[अष्टमोऽध्यायः]
भागसूचना
ब्रह्माजीकी उत्पत्ति
श्लोक-१
मूलम् (वचनम्)
मैत्रेय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
सत्सेवनीयो बत पूरुवंशो
यल्लोकपालो भगवत्प्रधानः।
बभूविथेहाजितकीर्तिमालां
पदे पदे नूतनयस्यभीक्ष्णम्॥
मूलम्
सत्सेवनीयो बत पूरुवंशो
यल्लोकपालो भगवत्प्रधानः।
बभूविथेहाजितकीर्तिमालां
पदे पदे नूतनयस्यभीक्ष्णम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीमैत्रेयजीने कहा—विदुरजी! आप भगवद्भक्तोंमें प्रधान लोकपाल यमराज ही हैं; आपके पूरुवंशमें जन्म लेनेके कारण वह वंश साधु-पुरुषोंके लिये भी सेव्य हो गया है। धन्य हैं! आप निरन्तर पद-पदपर श्रीहरिकी कीर्तिमयी मालाको नित्य नूतन बना रहे हैं॥ १॥
श्लोक-२
विश्वास-प्रस्तुतिः
सोऽहं नृणां क्षुल्लसुखाय दुःखं
महद्गतानां विरमाय तस्य।
प्रवर्तये भागवतं पुराणं
यदाह साक्षाद्भगवानृषिभ्यः॥
मूलम्
सोऽहं नृणां क्षुल्लसुखाय दुःखं
महद्गतानां विरमाय तस्य।
प्रवर्तये भागवतं पुराणं
यदाह साक्षाद्भगवानृषिभ्यः॥
अनुवाद (हिन्दी)
अब मैं, क्षुद्र विषय-सुखकी कामनासे महान् दुःखको मोल लेनेवाले पुरुषोंकी दुःखनिवृत्तिके लिये, श्रीमद्भागवतपुराण प्रारम्भ करता हूँ—जिसे स्वयं श्रीसंकर्षणभगवान्ने सनकादि ऋषियोंको सुनाया था॥ २॥
श्लोक-३
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसीनमुर्व्यां भगवन्तमाद्यं
सङ्कर्षणं देवमकुण्ठसत्त्वम्।
विवित्सवस्तत्त्वमतः परस्य
कुमारमुख्या मुनयोऽन्वपृच्छन्॥
मूलम्
आसीनमुर्व्यां भगवन्तमाद्यं
सङ्कर्षणं देवमकुण्ठसत्त्वम्।
विवित्सवस्तत्त्वमतः परस्य
कुमारमुख्या मुनयोऽन्वपृच्छन्॥
अनुवाद (हिन्दी)
अखण्ड ज्ञानसम्पन्न आदिदेव भगवान् संकर्षण पाताललोकमें विराजमान थे। सनत्कुमार आदि ऋषियोंने परम पुरुषोत्तम ब्रह्मका तत्त्व जाननेके लिये उनसे प्रश्न किया॥ ३॥
श्लोक-४
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वमेव धिष्ण्यं बहु मानयन्तं
यं वासुदेवाभिधमामनन्ति।
प्रत्यग्धृताक्षाम्बुजकोशमीष-
दुन्मीलयन्तं विबुधोदयाय॥
मूलम्
स्वमेव धिष्ण्यं बहु मानयन्तं
यं वासुदेवाभिधमामनन्ति।
प्रत्यग्धृताक्षाम्बुजकोशमीष-
दुन्मीलयन्तं विबुधोदयाय॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय शेषजी अपने आश्रय-स्वरूप उन परमात्माकी मानसिक पूजा कर रहे थे, जिनका वेद वासुदेवके नामसे निरूपण करते हैं। उनके कमलकोशसरीखे नेत्र बंद थे। प्रश्न करनेपर सनत्कुमारादि ज्ञानीजनोंके आनन्दके लिये उन्होंने अधखुले नेत्रोंसे देखा॥ ४॥
श्लोक-५
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वर्धुन्युदार्द्रैः स्वजटाकलापै-
