भक्तिस्तोत्रम्
विश्वास-प्रस्तुतिः - १
प्रत्यक्षवस्तुविषयाय जगद्धिताय
विश्वस्थितिप्रलयसम्भवकारणाय ।
सर्वात्मने विजितकोपमनोभवाय
तुभ्यं नमस्त्रिभुवनप्रभवे शिवाय ॥ १॥
मूलम् - १
प्रत्यक्षवस्तुविषयाय जगद्धिताय
विश्वस्थितिप्रलयसम्भवकारणाय ।
सर्वात्मने विजितकोपमनोभवाय
तुभ्यं नमस्त्रिभुवनप्रभवे शिवाय ॥ १॥
हिन्दी - १
जगत् की समस्त प्रत्यक्ष वस्तुएं जिनका विषय हैं, संसार
का हित करने वाले, जगत् की स्थिति, प्रलय और उत्पत्ति के
कारणभूत, सर्वात्मक, काम और क्रोध को जीत लेने वाले,
त्रिभुवन के स्वामी शिव को मैं नमस्कार करता हूँ ॥ १॥
विश्वास-प्रस्तुतिः - २
सत्यं न वेद्मि किमहं यदगोचरोऽसि
वाचस्पतेरपि गिरां किमुतास्मदादेः ।
भक्तिस्तथापि भवतो गुणकीर्तनेषु
यन्मां नियोजयति किं तदहं करोमि ॥ २॥
मूलम् - २
सत्यं न वेद्मि किमहं यदगोचरोऽसि
वाचस्पतेरपि गिरां किमुतास्मदादेः ।
भक्तिस्तथापि भवतो गुणकीर्तनेषु
यन्मां नियोजयति किं तदहं करोमि ॥ २॥
हिन्दी - २
क्या मैं यह नहीं जानता कि आप वाचस्पति की वाणी के भी अगोचर
हैं, अर्थात् यह बात सत्य है कि बृहस्पति की वाणी भी आपके
गुणगान मे असमर्थ हो जाती है । ऐसी परिस्थिति मे भी मेरी
अनुरागात्मिका भक्ति आपकी गुणावली के वर्णन के लिये मुझे प्रेरित
कर रही है, तो मैं क्या करूं ? अभिप्राय यह है कि आपकी
भक्ति ने बलात् मुझे इस स्तुति की रचना मे लगा दिया है ॥ २॥
विश्वास-प्रस्तुतिः - ३
रवार्केन्दुवह्निमरुदात्ममहीपयोधि-
रष्टाभिरेव तनुभिर्भवता समस्ते ।
व्याप्ते जगत्यपरमिच्छति योऽत्र वक्तुं
कोऽन्यो हतत्रपतया सदृशोऽस्ति तेन ॥ ३॥
मूलम् - ३
रवार्केन्दुवह्निमरुदात्ममहीपयोधि-
रष्टाभिरेव तनुभिर्भवता समस्ते ।
व्याप्ते जगत्यपरमिच्छति योऽत्र वक्तुं
कोऽन्यो हतत्रपतया सदृशोऽस्ति तेन ॥ ३॥
हिन्दी - ३
आकाश, सूर्य, चन्द्र, वह्नि, वायु, आत्मा, पृथ्वी तथा
समुद्र ये आठ आपकी मूर्तियां हैं । आपकी इन मूर्तियों से सारा जगत्
व्याप्त है । इतना जान लेने पर भी यदि कोई किसी अन्य देवता की
स्तुति करता है तो उससे बढ़कर निर्लज्ज और कौन होगा ? ॥ ३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः - ४
धृत्यादिभिः स्वतनुवृत्तिभिरेव यद्वद्
एको भवान् वहति संप्रति लोकमात्राम् ।
तद्वद् विभो यदि जगत्यपरोऽस्ति कश्चि-
न्निर्मत्सराः किमिति न प्रवदन्ति सन्तः ॥ ४॥
मूलम् - ४
धृत्यादिभिः स्वतनुवृत्तिभिरेव यद्वद्
एको भवान् वहति संप्रति लोकमात्राम् ।
तद्वद् विभो यदि जगत्यपरोऽस्ति कश्चि-
न्निर्मत्सराः किमिति न प्रवदन्ति सन्तः ॥ ४॥
हिन्दी - ४
धृति आदि अपने शरीर की वृत्तियों से ही जिस प्रकार आप अकेले
आजकल पूरे जगत् के योगक्षेम का भार वहन कर रहे है,
हे विभो! यदि उस प्रकार का कार्य सम्पन्न करने वाला जगत् में
कोई और भी है तो मात्सर्य रहित सज्जन लोग इस विषय मे क्यों
कुछ नहीं कहते ? ॥ ४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः - ५
योगादपास्ततमसो भुवनत्रयेऽपि
मुख्या पितामहपुरन्दरविष्णवोऽपि ।
अद्यापि देव न विदन्ति कृतप्रयत्ना-
स्तत्वं तवेति तदहो महदिन्द्रजालम् ॥ ५॥
मूलम् - ५
योगादपास्ततमसो भुवनत्रयेऽपि
मुख्या पितामहपुरन्दरविष्णवोऽपि ।
अद्यापि देव न विदन्ति कृतप्रयत्ना-
स्तत्वं तवेति तदहो महदिन्द्रजालम् ॥ ५॥
हिन्दी - ५
योग द्वारा अपने अज्ञानान्धकार को दूर करने वाले, त्रिलोकी
में प्रमुख स्थान रखने वाले ब्रह्मा, इन्द्र तथा विष्णु भी
यत्न करने पर भी आज तक आपके तत्त्व को नहीं जान सके ।
क्या यह एक बड़ा भारी इन्द्र जाल नहीं है ? ॥ ५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः - ६
भावोद्भवस्थितिविपत्करणप्रवृत्तौ
संज्ञा विभिन्नरचनास्त्वयि सम्भवन्ति ।
साम्ये स्थितः प्रतिनिवृत्तसमस्तकार्यो
नेन्द्रो न विष्णुरसि नापि पितामहोऽसि ॥ ६॥
मूलम् - ६
भावोद्भवस्थितिविपत्करणप्रवृत्तौ
संज्ञा विभिन्नरचनास्त्वयि सम्भवन्ति ।
साम्ये स्थितः प्रतिनिवृत्तसमस्तकार्यो
नेन्द्रो न विष्णुरसि नापि पितामहोऽसि ॥ ६॥
हिन्दी - ६
भाव जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और संहार करने में प्रवृत्त
होने पर उन उन कार्यों के अनुरूप आपके अनेक नाम हो जाते हैं ।
इसी प्रकार आपके समस्त कार्यप्रपञ्च को समेट कर साम्यावस्था
में अवस्थित होने पर न तो आप इन्द्र हैं, न विष्णु और न पितामह
ही । अर्थात् आपके साम्यावस्था में अवस्थित हो जाने पर इन संज्ञाओं
की कोई स्थिति नहीं रह जाती ॥ ६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः - ७
केचिद् भवन्तमनुपाधिमनामरूपं
विज्ञानमेव परमार्थतया प्रपन्नाः ।
अन्ये त्रिधातुपरिकल्पनया विशुद्ध-
मूचुः स्वशास्त्रसमयं परिपालयन्तः ॥ ७॥
मूलम् - ७
केचिद् भवन्तमनुपाधिमनामरूपं
विज्ञानमेव परमार्थतया प्रपन्नाः ।
अन्ये त्रिधातुपरिकल्पनया विशुद्ध-
मूचुः स्वशास्त्रसमयं परिपालयन्तः ॥ ७॥
हिन्दी - ७
विज्ञानवादी बौद्ध दार्शनिक आपको उपाधि से विनिर्मुक्त, नाम
और रूप से रहित परमार्थतः विज्ञान स्वरूप ही मानते हैं ।
दूसरे वैभाषिक बौद्ध अपने दर्शन की मर्यादा को स्वीकार
करते हुए आपको त्रिधातु (काय, रूप और आरूप्य) की परिकल्पना
से विशुद्ध मानते हैं ॥ ७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः - ८
साङ्ख्यैः समस्तजगदुद्भवकारणानि
प्रोक्तानि यानि खलु सत्त्वरजस्तमांसि ।
रूपाणि तान्यपि तवैव समग्रशक्तेः
किं तन्न यत् परिगतं भुवि शक्तिभिस्ते ॥ ८॥
मूलम् - ८
साङ्ख्यैः समस्तजगदुद्भवकारणानि
प्रोक्तानि यानि खलु सत्त्वरजस्तमांसि ।
रूपाणि तान्यपि तवैव समग्रशक्तेः
किं तन्न यत् परिगतं भुवि शक्तिभिस्ते ॥ ८॥
हिन्दी - ८
सांख्यदर्शन में सत्त्व, रज और तम इन तीन गुणों को
समस्त जगत् की उत्पत्ति का कारण माना गया है । आप समस्त
शक्तियों के अधिष्ठाता हैं । ये तीन गुण भी आपकी इन शक्तियों
के ही विलास हैं । इस संसार मे ऐसी कौन सी वस्तु है, जो कि
आपकी इन शक्तियों से व्याप्त नहीं है ? ॥ ८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः - ९
नित्यं विनाशि यदरूपमनेकमेक-
मुग्रं प्रशान्तमगुणं गुणसन्निविष्टम् ।
संसारिणं वशिनमध्रुवमस्वतन्त्रं
देवं भवन्तमसकृत् कवयः स्तुवन्ति ॥ ९॥
मूलम् - ९
नित्यं विनाशि यदरूपमनेकमेक-
मुग्रं प्रशान्तमगुणं गुणसन्निविष्टम् ।
संसारिणं वशिनमध्रुवमस्वतन्त्रं
देवं भवन्तमसकृत् कवयः स्तुवन्ति ॥ ९॥
हिन्दी - ९
