Skandapurāṇa Adhyāya 32
E-text generated on February 22, 2017 from the original TeX files of: Bakker, Hans T., Peter C. Bisschop and Yuko Yokochi, eds. The Skandapurāṇa. Vol. IIB. Adhyāyas 31-52. The Vāhana and Naraka Cycles. Critical Edition with an Introduction & Annotated English Synopsis, in cooperation with Nina Mirnig and Judit Törzsök. Leiden/Boston: Brill, 2014.
SP0320010: सनत्कुमार उवाच।
SP0320011: एतस्मिन्नेव काले तु व्यास दक्षः प्रजापतिः।
SP0320012: अयजत्सो ऽश्वमेधेन राजा प्राचेतसात्मजः|| १||
SP0320021: तत्र देवनिकायानां भागधेयानि सर्वशः|
SP0320022: हव्यवाहस्तदा तत्र वहन्मन्त्रैः समीरितः|| २||
SP0320031: वहन्तं तमपश्यच्च देवी गिरिवरात्मजा|
SP0320032: अनुस्मरन्ती तद्वैरं शापकारणमेव च|| ३||
SP0320041: उवाच चैनं गिरिजा बोधयन्ती पुरातनम्|
SP0320042: श्लक्ष्णं मधुरया वाचा कारणेन समन्वितम्|| ४||
SP0320051: त्वं देव सर्वदेवानां गतिश्च शरणं तथा|
SP0320052: त्वया विना कथं यज्ञो वर्तते सर्वदेवप|| ५||
SP0320061: देवानां भागधेयानि वहत्यग्निरयं भव|
SP0320062: नायं तव महेशान किं कारणमतिद्युते|| ६||
SP0320071: साम्ना सर्वसुराध्यक्ष विक्रमेण विना विभो|
SP0320072: अयं मूढो ऽवलिप्तश्च राजा प्राचेतसात्मजः|
SP0320073: अनुस्मरन्पूर्ववैरं नैव दास्यत्यशासितः|| ७||
SP0320081: दधीचस्य वरश्चापि त्वया दत्तस्तदा प्रभो|
SP0320082: तस्यायमागतः कालस्तदर्थेन विधीयताम्|| ८||
SP0320090: सनत्कुमार उवाच|
SP0320091: एवमुक्तस्तदा व्यास भगवान्वृषभध्वजः|
SP0320092: उवाच प्रहसन्देवीं पिता तव शुचिस्मिते|
SP0320093: पूर्वजन्मनि सुश्रोणि प्रजापतिसुतः शुभे|| ९||
SP0320101: मम त्वं भावविज्ञानं कुर्वती देवि भाषसे|
SP0320102: न हि दुःखं पितुर्लोके कश्चिदिच्छति भामिनि|| १०||
SP0320111: ललाटे भृकुटीं कृत्वा ततो देव्यायतेक्षणा|
SP0320112: क्रोधात्करेण नासाग्रं संममर्द शुचिस्मिता|| ११||
SP0320121: तस्यां संमृद्यमानायां नासिकायामतिप्रभा|
SP0320122: जज्ञे स्त्री भृकुटीवक्त्रा चतुर्दंष्ट्रा त्रिलोचना|
SP0320123: बद्धगोधाङ्गुलित्रा च कवचाबद्धमेखला|| १२||
SP0320131: सखड्गा सधनुष्का च सतूणीरा पताकिनी|
SP0320132: द्वादशास्या दशभुजा तनुमध्या तमोनिभा|| १३||
SP0320141: घनस्तनी पृथुकटी नागनासोरुरव्यया|
SP0320142: भद्रकालीति तां प्राह देवीं देवी शुभानना|| १४||
SP0320151: ततो ऽब्रवीत्तदा देवमेषा सृष्टा मया प्रभो|
SP0320152: त्वमप्यन्यं सृज गणमनुरूपं नमो ऽस्तु ते|| १५||
SP0320161: ततो देवस्तदा स्कन्धं स्वमैक्षत सुभास्वरम्|
SP0320162: तस्माज्जज्ञे पुमान्दिव्यस्त्रैलोक्यं संहरन्निव|| १६||
SP0320171: भृकुटीभूषितास्यश्च बद्धगोधाङ्गुलित्रवान्|
SP0320172: कवची बद्धतूणीरः शरी खड्गी शरासनी|
SP0320173: त्र्यक्षश्चतुर्भुजश्चैव वज्रसंहननो युवा|| १७||
SP0320181: स सृष्टः प्रणतो भूत्वा हरिर्नाम्ना गणेश्वरः|
SP0320182: उवाच प्राञ्जलिर्भूत्वा देवदेवं सहोमया|
SP0320183: आज्ञापय सुरेशान यत्कर्तव्यं मया विभो|| १८||
SP0320191: ततः स भगवानाह हरिं तं गणनायकम्|
SP0320192: प्राचेतसात्मजस्येमं यज्ञं गच्छ विनाशय|
SP0320193: भद्रकाल्या सहाशु त्वमेतत्कृत्यं गणेश्वर|| १९||
SP0320201: ततो ऽस्य भगवान्देवो गणेशान्कामरूपिणः |
SP0320202: - - - - - - - - - - - - - - - -|| २०||
SP0320211: पस्पर्श बाहुं सम्यक्तु तस्मिञ्जाता महाबलाः|
SP0320212: कोट्यस्ता नवतिश्चैव शतं चैव तदा प्रभोः|
SP0320213: सर्वांश्चोवाच भगवान्यज्ञं प्रमथतानघाः|| २१||
SP0320220: सनत्कुमार उवाच|
SP0320221: ततस्तौ तेन सैन्येन महताभिसमावृतौ|
SP0320222: जग्मतुः सागरोन्नादमेघाशनिविनादितौ|| २२||
SP0320231: देवो ऽपि सह पार्वत्या रैभ्याश्रमसमीपतः|
SP0320232: स्थित्वापश्यद्गणेशानां कर्म तद्यज्ञनाशनम्|| २३||
SP0320240: सनत्कुमार उवाच|
SP0320241: वृक्षाः कनखला यत्र गङ्गाद्वारसमीपगाः|
SP0320242: सुवर्णशृङ्गश्च गिरिर्मेरुपर्वतसंनिभः|
SP0320243: तस्मिन्प्रदेशे दक्षस्य यज्ञो ऽयमभवत्तदा|| २४||
SP0320251: गणेश्वरबलं चागाद्भीमं कालीपुरोगमम्|
SP0320252: ते संप्राप्य महाभागाः सर्वे दीप्तानलप्रभाः|
