अनुवाद (हिन्दी)
पुराणोंमें श्रीमद्भागवतके सप्ताहपारायण तथा श्रवणकी बड़ी भारी महिमा बतलायी गयी है, अतः यहाँ श्रीमद्भागवत-प्रेमियोंके लिये संक्षेपसे सप्ताह-यज्ञकी आवश्यक विधिका दिग्दर्शन कराया जाता है।
मुहूर्तविचार—पहले विद्वान् ज्योतिषीको बुलाकर उनके द्वारा कथा-प्रारम्भके लिये शुभ मुहूर्तका विचार करा लेना चाहिये। नक्षत्रोंमें हस्त, चित्रा, स्वाती, विशाखा, अनुराधा, पुनर्वसु, पुष्य, रेवती, अश्विनी, मृगशिरा, श्रवण, धनिष्ठा तथा पूर्वाभाद्रपदा उत्तम हैं। तिथियोंमें द्वितीया, तृतीया, पञ्चमी, षष्ठी, दशमी, एकादशी तथा द्वादशीको इस कार्यके लिये श्रेष्ठ बतलाया गया है। सोम, बुध, गुरु एवं शुक्र—ये वार सर्वोत्तम हैं। तिथि, वार और नक्षत्रका विचार करनेके साथ ही यह भी देख लेना चाहिये कि शुक्र या गुरु अस्त, बाल अथवा वृद्ध तो नहीं हैं। कथारम्भका मुहूर्त भद्रादि दोषोंसे रहित होना चाहिये। उस दिन पृथ्वी जागती हो, वक्ता और श्रोताका चन्द्रबल ठीक हो। लग्नमें शुभ ग्रहोंका योग अथवा उनकी दृष्टि हो। शुभ ग्रहोंकी स्थिति केन्द्र या त्रिकोणमें हो तो उत्तम है। आषाढ़, श्रावण, भाद्रपद, आश्विन, कार्तिक और मार्गशीर्ष (अगहन)—ये मास कथा आरम्भ करनेके लिये श्रेष्ठ बतलाये गये हैं। किन्हीं विद्वानोंके मतसे चैत्र और पौषको छोड़कर सभी मास ग्राह्य हैं।
कथाके लिये स्थान—सप्ताहकथाके लिये उत्तम एवं पवित्र स्थानकी व्यवस्था हो। जहाँ अधिक लोग सुविधासे बैठ सकें, ऐसे स्थानमें कथाका आयोजन उत्तम है। नदीका तट, उपवन (बगीचा), देवमन्दिर अथवा अपना निवास-स्थान—ये सभी कथाके लिये उपयोगी स्थल हैं, स्थान लिपा-पुता स्वच्छ हो। नीचेकी भूमि गोबर और पीली मिट्टीसे लीपी गयी हो। अथवा पक्का आँगन हो तो उसे धो दिया गया हो। उसपर पवित्र एवं सुन्दर आसन बिछे हों। ऊपरसे चँदोवा तना हो। चँदोवा आदि किसी भी कार्यमें नीले रंगके वस्त्रका उपयोग न किया जाय। यजमानके हाथसे सोलह हाथ लम्बा और उतना ही चौड़ा कथा-मण्डप बने। उसे केलेके खम्भोंसे सजाया जाय। हरे बाँसके खंभे लगाये जायँ। नूतन पल्लवोंकी बंदनवारों, पुष्पमालाओं और ध्वजा-पताकाओंसे मण्डपको भलीभाँति सुसज्जित किया जाय। उसपर ऊपरसे सुन्दर चँदोवा तान दिया जाय। उस मण्डपके दक्षिण-पश्चिम भागमें कथावाचक और मुख्य श्रोताके बैठनेके लिये स्थान हो। शेष भागमें देवताओं और कलश आदिका स्थापन किया जाय। कथावाचकके बैठनेके लिये ऊँची चौकी रखी जाय। उसपर शुद्ध आसन (नया गद्दा) बिछाया जाय। पीछे तथा पार्श्वभागमें मसनद एवं तकिये रख दिये जायँ। श्रीमद्भागवतको स्थापित करनेके लिये एक छोटी-सी चौकी या आधारपीठ बनवाकर उसपर पवित्र वस्त्र बिछा दिया जाय। उसपर आगे बतायी जानेवाली विधिके अनुसार अष्टदल कमल बनाकर पूजन करके श्रीमद्भागवतकी पुस्तक स्थापित की जाय। कथावाचक विद्वान्, सर्वशास्त्रकुशल, दृष्टान्त देकर श्रोताओंको समझानेमें समर्थ, सदाचारी एवं सद्गुणसम्पन्न ब्राह्मण हों। उनमें सुशीलता, कुलीनता, गम्भीरता तथा श्रीकृष्णभक्तिका होना भी परमावश्यक है। वक्ताको असूया तथा परनिन्दा आदि दोषसे सर्वथा रहित निःस्पृह होना चाहिये। श्रीमद्भागवतकी पुस्तकको रेशमी वस्त्रसे आच्छादित करके छत्र-चँवरके साथ डोलीमें अथवा अपने मस्तकपर रखकर कथामण्डपमें लाना और स्थापित करना चाहिये। उस समय गीत-वाद्य आदिके द्वारा उत्सव मनाना चाहिये। कथामण्डपसे अनुपयोगी वस्तुएँ हटा देनी चाहिये। इधर-उधर दीवालोंमें भगवान् और उनकी लीलाओंके स्मारक चित्र लगा देने चाहिये। वक्ताका मुँह यदि उत्तरकी ओर हो तो मुख्य श्रोताका मुख पूर्वकी ओर होना चाहिये। यदि वक्ता पूर्वाभिमुख हो तो श्रोताको उत्तराभिमुख होना चाहिये।
सप्ताह-कथा एक महान् यज्ञ है। इसे सुसम्पन्न करनेके लिये अन्य सुहृद्-सम्बन्धियोंको भी सहायक बना लेना चाहिये। अर्थकी भी समुचित व्यवस्था पहलेसे ही कर लेना उत्तम है। पाँच-सात दिन पहलेसे ही दूर-दूरतक कथाका समाचार भेज देना चाहिये और सबसे यह अनुरोध करना चाहिये कि वे स्वयं उपस्थित होकर सप्ताह-कथा श्रवण करें। अधिक समय न दे सकें तो भी एक दिन अवश्य पधारकर कथाश्रवणका लाभ लें। दूरसे आये हुए अतिथियोंके ठहरने और भोजनादिकी व्यवस्था भी करनी चाहिये। वक्ताको व्रत ग्रहण करनेके लिये एक दिन पहले ही क्षौर करा लेना चाहिये। सप्ताह-प्रारम्भ होनेके एक दिन पूर्व ही देवस्थापन, पूजनादि कर लेना उत्तम है। वक्ता प्रतिदिन सूर्योदयसे पूर्व ही स्नानादि करके संक्षेपसे सन्ध्या-वन्दनादिका नियम पूरा कर ले और कथामें कोई विघ्न न आये, इसके लिये नित्यप्रति गणेशजीका पूजन कर लिया करे।
सप्ताहके प्रथम दिन यजमान स्नान आदिसे शुद्ध हो नित्यकर्म करके आभ्युदयिक श्राद्ध करे। आभ्युदयिक श्राद्ध और पहले भी किया जा सकता है। यज्ञमें इक्कीस दिन पहले भी आभ्युदयिक श्राद्ध करनेका विधान है। उसके बाद गणेश, ब्रह्मा आदि देवताओंसहित नवग्रह, षोडशमातृका, सप्त चिरजीवी (अश्वत्थामा, बलि, व्यास, हनुमान्, विभीषण, कृपाचार्य तथा परशुरामजी) एवं कलशकी स्थापना तथा पूजा करे। एक चौकीपर सर्वतोभद्र-मण्डल बनाकर उसके मध्यभागमें ताम्रकलश स्थापित करे। कलशके ऊपर भगवान् लक्ष्मीनारायणकी प्रतिमा स्थापित करनी चाहिये। कलशके ही बगलमें भगवान् शालग्रामका सिंहासन विराजमान कर देना चाहिये। सर्वतोभद्र-मण्डलमें स्थित समस्त देवताओंका पूजन करनेके पश्चात् भगवान् नर-नारायण, गुरु, वायु, सरस्वती, शेष, सनकादि कुमार, सांख्यायन, पराशर, बृहस्पति, मैत्रेय तथा उद्धवका भी आवाहन, स्थापन एवं पूजन करना चाहिये। फिर त्रय्यारुणि आदि छः पौराणिकोंका भी स्थापन-पूजन करके एक अलग पीठपर उसे सुन्दर वस्त्रसे आवृत करके, श्रीनारदजीकी स्थापनाएवं अर्चना करनी चाहिये। तदनन्तर आधारपीठ, पुस्तक एवं व्यास (वक्ता आचार्य)-का भी यथाप्राप्त उपचारोंसे पूजन करना चाहिये। कथा निर्विघ्न पूर्ण हो—इसके लिये गणेशमन्त्र, द्वादशाक्षरमन्त्र तथा गायत्री-मन्त्रका जप और विष्णुसहस्रनाम एवं गीताका पाठ करनेके लिये अपनी शक्तिके अनुसार सात, पाँच या तीन ब्राह्मणोंका वरण करे। श्रीमद्भागवतका भी एक पाठ अलग ब्राह्मणद्वारा कराये। देवताओंकी स्थापना और पूजाके पहले स्वस्तिवाचनपूर्वक हाथमें पवित्री, अक्षत, फूल, जल और द्रव्य लेकर एक महासंकल्प कर लेना चाहिये। संकल्प इस प्रकार है—