रुपस्पृशन्तश्चरणोपधानम्।
पद्मं यदर्चन्त्यहिराजकन्याः
सप्रेमनानाबलिभिर्वरार्थाः॥
मूलम्
स्वर्धुन्युदार्द्रैः स्वजटाकलापै-
रुपस्पृशन्तश्चरणोपधानम्।
पद्मं यदर्चन्त्यहिराजकन्याः
सप्रेमनानाबलिभिर्वरार्थाः॥
अनुवाद (हिन्दी)
सनत्कुमार आदि ऋषियोंने मन्दाकिनीके जलसे भीगे अपने जटासमूहसे उनके चरणोंकी चौकीके रूपमें स्थित कमलका स्पर्श किया, जिसकी नागराजकुमारियाँ अभिलषित वरकी प्राप्तिके लिये प्रेमपूर्वक अनेकों उपहार-सामग्रियोंसे पूजा करती हैं॥ ५॥
श्लोक-६
विश्वास-प्रस्तुतिः
मुहुर्गृणन्तो वचसानुराग-
स्खलत्पदेनास्य कृतानि तज्ज्ञाः।
किरीटसाहस्रमणिप्रवेक-
प्रद्योतितोद्दामफणासहस्रम्॥
मूलम्
मुहुर्गृणन्तो वचसानुराग-
स्खलत्पदेनास्य कृतानि तज्ज्ञाः।
किरीटसाहस्रमणिप्रवेक-
प्रद्योतितोद्दामफणासहस्रम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
सनत्कुमारादि उनकी लीलाके मर्मज्ञ हैं। उन्होंने बार-बार प्रेम-गद्गद वाणीसे उनकी लीलाका गान किया। उस समय शेषभगवान्के उठे हुए सहस्रों फण किरीटोंकी सहस्र-सहस्र श्रेष्ठ मणियोंकी छिटकती हुई रश्मियोंसे जगमगा रहे थे॥ ६॥
श्लोक-७
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रोक्तं किलैतद्भगवत्तमेन
निवृत्तिधर्माभिरताय तेन।
सनत्कुमाराय स चाह पृष्टः
सांख्यायनायाङ्ग धृतव्रताय॥
मूलम्
प्रोक्तं किलैतद्भगवत्तमेन
निवृत्तिधर्माभिरताय तेन।
सनत्कुमाराय स चाह पृष्टः
सांख्यायनायाङ्ग धृतव्रताय॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् संकर्षणने निवृत्तिपरायण सनत्कुमारजीको यह भागवत सुनाया था—ऐसा प्रसिद्ध है। सनत्कुमारजीने फिर इसे परम व्रतशील सांख्यायन मुनिको, उनके प्रश्न करनेपर सुनाया॥ ७॥
श्लोक-८
विश्वास-प्रस्तुतिः
सांख्यायनः पारमहंस्यमुख्यो
विवक्षमाणो भगवद्विभूतीः।
जगाद सोऽस्मद्गुरवेऽन्विताय
पराशरायाथ बृहस्पतेश्च॥
मूलम्
सांख्यायनः पारमहंस्यमुख्यो
विवक्षमाणो भगवद्विभूतीः।
जगाद सोऽस्मद्गुरवेऽन्विताय
पराशरायाथ बृहस्पतेश्च॥
अनुवाद (हिन्दी)
परमहंसोंमें प्रधान श्रीसांख्यायनजीको जब भगवान्की विभूतियोंका वर्णन करनेकी इच्छा हुई, तब उन्होंने इसे अपने अनुगत शिष्य, हमारे गुरु श्रीपराशरजीको और बृहस्पतिजीको सुनाया॥ ८॥
श्लोक-९
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रोवाच मह्यं स दयालुरुक्तो
मुनिः पुलस्त्येन पुराणमाद्यम्।
सोऽहं तवैतत्कथयामि वत्स
श्रद्धालवे नित्यमनुव्रताय॥
मूलम्
प्रोवाच मह्यं स दयालुरुक्तो
मुनिः पुलस्त्येन पुराणमाद्यम्।
सोऽहं तवैतत्कथयामि वत्स