SP0320253: ऊचुस्तं यजमानं च ऋत्विजो ऽथ मुनीन्सुरान्|| २५||
SP0320261: वयं ह्यनुचराः सर्वे शर्वस्य परमात्मनः|
SP0320262: इहाभिलिप्सवः प्राप्ता भागान्यच्छध्वमीप्सितान्|| २६||
SP0320271: तपसा यज्ञभागार्हा बलेन नियमेन वा|
SP0320272: ऐश्वर्येणाथ योगेन येन तेन पुरो हि वः|
SP0320273: सर्वं चास्मास्वपि हि तद्वयमप्यंशभागिनः|| २७||
SP0320281: अथ चेत्स्वामिनो देवास्तेन भागार्हतां गताः|
SP0320282: स्वामित्वे च बलं हेतुस्तपो वा नात्र संशयः|
SP0320283: अस्मास्वेवोभयं तच्च स्वामित्वं तेन नो वरम्|| २८||
SP0320291: अथ चेत्कस्यचिदियमाज्ञा मुनिसुरोत्तमाः|
SP0320292: भागो भवद्भ्यो देयस्तु नास्मभ्यमिति कथ्यताम्|
SP0320293: तं ब्रूत यो ज्ञापयति वेत्स्यामो हि वयं ततः|| २९||
SP0320301: एवमुक्तास्तु हरिणा सर्वे देवपुरःसराः|
SP0320302: ऊचुर्मन्त्राः प्रमाणं वो भागं प्रति गणेश्वराः|| ३०||
SP0320311: मन्त्राप्यूचुः सुरान्यूयं तमोपहतचेतसः|
SP0320312: येन प्रथमभागार्हं न यजध्वं महेश्वरम्|| ३१||
SP0320321: मन्त्रैस्ते प्रोच्यमानापि नैव भागान्ददुर्यदा|
SP0320322: तदा यातास्ततो मन्त्रा ब्रह्मलोकं सनातनम्|| ३२||
SP0320331: ततः शक्रादयो देवाः सर्वानूचुर्गणेश्वरान्|
SP0320332: युष्मान्निहन्मो विक्रम्य सर्वानेवागतान्युधि|| ३३||
SP0320341: तेषां सगर्वं तद्वाक्यं श्रुत्वा हरिरमित्रजित्|
SP0320342: उवाच प्रहसन्सर्वानिदं वचनमूर्जितम्|| ३४||
SP0320351: मन्त्राः प्रमाणं न कृता युष्माभिर्बलगर्वितैः|
SP0320352: यस्मात्प्रसह्य तस्माद्वो नाशयाम्यद्य गर्वितम्|| ३५||
SP0320361: ऋत्विग्भिर्भागधेयैश्च सह यज्ञेन चोद्यतः|
SP0320362: येषां च बलवत्ता वस्तान्सर्वान्नाशयाम्यहम्|| ३६||
SP0320371: एवमुक्त्वा स तेजस्वी हरिभद्रः प्रतापवान्|
SP0320372: भद्रकाली च संक्रुद्धावभिदुद्रुवतुः सुरान्|| ३७||
SP0320381: गणेश्वराश्च संक्रुद्धा यूपानुत्पाट्य चिक्षिपुः|
SP0320382: प्रस्थात्रा सह होतारमश्वं चैव गणेश्वराः|
SP0320383: गृहीत्वा कुपिताः सर्वे गङ्गास्रोतसि चिक्षिपुः|| ३८||
SP0320391: यजमानं च पाशेन बद्ध्वा निन्युर्यथासुखम्|
SP0320392: वेदीमध्ये कुशानन्ये स्रुचो ऽन्ये चमसानपि|
SP0320393: व्यनाशयंश्चिक्षिपुश्च शालाश्चान्ये ऽभ्यदीपयन्|| ३९||
SP0320401: हरिभद्रो ऽपि दीप्तात्मा शक्रस्योद्यच्छतः करम्|
SP0320402: व्यष्टम्भयददीनात्मा तथान्येषां दिवौकसाम्|| ४०||
SP0320411: भगस्य नेत्रे पूष्णश्च दशनान्रुषिताननः|
SP0320412: धनुष्कोट्या समाहत्य मिषतां स न्यपातयत्|| ४१||
SP0320421: विष्णोश्चक्रं च तद्घोरं युगान्तादित्यवर्चसम्|
SP0320422: व्यष्टम्भयददीनात्मा करस्थं न चचाल ह|| ४२||
SP0320431: तुषितांश्च तथा देवानुद्युक्तान्युद्धलालसान्|
SP0320432: वायव्यास्त्रेण संहत्य पृथिव्यां तान्न्यपातयत्|| ४३||
SP0320441: अन्यांश्च देवान्देवो ऽसौ सर्वान्युद्धाय संस्थितान्|
SP0320442: मोहनेनास्त्रवीर्येण संमोहयदनिन्दितः|| ४४||
SP0320451: राजानश्चापि ये केचित्तत्रायाता दिदृक्षवः|
SP0320452: तान्सर्वानस्त्रवीर्येण स्वगृहाननयद्बलात्|| ४५||
SP0320461: तत्प्रविध्वस्तकलशं भग्नयूपं सतोरणम्|
SP0320462: प्रदीपितमहाशालं दृष्ट्वा यज्ञो ऽभिदुद्रुवे|| ४६||
SP0320471: तं तदा मृगरूपेण धावन्तं गगनं प्रति|
SP0320472: हरिः शरं समाधाय विशिरस्कमथाकरोत्|| ४७||
SP0320481: शरं चापरमादाय वीरभद्रः प्रतापवान्|
SP0320482: पलायमानं तं यज्ञं ससार मृगरूपिणम्|| ४८||
SP0320490: सनत्कुमार उवाच|
SP0320491: एवं ते निकृता व्यास गणैः काल्या तथैव च|
SP0320492: हरिणा चैव देवेन सर्वे शरणमागताः|| ४९||
SP0320501: तान्प्रपन्नांस्तदा सर्वान्देवान्समुनिलोकपान्|
SP0320502: हरिः काल्या सहैवाह गच्छध्वं सोममव्ययम्|
SP0320503: प्रसादयध्वं देवेशं ततो वो भविता शमः|| ५०||
SP0320510: सनत्कुमार उवाच|
SP0320511: त एवमुक्ता हरिणा जग्मुर्देवं प्रमन्यवः|
SP0320512: प्रसादयितुमव्यग्रा दुःखशोकसमन्विताः|| ५१||
SP0320521: ततस्ते नातिदूरे तु साम्बं सगणमीश्वरम्|
SP0320522: अपश्यन्त महात्मानं सर्वे तद्गतमानसाः|| ५२||
SP0320531: ते तं दृष्ट्वा प्रणम्योच्चैस्तुष्टुवुर्दीप्ततेजसम्|
