१०

[दशमोऽध्यायः]

भागसूचना

दस प्रकारकी सृष्टिका वर्णन

श्लोक-१

मूलम् (वचनम्)

विदुर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अन्तर्हिते भगवति ब्रह्मा लोकपितामहः।
प्रजाः ससर्ज कतिधा दैहिकीर्मानसीर्विभुः॥

मूलम्

अन्तर्हिते भगवति ब्रह्मा लोकपितामहः।
प्रजाः ससर्ज कतिधा दैहिकीर्मानसीर्विभुः॥

अनुवाद (हिन्दी)

विदुरजीने कहा—मुनिवर! भगवान् नारायणके अन्तर्धान हो जानेपर सम्पूर्ण लोकोंके पितामह ब्रह्माजीने अपने देह और मनसे कितने प्रकारकी सृष्टि उत्पन्न की?॥ १॥

श्लोक-२

विश्वास-प्रस्तुतिः

ये च मे भगवन् पृष्टास्त्वय्यर्था बहुवित्तम।
तान् वदस्वानुपूर्व्येण छिन्धि नः सर्वसंशयान्॥

मूलम्

ये च मे भगवन् पृष्टास्त्वय्यर्था बहुवित्तम।
तान् वदस्वानुपूर्व्येण छिन्धि नः सर्वसंशयान्॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवन्! इनके सिवा मैंने आपसे और जो-जो बातें पूछी हैं, उन सबका भी क्रमशः वर्णन कीजिये और मेरे सब संशयोंको दूर कीजिये; क्योंकि आप सभी बहुज्ञोंमें श्रेष्ठ हैं॥ २॥

श्लोक-३

मूलम् (वचनम्)

सूत उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं सञ्चोदितस्तेन क्षत्त्रा कौषारवो मुनिः।
प्रीतः प्रत्याह तान् प्रश्नान् हृदिस्थानथ भार्गव॥

मूलम्

एवं सञ्चोदितस्तेन क्षत्त्रा कौषारवो मुनिः।
प्रीतः प्रत्याह तान् प्रश्नान् हृदिस्थानथ भार्गव॥

अनुवाद (हिन्दी)

सूतजी कहते हैं—शौनकजी! विदुरजीके इस प्रकार पूछनेपर मुनिवर मैत्रेयजी बड़े प्रसन्न हुए और अपने हृदयमें स्थित उन प्रश्नोंका इस प्रकार उत्तर देने लगे॥ ३॥

श्लोक-४

मूलम् (वचनम्)

मैत्रेय उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

विरिञ्चोऽपि तथा चक्रे दिव्यं वर्षशतं तपः।
आत्मन्यात्मानमावेश्य यदाह भगवानजः॥

मूलम्

विरिञ्चोऽपि तथा चक्रे दिव्यं वर्षशतं तपः।
आत्मन्यात्मानमावेश्य यदाह भगवानजः॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीमैत्रेयजीने कहा—अजन्मा भगवान् श्रीहरिने जैसा कहा था, ब्रह्माजीने भी उसी प्रकार चित्तको अपने आत्मा श्रीनारायणमें लगाकर सौ दिव्य वर्षोंतक तप किया॥ ४॥

श्लोक-५

विश्वास-प्रस्तुतिः

तद्विलोक्याब्जसम्भूतो वायुना यदधिष्ठितः।
पद्ममम्भश्च तत्कालकृतवीर्येण कम्पितम्॥

मूलम्

तद्विलोक्याब्जसम्भूतो वायुना यदधिष्ठितः।
पद्ममम्भश्च तत्कालकृतवीर्येण कम्पितम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्रह्माजीने देखा कि प्रलयकालीन प्रबल वायुके झकोरोंसे, जिससे वे उत्पन्न हुए हैं तथा जिसपर वे बैठे हुए हैं वह कमल तथा जल काँप रहे हैं॥ ५॥

