[चतुर्विंशोऽध्यायः]
भागसूचना
श्रीकपिलदेवजीका जन्म
श्लोक-१
मूलम् (वचनम्)
मैत्रेय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
निर्वेदवादिनीमेवं मनोर्दुहितरं मुनिः।
दयालुः शालिनीमाह शुक्लाभिव्याहृतं स्मरन्॥
मूलम्
निर्वेदवादिनीमेवं मनोर्दुहितरं मुनिः।
दयालुः शालिनीमाह शुक्लाभिव्याहृतं स्मरन्॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीमैत्रेयजी कहते हैं—उत्तम गुणोंसे सुशोभित मनुकुमारी देवहूतिने जब ऐसी वैराग्ययुक्त बातें कहीं, तब कृपालु कर्दम मुनिको भगवान् विष्णुके कथनका स्मरण हो आया और उन्होंने उससे कहा॥ १॥
श्लोक-२
मूलम् (वचनम्)
ऋषिरुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
मा खिदो राजपुत्रीत्थमात्मानं प्रत्यनिन्दिते।
भगवांस्तेऽक्षरो गर्भमदूरात्सम्प्रपत्स्यते॥
मूलम्
मा खिदो राजपुत्रीत्थमात्मानं प्रत्यनिन्दिते।
भगवांस्तेऽक्षरो गर्भमदूरात्सम्प्रपत्स्यते॥
अनुवाद (हिन्दी)
कर्दमजी बोले—दोषरहित राजकुमारी! तुम अपने विषयमें इस प्रकार खेद न करो; तुम्हारे गर्भमें अविनाशी भगवान् विष्णु शीघ्र ही पधारेंगे॥ २॥
श्लोक-३
विश्वास-प्रस्तुतिः
धृतव्रतासि भद्रं ते दमेन नियमेन च।
तपोद्रविणदानैश्च श्रद्धया चेश्वरं भज॥
मूलम्
धृतव्रतासि भद्रं ते दमेन नियमेन च।
तपोद्रविणदानैश्च श्रद्धया चेश्वरं भज॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रिये! तुमने अनेक प्रकारके व्रतोंका पालन किया है, अतः तुम्हारा कल्याण होगा। अब तुम संयम, नियम, तप और दानादि करती हुई श्रद्धापूर्वक भगवान्का भजन करो॥ ३॥
श्लोक-४
विश्वास-प्रस्तुतिः
स त्वयाऽऽराधितः शुक्लो वितन्वन्मामकं यशः।
छेत्ता ते हृदयग्रन्थिमौदर्यो ब्रह्मभावनः॥
मूलम्
स त्वयाऽऽराधितः शुक्लो वितन्वन्मामकं यशः।
छेत्ता ते हृदयग्रन्थिमौदर्यो ब्रह्मभावनः॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार आराधना करनेपर श्रीहरि तुम्हारे गर्भसे अवतीर्ण होकर मेरा यश बढ़ावेंगे और ब्रह्मज्ञानका उपदेश करके तुम्हारे हृदयकी अहंकारमयी ग्रन्थिका छेदन करेंगे॥ ४॥
श्लोक-५
मूलम् (वचनम्)
मैत्रेय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
देवहूत्यपि संदेशं गौरवेण प्रजापतेः।
सम्यक् श्रद्धाय पुरुषं कूटस्थमभजद्गुरुम्॥
मूलम्
देवहूत्यपि संदेशं गौरवेण प्रजापतेः।
सम्यक् श्रद्धाय पुरुषं कूटस्थमभजद्गुरुम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीमैत्रेयजी कहते हैं—विदुरजी! प्रजापति कर्दमके आदेशमें गौरव-बुद्धि होनेसे देवहूतिने उसपर पूर्ण विश्वास किया और वह निर्विकार, जगद्गुरु भगवान् श्रीपुरुषोत्तमकी आराधना करने लगी॥ ५॥
श्लोक-६
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्यां बहुतिथे काले भगवान्मधुसूदनः।
कार्दमं वीर्यमापन्नो जज्ञेऽग्निरिव दारुणि॥
मूलम्
तस्यां बहुतिथे काले भगवान्मधुसूदनः।
