१६

[षोडशोऽध्यायः]

भागसूचना

जय-विजयका वैकुण्ठसे पतन

श्लोक-१

मूलम् (वचनम्)

ब्रह्मोवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

इति तद् गृणतां तेषां मुनीनां योगधर्मिणाम्।
प्रतिनन्द्य जगादेदं विकुण्ठनिलयो विभुः॥

मूलम्

इति तद् गृणतां तेषां मुनीनां योगधर्मिणाम्।
प्रतिनन्द्य जगादेदं विकुण्ठनिलयो विभुः॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीब्रह्माजीने कहा—देवगण! जब योगनिष्ठ सनकादि मुनियोंने इस प्रकार स्तुति की, तब वैकुण्ठ-निवास श्रीहरिने उनकी प्रशंसा करते हुए यह कहा॥ १॥

श्लोक-२

मूलम् (वचनम्)

श्रीभगवानुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतौ तौ पार्षदौ मह्यं जयो विजय एव च।
कदर्थीकृत्य मां यद्वो बह्वक्रातामतिक्रमम्॥

मूलम्

एतौ तौ पार्षदौ मह्यं जयो विजय एव च।
कदर्थीकृत्य मां यद्वो बह्वक्रातामतिक्रमम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीभगवान‍्ने कहा—मुनिगण! ये जय-विजय मेरे पार्षद हैं। इन्होंने मेरी कुछ भी परवा न करके आपका बहुत बड़ा अपराध किया है॥ २॥

श्लोक-३

विश्वास-प्रस्तुतिः

यस्त्वेतयोर्धृतो दण्डो भवद‍्भिर्मामनुव्रतैः।
स एवानुमतोऽस्माभिर्मुनयो देवहेलनात्॥

मूलम्

यस्त्वेतयोर्धृतो दण्डो भवद‍्भिर्मामनुव्रतैः।
स एवानुमतोऽस्माभिर्मुनयो देवहेलनात्॥

अनुवाद (हिन्दी)

आपलोग भी मेरे अनुगत भक्त हैं; अतः इस प्रकार मेरी ही अवज्ञा करनेके कारण आपने इन्हें जो दण्ड दिया है, वह मुझे भी अभिमत है॥ ३॥

श्लोक-४

विश्वास-प्रस्तुतिः

तद्वः प्रसादयाम्यद्य ब्रह्म दैवं परं हि मे।
तद्धीत्यात्मकृतं मन्ये यत्स्वपुम्भिरसत्कृताः॥

मूलम्

तद्वः प्रसादयाम्यद्य ब्रह्म दैवं परं हि मे।
तद्धीत्यात्मकृतं मन्ये यत्स्वपुम्भिरसत्कृताः॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्राह्मण मेरे परम आराध्य हैं; मेरे अनुचरोंके द्वारा आपलोगोंका जो तिरस्कार हुआ है, उसे मैं अपना ही किया हुआ मानता हूँ। इसलिये मैं आपलोगोंसे प्रसन्नताकी भिक्षा माँगता हूँ॥ ४॥

श्लोक-५

विश्वास-प्रस्तुतिः

यन्नामानि च गृह्णाति लोको भृत्ये कृतागसि।
सोऽसाधुवादस्तत्कीर्तिं हन्ति त्वचमिवामयः॥

मूलम्

यन्नामानि च गृह्णाति लोको भृत्ये कृतागसि।
सोऽसाधुवादस्तत्कीर्तिं हन्ति त्वचमिवामयः॥

अनुवाद (हिन्दी)

सेवकोंके अपराध करनेपर संसार उनके स्वामीका ही नाम लेता है। वह अपयश उसकी कीर्तिको इस प्रकार दूषित कर देता है, जैसे त्वचाको चर्मरोग॥ ५॥

श्लोक-६

विश्वास-प्रस्तुतिः

यस्यामृतामलयशः श्रवणावगाहः
सद्यः पुनाति जगदाश्वपचाद्विकुण्ठः।
सोऽहं भवद‍्भ्य उपलब्धसुतीर्थकीर्ति-
श्छिन्द्यां स्वबाहुमपि वः प्रतिकूलवृत्तिम्॥

मूलम्

यस्यामृतामलयशः श्रवणावगाहः
सद्यः पुनाति जगदाश्वपचाद्विकुण्ठः।
सोऽहं भवद‍्भ्य उपलब्धसुतीर्थकीर्ति-
श्छिन्द्यां स्वबाहुमपि वः प्रतिकूलवृत्तिम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