श्लोक-६

विश्वास-प्रस्तुतिः

तपसा ह्येधमानेन विद्यया चात्मसंस्थया।
विवृद्धविज्ञानबलो न्यपाद् वायुं सहाम्भसा॥

मूलम्

तपसा ह्येधमानेन विद्यया चात्मसंस्थया।
विवृद्धविज्ञानबलो न्यपाद् वायुं सहाम्भसा॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रबल तपस्या एवं हृदयमें स्थित आत्मज्ञानसे उनका विज्ञानबल बढ़ गया और उन्होंने जलके साथ वायुको पी लिया॥ ६॥

श्लोक-७

विश्वास-प्रस्तुतिः

तद्विलोक्य वियद्‍व्यापि पुष्करं यदधिष्ठितम्।
अनेन लोकान् प्राग्लीनान् कल्पितास्मीत्यचिन्तयत्॥

मूलम्

तद्विलोक्य वियद्‍व्यापि पुष्करं यदधिष्ठितम्।
अनेन लोकान् प्राग्लीनान् कल्पितास्मीत्यचिन्तयत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर जिसपर स्वयं बैठे हुए थे, उस आकाशव्यापी कमलको देखकर उन्होंने विचार किया कि ‘पूर्वकल्पमें लीन हुए लोकोंको मैं इसीसे रचूँगा’॥ ७॥

श्लोक-८

विश्वास-प्रस्तुतिः

पद्मकोशं तदाऽऽविश्य भगवत्कर्मचोदितः।
एकं व्यभाङ्क्षीदुरुधा त्रिधा भाव्यं द्विसप्तधा॥

मूलम्

पद्मकोशं तदाऽऽविश्य भगवत्कर्मचोदितः।
एकं व्यभाङ्क्षीदुरुधा त्रिधा भाव्यं द्विसप्तधा॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब भगवान‍्के द्वारा सृष्टिकार्यमें नियुक्त ब्रह्माजीने उस कमलकोशमें प्रवेश किया और उस एकके ही भूः, भुवः, स्वः—ये तीन भाग किये, यद्यपि वह कमल इतना बड़ा था कि उसके चौदह भुवन या इससे भी अधिक लोकोंके रूपमें विभाग किये जा सकते थे॥ ८॥

श्लोक-९

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतावाञ्जीवलोकस्य संस्थाभेदः समाहृतः।
धर्मस्य ह्यनिमित्तस्य विपाकः परमेष्ठ्यसौ॥

मूलम्

एतावाञ्जीवलोकस्य संस्थाभेदः समाहृतः।
धर्मस्य ह्यनिमित्तस्य विपाकः परमेष्ठ्यसौ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जीवोंके भोगस्थानके रूपमें इन्हीं तीन लोकोंका शास्त्रोंमें वर्णन हुआ है; जो निष्काम कर्म करनेवाले हैं, उन्हें महः, तपः, जनः और सत्यलोकरूप ब्रह्मलोककी प्राप्ति होती है॥ ९॥

श्लोक-१०

मूलम् (वचनम्)

विदुर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदात्थ बहुरूपस्य हरेरद‍्भुतकर्मणः।
कालाख्यं लक्षणं ब्रह्मन् यथा वर्णय नः प्रभो॥

मूलम्

यदात्थ बहुरूपस्य हरेरद‍्भुतकर्मणः।
कालाख्यं लक्षणं ब्रह्मन् यथा वर्णय नः प्रभो॥

अनुवाद (हिन्दी)

विदुरजीने कहा—ब्रह्मन्! आपने अद‍्भुतकर्मा विश्वरूप श्रीहरिकी जिस काल नामक शक्तिकी बात कही थी, प्रभो! उसका कृपया विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिये॥ १०॥

श्लोक-११

मूलम् (वचनम्)

मैत्रेय उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुणव्यतिकराकारो निर्विशेषोऽप्रतिष्ठितः।
पुरुषस्तदुपादानमात्मानं लीलयासृजत्॥

मूलम्

गुणव्यतिकराकारो निर्विशेषोऽप्रतिष्ठितः।
पुरुषस्तदुपादानमात्मानं लीलयासृजत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीमैत्रेयजीने कहा—विषयोंका रूपान्तर (बदलना) ही कालका आकार है। स्वयं तो वह निर्विशेष, अनादि और अनन्त है। उसीको निमित्त बनाकर भगवान् खेल-खेलमें अपने-आपको ही सृष्टिके रूपमें प्रकट कर देते हैं॥ ११॥

