[द्वाविंशोऽध्यायः]
भागसूचना
देवहूतिके साथ कर्दम प्रजापतिका विवाह
श्लोक-१
मूलम् (वचनम्)
मैत्रेय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमाविष्कृताशेषगुणकर्मोदयो मुनिम्।
सव्रीड इव तं सम्राडुपारतमुवाच ह॥
मूलम्
एवमाविष्कृताशेषगुणकर्मोदयो मुनिम्।
सव्रीड इव तं सम्राडुपारतमुवाच ह॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीमैत्रेयजी कहते हैं—विदुरजी! इस प्रकार जब कर्दमजीने मनुजीके सम्पूर्ण गुणों और कर्मोंकी श्रेष्ठताका वर्णन किया तो उन्होंने उन निवृत्तिपरायण मुनिसे कुछ सकुचाकर कहा॥ १॥
श्लोक-२
मूलम् (वचनम्)
मनुरुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्रह्मासृजत्स्वमुखतो युष्मानात्मपरीप्सया।
छन्दोमयस्तपोविद्यायोगयुक्तानलम्पटान्॥
मूलम्
ब्रह्मासृजत्स्वमुखतो युष्मानात्मपरीप्सया।
छन्दोमयस्तपोविद्यायोगयुक्तानलम्पटान्॥
श्लोक-३
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्त्राणायासृजच्चास्मान्दोः सहस्रात्सहस्रपात्।
हृदयं तस्य हि ब्रह्म क्षत्रमङ्गं प्रचक्षते॥
मूलम्
तत्त्राणायासृजच्चास्मान्दोः सहस्रात्सहस्रपात्।
हृदयं तस्य हि ब्रह्म क्षत्रमङ्गं प्रचक्षते॥
अनुवाद (हिन्दी)
मनुजीने कहा—मुने! वेदमूर्ति भगवान् ब्रह्माने अपने वेदमय विग्रहकी रक्षाके लिये तप, विद्या और योगसे सम्पन्न तथा विषयोंमें अनासक्त आप ब्राह्मणोंको अपने मुखसे प्रकट किया है और फिर उन सहस्र चरणोंवाले विराट् पुरुषने आपलोगोंकी रक्षाके लिये ही अपनी सहस्रों भुजाओंसे हम क्षत्रियोंको उत्पन्न किया है। इस प्रकार ब्राह्मण उनके हृदय और क्षत्रिय शरीर कहलाते हैं॥ २-३॥
श्लोक-४
विश्वास-प्रस्तुतिः
अतो ह्यन्योन्यमात्मानं ब्रह्म क्षत्रं च रक्षतः।
रक्षति स्माव्ययो देवः स यः सदसदात्मकः॥
मूलम्
अतो ह्यन्योन्यमात्मानं ब्रह्म क्षत्रं च रक्षतः।
रक्षति स्माव्ययो देवः स यः सदसदात्मकः॥
अनुवाद (हिन्दी)
अतः एक ही शरीरसे सम्बद्ध होनेके कारण अपनी-अपनी और एक-दूसरेकी रक्षा करनेवाले उन ब्राह्मण और क्षत्रियोंकी वास्तवमें श्रीहरि ही रक्षा करते हैं जो समस्त कार्यकारणरूप होकर भी वास्तवमें निर्विकार हैं॥ ४॥
श्लोक-५
विश्वास-प्रस्तुतिः
तव सन्दर्शनादेवच्छिन्ना मे सर्वसंशयाः।
यत्स्वयं भगवान् प्रीत्या धर्ममाह रिरक्षिषोः॥
मूलम्
तव सन्दर्शनादेवच्छिन्ना मे सर्वसंशयाः।
यत्स्वयं भगवान् प्रीत्या धर्ममाह रिरक्षिषोः॥
अनुवाद (हिन्दी)
आपके दर्शनमात्रसे ही मेरे सारे सन्देह दूर हो गये, क्योंकि आपने मेरी प्रशंसाके मिससे स्वयं ही प्रजापालनकी इच्छावाले राजाके धर्मोंका बड़े प्रेमसे निरूपण किया है॥ ५॥