कविगण नित्य होने पर भी विनाशी, रूप रहित होने पर भी अनेक
तथा एक, प्रचण्ड एवं सौम्य रूपधारी, गुण रहित होने पर भी सभी
गुणों से मुक्त, संसारी होने पर भी संयमशील, साथ ही अस्थिर
और पराधीन इस प्रकार परस्पर विरोधी गुणों से युक्त मान कर
आपकी स्तुति करते हैं ॥ ९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः - १०
वाचामतीतविषयो निरुपाख्यभावात्
प्रोक्तोऽसि शून्यमिति कैश्चिदसत्प्रतिज्ञैः ।
त्वामेव केचिदपि वाचकवाच्ययोगात्
सन्तं विशेषणवशात् परिकल्पयन्ति ॥ १०॥
मूलम् - १०
वाचामतीतविषयो निरुपाख्यभावात्
प्रोक्तोऽसि शून्यमिति कैश्चिदसत्प्रतिज्ञैः ।
त्वामेव केचिदपि वाचकवाच्ययोगात्
सन्तं विशेषणवशात् परिकल्पयन्ति ॥ १०॥
हिन्दी - १०
आख्या से रहित होने के कारण आप वाणी के विषय से अतीत हैं,
अर्थात् नाम और रूप से रहित होने के कारण आपके विषय में वाणी
प्रवृत्त नहीं हो सकती, इसलिये कुछ अपसिद्धान्ती दार्शनिक
आपको शून्य अर्थात् अभावात्मक मानते हैं । इसके विपरीत कुछ
दार्शनिक ऐसे भी हैं, जो कि वाचक और वाच्य के योग से
अथवा विशेषण के बल से आपको सत् रूप में ही स्वीकार करते
हैं ॥ १०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः - ११
आद्यन्तयोस्त्रिभुवनस्य भवन्तमेव
यं वैदिकाः पुरुषमाहुरभेद्यमाद्यम् ।
भयस्तमेव जननप्रलयान्तराले
संसारजालमिति जातविकारमूचुः ॥ ११॥
मूलम् - ११
आद्यन्तयोस्त्रिभुवनस्य भवन्तमेव
यं वैदिकाः पुरुषमाहुरभेद्यमाद्यम् ।
भयस्तमेव जननप्रलयान्तराले
संसारजालमिति जातविकारमूचुः ॥ ११॥
हिन्दी - ११
इस संसार की आद्यावस्था और अन्तिमावस्था मे अर्थात् सृष्टि
के आरम्भ होने के पूर्व की तथा संहार हो जाने के बाद की अवस्था
में वैदिक गण आपको ही निर्विकार आदि पुरुष मानते हैं । इसी
प्रकार सृष्टि और प्रलय के बीच के काल में उसमें विकार
उत्पन्न हो जाने के कारण उस आदिपुरुष को ही संसार जाल के नाम
से अभिहित करते हैं ॥ ११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः - १२
आत्मानमात्मनि यदा स्वयमात्मनैव
संयम्य तिष्ठसि निमीलितसर्वशक्ते!।
लीनं तदा त्वयि जगत् खलु तावदास्ते
यावत् तवोद्भवति नाथ पुनः सिसृक्षा ॥ १२॥
मूलम् - १२
आत्मानमात्मनि यदा स्वयमात्मनैव
संयम्य तिष्ठसि निमीलितसर्वशक्ते!।
लीनं तदा त्वयि जगत् खलु तावदास्ते
यावत् तवोद्भवति नाथ पुनः सिसृक्षा ॥ १२॥
हिन्दी - १२
अपनी समस्त शक्तियों को अपने में ही अन्तर्हित करने वाले हे
प्रभो! जब आप स्वयं अपने को, अपने में नियन्त्रित कर लेते
हैं तो यह संसार तब तक आप में लीन रहता है, जब तक कि
आपकी पुनः सृष्टि करने की इच्छा उत्पन्न नहीं हो जाती ॥ १२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः - १३
त्वत्तः परं जगति नाथ न चास्ति किञ्चि-
न्नाणुः क्वचिन्न च महान् भवतः सकाशात् ।
सर्वात्मकोऽसि भवतैव समस्तमेत-
दन्तः कृतं ननु जगन्मणिनेव सूत्रम् ॥ १३॥
मूलम् - १३
त्वत्तः परं जगति नाथ न चास्ति किञ्चि-
न्नाणुः क्वचिन्न च महान् भवतः सकाशात् ।
सर्वात्मकोऽसि भवतैव समस्तमेत-
दन्तः कृतं ननु जगन्मणिनेव सूत्रम् ॥ १३॥
हिन्दी - १३
हे नाथ! इस संसार मे आपसे उत्कृष्ट और कोई भी वस्तु नहीं
है । कोई भी वस्तु न तो आपसे अधिक सूक्ष्म है और न महान् ही ।
आप सर्वात्मक हैं । मणि जैसे सूत्र को अपने में छिपा लेती है, उसी
भांति इस सारे जगत् को आप अपने स्वरूप मे छिपाये हुए हैं ॥ १३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः - १४
चेतांसि यानि सुखदुःखविशेषभाञ्जि
ये च प्रधानपरिणामविकारभेदाः ।
त्वं देव जन्मनि पुनः प्रलये च तेषां
हेतुः समस्तपयसामिव तोयराशिः ॥ १४॥
मूलम् - १४
चेतांसि यानि सुखदुःखविशेषभाञ्जि
ये च प्रधानपरिणामविकारभेदाः ।
त्वं देव जन्मनि पुनः प्रलये च तेषां
हेतुः समस्तपयसामिव तोयराशिः ॥ १४॥
हिन्दी - १४
हे देव! समुद्र से ही जैसे सभी प्रकार के जल विकारों की
उत्पत्ति होती है और अन्त में वे सब उसी में लीन हो जाते हैं,
उसी भांति आप नाना प्रकार के सुख और दुःख के विशेष भाजन
चित्तों के तथा प्रधान (प्रकृति) के परिणाम से आविर्भूत होने
वाले विविध विकारों की उत्पत्ति और नाश के कारण हैं ॥ १४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः - १५
अस्तास्त्वया सुरगुरो! स्वतनौ यदैव
स्वात्मानलानिलजलावनिचन्द्रसूर्याः ।
लोकेऽपरस्य भवता ननु कारणस्य
मूले तदैव निहितः सकले कुठारः ॥ १५॥
मूलम् - १५
अस्तास्त्वया सुरगुरो! स्वतनौ यदैव
स्वात्मानलानिलजलावनिचन्द्रसूर्याः ।
लोकेऽपरस्य भवता ननु कारणस्य
मूले तदैव निहितः सकले कुठारः ॥ १५॥
हिन्दी - १५
हे देवगुरो! जब आपने अपने अष्ट मूर्ति शिव रूप में आकाश,
आत्मा, तेज, वायु, जल पृथिवी, चन्द्र और सूर्य को
अन्तर्हित कर लिया, तभी आपने अपने से भिन्न, अन्य दर्शनों
के द्वारा स्वीकृत, अन्य कारणों के मूल में कुठाराघात कर
दिया, अर्थात् अपने अष्ट मूर्ति शिव रूप से ही आप इस जगत् की
सृप्टि करते हैं । आपसे भिन्न इस जगत् का और कोई कारण
नहीं है ॥ १५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः - १६
स्तौति प्रसह्य तव षोडशधा विभज्य
मूर्तिं प्रमाणरचनो मुनिरक्षपादः ।
द्रव्यादिवस्तुरचनाभिरुपात्तभेदै-
र्वैशेषिके कणभुजाऽपि ननु स्तुतोऽसि ॥ १६॥
मूलम् - १६
स्तौति प्रसह्य तव षोडशधा विभज्य
मूर्तिं प्रमाणरचनो मुनिरक्षपादः ।
द्रव्यादिवस्तुरचनाभिरुपात्तभेदै-
र्वैशेषिके कणभुजाऽपि ननु स्तुतोऽसि ॥ १६॥
हिन्दी - १६
प्रमाण शास्त्र न्यायदर्शन के रचयिता अक्षपाद मुनि गौतम आपकी
मूर्ति का प्रमाण, प्रमेय आदि सोलह पदार्थों में जबरदस्ती विभाग
कर के उसकी स्तुति करते हैं । वैशेषिक दर्शन के रचयिता
कणाद मुनि ने भी द्रव्य, गुण आदि सात पदार्थों में आपकी मूर्ति का
विभाग कर उसकी स्तुति की है । अभिप्राय यह है कि न्यायदर्शनकार
ने प्रमाण, प्रमेय आदि सोलह पदार्थों के तत्त्वज्ञान को और कणाद
मुनि ने द्रव्य, गुण आदि सात पदार्थों के तत्त्वज्ञान को मोक्ष का
कारण माना है, वह सब केवल उनके बुद्धि विकास का द्योतक हैं,
वस्तुतः आपके स्वरूप से भिन्न उनकी कोई सत्ता नहीं है ॥ १६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः - १७
बध्नाति काचिदपि शक्तिरनन्तशक्तेः
क्षेत्रज्ञमप्रतिहता तव पाशजालैः ।
ज्ञानासिना च विनिकृत्य गुणानशेषा-
नन्या करोत्यभिमुखं पुरुषं विमुक्तौ ॥ १७॥
मूलम् - १७
बध्नाति काचिदपि शक्तिरनन्तशक्तेः
