००६

Skandapurāṇa Adhyāya 6

E-text generated on February 22, 2017 from the original TeX files of: Adriaensen, R., H.T. Bakker and H. Isaacson, eds. The Skandapurāṇa. Vol. I. Adhyāyas 1-25. Critically Edited with Prolegomena and English Synopsis. Groningen: Egbert Forsten, 1998.

SP0060010: सनत्कुमार उवाच।
SP0060011: ततः स भगवान्देवः कपर्दी नीललोहितः।
SP0060012: आज्ञया परमेशस्य जग्राह ब्रह्मणः शिरः॥ १॥
SP0060021: तद्गृहीत्वा शिरो दीप्तं रूपं विकृतमास्थितः।
SP0060022: योगक्रीडां समास्थाय भैक्षाय प्रचचार ह॥ २॥
SP0060031: स देववेश्मनि तदा भिक्षार्थमगमद्द्विजाः।
SP0060032: न चास्य कश्चित्तां भिक्षामनुरूपामदाद्विभोः॥ ३॥
SP0060041: अभ्यगात्संक्रमेणैव वेश्म विष्णोर्महात्मनः।
SP0060042: तस्यातिष्ठत स द्वारि भिक्षामुच्चारयञ्छुभाम्॥ ४॥
SP0060051: स दृष्ट्वा तदुपस्थं तु विष्णुर्वै योगचक्षुषा।
SP0060052: शिरां ललाटात्सम्भिद्य रक्तधारामपातयत्।
SP0060053: पपात सा च विस्तीर्णा योजनार्धशतं तदा॥ ५॥
SP0060061: तया पतन्त्या विप्रेन्द्रा बहून्यब्दानि धारया।
SP0060062: पितामहकपालस्य नार्धमप्यभिपूरितम्।
SP0060063: तमुवाच ततो देवः प्रहस्य वचनं शुभम्॥ ६॥
SP0060071: सकृत्कन्याः प्रदीयन्ते सकृदग्निश्च जायते।
SP0060072: सकृद्राजानो ब्रुवते सकृद्भिक्षा प्रदीयते॥ ७॥
SP0060081: तुष्टो ऽस्मि तव दानेन युक्तेनानेन मानद।
SP0060082: वरं वरय भद्रं ते वरदो ऽस्मि तवाद्य वै॥ ८॥
SP0060090: विष्णुरुवाच।
SP0060091: एष एव वरः श्लाघ्यो यदहं देवताधिपम्।
SP0060092: पश्यामि शंकरं देवमुग्रं शर्वं कपर्दिनम्॥ ९॥
SP0060101: देवश्छायां ततो वीक्ष्य कपालस्थे तदा रसे।
SP0060102: ससर्ज पुरुषं दीप्तं विष्णोः सदृशमूर्जितम्॥ १०॥
SP0060111: तमाहाथाक्षयश्चासि अजरामर एव च।
SP0060112: युद्धेषु चाप्रतिद्वन्द्वी सखा विष्णोरनुत्तमः।
SP0060113: देवकार्यकरः श्रीमान्सहानेन चरस्व च॥ ११॥
SP0060121: नारासु जन्म यस्मात्ते विष्णुदेहोद्भवासु च।
SP0060122: नरस्तस्माद्धि नाम्ना त्वं प्रियश्चास्य भविष्यसि॥ १२॥
SP0060130: वायुरुवाच।
SP0060131: तं तदाश्वास्य निक्षिप्य नरं विष्णोः स्वयं प्रभुः।
SP0060132: अगमद्ब्रह्मसदनं तौ चाविविशतुर्गृहम्॥ १३॥
SP0060141: य इदं नरजन्मेह शृणुयाद्वा पठेत वा।
SP0060142: स कीर्त्या परया युक्तो विष्णुलोके महीयते॥ १४॥
SP0069999: इति स्कन्दपुराणे षष्ठो ऽध्यायः॥