२७

[सप्तविंशोऽध्यायः]

भागसूचना

प्रकृति-पुरुषके विवेकसे मोक्ष-प्राप्तिका वर्णन

श्लोक-१

मूलम् (वचनम्)

श्रीभगवानुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रकृतिस्थोऽपि पुरुषो नाज्यते प्राकृतैर्गुणैः।
अविकारादकर्तृत्वान्निर्गुणत्वाज्जलार्कवत्॥

मूलम्

प्रकृतिस्थोऽपि पुरुषो नाज्यते प्राकृतैर्गुणैः।
अविकारादकर्तृत्वान्निर्गुणत्वाज्जलार्कवत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीभगवान् कहते हैं—माताजी! जिस तरह जलमें प्रतिबिम्बित सूर्यके साथ जलके शीतलता, चंचलता आदि गुणोंका सम्बन्ध नहीं होता, उसी प्रकार प्रकृतिके कार्य शरीरमें स्थित रहनेपर भी आत्मा वास्तवमें उसके सुख-दुःखादि धर्मोंसे लिप्त नहीं होता; क्योंकि वह स्वभावसे निर्विकार, अकर्ता और निर्गुण है॥ १॥

श्लोक-२

विश्वास-प्रस्तुतिः

स एष यर्हि प्रकृतेर्गुणेष्वभिविषज्जते।
अहंक्रियाविमूढात्मा कर्तास्मीत्यभिमन्यते॥

मूलम्

स एष यर्हि प्रकृतेर्गुणेष्वभिविषज्जते।
अहंक्रियाविमूढात्मा कर्तास्मीत्यभिमन्यते॥

अनुवाद (हिन्दी)

किन्तु जब वही प्राकृत गुणोंसे अपना सम्बन्ध स्थापित कर लेता है, तब अहंकारसे मोहित होकर ‘मैं कर्ता हूँ’—ऐसा मानने लगता है॥ २॥

श्लोक-३

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेन संसारपदवीमवशोऽभ्येत्यनिर्वृतः।
प्रासङ्गिकैः कर्मदोषैः सदसन्मिश्रयोनिषु॥

मूलम्

तेन संसारपदवीमवशोऽभ्येत्यनिर्वृतः।
प्रासङ्गिकैः कर्मदोषैः सदसन्मिश्रयोनिषु॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस अभिमानके कारण वह देहके संसर्गसे किये हुए पुण्य-पापरूप कर्मोंके दोषसे अपनी स्वाधीनता और शान्ति खो बैठता है तथा उत्तम, मध्यम और नीच योनियोंमें उत्पन्न होकर संसारचक्रमें घूमता रहता है॥ ३॥

श्लोक-४

विश्वास-प्रस्तुतिः

अर्थे ह्यविद्यमानेऽपि संसृतिर्न निवर्तते।
ध्यायतो विषयानस्य स्वप्नेऽनर्थागमो यथा॥

मूलम्

अर्थे ह्यविद्यमानेऽपि संसृतिर्न निवर्तते।
ध्यायतो विषयानस्य स्वप्नेऽनर्थागमो यथा॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिस प्रकार स्वप्नमें भय-शोकादिका कोई कारण न होनेपर भी स्वप्नके पदार्थोंमें आस्था हो जानेके कारण दुःख उठाना पड़ता है, उसी प्रकार भय-शोक, अहं-मम एवं जन्म-मरणादिरूप संसारकी कोई सत्ता न होनेपर भी अविद्यावश विषयोंका चिन्तन करते रहनेसे जीवका संसार-चक्र कभी निवृत्त नहीं होता॥ ४॥