श्लोक-६
विश्वास-प्रस्तुतिः
दिष्ट्या मे भगवान् दृष्टो दुर्दर्शो योऽकृतात्मनाम्।
दिष्ट्या पादरजः स्पृष्टं शीर्ष्णा मे भवतः शिवम्॥
मूलम्
दिष्ट्या मे भगवान् दृष्टो दुर्दर्शो योऽकृतात्मनाम्।
दिष्ट्या पादरजः स्पृष्टं शीर्ष्णा मे भवतः शिवम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
आपका दर्शन अजितेन्द्रिय पुरुषोंको बहुत दुर्लभ है; मेरा बड़ा भाग्य है जो मुझे आपका दर्शन हुआ और मैं आपके चरणोंकी मंगलमयी रज अपने सिरपर चढ़ा सका॥ ६॥
श्लोक-७
विश्वास-प्रस्तुतिः
दिष्ट्या त्वयानुशिष्टोऽहं कृतश्चानुग्रहो महान्।
अपावृतैः कर्णरन्ध्रैर्जुष्टा दिष्ट्योशतीर्गिरः॥
मूलम्
दिष्ट्या त्वयानुशिष्टोऽहं कृतश्चानुग्रहो महान्।
अपावृतैः कर्णरन्ध्रैर्जुष्टा दिष्ट्योशतीर्गिरः॥
अनुवाद (हिन्दी)
मेरे भाग्योदयसे ही आपने मुझे राजधर्मोंकी शिक्षा देकर मुझपर महान् अनुग्रह किया है और मैंने भी शुभ प्रारब्धका उदय होनेसे ही आपकी पवित्र वाणी कान खोलकर सुनी है॥ ७॥
श्लोक-८
विश्वास-प्रस्तुतिः
स भवान्दुहितृस्नेहपरिक्लिष्टात्मनो मम।
श्रोतुमर्हसि दीनस्य श्रावितं कृपया मुने॥
मूलम्
स भवान्दुहितृस्नेहपरिक्लिष्टात्मनो मम।
श्रोतुमर्हसि दीनस्य श्रावितं कृपया मुने॥
अनुवाद (हिन्दी)
मुने! इस कन्याके स्नेहवश मेरा चित्त बहुत चिन्ताग्रस्त हो रहा है; अतः मुझ दीनकी यह प्रार्थना आप कृपापूर्वक सुनें॥ ८॥
श्लोक-९
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रियव्रतोत्तानपदोः स्वसेयं दुहिता मम।
अन्विच्छति पतिं युक्तं वयःशीलगुणादिभिः॥
मूलम्
प्रियव्रतोत्तानपदोः स्वसेयं दुहिता मम।
अन्विच्छति पतिं युक्तं वयःशीलगुणादिभिः॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह मेरी कन्या—जो प्रियव्रत और उत्तानपादकी बहिन है—अवस्था, शील और गुण आदिमें अपने योग्य पतिको पानेकी इच्छा रखती है॥ ९॥
श्लोक-१०
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदा तु भवतः शीलश्रुतरूपवयोगुणान्।
अशृणोन्नारदादेषा त्वय्यासीत्कृतनिश्चया॥
मूलम्
यदा तु भवतः शीलश्रुतरूपवयोगुणान्।
अशृणोन्नारदादेषा त्वय्यासीत्कृतनिश्चया॥
अनुवाद (हिन्दी)
जबसे इसने नारदजीके मुखसे आपके शील, विद्या, रूप, आयु और गुणोंका वर्णन सुना है तभीसे यह आपको अपना पति बनानेका निश्चय कर चुकी है॥ १०॥
श्लोक-११
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्प्रतीच्छ द्विजाग्र्येमां श्रद्धयोपहृतां मया।
सर्वात्मनानुरूपां ते गृहमेधिषु कर्मसु॥
मूलम्