SP0320532: वाग्भिरावाहनीयाभिः कृत्वा ब्रह्माणमग्रतः|| ५३||
SP0320540: देवा ऊचुः|
SP0320541: नमस्ते सुरशत्रुघ्न सुरयज्ञप्रवर्तक|
SP0320542: महायज्ञ महासत्त्व महाक्रतुशतस्तुत|| ५४||
SP0320551: नमो यज्ञविनाशाय वेदसर्वस्वदाय च|
SP0320552: शिपिविष्टकृते विष्णोर्नरसिंहाभिघातिने|| ५५||
SP0320561: मन्दराद्रिनिवासाय शुभसर्वस्वदाय च|
SP0320562: महाविमानयानाय क्रतुविघ्नकराय च|| ५६||
SP0320571: मन्त्रान्तःकरणायैव मन्त्रव्रतकराय च|
SP0320572: पूष्णो दन्तविनाशाय भगनेत्रहराय च|| ५७||
SP0320581: विष्टम्भनाय शक्रस्य विष्णोश्चक्रस्य चैव हि|
SP0320582: नमो यज्ञप्रणेत्रे च यज्ञोत्पत्तिकराय च|| ५८||
SP0320591: वरदानाधिगम्याय ब्रह्मणो जनकाय च|
SP0320592: व्याघ्रचर्मभृते तुभ्यं कृष्णचर्माम्बराय च|| ५९||
SP0320601: नमः स्रग्वरमालाय नरपित्रे तथैव च|
SP0320602: उत्पादकाय विष्णोश्च जयाय विजयाय च|| ६०||
SP0320611: नमो मन्युविनाशाय वीरभद्रप्रजाय च|
SP0320612: नमो हर्षाय कोपाय गणेश्वरसृजे नमः|| ६१||
SP0320621: नमो देवानुतापाय मृगबाणार्पणाय च|
SP0320622: नमस्ते भगवन्देव नमस्ते भगवञ्छिव|| ६२||
SP0320631: नमस्ते सर्वलोकेश नमस्ते लोकभावन|
SP0320632: त्वया सृष्टमिदं विश्वं यज्ञो देवाश्च यज्ञहन्|
SP0320633: प्रसीद मा क्रुधो ऽस्माकं मा नः कृत्वा विनाशय|| ६३||
SP0320640: सनत्कुमार उवाच|
SP0320641: य इमं पठते नित्यं नियतः प्रातरुत्थितः|
SP0320642: न तस्य विघ्नरूपाणि कदाचित्संभवन्त्युत|| ६४||
SP0320650: सनत्कुमार उवाच|
SP0320651: स एवमुक्तो देवेशस्तदा तान्स्तुवतः स्थितान्|
SP0320652: उवाच प्रहसन्वाक्यं सर्वान्देवान्समागतान्|| ६५||
SP0320660: देव उवाच|
SP0320661: नाहं क्रुद्धो भवन्तो मे नित्यमेवातिवल्लभाः|
SP0320662: क्रुद्धे हि मयि युष्माकं न स्याज्जीवं क्षणान्तरे|| ६६||
SP0320671: एवमुक्त्वा तदा देवः सुराणां हितकाम्यया|
SP0320672: प्रावेशयत्सुरान्सर्वांस्ततस्तान्योगमायया|
SP0320673: स्वे शरीरे महादेवो विस्मापयितुमोजसा|| ६७||
SP0320681: ते प्रविष्टास्तदा देहमीश्वरस्य महात्मनः|
SP0320682: सप्तलोकसमायुक्तमपश्यञ्जगदद्भुतम्|| ६८||
SP0320691: ते परिभ्रम्य तांल् लोकान्कृत्स्नान्सर्वे भयान्विताः|
SP0320692: पञ्चाक्षं गणपं वीरं तत्रापश्यन्समागताः|| ६९||
SP0320701: तेन ते सुरशार्दूलाः सर्वे ह्यूर्ध्वमतन्द्रिताः|
SP0320702: आक्षिप्तास्तन्मुहूर्तेन लोकमन्यमुपागताः|| ७०||
SP0320711: अपश्यंस्ते महाभागा नगरं सूर्यसंनिभम्|
SP0320712: स्फाटिकेनातिमहता प्राकारेणाभिसंवृतम्|
SP0320713: शृङ्गैश्च विविधैश्चित्रैर्मणिहेमोज्ज्वलैः शुभैः|| ७१||
SP0320721: ततो ऽपरमपश्यंस्ते तन्मध्ये सुरसत्तमाः|
SP0320722: सप्तयोजनकोटीकं समन्तान्नगरं शुभम्|
SP0320723: राजतेनावृतं दिव्यं प्राकारेणेन्दुवर्चसा|| ७२||
SP0320731: तस्य मध्ये ऽपरं चोच्चं षट्कोटीविस्तृतं पुरम्|
SP0320732: जाम्बूनदमयेनैव प्राकारेणाभिसंवृतम्|| ७३||
SP0320741: तस्य मध्ये पुनश्चान्यत्पञ्चकोटीप्रमाणतः|
SP0320742: इन्द्रनीलोपलेनैव प्राकारेण समावृतम्|| ७४||
SP0320751: तस्य मध्ये ह्यपश्यंस्ते विबुधा मुनिसत्तम|
SP0320752: चतुर्योजनकोटीकं विस्तारायामतः समम्|
SP0320753: वैडूर्योपलयुक्तेन प्राकारेणाभिसंवृतम्|| ७५||
SP0320761: नगरं तस्य मध्ये च त्रिकोटीयोजनं शुभम्|
SP0320762: सर्वरत्नविचित्रेण प्राकारेणाभिसंवृतम्|| ७६||
SP0320771: तस्य मध्ये ऽपरं चान्यद्द्विकोटीविस्तृतं शुभम्|
SP0320772: पद्मरागमयेनैव प्राकारेण परिष्कृतम्|| ७७||
SP0320781: तेषां मध्ये जनपदाः सर्वदुःखविवर्जिताः|
SP0320782: शुक्लाभिजनसंपन्नाः सर्वे च स्थिरयौवनाः|| ७८||
SP0320791: क्षुत्पिपासाविनिर्मुक्ता रोगशोकविवर्जिताः|
SP0320792: अमरा जरया त्यक्ता नित्यं मुदितमानसाः|| ७९||
SP0320801: दीर्घिकाभिर्विचित्राभिर्वापीभिश्चाप्यलंकृताः|
SP0320802: वृक्षैर्नानाविधैश्चित्रैः सदापुष्पफलोपगैः|| ८०||
SP0320811: सर्वभक्षान्प्रसूयन्ते वृक्षास्तत्रापरे शुभाः|
SP0320812: अपरे चाप्यलंकारान्सर्ववासांसि चापरे|| ८१||
SP0320821: अपरे सर्वपुष्पाणि सर्वाण्येव फलानि च|
