[द्वादशोऽध्यायः]
भागसूचना
सृष्टिका विस्तार
श्लोक-१
मूलम् (वचनम्)
मैत्रेय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
इति ते वर्णितः क्षत्तः कालाख्यः परमात्मनः।
महिमा वेदगर्भोऽथ यथास्राक्षीन्निबोध मे॥
मूलम्
इति ते वर्णितः क्षत्तः कालाख्यः परमात्मनः।
महिमा वेदगर्भोऽथ यथास्राक्षीन्निबोध मे॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीमैत्रेयजीने कहा—विदुरजी! यहाँतक मैंने आपको भगवान्की कालरूप महिमा सुनायी। अब जिस प्रकार ब्रह्माजीने जगत्की रचना की, वह सुनिये॥ १॥
श्लोक-२
विश्वास-प्रस्तुतिः
ससर्जाग्रेऽन्धतामिस्रमथ तामिस्रमादिकृत्।
महामोहं च मोहं च तमश्चाज्ञानवृत्तयः।
मूलम्
ससर्जाग्रेऽन्धतामिस्रमथ तामिस्रमादिकृत्।
महामोहं च मोहं च तमश्चाज्ञानवृत्तयः।
अनुवाद (हिन्दी)
सबसे पहले उन्होंने अज्ञानकी पाँच वृत्तियाँ—तम (अविद्या), मोह (अस्मिता), महामोह (राग), तामिस्र (द्वेष) और अन्धतामिस्र (अभिनिवेश) रचीं॥ २॥
श्लोक-३
विश्वास-प्रस्तुतिः
दृष्ट्वा पापीयसीं सृष्टिं नात्मानं बह्वमन्यत।
भगवद्ध्यानपूतेन मनसान्यां ततोऽसृजत्॥
मूलम्
दृष्ट्वा पापीयसीं सृष्टिं नात्मानं बह्वमन्यत।
भगवद्ध्यानपूतेन मनसान्यां ततोऽसृजत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
किन्तु इस अत्यन्त पापमयी सृष्टिको देखकर उन्हें प्रसन्नता नहीं हुई। तब उन्होंने अपने मनको भगवान्के ध्यानसे पवित्र कर उससे दूसरी सृष्टि रची॥ ३॥
श्लोक-४
विश्वास-प्रस्तुतिः
सनकं च सनन्दं च सनातनमथात्मभूः।
सनत्कुमारं च मुनीन् निष्क्रियानूर्ध्वरेतसः॥
मूलम्
सनकं च सनन्दं च सनातनमथात्मभूः।
सनत्कुमारं च मुनीन् निष्क्रियानूर्ध्वरेतसः॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस बार ब्रह्माजीने सनक, सनन्दन, सनातन और सनत्कुमार—ये चार निवृत्तिपरायण ऊर्ध्वरेता मुनि उत्पन्न किये॥ ४॥
श्लोक-५
विश्वास-प्रस्तुतिः
तान् बभाषे स्वभूः पुत्रान् प्रजाः सृजत पुत्रकाः।
तन्नैच्छन्मोक्षधर्माणो वासुदेवपरायणाः॥
मूलम्
तान् बभाषे स्वभूः पुत्रान् प्रजाः सृजत पुत्रकाः।
तन्नैच्छन्मोक्षधर्माणो वासुदेवपरायणाः॥
अनुवाद (हिन्दी)
अपने इन पुत्रोंसे ब्रह्माजीने कहा, ‘पुत्रो! तुमलोग सृष्टि उत्पन्न करो।’ किंतु वे जन्मसे ही मोक्षमार्ग-(निवृत्तिमार्ग-) का अनुसरण करनेवाले और भगवान्के ध्यानमें तत्पर थे, इसलिये उन्होंने ऐसा करना नहीं चाहा॥ ५॥
श्लोक-६
विश्वास-प्रस्तुतिः
सोऽवध्यातः सुतैरेवं प्रत्याख्यातानुशासनैः।
क्रोधं दुर्विषहं जातं नियन्तुमुपचक्रमे॥
मूलम्
सोऽवध्यातः सुतैरेवं प्रत्याख्यातानुशासनैः।
क्रोधं दुर्विषहं जातं नियन्तुमुपचक्रमे॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब ब्रह्माजीने देखा कि मेरी आज्ञा न मानकर ये मेरे पुत्र मेरा तिरस्कार कर रहे हैं, तब उन्हें असह्य क्रोध हुआ। उन्होंने उसे रोकनेका प्रयत्न किया॥ ६॥
श्लोक-७
विश्वास-प्रस्तुतिः
धिया निगृह्यमाणोऽपि भ्रुवोर्मध्यात्प्रजापतेः।
सद्योऽजायत तन्मन्युः कुमारो नीललोहितः॥
मूलम्
धिया निगृह्यमाणोऽपि भ्रुवोर्मध्यात्प्रजापतेः।
सद्योऽजायत तन्मन्युः कुमारो नीललोहितः॥
अनुवाद (हिन्दी)
किंतु बुद्धि-द्वारा उनके बहुत रोकनेपर भी वह क्रोध तत्काल प्रजापतिकी भौंहोंके बीचमेंसे एक नीललोहित (नीले और लाल रंगके) बालकके रूपमें प्रकट हो गया॥ ७॥
श्लोक-८
विश्वास-प्रस्तुतिः
स वै रुरोद देवानां पूर्वजो भगवान् भवः।
नामानि कुरु मे धातः स्थानानि च जगद्गुरो॥
मूलम्
स वै रुरोद देवानां पूर्वजो भगवान् भवः।