श्लोक-१२

विश्वास-प्रस्तुतिः

विश्वं वै ब्रह्मतन्मात्रं संस्थितं विष्णुमायया।
ईश्वरेण परिच्छिन्नं कालेनाव्यक्तमूर्तिना॥

मूलम्

विश्वं वै ब्रह्मतन्मात्रं संस्थितं विष्णुमायया।
ईश्वरेण परिच्छिन्नं कालेनाव्यक्तमूर्तिना॥

अनुवाद (हिन्दी)

पहले यह सारा विश्व भगवान‍्की मायासे लीन होकर ब्रह्मरूपसे स्थित था। उसीको अव्यक्तमूर्ति कालके द्वारा भगवान‍्ने पुनः पृथक् रूपसे प्रकट किया है॥ १२॥

श्लोक-१३

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथेदानीं तथाग्रे च पश्चादप्येतदीदृशम्।
सर्गो नवविधस्तस्य प्राकृतो वैकृतस्तु यः॥

मूलम्

यथेदानीं तथाग्रे च पश्चादप्येतदीदृशम्।
सर्गो नवविधस्तस्य प्राकृतो वैकृतस्तु यः॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह जगत् जैसा अब है वैसा ही पहले था और भविष्यमें भी वैसा ही रहेगा। इसकी सृष्टि नौ प्रकारकी होती है तथा प्राकृत-वैकृत-भेदसे एक दसवीं सृष्टि और भी है॥ १३॥

श्लोक-१४

विश्वास-प्रस्तुतिः

कालद्रव्यगुणैरस्य त्रिविधः प्रतिसंक्रमः।
आद्यस्तु महतः सर्गो गुणवैषम्यमात्मनः॥

मूलम्

कालद्रव्यगुणैरस्य त्रिविधः प्रतिसंक्रमः।
आद्यस्तु महतः सर्गो गुणवैषम्यमात्मनः॥

अनुवाद (हिन्दी)

और इसका प्रलय काल, द्रव्य तथा गुणोंके द्वारा तीन प्रकारसे होता है। (अब पहले मैं दस प्रकारकी सृष्टिका वर्णन करता हूँ) पहली सृष्टि महत्तत्त्वकी है। भगवान‍्की प्रेरणासे सत्त्वादि गुणोंमें विषमता होना ही इसका स्वरूप है॥ १४॥

श्लोक-१५

विश्वास-प्रस्तुतिः

द्वितीयस्त्वहमो यत्र द्रव्यज्ञानक्रियोदयः।
भूतसर्गस्तृतीयस्तु तन्मात्रो द्रव्यशक्तिमान्॥

मूलम्

द्वितीयस्त्वहमो यत्र द्रव्यज्ञानक्रियोदयः।
भूतसर्गस्तृतीयस्तु तन्मात्रो द्रव्यशक्तिमान्॥

अनुवाद (हिन्दी)

दूसरी सृष्टि अहंकारकी है, जिससे पृथ्वी आदि पंचभूत एवं ज्ञानेन्द्रिय और कर्मेन्द्रियोंकी उत्पत्ति होती है। तीसरी सृष्टि भूतसर्ग है, जिसमें पंचमहाभूतोंको उत्पन्न करनेवाला तन्मात्रवर्ग रहता है॥ १५॥

श्लोक-१६

विश्वास-प्रस्तुतिः

चतुर्थ ऐन्द्रियः सर्गो यस्तु ज्ञानक्रियात्मकः।
वैकारिको देवसर्गः पञ्चमो यन्मयं मनः॥

मूलम्

चतुर्थ ऐन्द्रियः सर्गो यस्तु ज्ञानक्रियात्मकः।
वैकारिको देवसर्गः पञ्चमो यन्मयं मनः॥

अनुवाद (हिन्दी)