मेरी निर्मल सुयश-सुधामें गोता लगानेसे चाण्डालपर्यन्त सारा जगत् तुरंत पवित्र हो जाता है, इसीलिये मैं ‘विकुण्ठ’ कहलाता हूँ। किन्तु यह पवित्र कीर्ति मुझे आपलोगोंसे ही प्राप्त हुई है। इसलिये जो कोई आपके विरुद्ध आचरण करेगा, वह मेरी भुजा ही क्यों न हो—मैं उसे तुरन्त काट डालूँगा॥ ६॥

श्लोक-७

विश्वास-प्रस्तुतिः

यत्सेवया चरणपद्मपवित्ररेणुं
सद्यः क्षताखिलमलं प्रतिलब्धशीलम्।
न श्रीर्विरक्तमपि मां विजहाति यस्याः
प्रेक्षालवार्थ इतरे नियमान् वहन्ति॥

मूलम्

यत्सेवया चरणपद्मपवित्ररेणुं
सद्यः क्षताखिलमलं प्रतिलब्धशीलम्।
न श्रीर्विरक्तमपि मां विजहाति यस्याः
प्रेक्षालवार्थ इतरे नियमान् वहन्ति॥

अनुवाद (हिन्दी)

आपलोगोंकी सेवा करनेसे ही मेरी चरणरजको ऐसी पवित्रता प्राप्त हुई है कि वह सारे पापोंको तत्काल नष्ट कर देती है और मुझे ऐसा सुन्दर स्वभाव मिला है कि मेरे उदासीन रहनेपर भी लक्ष्मीजी मुझे एक क्षणके लिये भी नहीं छोड़तीं—यद्यपि इन्हींके लेशमात्र कृपाकटाक्षके लिये अन्य ब्रह्मादि देवता नाना प्रकारके नियमों एवं व्रतोंका पालन करते हैं॥ ७॥

श्लोक-८

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाहं तथाद्मि यजमानहविर्विताने
श्च्योतद्‍घृतप्लुतमदन् हुतभुङ्‍मुखेन।
यद‍्ब्राह्मणस्य मुखतश्चरतोऽनुघासं
तुष्टस्य मय्यवहितैर्निजकर्मपाकैः॥

मूलम्

नाहं तथाद्मि यजमानहविर्विताने
श्च्योतद्‍घृतप्लुतमदन् हुतभुङ्‍मुखेन।
यद‍्ब्राह्मणस्य मुखतश्चरतोऽनुघासं
तुष्टस्य मय्यवहितैर्निजकर्मपाकैः॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो अपने सम्पूर्ण कर्मफल मुझे अर्पणकर सदा सन्तुष्ट रहते हैं, वे निष्काम ब्राह्मण ग्रास-ग्रासपर तृप्त होते हुए घीसे तर तरह-तरहके पकवानोंका जब भोजन करते हैं, तब उनके मुखसे मैं जैसा तृप्त होता हूँ वैसा यज्ञमें अग्निरूप मुखसे यजमानकी दी हुई आहुतियोंको ग्रहण करके नहीं होता॥ ८॥

श्लोक-९

विश्वास-प्रस्तुतिः

येषां बिभर्म्यहमखण्डविकुण्ठयोग-
मायाविभूतिरमलाङ्घ्रिरजः किरीटैः।
विप्रांस्तु को न विषहेत यदर्हणाम्भः
सद्यः पुनाति सहचन्द्रललामलोकान्॥

मूलम्

येषां बिभर्म्यहमखण्डविकुण्ठयोग-
मायाविभूतिरमलाङ्घ्रिरजः किरीटैः।
विप्रांस्तु को न विषहेत यदर्हणाम्भः
सद्यः पुनाति सहचन्द्रललामलोकान्॥

अनुवाद (हिन्दी)

योगमायाका अखण्ड और असीम ऐश्वर्य मेरे अधीन है तथा मेरी चरणोदकरूपिणी गंगाजी चन्द्रमाको मस्तकपर धारण करनेवाले भगवान् शंकरके सहित समस्त लोकोंको पवित्र करती हैं। ऐसा परम पवित्र एवं परमेश्वर होकर भी मैं जिनकी पवित्र चरण-रजको अपने मुकुटपर धारण करता हूँ, उन ब्राह्मणोंके कर्मको कौन नहीं सहन करेगा॥ ९॥