नामानि कुरु मे धातः स्थानानि च जगद्गुरो॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे देवताओंके पूर्वज भगवान् भव (रुद्र) रो-रोकर कहने लगे—‘जगत्पिता! विधाता! मेरे नाम और रहनेके स्थान बतलाइये’॥ ८॥
श्लोक-९
विश्वास-प्रस्तुतिः
इति तस्य वचः पाद्मो भगवान् परिपालयन्।
अभ्यधाद् भद्रया वाचा मा रोदीस्तत्करोमि ते।
मूलम्
इति तस्य वचः पाद्मो भगवान् परिपालयन्।
अभ्यधाद् भद्रया वाचा मा रोदीस्तत्करोमि ते।
अनुवाद (हिन्दी)
तब कमलयोनि भगवान् ब्रह्माने उस बालककी प्रार्थना पूर्ण करनेके लिये मधुर वाणीमें कहा, ‘रोओ मत, मैं अभी तुम्हारी इच्छा पूरी करता हूँ॥ ९॥
श्लोक-१०
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदरोदीः सुरश्रेष्ठ सोद्वेग इव बालकः।
ततस्त्वामभिधास्यन्ति नाम्ना रुद्र इति प्रजाः॥
मूलम्
यदरोदीः सुरश्रेष्ठ सोद्वेग इव बालकः।
ततस्त्वामभिधास्यन्ति नाम्ना रुद्र इति प्रजाः॥
अनुवाद (हिन्दी)
देवश्रेष्ठ! तुम जन्म लेते ही बालकके समान फूट-फूटकर रोने लगे, इसलिये प्रजा तुम्हें ‘रुद्र’ नामसे पुकारेगी॥ १०॥
श्लोक-११
विश्वास-प्रस्तुतिः
हृदिन्द्रियाण्यसुर्व्योम वायुरग्निर्जलं मही।
सूर्यश्चन्द्रस्तपश्चैव स्थानान्यग्रे कृतानि मे॥
मूलम्
हृदिन्द्रियाण्यसुर्व्योम वायुरग्निर्जलं मही।
सूर्यश्चन्द्रस्तपश्चैव स्थानान्यग्रे कृतानि मे॥
अनुवाद (हिन्दी)
तुम्हारे रहनेके लिये मैंने पहलेसे ही हृदय, इन्द्रिय, प्राण, आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी, सूर्य, चन्द्रमा और तप—ये स्थान रच दिये हैं॥ ११॥
श्लोक-१२
विश्वास-प्रस्तुतिः
मन्युर्मनुर्महिनसो महाञ्छिव ऋतध्वजः।
उग्ररेता भवः कालो वामदेवो धृतव्रतः॥
मूलम्
मन्युर्मनुर्महिनसो महाञ्छिव ऋतध्वजः।
उग्ररेता भवः कालो वामदेवो धृतव्रतः॥
अनुवाद (हिन्दी)
तुम्हारे नाम मन्यु, मनु, महिनस, महान्, शिव, ऋतध्वज, उग्ररेता, भव, काल, वामदेव और धृतव्रत होंगे॥ १२॥
श्लोक-१३
विश्वास-प्रस्तुतिः
धीर्वृत्तिरुशनोमा च नियुत्सर्पिरिलाम्बिका।
इरावती सुधा दीक्षा रुद्राण्यो रुद्र ते स्त्रियः॥
मूलम्
धीर्वृत्तिरुशनोमा च नियुत्सर्पिरिलाम्बिका।
इरावती सुधा दीक्षा रुद्राण्यो रुद्र ते स्त्रियः॥
अनुवाद (हिन्दी)
तथा धी, वृत्ति, उशना, उमा, नियुत्, सर्पि, इला, अम्बिका, इरावती, सुधा और दीक्षा—ये ग्यारह रुद्राणियाँ तुम्हारी पत्नियाँ होंगी॥ १३॥
श्लोक-१४
विश्वास-प्रस्तुतिः
गृहाणैतानि नामानि स्थानानि च सयोषणः।
एभिः सृज प्रजा बह्वीः प्रजानामसि यत्पतिः॥
मूलम्
गृहाणैतानि नामानि स्थानानि च सयोषणः।
एभिः सृज प्रजा बह्वीः प्रजानामसि यत्पतिः॥
अनुवाद (हिन्दी)
तुम उपर्युक्त नाम, स्थान और स्त्रियोंको स्वीकार करो और इनके द्वारा बहुत-सी प्रजा उत्पन्न करो; क्योंकि तुम प्रजापति हो’॥ १४॥
श्लोक-१५
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्यादिष्टः स गुरुणा भगवान् नीललोहितः।
सत्त्वाकृतिस्वभावेन ससर्जात्मसमाः प्रजाः॥
मूलम्
इत्यादिष्टः स गुरुणा भगवान् नीललोहितः।
सत्त्वाकृतिस्वभावेन ससर्जात्मसमाः प्रजाः॥
अनुवाद (हिन्दी)
लोकपिता ब्रह्माजीसे ऐसी आज्ञा पाकर भगवान् नीललोहित बल, आकार और स्वभावमें अपने ही जैसी प्रजा उत्पन्न करने लगे॥ १५॥
श्लोक-१६
विश्वास-प्रस्तुतिः
रुद्राणां रुद्रसृष्टानां समन्ताद् ग्रसतां जगत्।
निशाम्यासंख्यशो यूथान् प्रजापतिरशङ्कत॥
मूलम्
रुद्राणां रुद्रसृष्टानां समन्ताद् ग्रसतां जगत्।
निशाम्यासंख्यशो यूथान् प्रजापतिरशङ्कत॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् रुद्रके द्वारा उत्पन्न हुए उन रुद्रोंको असंख्य यूथ बनाकर सारे संसारको भक्षण करते देख ब्रह्माजीको बड़ी शंका हुई॥ १६॥