तत्प्रतीच्छ द्विजाग्र्येमां श्रद्धयोपहृतां मया।
सर्वात्मनानुरूपां ते गृहमेधिषु कर्मसु॥
अनुवाद (हिन्दी)
द्विजवर! मैं बड़ी श्रद्धासे आपको यह कन्या समर्पित करता हूँ, आप इसे स्वीकार कीजिये। यह गृहस्थोचित कार्योंके लिये सब प्रकार आपके योग्य है॥ ११॥
श्लोक-१२
विश्वास-प्रस्तुतिः
उद्यतस्य हि कामस्य प्रतिवादो न शस्यते।
अपि निर्मुक्तसङ्गस्य कामरक्तस्य किं पुनः॥
मूलम्
उद्यतस्य हि कामस्य प्रतिवादो न शस्यते।
अपि निर्मुक्तसङ्गस्य कामरक्तस्य किं पुनः॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो भोग स्वतः प्राप्त हो जाय, उसकी अवहेलना करना विरक्त पुरुषको भी उचित नहीं है; फिर विषयासक्तकी तो बात ही क्या है॥ १२॥
श्लोक-१३
विश्वास-प्रस्तुतिः
य उद्यतमनादृत्य कीनाशमभियाचते।
क्षीयते तद्यशः स्फीतं मानश्चावज्ञया हतः॥
मूलम्
य उद्यतमनादृत्य कीनाशमभियाचते।
क्षीयते तद्यशः स्फीतं मानश्चावज्ञया हतः॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो पुरुष स्वयं प्राप्त हुए भोगका निरादर कर फिर किसी कृपणके आगे हाथ पसारता है उसका बहुत फैला हुआ यश भी नष्ट हो जाता है और दूसरोंके तिरस्कारसे मानभंग भी होता है॥ १३॥
श्लोक-१४
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहं त्वाशृणवं विद्वन् विवाहार्थं समुद्यतम्।
अतस्त्वमुपकुर्वाणः प्रत्तां प्रतिगृहाण मे॥
मूलम्
अहं त्वाशृणवं विद्वन् विवाहार्थं समुद्यतम्।
अतस्त्वमुपकुर्वाणः प्रत्तां प्रतिगृहाण मे॥
अनुवाद (हिन्दी)
विद्वन्! मैंने सुना है, आप विवाह करनेके लिये उद्यत हैं। आपका ब्रह्मचर्य एक सीमातक है, आप नैष्ठिक ब्रह्मचारी तो हैं नहीं। इसलिये अब आप इस कन्याको स्वीकार कीजिये, मैं इसे आपको अर्पित करता हूँ॥ १४॥
श्लोक-१५
मूलम् (वचनम्)
ऋषिरुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
बाढमुद्वोढुकामोऽहमप्रत्ता च तवात्मजा।
आवयोरनुरूपोऽसावाद्यो वैवाहिको विधिः॥
मूलम्
बाढमुद्वोढुकामोऽहमप्रत्ता च तवात्मजा।
आवयोरनुरूपोऽसावाद्यो वैवाहिको विधिः॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीकर्दम मुनिने कहा—ठीक है, मैं विवाह करना चाहता हूँ और आपकी कन्याका अभी किसीके साथ वाग्दान नहीं हुआ है, इसलिये हम दोनोंका सर्वश्रेष्ठ ब्राह्म* विधिसे विवाह होना उचित ही होगा॥ १५॥
पादटिप्पनी
- मनुस्मृतिमें आठ प्रकारके विवाहोंका उल्लेख पाया जाता है—(१) ब्राह्म, (२) दैव, (३) आर्ष, (४) प्राजापत्य, (५) आसुर, (६) गान्धर्व, (७) राक्षस और (८) पैशाच। इनके लक्षण वहीं तीसरे अध्यायमें देखने चाहिये। इनमें पहला सबसे श्रेष्ठ माना गया है। इसमें पिता योग्य वरको कन्याका दान करता है।