चौथी सृष्टि इन्द्रियोंकी है, यह ज्ञान और क्रियाशक्तिसे सम्पन्न होती है। पाँचवीं सृष्टि सात्त्विक अहंकारसे उत्पन्न हुए इन्द्रियाधिष्ठाता देवताओंकी है, मन भी इसी सृष्टिके अन्तर्गत है॥ १६॥

श्लोक-१७

विश्वास-प्रस्तुतिः

षष्ठस्तु तमसः सर्गो यस्त्वबुद्धिकृतः प्रभो।
षडिमे प्राकृताः सर्गा वैकृतानपि मे शृणु॥

मूलम्

षष्ठस्तु तमसः सर्गो यस्त्वबुद्धिकृतः प्रभो।
षडिमे प्राकृताः सर्गा वैकृतानपि मे शृणु॥

अनुवाद (हिन्दी)

छठी सृष्टि अविद्याकी है। इसमें तामिस्र, अन्धतामिस्र, तम, मोह और महामोह—ये पाँच गाँठें हैं। यह जीवोंकी बुद्धिका आवरण और विक्षेप करनेवाली है। ये छः प्राकृत सृष्टियाँ हैं, अब वैकृत सृष्टियोंका भी विवरण सुनो॥ १७॥

श्लोक-१८

विश्वास-प्रस्तुतिः

रजोभाजो भगवतो लीलेयं हरिमेधसः।
सप्तमो मुख्यसर्गस्तु षड‍‍्विधस्तस्थुषां च यः॥

मूलम्

रजोभाजो भगवतो लीलेयं हरिमेधसः।
सप्तमो मुख्यसर्गस्तु षड‍‍्विधस्तस्थुषां च यः॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो भगवान् अपना चिन्तन करनेवालोंके समस्त दुःखोंको हर लेते हैं, यह सारी लीला उन्हीं श्रीहरिकी है। वे ही ब्रह्माके रूपमें रजोगुणको स्वीकार करके जगत‍्की रचना करते हैं। छः प्रकारकी प्राकृत सृष्टियोंके बाद सातवीं प्रधान वैकृत सृष्टि इन छः प्रकारके स्थावर वृक्षोंकी होती है॥ १८॥

श्लोक-१९

विश्वास-प्रस्तुतिः

वनस्पत्योषधिलतात्वक्सारा वीरुधो द्रुमाः।
उत्स्रोतसस्तमः प्राया अन्तःस्पर्शा विशेषिणः॥

मूलम्

वनस्पत्योषधिलतात्वक्सारा वीरुधो द्रुमाः।
उत्स्रोतसस्तमः प्राया अन्तःस्पर्शा विशेषिणः॥

अनुवाद (हिन्दी)

वनस्पति१, ओषधि,२ लता,३ त्वक्सार,४ वीरुध५ और द्रुम६ इनका संचार नीचे (जड़)-से ऊपरकी ओर होता है, इनमें प्रायः ज्ञानशक्ति प्रकट नहीं रहती, ये भीतर-ही-भीतर केवल स्पर्शका अनुभव करते हैं तथा इनमेंसे प्रत्येकमें कोई विशेष गुण रहता है॥ १९॥

पादटिप्पनी

१. जो बिना मौर आये ही फलते हैं, जैसे गूलर, बड़, पीपल आदि। २. जो फलोंके पक जानेपर नष्ट हो जाते हैं, जैसे धान, गेहूँ, चना आदि। ३. जो किसीका आश्रय लेकर बढ़ते हैं, जैसे ब्राह्मी, गिलोय आदि। ४. जिनकी छाल बहुत कठोर होती है, जैसे बाँस आदि। ५. जो लता पृथ्वीपर ही फैलती है, किन्तु कठोर होनेसे ऊपरकी ओर नहीं चढ़ती—जैसे खरबूजा, तरबूजा आदि। ६. जिनमें पहले फूल आकर फिर उन फूलोंके स्थानमें ही फल लगते हैं, जैसे आम, जामुन आदि।