श्लोक-१७
विश्वास-प्रस्तुतिः
अलं प्रजाभिः सृष्टाभिरीदृशीभिः सुरोत्तम।
मया सह दहन्तीभिर्दिशश्चक्षुर्भिरुल्बणैः॥
मूलम्
अलं प्रजाभिः सृष्टाभिरीदृशीभिः सुरोत्तम।
मया सह दहन्तीभिर्दिशश्चक्षुर्भिरुल्बणैः॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब उन्होंने रुद्रसे कहा—‘सुरश्रेष्ठ! तुम्हारी प्रजा तो अपनी भयंकर दृष्टिसे मुझे और सारी दिशाओंको भस्म किये डालती है; अतः ऐसी सृष्टि और न रचो॥ १७॥
श्लोक-१८
विश्वास-प्रस्तुतिः
तप आतिष्ठ भद्रं ते सर्वभूतसुखावहम्।
तपसैव यथापूर्वं स्रष्टा विश्वमिदं भवान्॥
मूलम्
तप आतिष्ठ भद्रं ते सर्वभूतसुखावहम्।
तपसैव यथापूर्वं स्रष्टा विश्वमिदं भवान्॥
अनुवाद (हिन्दी)
तुम्हारा कल्याण हो, अब तुम समस्त प्राणियोंको सुख देनेके लिये तप करो। फिर उस तपके प्रभावसे ही तुम पूर्ववत् इस संसारकी रचना करना॥ १८॥
श्लोक-१९
विश्वास-प्रस्तुतिः
तपसैव परं ज्योतिर्भगवन्तमधोक्षजम्।
सर्वभूतगुहावासमञ्जसा विन्दते पुमान्॥
मूलम्
तपसैव परं ज्योतिर्भगवन्तमधोक्षजम्।
सर्वभूतगुहावासमञ्जसा विन्दते पुमान्॥
अनुवाद (हिन्दी)
पुरुष तपके द्वारा ही इन्द्रियातीत, सर्वान्तर्यामी, ज्योतिःस्वरूप श्रीहरिको सुगमतासे प्राप्त कर सकता है’॥ १९॥
श्लोक-२०
मूलम् (वचनम्)
मैत्रेय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमात्मभुवाऽऽदिष्टः परिक्रम्य गिरां पतिम्।
बाढमित्यमुमामन्त्र्य विवेश तपसे वनम्॥
मूलम्
एवमात्मभुवाऽऽदिष्टः परिक्रम्य गिरां पतिम्।
बाढमित्यमुमामन्त्र्य विवेश तपसे वनम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीमैत्रेयजी कहते हैं—जब ब्रह्माजीने ऐसी आज्ञा दी, तब रुद्रने ‘बहुत अच्छा’ कहकर उसे शिरोधार्य किया और फिर उनकी अनुमति लेकर तथा उनकी परिक्रमा करके वे तपस्या करनेके लिये वनको चले गये॥ २०॥
श्लोक-२१
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथाभिध्यायतः सर्गं दश पुत्राः प्रजज्ञिरे।
भगवच्छक्तियुक्तस्य लोकसन्तानहेतवः॥
मूलम्
अथाभिध्यायतः सर्गं दश पुत्राः प्रजज्ञिरे।
भगवच्छक्तियुक्तस्य लोकसन्तानहेतवः॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसके पश्चात् जब भगवान्की शक्तिसे सम्पन्न ब्रह्माजीने सृष्टिके लिये संकल्प किया, तब उनके दस पुत्र और उत्पन्न हुए। उनसे लोककी बहुत वृद्धि हुई॥ २१॥
श्लोक-२२
विश्वास-प्रस्तुतिः
मरीचिरत्र्यङ्गिरसौ पुलस्त्यः पुलहः क्रतुः।
भृगुर्वसिष्ठो दक्षश्च दशमस्तत्र नारदः॥
मूलम्
मरीचिरत्र्यङ्गिरसौ पुलस्त्यः पुलहः क्रतुः।
भृगुर्वसिष्ठो दक्षश्च दशमस्तत्र नारदः॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनके नाम मरीचि, अत्रि, अंगिरा, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु, भृगु, वसिष्ठ, दक्ष और दसवें नारद थे॥ २२॥
श्लोक-२३
विश्वास-प्रस्तुतिः
उत्सङ्गान्नारदो जज्ञे दक्षोऽङ्गुष्ठात्स्वयम्भुवः।
प्राणाद्वसिष्ठः सञ्जातो भृगुस्त्वचि करात्क्रतुः॥
मूलम्
उत्सङ्गान्नारदो जज्ञे दक्षोऽङ्गुष्ठात्स्वयम्भुवः।
प्राणाद्वसिष्ठः सञ्जातो भृगुस्त्वचि करात्क्रतुः॥
श्लोक-२४
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुलहो नाभितो जज्ञे पुलस्त्यः कर्णयोर्ऋषिः।
अङ्गिरा मुखतोऽक्ष्णोऽत्रिर्मरीचिर्मनसोऽभवत्॥
मूलम्
पुलहो नाभितो जज्ञे पुलस्त्यः कर्णयोर्ऋषिः।
अङ्गिरा मुखतोऽक्ष्णोऽत्रिर्मरीचिर्मनसोऽभवत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