कार्दमं वीर्यमापन्नो जज्ञेऽग्निरिव दारुणि॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार बहुत समय बीत जानेपर भगवान् मधुसूदन कर्दमजीके वीर्यका आश्रय ले उसके गर्भसे इस प्रकार प्रकट हुए , जैसे काष्ठमेंसे अग्नि॥ ६॥
श्लोक-७
विश्वास-प्रस्तुतिः
अवादयंस्तदा व्योम्नि वादित्राणि घनाघनाः।
गायन्ति तं स्म गन्धर्वा नृत्यन्त्यप्सरसो मुदा॥
मूलम्
अवादयंस्तदा व्योम्नि वादित्राणि घनाघनाः।
गायन्ति तं स्म गन्धर्वा नृत्यन्त्यप्सरसो मुदा॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय आकाशमें मेघ जल बरसाते हुए गरज-गरजकर बाजे बजाने लगे, गन्धर्वगण गान करने लगे और अप्सराएँ आनन्दित होकर नाचने लगीं॥ ७॥
श्लोक-८
विश्वास-प्रस्तुतिः
पेतुः सुमनसो दिव्याः खेचरैरपवर्जिताः।
प्रसेदुश्च दिशः सर्वा अम्भांसि च मनांसि च॥
मूलम्
पेतुः सुमनसो दिव्याः खेचरैरपवर्जिताः।
प्रसेदुश्च दिशः सर्वा अम्भांसि च मनांसि च॥
अनुवाद (हिन्दी)
आकाशसे देवताओंके बरसाये हुए दिव्य पुष्पोंकी वर्षा होने लगी; सब दिशाओंमें आनन्द छा गया, जलाशयोंका जल निर्मल हो गया और सभी जीवोंके मन प्रसन्न हो गये॥ ८॥
श्लोक-९
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्कर्दमाश्रमपदं सरस्वत्या परिश्रितम्।
स्वयम्भूः साकमृषिभिर्मरीच्यादिभिरभ्ययात्॥
मूलम्
तत्कर्दमाश्रमपदं सरस्वत्या परिश्रितम्।
स्वयम्भूः साकमृषिभिर्मरीच्यादिभिरभ्ययात्॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसी समय सरस्वती नदीसे घिरे हुए कर्दमजीके उस आश्रममें मरीचि आदि मुनियोंके सहित श्रीब्रह्माजी आये॥ ९॥
श्लोक-१०
विश्वास-प्रस्तुतिः
भगवन्तं परं ब्रह्म सत्त्वेनांशेन शत्रुहन्।
तत्त्वसंख्यानविज्ञप्त्यै जातं विद्वानजः स्वराट्॥
मूलम्
भगवन्तं परं ब्रह्म सत्त्वेनांशेन शत्रुहन्।
तत्त्वसंख्यानविज्ञप्त्यै जातं विद्वानजः स्वराट्॥
अनुवाद (हिन्दी)
शत्रुदमन विदुरजी! स्वतःसिद्ध ज्ञानसे सम्पन्न अजन्मा ब्रह्माजीको यह मालूम हो गया था कि साक्षात् परब्रह्म भगवान् विष्णु सांख्यशास्त्रका उपदेश करनेके लिये अपने विशुद्ध सत्त्वमय अंशसे अवतीर्ण हुए हैं॥ १०॥
श्लोक-११
विश्वास-प्रस्तुतिः
सभाजयन् विशुद्धेन चेतसा तच्चिकीर्षितम्।
प्रहृष्यमाणैरसुभिः कर्दमं चेदमभ्यधात्॥
मूलम्
सभाजयन् विशुद्धेन चेतसा तच्चिकीर्षितम्।
प्रहृष्यमाणैरसुभिः कर्दमं चेदमभ्यधात्॥
अनुवाद (हिन्दी)
अतः भगवान् जिस कार्यको करना चाहते थे, उसका उन्होंने विशुद्ध चित्तसे अनुमोदन एवं आदर किया और अपनी सम्पूर्ण इन्द्रियोंसे प्रसन्नता प्रकट करते हुए कर्दमजीसे इस प्रकार कहा॥ ११॥
श्लोक-१२
मूलम् (वचनम्)
ब्रह्मोवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वया मेऽपचितिस्तात कल्पिता निर्व्यलीकतः।
यन्मे सञ्जगृहे वाक्यं भवान्मानद मानयन्॥
मूलम्
त्वया मेऽपचितिस्तात कल्पिता निर्व्यलीकतः।