श्लोक-१०

विश्वास-प्रस्तुतिः

ये मे तनूर्द्विजवरान्दुहतीर्मदीया
भूतान्यलब्धशरणानि च भेदबुद्ध्या।
द्रक्ष्यन्त्यघक्षतदृशो ह्यहिमन्यवस्तान्
गृध्रा रुषा मम कुषन्त्यधिदण्डनेतुः॥

मूलम्

ये मे तनूर्द्विजवरान्दुहतीर्मदीया
भूतान्यलब्धशरणानि च भेदबुद्ध्या।
द्रक्ष्यन्त्यघक्षतदृशो ह्यहिमन्यवस्तान्
गृध्रा रुषा मम कुषन्त्यधिदण्डनेतुः॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्राह्मण, दूध देनेवाली गौएँ और अनाथ प्राणी—ये मेरे ही शरीर हैं। पापोंके द्वारा विवेकदृष्टि नष्ट हो जानेके कारण जो लोग इन्हें मुझसे भिन्न समझते हैं, उन्हें मेरे द्वारा नियुक्त यमराजके गृध्र-जैसे दूत—जो सर्पके समान क्रोधी हैं—अत्यन्त क्रोधित होकर अपनी चोंचोंसे नोचते हैं॥ १०॥

श्लोक-११

विश्वास-प्रस्तुतिः

ये ब्राह्मणान्मयि धिया क्षिपतोऽर्चयन्त-
स्तुष्यद्‍‍‍धृदः स्मितसुधोक्षितपद्मवक्त्राः।
वाण्यानुरागकलयाऽऽत्मजवद् गृणन्तः
सम्बोधयन्त्यहमिवाहमुपाहृतस्तैः॥

मूलम्

ये ब्राह्मणान्मयि धिया क्षिपतोऽर्चयन्त-
स्तुष्यद्‍‍‍धृदः स्मितसुधोक्षितपद्मवक्त्राः।
वाण्यानुरागकलयाऽऽत्मजवद् गृणन्तः
सम्बोधयन्त्यहमिवाहमुपाहृतस्तैः॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्राह्मण तिरस्कारपूर्वक कटुभाषण भी करे, तो भी जो उसमें मेरी भावना करके प्रसन्नचित्तसे तथा अमृतभरी मुसकानसे युक्त मुखकमलसे उसका आदर करते हैं तथा जैसे रूठे हुए पिताको पुत्र और आपलोगोंको मैं मनाता हूँ, उसी प्रकार जो प्रेमपूर्ण वचनोंसे प्रार्थना करते हुए उन्हें शान्त करते हैं, वे मुझे अपने वशमें कर लेते हैं॥ ११॥

श्लोक-१२

विश्वास-प्रस्तुतिः

तन्मे स्वभर्तुरवसायमलक्षमाणौ
युष्मद्‍व्यतिक्रमगतिं प्रतिपद्य सद्यः।
भूयो ममान्तिकमितां तदनुग्रहो मे
यत्कल्पतामचिरतो भृतयोर्विवासः॥

मूलम्

तन्मे स्वभर्तुरवसायमलक्षमाणौ
युष्मद्‍व्यतिक्रमगतिं प्रतिपद्य सद्यः।
भूयो ममान्तिकमितां तदनुग्रहो मे
यत्कल्पतामचिरतो भृतयोर्विवासः॥

अनुवाद (हिन्दी)

मेरे इन सेवकोंने मेरा अभिप्राय न समझकर ही आपलोगोंका अपमान किया है। इसलिये मेरे अनुरोधसे आप केवल इतनी कृपा कीजिये कि इनका यह निर्वासनकाल शीघ्र ही समाप्त हो जाय, ये अपने अपराधके अनुरूप अधम गतिको भोगकर शीघ्र ही मेरे पास लौट आयें॥ १२॥

श्लोक-१३

मूलम् (वचनम्)

ब्रह्मोवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथ तस्योशतीं देवीमृषिकुल्यां सरस्वतीम्।
नास्वाद्य मन्युदष्टानां तेषामात्माप्यतृप्यत॥

मूलम्

अथ तस्योशतीं देवीमृषिकुल्यां सरस्वतीम्।
नास्वाद्य मन्युदष्टानां तेषामात्माप्यतृप्यत॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीब्रह्माजी कहते हैं—देवताओ! सनकादि मुनि क्रोधरूप सर्पसे डसे हुए थे, तो भी उनका चित्त अन्तःकरणको प्रकाशित करनेवाली भगवान‍्की मन्त्रमयी सुमधुर वाणी सुनते-सुनते तृप्त नहीं हुआ॥ १३॥