इनमें नारदजी प्रजापति ब्रह्माजीकी गोदसे, दक्ष अँगूठेसे, वसिष्ठ प्राणसे, भृगु त्वचासे, क्रतु हाथसे, पुलह नाभिसे, पुलस्त्य ऋषि कानोंसे, अंगिरा मुखसे, अत्रि नेत्रोंसे और मरीचि मनसे उत्पन्न हुए॥ २३-२४॥
श्लोक-२५
विश्वास-प्रस्तुतिः
धर्मः स्तनाद्दक्षिणतो यत्र नारायणः स्वयम्।
अधर्मः पृष्ठतो यस्मान्मृत्युर्लोकभयङ्करः॥
मूलम्
धर्मः स्तनाद्दक्षिणतो यत्र नारायणः स्वयम्।
अधर्मः पृष्ठतो यस्मान्मृत्युर्लोकभयङ्करः॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर उनके दायें स्तनसे धर्म उत्पन्न हुआ, जिसकी पत्नी मूर्तिसे स्वयं नारायण अवतीर्ण हुए तथा उनकी पीठसे अधर्मका जन्म हुआ और उससे संसारको भयभीत करनेवाला मृत्यु उत्पन्न हुआ॥ २५॥
श्लोक-२६
विश्वास-प्रस्तुतिः
हृदि कामो भ्रुवः क्रोधो लोभश्चाधरदच्छदात्।
आस्याद्वाक्सिन्धवो मेढ्रान्निर्ऋतिः पायोरघाश्रयः॥
मूलम्
हृदि कामो भ्रुवः क्रोधो लोभश्चाधरदच्छदात्।
आस्याद्वाक्सिन्धवो मेढ्रान्निर्ऋतिः पायोरघाश्रयः॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसी प्रकार ब्रह्माजीके हृदयसे काम, भौंहोंसे क्रोध, नीचेके होठसे लोभ, मुखसे वाणीकी अधिष्ठात्री देवी सरस्वती, लिंगसे समुद्र, गुदासे पापका निवासस्थान (राक्षसोंका अधिपति) निर्ऋति॥ २६॥
श्लोक-२७
विश्वास-प्रस्तुतिः
छायायाः कर्दमो जज्ञे देवहूत्याः पतिः प्रभुः।
मनसो देहतश्चेदं जज्ञे विश्वकृतो जगत्॥
मूलम्
छायायाः कर्दमो जज्ञे देवहूत्याः पतिः प्रभुः।
मनसो देहतश्चेदं जज्ञे विश्वकृतो जगत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
छायासे देवहूतिके पति भगवान् कर्दमजी उत्पन्न हुए। इस तरह यह सारा जगत् जगत्कर्ता ब्रह्माजीके शरीर और मनसे उत्पन्न हुआ॥ २७॥
श्लोक-२८
विश्वास-प्रस्तुतिः
वाचं दुहितरं तन्वीं स्वयम्भूर्हरतीं मनः।
अकामां चकमे क्षत्तः सकाम इति नः श्रुतम्॥
मूलम्
वाचं दुहितरं तन्वीं स्वयम्भूर्हरतीं मनः।
अकामां चकमे क्षत्तः सकाम इति नः श्रुतम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
विदुरजी! भगवान् ब्रह्माकी कन्या सरस्वती बड़ी ही सुकुमारी और मनोहर थी। हमने सुना है—एक बार उसे देखकर ब्रह्माजी काममोहित हो गये थे, यद्यपि वह स्वयं वासनाहीन थी॥ २८॥
श्लोक-२९
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमधर्मे कृतमतिं विलोक्य पितरं सुताः।
मरीचिमुख्या मुनयो विश्रम्भात्प्रत्यबोधयन्॥
मूलम्
तमधर्मे कृतमतिं विलोक्य पितरं सुताः।
मरीचिमुख्या मुनयो विश्रम्भात्प्रत्यबोधयन्॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन्हें ऐसा अधर्ममय संकल्प करते देख, उनके पुत्र मरीचि आदि ऋषियोंने उन्हें विश्वासपूर्वक समझाया—॥ २९॥
श्लोक-३०
विश्वास-प्रस्तुतिः
नैतत्पूर्वैः कृतं त्वद्ये न करिष्यन्ति चापरे।
यत्त्वं दुहितरं गच्छेरनिगृह्याङ्गजं प्रभुः॥
मूलम्
नैतत्पूर्वैः कृतं त्वद्ये न करिष्यन्ति चापरे।
यत्त्वं दुहितरं गच्छेरनिगृह्याङ्गजं प्रभुः॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘पिताजी! आप समर्थ हैं, फिर भी अपने मनमें उत्पन्न हुए कामके वेगको न रोककर पुत्रीगमन-जैसा दुस्तर पाप करनेका संकल्प कर रहे हैं! ऐसा तो आपसे पूर्ववर्ती किसी भी ब्रह्माने नहीं किया और न आगे ही कोई करेगा॥ ३०॥
श्लोक-३१
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेजीयसामपि ह्येतन्न सुश्लोक्यं जगद्गुरो।
यद्वृत्तमनुतिष्ठन् वै लोकः क्षेमाय कल्पते॥
मूलम्
तेजीयसामपि ह्येतन्न सुश्लोक्यं जगद्गुरो।
यद्वृत्तमनुतिष्ठन् वै लोकः क्षेमाय कल्पते॥