श्लोक-५

विश्वास-प्रस्तुतिः

अत एव शनैश्चित्तं प्रसक्तमसतां पथि।
भक्तियोगेन तीव्रेण विरक्त्या च नयेद्वशम्॥

मूलम्

अत एव शनैश्चित्तं प्रसक्तमसतां पथि।
भक्तियोगेन तीव्रेण विरक्त्या च नयेद्वशम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसलिये बुद्धिमान् मनुष्यको उचित है कि असन्मार्ग (विषय-चिन्तन) में फँसे हुए चित्तको तीव्र भक्तियोग और वैराग्यके द्वारा धीरे-धीरे अपने वशमें लावे॥ ५॥

श्लोक-६

विश्वास-प्रस्तुतिः

यमादिभिर्योगपथैरभ्यसन् श्रद्धयान्वितः।
मयि भावेन सत्येन मत्कथाश्रवणेन च॥

मूलम्

यमादिभिर्योगपथैरभ्यसन् श्रद्धयान्वितः।
मयि भावेन सत्येन मत्कथाश्रवणेन च॥

श्लोक-७

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वभूतसमत्वेन निर्वैरेणाप्रसङ्गतः।
ब्रह्मचर्येण मौनेन स्वधर्मेण बलीयसा॥

मूलम्

सर्वभूतसमत्वेन निर्वैरेणाप्रसङ्गतः।
ब्रह्मचर्येण मौनेन स्वधर्मेण बलीयसा॥

श्लोक-८

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदृच्छयोपलब्धेन सन्तुष्टो मितभुङ् मुनिः।
विविक्तशरणः शान्तो मैत्रः करुण आत्मवान्॥
श्लोक-९
सानुबन्धे च देहेऽस्मिन्नकुर्वन्नसदाग्रहम्।
ज्ञानेन दृष्टतत्त्वेन प्रकृतेः पुरुषस्य च॥

मूलम्

यदृच्छयोपलब्धेन सन्तुष्टो मितभुङ् मुनिः।
विविक्तशरणः शान्तो मैत्रः करुण आत्मवान्॥
श्लोक-९
सानुबन्धे च देहेऽस्मिन्नकुर्वन्नसदाग्रहम्।
ज्ञानेन दृष्टतत्त्वेन प्रकृतेः पुरुषस्य च॥

श्लोक-१०

विश्वास-प्रस्तुतिः

निवृत्तबुद्‍ध्यवस्थानो दूरीभूतान्यदर्शनः।
उपलभ्यात्मनाऽऽत्मानं चक्षुषेवार्कमात्मदृक्॥

मूलम्

निवृत्तबुद्‍ध्यवस्थानो दूरीभूतान्यदर्शनः।
उपलभ्यात्मनाऽऽत्मानं चक्षुषेवार्कमात्मदृक्॥

श्लोक-११

विश्वास-प्रस्तुतिः

मुक्तलिङ्गं सदाभासमसति प्रतिपद्यते।
सतो बन्धुमसच्चक्षुः सर्वानुस्यूतमद्वयम्॥

मूलम्

मुक्तलिङ्गं सदाभासमसति प्रतिपद्यते।
सतो बन्धुमसच्चक्षुः सर्वानुस्यूतमद्वयम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