यन्मे सञ्जगृहे वाक्यं भवान्मानद मानयन्॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीब्रह्माजीने कहा—प्रिय कर्दम! तुम दूसरोंको मान देनेवाले हो। तुमने मेरा सम्मान करते हुए जो मेरी आज्ञाका पालन किया है, इससे तुम्हारे द्वारा निष्कपट-भावसे मेरी पूजा सम्पन्न हुई है॥ १२॥
श्लोक-१३
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतावत्येव शुश्रूषा कार्या पितरि पुत्रकैः।
बाढमित्यनुमन्येत गौरवेण गुरोर्वचः॥
मूलम्
एतावत्येव शुश्रूषा कार्या पितरि पुत्रकैः।
बाढमित्यनुमन्येत गौरवेण गुरोर्वचः॥
अनुवाद (हिन्दी)
पुत्रोंको अपने पिताकी सबसे बड़ी सेवा यही करनी चाहिये कि ‘जो आज्ञा’ ऐसा कहकर आदरपूर्वक उनके आदेशको स्वीकार करें॥ १३॥
श्लोक-१४
विश्वास-प्रस्तुतिः
इमा दुहितरः सभ्य तव वत्स सुमध्यमाः।
सर्गमेतं प्रभावैः स्वैर्बृंहयिष्यन्त्यनेकधा॥
मूलम्
इमा दुहितरः सभ्य तव वत्स सुमध्यमाः।
सर्गमेतं प्रभावैः स्वैर्बृंहयिष्यन्त्यनेकधा॥
अनुवाद (हिन्दी)
बेटा! तुम सभ्य हो, तुम्हारी ये सुन्दरी कन्याएँ अपने वंशोंद्वारा इस सृष्टिको अनेक प्रकारसे बढ़ावेंगी॥ १४॥
श्लोक-१५
विश्वास-प्रस्तुतिः
अतस्त्वमृषिमुख्येभ्यो यथाशीलं यथारुचि।
आत्मजाः परिदेह्यद्य विस्तृणीहि यशो भुवि॥
मूलम्
अतस्त्वमृषिमुख्येभ्यो यथाशीलं यथारुचि।
आत्मजाः परिदेह्यद्य विस्तृणीहि यशो भुवि॥
अनुवाद (हिन्दी)
अब तुम इन मरीचि आदि मुनिवरोंको इनके स्वभाव और रुचिके अनुसार अपनी कन्याएँ समर्पित करो और संसारमें अपना सुयश फैलाओ॥ १५॥
श्लोक-१६
विश्वास-प्रस्तुतिः
वेदाहमाद्यं पुरुषमवतीर्णं स्वमायया।
भूतानां शेवधिं देहं बिभ्राणं कपिलं मुने॥
मूलम्
वेदाहमाद्यं पुरुषमवतीर्णं स्वमायया।
भूतानां शेवधिं देहं बिभ्राणं कपिलं मुने॥
अनुवाद (हिन्दी)
मुने! मैं जानता हूँ, जो सम्पूर्ण प्राणियोंकी निधि हैं—उनके अभीष्ट मनोरथ पूर्ण करनेवाले हैं, वे आदिपुरुष श्रीनारायण ही अपनी योगमायासे कपिलके रूपमें अवतीर्ण हुए हैं॥ १६॥
श्लोक-१७
विश्वास-प्रस्तुतिः
ज्ञानविज्ञानयोगेन कर्मणामुद्धरन् जटाः।
हिरण्यकेशः पद्माक्षः पद्ममुद्रापदाम्बुजः॥
मूलम्
ज्ञानविज्ञानयोगेन कर्मणामुद्धरन् जटाः।
हिरण्यकेशः पद्माक्षः पद्ममुद्रापदाम्बुजः॥
श्लोक-१८
विश्वास-प्रस्तुतिः
एष मानवि ते गर्भं प्रविष्टः कैटभार्दनः।
अविद्यासंशयग्रन्थिं छित्त्वा गां विचरिष्यति॥
मूलम्
एष मानवि ते गर्भं प्रविष्टः कैटभार्दनः।
अविद्यासंशयग्रन्थिं छित्त्वा गां विचरिष्यति॥
अनुवाद (हिन्दी)
[फिर देवहूतिसे बोले—] राजकुमारी! सुनहरे बाल, कमल-जैसे विशाल नेत्र और कमलांकित चरणकमलोंवाले शिशुके रूपमें कैटभासुरको मारनेवाले साक्षात् श्रीहरिने ही, ज्ञान-विज्ञानद्वारा कर्मोंकी वासनाओंका मूलोच्छेदन करनेके लिये, तेरे गर्भमें प्रवेश किया है। ये अविद्याजनित मोहकी ग्रन्थियोंको काटकर पृथ्वीमें स्वच्छन्द विचरेंगे॥ १७-१८॥
श्लोक-१९
विश्वास-प्रस्तुतिः