अनुवाद (हिन्दी)
जगद्गुरो! आप-जैसे तेजस्वी पुरुषोंको भी ऐसा काम शोभा नहीं देता; क्योंकि आपलोगोंके आचरणोंका अनुसरण करनेसे ही तो संसारका कल्याण होता है॥ ३१॥
श्लोक-३२
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मै नमो भगवते य इदं स्वेन रोचिषा।
आत्मस्थं व्यञ्जयामास स धर्मं पातुमर्हति॥
मूलम्
तस्मै नमो भगवते य इदं स्वेन रोचिषा।
आत्मस्थं व्यञ्जयामास स धर्मं पातुमर्हति॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिन श्रीभगवान्ने अपने स्वरूपमें स्थित इस जगत्को अपने ही तेजसे प्रकट किया है, उन्हें नमस्कार है। इस समय वे ही धर्मकी रक्षा कर सकते हैं’॥ ३२॥
श्लोक-३३
विश्वास-प्रस्तुतिः
स इत्थं गृणतः पुत्रान् पुरो दृष्ट्वा प्रजापतीन्।
प्रजापतिपतिस्तन्वं तत्याज व्रीडितस्तदा।
तां दिशो जगृहुर्घोरां नीहारं यद्विदुस्तमः॥
मूलम्
स इत्थं गृणतः पुत्रान् पुरो दृष्ट्वा प्रजापतीन्।
प्रजापतिपतिस्तन्वं तत्याज व्रीडितस्तदा।
तां दिशो जगृहुर्घोरां नीहारं यद्विदुस्तमः॥
अनुवाद (हिन्दी)
अपने पुत्र मरीचि आदि प्रजापतियोंको अपने सामने इस प्रकार कहते देख प्रजापतियोंके पति ब्रह्माजी बड़े लज्जित हुए और उन्होंने उस शरीरको उसी समय छोड़ दिया। तब उस घोर शरीरको दिशाओंने ले लिया। वही कुहरा हुआ, जिसे अन्धकार भी कहते हैं॥ ३३॥
श्लोक-३४
विश्वास-प्रस्तुतिः
कदाचिद् ध्यायतः स्रष्टुर्वेदा आसंश्चतुर्मुखात्।
कथं स्रक्ष्याम्यहं लोकान् समवेतान् यथा पुरा॥
मूलम्
कदाचिद् ध्यायतः स्रष्टुर्वेदा आसंश्चतुर्मुखात्।
कथं स्रक्ष्याम्यहं लोकान् समवेतान् यथा पुरा॥
अनुवाद (हिन्दी)
एक बार ब्रह्माजी यह सोच रहे थे कि ‘मैं पहलेकी तरह सुव्यवस्थित रूपसे सब लोकोंकी रचना किस प्रकार करूँ?’ इसी समय उनके चार मुखोंसे चार वेद प्रकट हुए॥ ३४॥
श्लोक-३५
विश्वास-प्रस्तुतिः
चातुर्होत्रं कर्मतन्त्रमुपवेदनयैः सह।
धर्मस्य पादाश्चत्वारस्तथैवाश्रमवृत्तयः॥
मूलम्
चातुर्होत्रं कर्मतन्त्रमुपवेदनयैः सह।
धर्मस्य पादाश्चत्वारस्तथैवाश्रमवृत्तयः॥
अनुवाद (हिन्दी)
इनके सिवा उपवेद, न्यायशास्त्र, होता, उद्गाता, अध्वर्यु और ब्रह्मा—इन चार ऋत्विजोंके कर्म, यज्ञोंका विस्तार, धर्मके चार चरण और चारों आश्रम तथा उनकी वृत्तियाँ—ये सब भी ब्रह्माजीके मुखोंसे ही उत्पन्न हुए॥ ३५॥
श्लोक-३६
मूलम् (वचनम्)
विदुर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
स वै विश्वसृजामीशो वेदादीन् मुखतोऽसृजत्।
यद् यद् येनासृजद् देवस्तन्मे ब्रूहि तपोधन॥
मूलम्
स वै विश्वसृजामीशो वेदादीन् मुखतोऽसृजत्।
यद् यद् येनासृजद् देवस्तन्मे ब्रूहि तपोधन॥
अनुवाद (हिन्दी)
विदुरजीने पूछा—तपोधन! विश्व रचयिताओंके स्वामी श्रीब्रह्माजीने जब अपने मुखोंसे इन वेदादिको रचा, तो उन्होंने अपने किस मुखसे कौन वस्तु उत्पन्न की—यह आप कृपा करके मुझे बतलाइये॥ ३६॥
श्लोक-३७
मूलम् (वचनम्)
मैत्रेय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऋग्यजुःसामाथर्वाख्यान् वेदान् पूर्वादिभिर्मुखैः।
शस्त्रमिज्यां स्तुतिस्तोमं प्रायश्चित्तं व्यधात्क्रमात्॥
मूलम्
ऋग्यजुःसामाथर्वाख्यान् वेदान् पूर्वादिभिर्मुखैः।
शस्त्रमिज्यां स्तुतिस्तोमं प्रायश्चित्तं व्यधात्क्रमात्॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीमैत्रेयजीने कहा—विदुरजी! ब्रह्माने अपने पूर्व, दक्षिण, पश्चिम और उत्तरके मुखसे क्रमशः ऋक्, यजुः, साम और अथर्ववेदोंको रचा तथा इसी क्रमसे शस्त्र (होता का कर्म), इज्या (अध्वर्युका कर्म), स्तुतिस्तोम (उद्गाताका कर्म) और प्रायश्चित्त (ब्रह्माका कर्म)—इन चारोंकी रचना की॥ ३७॥