यमादि योगसाधनोंके द्वारा श्रद्धापूर्वक अभ्यास—चित्तको बारंबार एकाग्र करते हुए मुझमें सच्चा भाव रखने, मेरी कथा श्रवण करने, समस्त प्राणियोंमें समभाव रखने, किसीसे वैर न करने, आसक्तिके त्याग, ब्रह्मचर्य, मौन-व्रत और बलिष्ठ (अर्थात् भगवान‍्को समर्पित किये हुए) स्वधर्मसे जिसे ऐसी स्थिति प्राप्त हो गयी है कि—प्रारब्धके अनुसार जो कुछ मिल जाता है उसीमें सन्तुष्ट रहता है, परिमित भोजन करता है, सदा एकान्तमें रहता है, शान्तस्वभाव है, सबका मित्र है, दयालु और धैर्यवान् है, प्रकृति और पुरुषके वास्तविक स्वरूपके अनुभवसे प्राप्त हुए तत्त्वज्ञानके कारण स्त्री-पुत्रादि सम्बन्धियोंके सहित इस देहमें मैं-मेरेपनका मिथ्या अभिनिवेश नहीं करता, बुद्धिकी जाग्रदादि अवस्थाओंसे भी अलग हो गया है तथा परमात्माके सिवा और कोई वस्तु नहीं देखता—वह आत्मदर्शी मुनि नेत्रोंसे सूर्यको देखनेकी भाँति अपने शुद्ध अन्तःकरणद्वारा परमात्माका साक्षात्कार कर उस अद्वितीय ब्रह्मपदको प्राप्त हो जाता है, जो देहादि सम्पूर्ण उपाधियोंसे पृथक्, अहंकारादि मिथ्या वस्तुओंमें सत्यरूपसे भासनेवाला, जगत्कारणभूता प्रकृतिका अधिष्ठान, महदादि कार्य-वर्गका प्रकाशक और कार्य-कारणरूप सम्पूर्ण पदार्थोंमें व्याप्त है॥ ६—११॥

श्लोक-१२

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथा जलस्थ आभासः स्थलस्थेनावदृश्यते।
स्वाभासेन तथा सूर्यो जलस्थेन दिवि स्थितः॥

मूलम्

यथा जलस्थ आभासः स्थलस्थेनावदृश्यते।
स्वाभासेन तथा सूर्यो जलस्थेन दिवि स्थितः॥

श्लोक-१३

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं त्रिवृदहङ्कारो भूतेन्द्रियमनोमयैः।
स्वाभासैर्लक्षितोऽनेन सदाभासेन सत्यदृक्॥

मूलम्

एवं त्रिवृदहङ्कारो भूतेन्द्रियमनोमयैः।
स्वाभासैर्लक्षितोऽनेन सदाभासेन सत्यदृक्॥

श्लोक-१४

विश्वास-प्रस्तुतिः

भूतसूक्ष्मेन्द्रियमनोबुद्‍ध्यादिष्विह निद्रया।
लीनेष्वसति यस्तत्र विनिद्रो निरहंक्रियः॥

मूलम्

भूतसूक्ष्मेन्द्रियमनोबुद्‍ध्यादिष्विह निद्रया।
लीनेष्वसति यस्तत्र विनिद्रो निरहंक्रियः॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिस प्रकार जलमें पड़ा हुआ सूर्यका प्रतिबिम्ब दीवालपर पड़े हुए अपने आभासके सम्बन्धसे देखा जाता है और जलमें दीखनेवाले प्रतिबिम्बसे आकाशस्थित सूर्यका ज्ञान होता है, उसी प्रकार वैकारिक आदि भेदसे तीन प्रकारका अहङ्कार देह, इन्द्रिय और मनमें स्थित अपने प्रतिबिम्बोंसे लक्षित होता है और फिर सत् परमात्माके प्रतिबिम्बयुक्त उस अहङ्कारके द्वारा सत्यज्ञानस्वरूप परमात्माका दर्शन होता है—जो सुषुप्तिके समय निद्रासे शब्दादि भूतसूक्ष्म, इन्द्रिय और मनबुद्धि आदिके अव्याकृतमें लीन हो जानेपर स्वयं जागता रहता है और सर्वथा अहंकारशून्य है॥ १२—१४॥

श्लोक-१५

विश्वास-प्रस्तुतिः

मन्यमानस्तदाऽऽत्मानमनष्टो नष्टवन्मृषा।
नष्टेऽहङ्करणे द्रष्टा नष्टवित्त इवातुरः॥

मूलम्

मन्यमानस्तदाऽऽत्मानमनष्टो नष्टवन्मृषा।
नष्टेऽहङ्करणे द्रष्टा नष्टवित्त इवातुरः॥

अनुवाद (हिन्दी)