अयं सिद्धगणाधीशः साङ्ख्याचार्यैः सुसम्मतः।
लोके कपिल इत्याख्यां गन्ता ते कीर्तिवर्धनः॥
मूलम्
अयं सिद्धगणाधीशः साङ्ख्याचार्यैः सुसम्मतः।
लोके कपिल इत्याख्यां गन्ता ते कीर्तिवर्धनः॥
अनुवाद (हिन्दी)
ये सिद्धगणोंके स्वामी और सांख्याचार्योंके भी माननीय होंगे। लोकमें तेरी कीर्तिका विस्तार करेंगे और ‘कपिल’ नामसे विख्यात होंगे॥ १९॥
श्लोक-२०
मूलम् (वचनम्)
मैत्रेय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
तावाश्वास्य जगत्स्रष्टा कुमारैः सहनारदः।
हंसो हंसेन यानेन त्रिधामपरमं ययौ॥
मूलम्
तावाश्वास्य जगत्स्रष्टा कुमारैः सहनारदः।
हंसो हंसेन यानेन त्रिधामपरमं ययौ॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीमैत्रेयजी कहते हैं—विदुरजी! जगत्की सृष्टि करनेवाले ब्रह्माजी उन दोनोंको इस प्रकार आश्वासन देकर नारद और सनकादिको साथ ले, हंसपर चढ़कर ब्रह्मलोकको चले गये॥ २०॥
श्लोक-२१
विश्वास-प्रस्तुतिः
गते शतधृतौ क्षत्तः कर्दमस्तेन चोदितः।
यथोदितं स्वदुहितॄः प्रादाद्विश्वसृजां ततः॥
मूलम्
गते शतधृतौ क्षत्तः कर्दमस्तेन चोदितः।
यथोदितं स्वदुहितॄः प्रादाद्विश्वसृजां ततः॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्रह्माजीके चले जानेपर कर्दमजीने उनके आज्ञानुसार मरीचि आदि प्रजापतियोंके साथ अपनी कन्याओंका विधिपूर्वक विवाह कर दिया॥ २१॥
श्लोक-२२
विश्वास-प्रस्तुतिः
मरीचये कलां प्रादादनसूयामथात्रये।
श्रद्धामङ्गिरसेऽयच्छत्पुलस्त्याय हविर्भुवम्॥
मूलम्
मरीचये कलां प्रादादनसूयामथात्रये।
श्रद्धामङ्गिरसेऽयच्छत्पुलस्त्याय हविर्भुवम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन्होंने अपनी कला नामकी कन्या मरीचिको, अनसूया अत्रिको, श्रद्धा अंगिराको और हविर्भू पुलस्त्यको समर्पित की॥ २२॥
श्लोक-२३
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुलहाय गतिं युक्तां क्रतवे च क्रियां सतीम्।
ख्यातिं च भृगवेऽयच्छद्वसिष्ठायाप्यरुन्धतीम्॥
मूलम्
पुलहाय गतिं युक्तां क्रतवे च क्रियां सतीम्।
ख्यातिं च भृगवेऽयच्छद्वसिष्ठायाप्यरुन्धतीम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
पुलहको उनके अनुरूप गति नामकी कन्या दी, क्रतुके साथ परम साध्वी क्रियाका विवाह किया, भृगुजीको ख्याति और वसिष्ठजीको अरुन्धती समर्पित की॥ २३॥
श्लोक-२४
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथर्वणेऽददाच्छान्तिं यया यज्ञो वितन्यते।
विप्रर्षभान् कृतोद्वाहान् सदारान् समलालयत्॥
मूलम्
अथर्वणेऽददाच्छान्तिं यया यज्ञो वितन्यते।
विप्रर्षभान् कृतोद्वाहान् सदारान् समलालयत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
अथर्वा ऋषिको शान्ति नामकी कन्या दी, जिससे यज्ञकर्मका विस्तार किया जाता है। कर्दमजीने उन विवाहित ऋषियोंका उनकी पत्नियोंके सहित खूब सत्कार किया॥ २४॥
श्लोक-२५
