[एकादशोऽध्यायः]
भागसूचना
मन्वन्तरादि कालविभागका वर्णन
श्लोक-१
मूलम् (वचनम्)
मैत्रेय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
चरमः सद्विशेषाणामनेकोऽसंयुतः सदा।
परमाणुः स विज्ञेयो नृणामैक्यभ्रमो यतः॥
मूलम्
चरमः सद्विशेषाणामनेकोऽसंयुतः सदा।
परमाणुः स विज्ञेयो नृणामैक्यभ्रमो यतः॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीमैत्रेयजी कहते हैं—विदुरजी! पृथ्वी आदि कार्यवर्गका जो सूक्ष्मतम अंश है—जिसका और विभाग नहीं हो सकता तथा जो कार्यरूपको प्राप्त नहीं हुआ है और जिसका अन्य परमाणुओंके साथ संयोग भी नहीं हुआ है उसे परमाणु कहते हैं। इन अनेक परमाणुओंके परस्पर मिलनेसे ही मनुष्योंको भ्रमवश उनके समुदायरूप एक अवयवीकी प्रतीति होती है॥ १॥
श्लोक-२
विश्वास-प्रस्तुतिः
सत एव पदार्थस्य स्वरूपावस्थितस्य यत्।
कैवल्यं परममहानविशेषो निरन्तरः॥
मूलम्
सत एव पदार्थस्य स्वरूपावस्थितस्य यत्।
कैवल्यं परममहानविशेषो निरन्तरः॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह परमाणु जिसका सूक्ष्मतम अंश है, अपने सामान्य स्वरूपमें स्थित उस पृथ्वी आदि कार्योंकी एकता (समुदाय अथवा समग्ररूप)- का नाम परम महान् है। इस समय उसमें न तो प्रलयादि अवस्थाभेदकी स्फूर्ति होती है, न नवीन-प्राचीन आदि कालभेदका भान होता है और न घट-पटादि वस्तुभेदकी ही कल्पना होती है॥ २॥
श्लोक-३
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं कालोऽप्यनुमितः सौक्ष्म्ये स्थौल्ये च सत्तम।
संस्थानभुक्त्या भगवानव्यक्तो व्यक्तभुग्विभुः॥
मूलम्
एवं कालोऽप्यनुमितः सौक्ष्म्ये स्थौल्ये च सत्तम।
संस्थानभुक्त्या भगवानव्यक्तो व्यक्तभुग्विभुः॥
अनुवाद (हिन्दी)
साधुश्रेष्ठ! इस प्रकार यह वस्तुके सूक्ष्मतम और महत्तम स्वरूपका विचार हुआ। इसीके सादृश्यसे परमाणु आदि अवस्थाओंमें व्याप्त होकर व्यक्त पदार्थोंको भोगनेवाले सृष्टि आदिमें समर्थ, अव्यक्तस्वरूप भगवान् कालकी भी सूक्ष्मता और स्थूलताका अनुमान किया जा सकता है॥ ३॥
श्लोक-४
विश्वास-प्रस्तुतिः
स कालः परमाणुर्वै यो भुङ्क्ते परमाणुताम्।
सतोऽविशेषभुग्यस्तु स कालः परमो महान्॥
मूलम्
स कालः परमाणुर्वै यो भुङ्क्ते परमाणुताम्।
सतोऽविशेषभुग्यस्तु स कालः परमो महान्॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो काल प्रपंचकी परमाणु-जैसी सूक्ष्म अवस्थामें व्याप्त रहता है, वह अत्यन्त सूक्ष्म है और जो सृष्टिसे लेकर प्रलयपर्यन्त उसकी सभी अवस्थाओंका भोग करता है, वह परम महान् है॥ ४॥
श्लोक-५
विश्वास-प्रस्तुतिः
अणुर्द्वौ परमाणू स्यात्त्रसरेणुस्त्रयः स्मृतः।
जालार्करश्म्यवगतः खमेवानुपतन्नगात्॥
मूलम्
अणुर्द्वौ परमाणू स्यात्त्रसरेणुस्त्रयः स्मृतः।