श्रद्धालवे नित्यमनुव्रताय॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसके पश्चात् परम दयालु पराशरजीने पुलस्त्य मुनिके कहनेसे वह आदिपुराण मुझसे कहा। वत्स! श्रद्धालु और सदा अनुगत देखकर अब वही पुराण मैं तुम्हें सुनाता हूँ॥ ९॥
श्लोक-१०
विश्वास-प्रस्तुतिः
उदाप्लुतं विश्वमिदं तदाऽऽसीद्
यन्निद्रयामीलितदृङ् न्यमीलयत्।
अहीन्द्रतल्पेऽधिशयान एकः
कृतक्षणः स्वात्मरतौ निरीहः॥
मूलम्
उदाप्लुतं विश्वमिदं तदाऽऽसीद्
यन्निद्रयामीलितदृङ् न्यमीलयत्।
अहीन्द्रतल्पेऽधिशयान एकः
कृतक्षणः स्वात्मरतौ निरीहः॥
अनुवाद (हिन्दी)
सृष्टिके पूर्व यह सम्पूर्ण विश्व जलमें डूबा हुआ था। उस समय एकमात्र श्रीनारायणदेव शेषशय्यापर पौढ़े हुए थे। वे अपनी ज्ञानशक्तिको अक्षुण्ण रखते हुए ही, योगनिद्राका आश्रय ले, अपने नेत्र मूँदे हुए थे। सृष्टिकर्मसे अवकाश लेकर आत्मानन्दमें मग्न थे। उनमें किसी भी क्रियाका उन्मेष नहीं था॥ १०॥
श्लोक-११
विश्वास-प्रस्तुतिः
सोऽन्तःशरीरेऽर्पितभूतसूक्ष्मः
कालात्मिकां शक्तिमुदीरयाणः।
उवास तस्मिन् सलिले पदे स्वे
यथानलो दारुणि रुद्धवीर्यः॥
मूलम्
सोऽन्तःशरीरेऽर्पितभूतसूक्ष्मः
कालात्मिकां शक्तिमुदीरयाणः।
उवास तस्मिन् सलिले पदे स्वे
यथानलो दारुणि रुद्धवीर्यः॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिस प्रकार अग्नि अपनी दाहिका आदि शक्तियोंको छिपाये हुए काष्ठमें व्याप्त रहता है, उसी प्रकार श्रीभगवान्ने सम्पूर्ण प्राणियोंके सूक्ष्म शरीरोंको अपने शरीरमें लीन करके अपने आधारभूत उस जलमें शयन किया, उन्हें सृष्टिकाल आनेपर पुनः जगानेके लिये केवल कालशक्तिको जाग्रत् रखा॥ ११॥
श्लोक-१२
विश्वास-प्रस्तुतिः
चतुर्युगानां च सहस्रमप्सु
स्वपन् स्वयोदीरितया स्वशक्त्या।
कालाख्ययाऽऽसादितकर्मतन्त्रो
लोकानपीतान्ददृशे स्वदेहे॥
मूलम्
चतुर्युगानां च सहस्रमप्सु
स्वपन् स्वयोदीरितया स्वशक्त्या।
कालाख्ययाऽऽसादितकर्मतन्त्रो
लोकानपीतान्ददृशे स्वदेहे॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार अपनी स्वरूपभूता चिच्छक्तिके साथ एक सहस्र चतुर्युगपर्यन्त जलमें शयन करनेके अनन्तर जब उन्हींके द्वारा नियुक्त उनकी कालशक्तिने उन्हें जीवोंके कर्मोंकी प्रवृत्तिके लिये प्रेरित किया, तब उन्होंने अपने शरीरमें लीन हुए अनन्त लोक देखे॥ १२॥
श्लोक-१३
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्यार्थसूक्ष्माभिनिविष्टदृष्टे-
रन्तर्गतोऽर्थो रजसा तनीयान्।
गुणेन कालानुगतेन विद्धः
सूष्यंस्तदाभिद्यत नाभिदेशात्॥
मूलम्
तस्यार्थसूक्ष्माभिनिविष्टदृष्टे-
रन्तर्गतोऽर्थो रजसा तनीयान्।
गुणेन कालानुगतेन विद्धः
