद्रकालीके शरीरमें अति दु:सह ब्रह्मतेजसे दाह होने लगा और वे एकाएक मूर्तिको फोड़कर प्रकट हो गयीं॥ १७॥

श्लोक-१८
विश्वास-प्रस्तुतिः

भृशममर्षरोषावेशरभसविलसितभ्रुकुटिविटपकुटिलदंष्ट्रारुणेक्षणाटोपातिभयानकवदना हन्तुकामेवेदं महाट्टहासमतिसंरम्भेण विमुञ्चन्ती तत उत्पत्य पापीयसां दुष्टानां तेनैवासिना विवृक्णशीर्ष्णां गलात्स्रवन्तमसृगासवमत्युष्णं सह गणेन निपीयातिपानमदविह्वलोच्चैस्तरां स्वपार्षदै: सह जगौ ननर्त च विजहार च शिर:कन्दुकलीलया॥

मूलम्

भृशममर्षरोषावेशरभसविलसितभ्रुकुटिविटपकुटिलदंष्ट्रारुणेक्षणाटोपातिभयानकवदना हन्तुकामेवेदं महाट्टहासमतिसंरम्भेण विमुञ्चन्ती तत उत्पत्य पापीयसां दुष्टानां तेनैवासिना विवृक्णशीर्ष्णां गलात्स्रवन्तमसृगासवमत्युष्णं सह गणेन निपीयातिपानमदविह्वलोच्चैस्तरां स्वपार्षदै: सह जगौ ननर्त च विजहार च शिर:कन्दुकलीलया॥

अनुवाद (हिन्दी)

अत्यन्त असहनशीलता और क्रोधके कारण उनकी भौंहें चढ़ी हुई थीं तथा कराल दाढ़ों और चढ़ी हुई लाल आँखोंके कारण उनका चेहरा बड़ा भयानक जान पड़ता था। उनके उस विकराल वेषको देखकर ऐसा जान पड़ता था मानो वे इस संसारका संहार कर डालेंगी। उन्होंने क्रोधसे तड़ककर बड़ा भीषण अट्टहास किया और उछलकर उस अभिमन्त्रित खड्गसे ही उन सारे पापियोंके सिर उड़ा दिये और अपने गणोंके सहित उनके गलेसे बहता हुआ गरम-गरम रुधिररूप आसव पीकर अति उन्मत्त हो ऊँचे स्वरसे गाती और नाचती हुई उन सिरोंको ही गेंद बनाकर खेलने लगीं॥ १८॥

श्लोक-१९
विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमेव खलु महदभिचारातिक्रम: कार्त्स्न्येनात्मने फलति॥

मूलम्

एवमेव खलु महदभिचारातिक्रम: कार्त्स्न्येनात्मने फलति॥

अनुवाद (हिन्दी)

सच है, महापुरुषोंके प्रति किया हुआ अत्याचाररूप अपराध इसी प्रकार ज्यों-का-त्यों अपने ही ऊपर पड़ता है॥ १९॥

श्लोक-२०
विश्वास-प्रस्तुतिः

न वा एतद्विष्णुदत्त महदद‍्भुतं यदसम्भ्रम: स्वशिरश्छेदन आपतितेऽपि विमुक्तदेहाद्यात्मभावसुदृढहृदयग्रन्थीनां सर्वसत्त्वसुहृदात्मनां निर्वैराणां साक्षाद‍्भगवतानिमिषारिवरायुधेनाप्रमत्तेन तैस्तैर्भावै: परिरक्ष्यमाणानां तत्पादमूलमकुतश्चिद‍्भयमुपसृतानां भागवतपरमहंसानाम्॥

मूलम्

न वा एतद्विष्णुदत्त महदद‍्भुतं यदसम्भ्रम: स्वशिरश्छेदन आपतितेऽपि विमुक्तदेहाद्यात्मभावसुदृढहृदयग्रन्थीनां सर्वसत्त्वसुहृदात्मनां निर्वैराणां साक्षाद‍्भगवतानिमिषारिवरायुधेनाप्रमत्तेन तैस्तैर्भावै: परिरक्ष्यमाणानां तत्पादमूलमकुतश्चिद‍्भयमुपसृतानां भागवतपरमहंसानाम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! जिनकी देहाभिमानरूप सुदृढ़ हृदयग्रन्थि छूट गयी है, जो समस्त प्राणियोंके सुहृद् एवं आत्मा तथा वैरहीन हैं, साक्षात् भगवान् ही भद्रकाली आदि भिन्न-भिन्न रूप धारण करके अपने कभी न चूकनेवाले कालचक्ररूप श्रेष्ठ शस्त्रसे जिनकी रक्षा करते हैं और जिन्होंने भगवान‍्के निर्भय चरणकमलोंका आश्रय ले रखा है—उन भगवद‍्भक्त परमहंसोंके लिये अपना सिर कटनेका अवसर आनेपर भी किसी प्रकार व्याकुल न होना—यह कोई बड़े आश्चर्यकी बात नहीं है॥ २०॥

अनुवाद (समाप्ति)

इति श्रीमद‍्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां पञ्चमस्कन्धे जडभरतचरिते नवमोऽध्याय:॥ ९॥