जालार्करश्म्यवगतः खमेवानुपतन्नगात्॥
अनुवाद (हिन्दी)
दो परमाणु मिलकर एक ‘अणु’ होता है और तीन अणुओंके मिलनेसे एक ‘त्रसरेणु’ होता है, जो झरोखेमेंसे होकर आयी हुई सूर्यकी किरणोंके प्रकाशमें आकाशमें उड़ता देखा जाता है॥ ५॥
श्लोक-६
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्रसरेणुत्रिकं भुङ्क्ते यः कालः स त्रुटिः स्मृतः।
शतभागस्तु वेधः स्यात्तैस्त्रिभिस्तु लवः स्मृतः॥
मूलम्
त्रसरेणुत्रिकं भुङ्क्ते यः कालः स त्रुटिः स्मृतः।
शतभागस्तु वेधः स्यात्तैस्त्रिभिस्तु लवः स्मृतः॥
अनुवाद (हिन्दी)
ऐसे तीन त्रसरेणुओंको पार करनेमें सूर्यको जितना समय लगता है, उसे ‘त्रुटि’ कहते हैं। इससे सौगुना काल ‘वेध’ कहलाता है और तीन वेधका एक ‘लव’ होता है॥ ६॥
श्लोक-७
विश्वास-प्रस्तुतिः
निमेषस्त्रिलवो ज्ञेय आम्नातस्ते त्रयः क्षणः।
क्षणान् पञ्च विदुः काष्ठां लघु ता दश पञ्च च॥
मूलम्
निमेषस्त्रिलवो ज्ञेय आम्नातस्ते त्रयः क्षणः।
क्षणान् पञ्च विदुः काष्ठां लघु ता दश पञ्च च॥
अनुवाद (हिन्दी)
तीन लवको एक ‘निमेष’ और तीन निमेषको एक ‘क्षण’ कहते हैं। पाँच क्षणकी एक ‘काष्ठा’ होती है और पन्द्रह काष्ठाका एक ‘लघु’॥ ७॥
श्लोक-८
विश्वास-प्रस्तुतिः
लघूनि वै समाम्नाता दश पञ्च च नाडिका।
ते द्वे मुहूर्तः प्रहरः षड्यामः सप्त वा नृणाम्॥
मूलम्
लघूनि वै समाम्नाता दश पञ्च च नाडिका।
ते द्वे मुहूर्तः प्रहरः षड्यामः सप्त वा नृणाम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
पन्द्रह लघुकी एक ‘नाडिका’ (दण्ड) कही जाती है, दो नाडिकाका एक ‘मुहूर्त’ होता है और दिनके घटने-बढ़नेके अनुसार (दिन एवं रात्रिकी दोनों सन्धियोंके दो मुहूर्तोंको छोड़कर) छः या सात नाडिकाका एक ‘प्रहर’ होता है। यह ‘याम’ कहलाता है, जो मनुष्यके दिन या रातका चौथा भाग होता है॥ ८॥
श्लोक-९
विश्वास-प्रस्तुतिः
द्वादशार्धपलोन्मानं चतुर्भिश्चतुरङ्गुलैः।
स्वर्णमाषैः कृतच्छिद्रं यावत्प्रस्थजलप्लुतम्॥
मूलम्
द्वादशार्धपलोन्मानं चतुर्भिश्चतुरङ्गुलैः।
स्वर्णमाषैः कृतच्छिद्रं यावत्प्रस्थजलप्लुतम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
छः पल ताँबेका एक ऐसा बरतन बनाया जाय जिसमें एक प्रस्थ जल आ सके और चार माशे सोनेकी चार अंगुल लंबी सलाई बनवाकर उसके द्वारा उस बरतनके पेंदेमें छेद करके उसे जलमें छोड़ दिया जाय। जितने समयमें एक प्रस्थ जल उस बरतनमें भर जाय, वह बरतन जलमें डूब जाय, उतने समयको एक ‘नाडिका’ कहते हैं॥ ९॥
श्लोक-१०
विश्वास-प्रस्तुतिः
यामाश्चत्वारश्चत्वारो मर्त्यानामहनी उभे।
पक्षः पञ्चदशाहानि शुक्लः कृष्णश्च मानद॥
मूलम्
यामाश्चत्वारश्चत्वारो मर्त्यानामहनी उभे।