श्लोक-१६
विश्वास-प्रस्तुतिः
कामः स भूयान्नरदेव तेऽस्याः
पुत्र्याः समाम्नायविधौ प्रतीतः।
क एव ते तनयां नाद्रियेत
स्वयैव कान्त्या क्षिपतीमिव श्रियम्॥
मूलम्
कामः स भूयान्नरदेव तेऽस्याः
पुत्र्याः समाम्नायविधौ प्रतीतः।
क एव ते तनयां नाद्रियेत
स्वयैव कान्त्या क्षिपतीमिव श्रियम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! वेदोक्त विवाह-विधिमें प्रसिद्ध जो ‘गृभ्णामि ते’ इत्यादि मन्त्रोंमें बताया हुआ काम (संतानोत्पादनरूप मनोरथ) है, वह आपकी इस कन्याके साथ हमारा सम्बन्ध होनेसे सफल होगा। भला, जो अपनी अंगकान्तिसे आभूषणादिकी शोभाको भी तिरस्कृत कर रही है, आपकी उस कन्याका कौन आदर न करेगा?॥ १६॥
श्लोक-१७
विश्वास-प्रस्तुतिः
यां हर्म्यपृष्ठे क्वणदङ्घ्रिशोभां
विक्रीडतीं कन्दुकविह्वलाक्षीम्।
विश्वावसुर्न्यपतत्स्वाद्विमाना-
द्विलोक्य सम्मोहविमूढचेताः॥
मूलम्
यां हर्म्यपृष्ठे क्वणदङ्घ्रिशोभां
विक्रीडतीं कन्दुकविह्वलाक्षीम्।
विश्वावसुर्न्यपतत्स्वाद्विमाना-
द्विलोक्य सम्मोहविमूढचेताः॥
अनुवाद (हिन्दी)
एक बार यह अपने महलकी छतपर गेंद खेल रही थी। गेंदके पीछे इधर-उधर दौड़नेके कारण इसके नेत्र चंचल हो रहे थे तथा पैरोंके पायजेब मधुर झनकार करते जाते थे। उस समय इसे देखकर विश्वावसु गन्धर्व मोहवश अचेत होकर अपने विमानसे गिर पड़ा था॥ १७॥
श्लोक-१८
विश्वास-प्रस्तुतिः
तां प्रार्थयन्तीं ललनाललाम-
मसेवितश्रीचरणैरदृष्टाम्।
वत्सां मनोरुच्चपदः स्वसारं
को नानुमन्येत बुधोऽभियाताम्॥
मूलम्
तां प्रार्थयन्तीं ललनाललाम-
मसेवितश्रीचरणैरदृष्टाम्।
वत्सां मनोरुच्चपदः स्वसारं
को नानुमन्येत बुधोऽभियाताम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
वही इस समय यहाँ स्वयं आकर प्रार्थना कर रही है; ऐसी अवस्थामें कौन समझदार पुरुष इसे स्वीकार न करेगा? यह तो साक्षात् आप महाराज श्रीस्वायम्भुवमनुकी दुलारी कन्या और उत्तानपादकी प्यारी बहिन है; तथा यह रमणियोंमें रत्नके समान है। जिन लोगोंने कभी श्रीलक्ष्मीजीके चरणोंकी उपासना नहीं की है, उन्हें तो इसका दर्शन भी नहीं हो सकता॥ १८॥
श्लोक-१९
विश्वास-प्रस्तुतिः
अतो भजिष्ये समयेन साध्वीं
यावत्तेजो बिभृयादात्मनो मे।
अतो धर्मान् पारमहंस्यमुख्यान्
शुक्लप्रोक्तान् बहु मन्येऽविहिंस्रान्॥
मूलम्
अतो भजिष्ये समयेन साध्वीं
यावत्तेजो बिभृयादात्मनो मे।
अतो धर्मान् पारमहंस्यमुख्यान्
शुक्लप्रोक्तान् बहु मन्येऽविहिंस्रान्॥
अनुवाद (हिन्दी)