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्त ऋषयः क्षत्तः कृतदारा निमन्त्र्य तम्।
प्रातिष्ठन्नन्दिमापन्नाः स्वं स्वमाश्रममण्डलम्॥
मूलम्
ततस्त ऋषयः क्षत्तः कृतदारा निमन्त्र्य तम्।
प्रातिष्ठन्नन्दिमापन्नाः स्वं स्वमाश्रममण्डलम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
विदुरजी! इस प्रकार विवाह हो जानेपर वे सब ऋषि कर्दमजीकी आज्ञा ले अति आनन्दपूर्वक अपने-अपने आश्रमोंको चले गये॥ २५॥
श्लोक-२६
विश्वास-प्रस्तुतिः
स चावतीर्णं त्रियुगमाज्ञाय विबुधर्षभम्।
विविक्त उपसङ्गम्य प्रणम्य समभाषत॥
मूलम्
स चावतीर्णं त्रियुगमाज्ञाय विबुधर्षभम्।
विविक्त उपसङ्गम्य प्रणम्य समभाषत॥
अनुवाद (हिन्दी)
कर्दमजीने देखा कि उनके यहाँ साक्षात् देवाधिदेव श्रीहरिने ही अवतार लिया है तो वे एकान्तमें उनके पास गये और उन्हें प्रणाम करके इस प्रकार कहने लगे॥ २६॥
श्लोक-२७
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहो पापच्यमानानां निरये स्वैरमङ्गलैः।
कालेन भूयसा नूनं प्रसीदन्तीह देवताः॥
मूलम्
अहो पापच्यमानानां निरये स्वैरमङ्गलैः।
कालेन भूयसा नूनं प्रसीदन्तीह देवताः॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘अहो! अपने पापकर्मोंके कारण इस दुःखमय संसारमें नाना प्रकारसे पीडित होते हुए पुरुषोंपर देवगण तो बहुत काल बीतनेपर प्रसन्न होते हैं॥ २७॥
श्लोक-२८
विश्वास-प्रस्तुतिः
बहुजन्मविपक्वेन सम्यग्योगसमाधिना।
द्रष्टुं यतन्ते यतयः शून्यागारेषु यत्पदम्॥
मूलम्
बहुजन्मविपक्वेन सम्यग्योगसमाधिना।
द्रष्टुं यतन्ते यतयः शून्यागारेषु यत्पदम्॥
श्लोक-२९
विश्वास-प्रस्तुतिः
स एव भगवानद्य हेलनं नगणय्य नः।
गृहेषु जातो ग्राम्याणां यः स्वानां पक्षपोषणः॥
मूलम्
स एव भगवानद्य हेलनं नगणय्य नः।
गृहेषु जातो ग्राम्याणां यः स्वानां पक्षपोषणः॥
अनुवाद (हिन्दी)
किन्तु जिनके स्वरूपको योगिजन अनेकों जन्मोंके साधनसे सिद्ध हुई सुदृढ़ समाधिके द्वारा एकान्तमें देखनेका प्रयत्न करते हैं, अपने भक्तोंकी रक्षा करनेवाले वे ही श्रीहरि हम विषयलोलुपोंके द्वारा होनेवाली अपनी अवज्ञाका कुछ भी विचार न कर आज हमारे घर अवतीर्ण हुए हैं॥ २८-२९॥
श्लोक-३०
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वीयं वाक्यमृतं कर्तुमवतीर्णोऽसि मे गृहे।
चिकीर्षुर्भगवान् ज्ञानं भक्तानां मानवर्धनः॥
मूलम्
स्वीयं वाक्यमृतं कर्तुमवतीर्णोऽसि मे गृहे।
चिकीर्षुर्भगवान् ज्ञानं भक्तानां मानवर्धनः॥
अनुवाद (हिन्दी)
आप वास्तवमें अपने भक्तोंका मान बढ़ानेवाले हैं। आपने अपने वचनोंको सत्य करने और सांख्ययोगका उपदेश करनेके लिये ही मेरे यहाँ अवतार लिया है॥ ३०॥
श्लोक-३१
विश्वास-प्रस्तुतिः
तान्येव तेऽभिरूपाणि रूपाणि भगवंस्तव।
यानि यानि च रोचन्ते स्वजनानामरूपिणः॥
मूलम्
तान्येव तेऽभिरूपाणि रूपाणि भगवंस्तव।