सूष्यंस्तदाभिद्यत नाभिदेशात्॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिस समय भगवान्की दृष्टि अपनेमें निहित लिंगशरीरादि सूक्ष्मतत्त्वपर पड़ी, तब वह कालाश्रित रजोगुणसे क्षुभित होकर सृष्टिरचनाके निमित्त उनके नाभिदेशसे बाहर निकला॥ १३॥
श्लोक-१४
विश्वास-प्रस्तुतिः
स पद्मकोशः सहसोदतिष्ठत्
कालेन कर्मप्रतिबोधनेन।
स्वरोचिषा तत्सलिलं विशालं
विद्योतयन्नर्क इवात्मयोनिः॥
मूलम्
स पद्मकोशः सहसोदतिष्ठत्
कालेन कर्मप्रतिबोधनेन।
स्वरोचिषा तत्सलिलं विशालं
विद्योतयन्नर्क इवात्मयोनिः॥
अनुवाद (हिन्दी)
कर्मशक्तिको जाग्रत् करनेवाले कालके द्वारा विष्णुभगवान्की नाभिसे प्रकट हुआ वह सूक्ष्मतत्त्व कमलकोशके रूपमें सहसा ऊपर उठा और उसने सूर्यके समान अपने तेजसे उस अपार जलराशिको देदीप्यमान कर दिया॥ १४॥
श्लोक-१५
विश्वास-प्रस्तुतिः
तल्लोकपद्मं स उ एव विष्णुः
प्रावीविशत्सर्वगुणावभासम्।
तस्मिन् स्वयं वेदमयो विधाता
स्वयम्भुवं यं स्म वदन्ति सोऽभूत्॥
मूलम्
तल्लोकपद्मं स उ एव विष्णुः
प्रावीविशत्सर्वगुणावभासम्।
तस्मिन् स्वयं वेदमयो विधाता
स्वयम्भुवं यं स्म वदन्ति सोऽभूत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
सम्पूर्ण गुणोंको प्रकाशित करनेवाले उस सर्वलोकमय कमलमें वे विष्णुभगवान् ही अन्तर्यामीरूपसे प्रविष्ट हो गये। तब उसमेंसे बिना पढ़ाये ही स्वयं सम्पूर्ण वेदोंको जाननेवाले साक्षात् वेदमूर्ति श्रीब्रह्माजी प्रकट हुए , जिन्हें लोग स्वयम्भू कहते हैं॥ १५॥
श्लोक-१६
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्यां स चाम्भोरुहकर्णिकाया-
मवस्थितो लोकमपश्यमानः।
परिक्रमन् व्योम्नि विवृत्तनेत्र-
श्चत्वारि लेभेऽनुदिशं मुखानि॥
मूलम्
तस्यां स चाम्भोरुहकर्णिकाया-
मवस्थितो लोकमपश्यमानः।
परिक्रमन् व्योम्नि विवृत्तनेत्र-
श्चत्वारि लेभेऽनुदिशं मुखानि॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस कमलकी कर्णिका (गद्दी)-में बैठे हुए ब्रह्माजीको जब कोई लोक दिखायी नहीं दिया, तब वे आँखें फाड़कर आकाशमें चारों ओर गर्दन घुमाकर देखने लगे, इससे उनके चारों दिशाओंमें चार मुख हो गये॥ १६॥
श्लोक-१७
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्माद्युगान्तश्वसनावघूर्ण-
जलोर्मिचक्रात्सलिलाद्विरूढम्।
उपाश्रितः कञ्जमु लोकतत्त्वं
नात्मानमद्धाविददादिदेवः॥
मूलम्
तस्माद्युगान्तश्वसनावघूर्ण-
जलोर्मिचक्रात्सलिलाद्विरूढम्।
उपाश्रितः कञ्जमु लोकतत्त्वं