(जाग्रत्-अवस्थामें यह आत्मा भूत-सूक्ष्मादि दृश्यवर्गके द्रष्टारूपमें स्पष्टतया अनुभवमें आता है; किन्तु) सुषुप्तिके समय अपने उपाधिभूत अहंकारका नाश होनेसे वह भ्रमवश अपनेको ही नष्ट हुआ मान लेता है और जिस प्रकार धनका नाश हो जानेपर मनुष्य अपनेको भी नष्ट हुआ मानकर अत्यन्त व्याकुल हो जाता है, उसी प्रकार वह भी अत्यन्त विवश होकर नष्टवत् हो जाता है॥ १५॥

श्लोक-१६

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं प्रत्यवमृश्यासावात्मानं प्रतिपद्यते।
साहङ्कारस्य द्रव्यस्य योऽवस्थानमनुग्रहः॥

मूलम्

एवं प्रत्यवमृश्यासावात्मानं प्रतिपद्यते।
साहङ्कारस्य द्रव्यस्य योऽवस्थानमनुग्रहः॥

अनुवाद (हिन्दी)

माताजी! इन सब बातोंका मनन करके विवेकी पुरुष अपने आत्माका अनुभव कर लेता है, जो अहंकारके सहित सम्पूर्ण तत्त्वोंका अधिष्ठान और प्रकाशक है॥ १६॥

श्लोक-१७

मूलम् (वचनम्)

देवहूतिरुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुरुषं प्रकृतिर्ब्रह्मन्न विमुञ्चति कर्हिचित्।
अन्योन्यापाश्रयत्वाच्च नित्यत्वादनयोः प्रभो॥

मूलम्

पुरुषं प्रकृतिर्ब्रह्मन्न विमुञ्चति कर्हिचित्।
अन्योन्यापाश्रयत्वाच्च नित्यत्वादनयोः प्रभो॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवहूतिने पूछा—प्रभो! पुरुष और प्रकृति दोनों ही नित्य और एक-दूसरेके आश्रयसे रहनेवाले हैं, इसलिये प्रकृति तो पुरुषको कभी छोड़ ही नहीं सकती॥ १७॥

श्लोक-१८

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथा गन्धस्य भूमेश्च न भावो व्यतिरेकतः।
अपां रसस्य च यथा तथा बुद्धेः परस्य च॥

मूलम्

यथा गन्धस्य भूमेश्च न भावो व्यतिरेकतः।
अपां रसस्य च यथा तथा बुद्धेः परस्य च॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्रह्मन्! जिस प्रकार गन्ध और पृथ्वी तथा रस और जलकी पृथक्-पृथक् स्थिति नहीं हो सकती, उसी प्रकार पुरुष और प्रकृति भी एक-दूसरेको छोड़कर नहीं रह सकते॥ १८॥

श्लोक-१९

विश्वास-प्रस्तुतिः

अकर्तुः कर्मबन्धोऽयं पुरुषस्य यदाश्रयः।
गुणेषु सत्सु प्रकृतेः कैवल्यं तेष्वतः कथम्॥

मूलम्

अकर्तुः कर्मबन्धोऽयं पुरुषस्य यदाश्रयः।
गुणेषु सत्सु प्रकृतेः कैवल्यं तेष्वतः कथम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

अतः जिनके आश्रयसे अकर्ता पुरुषको यह कर्मबन्धन प्राप्त हुआ है, उन प्रकृतिके गुणोंके रहते हुए उसे कैवल्यपद कैसे प्राप्त होगा?॥ १९॥

श्लोक-२०

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्वचित् तत्त्वावमर्शेन निवृत्तं भयमुल्बणम्।
अनिवृत्तनिमित्तत्वात्पुनः प्रत्यवतिष्ठते॥

मूलम्

क्वचित् तत्त्वावमर्शेन निवृत्तं भयमुल्बणम्।
अनिवृत्तनिमित्तत्वात्पुनः प्रत्यवतिष्ठते॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदि तत्त्वोंका विचार करनेसे कभी यह संसारबन्धनका तीव्र भय निवृत्त हो भी जाय, तो भी उसके निमित्तभूत प्राकृत गुणोंका अभाव न होनेसे वह भय फिर उपस्थित हो सकता है॥ २०॥