पक्षः पञ्चदशाहानि शुक्लः कृष्णश्च मानद॥
अनुवाद (हिन्दी)
विदुरजी! चार-चार पहरके मनुष्यके ‘दिन’ और ‘रात’ होते हैं और पन्द्रह दिन-रातका एक ‘पक्ष’ होता है, जो शुक्ल और कृष्ण भेदसे दो प्रकारका माना गया है॥ १०॥
श्लोक-११
विश्वास-प्रस्तुतिः
तयोः समुच्चयो मासः पितॄणां तदहर्निशम्।
द्वौ तावृतुः षडयनं दक्षिणं चोत्तरं दिवि॥
मूलम्
तयोः समुच्चयो मासः पितॄणां तदहर्निशम्।
द्वौ तावृतुः षडयनं दक्षिणं चोत्तरं दिवि॥
अनुवाद (हिन्दी)
इन दोनों पक्षोंको मिलाकर एक ‘मास’ होता है, जो पितरोंका एक दिन-रात है। दो मासका एक ‘ऋतु’ और छः मासका एक ‘अयन’ होता है। अयन ‘दक्षिणायन’ और ‘उत्तरायण’ भेदसे दो प्रकारका है॥ ११॥
श्लोक-१२
विश्वास-प्रस्तुतिः
अयने चाहनी प्राहुर्वत्सरो द्वादश स्मृतः।
संवत्सरशतं नॄणां परमायुर्निरूपितम्॥
मूलम्
अयने चाहनी प्राहुर्वत्सरो द्वादश स्मृतः।
संवत्सरशतं नॄणां परमायुर्निरूपितम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
ये दोनों अयन मिलकर देवताओंके एक दिन-रात होते हैं तथा मनुष्यलोकमें ये ‘वर्ष’ या बारह मास कहे जाते हैं। ऐसे सौ वर्षकी मनुष्यकी परम आयु बतायी गयी है॥ १२॥
श्लोक-१३
विश्वास-प्रस्तुतिः
ग्रहर्क्षताराचक्रस्थः परमाण्वादिना जगत्।
संवत्सरावसानेन पर्येत्यनिमिषो विभुः॥
मूलम्
ग्रहर्क्षताराचक्रस्थः परमाण्वादिना जगत्।
संवत्सरावसानेन पर्येत्यनिमिषो विभुः॥
अनुवाद (हिन्दी)
चन्द्रमा आदि ग्रह, अश्विनी आदि नक्षत्र और समस्त तारा-मण्डलके अधिष्ठाता कालस्वरूप भगवान् सूर्य परमाणुसे लेकर संवत्सरपर्यन्त कालमें द्वादश राशिरूप सम्पूर्ण भुवनकोशकी निरन्तर परिक्रमा किया करते हैं॥ १३॥
श्लोक-१४
विश्वास-प्रस्तुतिः
संवत्सरः परिवत्सर इडावत्सर एव च।
अनुवत्सरो वत्सरश्च विदुरैवं प्रभाष्यते॥
मूलम्
संवत्सरः परिवत्सर इडावत्सर एव च।
अनुवत्सरो वत्सरश्च विदुरैवं प्रभाष्यते॥
अनुवाद (हिन्दी)
सूर्य, बृहस्पति, सवन, चन्द्रमा और नक्षत्रसम्बन्धी महीनोंके भेदसे यह वर्ष ही संवत्सर, परिवत्सर, इडावत्सर, अनुवत्सर और वत्सर कहा जाता है॥ १४॥
श्लोक-१५
विश्वास-प्रस्तुतिः
यः सृज्यशक्तिमुरुधोच्छ्वसयन् स्वशक्त्या
पुंसोऽभ्रमाय दिवि धावति भूतभेदः।
कालाख्यया गुणमयं क्रतुभिर्वितन्वं-
स्तस्मै बलिं हरत वत्सरपञ्चकाय॥
मूलम्
यः सृज्यशक्तिमुरुधोच्छ्वसयन् स्वशक्त्या
पुंसोऽभ्रमाय दिवि धावति भूतभेदः।
कालाख्यया गुणमयं क्रतुभिर्वितन्वं-
स्तस्मै बलिं हरत वत्सरपञ्चकाय॥
अनुवाद (हिन्दी)