श्लोक-३८
विश्वास-प्रस्तुतिः
आयुर्वेदं धनुर्वेदं गान्धर्वं वेदमात्मनः।
स्थापत्यं चासृजद् वेदं क्रमात्पूर्वादिभिर्मुखैः॥
मूलम्
आयुर्वेदं धनुर्वेदं गान्धर्वं वेदमात्मनः।
स्थापत्यं चासृजद् वेदं क्रमात्पूर्वादिभिर्मुखैः॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसी प्रकार आयुर्वेद (चिकित्साशास्त्र), धनुर्वेद (शस्त्रविद्या), गान्धर्ववेद (संगीतशास्त्र) और स्थापत्यवेद (शिल्पविद्या)—इन चार उपवेदोंको भी क्रमशः उन पूर्वादि मुखोंसे ही उत्पन्न किया॥ ३८॥
श्लोक-३९
विश्वास-प्रस्तुतिः
इतिहासपुराणानि पञ्चमं वेदमीश्वरः।
सर्वेभ्य एव वक्त्रेभ्यः ससृजे सर्वदर्शनः॥
मूलम्
इतिहासपुराणानि पञ्चमं वेदमीश्वरः।
सर्वेभ्य एव वक्त्रेभ्यः ससृजे सर्वदर्शनः॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर सर्वदर्शी भगवान् ब्रह्माने अपने चारों मुखोंसे इतिहास-पुराणरूप पाँचवाँ वेद बनाया॥ ३९॥
श्लोक-४०
विश्वास-प्रस्तुतिः
षोडश्युक्थौ पूर्ववक्त्रात्पुरीष्यग्निष्टुतावथ।
आप्तोर्यामातिरात्रौ च वाजपेयं सगोसवम्॥
मूलम्
षोडश्युक्थौ पूर्ववक्त्रात्पुरीष्यग्निष्टुतावथ।
आप्तोर्यामातिरात्रौ च वाजपेयं सगोसवम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसी क्रमसे षोडशी और उक्थ, चयन और अग्निष्टोम, आप्तोर्याम और अतिरात्र तथा वाजपेय और गोसव—ये दो-दो याग भी उनके पूर्वादि मुखोंसे ही उत्पन्न हुए॥ ४०॥
श्लोक-४१
विश्वास-प्रस्तुतिः
विद्या दानं तपः सत्यं धर्मस्येति पदानि च।
आश्रमांश्च यथासंख्यमसृजत्सह वृत्तिभिः॥
मूलम्
विद्या दानं तपः सत्यं धर्मस्येति पदानि च।
आश्रमांश्च यथासंख्यमसृजत्सह वृत्तिभिः॥
अनुवाद (हिन्दी)
विद्या, दान, तप और सत्य—ये धर्मके चार पाद और वृत्तियोंके सहित चार आश्रम भी इसी क्रमसे प्रकट हुए॥ ४१॥
श्लोक-४२
विश्वास-प्रस्तुतिः
सावित्रं प्राजापत्यं च ब्राह्मं चाथ बृहत्तथा।
वार्तासञ्चयशालीनशिलोञ्छ इति वै गृहे॥
मूलम्
सावित्रं प्राजापत्यं च ब्राह्मं चाथ बृहत्तथा।
वार्तासञ्चयशालीनशिलोञ्छ इति वै गृहे॥
अनुवाद (हिन्दी)
सावित्र*, प्राजापत्य१, ब्राह्म२ और बृहत्३—ये चार वृत्तियाँ ब्रह्मचारीकी हैं तथा वार्ता४, संचय५, शालीन६ और शिलोञ्छ७—ये चार वृत्तियाँ गृहस्थकी हैं॥ ४२॥
पादटिप्पनी
- उपनयन-संस्कारके पश्चात् गायत्रीका अध्ययन करनेके लिये धारण किया जानेवाला तीन दिनका ब्रह्मचर्यव्रत।
१. एक वर्षका ब्रह्मचर्यव्रत। २. वेदाध्ययनकी समाप्तितक रहनेवाला ब्रह्मचर्यव्रत। ३. आयुपर्यन्त रहनेवाला ब्रह्मचर्यव्रत। ४. कृषि आदि शास्त्रविहित वृत्तियाँ। ५. यागादि कराना। ६. अयाचितवृत्ति। ७. खेत कट जानेपर पृथ्वीपर पड़े हुए तथा अनाजकी मंडीमें गिरे हुए दानोंको बीनकर निर्वाह करना।
श्लोक-४३
विश्वास-प्रस्तुतिः
वैखानसा वालखिल्यौदुम्बराः फेनपा वने।
न्यासे कुटीचकः पूर्वं बह्वोदो हंसनिष्क्रियौ॥
मूलम्
वैखानसा वालखिल्यौदुम्बराः फेनपा वने।
न्यासे कुटीचकः पूर्वं बह्वोदो हंसनिष्क्रियौ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसी प्रकार वृत्तिभेदसे वैखानस८, वालखिल्य९, औदुम्बर१० और फेनप११—ये चार भेद वानप्रस्थोंके तथा कुटीचक१२, बहूदक१३, हंस१४ और निष्क्रिय (परमहंस१५)—ये चार भेद संन्यासियोंके हैं॥ ४३॥
पादटिप्पनी