विश्वास-प्रस्तुतिः
ॐ तत्सदद्य श्रीमहाभगवतो विष्णोराज्ञया प्रवर्तमानस्य ब्रह्मणो द्वितीये परार्धे श्रीश्वेतवाराहकल्पे जम्बूद्वीपे भरतखण्डे आर्यावर्ते विष्णुप्रजापतिक्षेत्रे वैवस्वतमनुभोग्यैकसप्ततियुगचतुष्टयान्तर्गताष्टाविंशतितमकलिप्रथमचरणे बौद्धावतारे अमुकसंवत्सरे अमुकायने अमुकर्तौ अमुकराशिस्थिते भगवति सवितरि अमुकामुकराशिस्थितेषु चान्येषु ग्रहेषु महामाङ्गल्यप्रदे मासानामुत्तमे अमुकमासे अमुकपक्षे अमुकवासरे अमुकनक्षत्रे अमुकमुहूर्तकरणादियुतायाम् अमुकतिथौ अमुकगोत्रः अमुकप्रवरः अमुकशर्मा (वर्मा, गुप्तः) अहं पूर्वातीतानेकजन्मसंचिताखिलदुष्कृतनिवृत्तिपुरस्सरैहिकाध्यात्मिकादिविविधतापपापापनोदार्थं दशाश्वमेधयज्ञजन्यसम्यगिष्टराजसूययज्ञसहस्रपुण्यसमपुण्यचन्द्रसूर्यग्रहणकालिकबहुब्राह्मणसम्प्रदानकसर्वसस्यपूर्णसर्वरत्नोपशोभितमहीदानपुण्यप्राप्तये श्रीगोविन्दचरणारविन्दयुगले निरन्तरमुत्तरोत्तरमेधमाननिस्सीम प्रेमोपलब्धये तदीयपरमानन्दमयगोलोकधाम्नि नित्यनिवासपूर्वकतत्परिचर्यारसास्वादनसौभाग्यसिद्धये च अमुकगोत्रामुकप्रवरामुकशर्मब्राह्मणवदनारविन्दाच्छ्रीकृष्णवाङ्मयमूर्तीभूतं श्रीमद्भागवतमष्टादशपुराणप्रकृतिभूतमनेकश्रोतृश्रवणपूर्वकममुकदिनादारभ्यामुकदिनपर्यन्तं सप्ताहयज्ञरूपतया श्रोष्यामि* प्राप्स्यमानेऽस्मिन् सप्ताहयज्ञे विघ्नपूगनिवारणपूर्वकं यज्ञरक्षाकरणार्थं गणपतिब्रह्मादिसहितनवग्रहषोडशमातृकासप्तचिरजीविपुरुषसर्वतोभद्रमण्डलस्थदेवकलशाद्यर्चनपुरस्सरं श्रीलक्ष्मीनारायणप्रतिमाशालग्रामनरनारायणगुरुवायुसरस्वतीशेषसनत्कुमारसांख्यायनपराशरबृहस्पतिमैत्रेयोद्धवत्रय्यारुणिकश्यपरामशिष्याकृतव्रणवैशम्पायनहारीतनारदपूजनमाधारपीठपुस्तकव्यासपूजनं च यथालब्धोपचारैः करिष्ये।
- संतानकी इच्छासे प्रयोग करना हो तो संकल्पके उद्देश्यमें इस प्रकार योजना कर लेनी चाहिये। अतीतानन्तजन्मसम्पादितदुष्कृतपरिपाकवशप्राप्तजन्माङ्गक्रूरग्रहसूचितपत्नीवन्ध्यात्वकाकवन्ध्यात्वमृतवत्सात्वस्रवद्गर्भात्वादिरूपसन्ततिप्रतिबन्धकदोषनिवृत्तये सद्गुणसम्पन्नचिरञ्जीविस्वस्थसुन्दरसुपुत्रप्राप्तये च…..।
मूलम्
ॐ तत्सदद्य श्रीमहाभगवतो विष्णोराज्ञया प्रवर्तमानस्य ब्रह्मणो द्वितीये परार्धे श्रीश्वेतवाराहकल्पे जम्बूद्वीपे भरतखण्डे आर्यावर्ते विष्णुप्रजापतिक्षेत्रे वैवस्वतमनुभोग्यैकसप्ततियुगचतुष्टयान्तर्गताष्टाविंशतितमकलिप्रथमचरणे बौद्धावतारे अमुकसंवत्सरे अमुकायने अमुकर्तौ अमुकराशिस्थिते भगवति सवितरि अमुकामुकराशिस्थितेषु चान्येषु ग्रहेषु महामाङ्गल्यप्रदे मासानामुत्तमे अमुकमासे अमुकपक्षे अमुकवासरे अमुकनक्षत्रे अमुकमुहूर्तकरणादियुतायाम् अमुकतिथौ अमुकगोत्रः अमुकप्रवरः अमुकशर्मा (वर्मा, गुप्तः) अहं पूर्वातीतानेकजन्मसंचिताखिलदुष्कृतनिवृत्तिपुरस्सरैहिकाध्यात्मिकादिविविधतापपापापनोदार्थं दशाश्वमेधयज्ञजन्यसम्यगिष्टराजसूययज्ञसहस्रपुण्यसमपुण्यचन्द्रसूर्यग्रहणकालिकबहुब्राह्मणसम्प्रदानकसर्वसस्यपूर्णसर्वरत्नोपशोभितमहीदानपुण्यप्राप्तये श्रीगोविन्दचरणारविन्दयुगले निरन्तरमुत्तरोत्तरमेधमाननिस्सीम प्रेमोपलब्धये तदीयपरमानन्दमयगोलोकधाम्नि नित्यनिवासपूर्वकतत्परिचर्यारसास्वादनसौभाग्यसिद्धये च अमुकगोत्रामुकप्रवरामुकशर्मब्राह्मणवदनारविन्दाच्छ्रीकृष्णवाङ्मयमूर्तीभूतं श्रीमद्भागवतमष्टादशपुराणप्रकृतिभूतमनेकश्रोतृश्रवणपूर्वकममुकदिनादारभ्यामुकदिनपर्यन्तं सप्ताहयज्ञरूपतया श्रोष्यामि* प्राप्स्यमानेऽस्मिन् सप्ताहयज्ञे विघ्नपूगनिवारणपूर्वकं यज्ञरक्षाकरणार्थं गणपतिब्रह्मादिसहितनवग्रहषोडशमातृकासप्तचिरजीविपुरुषसर्वतोभद्रमण्डलस्थदेवकलशाद्यर्चनपुरस्सरं श्रीलक्ष्मीनारायणप्रतिमाशालग्रामनरनारायणगुरुवायुसरस्वतीशेषसनत्कुमारसांख्यायनपराशरबृहस्पतिमैत्रेयोद्धवत्रय्यारुणिकश्यपरामशिष्याकृतव्रणवैशम्पायनहारीतनारदपूजनमाधारपीठपुस्तकव्यासपूजनं च यथालब्धोपचारैः करिष्ये।
- संतानकी इच्छासे प्रयोग करना हो तो संकल्पके उद्देश्यमें इस प्रकार योजना कर लेनी चाहिये। अतीतानन्तजन्मसम्पादितदुष्कृतपरिपाकवशप्राप्तजन्माङ्गक्रूरग्रहसूचितपत्नीवन्ध्यात्वकाकवन्ध्यात्वमृतवत्सात्वस्रवद्गर्भात्वादिरूपसन्ततिप्रतिबन्धकदोषनिवृत्तये सद्गुणसम्पन्नचिरञ्जीविस्वस्थसुन्दरसुपुत्रप्राप्तये च…..।
पादटिप्पनी
यदि किसी मृत व्यक्तिकी सद्गतिके उद्देश्यसे भागवत-सप्ताह करना हो तो संकल्पके उद्देश्यमें इस प्रकार योजना कर ले—
‘स्वीयानन्तदुष्कृतपरिपाकवशान्नानाविधदुःखक्षेत्रयोनिनाम् पितॄणाम् अमुकामुकशर्मणाम् (…..योनेः पितुः अमुकशर्मणः अन्यस्य वा कस्यचित्) प्रेतत्वनिवृत्तिपूर्वकमुत्तमवैकुण्ठधामोपलब्धये…..।’
इसी प्रकार आवश्यकताके अनुसार अन्यान्य उद्देश्यकी भी योजना कर लेनी चाहिये।
अनुवाद (हिन्दी)
संकल्पके पश्चात् पूर्वोक्त देवताओंके चित्रपटमें अथवा अक्षत-पुंजपर उनका आवाहन-स्थापन करके वैदिक-पूजा-पद्धतिके अनुसार उन सबकी पूजा करनी चाहिये। सप्तचिरजीविपुरुषों तथा सनत्कुमार आदिका पूजन नाम-मन्त्रद्वारा करना चाहिये।
कथामण्डपमें चारों दिशाओं या कोणोंमें एक-एक कलश और मध्यभागमें एक कलश—इस प्रकार पाँच कलश स्थापित करने चाहिये। चारों ओरके चार कलशोंमेंसे पूर्वके कलशपर ऋग्वेदकी, दक्षिण कलशपर यजुर्वेदकी, पश्चिम कलशपर सामवेदकी और उत्तर कलशपर अथर्ववेदकी स्थापना एवं पूजा करनी चाहिये। कोई-कोई मध्यमें सर्वतोभद्र-मण्डलके मध्यभागमें एक ही ताम्रकलश स्थापित करके उसीके चारों दिशाओंमें सर्वतोभद्रमण्डलकी चौकीके चारों ओर चारों वेदोंकी स्थापनाका विधान करते हैं। इसी कलशके ऊपर भगवान् लक्ष्मी-नारायणकी सुवर्णमयी प्रतिमा स्थापित करे और षोडशोपचार-विधिसे उसकी पूजा करे। देवपूजाका क्रम प्रारम्भसे इस प्रकार रखना चाहिये—