SP0320822: सर्वभावांस्तथा चान्ये मधु चामाक्षिकं शुभम्|| ८२||
SP0320831: अपरे क्षीरिणस्तत्र वृक्षा व्यास महाप्रभाः|
SP0320832: क्षीरं क्षरन्ति ते नित्यं सर्वगव्यसमन्वितम्|| ८३||
SP0320841: सर्वा मणिमयी भूमिः शुभा काञ्चनवालुका|
SP0320842: उद्भिदान्युदकान्यत्र गिरिप्रस्रवणानि च|| ८४||
SP0320851: न तेषु क्रोधो लोभो वा युद्धं द्वेषो ऽथ मत्सरः|
SP0320852: न मानो नैव च स्तम्भो न दोषास्तत्र चापरे|| ८५||
SP0320861: ईदृशानि पुराणि स्म व्यतिक्रम्य सुरास्ततः|
SP0320862: कोटीयोजनविस्तीर्णं समन्ताद्वह्निनावृतम्|| ८६||
SP0320871: संवर्तकानलाकारं दुर्निरीक्ष्यं पुरं महत्|
SP0320872: अद्वारं ददृशुर्दिव्यमनन्तं ते सुरोत्तमाः|
SP0320873: दृष्ट्वा जग्मुः परं चैव विस्मयं भयमेव च|| ८७||
SP0320881: तान्भीतवदनान्व्यास वेपमानान्सुरेश्वरान्|
SP0320882: पञ्चाक्षो गणपः प्राह मा भीर्भवतु वः सुराः|| ८८||
SP0320891: इदं तत्सुमहद्घोरं पुरं घोरानलावृतम्|
SP0320892: द्रष्टव्यं वो महात्मानो यत्कृतेनागतास्त्विह|| ८९||
SP0320900: सनत्कुमार उवाच|
SP0320901: एवमुक्त्वा स पञ्चाक्षः शूलेनानलवर्चसा|
SP0320902: पश्यतां सुरसंघानां द्वारं चक्रे महाबलः|| ९०||
SP0320911: ते प्रविष्टा महात्मानः पञ्चाक्षसहिताः सुराः|
SP0320912: दिव्यं ददृशिरे पूर्णं सिंहानां तत्पुरं महत्|| ९१||
SP0320921: मेरुमन्दरकल्पानां नखदंष्ट्रावतां तथा|
SP0320922: घोराणामग्निवर्णानां क्रुद्धानामतितेजसाम्|| ९२||
SP0320931: तेषामेकस्तदा सिंहश्छित्त्वा बन्धनमूर्जितः|
SP0320932: अन्वधावत संक्रुद्धः प्रलम्बितमहासटः|| ९३||
SP0320941: तस्य सिंहस्य नादेन भैरवेण दिवौकसः|
SP0320942: विषण्णवदनाः सर्वे पञ्चाक्षं शरणं ययुः|| ९४||
SP0320950: पञ्चाक्ष उवाच|
SP0320951: न भेतव्यं सुरा देवं दर्शयाम्यधुना हि वः|
SP0320952: इत्युक्ता ददृशुः शर्वं सहसा ते सहोमया|
SP0320953: न चैव तत्पुरं व्यास न सिंहान्नापि किंचन|| ९५||
SP0320961: वेपमाना भयेनेशं शरणं पर्युपागताः|
SP0320962: ताञ्छरण्यः स भगवानुवाच प्रहसंस्तदा|
SP0320963: आमन्त्र्य सर्वान्देवेशो भयार्तांस्तान्दिवौकसः|| ९६||
SP0320971: दृष्टा हि वो मम क्रोधाः सिंहरूपा भयानकाः|
SP0320972: एकेन तेषां रौद्रेण सर्वे यूयं विनिर्जिताः|| ९७||
SP0320981: यदि सर्वानहं क्रोधाद्विसृजेयं कथंचन|
SP0320982: न भवेयुरसंदेहात्सर्वे यूयं क्षणात्सुराः|| ९८||
SP0320991: इयं तु देवी युष्माकं कुपिता पर्वतात्मजा|
SP0320992: एतां प्रसादयत वै नाहं कुप्यामि वः सुराः|| ९९||
SP0321000: सनत्कुमार उवाच|
SP0321001: एवमुक्तवति स्वामिन्युद्धता ताम्रलोचना|
SP0321002: देवी देवीं मुखाद्घोरां ससृजे भयवर्धनीम्|| १००||
SP0321011: दंष्ट्राकरालवदनां बहुपादकराङ्गुलिम्|
SP0321012: धनुःपरशुखड्गेषुचक्रशूलासिधारिणीम्|| १०१||
SP0321021: ज्वलदर्कसहस्रांशुतेजसा विश्वरूपिणीम्|
SP0321022: दशयोजनसाहस्रस्तस्या देहः प्रकीर्तितः|| १०२||
SP0321031: भयाभिभूतास्ते देवा वध्यमानाश्च सर्वशः|
SP0321032: न शेकुः पुरतः स्थातुं व्याघ्रान्मृगगणा इव|| १०३||
SP0321041: ततो व्यथितचित्तास्ते कालकर्ण्या भयात्सुराः|
SP0321042: भस्मराशिं स्थितं पार्श्वे देवस्य विविशुर्भयात्|| १०४||
SP0321051: तान्दृष्ट्वा भस्मकूटं तु प्रविष्टाञ्छरणार्थिनः|
SP0321052: सुरान्भस्मविलिप्ताङ्गान्देवीं देवी न्यषेधयत्|| १०५||
SP0321060: देव्युवाच|
SP0321061: कालकर्णि निवर्तस्व मा वधीः सुरसत्तमान्|
SP0321062: एते पाशुपतीभूता भस्मना दिग्धमूर्तयः|| १०६||
SP0321071: एतत्पशुपतिप्रोक्तं व्रतं पाशुपतं पुरा|
SP0321072: यद्भस्मना पवित्रेण स्नानं स्नानेभ्य उत्तमम्|| १०७||
SP0321081: एते भगवतो ऽवश्यमनुग्राह्याः सुरोत्तमाः|
SP0321082: भस्म येन प्रविष्टास्तु तस्मान्मैतान्विनाशय|| १०८||
SP0321091: रौद्राः पशव एते हि प्रवेशाद्भस्मनो ऽधुना|
SP0321092: जाताश्च गणपाः सर्वे हन्तव्या न त्वयेश्वरि|| १०९||
SP0321101: नैषां मृत्युः प्रभवति शंकरार्पितचेतसाम्|
SP0321102: मया ह्येतद्व्रतं पूर्वं चरितं सार्वकामिकम्|| ११०||
SP0321111: इत्युक्ता कालकर्णी तु देव्या भैरवरूपिणी|
SP0321112: न्यवर्तत सुरेभ्यस्तु कोपं तत्याज चोत्थितम्|| १११||