श्लोक-१४

विश्वास-प्रस्तुतिः

सतीं व्यादाय शृण्वन्तो लघ्वीं गुर्वर्थगह्वराम्।
विगाह्यागाधगम्भीरां न विदुस्तच्चिकीर्षितम्॥

मूलम्

सतीं व्यादाय शृण्वन्तो लघ्वीं गुर्वर्थगह्वराम्।
विगाह्यागाधगम्भीरां न विदुस्तच्चिकीर्षितम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान‍्की उक्ति बड़ी ही मनोहर और थोड़े अक्षरोंवाली थी; किन्तु वह इतनी अर्थपूर्ण, सारयुक्त, दुर्विज्ञेय और गम्भीर थी कि बहुत ध्यान देकर सुनने और विचार करनेपर भी वे यह न जान सके कि भगवान् क्या करना चाहते हैं॥ १४॥

श्लोक-१५

विश्वास-प्रस्तुतिः

ते योगमाययाऽऽरब्धपारमेष्ठ्यमहोदयम्।
प्रोचुः प्राञ्जलयो विप्राः प्रहृष्टाः क्षुभितत्वचः॥

मूलम्

ते योगमाययाऽऽरब्धपारमेष्ठ्यमहोदयम्।
प्रोचुः प्राञ्जलयो विप्राः प्रहृष्टाः क्षुभितत्वचः॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान‍्की इस अद‍्भुत उदारताको देखकर वे बहुत आनन्दित हुए और उनका अंग-अंग पुलकित हो गया। फिर योगमायाके प्रभावसे अपने परम ऐश्वर्यका प्रभाव प्रकट करनेवाले प्रभुसे वे हाथ जोड़कर कहने लगे॥ १५॥

श्लोक-१६

मूलम् (वचनम्)

ऋषय ऊचुः

विश्वास-प्रस्तुतिः

न वयं भगवन् विद्मस्तव देव चिकीर्षितम्।
कृतो मेऽनुग्रहश्चेति यदध्यक्षः प्रभाषसे॥

मूलम्

न वयं भगवन् विद्मस्तव देव चिकीर्षितम्।
कृतो मेऽनुग्रहश्चेति यदध्यक्षः प्रभाषसे॥

अनुवाद (हिन्दी)

मुनियोंने कहा—स्वप्रकाश भगवन्! आप सर्वेश्वर होकर भी जो यह कह रहे हैं कि ‘यह आपने मुझपर बड़ा अनुग्रह किया’ सो इससे आपका क्या अभिप्राय है—यह हम नहीं जान सके हैं॥ १६॥

श्लोक-१७

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्रह्मण्यस्य परं दैवं ब्राह्मणाः किल ते प्रभो।
विप्राणां देवदेवानां भगवानात्मदैवतम्॥

मूलम्

ब्रह्मण्यस्य परं दैवं ब्राह्मणाः किल ते प्रभो।
विप्राणां देवदेवानां भगवानात्मदैवतम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रभो! आप ब्राह्मणोंके परम हितकारी हैं; इससे लोकशिक्षाके लिये आप भले ही ऐसा मानें कि ब्राह्मण मेरे आराध्यदेव हैं। वस्तुतः तो ब्राह्मण तथा देवताओंके भी देवता ब्रह्मादिके भी आप ही आत्मा और आराध्यदेव हैं॥ १७॥

श्लोक-१८

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वत्तः सनातनो धर्मो रक्ष्यते तनुभिस्तव।
धर्मस्य परमो गुह्यो निर्विकारो भवान्मतः॥

मूलम्

त्वत्तः सनातनो धर्मो रक्ष्यते तनुभिस्तव।
धर्मस्य परमो गुह्यो निर्विकारो भवान्मतः॥

अनुवाद (हिन्दी)

सनातनधर्म आपसे ही उत्पन्न हुआ है, आपके अवतारोंद्वारा ही समय-समयपर उसकी रक्षा होती है तथा निर्विकारस्वरूप आप ही धर्मके परम गुह्य रहस्य हैं—यह शास्त्रोंका मत है॥ १८॥

श्लोक-१९

विश्वास-प्रस्तुतिः

तरन्ति ह्यञ्जसा मृत्युं निवृत्ता यदनुग्रहात्।
योगिनः स भवान् किंस्विदनुगृह्येत यत्परैः॥

मूलम्

तरन्ति ह्यञ्जसा मृत्युं निवृत्ता यदनुग्रहात्।
योगिनः स भवान् किंस्विदनुगृह्येत यत्परैः॥