विदुरजी! इन पाँच प्रकारके वर्षोंकी प्रवृत्ति करनेवाले भगवान् सूर्यकी तुम उपहारादि समर्पित करके पूजा करो। ये सूर्यदेव पंचभूतोंमेंसे तेजःस्वरूप हैं और अपनी कालशक्तिसे बीजादि पदार्थोंकी अंकुर उत्पन्न करनेकी शक्तिको अनेक प्रकारसे कार्योन्मुख करते हैं। ये पुरुषोंकी मोहनिवृत्तिके लिये उनकी आयुका क्षय करते हुए आकाशमें विचरते रहते हैं तथा ये ही सकाम-पुरुषोंको यज्ञादि कर्मोंसे प्राप्त होनेवाले स्वर्गादि मंगलमय फलोंका विस्तार करते हैं॥ १५॥
श्लोक-१६
मूलम् (वचनम्)
विदुर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
पितृदेवमनुष्याणामायुः परमिदं स्मृतम्।
परेषां गतिमाचक्ष्व ये स्युः कल्पाद् बहिर्विदः॥
मूलम्
पितृदेवमनुष्याणामायुः परमिदं स्मृतम्।
परेषां गतिमाचक्ष्व ये स्युः कल्पाद् बहिर्विदः॥
अनुवाद (हिन्दी)
विदुरजीने कहा—मुनिवर! आपने देवता, पितर और मनुष्योंकी परमायुका वर्णन तो किया। अब जो सनकादि ज्ञानी मुनिजन त्रिलोकीसे बाहर कल्पसे भी अधिक कालतक रहनेवाले हैं, उनकी भी आयुका वर्णन कीजिये॥ १६॥
श्लोक-१७
विश्वास-प्रस्तुतिः
भगवान् वेद कालस्य गतिं भगवतो ननु।
विश्वं विचक्षते धीरा योगराद्धेन चक्षुषा॥
मूलम्
भगवान् वेद कालस्य गतिं भगवतो ननु।
विश्वं विचक्षते धीरा योगराद्धेन चक्षुषा॥
अनुवाद (हिन्दी)
आप भगवान् कालकी गति भलीभाँति जानते हैं; क्योंकि ज्ञानीलोग अपनी योगसिद्ध दिव्य दृष्टिसे सारे संसारको देख लेते हैं॥ १७॥
श्लोक-१८
मूलम् (वचनम्)
मैत्रेय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृतं त्रेता द्वापरं च कलिश्चेति चतुर्युगम्।
दिव्यैर्द्वादशभिर्वर्षैः सावधानं निरूपितम्॥
मूलम्
कृतं त्रेता द्वापरं च कलिश्चेति चतुर्युगम्।
दिव्यैर्द्वादशभिर्वर्षैः सावधानं निरूपितम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैत्रेयजीने कहा—विदुरजी! सत्ययुग, त्रेता, द्वापर और कलि—ये चार युग अपनी सन्ध्या और सन्ध्यांशोंके सहित देवताओंके बारह सहस्र वर्षतक रहते हैं, ऐसा बतलाया गया है॥ १८॥
श्लोक-१९
विश्वास-प्रस्तुतिः
चत्वारि त्रीणि द्वे चैकं कृतादिषु यथाक्रमम्।
संख्यातानि सहस्राणि द्विगुणानि शतानि च॥
मूलम्
चत्वारि त्रीणि द्वे चैकं कृतादिषु यथाक्रमम्।
संख्यातानि सहस्राणि द्विगुणानि शतानि च॥
अनुवाद (हिन्दी)
इन सत्यादि चारों युगोंमें क्रमशः चार, तीन, दो और एक सहस्र दिव्य वर्ष होते हैं और प्रत्येकमें जितने सहस्र वर्ष होते हैं उससे दुगुने सौ वर्ष उनकी सन्ध्या और सन्ध्यांशोंमें होते हैं*॥ १९॥
पादटिप्पनी
- अर्थात् सत्ययुगमें ४००० दिव्य वर्ष युगके और ८०० सन्ध्या एवं सन्ध्यांशके—इस प्रकार ४८०० वर्ष होते हैं। इसी प्रकार त्रेतामें ३६००, द्वापरमें २४०० और कलियुगमें १२०० दिव्य वर्ष होते हैं। मनुष्योंका एक वर्ष देवताओंका एक दिन होता है, अतः देवताओंका एक वर्ष मनुष्योंके ३६० वर्षके बराबर हुआ। इस प्रकार मानवीय मानसे कलियुगमें ४३२००० वर्ष हुए तथा इससे दुगुने द्वापरमें, तिगुने त्रेतामें और चौगुने सत्ययुगमें होते हैं।