क्षेत्रज्ञमप्रतिहता तव पाशजालैः ।
ज्ञानासिना च विनिकृत्य गुणानशेषा-
नन्या करोत्यभिमुखं पुरुषं विमुक्तौ ॥ १७॥
हिन्दी - १७
अनन्त शक्तियों से सम्पन्न आपकी एक शक्ति (अज्ञान) ऐसी है,
जो कि यदि दूर नहीं की जाती है तो क्षेत्रज्ञ जीव को संसार
रूपी पाश जाल से बांध लेती है । आपकी एक दूसरी शक्ति भी है,
जिसकी सहायता से ज्ञान रूपी तलवार से सम्पूर्णं सांसारिक गुणों
का उच्छेद कर जीव को मुक्ति की ओर उन्मुख किया जाता है ॥ १७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः - १८
एकां बत च्युतसमस्तभवप्रवृत्ति-
माहुर्विमुक्तिमिति शान्ततमामवस्थाम् ।
स्थित्युद्भवप्रलयिनीमपरामवस्थां
संसारिणीमिति वदन्ति तवैव सन्तः ॥ १८॥
मूलम् - १८
एकां बत च्युतसमस्तभवप्रवृत्ति-
माहुर्विमुक्तिमिति शान्ततमामवस्थाम् ।
स्थित्युद्भवप्रलयिनीमपरामवस्थां
संसारिणीमिति वदन्ति तवैव सन्तः ॥ १८॥
हिन्दी - १८
साधुजन आपकी ही एक शान्ततम अवस्था को, जिसमें सभी
सांसारिक प्रवृत्तियां निःशेष हो चुकी रहती हैं, विमुक्ति की
संज्ञा देते हैं और दूसरी अवस्था को, जिसमें सृष्टि, स्थिति,
संहार रूपी कार्य चलता रहता है, संसारिणी अर्थात् बन्धावस्था
कहते हैं ॥ १८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः - १९
अज्ञानतीव्रतिमिरोपहतप्रकाशा-
स्त्वद्दूषणं प्रति विनष्टधियोऽपि सन्तः ।
तावत् त्यजन्ति न भवं भगवन्स्त्वयैव
यावत् स्वशक्तिविभवैर्न विबोधिताः स्युः ॥ १९॥
मूलम् - १९
अज्ञानतीव्रतिमिरोपहतप्रकाशा-
स्त्वद्दूषणं प्रति विनष्टधियोऽपि सन्तः ।
तावत् त्यजन्ति न भवं भगवन्स्त्वयैव
यावत् स्वशक्तिविभवैर्न विबोधिताः स्युः ॥ १९॥
हिन्दी - १९
हे भगवन्! तीव्र अज्ञान रूपी अन्धकार से जिनका ज्ञान रूपी
प्रकाश नष्ट हो चुका है, ज्ञान रूपी प्रकाश के नष्ट हो
जाने से जो विनष्ट बुद्धि जन आपको दोष दृष्टि से ही देखते
रहते हैं, वे भी तब तक संसार को नहीं छोड़ पाते, जब
तक आप उनको अपनी अनुग्रह शक्ति के बल से जगा नहीं देते ।
अर्थात् यह आपकी ही विशेषता है कि आपके प्रति दोषदृष्टि
रखने वाले प्राणियों पर भी आप अनुग्रह करते हैं ॥ १९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः - २०
गुह्यं गुहाश्रयमजं परमं पवित्र-
मेकं विभुं सकलवाङ्मयबीजमाद्यम् ।
सम्यक्प्रयुक्तमभिवाञ्छितहेतुभूत-
माहुर्भवन्तमपरे ननु शब्दतत्वम् ॥ २०॥
मूलम् - २०
गुह्यं गुहाश्रयमजं परमं पवित्र-
मेकं विभुं सकलवाङ्मयबीजमाद्यम् ।
सम्यक्प्रयुक्तमभिवाञ्छितहेतुभूत-
माहुर्भवन्तमपरे ननु शब्दतत्वम् ॥ २०॥
हिन्दी - २०
वैयाकरण गण आपको गुह्य, गुहाश्रय, अज, परम पवित्र,
एक, विभु, सकल शास्त्रों के आदि कारण, विधि पूर्वक
प्रयुक्त होने पर अभीष्ट फल को देने वाले शब्द तत्त्व के
रूप में स्वीकार करते हैं ॥ २०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः - २१
तीर्थक्रियाव्यसनिनः स्वमनीषिकाभि-
रुत्प्रेक्ष्य तत्त्वमिति यद्यदमी वदन्ति ।
तत्तत् त्वमेव भवतोऽस्ति न किञ्चिदन्यत्
संज्ञासु केवलमयं विदुषां विवादः ॥ २१॥
मूलम् - २१
तीर्थक्रियाव्यसनिनः स्वमनीषिकाभि-
रुत्प्रेक्ष्य तत्त्वमिति यद्यदमी वदन्ति ।
तत्तत् त्वमेव भवतोऽस्ति न किञ्चिदन्यत्
संज्ञासु केवलमयं विदुषां विवादः ॥ २१॥
हिन्दी - २१
नाना शास्त्रों के रचयिता मनीषी गण अपनी-अपनी बुद्धि के अनुसार
कल्पना करके तत्त्वों की नाना प्रकार की व्याख्या करते हैं । इन
विद्वानों ने जो कुछ भी प्रतिपादित किया है, वह सब आपका ही
स्वरूप है, आपसे भिन्न और कुछ भी नहीं है । विद्वज्जनों का
यह विवाद केवल नाम को लेकर है । अर्थात् नाना शास्त्रों में
जो कुछ भी प्रतिपादित है, उसमें मूलतत्त्व के नाम-भेद के
सिवाय और कुछ भी भेद नहीं है ॥ २१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः - २२
सर्वज्ञबीजमविकारमलुप्तशक्तिं
निश्रेयसाभ्युदयमार्गविधानहेतुम् ।
त्वामेव देव! गुरवः प्रथमेऽपि सम्य-
गाराध्य तीर्थकरभा महिमानमापुः ॥ २२॥
मूलम् - २२
सर्वज्ञबीजमविकारमलुप्तशक्तिं
निश्रेयसाभ्युदयमार्गविधानहेतुम् ।
त्वामेव देव! गुरवः प्रथमेऽपि सम्य-
गाराध्य तीर्थकरभा महिमानमापुः ॥ २२॥
हिन्दी - २२
हे देव! आप सर्वज्ञता के बीज हैं, अविकारी हैं, आप नित्य
उद्यतशक्तिमान् हैं, निःश्रेयस् तथा अभ्युदय (श्रेयस् तथा
प्रेयस् लौकिक तथा पारलौकिक) मार्ग के प्रवर्तन के मूल कारण
हैं । हमारे पूर्व गुरुजनों ने आपकी ही उपासना करके नाना शास्त्रों
की रचना करने का सामर्थ्य प्राप्त कर अपनी महिमा स्थापित
की है ॥ २२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः - २३
सर्वज्ञता यदपि लक्षणया परस्य
मुख्या तथापि भवतः परमेश्वरत्वात् ।
स्वातन्त्र्यमप्यनुपचारमुपैति योगं
त्वय्येव नाथ जगतः खलु कर्तृभावात् ॥ २३॥
मूलम् - २३
सर्वज्ञता यदपि लक्षणया परस्य
मुख्या तथापि भवतः परमेश्वरत्वात् ।
स्वातन्त्र्यमप्यनुपचारमुपैति योगं
त्वय्येव नाथ जगतः खलु कर्तृभावात् ॥ २३॥
हिन्दी - २३
यद्यपि अन्यत्र भी सर्वज्ञता का उपचार से प्रयोग होता है,
उसका मुख्य प्रयोग आप में ही अन्वित है, क्योंकि ऐश्वर्य की
पराकाष्ठा आप में ही है । हे नाथ! आप ही जगत् के कर्ता हैं,
इसलिये अनुपधिक स्वातन्त्र्य भी आप में ही विद्यमान है ॥ २३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः - २४
दृश्येत कश्चिदधिगच्छति वस्तुजात-
मन्योऽनुमानसमयैरपरोऽपि शब्दैः ।
प्रत्यक्षवत्तु भवतः पुनरक्रमेण
सर्वं करामलकवद्विदितं प्रमेयम् ॥ २४॥
मूलम् - २४
दृश्येत कश्चिदधिगच्छति वस्तुजात-
मन्योऽनुमानसमयैरपरोऽपि शब्दैः ।
प्रत्यक्षवत्तु भवतः पुनरक्रमेण
सर्वं करामलकवद्विदितं प्रमेयम् ॥ २४॥
हिन्दी - २४
कोई व्यक्ति दृश्य अर्थात् प्रत्यक्ष प्रमाण से वस्तुओं को
जानता है, दूसरा अनुमान की पद्धति से और तीसरा शब्द प्रमाण
के द्वारा । इसके विपरीत आपको तो बिना किसी क्रम के ही अपने
हाथ मे रखे हुए आंवले के समान समस्त प्रमेय प्रत्यक्ष
रूप से ही सदा भासित होते हैं । अर्थात् हाथ मे रखे हुए
आंवले का जिस प्रकार सभी प्राणियों को प्रत्यक्ष अनुभव होता
है, उसी भांति संसार के समस्त पदार्थ सदा विना क्रम के अपने
सामने प्रत्यक्ष रूप से उपस्थित रहते हैं ॥ २४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः - २५
अस्यात्मनो विषयिणः परतन्त्रवृत्ते-
रस्याश्च नाथ जगतः प्रकृते परायाः ।
संयोजने च विरतौ च परोऽसि हेतुः