पहले रक्षादीप प्रज्वलित करे। एक पात्रमें घी भरकर रूईकी फूलबत्ती जलाये और उसे सुरक्षित स्थानपर अक्षतके ऊपर स्थापित कर दे। वह वायु आदिके झोंकेसे बुझ न जाय, इसकी सावधानीके साथ व्यवस्था करे। फिर स्वस्तिवाचनपूर्वक मंगलपाठ एवं सर्वदेव-नमस्कार करके पूर्वोक्त महासंकल्प पढ़े। उसके बाद एक पात्रमें चावल भरकर उसपर मोलीमें लपेटी हुई एक सुपारी रख दे और उसीमें गणेशजीका आवाहन करे—‘ॐ भूर्भुवः स्वः गणपते इहागच्छ इह तिष्ठ मम पूजां गृहाण।’ इस प्रकार आवाहन करके ‘गणानां त्वा०’ इत्यादि मन्त्रोंको पढ़े। फिर ‘गजाननं भूत०’ इत्यादि श्लोकोंको पढ़ते हुए तदनुरूप ध्यान करे। ‘ॐ मनो जूतिः०’ इत्यादि मन्त्रसे प्रतिष्ठा करके विभिन्न उपचार समर्पण-सम्बन्धी मन्त्र पढ़ते हुए अथवा ‘श्रीगणपतये नमः’ इस मन्त्रका उच्चारण करते हुए गणेशजीको क्रमशः पाद्य, अर्घ्य, आचमनीय, स्नानीय, पुनराचमनीय, पंचामृतस्नान, शुद्धोदकस्नान, वस्त्र, रक्षासूत्र, यज्ञोपवीत, चन्दन, रोली, सिन्दूर, अबीर, गुलाल, अक्षत, फूल, माला, दूर्वादल, आभूषण, सुगन्ध (इत्रका फाहा), धूप, दीप, नैवेद्य (मिष्टान्न एवं गुड़, मेवा आदि) तथा ऋतुफल अर्पण करे। गंगाजलसे आचमन कराकर मुखशुद्धिके लिये सुपारी, लवंग, इलायची और कर्पूरसहित ताम्बूल अर्पण करे। अन्तमें दक्षिणा-द्रव्य एवं विशेषार्घ्य, प्रदक्षिणा एवं साष्टांग प्रणाम निवेदन करके प्रार्थना करे।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ॐ लम्बोदरं परमसुन्दरमेकदन्तं
रक्ताम्बरं त्रिनयनं परमं पवित्रम्।
उद्यद्दिवाकरकरोज्ज्वलकायकान्तं
विघ्नेश्वरं सकलविघ्नहरं नमामि॥
त्वां देव विघ्नदलनेति च सुन्दरेति
भक्तप्रियेति सुखदेति फलप्रदेति।
विद्याप्रदेत्यघहरेति च ये स्तुवन्ति
तेभ्यो गणेश वरदो भव नित्यमेव॥
मूलम्
ॐ लम्बोदरं परमसुन्दरमेकदन्तं
रक्ताम्बरं त्रिनयनं परमं पवित्रम्।
उद्यद्दिवाकरकरोज्ज्वलकायकान्तं
विघ्नेश्वरं सकलविघ्नहरं नमामि॥
त्वां देव विघ्नदलनेति च सुन्दरेति
भक्तप्रियेति सुखदेति फलप्रदेति।
विद्याप्रदेत्यघहरेति च ये स्तुवन्ति
तेभ्यो गणेश वरदो भव नित्यमेव॥
अनुवाद (हिन्दी)
—‘अनया पूजया गणपतिः प्रीयतां न मम।’
यों कहकर गणेशजीको पुष्पांजलि दे।
इसके बाद ‘ॐ भूर्भुवः स्वः भो ब्रह्मविष्णुशिवसहितसूर्यादिनवग्रहा इहागच्छतेह तिष्ठत मम पूजां गृह्णीत’ इस प्रकार या वैदिक मन्त्रोंके उच्चारणपूर्वक ब्रह्मादिसहित नवग्रहोंका आवाहन करे। फिर पूर्ववत् उपचार-मन्त्रोंसे अथवा ॐ ब्रह्मणे नमः, ॐ विष्णवे नमः, ॐ शिवाय नमः, ॐ सूर्याय नमः, ॐ चन्द्रमसे नमः, ॐ भौमाय नमः, ॐ बुधाय नमः, ॐ बृहस्पतये नमः, ॐ भार्गवाय नमः, ॐ शनैश्चराय नमः, ॐ राहवे नमः, ॐ केतवे नमः—इन नाम-मन्त्रोंसे पाद्य, अर्घ्य आदि सब उपचार समर्पण करके निम्नांकित मन्त्र पढ़कर प्रार्थना करे—
विश्वास-प्रस्तुतिः
ॐ ब्रह्मा मुरारिस्त्रिपुरान्तकारी
भानुः शशी भूमिसुतो बुधश्च।
गुरुश्च शुक्रः शनिराहुकेतवः
सर्वे ग्रहाः शान्तिकरा भवन्तु॥
मूलम्
ॐ ब्रह्मा मुरारिस्त्रिपुरान्तकारी
भानुः शशी भूमिसुतो बुधश्च।
गुरुश्च शुक्रः शनिराहुकेतवः
सर्वे ग्रहाः शान्तिकरा भवन्तु॥
अनुवाद (हिन्दी)
—‘अनया पूजया ब्रह्मविष्णुशिवसहित सूर्यादिनवग्रहाः प्रीयन्तां न मम।’ यों कहकर पुष्पांजलि चढ़ाये।
तत्पश्चात् ‘ॐ भूर्भुवः स्वः भो गौर्यादिषोडशमातर इहागच्छत मम पूजां गृह्णीत’ इस प्रकार आवाहन करके नाम-मन्त्रोंद्वारा पाद्य-अर्घ्य आदि निवेदन करे—१ ॐ गौर्यै नमः। २ ॐ पद्मायै नमः। ३ ॐ शच्यै नमः। ४ ॐ मेधायै नमः। ५ ॐ सावित्र्यै नमः। ६ ॐ विजयायै नमः। ७ ॐ जयायै नमः। ८ ॐ देवसेनायै नमः। ९ ॐ स्वधायै नमः। १० ॐ स्वाहायै नमः। ११ ॐ मातृभ्यो नमः। १२ ॐ लोकमातृभ्यो नमः। १३ ॐ हृष्ट्यै नमः। १४ ॐ पुष्ट्यै नमः। १५ ॐ तुष्ट्यै नमः। १६ ॐ आत्मकुलदेवतायै नमः॥ पूजनके पश्चात् प्रार्थना करे—
विश्वास-प्रस्तुतिः
गौरी पद्मा शची मेधा सावित्री विजया जया।
देवसेना स्वधा स्वाहा मातरो लोकमातरः॥
हृष्टिः पुष्टिस्तथा तुष्टिरात्मनः कुलदेवता।
इत्येता मातरः सर्वा वृद्धिं कुर्वन्तु मे सदा॥
मूलम्
गौरी पद्मा शची मेधा सावित्री विजया जया।
देवसेना स्वधा स्वाहा मातरो लोकमातरः॥
हृष्टिः पुष्टिस्तथा तुष्टिरात्मनः कुलदेवता।
इत्येता मातरः सर्वा वृद्धिं कुर्वन्तु मे सदा॥
अनुवाद (हिन्दी)
—‘अनया पूजया गौर्यादिषोडशमातरः प्रीयन्तां न मम।’ इस प्रकार समर्पणपूर्वक पुष्पांजलि निवेदन करे।
तदनन्तर ‘भो अश्वत्थामादिसप्तचिरजीविन इहागत्य मम पूजां गृह्णीत’ इस प्रकार आवाहन करके पूर्ववत् नाममन्त्रसे पूजा करे—
१ ॐ अश्वत्थाम्ने नमः। २ ॐ बलये नमः। ३ ॐ व्यासाय नमः। ४ ॐ हनुमते नमः। ५ ॐ विभीषणाय नमः। ६ ॐ कृपाय नमः। ७ ॐ परशुरामाय नमः।
पूजाके पश्चात् हाथमें फूल लेकर निम्नांकित रूपसे प्रार्थना करे—
विश्वास-प्रस्तुतिः
अश्वत्थामा बलिर्व्यासो हनूमांश्च विभीषणः।
कृपः परशुरामश्च सप्तैते चिरजीविनः॥
यजमानगृहे नित्यं सुखदाः सिद्धिदाः सदा॥
मूलम्
अश्वत्थामा बलिर्व्यासो हनूमांश्च विभीषणः।
कृपः परशुरामश्च सप्तैते चिरजीविनः॥
यजमानगृहे नित्यं सुखदाः सिद्धिदाः सदा॥
अनुवाद (हिन्दी)
—‘अनया पूजया अश्वत्थामादिसप्तचिरजीविनः प्रीयन्तां न मम।’ यह कहकर फूल चढ़ा दे।