SP0321121: कालकर्णीं निवृत्तां तु दृष्ट्वा ते ऽपि सुरास्ततः|
SP0321122: शान्तं च भयमत्युग्रं तुष्टुवुर्हिमवत्सुताम्|| ११२||
SP0321130: देवा ऊचुः|
SP0321131: हरवरमहिषीं महादेवपत्नीं प्रियां त्र्यम्बकस्याम्बिकां वाचमेकाक्षरां लोकसंहारकर्त्रीमुमां देवदेवस्य पत्नीं शुभां शङ्खकुन्देन्दुहाराम्बुगौरोग्रदंष्ट्रां जयामाहवे दुर्निरीक्ष्यामचिन्त्योग्रदृष्टिं विशालेक्षणां पीतकौशेयवस्त्रां महाशूलघण्टापताकाध्वजां दिव्यगन्धाज्यधूपप्रियां कालदण्डासिचर्माग्रहस्तां वपाशोणितान्त्रावसापूर्णभाण्डां दिशां दक्षिणां चारुचामीकराबद्धपट्टां युगान्तानलाभेक्षणामट्टहासान्सृजन्तीं यथाकामकर्त्रीमनङ्गायुधाविक्षतां शूरसेनानदीं विश्रुतां मन्दरावासनित्यां दिविष्ठां प्रपद्ये ऽहमेकानसीम्|| ११३||
SP0321141: असुरमहिषदारणीं दारणीं दुन्दुभेः सुम्भमारीं निसुम्भस्य मृत्युं विभां सोमसूर्याग्निभासां सृजत्कान्तिमिष्टप्रदां शोकदुःखार्तिहर्त्रीं विशोकां सुघोरां वरामन्तकस्यान्तकर्त्रीं मुनेर्जामदग्न्यस्य चोर्जां तथा राजराज्ञीमनोज्ञां करालां ह्रियं दण्डनीतिं स्थितिं सिद्धिमिष्टां शुभां कालरात्रीमपर्णां समाधिं शरण्यां नगेन्द्राधिवासप्रियां क्षीरनद्यब्धिवासां शुभां किङ्किणीकां प्रकीर्णोर्ध्वकेशीं प्रदीप्ताग्निसन्ध्याभ्ररागत्विषां बद्धगोधाङ्गुलित्रां त्रिनेत्रां जटाकेशरक्ताम्बुजाबद्धमालां विशल्यामनङ्गारिनेत्रोल्कजां हेममालापिनद्धस्रजां दीर्घवेणीं यशःकीर्तियुक्तां मयूराङ्गजाबद्धचित्रध्वजां शान्तिकर्त्रीं प्रपद्ये ऽहमेकां सदा|| ११४||
SP0321151: भुजगशतकृताङ्गदां दानवप्राणशौण्डां चिताभस्मरूक्षाङ्गकेशीं महाजानुलम्बोदरां सर्पयज्ञोपवीतार्धवक्त्रोद्धृताक्षार्धपादार्धहस्तावतंसां महामेखलादामलम्बद्विचित्रस्रजां मेघतूर्योग्रवादित्रनृत्यप्रियां गीतहास्यप्रलापप्रमोदप्रियां जप्यहोमोपवासाप्रवासाधिवासातिरक्तां महायोगविज्ञातसारानुसारोग्रसारां धृतिं ज्यानुघण्टावबद्धोग्रशब्दां महामेघवज्रप्रपातोदधिप्रख्यघोषक्रियां दीक्षितानां च दीक्षां विरूपाक्षभार्यां हरस्यार्धदेहाधिवासां प्रपद्ये मुखोल्कोद्भवां देवि-म्-आद्यां परां पार्वतीं सर्वविद्याधिदेवां गतिं || ११५||
SP0321161: यमनियमदमात्मभूतां पितॄणां च कन्यां शुभां पर्वतेन्द्रात्मजां दक्षयज्ञान्तकारीं भवस्यार्धदेहाश्रितादित्यदन्तावपातां सुरेन्द्राग्रहस्तप्रतिस्तम्भनीं विष्णुकेशापहर्त्रीं महासिंहयुक्तातिवाहां महाभैरवाभीषितां स्कन्दचन्द्रारणीं मातरं हस्तिवक्त्रस्य चाग्र्यां विशाखस्य जन्मारणीं नन्दिनो नैगमेषस्य चोत्पादनीं सर्वलोकस्य चाद्यारणीं मातरं योगिनां योगिनीं ध्यायमानां धृतिं देवविप्रैर्महायोगतर्कैरगम्यां विशिष्टेष्टशिष्टाधिवासां च लक्ष्मीं तरीं भूर्भुवःस्वर्जनःसत्यवैराजमाहात्म्यलोकारणीमिन्द्रियाणामहंकारतन्मात्रकर्त्रीं तमःसत्त्वरागप्रवृत्तिं परां च प्रवृत्तिं महेशस्य शक्तिं तथा चेतनां सर्वविज्ञानचिन्त्यां प्रपद्ये ऽम्ब देवीमुमां मातरम्|| ११६||
SP0321171: दिश तु सुखमतः सुतुष्टा महादेवपत्नीं शुभां यां वयं चिन्तयामैकबुद्ध्या तथाध्यायमानाः सदा दारुणं चापि सर्वं कृतं यत्त्वया तच्च नो नाशयाम्बाद्य तुष्टा यथा वै तुषारं महासूर्यदेहोद्भवा यच्च नो जातिकोटीसहस्रेषु पूर्वं कृतं यत्करिष्याम यत्कुर्म तत्सर्वमेवं च दद्याश्च नः सर्वमर्थं सकामं तथारोग्यमूर्जां श्रियं ज्ञानविज्ञानमेधास्तथा धारणीं तर्कमूहामपोहां धृतिं चार्यभावं गतिं चैव दिव्यां तथा धर्मनित्यत्वमेतांश्च ये चाप्यतो ऽन्ये गुणास्तांश्च सर्वाञ्जुषस्वाद्य नो देवि तुभ्यं नमः|| ११७||
SP0321180: सनत्कुमार उवाच|
SP0321181: एवं सा संस्तुता देवी देवैर्दिव्येन चेतसा|
SP0321182: त्र्यम्बकानुग्रहाच्चैव देवांस्तुष्टाब्रवीदिदम्|| ११८||
SP0321190: देव्युवाच|
SP0321191: गच्छध्वं विज्वराः सर्वे तुष्टाहं वो न संशयः|
SP0321192: कोपेन नः पुनर्देवा मा विनाशो हि वो भवेत्|| ११९||
SP0321200: सनत्कुमार उवाच|
SP0321201: ततः स देवः प्रहसन्कपर्दी नीललोहितः|
SP0321202: प्रकृतिस्थान्सुरान्सर्वांश्चकार सुरशत्रुहा|| १२०||
SP0321211: उवाच चैतान्देवेशो गच्छध्वं विगतज्वराः|
SP0321212: यज्ञैश्चैव यदा कृत्यं तदायं भविता हि वः|