अनुवाद (हिन्दी)

आपकी कृपासे निवृत्तिपरायण योगीजन सहजमें ही मृत्युरूप संसार-सागरसे पार हो जाते हैं; फिर भला, दूसरा कोई आपपर क्या कृपा कर सकता है॥ १९॥

श्लोक-२०

विश्वास-प्रस्तुतिः

यं वै विभूतिरुपयात्यनुवेलमन्यै-
रर्थार्थिभिः स्वशिरसा धृतपादरेणुः।
धन्यार्पिताङ्घ्रितुलसीनवदामधाम्नो
लोकं मधुव्रतपतेरिव कामयाना॥
भगवन्! दूसरे अर्थार्थी जन जिनकी चरण-रजको सर्वदा अपने मस्तकपर धारण करते हैं, वे लक्ष्मीजी निरन्तर आपकी सेवामें लगी रहती हैं; सो ऐसा जान पड़ता है कि भाग्यवान् भक्तजन आपके चरणोंपर जो नूतन तुलसीकी मालाएँ अर्पण करते हैं, उनपर गुंजार करते हुए भौंरोंके समान वे भी आपके पादपद्मोंको ही अपना निवासस्थान बनाना चाहती हैं॥ २०॥

मूलम्

यं वै विभूतिरुपयात्यनुवेलमन्यै-
रर्थार्थिभिः स्वशिरसा धृतपादरेणुः।
धन्यार्पिताङ्घ्रितुलसीनवदामधाम्नो
लोकं मधुव्रतपतेरिव कामयाना॥
भगवन्! दूसरे अर्थार्थी जन जिनकी चरण-रजको सर्वदा अपने मस्तकपर धारण करते हैं, वे लक्ष्मीजी निरन्तर आपकी सेवामें लगी रहती हैं; सो ऐसा जान पड़ता है कि भाग्यवान् भक्तजन आपके चरणोंपर जो नूतन तुलसीकी मालाएँ अर्पण करते हैं, उनपर गुंजार करते हुए भौंरोंके समान वे भी आपके पादपद्मोंको ही अपना निवासस्थान बनाना चाहती हैं॥ २०॥

श्लोक-२१

विश्वास-प्रस्तुतिः

यस्तां विविक्तचरितैरनुवर्तमानां
नात्याद्रियत्परमभागवतप्रसङ्गः।
स त्वं द्विजानुपथपुण्यरजः पुनीतः
श्रीवत्सलक्ष्म किमगा भगभाजनस्त्वम्॥

मूलम्

यस्तां विविक्तचरितैरनुवर्तमानां
नात्याद्रियत्परमभागवतप्रसङ्गः।
स त्वं द्विजानुपथपुण्यरजः पुनीतः
श्रीवत्सलक्ष्म किमगा भगभाजनस्त्वम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

किन्तु अपने पवित्र चरित्रोंसे निरन्तर सेवामें तत्पर रहनेवाली उन लक्ष्मीजीका भी आप विशेष आदर नहीं करते, आप तो अपने भक्तोंसे ही विशेष प्रेम रखते हैं। आप स्वयं ही सम्पूर्ण भजनीय गुणोंके आश्रय हैं; क्या जहाँ-तहाँ विचरते हुए ब्राह्मणोंके चरणोंमें लगनेसे पवित्र हुई मार्गकी धूलि और श्रीवत्सका चिह्न आपको पवित्र कर सकते हैं? क्या इनसे आपकी शोभा बढ़ सकती है?॥ २१॥

श्लोक-२२

विश्वास-प्रस्तुतिः

धर्मस्य ते भगवतस्त्रियुग त्रिभिः स्वैः
पद‍्भिश्चराचरमिदं द्विजदेवतार्थम्।
नूनं भृतं तदभिघाति रजस्तमश्च
सत्त्वेन नो वरदया तनुवा निरस्य॥

मूलम्

धर्मस्य ते भगवतस्त्रियुग त्रिभिः स्वैः
पद‍्भिश्चराचरमिदं द्विजदेवतार्थम्।
नूनं भृतं तदभिघाति रजस्तमश्च
सत्त्वेन नो वरदया तनुवा निरस्य॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवन्! आप साक्षात् धर्मस्वरूप हैं। आप सत्यादि तीनों युगोंमें प्रत्यक्षरूपसे विद्यमान रहते हैं तथा ब्राह्मण और देवताओंके लिये तप, शौच और दया—अपने इन तीन चरणोंसे इस चराचर जगत‍्की रक्षा करते हैं। अब आप अपनी शुद्धसत्त्वमयी वरदायिनी मूर्तिसे हमारे धर्मविरोधी रजोगुण-तमोगुणको दूर कर दीजिये॥ २२॥