अतः मैं आपकी इस साध्वी कन्याको अवश्य स्वीकार करूँगा, किन्तु एक शर्तके साथ। जबतक इसके संतान न हो जायगी, तबतक मैं गृहस्थ-धर्मानुसार इसके साथ रहूँगा। उसके बाद भगवान्के बताये हुए संन्यासप्रधान हिंसारहित शम-दमादि धर्मोंको ही अधिक महत्त्व दूँगा॥ १९॥
श्लोक-२०
विश्वास-प्रस्तुतिः
यतोऽभवद्विश्वमिदं विचित्रं
संस्थास्यते यत्र च वावतिष्ठते।
प्रजापतीनां पतिरेष मह्यं
परं प्रमाणं भगवाननन्तः॥
मूलम्
यतोऽभवद्विश्वमिदं विचित्रं
संस्थास्यते यत्र च वावतिष्ठते।
प्रजापतीनां पतिरेष मह्यं
परं प्रमाणं भगवाननन्तः॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिनसे इस विचित्र जगत्की उत्पत्ति हुई है, जिनमें यह लीन हो जाता है और जिनके आश्रयसे यह स्थित है—मुझे तो वे प्रजापतियोंके भी पति भगवान् श्रीअनन्त ही सबसे अधिक मान्य हैं॥ २०॥
श्लोक-२१
मूलम् (वचनम्)
मैत्रेय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
स उग्रधन्वन्नियदेवाबभाषे
आसीच्च तूष्णीमरविन्दनाभम्।
धियोपगृह्णन् स्मितशोभितेन
मुखेन चेतो लुलुभे देवहूत्याः॥
मूलम्
स उग्रधन्वन्नियदेवाबभाषे
आसीच्च तूष्णीमरविन्दनाभम्।
धियोपगृह्णन् स्मितशोभितेन
मुखेन चेतो लुलुभे देवहूत्याः॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैत्रेयजी कहते हैं—प्रचण्ड धनुर्धर विदुर! कर्दमजी केवल इतना ही कह सके, फिर वे हृदयमें भगवान् कमलनाभका ध्यान करते हुए मौन हो गये। उस समय उनके मन्द हास्ययुक्त मुखकमलको देखकर देवहूतिका चित्त लुभा गया॥ २१॥
श्लोक-२२
विश्वास-प्रस्तुतिः
सोऽनु ज्ञात्वा व्यवसितं महिष्या दुहितुः स्फुटम्।
तस्मै गुणगणाढ्याय ददौ तुल्यां प्रहर्षितः॥
मूलम्
सोऽनु ज्ञात्वा व्यवसितं महिष्या दुहितुः स्फुटम्।
तस्मै गुणगणाढ्याय ददौ तुल्यां प्रहर्षितः॥
अनुवाद (हिन्दी)
मनुजीने देखा कि इस सम्बन्धमें महारानीशतरूपा और राजकुमारीकी स्पष्ट अनुमति है, अतः उन्होंने अनेक गुणोंसे सम्पन्न कर्दमजीको उन्हींके समान गुणवती कन्याका प्रसन्नतापूर्वक दान कर दिया॥ २२॥
श्लोक-२३
विश्वास-प्रस्तुतिः
शतरूपा महाराज्ञी पारिबर्हान्महाधनान्।
दम्पत्योः पर्यदात्प्रीत्या भूषावासः परिच्छदान्॥
मूलम्
शतरूपा महाराज्ञी पारिबर्हान्महाधनान्।
दम्पत्योः पर्यदात्प्रीत्या भूषावासः परिच्छदान्॥
अनुवाद (हिन्दी)
महारानी शतरूपाने भी बेटी और दामादको बड़े प्रेमपूर्वक बहुत-से बहुमूल्य वस्त्र, आभूषण और गृहस्थोचित पात्रादि दहेजमें दिये॥ २३॥
श्लोक-२४
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रत्तां दुहितरं सम्राट् सदृक्षाय गतव्यथः।