श्लोक-२१

मूलम् (वचनम्)

श्रीभगवानुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनिमित्तनिमित्तेन स्वधर्मेणामलात्मना।
तीव्रया मयि भक्त्या च श्रुतसम्भृतया चिरम्॥

मूलम्

अनिमित्तनिमित्तेन स्वधर्मेणामलात्मना।
तीव्रया मयि भक्त्या च श्रुतसम्भृतया चिरम्॥

श्लोक-२२

विश्वास-प्रस्तुतिः

ज्ञानेन दृष्टतत्त्वेन वैराग्येण बलीयसा।
तपोयुक्तेन योगेन तीव्रेणात्मसमाधिना॥

मूलम्

ज्ञानेन दृष्टतत्त्वेन वैराग्येण बलीयसा।
तपोयुक्तेन योगेन तीव्रेणात्मसमाधिना॥

श्लोक-२३

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रकृतिः पुरुषस्येह दह्यमाना त्वहर्निशम्।
तिरोभवित्री शनकैरग्नेर्योनिरिवारणिः॥

मूलम्

प्रकृतिः पुरुषस्येह दह्यमाना त्वहर्निशम्।
तिरोभवित्री शनकैरग्नेर्योनिरिवारणिः॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीभगवान‍्ने कहा—माताजी! जिस प्रकार अग्निका उत्पत्तिस्थान अरणि अपनेसे ही उत्पन्न अग्निसे जलकर भस्म हो जाती है, उसी प्रकार निष्कामभावसे किये हुए स्वधर्मपालनद्वारा अन्तःकरण शुद्ध होनेसे बहुत समयतक भगवत्कथा-श्रवणद्वारा पुष्ट हुई मेरी तीव्र भक्तिसे, तत्त्वसाक्षात्कार करानेवाले ज्ञानसे, प्रबल वैराग्यसे, व्रतनियमादिके सहित किये हुए ध्यानाभ्याससे और चित्तकी प्रगाढ़ एकाग्रतासे पुरुषकी प्रकृति (अविद्या) दिन-रात क्षीण होती हुई धीरे-धीरे लीन हो जाती है॥ २१—२३॥

श्लोक-२४

विश्वास-प्रस्तुतिः

भुक्तभोगा परित्यक्ता दृष्टदोषा च नित्यशः।
नेश्वरस्याशुभं धत्ते स्वे महिम्नि स्थितस्य च॥

मूलम्

भुक्तभोगा परित्यक्ता दृष्टदोषा च नित्यशः।
नेश्वरस्याशुभं धत्ते स्वे महिम्नि स्थितस्य च॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर नित्यप्रति दोष दीखनेसे भोगकर त्यागी हुई वह प्रकृति अपने स्वरूपमें स्थित और स्वतन्त्र (बन्धनमुक्त) हुए उस पुरुषका कुछ भी नहीं बिगाड़ सकती॥ २४॥

श्लोक-२५

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथा ह्यप्रतिबुद्धस्य प्रस्वापो बह्वनर्थभृत्।
स एव प्रतिबुद्धस्य न वै मोहाय कल्पते॥

मूलम्

यथा ह्यप्रतिबुद्धस्य प्रस्वापो बह्वनर्थभृत्।
स एव प्रतिबुद्धस्य न वै मोहाय कल्पते॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे सोये हुए पुरुषको स्वप्नमें कितने ही अनर्थोंका अनुभव करना पड़ता है, किन्तु जग पड़नेपर उसे उन स्वप्नके अनुभवोंसे किसी प्रकारका मोह नहीं होता॥ २५॥