इसके अनन्तर सर्वतोभद्रमण्डलस्थ देवताओंका आवाहन-पूजन (देवपूजापद्धतियोंके अनुसार) करके मध्यमें ताम्रकलश स्थापित करे। उसकी संक्षिप्त विधि यह है—‘ॐ भूरसि०’ इत्यादि मन्त्रसे भूमिकी प्रार्थना करके हाथसे (कलशके नीचेकी) भूमिका स्पर्श करे। उस समय ‘ॐ मही द्यौः पृथ्वी च न इमं यज्ञं मिमिक्षताम्। पितृतान्नो वरीमभिः॥’ इस मन्त्रको पढ़ना चाहिये। उसी भूमिपर कुंकुम आदिसे अष्टदल कमल बनाकर उसके ऊपर ‘ॐ धान्यमसि०’ इत्यादि मन्त्रसे सप्तधान्य स्थापित करे। फिर उस सप्तधान्यपर कलश स्थापित करे; उस समय ‘ॐ आजिघ्र कलश०’ इत्यादि मन्त्रका उच्चारण करना चाहिये। इसके बाद ‘ॐ वरुणस्योत्तम्भनमसि०’ इत्यादि मन्त्र पढ़ते हुए कलशको शुद्ध जलसे भर दे। तत्पश्चात् ‘ॐ स्थिरो भव०’ इत्यादि मन्त्र पढ़कर कलशको ऐसा सुस्थिर कर दे, जिससे वह हिलने-डुलने या गिरने लायक न रह जाय। फिर उस कलशके पूर्व भागमें ‘ॐ अग्निमीळे०’ इत्यादि मन्त्रसे ऋग्वेदका, दक्षिण भागमें ‘ॐ इषे त्वोर्जेत्वा०’ इत्यादि मन्त्रसे यजुर्वेदका, पश्चिम भागमें ‘ॐ अग्न आयाहि वीतये०’ इत्यादि मन्त्रसे सामवेदका तथा ‘ॐ शन्नो देवी०’ इत्यादि मन्त्रसे उत्तर भागमें अथर्ववेदका स्थापन करे। पाँच कलश हों तो पृथक्-पृथक् कलशोंपर वेदोंकी स्थापना करनी चाहिये। इसके अनन्तर आम, बड़, पीपल, पाकर और गूलरके पल्लवोंको कलशमें डाले और ‘ॐ अश्वत्थे०’ इत्यादि मन्त्रका पाठ करे। फिर ‘ॐ काण्डात्काण्डात् प्ररोहन्ती०’ इत्यादि मन्त्रसे कलशमें दूर्वादल छोड़े, ‘ॐ पवित्रे स्थो०’ इत्यादि मन्त्रसे कुशा, ‘ॐ याः फलिनी०’ इत्यादि मन्त्रसे पूगीफल, ‘ॐहिरण्यगर्भः०’ इत्यादि मन्त्रसे दक्षिणा, ‘ॐ परिवाजपतिः०’ से पंचरत्न, ‘ॐ या ओषधीः०’ इत्यादिसे सर्वौषधी, ‘ॐ गन्धद्वारां०’ इत्यादिसे गन्ध और ‘ॐ अक्षन्नमीमदन्त०’ इत्यादिसे अक्षतको कलशमें छोड़े। तदनन्तर ‘ॐ श्रीश्च ते लक्ष्मीश्च०’ इत्यादिसे फूल छोड़े। ‘ॐ धूरसि०’ इत्यादिसे धूपकी आहुति अग्निमें छोड़े। ‘ॐ अग्निर्ज्योतिः०’ इत्यादि मन्त्रसे अलग दीप जलाकर रख दे। उसके बाद कलशमें तीर्थोदक डाले और ‘ॐ पञ्चनद्यः०’ इत्यादि मन्त्रको पढ़े। फिर ‘ॐ उपह्वरे०’ इत्यादि मन्त्रसे नदी-संगमका जल डाले। तत्पश्चात् ‘ॐ समुद्राय त्वा०’ इत्यादि मन्त्रसे समुद्रका जल कलशमें डाले। फिर ‘ॐ स्योना पृथिवि०’ इत्यादिसे सप्तमृत्तिका डालकर ‘ॐ वसोः पवित्रमसि०’ इत्यादि मन्त्रको पढ़ते हुए लाल वस्त्रसे कलशको आच्छादित करे। तदनन्तर ‘ॐ पूर्णादर्वि०’ इत्यादि मन्त्रसे एक पूर्णपात्र (चावलसे भरा हुआ काँसी या ताँबेका पात्र)कलशके ऊपर रखे। इसके बाद ‘ॐ श्रीश्च ते०’ इत्यादि मन्त्रसे उस पूर्णपात्रपर लाल कपड़ेमें लपेटा हुआ श्रीफल (गरीका गोला या नारियल) रखे। फिर हाथमें अक्षत ले ‘ॐ मनो जूतिः०’ इत्यादि मन्त्र पढ़ते हुए कलशपर अक्षत छोड़े और इस प्रकार कलशकी प्रतिष्ठा सम्पन्न करे। तदनन्तर ‘सर्वे समुद्राः सरितः०’ इत्यादि श्लोकोंका पाठ करते हुए कलशमें तीर्थोंका आवाहन करे। फिर गन्ध आदि उपचारोंसे तीर्थोंका पूजन करके कलशकी प्रार्थना करे—
विश्वास-प्रस्तुतिः
देवदानवसंवादे मथ्यमाने जलार्णवे।
उत्पन्नोऽसि तदा कुम्भ विधृतो विष्णुना स्वयम्॥
त्वत्तोये सर्वतीर्थानि देवाः सर्वे त्वयि स्थिताः।
त्वयि तिष्ठन्ति भूतानि त्वयि प्राणाः प्रतिष्ठिताः॥
शिवः स्वयं त्वमेवासि विष्णुस्त्वं च प्रजापतिः।
आदित्या वसवो रुद्रा विश्वेदेवाः सपैतृकाः॥
त्वयि तिष्ठन्ति सर्वेऽपि यतः कामफलप्रदाः।
त्वत्प्रसादादिमं यज्ञं कर्तुमीहे जलोद्भव॥
सान्निध्यं कुरु मे देव प्रसन्नो भव सर्वदा।
ब्रह्मणैर्निर्मितस्त्वं हि मन्त्रैरेवामृतोद्भवैः॥
प्रार्थयामि च कुम्भ त्वां वाञ्छितार्थं ददस्व मे।
पुरा हि सृष्टश्च पितामहेन
महोत्सवानां प्रथमो वरिष्ठः।
दूर्वाग्रसाश्वत्थसुपल्लवैर्युक्
करोतु शान्तिं कलशः सुवासाः॥
मूलम्
देवदानवसंवादे मथ्यमाने जलार्णवे।
उत्पन्नोऽसि तदा कुम्भ विधृतो विष्णुना स्वयम्॥
त्वत्तोये सर्वतीर्थानि देवाः सर्वे त्वयि स्थिताः।
त्वयि तिष्ठन्ति भूतानि त्वयि प्राणाः प्रतिष्ठिताः॥
शिवः स्वयं त्वमेवासि विष्णुस्त्वं च प्रजापतिः।
आदित्या वसवो रुद्रा विश्वेदेवाः सपैतृकाः॥
त्वयि तिष्ठन्ति सर्वेऽपि यतः कामफलप्रदाः।
त्वत्प्रसादादिमं यज्ञं कर्तुमीहे जलोद्भव॥
सान्निध्यं कुरु मे देव प्रसन्नो भव सर्वदा।
ब्रह्मणैर्निर्मितस्त्वं हि मन्त्रैरेवामृतोद्भवैः॥
प्रार्थयामि च कुम्भ त्वां वाञ्छितार्थं ददस्व मे।
पुरा हि सृष्टश्च पितामहेन
महोत्सवानां प्रथमो वरिष्ठः।
दूर्वाग्रसाश्वत्थसुपल्लवैर्युक्
करोतु शान्तिं कलशः सुवासाः॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रार्थनाके अनन्तर कलशमें ‘ॐ गणानां त्वा०’ इत्यादिसे गणेशका तथा ‘ॐ तत्त्वायामि’ इत्यादि मन्त्रसे वरुणदेवताका आवाहन करके इनका षोडशोपचारसे पूजन करे। पाद्य, अर्घ्य, आचमनीय, स्नान, वस्त्र, यज्ञोपवीत, गन्ध, अक्षत, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य, ताम्बूल, दक्षिणा, प्रदक्षिणा और पुष्पांजलि—ये ही षोडश उपचार कहे गये हैं। पूजनके पश्चात् ‘अनया पूजया वरुणाद्यावाहितदेवताः प्रीयन्ताम्’ कहकर फूल छोड़ दे।
तदनन्तर कलशके ऊपर सुवर्णमयी लक्ष्मीनारायणप्रतिमाको संस्कार करके स्थापित करे। पुरुषसूक्तके षोडश मन्त्रोंसे षोडश-उपचार चढ़ाकर पूजन करे। साथ ही शालग्रामजीकी भी पूजा करे। (षोडशोपचार-पूजनविधि अन्यत्र इसीमें ‘श्रीमद्भागवतकी पूजनविधि’ शीर्षक लेखमें दी गयी है) पूजाके पश्चात् इस प्रकार भगवान्से प्रार्थना करे—
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्रह्मसत्रं करिष्यामि तवानुग्रहतो विभो।
तन्निर्विघ्नं भवेद्देव रमानाथ क्षमस्व मे॥
मूलम्
ब्रह्मसत्रं करिष्यामि तवानुग्रहतो विभो।
तन्निर्विघ्नं भवेद्देव रमानाथ क्षमस्व मे॥
अनुवाद (हिन्दी)
—‘अनया पूजया लक्ष्मीसहितो भगवन्नारायणः प्रीयतां न मम।’ यों कहकर पुष्पांजलि चढ़ाये। ऐसा ही सर्वत्र करे।
इसके बाद ‘ॐ नरनारायणाभ्यां नमः’ इस मन्त्रसे भगवान् नर-नारायणका आवाहन और पूजन करके इस प्रकार प्रार्थना करे—
विश्वास-प्रस्तुतिः
यो मायया विरचितं निजमात्मनीदं
खे रूपभेदमिव तत्प्रतिचक्षणाय।
एतेन धर्मसदने ऋषिमूर्तिनाद्य