उपगुह्य च बाहुभ्यामौत्कण्ठ्योन्मथिताशयः॥
मूलम्
प्रत्तां दुहितरं सम्राट् सदृक्षाय गतव्यथः।
उपगुह्य च बाहुभ्यामौत्कण्ठ्योन्मथिताशयः॥
श्लोक-२५
विश्वास-प्रस्तुतिः
अशक्नुवंस्तद्विरहं मुञ्चन् बाष्पकलां मुहुः।
आसिञ्चदम्ब वत्सेति नेत्रोदैर्दुहितुः शिखाः॥
मूलम्
अशक्नुवंस्तद्विरहं मुञ्चन् बाष्पकलां मुहुः।
आसिञ्चदम्ब वत्सेति नेत्रोदैर्दुहितुः शिखाः॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार सुयोग्य वरको अपनी कन्या देकर महाराज मनु निश्चिन्त हो गये। चलती बार उसका वियोगन सह सकनेके कारण उन्होंने उत्कण्ठावश विह्वलचित्त होकर उसे अपनी छातीसे चिपटा लिया और ‘बेटी! बेटी!’ कहकर रोने लगे। उनकी आँखोंसे आँसुओंकी झड़ी लग गयी और उनसे उन्होंने देवहूतिके सिरके सारे बाल भिगो दिये॥ २४-२५॥
श्लोक-२६
विश्वास-प्रस्तुतिः
आमन्त्र्य तं मुनिवरमनुज्ञातः सहानुगः।
प्रतस्थे रथमारुह्य सभार्यः स्वपुरं नृपः॥
मूलम्
आमन्त्र्य तं मुनिवरमनुज्ञातः सहानुगः।
प्रतस्थे रथमारुह्य सभार्यः स्वपुरं नृपः॥
श्लोक-२७
विश्वास-प्रस्तुतिः
उभयोर्ऋषिकुल्यायाः सरस्वत्याः सुरोधसोः।
ऋषीणामुपशान्तानां पश्यन्नाश्रमसम्पदः॥
मूलम्
उभयोर्ऋषिकुल्यायाः सरस्वत्याः सुरोधसोः।
ऋषीणामुपशान्तानां पश्यन्नाश्रमसम्पदः॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर वे मुनिवर कर्दमसे पूछकर, उनकी आज्ञा ले रानीके सहित रथपर सवार हुए और अपने सेवकोंसहित ऋषिकुलसेवित सरस्वती नदीके दोनों तीरोंपर मुनियोंके आश्रमोंकी शोभा देखते हुए अपनी राजधानीमें चले आये॥ २६-२७॥
श्लोक-२८
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमायान्तमभिप्रेत्य ब्रह्मावर्तात्प्रजाः पतिम्।
गीतसंस्तुतिवादित्रैः प्रत्युदीयुः प्रहर्षिताः॥
मूलम्
तमायान्तमभिप्रेत्य ब्रह्मावर्तात्प्रजाः पतिम्।
गीतसंस्तुतिवादित्रैः प्रत्युदीयुः प्रहर्षिताः॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब ब्रह्मावर्तकी प्रजाको यह समाचार मिला कि उसके स्वामी आ रहे हैं तब वह अत्यन्त आनन्दित होकर स्तुति, गीत एवं बाजे-गाजेके साथ अगवानी करनेके लिये ब्रह्मावर्तकी राजधानीसे बाहर आयी॥ २८॥
श्लोक-२९
विश्वास-प्रस्तुतिः
बर्हिष्मती नाम पुरी सर्वसम्पत्समन्विता।
न्यपतन् यत्र रोमाणि यज्ञस्याङ्गं विधुन्वतः॥
मूलम्
बर्हिष्मती नाम पुरी सर्वसम्पत्समन्विता।
न्यपतन् यत्र रोमाणि यज्ञस्याङ्गं विधुन्वतः॥
अनुवाद (हिन्दी)
सब प्रकारकी सम्पदाओंसे युक्त बर्हिष्मती नगरी मनुजीकी राजधानी थी, जहाँ पृथ्वीको रसातलसे ले आनेके पश्चात् शरीर कँपाते समय श्रीवराहभगवान्के रोम झड़कर गिरे थे॥ २९॥