SP0321213: सशिरस्को ऽदितेः पुत्रा मन्त्रेणानेन संधितः|| १२१||
SP0321221: ततः स्तोत्रं च मन्त्रं च संधानकरमव्ययम्|
SP0321222: ददावाथर्वणं देवः प्रोवाचेदं च सुस्वरम्|| १२२||
SP0321230: देव उवाच|
SP0321231: नक्षत्रसमतां यातु यज्ञो ऽयं सुरसत्तमाः|
SP0321232: मृगानुसारी देवो ऽपि हरिरस्य भवत्वयम्|| १२३||
SP0321241: भद्रकाली हरिश्चैव गणाश्चेमे महाबलाः|
SP0321242: सर्वे भद्रा भविष्यन्ति युष्माकममराः सदा|| १२४||
SP0321250: सनत्कुमार उवाच|
SP0321251: एवमुक्ता भगवता देवास्ते ब्रह्मणा सह|
SP0321252: शिरोभिः प्रणताः सर्वे शर्वमूचुरिदं वचः|| १२५||
SP0321261: एष तावत्क्रतुश्रेष्ठस्तवैव भवतु प्रभो|
SP0321262: शर्वः सुरपते देव शतमभ्यर्च्यते ऽव्यय|
SP0321263: भागानां सर्वयज्ञेषु तुभ्यं सर्वं ददामहे|| १२६||
SP0321271: एवमुक्तो ऽथ देवेशः सुरैः सर्वैः सुरेश्वरः|
SP0321272: चकार रूपं परमं सर्वदेवमयं शुभम्|| १२७||
SP0321281: स्वात्मानं ते तदा देवा ह्यपश्यन्त महेश्वरे|
SP0321282: शिरोबाहूरुपादेषु पार्श्वहस्तोदरादिषु|
SP0321283: अवस्थितान्महात्मानो मुनींश्चैव तपोधनान्|| १२८||
SP0321291: स तद्रूपं तदा कृत्वा देवान्प्रोवाच शंकरः|
SP0321292: सर्वे यूयं महात्मानो मच्छरीरसमुद्भवाः|
SP0321293: युष्माकं च शरीराणि मन्मयानि प्रपश्यत|| १२९||
SP0321301: ततस्ते देवता व्यास सर्वं रुद्रात्मकं जगत्|
SP0321302: आत्मनश्चाप्यपश्यन्त विस्मयापन्नचेतसः|| १३०||
SP0321311: एवं स तेषां देवेशो दर्शयित्वात्मनो बलम्|
SP0321312: उवाच सुरशार्दूलान्दृष्टा ह्येता विभूतयः|| १३१||
SP0321321: यो यां पूजयते मूर्तिं भक्त्या परमया युतः|
SP0321322: तस्य तां मूर्तिमास्थाय पूजां गृह्णाम्यहं सुराः|| १३२||
SP0321331: न भागधेयैः कृत्यं मे भागधेयानि वः सुराः|
SP0321332: सर्वाण्येव ददान्यद्य यात सर्वे गतज्वराः|| १३३||
SP0321340: देवा ऊचुः|
SP0321341: गुह्यमेतत्परं देव त्वयास्माकं निदर्शितम्|
SP0321342: एवं यो वेत्स्यते मर्त्यः स लोकान्प्राप्स्यते ऽव्ययान्|| १३४||
SP0321351: इदं च भगवन्स्थानं भद्रेश्वरमिति श्रुतम्|
SP0321352: भविष्यति जगच्छ्रेष्ठं स्थानेभ्यः पुण्यकृत्तमम्|| १३५||
SP0321361: समन्ताद्योजनं चैव रुद्रक्षेत्रं सनातनम्|
SP0321362: मृतो ऽत्र गणपो देव वल्लभस्ते भविष्यति|| १३६||
SP0321371: यश्चेमं कीर्तयेन्नित्यं कल्यमुत्थाय यज्ञहन्|
SP0321372: श्रावयेच्चापि द्विजेभ्यः सर्वपापैः प्रमुच्यते|| १३७||
SP0321381: भद्रकर्णह्रदे चास्मिन्स्नात्वा यो ऽभ्यर्चयेद्धरम्|
SP0321382: साधयित्वा चरुं चैव भोजयेद्ब्राह्मणं शुचिः|| १३८||
SP0321391: सर्वपापविनिर्मुक्तो यत्र तत्र मृतो नरः|
SP0321392: मोदते ऽप्सरसां मध्ये दिवि देव इवापरः|| १३९||
SP0321401: यत्र चोक्तं त्वया देव स्थितेन भगवन्प्रभो|
SP0321402: हरिभद्रेति पुण्यो ऽयं त्वत्प्रसादाद्भवत्वज|| १४०||
SP0321411: अश्वमेधस्य यत्पुण्यं सम्यगिष्टस्य यज्ञहन्|
SP0321412: तदत्र देव भवतु नरस्याभ्यर्च्य सर्वदा|| १४१||
SP0321421: परित्यक्ष्यति यश्चात्र कश्चित्प्राणान्नरोत्तमः|
SP0321422: हरिभद्रस्य स गणो भविष्यति महाबलः|| १४२||
SP0321431: एवमस्त्विति स प्रोच्य मन्दरं चारुकन्दरम्|
SP0321432: जगाम भगवाञ्छर्वः सोमो गणशतैर्वृतः|| १४३||
SP0321441: देवापि राज्ञा सहितास्तस्मिन्स्थाने यथासुखम्|
SP0321442: तस्थुर्ब्रह्मा च विष्णुश्च जग्मतुर्देवपृष्ठतः|| १४४||
SP0321451: स गत्वा स्तोकमध्वानमुभाभ्यां सहितः प्रभुः|
SP0321452: नातिदूरे ततः प्राह तिष्ठ विष्णो महाबल|| १४५||
SP0321461: स प्रणम्य ततः पादौ हरस्य पुरुषोत्तमः|
SP0321462: तस्थावाम्रं समालम्ब्य स कुब्जः समपद्यत|| १४६||
SP0321471: यस्मादाम्रं समालम्ब्य तस्मिन्देशे स्थितो हरिः|
SP0321472: निरीक्षमाणो देवेशं देशस्तस्मादभूदसौ|| १४७||
SP0321481: कुब्जाम्रक इति ख्यातो विष्णोः क्षेत्रं समृद्धिमत्|
SP0321482: पुण्यं निवर्तनान्यष्टौ गोसहस्रफलप्रदम्|| १४८||
SP0321491: नातिदूरं ततो गत्वा भूयो देवः पितामहम्|
SP0321492: निवर्तेत्यब्रवीद्व्यास गगनं च समाविशत्|| १४९||
SP0321501: तस्मिन्वियद्गते देवे ब्रह्मा प्राञ्जलिरुन्मुखः|
SP0321502: प्रदक्षिणं समावृत्य प्रणम्य प्रययौ ततः|| १५०||