प्रादुश्चकार पुरुषाय नमः परस्मै॥
सोऽयं स्थितिव्यतिकरोपशमाय सृष्टान्
सत्त्वेन नः सुरगणाननुमेयतत्त्वः।
दृश्याददभ्रकरुणेन विलोकनेन
यच्छ्रीनिकेतममलं क्षिपतारविन्दम्॥
मूलम्
यो मायया विरचितं निजमात्मनीदं
खे रूपभेदमिव तत्प्रतिचक्षणाय।
एतेन धर्मसदने ऋषिमूर्तिनाद्य
प्रादुश्चकार पुरुषाय नमः परस्मै॥
सोऽयं स्थितिव्यतिकरोपशमाय सृष्टान्
सत्त्वेन नः सुरगणाननुमेयतत्त्वः।
दृश्याददभ्रकरुणेन विलोकनेन
यच्छ्रीनिकेतममलं क्षिपतारविन्दम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
—‘अनया पूजया भगवन्तौ नरनारायणौ प्रीयेतां न मम।’
तत्पश्चात् वक्ता और श्रोताओंके सब विकारोंको दूर करनेके लिये वायुदेवताका आवाहन एवं पूजन करे—‘ॐ वायवे सर्वकल्याणकर्त्रे नमः।’ इस मन्त्रसे पाद्य आदि निवेदन करके निम्नांकित रूपसे प्रार्थना करे—
विश्वास-प्रस्तुतिः
अन्तः प्रविश्य भूतानि यो विभर्त्यात्मकेतुभिः।
अन्तर्यामीश्वरः साक्षात् पातु नो यद्वशे स्फुटम्॥
मूलम्
अन्तः प्रविश्य भूतानि यो विभर्त्यात्मकेतुभिः।
अन्तर्यामीश्वरः साक्षात् पातु नो यद्वशे स्फुटम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
—‘अनया पूजया सर्वकल्याणकर्ता वायुः प्रीयतां न मम।’
वायुकी पूजाके पश्चात् गुरुका ‘ॐ गुरवे नमः।’ इस मन्त्रसे पूजन करके प्रार्थना करे—
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्रह्मस्थानसरोजमध्यविलस-
च्छीतांशुपीठस्थितं
स्फूर्जत्सूर्यरुचिं वराभयकरं
कर्पूरकुन्दोज्ज्वलम्।
श्वेतस्रग्वसनानुलेपनयुतं
विद्युद्रुचा कान्तया
संश्लिष्टार्धतनुं प्रसन्नवदनं
वन्दे गुरुं सादरम्॥
मूलम्
ब्रह्मस्थानसरोजमध्यविलस-
च्छीतांशुपीठस्थितं
स्फूर्जत्सूर्यरुचिं वराभयकरं
कर्पूरकुन्दोज्ज्वलम्।
श्वेतस्रग्वसनानुलेपनयुतं
विद्युद्रुचा कान्तया
संश्लिष्टार्धतनुं प्रसन्नवदनं
वन्दे गुरुं सादरम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
—‘अनया पूजया गुरुदेवः प्रीयतां न मम।’
तदनन्तर श्वेतपुष्प आदिसे ‘ॐ सरस्वत्यै नमः।’ इस मन्त्रद्वारा सरस्वतीका पूर्ववत् पूजन करके प्रार्थना करे—
विश्वास-प्रस्तुतिः
या कुन्देन्दुतुषारहारधवला
या शुभ्रवस्त्रावृता।
या वीणावरदण्डमण्डितकरा
या श्वेतपद्मासना।
या ब्रह्माच्युतशंकरप्रभृतिभि-
र्देवैः सदा वन्दिता।
सा मां पातु सरस्वती भगवती
निःशेषजाड्यापहा॥
मूलम्
या कुन्देन्दुतुषारहारधवला
या शुभ्रवस्त्रावृता।
या वीणावरदण्डमण्डितकरा
या श्वेतपद्मासना।
या ब्रह्माच्युतशंकरप्रभृतिभि-
र्देवैः सदा वन्दिता।
सा मां पातु सरस्वती भगवती
निःशेषजाड्यापहा॥
अनुवाद (हिन्दी)
—‘अनया पूजया भगवती सरस्वती प्रीयतां न मम।’
सरस्वतीपूजनके पश्चात् ‘ॐ शेषाय नमः’, ‘ॐ सनत्कुमाराय नमः’, ‘ॐ सांख्यायनाय नमः,’ ‘ॐ पराशराय नमः’, ‘ॐ बृहस्पतये नमः,’ ‘ॐ मैत्रेयाय नमः,’ ‘ॐ उद्धवाय नमः’—इन मन्त्रोंसे शेष आदिकी पूजा करके प्रार्थना करे—
विश्वास-प्रस्तुतिः
शेषः सनत्कुमारश्च सांख्यायनपराशरौ।
बृहस्पतिश्च मैत्रेय उद्धवश्चात्र कर्मणि॥
प्रत्यूहवृन्दं सततं हरन्तां पूजिता मया।
—‘अनया पूजया शेषसनत्कुमारसांख्यायनपराशरबृहस्पतिमैत्रेयोद्धवाः प्रीयन्तां न मम।’
मूलम्
शेषः सनत्कुमारश्च सांख्यायनपराशरौ।
बृहस्पतिश्च मैत्रेय उद्धवश्चात्र कर्मणि॥
प्रत्यूहवृन्दं सततं हरन्तां पूजिता मया।
—‘अनया पूजया शेषसनत्कुमारसांख्यायनपराशरबृहस्पतिमैत्रेयोद्धवाः प्रीयन्तां न मम।’
अनुवाद (हिन्दी)
इसके बाद ‘ॐ त्रय्यारुणये नमः’, ‘ॐ कश्यपाय नमः,’ ‘ॐ रामशिष्याय नमः,’ ‘ॐ अकृतव्रणाय नमः,’ ‘ॐ वैशम्पायनाय नमः’ ‘ॐ हारीताय नमः’—इन मन्त्रोंसे त्रय्यारुणि आदि छः पौराणिकोंकी पूर्ववत् पूजा करके प्रार्थना करे—
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्रय्यारुणिः कश्यपश्च रामशिष्योऽकृतव्रणः।
वैशम्पायनहारीतौ षड् वै पौराणिका इमे॥
सुखदाः सन्तु मे नित्यमनया पूजयार्चिताः।
मूलम्
त्रय्यारुणिः कश्यपश्च रामशिष्योऽकृतव्रणः।
वैशम्पायनहारीतौ षड् वै पौराणिका इमे॥
सुखदाः सन्तु मे नित्यमनया पूजयार्चिताः।
अनुवाद (हिन्दी)
—‘अनया पूजया त्रय्यारुणिप्रभृतयः षट् पौराणिकाः प्रीयन्तां न मम।’
तत्पश्चात् ‘ॐ भगवते व्यासाय नमः’ इस मन्त्रसे भगवान् व्यासदेवकी स्थापना और पूजा करके इस प्रकार प्रार्थना करे—
विश्वास-प्रस्तुतिः
नमस्तस्मै भगवते व्यासायामिततेजसे।
पपुर्ज्ञानमयं सौम्य यन्मुखाम्बुरुहासवम्॥
मूलम्
नमस्तस्मै भगवते व्यासायामिततेजसे।
पपुर्ज्ञानमयं सौम्य यन्मुखाम्बुरुहासवम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
—‘अनया पूजया भगवान् व्यासः प्रीयतां न मम।’
इसके बाद सप्ताहयज्ञके उपदेशक भगवान् सूर्यकी स्थापना करके प्रतिदिन उनकी भी पूजा करे। उनकी पूजाका मन्त्र ‘ॐ सूर्याय नमः’ है। पूजनके पश्चात् इस प्रकार प्रार्थना करनी चाहिये।
विश्वास-प्रस्तुतिः
लोकेश त्वं जगच्चक्षुः सत्कर्म तव भाषितम्।
करोमि तच्च निर्विघ्नं पूर्णमस्तु त्वदर्चनात्॥
मूलम्
लोकेश त्वं जगच्चक्षुः सत्कर्म तव भाषितम्।
करोमि तच्च निर्विघ्नं पूर्णमस्तु त्वदर्चनात्॥
अनुवाद (हिन्दी)
—‘अनया पूजया सप्ताहयज्ञोपदेष्टा भगवान् सूर्यः प्रीयतां न मम।’
इसके बाद दशावतारोंकी तथा शुकदेवजीकी भी यथास्थान स्थापना करके पूजा करनी चाहिये।