यानि यानि च रोचन्ते स्वजनानामरूपिणः॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवन्! आप प्राकृतरूपसे रहित हैं, आपके जो चतुर्भुज आदि अलौकिक रूप हैं वे ही आपके योग्य हैं तथा जो मनुष्य-सदृश रूप आपके भक्तोंको प्रिय लगते हैं, वे भी आपको रुचिकर प्रतीत होते हैं॥ ३१॥
श्लोक-३२
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वां सूरिभिस्तत्त्वबुभुत्सयाद्धा
सदाभिवादार्हणपादपीठम्।
ऐश्वर्यवैराग्ययशोऽवबोध-
वीर्यश्रिया पूर्त्तमहं प्रपद्ये॥
मूलम्
त्वां सूरिभिस्तत्त्वबुभुत्सयाद्धा
सदाभिवादार्हणपादपीठम्।
ऐश्वर्यवैराग्ययशोऽवबोध-
वीर्यश्रिया पूर्त्तमहं प्रपद्ये॥
अनुवाद (हिन्दी)
आपका पाद-पीठ तत्त्वज्ञानकी इच्छासे विद्वानोंद्वारा सर्वदा वन्दनीय है तथा आप ऐश्वर्य, वैराग्य, यश, ज्ञान, वीर्य और श्री—इन छहों ऐश्वर्योंसे पूर्ण हैं। मैं आपकी शरणमें हूँ॥ ३२॥
श्लोक-३३
विश्वास-प्रस्तुतिः
परं प्रधानं पुरुषं महान्तं
कालं कविं त्रिवृतं लोकपालम्।
आत्मानुभूत्यानुगतप्रपञ्चं
स्वच्छन्दशक्तिं कपिलं प्रपद्ये॥
मूलम्
परं प्रधानं पुरुषं महान्तं
कालं कविं त्रिवृतं लोकपालम्।
आत्मानुभूत्यानुगतप्रपञ्चं
स्वच्छन्दशक्तिं कपिलं प्रपद्ये॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवन्! आप परब्रह्म हैं; सारी शक्तियाँ आपके अधीन हैं; प्रकृति, पुरुष, महत्तत्त्व, काल, त्रिविध अहंकार, समस्त लोक एवं लोकपालोंके रूपमें आप ही प्रकट हैं; तथा आप सर्वज्ञ परमात्मा ही इस सारे प्रपंचको चेतनशक्तिके द्वारा अपनेमें लीन कर लेते हैं। अतः इन सबसे परे भी आप ही हैं। मैं आप भगवान् कपिलकी शरण लेता हूँ॥ ३३॥
श्लोक-३४
विश्वास-प्रस्तुतिः
आ स्माभिपृच्छेऽद्य पतिं प्रजानां
त्वयावतीर्णार्ण उताप्तकामः।
परिव्रजत्पदवीमास्थितोऽहं
चरिष्ये त्वां हृदि युञ्जन् विशोकः॥
मूलम्
आ स्माभिपृच्छेऽद्य पतिं प्रजानां
त्वयावतीर्णार्ण उताप्तकामः।
परिव्रजत्पदवीमास्थितोऽहं
चरिष्ये त्वां हृदि युञ्जन् विशोकः॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रभो! आपकी कृपासे मैं तीनों ऋणोंसे मुक्त हो गया हूँ और मेरे सभी मनोरथ पूर्ण हो चुके हैं। अब मैं संन्यास-मार्गको ग्रहणकर आपका चिन्तन करते हुए शोकरहित होकर विचरूँगा। आप समस्त प्रजाओंके स्वामी हैं, अतएव इसके लिये मैं आपकी आज्ञा चाहता हूँ॥ ३४॥
श्लोक-३५
मूलम् (वचनम्)
श्रीभगवानुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
मया प्रोक्तं हि लोकस्य प्रमाणं सत्यलौकिके।
अथाजनि मया तुभ्यं यदवोचमृतं मुने॥
मूलम्
मया प्रोक्तं हि लोकस्य प्रमाणं सत्यलौकिके।
अथाजनि मया तुभ्यं यदवोचमृतं मुने॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीभगवान्ने कहा—मुने! वैदिक और लौकिक सभी कर्मोंमें संसारके लिये मेरा कथन ही प्रमाण है। इसलिये मैंने जो तुमसे कहा था कि ‘मैं तुम्हारे यहाँ जन्म लूँगा’, उसे सत्य करनेके लिये ही मैंने यह अवतार लिया है॥ ३५॥