नात्मानमद्धाविददादिदेवः॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय प्रलयकालीन पवनके थपेड़ोंसे उछलती हुई जलकी तरंगमालाओंके कारण उस जलराशिसे ऊपर उठे हुए कमलपर विराजमान आदिदेव ब्रह्माजीको अपना तथा उस लोकतत्त्वरूप कमलका कुछ भी रहस्य न जान पड़ा॥ १७॥
श्लोक-१८
विश्वास-प्रस्तुतिः
क एष योऽसावहमब्जपृष्ठ
एतत्कुतो वाब्जमनन्यदप्सु।
अस्ति ह्यधस्तादिह किञ्चनैत-
दधिष्ठितं यत्र सता नु भाव्यम्॥
मूलम्
क एष योऽसावहमब्जपृष्ठ
एतत्कुतो वाब्जमनन्यदप्सु।
अस्ति ह्यधस्तादिह किञ्चनैत-
दधिष्ठितं यत्र सता नु भाव्यम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे सोचने लगे, ‘इस कमलकी कर्णिकापर बैठा हुआ मैं कौन हूँ? यह कमल भी बिना किसी अन्य आधारके जलमें कहाँसे उत्पन्न हो गया? इसके नीचे अवश्य कोई ऐसी वस्तु होनी चाहिये, जिसके आधारपर यह स्थित है’॥ १८॥
श्लोक-१९
विश्वास-प्रस्तुतिः
स इत्थमुद्वीक्ष्य तदब्जनाल-
नाडीभिरन्तर्जलमाविवेश।
नार्वाग्गतस्तत्खरनालनाल-
नाभिं विचिन्वंस्तदविन्दताजः॥
मूलम्
स इत्थमुद्वीक्ष्य तदब्जनाल-
नाडीभिरन्तर्जलमाविवेश।
नार्वाग्गतस्तत्खरनालनाल-
नाभिं विचिन्वंस्तदविन्दताजः॥
अनुवाद (हिन्दी)
ऐसा सोचकर वे उस कमलकी नालके सूक्ष्म छिद्रोंमें होकर उस जलमें घुसे। किन्तु उस नालके आधारको खोजते-खोजते नाभिदेशके समीप पहुँच जानेपर भी वे उसे पा न सके॥ १९॥
श्लोक-२०
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमस्यपारे विदुरात्मसर्गं
विचिन्वतोऽभूत्सुमहांस्त्रिणेमिः।
यो देहभाजां भयमीरयाणः
परिक्षिणोत्यायुरजस्य हेतिः॥
मूलम्
तमस्यपारे विदुरात्मसर्गं
विचिन्वतोऽभूत्सुमहांस्त्रिणेमिः।
यो देहभाजां भयमीरयाणः
परिक्षिणोत्यायुरजस्य हेतिः॥
अनुवाद (हिन्दी)
विदुरजी! उस अपार अन्धकारमें अपने उत्पत्ति-स्थानको खोजते-खोजते ब्रह्माजीको बहुत काल बीत गया। यह काल ही भगवान्का चक्र है, जो प्राणियोंको भयभीत (करता हुआ उनकी आयुको क्षीण) करता रहता है॥ २०॥
श्लोक-२१
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो निवृत्तोऽप्रतिलब्धकामः
स्वधिष्ण्यमासाद्य पुनः स देवः।
शनैर्जितश्वासनिवृत्तचित्तो
न्यषीददारूढसमाधियोगः॥
मूलम्
ततो निवृत्तोऽप्रतिलब्धकामः
स्वधिष्ण्यमासाद्य पुनः स देवः।
शनैर्जितश्वासनिवृत्तचित्तो
न्यषीददारूढसमाधियोगः॥
अनुवाद (हिन्दी)
अन्तमें विफल मनोरथ हो वे वहाँसे लौट आये और पुनः अपने आधारभूत कमलपर बैठकर धीरे-धीरे प्राणवायुको जीतकर चित्तको निःसंकल्प किया और समाधिमें स्थित हो गये॥ २१॥
श्लोक-२२
विश्वास-प्रस्तुतिः
कालेन सोऽजः पुरुषायुषाभि-
प्रवृत्तयोगेन विरूढबोधः।
स्वयं तदन्तर्हृदयेऽवभात-
मपश्यतापश्यत यन्न पूर्वम्॥
मूलम्
कालेन सोऽजः पुरुषायुषाभि-
प्रवृत्तयोगेन विरूढबोधः।