संसारचक्रपरिवर्तनयन्त्रवाहः ॥ २५॥
मूलम् - २५
अस्यात्मनो विषयिणः परतन्त्रवृत्ते-
रस्याश्च नाथ जगतः प्रकृते परायाः ।
संयोजने च विरतौ च परोऽसि हेतुः
संसारचक्रपरिवर्तनयन्त्रवाहः ॥ २५॥
हिन्दी - २५
हे नाथ! पराधीन वृत्तिवाले इस विषयी जीवात्मा के साथ जगत्
की इस परा प्रकृति के संयोग और वियोग में आप ही मूल कारण
हैं । इस संसार चक्र में परिवर्तन का जो यन्त्र चलता है,
उसको चलाने वाले आप ही हैं ॥ २५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः - २६
कुर्वन् मुहुः स्वयमतन्द्रितयाऽपि बुद्ध्या
कर्माणि शास्त्रसमयोपनिबन्धनानि ।
संयुज्यते समुचितेन तु यत्फलेन
तच्चेष्टितस्य फलमप्रतिमं तवैव ॥ २६॥
मूलम् - २६
कुर्वन् मुहुः स्वयमतन्द्रितयाऽपि बुद्ध्या
कर्माणि शास्त्रसमयोपनिबन्धनानि ।
संयुज्यते समुचितेन तु यत्फलेन
तच्चेष्टितस्य फलमप्रतिमं तवैव ॥ २६॥
हिन्दी - २६
मनुष्य स्वयं प्रमाद रहित बुद्धि से शास्त्रों मे वर्णित नियमों
के अनुसार निरन्तर कर्म करता रहता है, उसको अपने कर्मों
के समुचित फल की अधिगति होती है, किन्तु यह तभी सम्भव
होता है, जब कि आपकी अनोखी कृपा उस पर हो जाय ॥ २६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः - २७
उत्साहशक्तिरहितान् विकलानपुण्यान्
मन्दान् निरस्तसमयानघृणानसत्यान् ।
आवाञ्छितेन विनियोजयता फलेन
लुप्तस्त्वया पुरुषकारविशेषवादः ॥ २७॥
मूलम् - २७
उत्साहशक्तिरहितान् विकलानपुण्यान्
मन्दान् निरस्तसमयानघृणानसत्यान् ।
आवाञ्छितेन विनियोजयता फलेन
लुप्तस्त्वया पुरुषकारविशेषवादः ॥ २७॥
हिन्दी - २७
उत्साह शक्ति से रहित, आतुर, पापात्मा, मन्दमति, मर्यादा
का पालन न करने वाले, निर्दयी, असत्यभाषी व्यक्तियों को भी आप
मनोवाञ्छित फल प्रदान करते हैं । इस प्रकार आप ने पुरुषकार
अर्थात् पौरुष की विशेषता को लुप्त कर दिया है । अर्थात्
आपकी अहैतुकी कृपा के कारण पुरुषकार अर्थात् मनुष्य के प्रयत्न
का कोई महत्त्व नहीं रह जाता ॥ २७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः - २८
कर्माणि वेदविहितानि सुखप्रदानि
प्रेत्यैति तत्फलमिदं फलमन्तवच्च ।
त्वच्छासने सुखमनन्तमशेषदोष-
प्लोषाय भक्तिविहितां प्रणतिं यदाहुः ॥ २८॥
मूलम् - २८
कर्माणि वेदविहितानि सुखप्रदानि
प्रेत्यैति तत्फलमिदं फलमन्तवच्च ।
त्वच्छासने सुखमनन्तमशेषदोष-
प्लोषाय भक्तिविहितां प्रणतिं यदाहुः ॥ २८॥
हिन्दी - २८
वेद-विहित कर्म सुखप्रद हैं, स्वर्ग देने वाले हैं, किन्तु यह
स्वर्ग का सुख मरने के बाद मिलता है और यह नश्वर भी है ।
आपकी शरण में आने पर तो अविनश्वर शाश्वत सुख
प्राप्त होता है, क्योंकि शास्त्रों में बताया गया है कि आपके प्रति
भक्तिपूर्वक की गयी प्रणति सभी प्रकार के दोषों को धो
देती है ॥ २८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः - २९
प्राकाम्यमात्मनि यदा प्रकटीकरोषि
व्यक्तीः प्रतिक्षणमनेकविद्या दधानः ।
त्वय्येव सोऽपि भगवन्! भजतेऽर्थवत्तां
प्रायो विदग्धरचितः क्षणभङ्गवादः ॥ २९॥
मूलम् - २९
प्राकाम्यमात्मनि यदा प्रकटीकरोषि
व्यक्तीः प्रतिक्षणमनेकविद्या दधानः ।
त्वय्येव सोऽपि भगवन्! भजतेऽर्थवत्तां
प्रायो विदग्धरचितः क्षणभङ्गवादः ॥ २९॥
हिन्दी - २९
हे भगवन्! प्रतिक्षण अनेक व्यक्तियों को अर्थात् अनेक रूपों को
धारण करने वाली अपनी प्राकाम्य शक्ति अर्थात् इच्छानुसार
रूप धारण करने वाली शक्ति को जब आप प्रकट करते हैं,
उस समय क्षणभंगवाद आप में ही सार्थक होता है । अर्थात्
क्षण-क्षण में जो आप रूप-परिवर्तन करते हैं, इससे
आप मे बौद्धों के क्षणभंगवाद की सार्थकता सिद्ध होती है ।
इस प्रकार यह क्षणभंगवाद प्रायः किसी चतुर व्यक्ति की
कल्पना मानी जानी चाहिये ॥ २९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः - ३०
यत्तीर्थिकैर्जगति जन्मभिरप्रमेयै-
र्नासाद्यते पदमिति स्वमतेषु गीतम् ।
बुद्ध्येकजन्मिकमिति ब्रुवतां विगृह्य
तेषां त्वया ननु कृतश्चरणः शिरस्सु ॥ ३०॥
मूलम् - ३०
यत्तीर्थिकैर्जगति जन्मभिरप्रमेयै-
र्नासाद्यते पदमिति स्वमतेषु गीतम् ।
बुद्ध्येकजन्मिकमिति ब्रुवतां विगृह्य
तेषां त्वया ननु कृतश्चरणः शिरस्सु ॥ ३०॥
हिन्दी - ३०
अनेक शास्त्रकारों ने अपने-अपने शास्त्रों में कहा है कि अनेक जन्मों
के अनन्तर भी परम पद की प्राप्ति नहीं होती । इस प्रकार कहने
वाले शास्त्रकारों के विरोध मे बल पूर्वक यह कहकर कि वह परम
पद तो एक ही जन्म में प्राप्त हो जाता है, आपने निश्चय ही उनके
मस्तक पर अपना चरण रखा है ॥ ३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः - ३१
लुब्धा मलीमसधियः समयादपेता
रागोपरक्तमनसो वशिनोऽप्यसन्तः ।
त्वच्छासने विहितलिङ्गपरिग्रहेण
मुच्यन्त इत्यतिमहांस्तव सिंहनादः ॥ ३१॥
मूलम् - ३१
लुब्धा मलीमसधियः समयादपेता
रागोपरक्तमनसो वशिनोऽप्यसन्तः ।
त्वच्छासने विहितलिङ्गपरिग्रहेण
मुच्यन्त इत्यतिमहांस्तव सिंहनादः ॥ ३१॥
हिन्दी - ३१
लोभी, मलिन बुद्धि वाले, मर्यादा से विमुख, कामनाओं के
दास, संयम से रहित, पायात्मा व्यक्ति भी शैवागम में विहित
लक्षणों के धारण करने से अवश्य ही इस संसार-चक्र से
मुक्त हो जाते हैं । यह आपका अति गम्भीर सिंहनाद है ॥ ३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः - ३२
अव्याहतस्य भगवन्! भवदागमस्य
चिन्तामणेरिव महानसमः प्रभावः ।
सम्यग् विधानविहितां यदवाप्य दीक्षां
ज्ञानादृतेऽपि खलु केवलतामुपैति ॥ ३२॥
मूलम् - ३२
अव्याहतस्य भगवन्! भवदागमस्य
चिन्तामणेरिव महानसमः प्रभावः ।
सम्यग् विधानविहितां यदवाप्य दीक्षां
ज्ञानादृतेऽपि खलु केवलतामुपैति ॥ ३२॥
हिन्दी - ३२
हे भगवन्! आपके द्वारा उपदिष्ट आगमशास्त्र अन्य शास्त्रों से
बाधित नहीं होता । चिन्तामणि के समान इसका महान् अद्भुत
प्रभाव यह है कि इस शास्त्र में उपदिष्ट विधान के अनुसार
समीचीन पद्धति से दीक्षा ग्रहण कर लेने पर व्यक्ति बिना
ज्ञान की अधिगति के ही मोक्ष प्राप्त कर लेता है । अभिप्राय
यह है कि उपनिषद्, गीता आदि में बताया गया है कि बिना ज्ञान
के मुक्ति नहीं होती, किन्तु शैवागम का यह अद्भुत सामर्थ्य
है कि बिना ही ज्ञान के शास्त्रानुमोदित दीक्षा के ग्रहण करने
मात्र से मनुष्य मुक्त हो जाता है ॥ ३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः - ३३
ज्ञानं तिरस्कृतमिदं पशुवासनाभि-
रास्तां यदात्मनि विमुक्तिफलस्य बीजम् ।
तद्वारिणेव भगवन्! भवदागमेन