तदनन्तर नारदपीठ और पुस्तकपीठ दोनोंकी एक ही साथ पूजा करे। पहले उन दोनों पीठोंका जलसे अभिषेक करके उनपर चन्दनादिसे अष्टदल कमल बनावे। फिर ‘ॐ आधारशक्तये नमः’, ‘ॐ मूलप्रकृतये नमः‘, ‘ॐ क्षीरसमुद्राय नमः’, ‘ॐ श्वेतद्वीपाय नमः,’ ‘ॐ कल्पवृक्षाय नमः,’ ‘ॐ रत्नमण्डपाय नमः,’ ‘ॐ रत्नसिंहासनाय नमः’—इन मन्त्रोंसे दोनों पीठोंमें आधारशक्ति आदिकी भावना करके पूजा करे। फिर चारों दिशाओंमें पूर्वादिके क्रमसे ‘ॐ धर्माय नमः,’ ‘ॐ ज्ञानाय नमः,’ ‘ॐ वैराग्याय नमः,’ ‘ॐ ऐश्वर्याय नमः’—इन मन्त्रोंद्वारा धर्मादिकी भावना एवं पूजा करे। फिर पीठोंके मध्यभागमें ‘ॐ अनन्ताय नमः’ से अनन्तकी और ‘ॐ महापद्माय नमः’ से महापद्मकी पूजा करे। फिर यह चिन्तन करे—उस महापद्मका कन्द (मूलभाग) आनन्दमय है। उसकी नाल संवित्स्वरूप है, उसके दल प्रकृतिमय हैं, उसके केसर विकृतिरूप हैं, उसके बीज पंचाशत् वर्णस्वरूप हैं—और उन्हींसे उस महापद्मकी कर्णिका (गद्दी) विभूषित है। उस कर्णिकामें अर्कमण्डल, सोममण्डल और वह्निमण्डलकी स्थिति है। वहीं प्रबोधात्मक सत्त्व, रज एवं तम भी विराजमान हैं। ऐसी भावनाके पश्चात् उन सबकी पंचोपचारसे पूजा करे। मन्त्र इस प्रकार हैं—‘ॐ आनन्दमयकन्दाय नमः’, ‘ॐ संविन्नालाय नमः,’ ‘ॐ प्रकृतिमयपत्रेभ्यो नमः,’ ‘ॐ विकृतिमयकेसरेभ्यो नमः,’ ‘ॐ पञ्चाशद्वर्णबीजभूषितायै कर्णिकायै नमः’, ‘ॐ अं अर्कमण्डलाय नमः,’ ‘ॐ सं सोममण्डलाय नमः,’ ‘ॐ वं वह्निमण्डलाय नमः,’ ‘ॐ सं प्रबोधात्मने सत्त्वाय नमः,’ ‘ॐ रं रजसे नमः,’ ‘ॐ तं तमसे नमः’। इन सबकी पूजाके पश्चात् कमलके सब ओर पूर्वादि आठों दिशाओंमें क्रमशः ‘ॐ विमलायै नमः,’ ‘ॐ उत्कर्षिण्यै नमः,’ ‘ॐ ज्ञानायै नमः,’ ‘ॐ क्रियायै नमः,’ ‘ॐ योगायै नमः,’ ‘ॐ प्रह्व्यै नमः’, ‘ॐ सत्यायै नमः,’ ‘ॐ ईशानायै नमः’—इन मन्त्रोंद्वारा विमला आदि आठ शक्तियोंकी पूजा करे और कमलके मध्यभागमें ‘ॐ अनुग्रहायै नमः’ से अनुग्रहा नामकी शक्तिकी पूजा करे। तदनन्तर ‘ॐ नमो भगवते विष्णवे सर्वभूतात्मने वासुदेवाय पद्मपीठात्मने नमः’ इस मन्त्रसे सम्पूर्ण पद्मपीठका पूजन करके उसपर सुन्दर वस्त्र डाल दे और उसीके ऊपर स्थापित करनेके लिये श्रीमद्भागवतकी पुस्तकको हाथमें लेकर ‘ॐ ध्रुवा द्यौर्ध्रुवा पृथिवी ध्रुवा सा पर्वता इमे। ध्रुवं विश्वमिदं जगद् ध्रुवो राजा विशामसि॥’
इस मन्त्रको पढ़ते हुए उक्त पीठपर स्थापित करे। फिर ‘ॐ मनो जूतिः०’ इस मन्त्रसे पुस्तककी प्रतिष्ठा करके पुरुषसूक्तके षोडश मन्त्रोंद्वारा षोडशोपचार-विधिसे पूजा करे। (यह विधि पहले ‘श्रीमद्भागवतकी पूजन-विधि’ शीर्षक लेखमें दी गयी है।) तत्पश्चात् द्वितीय पीठको श्वेत वस्त्रसे आच्छादित करके उसपर देवर्षि नारदको स्थापित करे और ‘ॐ सुरर्षिवरनारदाय नमः’ इस मन्त्रसे उनकी विधिवत् पूजा करके निम्नांकितरूपसे प्रार्थना करे—
विश्वास-प्रस्तुतिः
ॐ नमस्तुभ्यं भगवते ज्ञानवैराग्यशालिने।
नारदाय सर्वलोकपूजिताय सुरर्षये॥
मूलम्
ॐ नमस्तुभ्यं भगवते ज्ञानवैराग्यशालिने।
नारदाय सर्वलोकपूजिताय सुरर्षये॥
अनुवाद (हिन्दी)
—‘अनया पूजया देवर्षिनारदः प्रीयतां न मम।’
इस प्रकार पूजनके पश्चात् यजमान पुष्प, चन्दन, ताम्बूल, वस्त्र, दक्षिणा, सुपारी तथा रक्षासूत्र हाथमें लेकर ‘ॐ अद्यामुकगोत्रममुकप्रवरममुकशर्माणं ब्राह्मणमेभिर्वरणद्रव्यैः सर्वेष्टदश्रीमद्भागवतवक्तृत्वेन भवन्तमहं वृणे’—इस प्रकार कहते हुए कथावाचक आचार्यका वरण करे। हाथमें ली हुई सब सामग्री उनको दे दे। वह सब लेकर कथावाचक व्यास ‘वृतोऽस्मि’ यों कहें। इसके बाद पुनः उन्हीं सब सामग्रियोंको हाथमें लेकर जप और पाठ करनेवाले ब्राह्मणोंका वरण करे। इसके लिये संकल्पवाक्य इस प्रकार है—
विश्वास-प्रस्तुतिः
‘अद्याहममुकगोत्रानमुकप्रवरानमुकशर्मणो यथासंख्याकान् ब्राह्मणानेभिर्वरणद्रव्यैर्गाथाविघ्नापनोदार्थं गणेशगायत्रीवासुदेवमन्त्रजपकर्तृत्वेन गीताविष्णुसहस्रनामपाठकर्तृत्वेन च वो विभज्य वृणे।’
मूलम्
‘अद्याहममुकगोत्रानमुकप्रवरानमुकशर्मणो यथासंख्याकान् ब्राह्मणानेभिर्वरणद्रव्यैर्गाथाविघ्नापनोदार्थं गणेशगायत्रीवासुदेवमन्त्रजपकर्तृत्वेन गीताविष्णुसहस्रनामपाठकर्तृत्वेन च वो विभज्य वृणे।’
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार संकल्प करके प्रत्येक ब्राह्मणको वरण-सामग्री अर्पित करे। सामग्री लेकर वे ब्राह्मण कहें ‘वृताःस्मः’। इसके बाद पहले कथावाचक आचार्यके हाथमें दिये हुए रक्षासूत्रको लेकर उन्हींके हाथमें बाँध दे। उस समय आचार्य निम्नांकित मन्त्रका पाठ करें—
विश्वास-प्रस्तुतिः
व्रतेन दीक्षामाप्नोति दीक्षयाऽऽप्नोति दक्षिणाम्।
दक्षिणा श्रद्धामाप्नोति श्रद्धया सत्यमाप्यते॥
मूलम्
व्रतेन दीक्षामाप्नोति दीक्षयाऽऽप्नोति दक्षिणाम्।
दक्षिणा श्रद्धामाप्नोति श्रद्धया सत्यमाप्यते॥
अनुवाद (हिन्दी)
रक्षा बाँधनेके अनन्तर यजमान उनके ललाटमें कुंकुम (रोली) और अक्षतसे तिलक करे। इसी प्रकार जपकर्ता ब्राह्मणोंके हाथोंमें भी रक्षा बाँधकर तिलक करे। तदनन्तर पीले अक्षत लेकर यजमान चारों दिशाओंमें रक्षाके लिये बिखेरे। उस समय निम्नांकित मन्त्रोंका पाठ भी करे—
विश्वास-प्रस्तुतिः
पूर्वे नारायणः पातु वारिजाक्षश्च दक्षिणे।
पश्चिमे पातु गोविन्द उत्तरे मधुसूदनः॥
ऐशान्यां वामनः पातु चाग्नेय्यां च जनार्दनः।
नैर्ऋत्यां पद्मनाभश्च वायव्यां माधवस्तथा॥
ऊर्ध्वं गोवर्धनधरो ह्यधस्ताच्च त्रिविक्रमः।
रक्षाहीनं तु यत्स्थानं तत्सर्वं रक्षतां हरिः॥
मूलम्
पूर्वे नारायणः पातु वारिजाक्षश्च दक्षिणे।
पश्चिमे पातु गोविन्द उत्तरे मधुसूदनः॥
ऐशान्यां वामनः पातु चाग्नेय्यां च जनार्दनः।
नैर्ऋत्यां पद्मनाभश्च वायव्यां माधवस्तथा॥
ऊर्ध्वं गोवर्धनधरो ह्यधस्ताच्च त्रिविक्रमः।
रक्षाहीनं तु यत्स्थानं तत्सर्वं रक्षतां हरिः॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसके बाद वक्ता आचार्य यजमानके हाथमें—
विश्वास-प्रस्तुतिः
येन बद्धो बली राजा दानवेन्द्रो महाबलः।
तेन त्वां प्रतिबध्नामि रक्षे मा चल मा चल॥
मूलम्
येन बद्धो बली राजा दानवेन्द्रो महाबलः।
तेन त्वां प्रतिबध्नामि रक्षे मा चल मा चल॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस मन्त्रको पढ़कर रक्षा बाँधे और—
विश्वास-प्रस्तुतिः
आदित्या वसवो रुद्रा विश्वेदेवा मरुद्गणाः।
तिलकं ते प्रयच्छन्तु धर्मकामार्थसिद्धये॥
मूलम्
आदित्या वसवो रुद्रा विश्वेदेवा मरुद्गणाः।
तिलकं ते प्रयच्छन्तु धर्मकामार्थसिद्धये॥
अनुवाद (हिन्दी)