८. बिना जोती-बोयी भूमिसे उत्पन्न हुए पदार्थोंसे निर्वाह करनेवाले। ९. नवीन अन्न मिलनेपर पहला संचय करके रखा हुआ अन्न दान कर देनेवाले। १०. प्रातःकाल उठनेपर जिस दिशाकी ओर मुख हो उसी ओरसे फलादि लाकर निर्वाह करनेवाले। ११. अपने-आप झड़े हुए फलादि खाकर रहनेवाले। १२. कुटी बनाकर एक जगह रहने और आश्रमके धर्मोंका पूरा पालन करनेवाले। १३. कर्मकी ओर गौणदृष्टि रखकर ज्ञानको ही प्रधान माननेवाले। १४. ज्ञानाभ्यासी। १५. ज्ञानी जीवन्मुक्त।
श्लोक-४४
विश्वास-प्रस्तुतिः
आन्वीक्षिकी त्रयी वार्ता दण्डनीतिस्तथैव च।
एवं व्याहृतयश्चासन् प्रणवो ह्यस्य दह्रतः॥
मूलम्
आन्वीक्षिकी त्रयी वार्ता दण्डनीतिस्तथैव च।
एवं व्याहृतयश्चासन् प्रणवो ह्यस्य दह्रतः॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसी क्रमसे आन्वीक्षिकी१, त्रयी२, वार्ता३ और दण्डनीति४—ये चार विद्याएँ तथा चार व्याहृतियाँ५ भी ब्रह्माजीके चार मुखोंसे उत्पन्न हुईं तथा उनके हृदयाकाशसे ॐकार प्रकट हुआ॥ ४४॥
पादटिप्पनी
१. मोक्ष प्राप्त करनेवाली आत्मविद्या। २. स्वर्गादि फल देनेवाली कर्मविद्या। ३. खेती-व्यापारादि-सम्बन्धी विद्या। ४. राजनीति।
५. भूः, भुवः, स्वः—ये तीन और चौथी महःको मिलाकर, इस प्रकार चार व्याहृतियाँ आश्वलायनने अपने गृह्यसूत्रोंमें बतलायी हैं—‘एवं व्याहृतयः प्रोक्ता व्यस्ताः समस्ताः।’ अथवा भूः, भुवः, स्वः और महः—ये चार व्याहृतियाँ, जैसा कि श्रुति कहती है—‘भूर्भुवः सुवरिति वा एता स्तिस्रो व्याहृतयस्तासामु ह स्मैतां चतुर्थीमाह। वाचमस्य प्रवेदयते महः इत्यादि।
श्लोक-४५
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्योष्णिगासील्लोमभ्यो गायत्री च त्वचो विभोः।
त्रिष्टुम्मांसात्स्नुतोऽनुष्टुब्जगत्यस्थ्नः प्रजापतेः॥
मूलम्
तस्योष्णिगासील्लोमभ्यो गायत्री च त्वचो विभोः।
त्रिष्टुम्मांसात्स्नुतोऽनुष्टुब्जगत्यस्थ्नः प्रजापतेः॥
श्लोक-४६
विश्वास-प्रस्तुतिः
मज्जायाः पङ्क्तिरुत्पन्ना बृहती प्राणतोऽभवत्।
स्पर्शस्तस्याभवज्जीवः स्वरो देह उदाहृतः॥
मूलम्
मज्जायाः पङ्क्तिरुत्पन्ना बृहती प्राणतोऽभवत्।
स्पर्शस्तस्याभवज्जीवः स्वरो देह उदाहृतः॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनके रोमोंसे उष्णिक्, त्वचासे गायत्री, मांससे त्रिष्टुप्, स्नायुसे अनुष्टुप्, अस्थियोंसे जगती, मज्जासे पंक्ति और प्राणोंसे बृहती छन्द उत्पन्न हुआ। ऐसे ही उनका जीव स्पर्शवर्ण (कवर्गादि पंचवर्ग) और देह स्वरवर्ण (अकारादि) कहलाया॥ ४५-४६॥
श्लोक-४७
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऊष्माणमिन्द्रियाण्याहुरन्तःस्था बलमात्मनः।
स्वराः सप्त विहारेण भवन्ति स्म प्रजापतेः॥
मूलम्
ऊष्माणमिन्द्रियाण्याहुरन्तःस्था बलमात्मनः।
स्वराः सप्त विहारेण भवन्ति स्म प्रजापतेः॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनकी इन्द्रियोंको ऊष्मवर्ण (श ष स ह) और बलको अन्तःस्थ (य र ल व) कहते हैं, तथा उनकी क्रीडासे निषाद, ऋषभ, गान्धार, षड्ज, मध्यम, धैवत और पंचम—ये सात स्वर हुए॥ ४७॥
श्लोक-४८
विश्वास-प्रस्तुतिः
शब्दब्रह्मात्मनस्तस्य व्यक्ताव्यक्तात्मनः परः।
ब्रह्मावभाति विततो नानाशक्त्युपबृंहितः॥
मूलम्
शब्दब्रह्मात्मनस्तस्य व्यक्ताव्यक्तात्मनः परः।
ब्रह्मावभाति विततो नानाशक्त्युपबृंहितः॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे तात! ब्रह्माजी शब्दब्रह्मस्वरूप हैं। वे वैखरीरूपसे व्यक्त और ओंकाररूपसे अव्यक्त हैं तथा उनसे परे जो सर्वत्र परिपूर्ण परब्रह्म है, वही अनेकों प्रकारकी शक्तियोंसे विकसित होकर इन्द्रादि रूपोंमें भास रहा है॥ ४८॥
श्लोक-४९
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततोऽपरामुपादाय स सर्गाय मनो दधे।
ऋषीणां भूरिवीर्याणामपि सर्गमविस्तृतम्॥