श्लोक-२०
विश्वास-प्रस्तुतिः
संध्यांशयोरन्तरेण यः कालः शतसंख्ययोः।
तमेवाहुर्युगं तज्ज्ञा यत्र धर्मो विधीयते॥
मूलम्
संध्यांशयोरन्तरेण यः कालः शतसंख्ययोः।
तमेवाहुर्युगं तज्ज्ञा यत्र धर्मो विधीयते॥
अनुवाद (हिन्दी)
युगकी आदिमें सन्ध्या होती है और अन्तमें सन्ध्यांश। इनकी वर्ष-गणना सैकड़ोंकी संख्यामें बतलायी गयी है। इनके बीचका जो काल होता है, उसीको कालवेत्ताओंने युग कहा है। प्रत्येक युगमें एक-एक विशेष धर्मका विधान पाया जाता है॥ २०॥
श्लोक-२१
विश्वास-प्रस्तुतिः
धर्मश्चतुष्पान्मनुजान् कृते समनुवर्तते।
स एवान्येष्वधर्मेण व्येति पादेन वर्धता॥
मूलम्
धर्मश्चतुष्पान्मनुजान् कृते समनुवर्तते।
स एवान्येष्वधर्मेण व्येति पादेन वर्धता॥
अनुवाद (हिन्दी)
सत्ययुगके मनुष्योंमें धर्म अपने चारों चरणोंसे रहता है; फिर अन्य युगोंमें अधर्मकी वृद्धि होनेसे उसका एक-एक चरण क्षीण होता जाता है॥ २१॥
श्लोक-२२
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्रिलोक्या युगसाहस्रं बहिराब्रह्मणो दिनम्।
तावत्येव निशा तात यन्निमीलति विश्वसृक्॥
मूलम्
त्रिलोक्या युगसाहस्रं बहिराब्रह्मणो दिनम्।
तावत्येव निशा तात यन्निमीलति विश्वसृक्॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्यारे विदुरजी! त्रिलोकीसे बाहर महर्लोकसे ब्रह्मलोकपर्यन्त यहाँकी एक सहस्र चतुर्युगीका एक दिन होता है और इतनी ही बड़ी रात्रि होती है, जिसमें जगत्कर्ता ब्रह्माजी शयन करते हैं॥ २२॥
श्लोक-२३
विश्वास-प्रस्तुतिः
निशावसान आरब्धो लोककल्पोऽनुवर्तते।
यावद्दिनं भगवतो मनून् भुञ्जंश्चतुर्दश॥
मूलम्
निशावसान आरब्धो लोककल्पोऽनुवर्तते।
यावद्दिनं भगवतो मनून् भुञ्जंश्चतुर्दश॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस रात्रिका अन्त होनेपर इस लोकका कल्प आरम्भ होता है; उसका क्रम जबतक ब्रह्माजीका दिन रहता है तबतक चलता रहता है। उस एक कल्पमें चौदह मनु हो जाते हैं॥ २३॥
श्लोक-२४
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वं स्वं कालं मनुर्भुङ्क्ते साधिकां ह्येकसप्ततिम्।
मन्वन्तरेषु मनवस्तद्वंश्या ऋषयः सुराः।
भवन्ति चैव युगपत्सुरेशाश्चानु ये च तान्॥
मूलम्
स्वं स्वं कालं मनुर्भुङ्क्ते साधिकां ह्येकसप्ततिम्।
मन्वन्तरेषु मनवस्तद्वंश्या ऋषयः सुराः।
भवन्ति चैव युगपत्सुरेशाश्चानु ये च तान्॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रत्येक मनु इकहत्तर चतुर्युगीसे कुछ अधिक काल(७१ चतुर्युगी) तक अपना अधिकार भोगता है। प्रत्येक मन्वन्तरमें भिन्न-भिन्न मनुवंशी राजालोग, सप्तर्षि, देवगण, इन्द्र और उनके अनुयायी गन्धर्वादि साथ-साथ ही अपना अधिकार भोगते हैं॥ २४॥