श्लोक-२३

विश्वास-प्रस्तुतिः

न त्वं द्विजोत्तमकुलं यदिहात्मगोपं
गोप्ता वृषः स्वर्हणेन ससूनृतेन।
तर्ह्येव नङ्क्ष्यति शिवस्तव देव पन्था
लोकोऽग्रहीष्यदृषभस्य हि तत्प्रमाणम्॥

मूलम्

न त्वं द्विजोत्तमकुलं यदिहात्मगोपं
गोप्ता वृषः स्वर्हणेन ससूनृतेन।
तर्ह्येव नङ्क्ष्यति शिवस्तव देव पन्था
लोकोऽग्रहीष्यदृषभस्य हि तत्प्रमाणम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

देव! यह ब्राह्मणकुल आपके द्वारा अवश्य रक्षणीय है। यदि साक्षात् धर्मरूप होकर भी आप सुमधुर वाणी और पूजनादिके द्वारा इस उत्तम कुलकी रक्षा न करें तो आपका निश्चित किया हुआ कल्याणमार्ग ही नष्ट हो जाय; क्योंकि लोक तो श्रेष्ठ पुरुषोंके आचरणको ही प्रमाणरूपसे ग्रहण करता है॥ २३॥

श्लोक-२४

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्तेऽनभीष्टमिव सत्त्वनिधेर्विधित्सोः
क्षेमं जनाय निजशक्तिभिरुद्‍धृतारेः।
नैतावता त्र्यधिपतेर्बत विश्वभर्तु-
स्तेजः क्षतं त्ववनतस्य स ते विनोदः॥

मूलम्

तत्तेऽनभीष्टमिव सत्त्वनिधेर्विधित्सोः
क्षेमं जनाय निजशक्तिभिरुद्‍धृतारेः।
नैतावता त्र्यधिपतेर्बत विश्वभर्तु-
स्तेजः क्षतं त्ववनतस्य स ते विनोदः॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रभो! आप सत्त्वगुणकी खान हैं और सभी जीवोंका कल्याण करनेके लिये उत्सुक हैं। इसीसे आप अपनी शक्तिरूप राजा आदिके द्वारा धर्मके शत्रुओंका संहार करते हैं; क्योंकि वेदमार्गका उच्छेद आपको अभीष्ट नहीं है। आप त्रिलोकीनाथ और जगत्प्रतिपालक होकर भी ब्राह्मणोंके प्रति इतने नम्र रहते हैं, इससे आपके तेजकी कोई हानि नहीं होती; यह तो आपकी लीलामात्र है॥ २४॥

श्लोक-२५

विश्वास-प्रस्तुतिः

यं वानयोर्दममधीश भवान् विधत्ते
वृत्तिं नु वा तदनुमन्महि निर्व्यलीकम्।
अस्मासु वा य उचितो ध्रियतां स दण्डो
येऽनागसौ वयमयुङ्क्ष्महि किल्बिषेण॥

मूलम्

यं वानयोर्दममधीश भवान् विधत्ते
वृत्तिं नु वा तदनुमन्महि निर्व्यलीकम्।
अस्मासु वा य उचितो ध्रियतां स दण्डो
येऽनागसौ वयमयुङ्क्ष्महि किल्बिषेण॥

अनुवाद (हिन्दी)

सर्वेश्वर! इन द्वारपालोंको आप जैसा उचित समझें वैसा दण्ड दें अथवा पुरस्काररूपमें इनकी वृत्ति बढ़ा दें—हम निष्कपटभावसे सब प्रकार आपसे सहमत हैं अथवा हमने आपके इन निरपराध अनुचरोंको शाप दिया है, इसके लिये हमींको उचित दण्ड दें; हमें वह भी सहर्ष स्वीकार है॥ २५॥

श्लोक-२६

मूलम् (वचनम्)

श्रीभगवानुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतौ सुरेतरगतिं प्रतिपद्य सद्यः
संरम्भसम्भृतसमाध्यनुबद्धयोगौ।
भूयः सकाशमुपयास्यत आशु यो वः
शापो मयैव निमितस्तदवैत विप्राः॥