—इस मन्त्रसे उसके ललाटमें तिलक कर दे। फिर यजमान व्यासासनकी चन्दन-पुष्प आदिसे पूजा करे। पूजनका मन्त्र इस प्रकार है—‘ॐ व्यासासनाय नमः’। तदनन्तर कथावाचक आचार्य ब्राह्मणों और वृद्ध पुरुषोंकी आज्ञा लेकर विप्रवर्गको नमस्कार और गुरु-चरणोंका ध्यान करके व्यासासनपर बैठे। मन-ही-मन गणेश और नारदादिका स्मरण एवं पूजन करें। इसके बाद यजमान ‘ॐ नमः पुराणपुरुषोत्तमाय’ इस मन्त्रसे पुनः पुस्तककी गन्ध, पुष्प, तुलसीदल एवं दक्षिणा आदिके द्वारा पूजा करे। फिर गन्ध, पुष्प आदिसे वक्ताका पूजन करते हुए निम्नांकित श्लोकका पाठ करे—
विश्वास-प्रस्तुतिः
जयति पराशरसूनुः सत्यवतीहृदयनन्दनो व्यासः।
यस्यास्यकमलगलितं वाङ्मयममृतं जगत्पिबति॥
मूलम्
जयति पराशरसूनुः सत्यवतीहृदयनन्दनो व्यासः।
यस्यास्यकमलगलितं वाङ्मयममृतं जगत्पिबति॥
अनुवाद (हिन्दी)
तत्पश्चात् नीचे लिखे हुए श्लोकोंको पढ़कर प्रार्थना करे—
विश्वास-प्रस्तुतिः
शुकरूप प्रबोधज्ञ सर्वशास्त्रविशारद।
एतत्कथाप्रकाशेन मदज्ञानं विनाशय॥
संसारसागरे मग्नं दीनं मां करुणानिधे।
कर्ममोहगृहीताङ्गं मामुद्धर भवार्णवात्॥
मूलम्
शुकरूप प्रबोधज्ञ सर्वशास्त्रविशारद।
एतत्कथाप्रकाशेन मदज्ञानं विनाशय॥
संसारसागरे मग्नं दीनं मां करुणानिधे।
कर्ममोहगृहीताङ्गं मामुद्धर भवार्णवात्॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार प्रार्थना करनेके पश्चात् निम्नांकित श्लोक पढ़कर श्रीमद्भागवतपर पुष्प, चन्दन और नारियल आदि चढ़ाये—
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रीमद्भागवताख्योऽयं प्रत्यक्षः कृष्ण एव हि।
स्वीकृतोऽसि मया नाथ मुक्त्यर्थं भवसागरे॥
मनोरथो मदीयोऽयं सर्वथा सफलस्त्वया।
निर्विघ्नेनैव कर्तव्यो दासोऽहं तव केशव॥
मूलम्
श्रीमद्भागवताख्योऽयं प्रत्यक्षः कृष्ण एव हि।
स्वीकृतोऽसि मया नाथ मुक्त्यर्थं भवसागरे॥
मनोरथो मदीयोऽयं सर्वथा सफलस्त्वया।
निर्विघ्नेनैव कर्तव्यो दासोऽहं तव केशव॥
अनुवाद (हिन्दी)
कथा-मण्डपमें वायुरूपधारी आतिवाहिक शरीरवाले जीवविशेषके लिये सात गाँठके एक बाँसको भी स्थापित कर देना चाहिये।
तत्पश्चात् वक्ता भगवान्का स्मरण करके उस दिन श्रीमद्भागवतमाहात्म्यकी कथा सब श्रोताओंको सुनाये और दूसरे दिनसे प्रतिदिन देवपूजा, पुस्तक तथा व्यासकी पूजा एवं आरती हो जानेके पश्चात् वक्ता कथा प्रारम्भ करे। सन्ध्याको कथाकी समाप्ति होनेपर भी नित्यप्रति पुस्तक तथा वक्ताकी पूजा तथा आरती, प्रसाद एवं तुलसीदलका वितरण, भगवन्नामकीर्तन एवं शङ्खध्वनि करनी चाहिये। कथाके प्रारम्भमें और बीच-बीचमें भी जब कथाका विराम हो तो समयानुसार भगवन्नामकीर्तन करना चाहिये।
वक्ताको चाहिये कि प्रतिदिन पाठ प्रारम्भ करनेसे पूर्व एक सौ आठ बार ‘ॐ नमो भगवते वासुदेवाय’ इस द्वादशाक्षरमन्त्रका अथवा ‘ॐ क्लीं कृष्णाय गोविन्दाय गोपीजनवल्लभाय स्वाहा’ इस गोपालमन्त्रका जप करे। इसके बाद निम्नांकित वाक्य पढ़कर विनियोग करे—
विश्वास-प्रस्तुतिः
ॐ अस्य श्रीमद्भागवताख्यस्तोत्रमन्त्रस्य नारदऋषिः बृहतीच्छन्दः श्रीकृष्णपरमात्मा देवता ब्रह्मबीजं भक्तिः शक्तिः ज्ञानवैराग्यकीलकं मम श्रीमद्भगवत्प्रसादसिद्ध्यर्थे पाठे विनियोगः।
मूलम्
ॐ अस्य श्रीमद्भागवताख्यस्तोत्रमन्त्रस्य नारदऋषिः बृहतीच्छन्दः श्रीकृष्णपरमात्मा देवता ब्रह्मबीजं भक्तिः शक्तिः ज्ञानवैराग्यकीलकं मम श्रीमद्भगवत्प्रसादसिद्ध्यर्थे पाठे विनियोगः।
अनुवाद (हिन्दी)
विनियोगके पश्चात् निम्नांकित रूपसे न्यास करे—
ऋष्यादिन्यासः—नारदर्षये नमः शिरसि। बृहतीच्छन्दसे नमः मुखे। श्रीकृष्णपरमात्मदेवतायै नमः हृदि। ब्रह्मबीजाय नमः गुह्ये। भक्तिशक्तये नमः पादयोः। ज्ञानवैराग्यकीलकाभ्यां नमः नाभौ। श्रीमद्भगवत्प्रसादसिद्ध्यर्थकपाठविनियोगाय नमः सर्वांगे।
द्वादशाक्षरमन्त्रसे करन्यास और अंगन्यास करना चाहिये अथवा नीचे लिखे अनुसार उसका सम्पादन करना चाहिये—
करन्यासः—ॐ क्लां अङ्गुष्ठाभ्यां नमः। ॐ क्लीं तर्जनीभ्यां नमः। ॐ क्लूं मध्यमाभ्यां नमः। ॐ क्लैं अनामिकाभ्यां नमः। ॐ क्लौं कनिष्ठिकाभ्यां नमः। ॐ क्लः करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः।
अङ्गन्यासः—ॐ क्लां हृदयाय नमः। ॐ क्लीं शिरसे स्वाहा। ॐ क्लूं शिखायै वषट्।ॐ क्लैं कवचाय हुम्। ॐ क्लौं नेत्रत्रयाय वौषट्। ॐ क्लः अस्त्राय फट्।
इसके बाद निम्नांकित रूपसे ध्यान करे—
विश्वास-प्रस्तुतिः
कस्तूरीतिलकं ललाटपटले
वक्षःस्थले कौस्तुभं
नासाग्रे वरमौक्तिकं करतले
वेणुः करे कङ्कणम्।
सर्वाङ्गे हरिचन्दनं सुललितं
कण्ठे च मुक्तावली
गोपस्त्रीपरिवेष्टितो विजयते
गोपालचूडामणिः॥
अस्ति स्वस्तरुणीकराग्रविगल-
त्कल्पप्रसूनाप्लुतं
वस्तु प्रस्तुतवेणुनादलहरी-
निर्वाणनिर्व्याकुलम्।
स्रस्तस्रस्तनिबद्धनीविविलसद्-
गोपीसहस्रावृतं
हस्तन्यस्तनतापवर्गमखिलो-
दारं किशोराकृतिः॥
मूलम्
कस्तूरीतिलकं ललाटपटले
वक्षःस्थले कौस्तुभं
नासाग्रे वरमौक्तिकं करतले
वेणुः करे कङ्कणम्।
सर्वाङ्गे हरिचन्दनं सुललितं
कण्ठे च मुक्तावली
गोपस्त्रीपरिवेष्टितो विजयते
गोपालचूडामणिः॥
अस्ति स्वस्तरुणीकराग्रविगल-
त्कल्पप्रसूनाप्लुतं
वस्तु प्रस्तुतवेणुनादलहरी-
निर्वाणनिर्व्याकुलम्।
स्रस्तस्रस्तनिबद्धनीविविलसद्-
गोपीसहस्रावृतं
हस्तन्यस्तनतापवर्गमखिलो-
दारं किशोराकृतिः॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार ध्यानके पश्चात् कथा प्रारम्भ करनी चाहिये। सूर्योदयसे आरम्भ करके प्रतिदिन साढ़े तीन प्रहरतक कथा बाँचनी चाहिये। मध्याह्नमें दो घड़ी कथा बंद रखनी चाहिये। प्रातःकालसे मध्याह्नतक मूलका पाठ होना चाहिये और मध्याह्नसे सन्ध्यातक उसका संक्षिप्त भावार्थ अपनी भाषामें कहना चाहिये। मध्याह्नमें विश्रामके समय तथा रात्रिके समय भगवन्नाम-कीर्तनकी व्यवस्था होनी चाहिये।