SP0321511: यस्मात्तत्र हरं तेन कुर्वता वै प्रदक्षिणम्|
SP0321512: आवर्तः स्वशरीरस्य प्रकृतः पुण्यकर्मणा|
SP0321513: तस्मात्स देशो विख्यातो ब्रह्मावर्तेति शोभनः|| १५१||
SP0321521: अश्वमेधफलं तत्र स्नातः प्राप्नोति मानवः|
SP0321522: साधयित्वा चरुं चात्र भोजयित्वा तथा द्विजम्|
SP0321523: प्राणान्परित्यज्य ततो ब्रह्मलोकमवाप्नुयात्|| १५२||
SP0321531: ततो ऽभ्येत्य सुरैः सार्धं ब्रह्मा विष्णुपुरःसरम्|
SP0321532: भद्रेश्वरे पशुपतेर्महिमानमथाकरोत्|| १५३||
SP0321541: स लिङ्गं तत्र संस्थाप्य पूजां कृत्वातिभास्वराम्|
SP0321542: भद्रकर्णह्रदे स्नात्वा सह देवैर्दिवं ययौ|| १५४||
SP0321551: तं प्रयान्तं तदा दक्षो ब्रह्माणमिदमूचिवान्|
SP0321552: कर्तव्यं किं मया देव मम तद्ब्रूहि पृच्छतः|| १५५||
SP0321560: पितामह उवाच|
SP0321561: प्रसादय महेष्वासं शर्वमुग्रं कपर्दिनम्|
SP0321562: ततो यज्ञसमाप्तिं च लोकांश्च प्राप्स्यसे ऽक्षयान्|| १५६||
SP0321571: स एवमुक्तो देवेन ब्रह्मणा व्यास तत्त्वतः|
SP0321572: लिङ्गं कनखले कृत्वा रुद्रमभ्यर्चयत्तदा|| १५७||
SP0321581: तस्य संवत्सरशते पूर्णे दिव्ये प्रजापतेः|
SP0321582: महादेवो ऽद्रिजां प्राह प्रहसन्गिरिमूर्धनि|| १५८||
SP0321591: प्राचेतसात्मजो देवि स्थितस्तपसि संयतः|
SP0321592: पश्यैनं मद्गतेनेशे चेतसा समवस्थितम्|| १५९||
SP0321601: ततो दृष्ट्वा महादेवी वायुभक्षमवस्थितम्|
SP0321602: लिङ्गं परमया भक्त्या पूजयन्तं महेश्वरम्|| १६०||
SP0321611: उवाच हृषिता देवी देवं सर्वसुरार्चितम्|
SP0321612: कृताञ्जलिपुटा व्यास सर्वदेवपतिं पतिम्|| १६१||
SP0321620: देव्युवाच|
SP0321621: क्षुद्रो ऽयं दुष्टचेताश्च स्तब्धो मानी च दुर्मतिः|
SP0321622: दिष्ट्या त्वया विनिकृतस्त्वामेव शरणं गतः|| १६२||
SP0321631: तदस्य दुष्टभावस्य प्रसन्नस्य महेश्वर|
SP0321632: क्षन्तुमर्हसि भक्तस्य त्वामस्यार्थे प्रसादये|| १६३||
SP0321640: देव उवाच|
SP0321641: त्वमेव देवि यच्छास्मै वरानिष्टान्यथासुखम्|
SP0321642: अनुज्ञाता मया सुभ्रु त्वमेवास्य वरं दिश|| १६४||
SP0321650: सनत्कुमार उवाच|
SP0321651: ततस्तौ देवदेवेशौ संगतौ सगणैर्वृतौ|
SP0321652: ऊचतुः पश्य दक्षावां तुष्टौ दिव्येन चक्षुषा|| १६५||
SP0321661: प्राचेतस महाभाग वरदौ स्व महातपः|
SP0321662: शापशान्त्यर्थमेतत्ते वरं दद्मि तवेप्सितम्|| १६६||
SP0321671: यस्ते यज्ञो गणैर्ध्वस्तः फलं तस्य त्वमाप्नुहि|
SP0321672: कामरूपधरः श्रीमान्गणेशश्च भवस्व मे|| १६७||
SP0321681: अक्षयश्चाव्ययश्चैव दुःखशोकविवर्जितः|
SP0321682: भविष्यसि महाभाग मम चैव समीपगः|| १६८||
SP0321690: देव्युवाच|
SP0321691: वृणुष्व भूयः किं चान्यत्प्रयच्छतु महेश्वरः|
SP0321692: सुदुष्करमपि ह्येष वरं दद्यात्त्वयार्थितः|| १६९||
SP0321700: सनत्कुमार उवाच|
SP0321701: एवमुक्तस्तदा दक्षो हिमवत्सुतया तया|
SP0321702: प्राञ्जलिः प्रणतो भूत्वा इदमाह महाद्युतिः|| १७०||
SP0321710: दक्ष उवाच|
SP0321711: यो देवस्त्रिभुवनजन्मनाशकर्ता यं मूढा न विदुरनुक्तमेकमेव|
SP0321712: भक्तानामशुभहरं पिनाकपाणिं तं देवं शरणगता वयं सभार्यम्|| १७१||
SP0321721: यो ऽज्ञानादसुरतयातिमानमोहान्नास्माभिः सह खलु पूजितो ऽद्रिपुत्र्या|
SP0321722: यः शापं मम रुषितो ददौ सुरेशस्तं देवं शरणगता वयं सभार्यम्|| १७२||
SP0321731: यः स्रष्टा सुरगणयक्षराक्षसानां नागानां दितिसुतदानवेन्द्रनॄणाम्|
SP0321732: भूतानां पशुमृगपक्षिपन्नगानां तं देवं शरणगता वयं सभार्यम्|| १७३||
SP0321741: यः क्रोधान्महदसृजद्गणेश्वरेशं सिंहेन्द्रं हरिममितप्रभावरूपम्|
SP0321742: पत्नीं चाप्यमितगुणप्रभावयुक्तां तं देवं शरणगता वयं सभार्यम्|| १७४||
SP0321751: यो देवान्सहवरुणान्सवित्तगोपान्सब्रह्मान्सशतमखान्सविष्णुवायून्|
SP0321752: इन्द्राग्र्यान्समुनिमहायुधान्विजिग्ये तं देवं शरणगता वयं सभार्यम्|| १७५||
SP0321761: यत्किंचिन्मयि कलुषं कृतं च दुष्टं ह्यज्ञानादपि च हि रागदोषमोहात्|
SP0321762: तत्सर्वं मम सह भार्ययाद्य शर्वो विश्वात्मा क्षमतु महानुभावभावात्|| १७६||
SP0321770: सनत्कुमार उवाच|
SP0321771: तत एवं स देवेशं स्तुत्वा सास्राविलेक्षणः|