श्लोक-२५
विश्वास-प्रस्तुतिः
एष दैनन्दिनः सर्गो ब्राह्मस्त्रैलोक्यवर्तनः।
तिर्यङ्नृपितृदेवानां सम्भवो यत्र कर्मभिः॥
मूलम्
एष दैनन्दिनः सर्गो ब्राह्मस्त्रैलोक्यवर्तनः।
तिर्यङ्नृपितृदेवानां सम्भवो यत्र कर्मभिः॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह ब्रह्माजीकी प्रतिदिनकी सृष्टि है, जिसमें तीनों लोकोंकी रचना होती है। उसमें अपने-अपने कर्मानुसार पशु-पक्षी, मनुष्य, पितर और देवताओंकी उत्पत्ति होती है॥ २५॥
श्लोक-२६
विश्वास-प्रस्तुतिः
मन्वन्तरेषु भगवान् बिभ्रत्सत्त्वं स्वमूर्तिभिः।
मन्वादिभिरिदं विश्वमवत्युदितपौरुषः॥
मूलम्
मन्वन्तरेषु भगवान् बिभ्रत्सत्त्वं स्वमूर्तिभिः।
मन्वादिभिरिदं विश्वमवत्युदितपौरुषः॥
अनुवाद (हिन्दी)
इन मन्वन्तरोंमें भगवान् सत्त्वगुणका आश्रय ले, अपनी मनु आदि मूर्तियोंके द्वारा पौरुष प्रकट करते हुए इस विश्वका पालन करते हैं॥ २६॥
श्लोक-२७
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमोमात्रामुपादाय प्रतिसंरुद्धविक्रमः।
कालेनानुगताशेष आस्ते तूष्णीं दिनात्यये॥
मूलम्
तमोमात्रामुपादाय प्रतिसंरुद्धविक्रमः।
कालेनानुगताशेष आस्ते तूष्णीं दिनात्यये॥
अनुवाद (हिन्दी)
कालक्रमसे जब ब्रह्माजीका दिन बीत जाता है, तब वे तमोगुणके सम्पर्कको स्वीकार कर अपने सृष्टिरचनारूप पौरुषको स्थगित करके निश्चेष्टभावसे स्थित हो जाते हैं॥ २७॥
श्लोक-२८
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमेवान्वपिधीयन्ते लोका भूरादयस्त्रयः।
निशायामनुवृत्तायां निर्मुक्तशशिभास्करम्॥
मूलम्
तमेवान्वपिधीयन्ते लोका भूरादयस्त्रयः।
निशायामनुवृत्तायां निर्मुक्तशशिभास्करम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय सारा विश्व उन्हींमें लीन हो जाता है। जब सूर्य और चन्द्रमादिसे रहित वह प्रलयरात्रि आती है, तब वे भूः, भुवः, स्वः—तीनों लोक उन्हीं ब्रह्माजीके शरीरमें छिप जाते हैं॥ २८॥
श्लोक-२९
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्रिलोक्यां दह्यमानायां शक्त्या सङ्कर्षणाग्निना।
यान्त्यूष्मणा महर्लोकाज्जनं भृग्वादयोऽर्दिताः॥
मूलम्
त्रिलोक्यां दह्यमानायां शक्त्या सङ्कर्षणाग्निना।
यान्त्यूष्मणा महर्लोकाज्जनं भृग्वादयोऽर्दिताः॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस अवसरपर तीनों लोक शेषजीके मुखसे निकली हुई अग्निरूप भगवान्की शक्तिसे जलने लगते हैं। इसलिये उसके तापसे व्याकुल होकर भृगु आदि मुनीश्वरगण महर्लोकसे जनलोकको चले जाते हैं॥ २९॥
श्लोक-३०
विश्वास-प्रस्तुतिः
तावत्त्रिभुवनं सद्यः कल्पान्तैधितसिन्धवः।
प्लावयन्त्युत्कटाटोपचण्डवातेरितोर्मयः॥
मूलम्