मूलम्

एतौ सुरेतरगतिं प्रतिपद्य सद्यः
संरम्भसम्भृतसमाध्यनुबद्धयोगौ।
भूयः सकाशमुपयास्यत आशु यो वः
शापो मयैव निमितस्तदवैत विप्राः॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीभगवान‍्ने कहा—मुनिगण! आपने इन्हें जो शाप दिया है—सच जानिये, वह मेरी ही प्रेरणासे हुआ है। अब ये शीघ्र ही दैत्ययोनिको प्राप्त होंगे और वहाँ क्रोधावेशसे बढ़ी हुई एकाग्रताके कारण सुदृढ़ योगसम्पन्न होकर फिर जल्दी ही मेरे पास लौट आयेंगे॥ २६॥

श्लोक-२७

मूलम् (वचनम्)

ब्रह्मोवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथ ते मुनयो दृष्ट्वा नयनानन्दभाजनम्।
वैकुण्ठं तदधिष्ठानं विकुण्ठं च स्वयंप्रभम्॥

मूलम्

अथ ते मुनयो दृष्ट्वा नयनानन्दभाजनम्।
वैकुण्ठं तदधिष्ठानं विकुण्ठं च स्वयंप्रभम्॥

श्लोक-२८

विश्वास-प्रस्तुतिः

भगवन्तं परिक्रम्य प्रणिपत्यानुमान्य च।
प्रतिजग्मुः प्रमुदिताः शंसन्तो वैष्णवीं श्रियम्॥

मूलम्

भगवन्तं परिक्रम्य प्रणिपत्यानुमान्य च।
प्रतिजग्मुः प्रमुदिताः शंसन्तो वैष्णवीं श्रियम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीब्रह्माजी कहते हैं—तदनन्तर उन मुनीश्वरोंने नयनाभिराम भगवान् विष्णु और उनके स्वयंप्रकाश वैकुण्ठधामके दर्शन करके प्रभुकी परिक्रमा की और उन्हें प्रणामकर तथा उनकी आज्ञा पा भगवान‍्के ऐश्वर्यका वर्णन करते हुए प्रमुदित हो वहाँसे लौट गये॥ २७-२८॥

श्लोक-२९

विश्वास-प्रस्तुतिः

भगवाननुगावाह यातं मा भैष्टमस्तु शम्।
ब्रह्मतेजः समर्थोऽपि हन्तुं नेच्छे मतं तु मे॥

मूलम्

भगवाननुगावाह यातं मा भैष्टमस्तु शम्।
ब्रह्मतेजः समर्थोऽपि हन्तुं नेच्छे मतं तु मे॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर भगवान‍्ने अपने अनुचरोंसे कहा, ‘जाओ, मनमें किसी प्रकारका भय मत करो; तुम्हारा कल्याण होगा। मैं सब कुछ करनेमें समर्थ होकर भी ब्रह्मतेजको मिटाना नहीं चाहता; क्योंकि ऐसा ही मुझे अभिमत भी है॥ २९॥

श्लोक-३०

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतत्पुरैव निर्दिष्टं रमया क्रुद्धया यदा।
पुरापवारिता द्वारि विशन्ती मय्युपारते॥

मूलम्

एतत्पुरैव निर्दिष्टं रमया क्रुद्धया यदा।
पुरापवारिता द्वारि विशन्ती मय्युपारते॥

अनुवाद (हिन्दी)

एक बार जब मैं योगनिद्रामें स्थित हो गया था, तब तुमने द्वारमें प्रवेश करती हुई लक्ष्मीजीको रोका था। उस समय उन्होंने क्रुद्ध होकर पहले ही तुम्हें यह शाप दे दिया था॥ ३०॥

श्लोक-३१

विश्वास-प्रस्तुतिः

मयि संरम्भयोगेन निस्तीर्य ब्रह्महेलनम्।
प्रत्येष्यतं निकाशं मे कालेनाल्पीयसा पुनः॥

मूलम्

मयि संरम्भयोगेन निस्तीर्य ब्रह्महेलनम्।
प्रत्येष्यतं निकाशं मे कालेनाल्पीयसा पुनः॥

अनुवाद (हिन्दी)

अब दैत्ययोनिमें मेरे प्रति क्रोधाकार वृत्ति रहनेसे तुम्हें जो एकाग्रता होगी, उससे तुम इस विप्र-तिरस्कारजनित पापसे मुक्त हो जाओगे और फिर थोड़े ही समयमें मेरे पास लौट आओगे॥ ३१॥

श्लोक-३२

विश्वास-प्रस्तुतिः

द्वाःस्थावादिश्य भगवान् विमानश्रेणिभूषणम्।
सर्वातिशयया लक्ष्म्या जुष्टं स्वं धिष्ण्यमाविशत्॥

