अनुवाद (हिन्दी)
विनियोगमें आये हुए ऋषि आदिका तथा प्रधान देवताके मन्त्राक्षरोंका अपने शरीरके विभिन्न अंगोंमें जो स्थापन किया जाता है, उसे ‘न्यास’ कहते हैं। मन्त्रका एक-एक अक्षर चिन्मय होता है, उसे मूर्तिमान् देवताके रूपमें देखना चाहिये। इन अक्षरोंके स्थापनसे साधक स्वयं मन्त्रमय हो जाता है, उसके हृदयमें दिव्य चेतनाका प्रकाश फैलता है, मन्त्रके देवता उसके स्वरूप होकर उसकी सर्वथा रक्षा करते हैं। इस प्रकार वह ‘देवो भूत्वा देवं यजेत्’ इस श्रुतिके अनुसार स्वयं देवस्वरूप होकर देवताओंका पूजन करता है। ऋषि आदिका न्यास सिर आदि कतिपय अंगोंमें होता है। मन्त्रपदों अथवा अक्षरोंका न्यास प्रायः हाथकी अँगुलियों और हृदयादि अंगोंमें होता है। इन्हें क्रमशः ‘करन्यास’ और ‘अंगन्यास’ कहते हैं। किन्हीं-किन्हीं मन्त्रोंका न्यास सर्वांगमें होता है। न्याससे बाहर-भीतरकी शुद्धि, दिव्यबलकी प्राप्ति और साधनाकी निर्विघ्न पूर्ति होती है। यहाँ क्रमशः ऋष्यादिन्यास, करन्यास और अंगन्यास दिये जा रहे हैं—