स्वयं तदन्तर्हृदयेऽवभात-
मपश्यतापश्यत यन्न पूर्वम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार पुरुषकी पूर्ण आयुके बराबर कालतक (अर्थात् दिव्य सौ वर्षतक) अच्छी तरह योगाभ्यास करनेपर ब्रह्माजीको ज्ञान प्राप्त हुआ; तब उन्होंने अपने उस अधिष्ठानको, जिसे वे पहले खोजनेपर भी नहीं देख पाये थे, अपने ही अन्तःकरणमें प्रकाशित होते देखा॥ २२॥
श्लोक-२३
विश्वास-प्रस्तुतिः
मृणालगौरायतशेषभोग-
पर्यंक एकं पुरुषं शयानम्।
फणातपत्रायुतमूर्धरत्न-
द्युभिर्हतध्वान्तयुगान्ततोये॥
मूलम्
मृणालगौरायतशेषभोग-
पर्यंक एकं पुरुषं शयानम्।
फणातपत्रायुतमूर्धरत्न-
द्युभिर्हतध्वान्तयुगान्ततोये॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन्होंने देखा कि उस प्रलयकालीन जलमें शेषजीके कमलनालसदृश गौर और विशाल विग्रहकी शय्यापर पुरुषोत्तमभगवान् अकेले ही लेटे हुए हैं। शेषजीके दस हजार फण छत्रके समान फैले हुए हैं। उनके मस्तकोंपर किरीट शोभायमान हैं, उनमें जो मणियाँ जड़ी हुई हैं, उनकी कान्तिसे चारों ओरका अन्धकार दूर हो गया है॥ २३॥
श्लोक-२४
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रेक्षां क्षिपन्तं हरितोपलाद्रेः
सन्ध्याभ्रनीवेरुरुरुक्ममूर्ध्नः।
रत्नोदधारौषधिसौमनस्य-
वनस्रजो वेणुभुजाङ्घ्रिपाङ्घ्रेः॥
मूलम्
प्रेक्षां क्षिपन्तं हरितोपलाद्रेः
सन्ध्याभ्रनीवेरुरुरुक्ममूर्ध्नः।
रत्नोदधारौषधिसौमनस्य-
वनस्रजो वेणुभुजाङ्घ्रिपाङ्घ्रेः॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे अपने श्याम शरीरकी आभासे मरकतमणिके पर्वतकी शोभाको लज्जित कर रहे हैं। उनकी कमरका पीतपट पर्वतके प्रान्त देशमें छाये हुए सायंकालके पीले-पीले चमकीले मेघोंकी आभाको मलिन कर रहा है, सिरपर सुशोभित सुवर्णमुकुट सुवर्णमय शिखरोंका मान मर्दन कर रहा है। उनकी वनमाला पर्वतके रत्न, जलप्रपात, ओषधि और पुष्पोंकी शोभाको परास्त कर रही है तथा उनके भुजदण्ड वेणुदण्डका और चरण वृक्षोंका तिरस्कार करते हैं॥ २४॥
श्लोक-२५
विश्वास-प्रस्तुतिः
आयामतो विस्तरतः स्वमान-
देहेन लोकत्रयसंग्रहेण।
विचित्रदिव्याभरणांशुकानां
कृतश्रियापाश्रितवेषदेहम्॥
मूलम्
आयामतो विस्तरतः स्वमान-
देहेन लोकत्रयसंग्रहेण।
विचित्रदिव्याभरणांशुकानां
कृतश्रियापाश्रितवेषदेहम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनका वह श्रीविग्रह अपने परिमाणसे लंबाई-चौड़ाईमें त्रिलोकीका संग्रह किये हुए है। वह अपनी शोभासे विचित्र एवं दिव्य वस्त्राभूषणोंकी शोभाको सुशोभित करनेवाला होनेपर भी पीताम्बर आदि अपनी वेशभूषासे सुसज्जित है॥ २५॥
श्लोक-२६