श्लोक-३६
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतन्मे जन्म लोकेऽस्मिन्मुमुक्षूणां दुराशयात्॥
प्रसंख्यानाय तत्त्वानां सम्मतायात्मदर्शने॥
मूलम्
एतन्मे जन्म लोकेऽस्मिन्मुमुक्षूणां दुराशयात्॥
प्रसंख्यानाय तत्त्वानां सम्मतायात्मदर्शने॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस लोकमें मेरा यह जन्म लिंगशरीरसे मुक्त होनेकी इच्छावाले मुनियोंके लिये आत्मदर्शनमें उपयोगी प्रकृति आदि तत्त्वोंका विवेचन करनेके लिये ही हुआ है॥ ३६॥
श्लोक-३७
विश्वास-प्रस्तुतिः
एष आत्मपथोऽव्यक्तो नष्टः कालेन भूयसा।
तं प्रवर्तयितुं देहमिमं विद्धि मया भृतम्॥
मूलम्
एष आत्मपथोऽव्यक्तो नष्टः कालेन भूयसा।
तं प्रवर्तयितुं देहमिमं विद्धि मया भृतम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
आत्मज्ञानका यह सूक्ष्म मार्ग बहुत समयसे लुप्त हो गया है। इसे फिरसे प्रवर्तित करनेके लिये ही मैंने यह शरीर ग्रहण किया है—ऐसा जानो॥ ३७॥
श्लोक-३८
विश्वास-प्रस्तुतिः
गच्छ कामं मयाऽऽपृष्टो मयि संन्यस्तकर्मणा।
जित्वा सुदुर्जयं मृत्युममृतत्वाय मां भज॥
मूलम्
गच्छ कामं मयाऽऽपृष्टो मयि संन्यस्तकर्मणा।
जित्वा सुदुर्जयं मृत्युममृतत्वाय मां भज॥
अनुवाद (हिन्दी)
मुने! मैं आज्ञा देता हूँ, तुम इच्छानुसार जाओ और अपने सम्पूर्ण कर्म मुझे अर्पण करते हुए दुर्जय मृत्युको जीतकर मोक्षपद प्राप्त करनेके लिये मेरा भजन करो॥ ३८॥
श्लोक-३९
विश्वास-प्रस्तुतिः
मामात्मानं स्वयंज्योतिः सर्वभूतगुहाशयम्।
आत्मन्येवात्मना वीक्ष्य विशोकोऽभयमृच्छसि॥
मूलम्
मामात्मानं स्वयंज्योतिः सर्वभूतगुहाशयम्।
आत्मन्येवात्मना वीक्ष्य विशोकोऽभयमृच्छसि॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैं स्वयंप्रकाश और सम्पूर्ण जीवोंके अन्तःकरणोंमें रहनेवाला परमात्मा ही हूँ। अतः जब तुम विशुद्ध बुद्धिके द्वारा अपने अन्तःकरणमें मेरा साक्षात्कार कर लोगे तब सब प्रकारके शोकोंसे छूटकर निर्भय पद (मोक्ष) प्राप्त कर लोगे॥ ३९॥
श्लोक-४०
विश्वास-प्रस्तुतिः
मात्र आध्यात्मिकीं विद्यां शमनीं सर्वकर्मणाम्।
वितरिष्ये यया चासौ भयं चातितरिष्यति॥
मूलम्
मात्र आध्यात्मिकीं विद्यां शमनीं सर्वकर्मणाम्।
वितरिष्ये यया चासौ भयं चातितरिष्यति॥
अनुवाद (हिन्दी)
माता देवहूतिको भी मैं सम्पूर्ण कर्मोंसे छुड़ानेवाला आत्मज्ञान प्रदान करूँगा, जिससे यह संसाररूप भयसे पार हो जायगी॥ ४०॥
श्लोक-४१
मूलम् (वचनम्)
मैत्रेय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं समुदितस्तेन कपिलेन प्रजापतिः।
दक्षिणीकृत्य तं प्रीतो वनमेव जगाम ह॥
मूलम्
एवं समुदितस्तेन कपिलेन प्रजापतिः।
दक्षिणीकृत्य तं प्रीतो वनमेव जगाम ह॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीमैत्रेयजी कहते हैं—भगवान् कपिलके इस प्रकार कहनेपर प्रजापति कर्दमजी उनकी परिक्रमा कर प्रसन्नतापूर्वक वनको चले गये॥ ४१॥