श्लोक-३०
विश्वास-प्रस्तुतिः
कुशाः काशास्त एवासन् शश्वद्धरितवर्चसः।
ऋषयो यैः पराभाव्य यज्ञघ्नान् यज्ञमीजिरे॥
मूलम्
कुशाः काशास्त एवासन् शश्वद्धरितवर्चसः।
ऋषयो यैः पराभाव्य यज्ञघ्नान् यज्ञमीजिरे॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे रोम ही निरन्तर हरे-भरे रहनेवाले कुश और कास हुए , जिनके द्वारा मुनियोंने यज्ञमें विघ्न डालनेवाले दैत्योंका तिरस्कार कर भगवान् यज्ञपुरुषकी यज्ञोंद्वारा आराधना की है॥ ३०॥
श्लोक-३१
विश्वास-प्रस्तुतिः
कुशकाशमयं बर्हिरास्तीर्य भगवान्मनुः।
अयजद्यज्ञपुरुषं लब्धा स्थानं यतो भुवम्॥
मूलम्
कुशकाशमयं बर्हिरास्तीर्य भगवान्मनुः।
अयजद्यज्ञपुरुषं लब्धा स्थानं यतो भुवम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज मनुने भी श्रीवराहभगवान्से भूमिरूप निवासस्थान प्राप्त होनेपर इसी स्थानमें कुश और कासकी बर्हि (चटाई) बिछाकर श्रीयज्ञभगवान्की पूजा की थी॥ ३१॥
श्लोक-३२
विश्वास-प्रस्तुतिः
बर्हिष्मतीं नाम विभुर्यां निर्विश्य समावसत्।
तस्यां प्रविष्टो भवनं तापत्रयविनाशनम्॥
मूलम्
बर्हिष्मतीं नाम विभुर्यां निर्विश्य समावसत्।
तस्यां प्रविष्टो भवनं तापत्रयविनाशनम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिस बर्हिष्मती पुरीमें मनुजी निवास करते थे, उसमें पहुँचकर उन्होंने अपने त्रितापनाशक भवनमें प्रवेश किया॥ ३२॥
श्लोक-३३
विश्वास-प्रस्तुतिः
सभार्यः सप्रजः कामान् बुभुजेऽन्याविरोधतः।
सङ्गीयमानसत्कीर्तिः सस्त्रीभिः सुरगायकैः।
प्रत्यूषेष्वनुबद्धेन हृदा शृण्वन् हरेः कथाः॥
मूलम्
सभार्यः सप्रजः कामान् बुभुजेऽन्याविरोधतः।
सङ्गीयमानसत्कीर्तिः सस्त्रीभिः सुरगायकैः।
प्रत्यूषेष्वनुबद्धेन हृदा शृण्वन् हरेः कथाः॥
अनुवाद (हिन्दी)
वहाँ अपनी भार्या और सन्ततिके सहित वे धर्म, अर्थ और मोक्षके अनुकूल भोगोंको भोगने लगे। प्रातःकाल होनेपर गन्धर्वगण अपनी स्त्रियोंके सहित उनका गुणगान करते थे; किन्तु मनुजी उसमें आसक्त न होकर प्रेमपूर्ण हृदयसे श्रीहरिकी कथाएँ ही सुना करते थे॥ ३३॥
श्लोक-३४
विश्वास-प्रस्तुतिः
निष्णातं योगमायासु मुनिं स्वायम्भुवं मनुम्।
यदा भ्रंशयितुं भोगा न शेकुर्भगवत्परम्॥
मूलम्
निष्णातं योगमायासु मुनिं स्वायम्भुवं मनुम्।
यदा भ्रंशयितुं भोगा न शेकुर्भगवत्परम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे इच्छानुसार भोगोंका निर्माण करनेमें कुशल थे; किन्तु मननशील और भगवत्परायण होनेके कारण भोग उन्हें किंचित् भी विचलित नहीं कर पाते थे॥ ३४॥