मूलम्

द्वाःस्थावादिश्य भगवान् विमानश्रेणिभूषणम्।
सर्वातिशयया लक्ष्म्या जुष्टं स्वं धिष्ण्यमाविशत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

द्वारपालोंको इस प्रकार आज्ञा दे, भगवान‍्ने विमानोंकी श्रेणियोंसे सुसज्जित अपने सर्वाधिक श्रीसम्पन्न धाममें प्रवेश किया॥ ३२॥

श्लोक-३३

विश्वास-प्रस्तुतिः

तौ तु गीर्वाणऋषभौ दुस्तराद्धरिलोकतः।
हतश्रियौ ब्रह्मशापादभूतां विगतस्मयौ॥

मूलम्

तौ तु गीर्वाणऋषभौ दुस्तराद्धरिलोकतः।
हतश्रियौ ब्रह्मशापादभूतां विगतस्मयौ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे देवश्रेष्ठ जय-विजय तो ब्रह्म-शापके कारण उस अलंघनीय भगवद्धाममें ही श्रीहीन हो गये तथा उनका सारा गर्व गलित हो गया॥ ३३॥

श्लोक-३४

विश्वास-प्रस्तुतिः

तदा विकुण्ठधिषणात्तयोर्निपतमानयोः।
हाहाकारो महानासीद्विमानाग्र्येषु पुत्रकाः॥

मूलम्

तदा विकुण्ठधिषणात्तयोर्निपतमानयोः।
हाहाकारो महानासीद्विमानाग्र्येषु पुत्रकाः॥

अनुवाद (हिन्दी)

पुत्रो! फिर जब वे वैकुण्ठलोकसे गिरने लगे, तब वहाँ श्रेष्ठ विमानोंपर बैठे हुए वैकुण्ठवासियोंमें महान् हाहाकार मच गया॥ ३४॥

श्लोक-३५

विश्वास-प्रस्तुतिः

तावेव ह्यधुना प्राप्तौ पार्षदप्रवरौ हरेः।
दितेर्जठरनिर्विष्टं काश्यपं तेज उल्बणम्॥

मूलम्

तावेव ह्यधुना प्राप्तौ पार्षदप्रवरौ हरेः।
दितेर्जठरनिर्विष्टं काश्यपं तेज उल्बणम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस समय दितिके गर्भमें स्थित जो कश्यपजीका उग्र तेज है, उसमें भगवान‍्के उन पार्षदप्रवरोंने ही प्रवेश किया है॥ ३५॥

श्लोक-३६

विश्वास-प्रस्तुतिः

तयोरसुरयोरद्य तेजसा यमयोर्हि वः।
आक्षिप्तं तेज एतर्हि भगवांस्तद्विधित्सति॥

मूलम्

तयोरसुरयोरद्य तेजसा यमयोर्हि वः।
आक्षिप्तं तेज एतर्हि भगवांस्तद्विधित्सति॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन दोनों असुरोंके तेजसे ही तुम सबका तेज फीका पड़ गया है। इस समय भगवान् ऐसा ही करना चाहते हैं॥ ३६॥

श्लोक-३७

विश्वास-प्रस्तुतिः

विश्वस्य यः स्थितिलयोद‍्भवहेतुराद्यो
योगेश्वरैरपि दुरत्यययोगमायः।
क्षेमं विधास्यति स नो भगवांस्त्र्यधीश-
स्तत्रास्मदीयविमृशेन कियानिहार्थः॥

मूलम्

विश्वस्य यः स्थितिलयोद‍्भवहेतुराद्यो
योगेश्वरैरपि दुरत्यययोगमायः।
क्षेमं विधास्यति स नो भगवांस्त्र्यधीश-
स्तत्रास्मदीयविमृशेन कियानिहार्थः॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो आदिपुरुष संसारकी उत्पत्ति, स्थिति और लयके कारण हैं, जिनकी योगमायाको बड़े-बड़े योगिजन भी बड़ी कठिनतासे पार कर पाते हैं—वे सत्त्वादि तीनों गुणोंके नियन्ता श्रीहरि ही हमारा कल्याण करेंगे। अब इस विषयमें हमारे विशेष विचार करनेसे क्या लाभ हो सकता है॥ ३७॥

अनुवाद (समाप्ति)

इति श्रीमद‍्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां तृतीयस्कन्धे षोडशोऽध्यायः॥ १६॥