श्लोक-२०

विश्वास-प्रस्तुतिः

तिरश्चामष्टमः सर्गः सोऽष्टाविंशद्विधो मतः।
अविदो भूरितमसो घ्राणज्ञा हृद्यवेदिनः॥

मूलम्

तिरश्चामष्टमः सर्गः सोऽष्टाविंशद्विधो मतः।
अविदो भूरितमसो घ्राणज्ञा हृद्यवेदिनः॥

अनुवाद (हिन्दी)

आठवीं सृष्टि तिर्यग्योनियों (पशु-पक्षियों)-की है। वह अट्ठाईस प्रकारकी मानी जाती है। इन्हें कालका ज्ञान नहीं होता, तमोगुणकी अधिकताके कारण ये केवल खाना-पीना, मैथुन करना, सोना आदि ही जानते हैं, इन्हें सूँघनेमात्रसे वस्तुओंका ज्ञान हो जाता है। इनके हृदयमें विचारशक्ति या दूरदर्शिता नहीं होती॥ २०॥

श्लोक-२१

विश्वास-प्रस्तुतिः

गौरजो महिषः कृष्णः सूकरो गवयो रुरुः।
द्विशफाः पशवश्चेमे अविरुष्ट्रश्च सत्तम॥

मूलम्

गौरजो महिषः कृष्णः सूकरो गवयो रुरुः।
द्विशफाः पशवश्चेमे अविरुष्ट्रश्च सत्तम॥

अनुवाद (हिन्दी)

साधुश्रेष्ठ! इन तिर्यकोंमें गौ, बकरा, भैंसा, कृष्ण-मृग, सूअर, नीलगाय, रुरु नामका मृग, भेड़ और ऊँट—ये द्विशफ (दोखुरोंवाले) पशु कहलाते हैं॥ २१॥

श्लोक-२२

विश्वास-प्रस्तुतिः

खरोऽश्वोऽश्वतरो गौरः शरभश्चमरी तथा।
एते चैकशफाः क्षत्तः शृणु पञ्चनखान् पशून्॥

मूलम्

खरोऽश्वोऽश्वतरो गौरः शरभश्चमरी तथा।
एते चैकशफाः क्षत्तः शृणु पञ्चनखान् पशून्॥

अनुवाद (हिन्दी)

गधा, घोड़ा, खच्चर, गौरमृग, शरफ और चमरी—ये एकशफ (एक खुरवाले) हैं। अब पाँच नखवाले पशु-पक्षियोंके नाम सुनो॥ २२॥

श्लोक-२३

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्वा सृगालो वृको व्याघ्रो मार्जारः शशशल्लकौ।
सिंहः कपिर्गजः कूर्मो गोधा च मकरादयः॥

मूलम्

श्वा सृगालो वृको व्याघ्रो मार्जारः शशशल्लकौ।
सिंहः कपिर्गजः कूर्मो गोधा च मकरादयः॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुत्ता, गीदड़, भेड़िया, बाघ, बिलाव, खरगोश, साही, सिंह, बंदर, हाथी, कछुआ, गोह और मगर आदि (पशु) हैं॥ २३॥

श्लोक-२४

विश्वास-प्रस्तुतिः

कङ्कगृध्रवटश्येनभासभल्लूकबर्हिणः।
हंससारसचक्राह्वकाकोलूकादयः खगाः॥

मूलम्

कङ्कगृध्रवटश्येनभासभल्लूकबर्हिणः।
हंससारसचक्राह्वकाकोलूकादयः खगाः॥

अनुवाद (हिन्दी)

कंक (बगुला), गिद्ध, बटेर, बाज, भास, भल्लूक, मोर, हंस, सारस, चकवा, कौआ और उल्लू आदि उड़नेवाले जीव पक्षी कहलाते हैं॥ २४॥

श्लोक-२५

विश्वास-प्रस्तुतिः

अर्वाक्स्रोतस्तु नवमः क्षत्तरेकविधो नृणाम्।
रजोऽधिकाः कर्मपरा दुःखे च सुखमानिनः॥

मूलम्

अर्वाक्स्रोतस्तु नवमः क्षत्तरेकविधो नृणाम्।
रजोऽधिकाः कर्मपरा दुःखे च सुखमानिनः॥

अनुवाद (हिन्दी)