श्लोक-४२
विश्वास-प्रस्तुतिः
व्रतं स आस्थितो मौनमात्मैकशरणो मुनिः।
निःसङ्गो व्यचरत्क्षोणीमनग्निरनिकेतनः॥
मूलम्
व्रतं स आस्थितो मौनमात्मैकशरणो मुनिः।
निःसङ्गो व्यचरत्क्षोणीमनग्निरनिकेतनः॥
अनुवाद (हिन्दी)
वहाँ अहिंसामय संन्यास-धर्मका पालन करते हुए वे एकमात्र श्रीभगवान्की शरण हो गये तथा अग्नि और आश्रमका त्याग करके निःसङ्गभावसे पृथ्वीपर विचरने लगे॥ ४२॥
श्लोक-४३
विश्वास-प्रस्तुतिः
मनो ब्रह्मणि युञ्जानो यत्तत्सदसतः परम्।
गुणावभासे विगुण एकभक्त्यानुभाविते॥
मूलम्
मनो ब्रह्मणि युञ्जानो यत्तत्सदसतः परम्।
गुणावभासे विगुण एकभक्त्यानुभाविते॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो कार्यकारणसे अतीत है, सत्त्वादि गुणोंका प्रकाशक एवं निर्गुण है और अनन्य भक्तिसे ही प्रत्यक्ष होता है उस परब्रह्ममें उन्होंने अपना मन लगा दिया॥ ४३॥
श्लोक-४४
विश्वास-प्रस्तुतिः
निरहंकृतिर्निर्ममश्च निर्द्वन्द्वः समदृक् स्वदृक्।
प्रत्यक्प्रशान्तधीर्धीरः प्रशान्तोर्मिरिवोदधिः॥
मूलम्
निरहंकृतिर्निर्ममश्च निर्द्वन्द्वः समदृक् स्वदृक्।
प्रत्यक्प्रशान्तधीर्धीरः प्रशान्तोर्मिरिवोदधिः॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे अहंकार, ममता और सुख-दुःखादि द्वन्द्वोंसे छूटकर समदर्शी (भेददृष्टिसे रहित) हो, सबमें अपने आत्माको ही देखने लगे। उनकी बुद्धि अन्तर्मुख एवं शान्त हो गयी। उस समय धीर कर्दमजी शान्त लहरोंवाले समुद्रके समान जान पड़ने लगे॥ ४४॥
श्लोक-४५
विश्वास-प्रस्तुतिः
वासुदेवे भगवति सर्वज्ञे प्रत्यगात्मनि।
परेण भक्तिभावेन लब्धात्मा मुक्तबन्धनः॥
मूलम्
वासुदेवे भगवति सर्वज्ञे प्रत्यगात्मनि।
परेण भक्तिभावेन लब्धात्मा मुक्तबन्धनः॥
अनुवाद (हिन्दी)
परम भक्तिभावके द्वारा सर्वान्तर्यामी सर्वज्ञ श्रीवासुदेवमें चित्त स्थिर हो जानेसे वे सारे बन्धनोंसे मुक्त हो गये॥ ४५॥
श्लोक-४६
विश्वास-प्रस्तुतिः
आत्मानं सर्वभूतेषु भगवन्तमवस्थितम्।
अपश्यत्सर्वभूतानि भगवत्यपि चात्मनि॥
मूलम्
आत्मानं सर्वभूतेषु भगवन्तमवस्थितम्।
अपश्यत्सर्वभूतानि भगवत्यपि चात्मनि॥
अनुवाद (हिन्दी)
सम्पूर्ण भूतोंमें अपने आत्मा श्रीभगवान्को और सम्पूर्ण भूतोंको आत्मस्वरूप श्रीहरिमें स्थित देखने लगे॥ ४६॥
श्लोक-४७
विश्वास-प्रस्तुतिः
इच्छाद्वेषविहीनेन सर्वत्र समचेतसा।
भगवद्भक्तियुक्तेन प्राप्ता भागवती गतिः॥
मूलम्
इच्छाद्वेषविहीनेन सर्वत्र समचेतसा।
भगवद्भक्तियुक्तेन प्राप्ता भागवती गतिः॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार इच्छा और द्वेषसे रहित, सर्वत्र समबुद्धि और भगवद्भक्तिसे सम्पन्न होकर श्रीकर्दमजीने भगवान्का परमपद प्राप्त कर लिया॥ ४७॥
अनुवाद (समाप्ति)
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां तृतीयस्कन्धे कापिलेये चतुर्विंशोऽध्यायः॥ २४॥