तावत्त्रिभुवनं सद्यः कल्पान्तैधितसिन्धवः।
प्लावयन्त्युत्कटाटोपचण्डवातेरितोर्मयः॥
अनुवाद (हिन्दी)
इतनेमें ही सातों समुद्र प्रलयकालके प्रचण्ड पवनसे उमड़कर अपनी उछलती हुई उत्ताल तरंगोंसे त्रिलोकीको डुबो देते हैं॥ ३०॥
श्लोक-३१
विश्वास-प्रस्तुतिः
अन्तः स तस्मिन् सलिल आस्तेऽनन्तासनो हरिः।
योगनिद्रानिमीलाक्षः स्तूयमानो जनालयैः॥
मूलम्
अन्तः स तस्मिन् सलिल आस्तेऽनन्तासनो हरिः।
योगनिद्रानिमीलाक्षः स्तूयमानो जनालयैः॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब उस जलके भीतर भगवान् शेषशायी योगनिद्रासे नेत्र मूँदकर शयन करते हैं। उस समय जनलोकनिवासी मुनिगण उनकी स्तुति किया करते हैं॥ ३१॥
श्लोक-३२
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवंविधैरहोरात्रैः कालगत्योपलक्षितैः।
अपक्षितमिवास्यापि परमायुर्वयः शतम्॥
मूलम्
एवंविधैरहोरात्रैः कालगत्योपलक्षितैः।
अपक्षितमिवास्यापि परमायुर्वयः शतम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार कालकी गतिसे एक-एक सहस्र चतुर्युगके रूपमें प्रतीत होनेवाले दिन-रातके हेर-फेरसे ब्रह्माजीकी सौ वर्षकी परमायु भी बीती हुई-सी दिखायी देती है॥ ३२॥
श्लोक-३३
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदर्धमायुषस्तस्य परार्धमभिधीयते।
पूर्वः परार्धोऽपक्रान्तो ह्यपरोऽद्य प्रवर्तते॥
मूलम्
यदर्धमायुषस्तस्य परार्धमभिधीयते।
पूर्वः परार्धोऽपक्रान्तो ह्यपरोऽद्य प्रवर्तते॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्रह्माजीकी आयुके आधे भागको परार्ध कहते हैं। अबतक पहला परार्ध तो बीत चुका है, दूसरा चल रहा है॥ ३३॥
श्लोक-३४
विश्वास-प्रस्तुतिः
पूर्वस्यादौ परार्धस्य ब्राह्मो नाम महानभूत् ।
कल्पो यत्राभवद्ब्रह्मा शब्दब्रह्मेति यं विदुः॥
मूलम्
पूर्वस्यादौ परार्धस्य ब्राह्मो नाम महानभूत् ।
कल्पो यत्राभवद्ब्रह्मा शब्दब्रह्मेति यं विदुः॥
अनुवाद (हिन्दी)
पूर्व परार्धके आरम्भमें ब्राह्म नामक महान् कल्प हुआ था। उसीमें ब्रह्माजीकी उत्पत्ति हुई थी। पण्डितजन इन्हें शब्दब्रह्म कहते हैं॥ ३४॥
श्लोक-३५
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्यैव चान्ते कल्पोऽभूद् यं पाद्ममभिचक्षते।
यद्धरेर्नाभिसरस आसील्लोकसरोरुहम्॥
मूलम्
तस्यैव चान्ते कल्पोऽभूद् यं पाद्ममभिचक्षते।
यद्धरेर्नाभिसरस आसील्लोकसरोरुहम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसी परार्धके अन्तमें जो कल्प हुआ था, उसे पाद्मकल्प कहते हैं। इसमें भगवान्के नाभिसरोवरसे सर्वलोकमय कमल प्रकट हुआ था॥ ३५॥
श्लोक-३६
विश्वास-प्रस्तुतिः
अयं तु कथितः कल्पो द्वितीयस्यापि भारत।
वाराह इति विख्यातो यत्रासीत्सूकरो हरिः॥
मूलम्