सम्पादितं भवति मोक्षफलप्रसूत्यै ॥ ३३॥
मूलम् - ३३
ज्ञानं तिरस्कृतमिदं पशुवासनाभि-
रास्तां यदात्मनि विमुक्तिफलस्य बीजम् ।
तद्वारिणेव भगवन्! भवदागमेन
सम्पादितं भवति मोक्षफलप्रसूत्यै ॥ ३३॥
हिन्दी - ३३
हे भगवन्! आत्मा के मुक्ति रूप फल का कारण ज्ञान भले ही
पाशविक वासनाओं से तिरस्कृत कर दिया जाए, किन्तु बीज में
जल देने से जैसे वह बुद्धिशील होता हुआ फलवान् हो जाता है,
उसी प्रकार आपके द्वारा उपदिष्ट शैवागम में प्रदर्शित विधि
से पूर्णाभिषेक दीक्षा के जलाभिषेक से अभिषिक्त साधक
मोक्षरूपी फल के प्रसव का सामर्थ्य प्राप्त कर लेता है ।
अभिप्राय यह है कि आगमिक दीक्षा मोक्षप्रसविनी है ।
वहां ज्ञान की अपेक्षा या उपेक्षा का कोई महत्व नहीं है ॥ ३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः - ३४
जन्तौ यदा तव कदाचिदनुग्रहेच्छा
क्षीणाशये भवति जन्मभिरप्रमेयैः ।
संसारजालमतिवाह्य तदैव शान्ति-
मात्यन्तिकीं व्रजति बोधविवर्जितोऽपि ॥ ३४॥
मूलम् - ३४
जन्तौ यदा तव कदाचिदनुग्रहेच्छा
क्षीणाशये भवति जन्मभिरप्रमेयैः ।
संसारजालमतिवाह्य तदैव शान्ति-
मात्यन्तिकीं व्रजति बोधविवर्जितोऽपि ॥ ३४॥
हिन्दी - ३४
असंख्य जन्मों के बाद जब कभी प्राणी की वासनायें क्षीण हो
जाती हैं, तो उसके ऊपर कृपा करने की आपकी इच्छा होती है ।
उसके साथ ही वह संसार जाल को तोड़ कर आत्यन्तिक शान्ति
पा लेता है, चाहे उसे ज्ञान प्राप्त हो या न हो ॥ ३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः - ३५
एतच्चतुर्दशविधं भुवनं समस्तं
संसारमण्डलमवान्तरभेदभिन्नम् ।
त्वं पासि हंसि विदधासि यदृच्छयेति
मत्वा न लिप्यत इति प्रवदन्ति सन्तः ॥ ३५॥
मूलम् - ३५
एतच्चतुर्दशविधं भुवनं समस्तं
संसारमण्डलमवान्तरभेदभिन्नम् ।
त्वं पासि हंसि विदधासि यदृच्छयेति
मत्वा न लिप्यत इति प्रवदन्ति सन्तः ॥ ३५॥
हिन्दी - ३५
अवान्तर भेदों से युक्त, चतुर्दश भुवनमय इस सारे संसार
का आप पालन करते हैं, नाश करते हैं और निर्माण करते
हैं । यह सब आप स्वेच्छया अपनी स्वातन्त्र्य शक्ति की सहायता
से निर्लिप्त भाव से करते हैं । इसलिये शिष्ट जनों का यह
कहना ठीक ही है कि यह सब करने पर भी आप कभी इनमें
लिप्त नहीं होते ॥ ३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः - ३६
ऐश्वर्यमप्रतिहतं सहजो विराग-
स्तृप्तिर्निसर्गजनिता वशितेन्द्रियेषु ।
आत्यन्तिकं सुखमनावरणा च शक्ति-
र्ज्ञानं च सर्वविषयं भगवन्स्तवैव ॥ ३६॥
मूलम् - ३६
ऐश्वर्यमप्रतिहतं सहजो विराग-
स्तृप्तिर्निसर्गजनिता वशितेन्द्रियेषु ।
आत्यन्तिकं सुखमनावरणा च शक्ति-
र्ज्ञानं च सर्वविषयं भगवन्स्तवैव ॥ ३६॥
हिन्दी - ३६
हे भगवन्! अप्रतिहत ऐश्वर्य, सहज विराग, स्वाभाविक
तृप्ति, इन्द्रियों पर वशिता, सर्वातिशायी सुख, आवरण रहित
शक्ति और सर्वविषयक ज्ञान इन विशेषणों से युक्त ये गुण
केवल आप में ही हैं ॥ ३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः - ३७
यत्नादुपात्ततपसोऽपि हि यद् दुराप-
मात्यन्तिकं सुखमपास्तसमस्तदुःखम् ।
नीताः खरोष्ट्रतरवोऽपि यदित्यहो ते
स्वातन्त्र्यमप्रतिहतं भुवनत्रयेऽपि ॥ ३७॥
मूलम् - ३७
यत्नादुपात्ततपसोऽपि हि यद् दुराप-
मात्यन्तिकं सुखमपास्तसमस्तदुःखम् ।
नीताः खरोष्ट्रतरवोऽपि यदित्यहो ते
स्वातन्त्र्यमप्रतिहतं भुवनत्रयेऽपि ॥ ३७॥
हिन्दी - ३७
आपने गर्दभ, उष्ट्र और वृक्षों को भी उस पद पर पहुँचा
दिया, जहां पर दुःख का लवलेश भी नहीं है और जो आत्यन्तिक
सुख का स्थान है, जिसको यत्नपूर्वक तपस्या करने पर भी
नहीं पाया जा सकता । इसमे कोई आश्चर्य की बात भी नहीं है ।
यह तो तीनों भुवनों मे व्याप्त आपकी अप्रतिहत स्वातन्त्र्य शक्ति
का ही खेल है ॥ ३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः - ३८
येनामलस्फुरितरत्नशिखावितानो
हेमीकृतो निपतता सकलः सुमेरुः ।
तस्यातुलं फलमिदं तव शुक्रविन्दो-
रेकस्य यत्कनकभूषणमाप लोकः ॥ ३८॥
मूलम् - ३८
येनामलस्फुरितरत्नशिखावितानो
हेमीकृतो निपतता सकलः सुमेरुः ।
तस्यातुलं फलमिदं तव शुक्रविन्दो-
रेकस्य यत्कनकभूषणमाप लोकः ॥ ३८॥
हिन्दी - ३८
आपके शुक्र की एक बूंद का इतना अतुलनीय प्रभाव है कि जिसके
गिरने से निर्मल, चमकीले रत्नों की किरणों के प्रकाश से घिरा
हुआ सम्पूर्ण सुमेरु पर्वत सोने का हो गया । उसी का यह
सुफल है कि लोगों को सोने के आभूषण प्राप्त हो सके हैं ॥ ३८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः - ३९
कालेन सञ्चितमपुण्यमनन्तकल्पं
लोकत्रयस्य यदभूत् त्रिपुरप्रकारम् ।
दग्धं त्वया तदिति सम्यगवेत्य कस्य
मूढादृते भवति न त्वयि पक्षपातः ॥ ३९॥
मूलम् - ३९
कालेन सञ्चितमपुण्यमनन्तकल्पं
लोकत्रयस्य यदभूत् त्रिपुरप्रकारम् ।
दग्धं त्वया तदिति सम्यगवेत्य कस्य
मूढादृते भवति न त्वयि पक्षपातः ॥ ३९॥
हिन्दी - ३९
तीनों लोकों के अनन्त कल्पों के पाप-पुञ्ज के समान कालक्रम
से त्रिपुर के इकट्ठा होने पर आपने उसको भस्म कर दिया था ।
इस वृत्तान्त को जो ठीक से जानता है, मूढ को छोड-कर,
किस सहृदय व्यक्ति का आपकी तरफ पक्षपात नहीं होगा ॥ ३९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः - ४०
क्षीरोदसारमथनप्रतिलब्धजन्म
वित्रासितत्रिदशसंहतिकालकूटम् ।
निर्मत्सरेण पिबता जगतो हिताय
पीतस्त्वयैव सकलो ननु साधुवादः ॥ ४०॥
मूलम् - ४०
क्षीरोदसारमथनप्रतिलब्धजन्म
वित्रासितत्रिदशसंहतिकालकूटम् ।
निर्मत्सरेण पिबता जगतो हिताय
पीतस्त्वयैव सकलो ननु साधुवादः ॥ ४०॥
हिन्दी - ४०
क्षीर सागर के मथन से उत्पन्न कालकूट महाविष को, जिसने
देवताओं को भयभीत कर दिया था, केवल जगत् के कल्याण के
लिये निर्मत्सर भाव से आपने पी लिया था । यह सच ही है कि
इसके साथ ही सारे जगत् का साधुवाद भी आपको ही पीने को मिला ।
अभिप्राय यह है कि जब अन्य देवता गण समुद्र-मन्थन से
प्राप्त रत्नों की लूट-खसोट मे लगे थे तो उनके इस कार्य के प्रति
अपने मन मे बिना कोई ईर्ष्या रखे कालकूट विष के रूप में जगत्
के सामने आये भय का परिहार करने के लिये उद्यत होकर आपने
जगत् का साधुवाद प्राप्त किया ॥ ४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः - ४१
शान्तात्मनाऽपि भगवन्! भवता प्रसह्य
नेत्रोद्भवेन दहता दहनेन कामम् ।
अल्पीयसोऽपि महतां समतिक्रमस्य
मन्ये जनाय विषमः कथितो विपाकः ॥ ४१॥
मूलम् - ४१
शान्तात्मनाऽपि भगवन्! भवता प्रसह्य
नेत्रोद्भवेन दहता दहनेन कामम् ।