SP0321772: प्रसार्य बाहू सर्वेण शरीरेणापतद्भुवि|| १७७||
SP0321781: तं प्रपन्नं तदा देवो दक्षं सास्राविलेक्षणम्|
SP0321782: सह देव्या महाभाग स्वयमुत्थापयद्बली|| १७८||
SP0321791: तस्यास्रूण्यपतन्भूमौ बिन्दुभूतानि तत्र वै|
SP0321792: तानि सम्प्रति विप्रेन्द्र नदी तु समपद्यत|| १७९||
SP0321801: तामुवाच महादेवो नदीं वै पुण्यलक्षणाम्|
SP0321802: अर्जुनादस्रुबिन्दोस्त्वं यस्मादेव विनिःसृता|
SP0321803: तस्मात्ख्याता भवित्री त्वमर्जुना नामतः शुभा|| १८०||
SP0321811: पर्व पर्व समासाद्य वहिष्यसि महायशे|
SP0321812: अश्वमेधफलं चापि त्वयि स्नातो ह्यवाप्स्यति|| १८१||
SP0321821: मृतश्च तव तीरे ऽस्मिन्नियमेनेतरेण वा|
SP0321822: न पुनर्जन्म मानुष्ये दुर्गतिं चोपलप्स्यते|| १८२||
SP0321831: त्रिरात्रोपोषितो यश्च चरुं कृत्वा निवेद्य च|
SP0321832: ब्राह्मणं भोजयेत्स्नातस्त्वयि सो ऽपि गमिष्यति|
SP0321833: गवां लोकं महातेजा न च तस्मात्पतिष्यति|| १८३||
SP0321841: एवं स सृष्ट्वा सरितं कृत्वा चैवाप्यनुग्रहम्|
SP0321842: तमाश्वास्य सुरेशस्तु दक्षं प्राह नृपं तदा|| १८४||
SP0321851: गतं तस्माद्भयं ते ऽस्तु गणेशो मे भव प्रियः|
SP0321852: ब्रूहि किं ते पुनः साधो ददानि वरमीप्सितम्|| १८५||
SP0321860: सनत्कुमार उवाच|
SP0321861: अथ दक्षस्तदोवाच प्रणम्य शुभया गिरा|
SP0321862: भूयो भूयः समाश्वास्य निरीक्ष्य च पुनः पुनः|| १८६||
SP0321870: दक्ष उवाच|
SP0321871: यदि तुष्टो ऽसि मे देव भवत्वत्र तवाव्यय|
SP0321872: स्थानं पुण्यं पवित्रं च वर एषो ऽस्तु मे शिव|| १८७||
SP0321880: देव उवाच|
SP0321881: एते च मुनिकन्ये द्वे तप आस्थाय दुष्करम्|
SP0321882: कणैः संवत्सरे पूर्णे खलेन च यतो ऽशनम्|
SP0321883: कृतवत्यौ महाभागे त्वं च दक्ष यतः स्थितः|| १८८||
SP0321891: इदं कनखलं तस्मान्मम स्थानं भविष्यति|
SP0321892: तीर्थं चैव महत्पुण्यं गङ्गासागरसंमितम्|| १८९||
SP0321901: नात्र पापा न च शठा नास्तिका न च मानिनः|
SP0321902: लप्स्यन्ते वै सदागन्तुं न च वस्तुं कथंचन|
SP0321903: मृतो ऽत्र न पुनर्जन्म लप्स्यते मम तेजसा|| १९०||
SP0321911: अत्राभिगम्य स्नात्वा च चरुं कृत्वा तथैव व|
SP0321912: सर्वपापविनिर्मुक्तः शक्रलोके महीयते|| १९१||
SP0321921: ततो गणपतिं तत्र हरिभद्रमयोजयत्|
SP0321922: कालीं चास्मै ददौ प्रीतो भार्यां सर्वगुणोदिताम्|| १९२||
SP0321931: वरांश्च विपुलान्दिव्यान्द्वीपं चापि घृतोदकम्|
SP0321932: बाहुजेभ्यश्च सुबहून्गणेभ्यः प्रददौ वरान्|| १९३||
SP0321940: सनत्कुमार उवाच|
SP0321941: एवं स दक्षयज्ञो वै विध्वस्तो व्यास शम्भुना|
SP0321942: यज्ञस्य च शिरश्छिन्नं यथैतत्कथितं तव|| १९४||
SP0321950: व्यास उवाच|
SP0321951: सा देवीमुखजा दिव्या घोरा देवभयंकरी|
SP0321952: क्व वा गता कथं वापि ह्येतदिच्छामि वेदितुम्|| १९५||
SP0321960: सनत्कुमार उवाच|
SP0321961: स्तुता यदा भगवती प्रणतैः सुरसत्तमैः|
SP0321962: तदास्यजाम्बिकां प्राह ब्रूहि किं करवाण्यहम्|| १९६||
SP0321971: ततो ब्रह्मा महादेवीं प्रणम्य बहुमानतः|
SP0321972: उवाच दुहितृत्वे मे भवत्वेषा सुरेश्वरि|| १९७||
SP0321981: एवमस्त्वित्युमा प्रोच्य तां देवीं प्रददौ सुताम्|
SP0321982: मृत्युस्त्वमिति सो ऽप्युक्त्वा घोरे कर्मण्ययोजयत्|
SP0321983: सर्वप्राणभृतां देवीं प्राणापहरणे शुभाम्|| १९८||
SP0321991: सापि तत्कार्यकरणे नियुक्ता ब्रह्मणा स्वयम्|
SP0321992: † उद्ववाह सदेवेशा सदोद्युक्ता त्वया मया†|| १९९||
SP0322001: - - - - - - - - - - - - - - - -|
SP0322002: - - - - - - - - - - - - - - - -|| २००||
SP0322011: य इमं दक्षयज्ञस्य विध्वंसनमनुत्तमम्|
SP0322012: भद्रेश्वरप्रतिष्ठां च दक्षानुग्रहमेव च|| २०१||
SP0322021: पठेत शृणुयाद्वापि श्रावयीत द्विजानपि|
SP0322022: सर्वपापविनिर्मुक्तः स्वर्गलोके महीयते|| २०२||
SP0322031: भगनयननिपातं दक्षयज्ञे दवाग्निं
SP0322032: मदनपुरहुताशं चन्द्रलेखोज्ज्वलाङ्गम्|
SP0322033: सुरगुरुमुखकालं सप्तलोकाधिपालं
SP0322034: शरणमुपगतो ऽहं शंकरं शर्महेतोः|| २०३||
SP0329999: इति स्कन्दपुराणे द्वात्रिंशो ऽध्यायः||