श्लोक-३५
विश्वास-प्रस्तुतिः
अयातयामास्तस्यासन् यामाः स्वान्तरयापनाः।
शृण्वतो ध्यायतो विष्णोः कुर्वतो ब्रुवतः कथाः॥
मूलम्
अयातयामास्तस्यासन् यामाः स्वान्तरयापनाः।
शृण्वतो ध्यायतो विष्णोः कुर्वतो ब्रुवतः कथाः॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् विष्णुकी कथाओंका श्रवण, ध्यान, रचना और निरूपण करते रहनेके कारण उनके मन्वन्तरको व्यतीत करनेवाले क्षण कभी व्यर्थ नहीं जाते थे॥ ३५॥
श्लोक-३६
विश्वास-प्रस्तुतिः
स एवं स्वान्तरं निन्ये युगानामेकसप्ततिम्।
वासुदेवप्रसङ्गेन परिभूतगतित्रयः॥
मूलम्
स एवं स्वान्तरं निन्ये युगानामेकसप्ततिम्।
वासुदेवप्रसङ्गेन परिभूतगतित्रयः॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार अपनी जाग्रत् आदि तीनों अवस्थाओं अथवा तीनों गुणोंको अभिभूत करके उन्होंने भगवान् वासुदेवके कथा-प्रसंगमें अपने मन्वन्तरके इकहत्तर चतुर्युग पूरे कर दिये॥ ३६॥
श्लोक-३७
विश्वास-प्रस्तुतिः
शारीरा मानसा दिव्या वैयासे ये च मानुषाः।
भौतिकाश्च कथं क्लेशा बाधन्ते हरिसंश्रयम्॥
मूलम्
शारीरा मानसा दिव्या वैयासे ये च मानुषाः।
भौतिकाश्च कथं क्लेशा बाधन्ते हरिसंश्रयम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
व्यासनन्दन विदुरजी! जो पुरुष श्रीहरिके आश्रित रहता है उसे शारीरिक, मानसिक, दैविक, मानुषिक अथवा भौतिक दुःख किस प्रकार कष्ट पहुँचा सकते हैं॥ ३७॥
श्लोक-३८
विश्वास-प्रस्तुतिः
यःपृष्टो मुनिभिः प्राह धर्मान्नानाविधाञ्छुभान्।
नृणां वर्णाश्रमाणां च सर्वभूतहितः सदा॥
मूलम्
यःपृष्टो मुनिभिः प्राह धर्मान्नानाविधाञ्छुभान्।
नृणां वर्णाश्रमाणां च सर्वभूतहितः सदा॥
अनुवाद (हिन्दी)
मनुजी निरन्तर समस्त प्राणियोंके हितमें लगे रहते थे। मुनियोंके पूछनेपर उन्होंने मनुष्योंके तथा समस्त वर्ण और आश्रमोंके अनेक प्रकारके मंगलमय धर्मोंका भी वर्णन किया (जो मनुसंहिताके रूपमें अब भी उपलब्ध है)॥ ३८॥
श्लोक-३९
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतत्त आदिराजस्य मनोश्चरितमद्भुतम्।
वर्णितं वर्णनीयस्य तदपत्योदयं शृणु॥
मूलम्
एतत्त आदिराजस्य मनोश्चरितमद्भुतम्।
वर्णितं वर्णनीयस्य तदपत्योदयं शृणु॥
अनुवाद (हिन्दी)
जगत्के सर्वप्रथम सम्राट् महाराज मनु वास्तवमें कीर्तनके योग्य थे। यह मैंने उनके अद्भुत चरित्रका वर्णन किया, अब उनकी कन्या देवहूतिका प्रभाव सुनो॥ ३९॥
अनुवाद (समाप्ति)
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां तृतीयस्कन्धे द्वाविंशोऽध्यायः॥ २२॥