अल्पीयसोऽपि महतां समतिक्रमस्य
मन्ये जनाय विषमः कथितो विपाकः ॥ ४१॥
हिन्दी - ४१
हे भगवन्! अत्यन्त शान्त स्वभाव के होते हुए भी आपने कामदेव को
अपने तीसरे नेत्र से उत्पन्न अग्नि से बड़ी ही उग्रता से भस्म कर
दिया । ऐसा आपने इस लिये किया कि जन साधारण को यह शिक्षा
मिल जाय कि महान् व्यक्तियों की इच्छा के विरुद्ध किये गये छोटे
से अपराध का भी कितना भयङ्कर परिणाम हो सकता है ॥ ४१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः - ४२
स्नेहाद् विधाय दयितां वपुषोऽर्धभागे
धुर्यस्तथापि भगवन्! शमिनां त्वमेव ।
त्रैलोक्यविस्मयकृतां तव चेष्टिताना-
मद्यापि कश्चिदपि नानुकृतिं करोति ॥ ४२॥
मूलम् - ४२
स्नेहाद् विधाय दयितां वपुषोऽर्धभागे
धुर्यस्तथापि भगवन्! शमिनां त्वमेव ।
त्रैलोक्यविस्मयकृतां तव चेष्टिताना-
मद्यापि कश्चिदपि नानुकृतिं करोति ॥ ४२॥
हिन्दी - ४२
हे भगवन्! अपने शरीर के अर्धभाग में स्नेहवश प्रिया पार्वती
को स्थान देकर के भी आप ही विषयों से विरक्त तपस्वियों में
अग्रगण्य हैं । त्रिलोकी को आश्वर्य मे ड़ाल देने वाली आप की चेष्टाओं
की नकल करने वाला आज भी कोई दिखाई नहीं देता ॥ ४२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः - ४३
उच्चैस्तिरस्कृतमिदं भुवनं समस्तं
योगप्रभावजनितेन बलेन येन ।
तस्य प्रजापतिसुतस्य हृतः प्रसह्य
गर्वस्त्वयेति बत कस्य न विस्मयोऽत्र ॥ ४३॥
मूलम् - ४३
उच्चैस्तिरस्कृतमिदं भुवनं समस्तं
योगप्रभावजनितेन बलेन येन ।
तस्य प्रजापतिसुतस्य हृतः प्रसह्य
गर्वस्त्वयेति बत कस्य न विस्मयोऽत्र ॥ ४३॥
हिन्दी - ४३
अपने योग सामर्थ्य के द्वारा प्राप्त बल से देवर्षि नारद ने
समस्त विश्व का घोर तिरस्कार किया था । प्रजापति के
मानसपुत्र देवर्षि नारद के इस गर्व को भी आपने बल
पूर्वक दूर कर दिया । आपके इस सामर्थ्य पर किसको आश्चर्य
नहीं होगा ? ॥ ४३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः - ४४
अङ्गुष्ठकेन भवता विनिपीडितस्य
यस्यासवो न विगताः सहसा कथञ्चित् ।
यत्नात् स एव हरिणा विजितश्चिरेण
नीत्या दशानन इति क्व नु विस्मयोऽयम् ॥ ४४॥
मूलम् - ४४
अङ्गुष्ठकेन भवता विनिपीडितस्य
यस्यासवो न विगताः सहसा कथञ्चित् ।
यत्नात् स एव हरिणा विजितश्चिरेण
नीत्या दशानन इति क्व नु विस्मयोऽयम् ॥ ४४॥
हिन्दी - ४४
कैलास पर्वत को मात्र अंगूठे से आपने दबाया था । इतने से ही
रावण की यह दुर्दशा हो गई कि उसके प्राण एकाएक निकल नहीं
गये । उसी दशानन रावण को जीतने के लिये विष्णु के अवतार
भगवान् रामचन्द्र को राजनीति और प्रबल उद्योग का सहारा
लेने पर भी बहुत समय लग गया । इसमें विस्मय की कोई बात
नहीं है ॥ ४४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः - ४५
मन्दाकिनीकनकपङ्कजपारिजात-
पुष्पाधिवासितजला नभसः पतन्ती ।
लग्ना तुषारकणिकेव जटाग्रभागे
केनापरेण भवतेव धृताऽनुगृह्य ॥ ४५॥
मूलम् - ४५
मन्दाकिनीकनकपङ्कजपारिजात-
पुष्पाधिवासितजला नभसः पतन्ती ।
लग्ना तुषारकणिकेव जटाग्रभागे
केनापरेण भवतेव धृताऽनुगृह्य ॥ ४५॥
हिन्दी - ४५
स्वर्णमय कमल तथा पारिजात के फूलों की सुगन्धि से सुरभित
जलवाली, आकाश से पृथ्वी पर गिरती हुई गङ्गा अपनी जटा
के अग्रभाग में आपको पानी की फुहार के समान लग रही थी ।
इसको धारण करने की सामर्थ्य और किसमें थी ? यह आप का ही
अनुग्रह है कि लोक-कल्याण के लिये इसको आपने धारण किया ॥ ४५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः - ४६
आस्तां तवान्यदपि तावदतुल्यकक्ष्य-
मैश्वर्यमीश्वरपदस्य निमित्तभूतम् ।
त्वच्छेफसोऽपि भगवन्! न गतोऽवसानं
विष्णुः पितामहयुतः किमुतापरस्य ॥ ४६॥
मूलम् - ४६
आस्तां तवान्यदपि तावदतुल्यकक्ष्य-
मैश्वर्यमीश्वरपदस्य निमित्तभूतम् ।
त्वच्छेफसोऽपि भगवन्! न गतोऽवसानं
विष्णुः पितामहयुतः किमुतापरस्य ॥ ४६॥
हिन्दी - ४६
ईश्वर पद की प्रवृत्ति के मूलकारण, जिसकी कोई तुलना नहीं
हो सकती, ऐसे आपके अन्य ऐश्वर्य की बात को तो हम छोड देते
हैं । हे भगवन्! विष्णु और पितामह ब्रह्मा भी आपके लिङ्ग
का भी अन्त न पा सके । ऐसी परिस्थिति मे अन्य ऐश्वर्यों की तो
बात करना ही व्यर्थ है ॥ ४६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः - ४७
श्वेतस्य मृत्युदशनान्तरवर्तिनोऽपि
सूनापशोरिव वधावसरे स्थितस्य ।
प्राणान् निगृह्य भवता यदकारि तस्य
तत्कस्य विस्मयमलं न करोति लोके ॥ ४७॥
मूलम् - ४७
श्वेतस्य मृत्युदशनान्तरवर्तिनोऽपि
सूनापशोरिव वधावसरे स्थितस्य ।
प्राणान् निगृह्य भवता यदकारि तस्य
तत्कस्य विस्मयमलं न करोति लोके ॥ ४७॥
हिन्दी - ४७
मृत्यु के विकराल दाँतों के बीच पड़े हुए श्वेत ऋषि के, जो
कि कसाई के घर में काटने के लाये गये पशु की तरह मृत्यु की
पकड़ में थे, प्राणों की यम के क्रूर पाशों से आपने रक्षा की थी ।
इस बात को जान कर संसार के किस प्राणी को आश्चर्य नहीं होगा
॥ ४७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः - ४८
प्रीतेन यद्वदुपमन्युरपास्तमन्युः
क्षीरोदसंविभजनेन कृतस्त्वयाऽसौ ।
तद्वद्विभो! यदि जगत्यपरोऽस्ति कश्चि-
न्निर्मुच्य मत्सरममी प्रवदन्तु सन्तः ॥ ४८॥
मूलम् - ४८
प्रीतेन यद्वदुपमन्युरपास्तमन्युः
क्षीरोदसंविभजनेन कृतस्त्वयाऽसौ ।
तद्वद्विभो! यदि जगत्यपरोऽस्ति कश्चि-
न्निर्मुच्य मत्सरममी प्रवदन्तु सन्तः ॥ ४८॥
हिन्दी - ४८
हे विभो! आपने जिस प्रकार प्रसन्न होकर उपमन्यु ऋषि को
क्षीर समुद्र का दान कर दिया और इस प्रकार उनके क्रोध को
शान्त किया, इस प्रकार का उदार वर देने वाला जगत् में कोई दूसरा
है तो मत्सर का परित्याग कर सज्जन लोग उसे बतायेम् ॥ ४८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः - ४९
वृत्र-द्विषः स-कुलिशस्य भुजस्य शक्तिर्
उत्तम्भिता विहसता भवता यथैव ।
पूष्णस् तथैव दशनेषु भगस्य चाक्ष्णोर्
दक्षस्य च क्रतु-फले ममता निरस्ता ॥ ४९॥+++(5)+++
मूलम् - ४९
वृत्रद्विषः सकुलिशस्य भुजस्य शक्ति-
रुत्तम्भिता विहसता भवता यथैव ।
पूष्णस्तथैव दशनेषु भगस्य चाक्ष्णो-
र्दक्षस्य च क्रतुफले ममता निरस्ता ॥ ४९॥
हिन्दी - ४९
हे प्रभो! वृत्रासुर के शत्रु इन्द्र के वज्र की तथा उसकी भुजाओं
की शक्ति को आपने जिस प्रकार हंसते हंसते कुण्ठित कर दिया
था, वैसे ही पूषन् देवता के दातों को, भग देवता के आंखों को
और दक्ष की यज्ञ के फल की ममता को नष्ट कर दिया ॥ ४९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः - ५०