विदुरजी! नवीं सृष्टि मनुष्योंकी है। यह एक ही प्रकारकी है। इसके आहारका प्रवाह ऊपर (मुँह)-से नीचेकी ओर होता है। मनुष्य रजोगुणप्रधान, कर्मपरायण और दुःखरूप विषयोंमें ही सुख माननेवाले होते हैं॥ २५॥

श्लोक-२६

विश्वास-प्रस्तुतिः

वैकृतास्त्रय एवैते देवसर्गश्च सत्तम।
वैकारिकस्तु यः प्रोक्तः कौमारस्तूभयात्मकः॥

मूलम्

वैकृतास्त्रय एवैते देवसर्गश्च सत्तम।
वैकारिकस्तु यः प्रोक्तः कौमारस्तूभयात्मकः॥

अनुवाद (हिन्दी)

स्थावर, पशु-पक्षी और मनुष्य—ये तीनों प्रकारकी सृष्टियाँ तथा आगे कहा जानेवाला देवसर्ग वैकृत सृष्टि हैं तथा जो महत्तत्त्वादिरूप वैकारिक देवसर्ग है, उसकी गणना पहले प्राकृत सृष्टिमें की जा चुकी है। इनके अतिरिक्त सनत्कुमार आदि ऋषियोंका जो कौमारसर्ग है, वह प्राकृत-वैकृत दोनों प्रकारका है॥ २६॥

श्लोक-२७

विश्वास-प्रस्तुतिः

देवसर्गश्चाष्टविधो विबुधाः पितरोऽसुराः।
गन्धर्वाप्सरसः सिद्धा यक्षरक्षांसि चारणाः॥

मूलम्

देवसर्गश्चाष्टविधो विबुधाः पितरोऽसुराः।
गन्धर्वाप्सरसः सिद्धा यक्षरक्षांसि चारणाः॥

श्लोक-२८

विश्वास-प्रस्तुतिः

भूतप्रेतपिशाचाश्च विद्याध्राः किन्नरादयः।
दशैते विदुराख्याताः सर्गास्ते विश्वसृक्‍कृताः॥

मूलम्

भूतप्रेतपिशाचाश्च विद्याध्राः किन्नरादयः।
दशैते विदुराख्याताः सर्गास्ते विश्वसृक्‍कृताः॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवता, पितर, असुर, गन्धर्व-अप्सरा, यक्ष-राक्षस, सिद्ध-चारण-विद्याधर, भूत-प्रेत-पिशाच और किन्नर-किम्पुरुष-अश्वमुख आदि भेदसे देवसृष्टि आठ प्रकारकी है। विदुरजी! इस प्रकार जगत्कर्ता श्रीब्रह्माजीकी रची हुई यह दस प्रकारकी सृष्टि मैंने तुमसे कही॥ २७-२८॥

श्लोक-२९

विश्वास-प्रस्तुतिः

अतः परं प्रवक्ष्यामि वंशान्मन्वन्तराणि च।
एवं रजःप्लुतः स्रष्टा कल्पादिष्वात्मभूर्हरिः।
सृजत्यमोघसङ्कल्प आत्मैवात्मानमात्मना॥

मूलम्

अतः परं प्रवक्ष्यामि वंशान्मन्वन्तराणि च।
एवं रजःप्लुतः स्रष्टा कल्पादिष्वात्मभूर्हरिः।
सृजत्यमोघसङ्कल्प आत्मैवात्मानमात्मना॥

अनुवाद (हिन्दी)

अब आगे मैं वंश और मन्वन्तरादिका वर्णन करूँगा। इस प्रकार सृष्टि करनेवाले सत्यसंकल्प भगवान् हरि ही ब्रह्माके रूपसे प्रत्येक कल्पके आदिमें रजोगुणसे व्याप्त होकर स्वयं ही जगत‍्के रूपमें अपनी ही रचना करते हैं॥ २९॥

अनुवाद (समाप्ति)

इति श्रीमद‍्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां तृतीयस्कन्धे दशमोऽध्यायः॥ १०॥