अयं तु कथितः कल्पो द्वितीयस्यापि भारत।
वाराह इति विख्यातो यत्रासीत्सूकरो हरिः॥
अनुवाद (हिन्दी)
विदुरजी! इस समय जो कल्प चल रहा है, वह दूसरे परार्धका आरम्भक बतलाया जाता है। यह वाराहकल्प-नामसे विख्यात है, इसमें भगवान्ने सूकररूप धारण किया था॥ ३६॥
श्लोक-३७
विश्वास-प्रस्तुतिः
कालोऽयं द्विपरार्धाख्यो निमेष उपचर्यते।
अव्याकृतस्यानन्तस्य अनादेर्जगदात्मनः॥
मूलम्
कालोऽयं द्विपरार्धाख्यो निमेष उपचर्यते।
अव्याकृतस्यानन्तस्य अनादेर्जगदात्मनः॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह दो परार्धका काल अव्यक्त, अनन्त, अनादि, विश्वात्मा श्रीहरिका एक निमेष माना जाता है॥ ३७॥
श्लोक-३८
विश्वास-प्रस्तुतिः
कालोऽयं परमाण्वादिर्द्विपरार्धान्त ईश्वरः।
नैवेशितुं प्रभुर्भूम्न ईश्वरो धाममानिनाम्॥
मूलम्
कालोऽयं परमाण्वादिर्द्विपरार्धान्त ईश्वरः।
नैवेशितुं प्रभुर्भूम्न ईश्वरो धाममानिनाम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह परमाणुसे लेकर द्विपरार्धपर्यन्त फैला हुआ काल सर्वसमर्थ होनेपर भी सर्वात्मा श्रीहरिपर किसी प्रकारकी प्रभुता नहीं रखता। यह तो देहादिमें अभिमान रखनेवाले जीवोंका ही शासन करनेमें समर्थ है॥ ३८॥
श्लोक-३९
विश्वास-प्रस्तुतिः
विकारैः सहितो युक्तैर्विशेषादिभिरावृतः।
आण्डकोशो बहिरयं पञ्चाशत्कोटिविस्तृतः॥
मूलम्
विकारैः सहितो युक्तैर्विशेषादिभिरावृतः।
आण्डकोशो बहिरयं पञ्चाशत्कोटिविस्तृतः॥
श्लोक-४०
विश्वास-प्रस्तुतिः
दशोत्तराधिकैर्यत्र प्रविष्टः परमाणुवत् ।
लक्ष्यतेऽन्तर्गताश्चान्ये कोटिशो ह्यण्डराशयः॥
मूलम्
दशोत्तराधिकैर्यत्र प्रविष्टः परमाणुवत् ।
लक्ष्यतेऽन्तर्गताश्चान्ये कोटिशो ह्यण्डराशयः॥
श्लोक-४१
विश्वास-प्रस्तुतिः
तदाहुरक्षरं ब्रह्म सर्वकारणकारणम्।
विष्णोर्धाम परं साक्षात्पुरुषस्य महात्मनः॥
मूलम्
तदाहुरक्षरं ब्रह्म सर्वकारणकारणम्।
विष्णोर्धाम परं साक्षात्पुरुषस्य महात्मनः॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रकृति, महत्तत्त्व, अहंकार और पंचतन्मात्र—इन आठ प्रकृतियोंके सहित दस इन्द्रियाँ, मन और पंचभूत—इन सोलह विकारोंसे मिलकर बना हुआ यह ब्रह्माण्डकोश भीतरसे पचास करोड़ योजन विस्तारवाला है तथा इसके बाहर चारों ओर उत्तरोत्तर दस-दस गुने सात आवरण हैं। उन सबके सहित यह जिसमें परमाणुके समान पड़ा हुआ दीखता है और जिसमें ऐसी करोड़ों ब्रह्माण्डराशियाँ हैं, वह इन प्रधानादि समस्त कारणोंका कारण अक्षर ब्रह्म कहलाता है और यही पुराणपुरुष परमात्मा श्रीविष्णुभगवान्का श्रेष्ठ धाम (स्वरूप) है॥ ३९—४१॥
अनुवाद (समाप्ति)
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां तृतीयस्कन्धे एकादशोऽध्यायः॥ ११॥