विष्णुप्रजापतिपुरन्दरलोकपालै-
स्तिर्यक्सुरासुरनरैरपरैश्च दिव्यैः ।
लोके यथा पशुपते! तव कल्पितानि
स्थानानि तद्वदपरस्य वदन्तु कस्य ॥ ५०॥
मूलम् - ५०
विष्णुप्रजापतिपुरन्दरलोकपालै-
स्तिर्यक्सुरासुरनरैरपरैश्च दिव्यैः ।
लोके यथा पशुपते! तव कल्पितानि
स्थानानि तद्वदपरस्य वदन्तु कस्य ॥ ५०॥
हिन्दी - ५०
हे पशुपते! विष्णु, प्रजापति, इन्द्र, लोकपाल, पशु-पक्षी,
देवदानव, मनुष्य एवं अन्य दिव्य योनि के जीवों ने इस लोक
में आपके लिये जिस प्रकार स्थानों की कल्पना की है, वैसी किस
दूसरे देवता के लिये हुई है, बतायेम् । अर्थात् शिव के अतिरिक्त
अन्य किसी दूसरे देवता के लिये इस प्रकार स्थानों की कल्पना की
गयी हो, ऐसा कहीं देखने को नहीं मिलता ॥ ५०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः - ५१
शक्रात्मजस्य निजशार्ङ्गरथाङ्गपाणौ
कृष्णे स्थितेऽपि शकलीकृतदानवेन्द्रे ।
द्रोणापगेयकृपकर्णभयार्दितस्य
शं शङ्कर त्वमकृथा भृशमर्जुनस्य ॥ ५१॥
मूलम् - ५१
शक्रात्मजस्य निजशार्ङ्गरथाङ्गपाणौ
कृष्णे स्थितेऽपि शकलीकृतदानवेन्द्रे ।
द्रोणापगेयकृपकर्णभयार्दितस्य
शं शङ्कर त्वमकृथा भृशमर्जुनस्य ॥ ५१॥
हिन्दी - ५१
हे कल्याणकारी शङ्कर! बड़े बड़े दानवों को टुकडा टुकडा कर देने
वाले, शार्ङ्ग धनुष और सुदर्शन चक्र को धारण करने वाले
श्री कृष्ण के अपने रक्षक के रूप मे विद्यमान रहने पर
भी द्रोणाचार्य, भीष्म पितामह, कृपाचार्य और कर्ण जैसे
महारथियों के भय से व्याकुल इन्द्रपुत्र अर्जुन को पाशुपतास्त्र
का दान कर आपने ही भय मुक्त कर सुखी किया था ॥ ५१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः - ५२
आराधितेन भगवन्! भवता हिरण्य-
वृष्टिं मरुत्तनृपतेः किरता यियक्षोः ।
ये ख्यापिता जगति भक्तजनप्रसादा-
स्तन्नाद्भुतं तव विभो! परमेश्वरत्वम् ॥ ५२॥
मूलम् - ५२
आराधितेन भगवन्! भवता हिरण्य-
वृष्टिं मरुत्तनृपतेः किरता यियक्षोः ।
ये ख्यापिता जगति भक्तजनप्रसादा-
स्तन्नाद्भुतं तव विभो! परमेश्वरत्वम् ॥ ५२॥
हिन्दी - ५२
हे भगवन्! बार बार यज्ञ करने वाले मरुत्त नामक राजा की
आराधना से प्रसन्न होकर आपने उसकी सहायता के लिये सुवर्ण
की वृष्टि की थी । इस प्रकार आपने संसार में भक्त जनों के
ऊपर अनुग्रह करने के अनेक उदाहरण प्रख्यापित किये हैं । आपके
सामर्थ्य को देखते हुए इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है ॥ ५२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः - ५३
तीव्रव्रतस्य कणधूमनिपानतप्त-
सर्वेन्द्रियस्य भवता भृगुनन्दनस्य ।
तुष्टेन शर्म यदकारि तदा स शुक्रः
शीतोष्णवातजलदैर्दिवि भासमानः ॥ ५३॥
मूलम् - ५३
तीव्रव्रतस्य कणधूमनिपानतप्त-
सर्वेन्द्रियस्य भवता भृगुनन्दनस्य ।
तुष्टेन शर्म यदकारि तदा स शुक्रः
शीतोष्णवातजलदैर्दिवि भासमानः ॥ ५३॥
हिन्दी - ५३
महर्षि भृगु के पुत्र शुक्राचार्य जब कठोर तपस्या कर
रहे थे, उस समय उनकी समस्त इन्द्रियां धूमकणों के पीने से तप
गई थी । उनकी इस तपस्या से सन्तुष्ट होकर आपने उनको आकाश
मे सर्दी, गर्मी, पवन और मेघ आदि की उपाधियों से निर्मुक्त
प्रकाशमय स्थान देकर सुखी कर दिया था ॥ ५३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः - ५४
एतानि पासि भुवनानि यदा विगृह्य
सेयं विभूतिरतुला तव तावदास्ताम् ।
दक्षप्रसूतिमपि ते भुवनत्रयेऽपि
कश्चिन्न वेत्ति भवता सह को विवादः ॥ ५४॥
मूलम् - ५४
एतानि पासि भुवनानि यदा विगृह्य
सेयं विभूतिरतुला तव तावदास्ताम् ।
दक्षप्रसूतिमपि ते भुवनत्रयेऽपि
कश्चिन्न वेत्ति भवता सह को विवादः ॥ ५४॥
हिन्दी - ५४
इन भुवनों के भीतर प्रवेश कर आप लोक-लोकान्तरों की रक्षा
करते हैं । आपकी इस अतुलनीय विभूति की चर्चा थोड़ी देर के
लिए छोड भी दी जाए । (सती के अर्द्धाङ्ग के रूप में) आपकी जो
दक्ष से उत्पत्ति है उसे तीनों लोकों में भी कोई नहीं जानता है ।
ऐसे में आपके साथ विवाद ही क्या ? ॥ ५४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः - ५५
उन्मार्गवर्ति गुण दोषविवेकमन्द-
मुग्रं मलीमसमसंयतमल्पसारम् ।
भीतार्तिनाशन दयापर लोकनाथ
देव प्रसीद मम चित्तमिदं प्रशाधि ॥ ५५॥
मूलम् - ५५
उन्मार्गवर्ति गुण दोषविवेकमन्द-
मुग्रं मलीमसमसंयतमल्पसारम् ।
भीतार्तिनाशन दयापर लोकनाथ
देव प्रसीद मम चित्तमिदं प्रशाधि ॥ ५५॥
हिन्दी - ५५
संसार सागर से डरे हुए व्यक्तियों की पीड़ा का शमन करने वाले,
दया परायण, त्रिभुवन के स्वामी हे देव! आप मुझ पर
प्रसन्न हों एवं मेरे मन को अनुशासित करें । मेरा यह
मन बुरे रास्ते में पड़ा हुआ है, गुण और दोष की परख
करने में कमजोर है, उग्र, कलुषित, अनियन्त्रित और
कल्पप्राण है ॥ ५५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः - ५६
एतानि नाथ! चपलानि दुराशयानि
लुब्धानि रम्यविषयोपनिबन्धनानि ।
दुर्दान्तवाजिसदृशान्यविधेभावाद्
वश्यानि मे कुरु सदैव षडिन्द्रियाणि ॥ ५६॥
मूलम् - ५६
एतानि नाथ! चपलानि दुराशयानि
लुब्धानि रम्यविषयोपनिबन्धनानि ।
दुर्दान्तवाजिसदृशान्यविधेभावाद्
वश्यानि मे कुरु सदैव षडिन्द्रियाणि ॥ ५६॥
हिन्दी - ५६
दुष्ट वासनाओं से भरी हुई, आपाततः रमणीय वैषयिक प्रपञ्चों
से बंधी हुई ये चंचल और लुब्ध इन्द्रियां मुझे प्राप्त हुई हैं ।
अविनयी होने के कारण ये इन्द्रियां दुष्ट घोड़े के
समान कुपथ में प्रवृत्त हैं । हे नाथ! पांच ज्ञानेन्द्रिय
और मन सहित इन छः इन्द्रियों को आप सदा के लिये मेरे वश
में कर दीजिये ॥ ५६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः - ५७
नन्दीश्वरस्य मनुजस्य सतोऽतिकष्टं
कालेन मृत्युमचिरेण निनीषितस्य ।
सर्वात्मनाऽऽत्मसमता यदकारि तुष्ट्या
नाश्चर्यमेतदभवन्न च भावि नास्ति ॥ ५७॥
मूलम् - ५७
नन्दीश्वरस्य मनुजस्य सतोऽतिकष्टं
कालेन मृत्युमचिरेण निनीषितस्य ।
सर्वात्मनाऽऽत्मसमता यदकारि तुष्ट्या
नाश्चर्यमेतदभवन्न च भावि नास्ति ॥ ५७॥
हिन्दी - ५७
नन्दीश्वर एक साधारण मानव थे । काल के पाश मे बंधे हुए
वह अतीव कष्टदायिनी मृत्यु के मुँह मे तुरन्त ही ले जाये जाने
वाले थे । उनके ऊपर प्रसन्न होकर आपने सब प्रकार से उनको
अपने समान बना दिया । यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है और
ऐसा भी नहीं है कि इस प्रकार का आश्चर्य फिर कभी नहीं
होगा ॥ ५७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः - ५८
संसारपाशवशमेतदनीशमीश!