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुंसां स्वकामाय विविक्तमार्गै-
रभ्यर्चतां कामदुघाङ्घ्रिपद्मम्।
प्रदर्शयन्तं कृपया नखेन्दु-
मयूखभिन्नाङ्गुलिचारुपत्रम्॥
मूलम्
पुंसां स्वकामाय विविक्तमार्गै-
रभ्यर्चतां कामदुघाङ्घ्रिपद्मम्।
प्रदर्शयन्तं कृपया नखेन्दु-
मयूखभिन्नाङ्गुलिचारुपत्रम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
अपनी-अपनी अभिलाषाकी पूर्तिके लिये भिन्न-भिन्न मार्गोंसे पूजा करनेवाले भक्तजनोंको कृपापूर्वक अपने भक्तवाञ्छाकल्पतरु चरणकमलोंका दर्शन दे रहे हैं, जिनके सुन्दर अंगुलिदल नखचन्द्रकी चन्द्रिकासे अलग-अलग स्पष्ट चमकते रहते हैं॥ २६॥
श्लोक-२७
विश्वास-प्रस्तुतिः
मुखेन लोकार्तिहरस्मितेन
परिस्फुरत्कुण्डलमण्डितेन।
शोणायितेनाधरबिम्बभासा
प्रत्यर्हयन्तं सुनसेन सुभ्र्वा॥
मूलम्
मुखेन लोकार्तिहरस्मितेन
परिस्फुरत्कुण्डलमण्डितेन।
शोणायितेनाधरबिम्बभासा
प्रत्यर्हयन्तं सुनसेन सुभ्र्वा॥
अनुवाद (हिन्दी)
सुन्दर नासिका, अनुग्रहवर्षी भौंहें, कानोंमें झिलमिलाते हुए कुण्डलोंकी शोभा, बिम्बाफलके समान लाल-लाल अधरोंकी कान्ति एवं लोकार्तिहारी मुसकानसे युक्त मुखारविन्दके द्वारा वे अपने उपासकोंका सम्मान—अभिनन्दन कर रहे हैं॥ २७॥
श्लोक-२८
विश्वास-प्रस्तुतिः
कदम्बकिञ्जल्कपिशङ्गवाससा
स्वलंकृतं मेखलया नितम्बे।
हारेण चानन्तधनेन वत्स
श्रीवत्सवक्षःस्थलवल्लभेन॥
मूलम्
कदम्बकिञ्जल्कपिशङ्गवाससा
स्वलंकृतं मेखलया नितम्बे।
हारेण चानन्तधनेन वत्स
श्रीवत्सवक्षःस्थलवल्लभेन॥
अनुवाद (हिन्दी)
वत्स! उनके नितम्बदेशमें कदम्बकुसुमकी केसरके समान पीतवस्त्र और सुवर्णमयी मेखला सुशोभित है तथा वक्षःस्थलमें अमूल्य हार और सुनहरी रेखावाले श्रीवत्सचिह्नकी अपूर्व शोभा हो रही है॥ २८॥
श्लोक-२९
विश्वास-प्रस्तुतिः
परार्घ्यकेयूरमणिप्रवेक-
पर्यस्तदोर्दण्डसहस्रशाखम्।
अव्यक्तमूलं भुवनाङ्घ्रिपेन्द्र-
महीन्द्रभोगैरधिवीतवल्शम्॥
मूलम्
परार्घ्यकेयूरमणिप्रवेक-
पर्यस्तदोर्दण्डसहस्रशाखम्।
अव्यक्तमूलं भुवनाङ्घ्रिपेन्द्र-
महीन्द्रभोगैरधिवीतवल्शम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे अव्यक्तमूल चन्दनवृक्षके समान हैं। महामूल्य केयूर और उत्तम-उत्तम मणियोंसे सुशोभित उनके विशाल भुजदण्ड ही मानो उसकी सहस्रों शाखाएँ हैं और चन्दनके वृक्षोंमें जैसे बड़े-बड़े साँप लिपटे रहते हैं, उसी प्रकार उनके कंधोंको शेषजीके फणोंने लपेट रखा है॥ २९॥
श्लोक-३०
विश्वास-प्रस्तुतिः
चराचरौको भगवन्महीध्र-
महीन्द्रबन्धुं सलिलोपगूढम्।
किरीटसाहस्रहिरण्यशृङ्ग-
माविर्भवत्कौस्तुभरत्नगर्भम्॥
मूलम्