श्लोक-२६

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं विदिततत्त्वस्य प्रकृतिर्मयि मानसम्।
युञ्जतो नापकुरुत आत्मारामस्य कर्हिचित्॥

मूलम्

एवं विदिततत्त्वस्य प्रकृतिर्मयि मानसम्।
युञ्जतो नापकुरुत आत्मारामस्य कर्हिचित्॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसी प्रकार जिसे तत्त्वज्ञान हो गया है और जो निरन्तर मुझमें ही मन लगाये रहता है, उस आत्माराम मुनिका प्रकृति कुछ भी नहीं बिगाड़ सकती॥ २६॥

श्लोक-२७

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदैवमध्यात्मरतः कालेन बहुजन्मना।
सर्वत्र जातवैराग्य आब्रह्मभुवनान्मुनिः॥

मूलम्

यदैवमध्यात्मरतः कालेन बहुजन्मना।
सर्वत्र जातवैराग्य आब्रह्मभुवनान्मुनिः॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब मनुष्य अनेकों जन्मोंमें बहुत समयतक इस प्रकार आत्मचिन्तनमें ही निमग्न रहता है, तब उसे ब्रह्मलोक-पर्यन्त सभी प्रकारके भोगोंसे वैराग्य हो जाता है॥ २७॥

श्लोक-२८

विश्वास-प्रस्तुतिः

मद‍्भक्तः प्रतिबुद्धार्थो मत्प्रसादेन भूयसा।
निःश्रेयसं स्वसंस्थानं कैवल्याख्यं मदाश्रयम्॥

मूलम्

मद‍्भक्तः प्रतिबुद्धार्थो मत्प्रसादेन भूयसा।
निःश्रेयसं स्वसंस्थानं कैवल्याख्यं मदाश्रयम्॥

श्लोक-२९

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्राप्नोतीहाञ्जसा धीरः स्वदृशा छिन्नसंशयः।
यद‍्गत्वा न निवर्तेत योगी लिङ्गाद्विनिर्गमे॥

मूलम्

प्राप्नोतीहाञ्जसा धीरः स्वदृशा छिन्नसंशयः।
यद‍्गत्वा न निवर्तेत योगी लिङ्गाद्विनिर्गमे॥

अनुवाद (हिन्दी)

मेरा वह धैर्यवान् भक्त मेरी ही महती कृपासे तत्त्वज्ञान प्राप्त करके आत्मानुभवके द्वारा सारे संशयोंसे मुक्त हो जाता है और फिर लिंगदेहका नाश होनेपर एकमात्र मेरे ही आश्रित अपने स्वरूपभूत कैवल्यसंज्ञक मंगलमय पदको सहजमें ही प्राप्त कर लेता है, जहाँ पहुँचनेपर योगी फिर लौटकर नहीं आता॥ २८-२९॥

श्लोक-३०

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदा न योगोपचितासु चेतो
मायासु सिद्धस्य विषज्जतेऽङ्ग।
अनन्यहेतुष्वथ मे गतिः स्याद्
आत्यन्तिकी यत्र न मृत्युहासः॥

मूलम्

यदा न योगोपचितासु चेतो
मायासु सिद्धस्य विषज्जतेऽङ्ग।
अनन्यहेतुष्वथ मे गतिः स्याद्
आत्यन्तिकी यत्र न मृत्युहासः॥

अनुवाद (हिन्दी)

माताजी! यदि योगीका चित्त योगसाधनासे बढ़ी हुई मायामयी अणिमादि सिद्धियोंमें, जिनकी प्राप्तिका योगके सिवा दूसरा कोई साधन नहीं है, नहीं फँसता, तो उसे मेरा वह अविनाशी परमपद प्राप्त होता है—जहाँ मृत्युकी कुछ भी दाल नहीं गलती॥ ३०॥

अनुवाद (समाप्ति)

इति श्रीमद‍्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां तृतीयस्कन्धे कापिलेयोपाख्याने सप्तविंशोऽध्यायः॥ २७॥