मूलम्
ततोऽपरामुपादाय स सर्गाय मनो दधे।
ऋषीणां भूरिवीर्याणामपि सर्गमविस्तृतम्॥
श्लोक-५०
विश्वास-प्रस्तुतिः
ज्ञात्वा तद्धृदये भूयश्चिन्तयामास कौरव।
अहो अद्भुतमेतन्मे व्यापृतस्यापि नित्यदा॥
मूलम्
ज्ञात्वा तद्धृदये भूयश्चिन्तयामास कौरव।
अहो अद्भुतमेतन्मे व्यापृतस्यापि नित्यदा॥
श्लोक-५१
विश्वास-प्रस्तुतिः
न ह्येधन्ते प्रजा नूनं दैवमत्र विघातकम्।
एवं युक्तकृतस्तस्य दैवं चावेक्षतस्तदा॥
मूलम्
न ह्येधन्ते प्रजा नूनं दैवमत्र विघातकम्।
एवं युक्तकृतस्तस्य दैवं चावेक्षतस्तदा॥
श्लोक-५२
विश्वास-प्रस्तुतिः
कस्य रूपमभूद् द्वेधा यत्कायमभिचक्षते।
ताभ्यां रूपविभागाभ्यां मिथुनं समपद्यत॥
मूलम्
कस्य रूपमभूद् द्वेधा यत्कायमभिचक्षते।
ताभ्यां रूपविभागाभ्यां मिथुनं समपद्यत॥
अनुवाद (हिन्दी)
विदुरजी! ब्रह्माजीने पहला कामासक्त शरीर जिससे कुहरा बना था—छोड़नेके बाद दूसरा शरीर धारण करके विश्वविस्तारका विचार किया; वे देख चुके थे कि मरीचि आदि महान् शक्तिशाली ऋषियोंसे भी सृष्टिका विस्तार अधिक नहीं हुआ, अतः वे मन-ही-मन पुनः चिन्ता करने लगे—‘अहो! बड़ा आश्चर्य है, मेरे निरन्तर प्रयत्न करनेपर भी प्रजाकी वृद्धि नहीं हो रही है। मालूम होता है इसमें दैव ही कुछ विघ्न डाल रहा है। ‘जिस समय यथोचित क्रिया करनेवाले श्रीब्रह्माजी इस प्रकार दैवके विषयमें विचार कर रहे थे उसी समय अकस्मात् उनके शरीरके दो भाग हो गये। ‘क’ ब्रह्माजीका नाम है, उन्हींसे विभक्त होनेके कारण शरीरको ‘काय’ कहते हैं। उन दोनों विभागोंसे एक स्त्री-पुरुषका जोड़ा प्रकट हुआ॥ ४९—५२॥
श्लोक-५३
विश्वास-प्रस्तुतिः
यस्तु तत्र पुमान् सोऽभून्मनुः स्वायम्भुवः स्वराट्।
स्त्री याऽऽसीच्छतरूपाख्या महिष्यस्य महात्मनः॥
मूलम्
यस्तु तत्र पुमान् सोऽभून्मनुः स्वायम्भुवः स्वराट्।
स्त्री याऽऽसीच्छतरूपाख्या महिष्यस्य महात्मनः॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनमें जो पुरुष था वह सार्वभौम सम्राट् स्वायम्भुव मनु हुए और जो स्त्री थी, वह उनकी महारानी शतरूपा हुईं॥ ५३॥
श्लोक-५४
विश्वास-प्रस्तुतिः
तदा मिथुनधर्मेण प्रजा ह्येधाम्बभूविरे।
स चापि शतरूपायां पञ्चापत्यान्यजीजनत्॥
मूलम्
तदा मिथुनधर्मेण प्रजा ह्येधाम्बभूविरे।
स चापि शतरूपायां पञ्चापत्यान्यजीजनत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
तबसे मिथुनधर्म (स्त्री-पुरुष-सम्भोग)-से प्रजाकी वृद्धि होने लगी। महाराज स्वायम्भुव मनुने शतरूपासे पाँच सन्तानें उत्पन्न कीं॥ ५४॥
श्लोक-५५
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रियव्रतोत्तानपादौ तिस्रः कन्याश्च भारत।
आकूतिर्देवहूतिश्च प्रसूतिरिति सत्तम॥
मूलम्
प्रियव्रतोत्तानपादौ तिस्रः कन्याश्च भारत।
आकूतिर्देवहूतिश्च प्रसूतिरिति सत्तम॥
अनुवाद (हिन्दी)
साधुशिरोमणि विदुरजी! उनमें प्रियव्रत और उत्तानपाद दो पुत्र थे तथा आकूति, देवहूति और प्रसूति—तीन कन्याएँ थीं॥ ५५॥
श्लोक-५६
विश्वास-प्रस्तुतिः
आकूतिं रुचये प्रादात्कर्दमाय तु मध्यमाम्।
दक्षायादात्प्रसूतिं च यत आपूरितं जगत्॥
मूलम्
आकूतिं रुचये प्रादात्कर्दमाय तु मध्यमाम्।
दक्षायादात्प्रसूतिं च यत आपूरितं जगत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
मनुजीने आकूतिका विवाह रुचि प्रजापतिसे किया, मझली कन्या देवहूति कर्दमजीको दी और प्रसूति दक्ष प्रजापतिको। इन तीनों कन्याओंकी सन्ततिसे सारा संसार भर गया॥ ५६॥
अनुवाद (समाप्ति)
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां तृतीयस्कन्धे द्वादशोऽध्यायः॥ १२॥