श्रोताओंके स्थान—वक्ताके सामने श्रोताओंके बैठनेके लिये आगे-पीछे सात पंक्तियाँ बना लेनी चाहिये। पहली पंक्तिका नाम सत्यलोक है, इसमें साधु-संन्यासी, विरक्त, वैष्णव आदिको बैठाना चाहिये। दूसरी पंक्ति तपोलोक कहलाती है, इसमें वानप्रस्थ श्रोताओंको बैठाना चाहिये। तीसरी पंक्तिको जनलोक नाम दिया गया है, इसमें ब्रह्मचारी श्रोता बैठाये जाने चाहिये। चौथी पंक्ति महर्लोक कही गयी है, यह ब्राह्मण श्रोताओंका स्थान है। पाँचवीं पंक्तिको स्वर्लोक कहते हैं। इसमें क्षत्रिय श्रोताओंको बैठाना चाहिये। छठी पंक्तिका नाम भुवर्लोक है, जो वैश्य श्रोताओंका स्थान है। सातवीं पंक्ति भूर्लोक मानी गयी है, उसमें शूद्रजातीय श्रोताओंको बैठाना चाहिये। स्त्रियाँ वक्ताके वामभागकी भूमिपर कथा सुनें। ये स्थान उन लोगोंके लिये नियत किये गये हैं, जो प्रतिदिन नियमपूर्वक कथा सुनते हैं। जो श्रोता कथा प्रारम्भ होनेपर कुछ समयके लिये अनियमितरूपसे आते हैं, उनके लिये वक्ताके दक्षिण भागमें स्थान रहना चाहिये।
श्रोताओंके नियम—श्रोता प्रतिदिन एक बार हविष्यान्न भोजन करें। पतित, दुर्जन आदिका संग तो दूर रहा, उनसे वार्तालाप भी न करें। ब्रह्मचर्यपालन, भूमिशयन (नीचे आसन बिछाकर या तख्तपर सोना) सबके लिये अनिवार्य है। एकाग्रचित्त होकर कथा सुननी चाहिये। जितने दिन कथा सुनें—धन, स्त्री, पुत्र, घर एवं लौकिक लाभकी समस्त चिन्ताएँ त्याग दें। मल-मूत्रपर काबू रखनेके लिये हलका आहार सुखद होता है। यदि शक्ति हो तो सात दिनतक उपवास करके कथा सुनें। अन्यथा दूध पीकर सुखपूर्वक कथा सुनें। इससे भी काम न चले तो फलाहार या एक समय अन्न-भोजन करें। जिस तरह भी सुखपूर्वक कथा सुननेकी सुविधा हो, वैसे कर लें। प्रतिदिन कथा समाप्त होनेपर ही भोजन करना उचित है। दाल, शहद, तेल, गरिष्ठ अन्न, भावदूषित अन्न तथा बासी अन्नका परित्याग करें। काम, क्रोध, मद, मान, ईर्ष्या, लोभ, दम्भ, मोह तथा द्वेषसे दूर रहें। वेद, वैष्णव, ब्राह्मण, गुरु, गौ, व्रती, स्त्री, राजा तथा महापुरुषोंकी कभी भूलकर भी निन्दा न करें। रजस्वला, चाण्डाल, म्लेच्छ, पतित, व्रतहीन, ब्राह्मणद्रोही तथा वेद-बहिष्कृत मनुष्योंसे वार्तालाप न करें। मनमें सत्य, शौच, दया, मौन, सरलता, विनय तथा उदारताको स्थान दें। श्रोताओंको वक्तासे ऊँचे आसनपर कभी नहीं बैठना चाहिये।
कुछ विशेष बातें—प्रत्येक स्कन्धकी समाप्ति होनेपर चन्दन, पुष्प, नैवेद्य आदिसे पुस्तककी पूजा करके आरती उतारनी चाहिये। शुकदेवजीके आगमन तथा श्रीकृष्णके प्राकट्यका प्रसंग आनेपर भी आरती करनी चाहिये। बारहवें स्कन्धकी समाप्ति होनेपर पुस्तक और वक्ताका भक्तिपूर्वक पूजन करना चाहिये। वक्ता गृहस्थ हों तो, उन्हें अपनी शक्तिके अनुसार उदारतापूर्वक वस्त्राभूषण तथा नकद रुपये भेंट देने चाहिये। मृदंग आदि बजाकर जोर-जोरसे कीर्तन करना चाहिये। जय-जयकार, नमस्कार और शंखनाद करने चाहिये। ब्राह्मणों और याचकोंको अन्न एवं धन देना चाहिये। वक्ताके हाथोंसे श्रोताओंको प्रसाद एवं तुलसीदल मिलने चाहिये। प्रतिदिन कथाके प्रारम्भ और अन्तमें आरती होनी आवश्यक है। (श्रीमद्भागवतकी आरती इसीमें अन्यत्र दी गयी है।)
कथाका विश्राम प्रतिदिन नियत स्थलपर ही करना चाहिये। प्रथम दिन मनु-कर्दम-संवादतक। दूसरे दिन भरत-चरित्रतक। तीसरे दिन सातवें-स्कन्धकी समाप्तितक। चौथे दिन श्रीकृष्णके प्राकट्यतक। पाँचवें दिन रुक्मिणी-विवाहतक और छठे दिन हंसोपाख्यानतककी कथा बाँचकर, सातवें दिन अवशिष्ट भागको पूर्ण कर देना चाहिये।* स्कन्धके आदि और अन्तिम श्लोकको कई बार उच्च स्वरसे पढ़ना चाहिये। कथा-समाप्तिके दूसरे दिन वहाँ स्थापित हुए सम्पूर्ण देवताओंका पूजन करके हवनकी वेदीपर पंचभूसंस्कार, अग्निस्थापन एवं कुशकण्डिका करे। फिर विधिपूर्वक वृत ब्राह्मणोंद्वारा हवन, तर्पण एवं मार्जन कराकर श्रीमद्भागवतकी शोभायात्रा निकाले और ब्राह्मण-भोजन कराये। मधु-मिश्रित खीर और तिल आदिसे भागवतके श्लोकोंका दशांश (अर्थात् १,८००) आहुति देनी चाहिये। खीरके अभावमें तिल, चावल, जौ, मेवा, शुद्ध घी और चीनीको मिलाकर हवनीय पदार्थ तैयार कर लेना चाहिये। इसमें सुगन्धित पदार्थ (कपूर-काचरी, नागरमोथा, छड़छड़ीला, अगर-तगर, चन्दनचूर्ण आदि) भी मिलाने चाहिये। पूर्वोक्त अठारह सौ आहुति गायत्री-मन्त्र अथवा दशम-स्कन्धके प्रति श्लोकसे देनी चाहिये। हवनके अन्तमें दिक्पाल आदिके लिये बलि, क्षेत्रपाल-पूजन, छायापात्र-दान, हवनका दशांश तर्पण एवं तर्पणका दशांश मार्जन करना चाहिये। फिर आरतीके पश्चात् किसी नदी, सरोवर या कूपादिपर जाकर अवभृथस्नान (यज्ञान्त-स्नान) भी करना चाहिये। इसके लिये समूहके साथ शोभायात्रा निकालकर गाजे-बाजेके साथ कीर्तन करते हुए जाना चाहिये। यजमान श्रीमद्भागवतग्रन्थको अपने मस्तकपर रखकर उसकी शोभायात्रा निकाले, जिसमें वक्ता तथा सब श्रोता सम्मिलित हों। हरिकीर्तन होता चले। भागवत-ग्रन्थपर चँवर डुलते रहें। घड़ियाल, घण्टा, झाँझ, शंख आदि बाजे बजते रहें। जो पूर्ण हवन करनेमें असमर्थ हो, वह यथाशक्ति हवनीय पदार्थ दान करे। अन्तमें कम-से-कम बारह ब्राह्मणोंको मधुयुक्त खीरका भोजन कराना चाहिये। व्रतकी पूर्तिके लिये सुवर्ण-दान और गोदान करना चाहिये। सिंहासनपर विराजित सुन्दर अक्षरोंमें लिखित श्रीमद्भागवतकी पूजा करके उसे दक्षिणासहित कथावाचक आचार्यको दान कर देना चाहिये। अन्तमें सब प्रकारकी त्रुटियोंकी पूर्तिके लिये विष्णुसहस्रनामका पाठ कथावाचक आचार्यके द्वारा सुनना चाहिये। विरक्त श्रोताओंको ‘गीता’ सुननी चाहिये।
पादटिप्पनी
- मनुकर्दमसंवादपर्यन्तं प्रथमेऽहनि।
भरताख्यानपर्यन्तं द्वितीयेऽहनि वाचयेत्॥
तृतीये दिवसे कुर्यात् सप्तमस्कन्धपूरणम्।
कृष्णाविर्भावपर्यन्तं चतुर्थे दिवसे वदेत्॥
रुक्मिण्युद्वाहपर्यन्तं पञ्चमेऽहनि शस्यते।
श्रीहंसाख्यानपर्यन्तं षष्ठेऽहनि वदेत् सुधीः॥
सप्तमे तु दिने कुर्यात् पूर्तिंभागवतस्य वै।
एवं निर्विघ्नतासिद्धिर्विपर्यय इतोऽन्यथा॥