चराचरौको भगवन्महीध्र-
महीन्द्रबन्धुं सलिलोपगूढम्।
किरीटसाहस्रहिरण्यशृङ्ग-
माविर्भवत्कौस्तुभरत्नगर्भम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे नागराज अनन्तके बन्धु श्रीनारायण ऐसे जान पड़ते हैं, मानो कोई जलसे घिरे हुए पर्वतराज ही हों। पर्वतपर जैसे अनेकों जीव रहते हैं, उसी प्रकार वे सम्पूर्ण चराचरके आश्रय हैं; शेषजीके फणोंपर जो सहस्रों मुकुट हैं वे ही मानो उस पर्वतके सुवर्णमण्डित शिखर हैं तथा वक्षःस्थलमें विराजमान कौस्तुभमणि उसके गर्भसे प्रकट हुआ रत्न है॥ ३०॥
श्लोक-३१
विश्वास-प्रस्तुतिः
निवीतमाम्नायमधुव्रतश्रिया
स्वकीर्तिमय्या वनमालया हरिम्।
सूर्येन्दुवाय्वग्न्यगमं त्रिधामभिः
परिक्रमत्प्राधनिकैर्दुरासदम्॥
मूलम्
निवीतमाम्नायमधुव्रतश्रिया
स्वकीर्तिमय्या वनमालया हरिम्।
सूर्येन्दुवाय्वग्न्यगमं त्रिधामभिः
परिक्रमत्प्राधनिकैर्दुरासदम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रभुके गलेमें वेदरूप भौंरोंसे गुंजायमान अपनी कीर्तिमयी वनमाला विराज रही है; सूर्य, चन्द्र, वायु और अग्नि आदि देवताओंकी भी आपतक पहुँच नहीं है तथा त्रिभुवनमें बेरोक-टोक विचरण करनेवाले सुदर्शनचक्रादि आयुध भी प्रभुके आस-पास ही घूमते रहते हैं, उनके लिये भी आप अत्यन्त दुर्लभ हैं॥ ३१॥
श्लोक-३२
विश्वास-प्रस्तुतिः
तर्ह्येव तन्नाभिसरःसरोज-
मात्मानमम्भः श्वसनं वियच्च।
ददर्श देवो जगतो विधाता
नातः परं लोकविसर्गदृष्टिः॥
मूलम्
तर्ह्येव तन्नाभिसरःसरोज-
मात्मानमम्भः श्वसनं वियच्च।
ददर्श देवो जगतो विधाता
नातः परं लोकविसर्गदृष्टिः॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब विश्वरचनाकी इच्छावाले लोकविधाता ब्रह्माजीने भगवान्के नाभिसरोवरसे प्रकट हुआ वह कमल, जल, आकाश, वायु और अपना शरीर—केवल ये पाँच ही पदार्थ देखे, इनके सिवा और कुछ उन्हें दिखायी न दिया॥ ३२॥
श्लोक-३३
विश्वास-प्रस्तुतिः
स कर्मबीजं रजसोपरक्तः
प्रजाः सिसृक्षन्नियदेव दृष्ट्वा।
अस्तौद्विसर्गाभिमुखस्तमीड्य-
मव्यक्तवर्त्मन्यभिवेशितात्मा॥
मूलम्
स कर्मबीजं रजसोपरक्तः
प्रजाः सिसृक्षन्नियदेव दृष्ट्वा।
अस्तौद्विसर्गाभिमुखस्तमीड्य-
मव्यक्तवर्त्मन्यभिवेशितात्मा॥
अनुवाद (हिन्दी)
रजोगुणसे व्याप्त ब्रह्माजी प्रजाकी रचना करना चाहते थे। जब उन्होंने सृष्टिके कारणरूप केवल ये पाँच ही पदार्थ देखे, तब लोकरचनाके लिये उत्सुक होनेके कारण वे अचिन्त्यगति श्रीहरिमें चित्त लगाकर उन परमपूजनीय प्रभुकी स्तुति करने लगे॥ ३३॥
अनुवाद (समाप्ति)
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां तृतीयस्कन्धेऽष्टमोऽध्यायः॥ ८॥