मिथ्याकुतर्कतिमिरोपहतप्रकाशम् ।
चेतो मम क्षपितमन्मथ! दग्धकाल !
सत्सेविते पथि नियोजय देवदेव! ॥ ५८॥
मूलम् - ५८
संसारपाशवशमेतदनीशमीश!
मिथ्याकुतर्कतिमिरोपहतप्रकाशम् ।
चेतो मम क्षपितमन्मथ! दग्धकाल !
सत्सेविते पथि नियोजय देवदेव! ॥ ५८॥
हिन्दी - ५८
कामदेव और काल को भी भस्म कर देने वाले, हे देवताओं के
अधिपति! मेरा मन सांसारिक पाशों मे बंधा हुआ असहाय पड़ा
है । भ्रमोत्पादक कुतर्क रूपी अन्धकार से आवृत रहने के कारण
ज्ञान का प्रकाश इसके पास नहीं पहुँच पाता । अतः हे नाथ!
इसको आप साधु जनों के द्वारा अनुसेवित मार्ग में लगाइये ॥ ५८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः - ५९
कायानुबन्धिभिरनेकविधैरपायै
रागादिभिश्च मनसि प्रतिलब्धभावैः ।
मूढः पृथक् पृथगहं प्रविलुप्यमान-
स्त्वत्तः परं कथय कं शरणं व्रजामि ॥ ५९॥
मूलम् - ५९
कायानुबन्धिभिरनेकविधैरपायै
रागादिभिश्च मनसि प्रतिलब्धभावैः ।
मूढः पृथक् पृथगहं प्रविलुप्यमान-
स्त्वत्तः परं कथय कं शरणं व्रजामि ॥ ५९॥
हिन्दी - ५९
ज्वर, अतीसार आदि नाना प्रकार के रोगों से मेरा शरीर घिरा
रहता है और रागद्वेष आदि दोष मेरे मन को सदा घेरे रहते
हैं । इस प्रकार कभी शारीरिक और कभी मानसिक दोषों से घिरी
मूढ़ता के कारण मेरा स्वरूप लुप्त हो गया है । ऐसी अवस्था में
बताइये नाथ! आप के सिवाय मैं किसकी शरण मे जाऊँ ॥ ५९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः - ६०
आयासकेन खलु कामपिशाचकेन
क्रोधग्रहेण च पुनर्निरवग्रहेण ।
ग्रस्तस्य विक्लवधियः प्रविमुक्तिहेतो-
र्यत्कृत्यमत्र मम तत्र तवैव शक्तिः ॥ ६०॥
मूलम् - ६०
आयासकेन खलु कामपिशाचकेन
क्रोधग्रहेण च पुनर्निरवग्रहेण ।
ग्रस्तस्य विक्लवधियः प्रविमुक्तिहेतो-
र्यत्कृत्यमत्र मम तत्र तवैव शक्तिः ॥ ६०॥
हिन्दी - ६०
पीड़ा पहुँचाने वाले काम रूपी पिशाच से और अनियन्त्रित क्रोध
रूपी ग्रह से ग्रस्त रहने के कारण मेरी बुद्धि कुण्ठित हो गयी है ।
इस लिये मुक्ति की प्राप्ति के लिये मुझे जो कुछ करना चाहिये,
उसमें केवल आपकी शक्ति ही सहायक हो सकती है ॥ ६०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः - ६१
या सा जगत्परिभवस्य निमित्तभूता
हेतुः स्वयं सुरपतेरपि लाघवस्य ।
सा मां विडम्बयति नाथ! सदैव तृष्णां
भिन्धि प्रसह्य भगवन्नपुनर्भवाय ॥ ६१॥
मूलम् - ६१
या सा जगत्परिभवस्य निमित्तभूता
हेतुः स्वयं सुरपतेरपि लाघवस्य ।
सा मां विडम्बयति नाथ! सदैव तृष्णां
भिन्धि प्रसह्य भगवन्नपुनर्भवाय ॥ ६१॥
हिन्दी - ६१
हे नाथ! जो विश्व के सारे पराभवों की मूल कारण है, जो स्वयं
देवराज इन्द्र की भी लघुता (क्षुद्रता) का कारण बनती है, वह
तृष्णा मुझे सदा विड़म्बना में ड़ाले रहती है । हे भगवन्! आप
दृढतापूर्वक मेरी उस तृष्णा को छिन्न-भिन्न कर दीजिये,
जिससे मेरा पुनर्जन्म न हो ॥ ६१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः - ६२
येनावृतः पशुरयं हृतबोधशक्ति-
स्तत्त्वं न वेत्ति जगते हितमात्मने वा ।
छिन्धि प्रसह्य भगवन्! मम तत्समस्त-
मज्ञानजं तिमिरमस्तु महान् प्रकाशः ॥ ६२॥
मूलम् - ६२
येनावृतः पशुरयं हृतबोधशक्ति-
स्तत्त्वं न वेत्ति जगते हितमात्मने वा ।
छिन्धि प्रसह्य भगवन्! मम तत्समस्त-
मज्ञानजं तिमिरमस्तु महान् प्रकाशः ॥ ६२॥
हिन्दी - ६२
जिस अज्ञान से आच्छादित रहने के कारण पशु सदृश यह
जीव अपनी ज्ञान शक्ति गंवा बैठता है और इस प्रकार विश्व
के अथवा अपने कल्याण के परमार्थ कारण को नहीं जाना पाता ।
हे भगवन्! आप मेरे उस समस्त अज्ञानजन्य अन्धकार को
बलपूर्वक छिन्न-भिन्न कर दीजिये, परिणाम-स्वरूप महान्
ज्ञानमय आलोक चारों तरफ फैल जाए ॥ ६२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः - ६३
सर्वापदां निलयमध्रुवमस्वतन्त्र-
मासन्नपातमविवेकमसारमज्ञम् ।
यावच्छरीरकमिदं न विपद्यते मे
तावन्नियोजय विभो! कुशलक्रियासु ॥ ६३॥
मूलम् - ६३
सर्वापदां निलयमध्रुवमस्वतन्त्र-
मासन्नपातमविवेकमसारमज्ञम् ।
यावच्छरीरकमिदं न विपद्यते मे
तावन्नियोजय विभो! कुशलक्रियासु ॥ ६३॥
हिन्दी - ६३
हे विभो! सभी विपदाओं का आश्रय-स्थल, अस्थिर, परतन्त्र,
पतनोन्मुख, विवेकशून्य, सारहीन और मूढता से भरा मेरा
यह क्षुद्र शरीर जब तक विपत्ति-ग्रस्त नहीं हो जाता,
उससे पहले ही आप इसे पुण्य कर्मों की ओर प्रवृत्त कर देम् ॥ ६३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः - ६४
यत् खिद्यते कमलयोनिरपि स्तुवानः
साक्षाच्चतुर्भिरपि नाम मुखैर्भवन्तम् ।
तत् के वयं तव गुणस्तवनक्रियासु
भक्तिः प्रमाणमिति सर्वमिदं क्षमस्व ॥ ६४॥
मूलम् - ६४
यत् खिद्यते कमलयोनिरपि स्तुवानः
साक्षाच्चतुर्भिरपि नाम मुखैर्भवन्तम् ।
तत् के वयं तव गुणस्तवनक्रियासु
भक्तिः प्रमाणमिति सर्वमिदं क्षमस्व ॥ ६४॥
हिन्दी - ६४
नाभिकमल से उत्पन्न स्वयं ब्रह्मा भी अपने चारों मुखों से
आपकी स्तुति करते हुए जब थक जाते हैं तो ऐसी स्थिति में
आपकी गुणगरिमा का वर्णन करने में हम लोग कहाँ तक समर्थ
होगें ? इस कार्य में केवल आपकी भक्ति ही प्रमाण हो सकती है,
अतः इस सम्पूर्ण वाचालता के लिये आप हमें क्षमा करें ॥ ६४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः - ६५
कृत्वा मया तव नुतिं जगदेकबन्धो!
भक्त्या स्वबुद्धिसदृशीमवधूतनाम्ना ।
पुण्यं यदल्पमपि किञ्चिदुपात्तमत्र
लोकस्य तेन भगवन्स्त्वयि भक्तिरस्तु ॥
मूलम् - ६५
कृत्वा मया तव नुतिं जगदेकबन्धो!
भक्त्या स्वबुद्धिसदृशीमवधूतनाम्ना ।
पुण्यं यदल्पमपि किञ्चिदुपात्तमत्र
लोकस्य तेन भगवन्स्त्वयि भक्तिरस्तु ॥
हिन्दी - ६५
हे भगवन्! आप इस संसार के एकमात्र बन्धु हैं । अवधूत
नामधारी इस व्यक्ति ने भक्तिपूर्वक अपनी बुद्धि के अनुसार
आपकी स्तुति करके जो कुछ थोडा सा भी पुण्य प्राप्त किया है,
उसके फलस्वरूप आपके प्रति जनता की भक्ति जागे (यही मेरी
कामना है) ॥ ६५॥
इति श्रीमदवधूतसिद्धविरचितं भक्तिस्तोत्रं समाप्तम् ।